Saturday, December 22, 2012

दबंग-2


फिल्म समीक्षा

गदर मचाने आयी ‘दबंग-2‘

धीरेन्द्र अस्थाना

अगर पर्दे पर सलमान खान के एंट्री लेते ही मुंबई जैसे महानगर के दर्शक भी सीटियां बजाने लगते हैं तो अनुमान लगाया जा सकता है कि देश के बाकी शहरों में क्या होता होगा। सलमान खान की लोकप्रियता का आलम गजब का है। उनकी एंग्रीमैन की छवि गदर मचा देती है। ‘दबंग‘ की तरह ‘दबंग-2‘ भी हिट है। फर्क इतना है कि ‘दबंग‘ के निर्देशक अभिनव कश्यप थे जिन्होंने मसालों को कहानी पर हावी नहीं होने दिया था। ‘दबंग-2‘ के निर्देशक सलमान के अपने भाई अरबाज खान हैं जिन्होंने मसाले कुछ ज्यादा मिला दिए हैं जिस कारण फिल्म की कहानी थोड़ा दब गयी है। लेकिन तो भी ‘दबंग-2‘ हुड़ हुड़ दबंग है जिसे देखने का अपना मजा है। दर्शकों ने बहुत डूबकर फिल्म को देखा भी और एंजॉय भी किया। पिछली बार खलनायक सोनू सूद थे, इस बार प्रकाश राज हैं, दक्षिण के स्टार खलनायक, जो बहुत तेजी से हिंदी सिनेमा में भी अपनी मजबूत जगह बना रहे हैं। पिछली बार की प्रेमिका सोनाक्षी सिन्हा इस बार सलमान की पत्नी के रोल में हैं। चुलबुल पांडे इस बार भी अपने पुराने अंदाज में हैं बल्कि कह सकते हैं कि पहले से ज्यादा आक्रामक तेवर में। प्रकाश राज के गुंडे भाई की भूमिका में प्रतिभाशाली युवा एक्टर दीपक डोबरियाल हैं जिन्हें कुछ ज्यादा ही खतरनाक डायलॉग बोलता देख सलमान का सहयोगी एक सिपाही बोलता है- पर्सनालिटी को देखते हुए यह कुछ ज्यादा नहीं बोल रहा है। ऐसा बुलाकर दीपक की कद-काठी को जस्टीफाई किया गया है लेकिन खुद दीपक को तय करना है कि अगर उन्हें आगे चल कर ऐसे ही रोल करने हैं तो अपना जिस्म ज्यादा बलशाली और चेहरा रौद्र करना होगा। इस बार मलाईका अरोड़ा खान के अलावा करीना कपूर का आइटम डांस ‘फेवीकोल‘ भी रखा गया है जिसमें करीना ने बोल्डनेस की एक नयी ऊंचाई दिखा दी है। दर्शक इस आइटम नंबर पर सीटियां बजा रहे थे। ज्यादा तो नहीं मगर थोड़ी बहुत कॉमेडी भी जगह-जगह रखी गयी है जो गुदगुदाती है। फिल्म के क्लाईमेक्स में जब सलमान खान एक-एक कर प्रकाश राज के गुंडों का सफाया करते हैं तो दर्शक इन स्टंट दृश्यों को सांस रोक कर देखते हैं। ‘फेवीकोल‘ की तरह ‘पांडे जी सीटी बजाएं‘ गाना भी पहले ही लोकप्रिय हो चुका है। बढ़िया टाइमपास फिल्म है। 

निर्देशक: अरबाज खान
कलाकार: सलमान खान, सोनाक्षी सिन्हा, अरबाज खान, प्रकाश राज, विनोद खन्ना, दीपक  डोबरियाल, करीना और मलाईका।
संगीत: साजिद-वाजिद

Monday, December 17, 2012

खिलाड़ी 786


फिल्म समीक्षा

खिचड़ी मसालेदार उर्फ ‘खिलाड़ी 786‘

धीरेन्द्र अस्थाना



पहले ही बता दें कि अक्षय कुमार की नयी फिल्म ‘खिलाड़ी 786‘ से कुछ बड़ी उम्मीदें न लगायें। यह उस जोनर की फिल्म है जो ‘लार्ज द दैन लाइफ‘ वाले सिद्धांत का सहारा लेकर केवल जनता का मनोरंजन करने के लिए बनायी जाती है। वह  यह फिल्म भी शुद्ध रूप से एक एंटर टेनर फिल्म है, जिसे एक्शन, इमोशन, कॉमेडी का तड़का लगाकर एक मसालेदार खिचड़ी की तरह बनाया गया है। फिल्म पूरी तरह दर्शकों को अपने साथ बांधे रखने में सफल हुई है। इसका प्रमाण यह है कि पूरी फिल्म में या तो दर्शक जब तक हंसते नजर आते हैं या फिर सांस रोककर अक्षय कुमार की हैरतअंगेज मारधाड़ का मजा लेते हैं। कुछ पुरानी फिल्मों की तरह इस फिल्म में भी बचपन में बिछड़े दो भाइयों को मिला देने का फामरूला फिल्म के क्लाइमेक्स में डाला गया है। अक्षय कुमार एक फौलादी किस्म का जांबाज लड़ाका है जो पुलिस की वर्दी पहनकर तस्करी करने वालों के ट्रक जब्त करता है और पुलिस को सौंप देता है। बदले में उसे मोटा इनाम मिलता है। उसकी जिंदगी में एक दुख है कि अनेक प्रयासों के बाद भी उसका विवाह नहीं हो पा रहा है। इस कथा के सामने मिथुन चक्रवर्ती की दुनिया रची गयी है। मिथुन एक डॉन है, जिसका एक ही सपना है कि उसकी बहन असिन की शादी किसी इज्जतदार, शरीफ बहन लड़के के साथ हो जाए। असिन एक दबंग और जिद्दी लड़की है जो एक गुंडे से प्यार करती है। असिन और अक्षय की शादी कराने का काम संयोग से हिमेश रेशमिया की झोली में आ गिरता है। हिमेश को उसके पिता ने घर से निकाल दिया है क्योंकि पिता जो भी शादी कराते हैं, उसमें हिमेश कोई बाधा खड़ी कर देता है। घर से निकले हिमेश की एक मात्र इच्छा एक अदद शादी कराने की है। यह तीसरी कथा है। चौथी और मूल कथा इन तीनों कथाओं के मिल जाने से बनती है यानी ‘खिलाड़ी 786‘ नाम की फिल्म। भले ही रोमांटिक रोल वाले हिमेश को दर्शकों ने खास पसंद नहीं किया लेकिन इस फिल्म में थोड़ी बहुत कॉमेडी करके उन्होंने अभिनय में अपनी जगह बनाने की सफल कोशिश की है। फिल्म की कहानी भी उन्हीं की है और संगीत भी। और ‘बावरिया‘ वाला गाना अपने अलग अंदाज के चलते पहले ही ‘टॉप टेन‘ गीतों में अपनी जगह बना चुका है। असिन के पास ज्यादा करने को कुछ था नहीं तो भी एक बिगडै़ल और गुस्सैल चरित्र को उन्होंने बखूबी किया है। फिल्म के अंत में काफी मारधाड़ के बाद अक्षय-असिन की शादी हो जाती है और सबके सपने पूरे हो जाते हैं। मनोरंजन फिल्म है। बोर हो रहे हैं तो फिल्म देख जाएं। 

निर्देशक: आशीष आर. मोहन
कलाकार: अक्षय कुमार, असिन, हिमेश रेशमिया, मिथुन चक्रवर्ती, राज बब्बर, जॉनी लीवर, संजय मिश्रा
संगीत: हिमेश रेशमिया

Saturday, December 1, 2012

तलाश


फिल्म समीक्षा

आत्माओं तक ले जाती है ‘तलाश‘

धीरेन्द्र अस्थाना

यह आमिर खान की ही फिल्म है। वह इस ‘तलाश‘ के न सिर्फ हीरो हैं बल्कि एक प्रोड्यूसर भी हैं। इसकी निर्देशिका रीमा कागती हैं और फिल्म बनने के दौरान रीमा से आमिर के कुछ रचनात्मक मतभेद भी हुए थे। फिल्म देखने के दौरान कुछ कुछ अंदाजा हो जाता है कि मिस्टर परफैक्शनिस्ट निर्देशिका से क्यों असहमत हुए होंगे। असल में यह उस तरह की फिल्म नहीं है जिस तरह की फिल्में आमिर खान की होती है। फिर चाहे निर्देशक कोई भी हो। यह नये समय में खड़ी हुई आधुनिक अंदाज और समकालीन मुहावरे वाली वैसी फिल्म है, जैसी पुराने जमाने ‘वह कौन थी‘ या ‘महल‘ या ‘कोहरा‘। रामगोपाल वर्मा की ‘भूत‘ से थोड़ा अलग लेकिन आत्माओं के अस्तित्व पर जिरह करने वाली भी और उनके अस्तित्व में आस्था व्यक्त करने वाली भी। फिल्म का कथानक उजागर नहीं करेंगे क्योंकि इससे इस सस्पेंस फिल्म का सस्पेंस ही गायब हो जाएगा। सब के सब जमे हुए कलाकार हैं इसलिए अभिनय के मोर्चे पर फिल्म लाजवाब है। ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर‘ से चर्चित नवाजुद्दीन ने वेश्याओं की गली में काम करते लंगड़े लेकिन चालबाज टपोरी के रूप में शानदार काम किया है। इस लड़के में आग है। यह बहुत दूर तक जाने वाला है। फिल्म की पटकथा बेहद कसी हुई है। दर्शक एक पल के लिए भी उलझता या ऊबता नहीं है। फिल्म के साठ फीसदी हिस्से में रानी मुखर्जी छायी रहती हैं लेकिन बाकी के चालीस फीसदी में करीना कपूर भी अपना करिश्मा करती नजर आती हैं। फिल्म की सबसे बड़ी खूबी उसका सस्पेंस हैं। फिल्म शुरू होते ही एक कार एक्सीडेंट में जिस फिल्मी हीरो की मौत होती है उसका लगभग अंत तक पता नहीं चलता कि ऐसा अजीबोगरीब एक्सीडेंट हुआ कैसे? वह तो अंत में उसी जगह, हुबहू उसी तरह आमिर की जीप दुर्घटनाग्रस्त होती है तब यह रहस्य उजागर होता है कि माजरा क्या है? इस माजरे तक पहुंचने के लिए जो यात्रा की गयी है वह निहायत दिलचस्प और सनसनीखेज है। फिल्म में गाने हैं लेकिन जवान पर चढ़ने वाले नहीं हैं। संगीत के स्तर पर फिल्म सामान्य ही है। फिल्म के अंत में आमिर खान की तलाश पूरी हो जाती है जब उन्हें अपने मृत बेटे करण की एक चिट्ठी द्वारा उस ‘गिल्ट‘ से मुक्ति मिल जाती है जिसे लेकर वह जी रहे थे। बेटे की दुर्घटना के समय अपनी जिम्मेदारी ठीक से निभा नहीं सकने का अपराध बोध आमिर ने बेहद मार्मिक ढंग से लिया है। फिल्म देख लें। 

निर्देशक: रीमा कागती
कलाकार: आमिर खान, रानी मुखर्जी, करीना कपूर, नवाजुद्दीन सिद्दीकी
संगीत: राम संपत

Wednesday, November 21, 2012

जब तक है जान


फिल्म समीक्षा

यश चोपड़ा का आखिरी रोमांस: जब तक है जान 

धीरेन्द्र अस्थाना

शाहरुख खान को लेकर यश चोपड़ा सन् 2004 में बेहद संवेदनशील और मर्मस्पर्शी फिल्म ‘वीर जारा‘ लेकर आए थे। फिर लंबे समय तक वह मौन रहे। आठ वर्ष बाद 2012 में वह शाहरुख खान को ही लेकर फिल्म ‘जब तक है जान‘ लेकर आए। अपने अस्सीवें जन्मदिन 27 सितंबर 2012 को हुए एक समारोह में यश जी ने घोषणा की थी कि यह उनके निर्देशन की अंतिम फिल्म है। तब किसे पता था कि इस घोषणा के कुछ ही दिनों बाद यानी 21 अक्टूबर 2012 को यश जी इस दुनिया से विदा ले लेंगे। दुखद बात यह है कि अपनी अंतिम फिल्म को यश जी रिलीज होते हुए नहीं देख पाए। बहरहाल ‘जब तक है जान‘ यश जी का अपने अंदाज में रचा गया आखिरी रोमांस है जो दर्शकों को शाहरुख खान की इमोशनल और अनुष्का शर्मा की खिलंदड़ी अभिव्यक्ति के लिए याद रहेगा। यश जी रोमांस के बादशाह कहे जाते थे। वह अपनी हर फिल्म में प्रेम में का कोई नया ही अंदाज लेकर आते थे। लेकिन इस फिल्म में वह कोई नयी कहानी नहीं कह पाए। हालांकि फिल्म टुकड़ों में बहुत अच्छी है और दिल को छू लेने में कामयाब है। लेकिन कुल मिलाकर फिल्म बोझिल और लंबी हो गयी है। उस पर शाहरुख खान का दो-दो बार हुआ एक्सीडेंट तथा याददाश्त का आना-जाना पुराने फार्मूलों की याद दिलाता है। कैटरीना कैफ ने शाहरुख खान के साथ जो डांस किया है वह लाजवाब है और उसी के लिए कैटरीना को याद भी रखा जाएगा। अभिनय के मामले में इस बार वह पिछड़ गई हैं। अनुष्का का दिलकश और खिलंदड़ा अभिनय फिल्म की यू एस पी है। वह फिल्म के प्रेम त्रिकोण का तीसरा कोण बनकर उभरती हैं और दर्शकों की सहानुभूति बटोर ले जाती हैं। फिल्म के एक दृश्य में वह हंसी और भावुकता के मिले-जुले अंदाज में शाहरुख खान से कहती हैं, ‘मेरी जेनरेशन में तो मुझे तुम्हारे जैसा लवर कोई मिलेगा नहीं और मैं पड़ गई हूं तुम्हारे प्यार में। तुम हो कि मुझसे प्यार करोगे नहीं। क्योंकि तुम तो मीरा (कैटरीना) के इंतजार में रुके हुए हो। तो अपनी तो लग गई बॉस।‘ यह छोटा सा दृश्य और इसकी भावाभिव्यक्ति इतनी भावप्रवण थी कि दर्शक अपनी आंख पोछ रहे थे। इंडियन आर्मी के बम निरोधक दस्ते के मुखिया के रफ-टफ किरदार में शाहरुख ने ज्यादा प्रभावित किया बजाय कैटरीना के प्रेमी के किरदार के। कैटरीना एक एनआरआई लड़की हैं। शाहरुख फिल्म के पहले हाफ में लंदन में कायदे का रोजगार ढूंढ़ रहे युवक और अंतिम हाफ में आर्मी ऑफिसर। अनुष्का हैं डिस्कवरी चैनल के लिए रोमांचक फिल्में बनाने वाली जांबाज और बिंदास निर्देशिका। जो शाहरुख पर फिल्म बनाने के दौरान उनसे टकराती है और उनके प्यार में पड़ जाती है। यश जी की इस आखिरी प्रेम कहानी को देख लेना चाहिए। 

निर्देशक: यश चोपड़ा
कलाकार: शाहरुख खान, कैटरीना कैफ, अनुष्का शर्मा, ऋषि कपूर, नीतू सिंह, अनुपम खेर।
गीत: गुलजार
संगीत: ए आर रहमान

लव शव ते चिकन खुराना


फिल्म समीक्षा

तड़केदार लव शव ते चिकन खुराना

धीरेन्द्र अस्थाना

जिस फिल्म में बतौर प्रोडय़ूसर या डायरेक्टर अनुराग कश्यप का नाम जुड़ा हो इसका अच्छा होना लाजिमी है। इसलिये बहुत उम्मीद के साथ यह फिल्म देखनी शुरू की थी। उम्मीद टूटी भी नहीं। कथा पटकथा, संवाद संपादन-संगीत- अभिनय-बैक ड्राप हर मोर्चे पर ‘लव शव ते चिकन खुराना‘ एक बेहतरीन अनुभव से गुजरती है। एक ताजा अनुभव दिलचस्प भी अर्थपूर्ण भी है। बिना स्टाकर कास्ट और बड़े वजट की हुए बिना एक मनोरंजक फिल्म जो अपने पंजाबी तड़के की वजह से चटपटी भी लगती है। कहानी बहुत साधारण सी लेकिन उत्सुकता से भरी हुई है। और माहौल एकदम घरेलू। पंजाब के किसी गली मोहल्ले में घटती कोई साझा परिवार की उथल पुथल भरी वास्तविकता जिंदगी जैसी। यहां सिनेमा का जादुई यथार्थवाद नहीं यथार्थवाद पर खड़ा जादुई सिनेमा है। जो सिर चढ़कर बोलता है। इस पर कुणाल कपूर और हुमा कुरैशी का महज और जीवंत अभिनय। कहानी अनुराग कश्यप वाले अंदाज में घटती हुई- फ्लैशबैक में आवाजाही। निदेॅशक भले ही समीर शर्मा हैं लेकिन कहानी कहने का अंदाज अनुराग वाला ही है। कुछ बनने का सपना लेकर कुणाल घर से पैसे चुराकर लंदन भाग जाता है। लंदन में असफल हो कर पूरे दस साल बाद पंजाब के अपने गांव आता है। लंदन के एक गैंगस्टर का चालीस हजार पाउंड का कर्जदार होकर। गांव आकर यह पता चलता है किदादा जी की याददाश्त जा चुकी है। और उनका खाने का ढाबा बंद पड़ गया है। दादा जी जो मशहूर चिकन खुराना बनाते थे और जिसके दम पर ढाबा सोना उगलता था इस चिकन खुराना का नुस्खा किसी को पता ही नहीं था। फिर दादा जी मर जाते हैं और विरासत में बंद ढाबा कुणाल के नाम कर गये हैं। कुणाल अपनी बचपन की दोस्त हुमा कीमदद से चिकन बनाने की कोशिश करता है लेकिन सफल नहीं हो पाता। एक दिन उसे दादा जी के दवाई के डिब्बे में से वह मसाला मिल जाता है जिससे चिकन खुराना बनता था। क्या था वह मसाला और कैसे पूरी फिल्म एकखुशनुमा मोड़ पर आकर विराम लेती है, यह जानने के लिये फिल्म देख आइये, मजा आयेगा। किरदारों से भरी हुई है फिल्म लेकिन हर चरित्र अपनी छाप छोड़ता है। अमित त्रिवेदी का संगीत सुंदर है। 

निर्देशक: समीर शर्मा
कलाकार: कुणाल कपूर, हुमा कुरेशी, राजेश शर्मा, विनोद नागपाल, डॉली अहलूवालिया, राहुल बग्गा, अनंगशा विस्वास।
संगीत: अमित त्रिवेदी।

चक्रव्यूह


फिल्म समीक्षा

सत्ता और क्रांति का:चक्रव्यूह‘

धीरेन्द्र अस्थाना

एक ऐसे समय में जब नक्सलवाद का नाम लेना भी एलानिया तौर पर रिस्की हो गया है, प्रकाश झा नक्सलवाद पर पूरा विमर्श और एक्शन लेकर ही आ गये हैं। दर्शकों और आलोचकों को कम से कम इस मायने में प्रकाश झा को सलाम करना चाहिए कि उन्होंने सत्ता के दमन के विरुद्ध जनता के लामबंद संघर्ष को व्याख्यायित और रेखांकित करने का साहस दिखाया। माना कि आम तौर पर अर्थपूर्ण सिनेमा बनाने वाले प्रकाश झा बाजार की मांग भी पूरी कर देते हैं तो भी यह क्या कम है कि वह मनोरंजन की आंधी में विचार का दीपक जलाये रखते हैं। ‘चक्रव्यूह‘ उन्होंने बहुत संभल कर बनायी है। नक्सलवाद जैसी समस्या पर फिल्म बनाने के दो खतरे हैं। आप किसी एक तरफ गिर सकते हैं। एक तरफ सत्ता, दूसरी तरफ सत्ता के विरुद्ध चलने वाला हथियार बंद आंदोलन। फिसलने का जोखिम साठ प्रतिशत। मगर प्रकाश झा दोनों अतिरेकों से खुद को बचा लेते हैं और समस्या को विमर्श में बदल देते हैं। वह सब कुछ देखने वाले पर छोड़ देते हैं। अब चक्रव्यूह में केवल दर्शक है, वह भी निहत्था और अकेले। लगभग सभी कलाकारों से प्रकाश झा ने बेहद बढ़िया ढंग से काम लिया है लेकिन नयी अभिनेत्री अंजलि पाटिल से तो उसका सर्वश्रेष्ठ निकलवा लिया है। एक आक्रामक लेकिन संवेदनशील नक्सली लीडर के अपने किरदार को अंजलि ने ऊंचाई पर पहुंचा दिया है। मनोज बाजपेयी को पहचान भले ही रामगोपाल वर्मा ने दिलायी हो लेकिन उन्हें अब केवल प्रकाश झा की फिल्में ही करनी चाहिए। प्रकाश झा उन्हें वह हैसियत दे रहे हैं, जिसकी उन्हें जरूरत भी है और दरकार भी। अपने पुलिसिया काम को समर्पित लेकिन बार-बार सत्ता के दखल से बेचैन अर्जुन राम पाल भी अपने किरदार में जमते हैं मगर फिल्म का सबसे सशक्त चरित्र है अभय देओल का। अपने दोस्त अर्जुन की मदद करने के लिए वह नक्सलियों के दल में सेंध लगाता है लेकिन उनकी विचारधारा और संघर्ष को देख उन्हीं के बीच का हो कर रह जाता है। फिल्म सत्ता और पूंजी की दुरभिसंधि को भी बेनकाब करती है। अंत में प्रकाश झा कोई निष्कर्ष नहीं देते हैं। वह विचार को खुला छोड़ देते हैं। यह आपको तय करना है कि आप चक्रव्यूह को सघन करना चाहते हैं या उसे तोड़ना चाहते हैं। अनिवार्य रूप से देखी जाने वाली फिल्म।

निर्देशक: प्रकाश झा
कलाकार: अभय देओल, अर्जुन राम पाल, ओम पुरी, ईशा गुप्ता, अंजलि पाटिल, मनोज बाजपेयी, समीरा रेड्डी (आइटम डांस)
संगीत: सलीम-सुलेमान

स्टूडेंट ऑफ द ईयर


फिल्म समीक्षा

हिट है ‘स्टूडेंट ऑफ द ईयर‘

धीरेन्द्र अस्थाना

फिल्म देखने के दौरान लगातार यह सोच जारी थी कि करण जौहर की फिल्म है और कोई मैसेज नहीं है, ऐसा कैसे हो सकता है। लेकिन जब लगभग अंत में मैसेज उद्घाटित हुआ तो दिल को राहत भी मिली और खुशी भी कि इतनी खूबसूरती के साथ इतना बड़ा मैसेज दिया गया। लगभग गेम शो के फॉम्रेट में बनायी गयी यह फिल्म मैसेज देती है कि तमाम कम्पटीशन पर आधारित गेम शोज दरअसल रिश्तों को बिगाड़ने का काम करते हैं। अपनी इस नयी फिल्म से करण जिन तीन नये युवाओं को लेकर आये हैं, उन्होंने अपने अपने हुनर से खुद को साबित कर दिया है। वरुण धवन और आलिया भट्ट तो फिल्मी बैकग्राउंड से हैं, इसलिए अभिनय उनके रक्त में है लेकिन सिद्धार्थ मल्होत्रा ने तो अपनी प्रतिभा के दम पर बॉलीवुड में पांव रखा है। तीनों ही युवा अभिनेताओं (एक अभिनेत्री) को भविष्य की उम्मीद कहा जा सकता है। वरुण और सिद्धार्थ में इमरान खान और रणबीर कपूर जैसा चुंबकीय आकर्षण तो नहीं है लेकिन दोनों ने बेहद सधा हुआ अभिनय किया है। आलिया भट्ट के रूप में इंडस्ट्री को नयी ग्लैमर गर्ल मिली है। आने वाला समय उसकी अभिनय क्षमता का परिचय भी देगा, ऐसा लगता तो है। पूरी फिल्म कॉलेज कैंपस, छात्र, छात्रों के सपने, उनके संघर्ष, उनके रोमांस, उनके टकराव, उनके भटकाव और उनके निजी पारिवारिक अंतर्विरोधों पर फोकस करती है। जबर्दस्त एंटरटेनर होने के साथ-साथ फिल्म संवेदनशील और अर्थपूर्ण भी है। कहानी कसी हुई, संवाद चुटीले और गीत मनभावन हैं। पुराने हिट गानों में नये बोल डालकर एक बेहतरीन फ्यूजन रचा गया है। सभी गाने लोकप्रिय हो चुके हैं लेकिन ‘डिस्को दिवाने‘ गीत में काजोल की दमदार मौजूदगी सुखद लगती है। कॉलेज डीन के किरदार में ऋषी कपूर प्रभावित करते हैं। अपने डीन की गंभीर बीमारी की खबर सुनकर कॉलेज के कुछ छात्र पूरे दस साल बाद इकट्ठे होते हैं। कहानी वर्तमान से फ्लैश बैक के बीच आवाजाही करती रहती है। इस प्रक्रिया के दौरान ही घटती हैं कुछ खट्टी मीठी चटपटी और कड़वी कहानियां। इमोशंस को रचने की कला में माहिर है करण। इस फिल्म में भी वह संवेदना का मायालोक खड़ा कर पाये हैं। जमाना हर तरफ कम्पटीशन का है लेकिन यह कम्पटीशन बहुत जानलेवा है दोस्तों। इस कम्पटीशन के खतरनाक रास्तों से बचकर निकलने में ही समझदारी है। बहुत ही प्यारी फिल्म। 

निर्देशक: करण जौहर
कलाकार: सिद्धार्थ मल्होत्रा, वरुण धवन, आलिया भट्ट, ऋषी कपूर, राम कपूर, काजोल
संगीत: विशाल-शेखर

अइया


फिल्म समीक्षा

सपने के भीतर का सपना ‘अइया‘

धीरेन्द्र अस्थाना

अगर सिनेमा एक सपना है तो रानी मुखर्जी की नयी फिल्म ‘अइया‘ सपने के भीतर चलता सपना है। ‘नो वन किल्ड जेसिका‘ के पूरे बीस महीने के बाद रानी की कोई फिल्म आयी है और उसके साथ बतौर प्रोड्यूसर अनुराग कश्यप का नाम जुड़ा है तो यह यकीन तो था कि फिल्म खराब तो नहीं ही होगी। लीक से हटकर बनी हुई फिल्म है और देखे जाने के दौरान थोड़ी सी संवेदनशीलता और थोड़े से दिमाग की मांग करती है। आमतौर पर होता यह है कि हीरो ही हीरोईन के प्यार में दीवाना दिखाया जाता है। ‘अइया‘ में मामला उलट गया है। फिल्म के हीरो पृथ्वीराज को पता ही नहीं है कि रानी मुखर्जी उसके प्यार में मरी जा रही है। एक निम्न मध्य वर्गीय मराठी परिवार की इकलौती कमाऊ लड़की रानी मुखर्जी हमेशा सपनों की दुनिया में विचरण करती रहती है। सपनों में सड़क जैसी गंदगी, ऊबड़ खाबड़पन और कचरा नहीं है। सपनों में यथार्थ से पिटता वर्तमान नहीं है। इसलिए जीवन के यथार्थ से घबरा कर रानी जब तक फैंटेसी की दुनिया में उछलती कूदती, गाती नाचती और रोमांस करती रहती है, खुश रहती है। फैंटेसी से बाहर निकली नहीं कि घर का दारुण यथार्थ, जमाने की किचकिच और उदास एकांत सिर पर नाचने लगता है। जीवन से बार बार का यह पलायन रानी को अपने कॉलेज के एक पेंटर छात्र पृथ्वी राज की तरफ आकर्षित कर देता है। अंत से पहले तक पृथ्वीराज को एक रफ-टफ, रूखा और कुछ कुछ बदतमीज किस्म के किरदार में पेंट किया गया है। इसके इर्द-गिर्द दारू पीने और ड्रग्स लेने की कहानियां फैली हुई हैं। उसे पता ही नहीं है कि उसके कॉलेज की लाइब्रेरियन रानी मुखर्जी उससे दीवानों की तरह प्यार करती है। इधर रानी मुखर्जी की सगाई का दिन आ गया है और उधर रानी मंडप से गायब हो कर पृथ्वी का पीछा करते करते उस अगरबत्ती के कारखाने में पहुंच जाती है, जिसका मालिक पृथ्वी है। हालांकि पृथ्वी की महक से रह-रह कर आनंदित हो जाने वाले रानी के दृश्य कुछ अतिरेकपूर्ण हो गये हैं। जैसे ‘द डर्टी पिक्चर‘ में विद्या ने खतरनाक डांस किया है वैसी ही रानी ने भी ‘अइया‘ में धमाल मचा दिया है। पारंपरिक सौंदर्य बोध पर तमाचा मारने वाली यह फिल्म अंत में परंपरा के रास्ते पर ‘यू टर्न‘ लेकर सुखद अंत के नोट पर समाप्त हो जाती है। रानी के शानदार-जानदार अभिनय और मौलिक किस्म की उम्दा कॉमेडी के लिए फिल्म देखी जा सकती है। 

निर्देशक: सचिन कुंदालकर
कलाकार: रानी मुखर्जी, पृथ्वीराज
संगीत: अमित त्रिवेदी

इंग्लिश विंग्लिश


फिल्म समीक्षा

श्रीदेवी की अद्भुत इंग्लिश विंग्लिश

धीरेन्द्र अस्थाना

निर्देशक के रूप में बॉलीवुड को एक बेहतरीन सिनेकर्मी मिली हैं-गौरी शिंदे। आज की यंग जेनरेशन की रुचियों के आईने में देखें तो गौरी की फिल्म बोरिंग और अस्वीकृत हो सकती थी लेकिन उन्होंने इतनी कसी हुई पटकथा तैयार की है कि कब इंटरवल हो जाता है, पता ही नहीं चलता। फिल्म का निर्देशन भी अत्यंत सहज और घरेलू जैसा है, लगता ही नहीं कि हम फिल्म देख रहे हैं। ऐसा अनुभव होता है कि अपने आसपास के किसी परिवार की कहानी से गुजर रहे हैं। उस पर श्रीदेवी जैसी अनुभवी और भावप्रवण कलाकार का उम्दा और जीवंत अभिनय। सब मिलाकर ‘इंग्लिश विंग्लिश‘ एक बेहतरीन सिनेमा की कतार में दर्ज हो गयी है। अगर यह कहा जाए कि इस फिल्म में शशि वाला जो संवेदनशील किरदार है, उसे शायद उनकी समकालीन कोई दूसरी अभिनेत्री नहीं निभा सकती थी तो गलत नहीं होगा। उम्र और अनुभव श्री के चेहरे से टपकने लगे हैं, इसके बावजूद वह अपनी वापसी शानदार ढंग से कर पाने में सफल हुई हैं। जिन लोगों के विवाह को कई वर्ष बीत गये हैं और जिनके रिश्तों के बीच की गर्माहट मंद पड़ गयी है, उन्हें यह फिल्म निश्चित रूप से देखनी चाहिए। उन युवाओं के लिए भी इस फिल्म में एक मैसेज है, जो अपनी लापरवाही के चलते छोटी-छोटी बातों से मां-बाप का दिल दुखा देते हैं और उफ भी नहीं करते। फिल्म प्यार के संबंधों में इज्जत की मांग करती है, जो एक नया आयाम है संबंधों की बारीकी को टटोलने का। पूरी तरह श्रीदेवी की फिल्म है लेकिन दो लोगों का जिक्र करना जरूरी है। एक श्रीदेवी के बेटे का रोल निभाने वाले शिवांस कोरिया का, जिसने अपने अभिनय से दंग कर दिया। दूसरी श्रीदेवी की भांजी का रोल करने वाली प्रिया आनंद का, जो बड़ी कुशलता से परदेस में अपनी मौसी को मित्र बनकर सहेजती है। अमिताभ बच्चन का केमो रोल दिलचस्प है। पूरी दुनिया में अंग्रेजी जिस तरह बोलचाल की आम भाषा बन गयी है, उसके कुछ अनर्थ भी हुए हैं। यह फिल्म उसी अनर्थ को अर्थ देती है। अपने ही घर में अंग्रेजी न जानने के कारण पल-पल उपेक्षा झेलती श्रीदेवी जब अपनी बड़ी भांजी की शादी के लिए बहन के घर अमेरिका जाती है और सर्वाइवल के लिए उसे एक कोचिंग क्लास में अंग्रेजी सीखनी पड़ती है-इस उपकथा ने फिल्म को काफी दिलचस्प और दर्शनीय बना दिया है। चोरी-चोरी अंग्रेजी सीख चुकी श्रीदेवी जब शादी वाले दिन अपनी भांजी और उसके पति को धाराप्रवाह अंग्रेजी में शुभकामनाएं देती है और उन्हें विवाह, रिश्तों और प्यार का मर्म समझाती है तो पूरा कुनबा अवाक रह जाता है। फिल्म एक सुखद शुरुआत पर समाप्त होती है। 

निर्देशक: गौरी शिंदे।
कलाकार: श्रीदेवी, शिवांस कोरिया, नाविका कोरिया, प्रिया आनंद, सुजाता कुमार, आदिल हुसैन।
संगीत: अमित त्रिवेदी।

ओह माई गॉड


फिल्म समीक्षा

ओह माई गॉड पाखंड पर प्रहार

धीरेन्द्र अस्थाना


इस फिल्म को देखते समय चौंक कर ओह माई गॉड बोलने के कई अवसर आते हैं। धर्म को धंधा बनाने वालों और पाखंड की दुकान चलाने वालों पर फिल्म जमकर प्रहार करती है। एक धर्मभीरू देश में ऐसी फिल्म बना ले जाना कोई हंसी खेल नहीं है। एक प्रोड्यूसर के नाते अक्षय कुमार ने यह साहस दिखाया, इसके लिए उन्हें देश का सलाम मिलना चाहिए। हैरत की बात यह है कि यह फिल्म अक्षय कुमार की नहीं बल्कि परेश रावल की फिल्म है। दूसरा अचरज यह कि फिल्म में हीरोईन ही नहीं है। कमाल की बात यह कि सोनाक्षी सिन्हा ने प्रभु देवा के साथ मिलकर जो डांस किया है, वह बरसों तक एक आक्रामक नृत्य की मिसाल बना रहेगा। इस डांस में सोनाक्षी ने अपनी सर्वश्रेष्ठ नृत्य प्रतिभा उतार दी है। उल्लेखनीय बात यह है कि इस फिल्म के पटरी से उतर जाने के कई चांस थे लेकिन निर्देशक ने उन खतरों को खूबसूरती से संभाल लिया। खतरा था कि फिल्म ईश्वर के ही विरुद्ध चली जाती लेकिन लेखक-निर्देशक ने ईश्वर की सत्ता को स्थापित रखते हुए ईश्वर के नाम पर चल रहे पाखंड पर ही फोकस किया। तो भी यह खतरा तो है कि आस्था का कारोबार करने वाले तिलमिला जाएं। परदे पर इस कारोबार को मिथुन चक्रवर्ती और गोविंद नामदेव ने अंजाम दिया है और क्या खूब अंजाम दिया है। बतौर एक्टर यह गोविंद नामदेव की कुछ चुनिंदा फिल्मों में गिनी जाएगी। मुंबई के चोर बाजार में कानजी लालजी मेहता (परेश रावल) मूर्तियां बेचने का धंधा करता है। वह साधारण मूर्तियों को एंटीक बताकर ऊं चे दामों पर बेचता है। यह गुजराती शख्स स्वयं नास्तिक है और धर्म का मजाक उड़ाता रहता है। एक दिन मुंबई में भूकंप आता है और केवल परेश रावल की दुकान ध्वस्त होती है। प्रचारित हो जाता है कि यह ईश्वर का प्रकोप है। परेश रावल इसे चुनौती की तरह लेता है और हाई कोर्ट में भगवान के खिलाफ मुकदमा दर्ज करता है। इस अनोखे मुकदमे के दौरान परेश पूरी ताकत से धर्म के पाखंड पर प्रहार करता है। इटंरवल से कुछ पहले इस लड़ाई में परेश रावल का साथ देने के लिए आधुनिक कृष्ण भगवान के रूप में अक्षय कुमार प्रकट होते हैं। अक्षय परेश को ज्ञान देते हैं कि ईश्वर तो है और वह कण कण में है, कि उसे चढ़ावे और मंदिरों की जरूरत नहीं है, वह तो दिल में रहता है। कि मनुष्य को पांखड से परे हो जाना चाहिए। यही इस फिल्म का संदेश है और यही गर्व भी। ऐसा होगा नहीं पर होना चाहिए था कि यह फिल्म देशभर के गली-कूचों- मोहल्लों-हाउसिंग सोसायटियों में निःशुल्क दिखाई जाती। अवश्य देखने लायक फिल्म।

निर्देशक: उमेश शुक्ला
कलाकार: पेरश रावल, मिथुन चक्रवर्ती, अक्षय कुमार, ओम पुरी, महेश मांजरेकर, गोविंद नामदेव, लुबना सलीम, मुरली शर्मा
संगीत: हिमेश रेशमियां

हीरोइन


फिल्म समीक्षा 

असफलता के डर में जीती ‘हीरोइन‘

धीरेन्द्र अस्थाना


मधुर भंडारकर की नयी फिल्म ‘हीरोईन‘ केवल और केवल करीना कपूर के अभिनय के लिए याद की जायेगी। एक स्टार हीरोईन के डर, आशंका, सनक, क्रोध, कुंठा, हर्ष, शतरंजी चाल, तनाव, अवसाद और अकेलेपन के दर्जनों आयाम करीना कपूर ने इतने बेहतर और प्रभावशाली ढंग से अदा किये हैं कि मन खुश हो जाता है। सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि ऐसा बिल्कुल नहीं लगता कि हम पर्दे पर करीना कपूर को देख रहे हैं। फिल्म इंडस्ट्री की टॉप कमर्शियल हीरोईन के किरदार को करीना ने जीवंत अभिव्यक्ति दी है। बार बालाओं, फुटपाथ पर भीख मांगने वालों, कॉरपोरेट वर्ल्ड और फैशन इंडस्ट्री के बाद मधुर भंडारकर ने खुद को अपने ही संसार यानी सिने जगत पर फोकस किया है। ऐसा नहीं है कि इस दुनिया के छल छद्म, उजाले अंधेरे, सक्सेस पार्टियां, ग्लैमर, डिप्रेशन, जलन, कुढ़न और चालबाजियों को मधुर ने ही पहली बार उजागर किया है। मधुर से पहले भी कई फिल्मकारों ने पूरी तरह या आंशिक तौर पर इस दुनिया के विरोधाभासों को अपना विषय बनाया है। हां, इतना जरूर है कि मधुर ने फिल्म की मेकिंग, सहजता और गति का ध्यान रखा है। कहानी के स्तर पर वह नया कुछ नहीं दे पाये हैं लेकिन फिल्म को एक फ्रेश लुक और समकालीन स्पर्श देने में जरूर कामयाब हुए हैं। कई बार ऐसा भी लगता है कि हम उनकी फिल्म ‘फैशन‘ के ही कुछ हिस्से फिर से देख रहे हैं और फिल्म थोड़ी बहुत बोझिल भी हो गयी है लेकिन तो भी मधुर एक सफल फिल्म बनाने में कामयाब हुए हैं। फिल्म का ‘हलकट जवानी‘ वाला करीना पर फिल्माया आइटम नंबर पहले ही बहुत ज्यादा प्रचारित हो चुका है। बाकी गीत भी अच्छे और फिल्म को व्याख्याचित करने वाले हैं। हालांकि पूरी फिल्म एक हीरोईन के उतार-चढ़ाव भरे जीवन पर केंद्रित है तो भी करीना के साथ अपनी अपनी रिलेशनशिप को अर्जुन रामपाल और रणदीप हुडा ने सशक्त ढंग से अदा किया है। रणवीर शौरी का किरदार बहुत छोटा है लेकिन एक सार्थक फिल्मों के कट्टर और जुनूनी निर्देशक के चरित्र को उन्होंने दमदार अभिव्यक्ति दी है। गोविंद नामदेव जैसे सशक्त अभिनेता इस फिल्म में नष्ट हुए हैं। गोविंद को ऐसे फालतू चरित्र नहीं करने चाहिए। सिने जगत की भीतरी सच्चाइयों से रू-ब-रू होने के लिए फिल्म को देखना चाहिए।

निर्देशक: मधुर भंडारकर
कलाकार: करीना कपूर, अर्जुन रामपाल, रणदीप हुडा, रणवीर शौरी, हेलन, गोविंद नामदेव
संगीत: सलीम/सुलेमान
   

बरफी


फिल्म समीक्षा

‘बरफी‘ में प्रतिभाओं का विस्फोट

धीरेन्द्र अस्थाना

सीधी सादी सरल कहानी को पसंद करने वाले आम दर्शकों को फिल्म निराश कर सकती है। क्योंकि गूंगे प्यार की इस विशेष कहानी को निर्देशक ने थोड़े जटिल ढंग से रच दिया है। हां, अर्थपूर्ण और गंभीर किस्म की फिल्में पसंद करने वालों के लिए तो ‘बरफी‘ लॉटरी लगने जैसी फिल्म। अच्छी फिल्मों को बनाने और बचाने वाले जिद्दी फिल्मकारों की सूची में अनुराग बसु का नाम भी दर्ज हो गया है। इस फिल्म की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें रणबीर कपूर और प्रियंका चोपड़ा की अभिनय प्रतिभा का विस्फोट हुआ है। जैसे अमिताभ बच्चन और रानी मुखर्जी के लिए ‘ब्लैक‘ उनके सिनेमाई कॅरियर की यादगार फिल्म है, ठीक वैसे ही रणबीर और प्रियंका के लिए ‘बरफी‘ भी मील का पत्थर साबित होने वाली है। कोई आर्श्चय नहीं कि सन् 2012 के कई बड़े फिल्मी एवॉर्ड इस फिल्म के नाम दर्ज हो जाएं। अच्छे सिनेमा को प्रोत्साहन देने के लिए ही नहीं, अपनी सिनेमाई समझ को परिष्कृत करने के लिए भी दर्शकों को यह फिल्म देखनी चाहिए। रणबीर कपूर ने फिल्म में एक गूंगे-बहरे लेकिन जिंदादिल और संवेदनशील युवक का रोल अदा किया है। वह पहले ईलीना डिक्रूज से प्यार करना चाहता है पर बात बनती नहीं क्योंकि ईलीना की सगाई हो चुकी है। बाद में अपनी बचपन की पहचान वाली अल्प विकसित दिमाग वाली लड़की प्रियंका चोपड़ा को ही वह चाहने लगता है। कैसे दोनों कुछ दिन साथ बिताते हैं, कैसे प्रियंका का अपहरण होता है, कैसे उसकी हत्या की कहानी प्रचारित की जाती है और अंत में कैसे रणबीर अपनी नादान प्रेमिका को ढूंढ़ लेता है, यह सब निर्देशक ने थोड़ा पेचीदा ढंग से बयान किया है। बहुत बाद में ईलीना को अहसास होता है कि वह रणबीर से ही प्यार करती है लेकिन तब तक देर हो चुकी होती है। प्रियंका और रणबीर शादी करते हैं और बूढ़े होकर एक साथ मर जाते हैं। फिल्म के कुछ गाने पहले ही लोकप्रिय हो चुके हैं। फिल्म को ‘कॉमेडी‘ कहा गया है लेकिन असल में ‘बरफी‘ एक जटिल प्रेम की संवेदनशील रचना है। ईलीना डिक्रूज ने भी संवेदनशील अभिनय किया है। 

निर्देशक: अनुराग बसु
कलाकार: रणबीर कपूर, प्रियंका चोपड़ा, इलीना डिक्रूज, आशीष विद्यार्थी, सौरभ शुक्ला
संगीत: प्रीतम चक्रवर्ती

राज-3


फिल्म समीक्षा

‘राज-3‘ में चलीं नफरत की आंधियां

धीरेन्द्र अस्थाना

निर्देशक विक्रम भट्ट अपनी नयी फिल्म ‘राज-3‘ में दर्शकों को कहीं-कहीं डराने में कामयाब हुए हैं। अच्छे ढंग से संपादित एक बेहतर हॉरर फिल्म है, जिसे फिल्म समझ कर ही देखा जाना चाहिए। आंखों के ऊपर से विज्ञान का चश्मा उतारकर थ्री डी चश्मा लगाएं और तब फिल्म देखें, ज्यादा मजा आएगा। पूरी फिल्म शुरू से अंत तक बांध कर रखती है। फिल्म में ब्लैक मैजिक और बुरी शक्तियों को स्थापित किया गया है और उनका तोड़ ईश्रीय शक्ति को बताया गया है, जो हिंदुस्तान की आदिकालीन मान्यता है। डॉक्टर भी ब्लैक मैजिक और भूत-प्रेत को मानने वाला है लेकिन जब फिल्म का आधार ही यह दुनिया है तो फिल्म को इस तरह देखें कि इस दुनिया को कितने दिलचस्प ढंग से फिल्माया गया है। फिल्म में नफरत की आंधियां चलती हैं, जिनका शिकार बनती है ईशा गुप्ता और माध्यम है इमरान हाशमी, जिसे बिपाशा बसु ने फिल्म इंडस्ट्री में नाम, शोहरत और पैसा दिया है। बिपाशा बसु अपने समय की सुपरस्टार है लेकिन एक नयी हीरोईन अपने टेलेंट और ग्लैमर से उसके साम्रज्य में सेंध लगा रही है। यह नयी हीरोईन ईशा गुप्ता है, जो रियल लाइफ में उसकी सौतेली बहन है। दोनों की मांएं अलग थीं लेकिन पिता एक था। ईशा के बढ़ते रथ को ध्वस्त करने के लिए बिपाशा बसु ब्लैक मैजिक का सहारा लेती है। तंत्र-मंत्र से सिद्ध किया पानी पिला-पिलाकर वह ईशा को पागल बनाती है, डराती है और बीमार कर देती है। यह काम करता है इमरान हाशमी, जो बिपाशा का प्रेमी है लेकिन बाद में ईशा से प्यार करने लगता है और बिपाशा के कुकर्म में साझीदार बनने से मना कर देता है। उसी के कारण ईशा बीमार हुई है, वही ईशा की आत्मा को मुक्त कराने के लिए परलोक जाता है। फिल्म का सबसे बेहतरीन पक्ष उसके संवाद और सिनेमेटोग्राफी है। बिपाशा बसु, ईशा गुप्ता और इमरान हाशमी, तीनों का काम उत्तम है। सन् 2002 में ‘राज‘ से शुरू हुआ इमरान हाशमी का फिल्मी सफर ‘राज-3‘ में दस वर्ष पूरे कर रहा है। ‘राज‘ में वह सहायक निर्देशक थे। ‘राज-3‘ में लीड एक्टर हैं। ईशा पर कॉक्रोचों को हमले वाला दृश्य यादगार है। भट्ट कैंप की सफल फिल्म है।

निर्देशक: विक्रम भट्ट
कलाकार: इमरान हाशमी, बिपाशा बसु, ईशा गुप्ता, मनीष चौधरी
गीत: संजय मासूम/कुमार राशिद खान
संगीत: जीत गांगुली /राशिद खान


जोकर


फिल्म समीक्षा

यह ‘जोकर‘ बेमजा है

धीरेन्द्र अस्थाना


निर्देशक शिरीष कुंदेर ने अपने हिसाब से एक ऐसी फिल्म बनाने का प्रयास किया है जो आम फिल्मों से थोड़ी अलग दिखे। एक गंभीर विषय को मजा किया अंदाज और विदूषराना चरित्रों के साथ पेश करके उन्होंने ‘जोकर‘ को न सिर्फ बेमजा कर दिया बल्कि कमजोर भी कर दिया। फिल्म में एक ऐसे मुतहा गांव को खड़ा किया गया है जिसका नाम हिंदुस्तान के नक्शे पर नहीं है। तीन राज्यों की सीमा पर बसे इस गांव पगलापुर में न बिजली है, न पानी। न बाजार, न स्कूल कॉलेज। इस गांव के मुखिया का बेटा है अक्षय कुमार जो अमेरिका में रहकर एलियन्स की दुनिया पर काम कर रहा है। सोनाक्षी सिन्हा के साथ उसकी ‘लिव इन रिलेशन शिप‘ है। मुखिया बुलाता है और उससे निवेदन करता है कि वह गांव को गरीबी और पिछड़ेपन के दलदल से निकालने के लिए कुछ करे। पागलों जैसे हाव भाव करके रहने वालों के इस पिछड़े गांव में जो जश्न मनाया जाता है उसमें चित्रांगदा सिंह हिंदी-अंग्रेजी का मिक्स आइटम नंबर पेश करती है। अपने प्रति गांव वालों का प्यार देख अक्षय कुमार गांव को मुक्ति देने का बीड़ा उठाता है। अपनी राजनैतिक सामाजिक कोशिशों में नाकाम होने के बाद अक्षय एक खेल रचता है। वह रंगों और सब्जियों के मेल से तीन गांव वालों को एलियंस की शक्ल देकर दुनिया में घोषणा करवाता है कि पगलापुर में एलियंस दिखे हैं। पूरी दुनिया पगलापुर पहुंचने में जुट जाती है। फिल्म के अंत में अक्षय का प्रतिद्वंदी रहा एक अमेरिकी वैज्ञानिक अक्षय का भांडाफोड़ देता है और पुलिस अक्षय को गिरफ्तार करने पहुंच जाती है। लेकिन तभी अक्षय के कम्प्यूटर के सिग्नल सचमुच के एलियंस से जुड़ जाते हैं। फिर एक उड़न तश्तरी में सचमुच का एलियंस वहां प्रकट होता है। उसके जाने के बाद तोहफे के तौर पर गांव में तेल के सोते फूट उठते हैं। जाहिर है अब गांव अमीर हो जाएगा और उसे तमाम सुविधाएं मिल जाएंगी। यह एक अच्छी फेंटेसी थी जिसे खराब ढंग से फिल्मा कर बिगाड़ दिया गया है। दबंग छोकरी सोनाक्षी सिन्हा की पहली ऐसी फिल्म जो खतरे की घंटी बजा रही है। पूरी फिल्म में सिर्फ श्रेयस तलपदे का किरदार मजा भी देता है और आकर्षित भी करता है। बाकी सब के सब बहुत ज्यादा ‘लाउड‘ हैं।

निर्देशक: शिरीष कुंदेर
कलाकार: अक्षय कुमार, सोनाक्षी सिन्हा, श्रेयस तलपदे, मिनीष लांबा, संजय मिश्रा
संगीत: जीवी प्रकाश कुमार/गौरव।

Friday, November 16, 2012

शीरी फरहाद की तो निकल पड़ी


फिल्म समीक्षा

अधेड़ समय में प्यार

‘शीरी फरहाद की तो निकल पड़ी‘

धीरेन्द्र अस्थाना


जैसा कि आम तौर पर होता है, लीक से हटकर बनी अच्छी फिल्में देखने में ज्यादा रुचि नहीं दिखाते दर्शक। ‘शीरी फरहाद की तो निकल पड़ी‘ के साथ भी यही ट्रेजडी घटित हुई। पहले दिन ज्यादा दर्शक नहीं आये। हालांकि निर्देशिका बेला सहगल ने विषय तो अच्छा चुना ही, उसे बुना भी बहुत बेहतर ढंग से। लेकिन फिल्म में न तो मारामारी थी, न ही कोई लार्जर दैन लाइफ फार्मूला था और न कोई आइटम डांस था। लुप्त होती पारसी कम्युनिटी के जीवन, संघर्ष और कल्चर वाले बैक ड्रॉप पर दो ऐसे साधारण लोगों की प्रेम कहानी रची गयी, जो एक अधेड़ समय में अकेले और उदास खड़े थे। क्या थकी उम्र में, जब कनपटियों पर के बालों को सफेद कर चुका होता है बुरा वक्त, सामने खड़े एक निश्छल प्रेम को गले नहीं लगा लेना चाहिए। यही इस फिल्म का संदेश भी है और सार्थकता भी। दरअसल इस फिल्म की असाधारणता इसकी साधरणता में ही छिपी है। फिल्मांकन, अहसास, गीत, संवाद, जीवन, रहन-सहन सब कुछ एकदम साधारण। एकदम हमारे आसपास के गली कूचों में टहलता हुआ। कलाकार भी हमारे आसपास के। बोमन ईरानी और फराह खान। एक मंझा हुआ अभिनेता। दूसरी मंझे हुए अभिनेताओं से उनका बेहतर अभिनय निकलवाने वाली निर्देशिका। बतौर एक्ट्रेस फराह की यह पहली फिल्म है। वह चाहें तो इस क्षेत्र में बनी रह सकती हैं। दोनों ने बहुत उम्दा काम किया है। अश्लील या फूहड़ हुए बिना एक खरा-खरा कॉमिक सिनेमा पेश करने की कोशिश की है दोनों ने, जो बहुत सहज और दिलचस्प लगता है। निर्देशिका ने ब्रा और पेंटी की दुकान में काम करने वाले एक 45 वर्षीय पारसी आदमी के अकेलेपन और व्यथा को भी आवाज दी है। फिल्म कई जगहों पर इमोशनल हो जाती है। पर फिल्माये एक खुशनुमा गाने में सहसा वह संताप भी चला आता है, जिससे फराह अपने अतीत में गुजरती रही हैं। मुख्यतः तो यह बोमन ईरानी और फराह खान की ही प्रेम कहानी है लेकिन सहायक चरित्रों ने भी फिल्म में समां बांधा है। खासकर बोमन की मां का किरदार निभाने वाली डेजी ईरानी तो पारसी समय और समाज की आत्मा बन गयी हैं। दर्शकों को अच्छी फिल्म बनाने वालों को उत्साहित करना चाहिए वरना सबके सब खराब सिनेमा बनाने वाले राजपथ पर मुड़ जायेंगे। कृपया देखें। 

निर्देशक: बेला सहगल
कलाकार: बोमन ईरानी, फराह खान, डेजी ईरानी
संगीत: जीत गांगुली
पटकथा एवं संवाद: संजय लीला भंसाली

एक था टाइगर


फिल्म समीक्षा

प्यार में एक था टाइगर

धीरेन्द्र अस्थाना

सौ करोड़ कमाई वाले क्लब की एक और फिल्म। यशराज कैंप में घुस कर एक सुपरहिट देने के बाद सलमान खान ने साबित कर दिया कि कमाई और दर्शकों के मामले में वह किसी भी स्टार के किले में सेंध लगा सकते हैं। आलोचकों की समस्या बढ़ाने वाली फिल्म है। क्योंकि तमाम घटनायें और प्रसंग अविसनीय हैं, लेकिन मनोरंज के स्तर पर इतनी जोरदार है कि दर्शक सांस रोककर देखते हैं। नयी नयी लुभावनी विदेशी लोकेशंस हैं। खतरनाक किस्म के और कुछ नयी तरह के एक्शन हैं। कैटरीना और सलमान की जोड़ी है। जासूसी के बैकटॉप पर प्यार में डूबी फिल्म है। वह भी दो दुश्मन देशों के जासूसों के बीच पनपे प्यार की। भले ही आप तारीफ न करें लेकिन निर्देशक कबीर खान ने अपनी तरफ से कुछ नया करने की कोशिश की है। यह दिखाकर कि प्यार की न कोई सीमा होती है, न मजहब, न मुल्क। यह थीम पहले भी दिखाई गयी है, मगर यहां प्यार इन दो जासूसों के बीच है। जो गुप्तचर एजेंसी रॉ (हिंदुस्तान) और आईएसआई (पाकिस्तान) के लिए काम करते हैं। फिल्म देखते समय एक पुरानी फिल्म का यह गाना बरबस याद आता है- दो जासूस करें, महसूस कि दुनिया बड़ी खराब है। तो होता यह है कि दोनों अपना-अपना फर्ज और वफादारी भूलकर भाग जाते हैं। सलमान के पास उसकी जासूसी वाली कमाई के 13 लाख रुपये हैं। सलमान और कैटरीना अपने अपने मुल्कों की जासूसी संस्थाओं को चकमा देकर पूरी दुनिया में छुपते फिर रहे हैं और लापता बने रहने की यह दौड़ अनंत है। केवल 23 लाख रुपये में यह कैसे संभव होगा। इस बात पर दिमाग न खपायें, क्योंकि सौ करोड़ कमाने वाले कई एक्टर घोषणा कर चुके हैं कि माइंडलेस फिल्में ही सौ करोड़ कमा सकती हैं। आज तो सलमान खान और कैटरीना के रोमांस और एक्शन की जुगलबंदी का मजा है। सलमान के पर्दे पर एंट्री लेते ही जिस तरह दर्शक झूमकर सीटियां बजाते हैं, उसे देखकर कोई भी एक्टर रश्क कर सकता है। बहुत समय के बाद रोशन सेठ को पर्दे पर देखना अच्छा लगता है। गाने पहले ही हिट हो चुके हैं, लेकिन इनमें वह बात नहीं है, जो सलमान पर फिल्माये बहुत सारे पुराने गानों में है। सलमान की फिल्म है, एक बार देखना तो बनता है भाई।

निर्देशक: कबीर खान 
कलाकर: सलमान खान, कैटरीन कैफ, गिरीश करनाड, रणवीर शौरी 
संगीत: साजिद- वाजिद, सोहेल सेन

गैंग्स ऑफ वासेपुर-2


फिल्म समीक्षा

तलछट का कोरस यानी गैंग्स ऑफ वासेपुर-2

धीरेन्द्र अस्थाना

बॉलीवुड के स्टार निर्देशक इम्तियाज अली का मानना है कि ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर‘ पर इंडस्ट्री को गर्व करना चाहिए। यह अनुराग कश्यप की अब तक की श्रेष्ठ फिल्म है। इम्तियाज की राय सौ फीसदी सही है। सचमुच यह फिल्म जीवन के भयावह यथार्थ को दसों उंगलियों से पकड़ने का कारनामा है। यहां गैंगवार लार्जर दैन लाइफ बनकर ग्लैमर का आलोक नहीं रचती बल्कि जमीन पर बने रहकर कत्लेआम को पूरे दुख और पूरे शोर के साथ पेश करती है। फिल्म के पहले पार्ट की तरह दूसरे पार्ट में भी चरित्रों का एक मेला जैसा मौजूद है लेकिन यह अनुराग की खासियत है कि वह हर चरित्र को परिभाषित भी करते हैं और उसकी यात्रा को पूर्णता भी देते हैं। पहले पार्ट के अंत में गैंगस्टर मनोज बाजपेयी मार दिए जाते हैं। पीछे रह जाती हैं उनकी दो पत्नियां और बच्चे। अब नये पार्ट में वासेपुर पर मनोज के गंजेड़ी बेटे नवाजुद्दीन का दबदबा है। मनोज की दूसरी बीवी दुर्गा (रीमा सेन) का बेटा शमशाद (राजकुमार यादव) डॉन बनना चाहता है। उसकी यह चाहत उसे बड़े भाई नवाजुद्दीन को लेफ्टिनेंट बना देती है। हुमा कुरैशी अब नवाजुद्दीन की पत्नी हैं। बाकी किरदार वही हैं - एमएलए रामाधीर सिंह (तिग्मांशू धूलिया), नगमा खातून (रिचा चड्ढा), फरहान (पीयूष मिश्रा), जेपी सिंह (सत्या आनंद) और सुल्तान कुरैशी (पंकज त्रिपाठी)। ये सब मिलकर जिंदगी की तलछट को कोरस में गाते हैं। रक्तपात और रंजिश में डूबा यह समाज प्यार भी करता है, नफरत भी। कत्ल भी करता है और शोक में भी डूबता है। इसका सब कुछ जमीनी है। इसके तमाम किरदार किसी भी शहर के गली-कूचों में भटकते मिल जाएंगे। सिनेमाई होने के बावजूद इस फिल्म के किरदार हिंदुस्तान के एक बड़े तबके का प्रतिनिधित्व करते नजर आते हैं। नवाजुद्दीन ही नहीं फिल्म के प्रत्येक एक्टर ने एक्टिंग नहीं की है, किरदार की काया में प्रवेश किया है। सतह से उठकर विराट में एकाकार होती यह फिल्म सिनेमा के मकसद और मर्म को एक नयी ऊंचाई देती है। अनुराग ने खुद को सिनेमा के विश्व नागरिकों के बीच खड़ा कर लिया है। काश, वह उस जगह पर टिके रहें। फिल्म में गाने भी हैं। अजीबो-गरीब लेकिन अद्भुत। इस फिल्म को सारे कार्य छोड़कर देखें। यह फिल्म अच्छे-अच्छे निर्देशकों को ‘नरभसा‘ देगी। 

निर्देशक: अनुराग कश्यप 
कलाकार: नवाजुद्दीन सिद्दीकी, तिगमांशू धूलिया, रिचा चड्ढा, हुमा कुरैशी, रीमा सेन, राजकुमार यादव, पीयूष मिश्रा। 
संगीत:     स्नेहा खान बलचर।

जिस्म-2


फिल्म समीक्षा


प्यार और जंग की कशमकश: जिस्म-2

धीरेन्द्र अस्थाना

सुपरहिट फिल्म ‘जिस्म‘ से ‘जिस्म-2‘ का कोई लेना-देना नहीं है। इस फिल्म का कोई नया नाम भी हो सकता था लेकिन शायद भट्ट कैंप के मन में जिस्म की शोहरत भुनाने की बात रही होगी इसीलिए इस फिल्म को ‘जिस्म-2‘ नाम दिया गया। कथा-पटकथा स्वयं महेश भट्ट की है तो कहानी के स्तर पर तो फिल्म को उम्दा होना ही था। लेकिन इसमें भी कहानी शुरू होती है इंटरवल के बाद ही। इंटरवल से पहले तक सिर्फ तन की नुमाइश है या फिर चरित्रों को स्थापित और परिभाषित करने की कोशिश। कुल तीन चरित्रों की कहानी है। रणदीप हुडर को एक साइको किलर के तौर पर पेश किया गया है जो खुद को देशभक्त मानता है। मोटे तौर पर वह विलेन है। अरुणोदय सिंह को एक इंटेलिजेंस ऑफीसर बताया गया है। यानी हीरो है। सनी लियोन एक जिस्म बेचने वाली औरत है जो कभी रणदीप हुडा से प्यार करती थी, लेकिन जिसे एक रात रणदीप हमेशा के लिए छोड़ गया था। अरुणोदय सिंह रणदीप और उसके नेटवर्क को तबाह करने के मिशन में सनी लियोन को दस करोड़ रुपये देकर अपने साथ मिलाता है। सनी को फिर से रणदीप के जीवन में उतरना है और उसका डेटा चुराना है। इस मिशन के बीच में चुपके से उतरता है प्यार। इस प्यार का पीछा करती है नफरत। इस नफरत और प्यार की जंग के दौरान कहानी एक नया मोड़ ले लेती है। जो जासूस हैं वो निकलते हैं ‘बार इंडस्ट्री‘ के लिए काम करने वाले देशद्रोही और जो विलेन है वह बनता है सच्चा देशभक्त, लेकिन अपने खुद के जुनून और सनक में जकड़ा हुआ। अंत में फिल्म के तीनों किरदार एक दूसरे की गोलियों का शिकार होकर मारे जाते हैं। हाई वोल्टेज ड्रामा है जिसे रणदीप हुडा ने अपने अकेले के दम पर काफी ऊंचाई दी है। पता नहीं सनी लियोन को भट्ट साहब ने क्यों हीरोइन बनाया। उसे अभिनय करना नहीं आया। अरुणोदय सिंह को ज्यादा मौका नहीं मिला फिर भी उसने खुद को एक्शन और इमोशन से खुद को साबित करने की कोशिश की। फिल्म के संवाद अर्थपूर्ण और मर्मस्पर्शी हैं। मौला वाला गीत सुनने में अच्छा लगता है। इसके बोल भी बेहतरीन हैं और गायकी भी दिल को भाती है। पूजा भट्ट का निर्देशन भी चुस्त दुरुस्त है। एडल्ट मूवी है तो उस तरह के दृश्य भी हैं जिन्हें देखना युवा वर्ग पसंद करता है।

निर्देशक: पूजा भट्ट
पटकथा: महेश भट्ट
कलाकार: रणदीप हुडा, सनी लियोन, अरुणोदय सिंह
संगीत: एपी मुखर्जी, मिथुन, रक्षक, अब्दुल सईद

Thursday, November 8, 2012

क्या सुपर कूल हैं हम


क्या सुपर कूल हैं हम

जानदार दुकान का बेजान पकवान

धीरेन्द अस्थाना

सोचा था कि एकता कपूर की कंपनी से निकली है तो यकीनन फिल्म एकदम अनूठी और नायाब होगी। इस विश्वास का कारण था एकता की कंपनी से निकली पिछली तमाम सफल और शानदार फिल्में। लेकिन श्क्या सुपर कूल हैं हमश् ने यह भरोसा तोड़ दिया। इस फिल्म का नाम हो सकता था- श्कितने अश्लील हैं हम।श् कॉमेडी के नाम पर फूहड़ और अश्लील फिकरे, गंदी और नंगी गालियां, शर्मनाक हरकतें और बोर कर देने वाली एक्टिंग। एक जानदार दुकान से यह कैसा बेजान पकवान निकल कर आ गया। फिल्म की क्वालिटी से कोई समझौता न कर पाने का एकता का अपना मौलिक अंदाज कहां चला गया? लेखक निर्देशक सचिन याडरे ने कुछ ऊटपटांग स्थितियों को जोड़-जाड़कर एक ऐसी कमजोर फिल्म खड़ी की है, जिसमें न कोई कहानी है और न ही कोई ड्रामा। रितेश देशमुख और तुषार कपूर अच्छे एक्टर हैं, लेकिन एक बेजान पटकथा के भीतर रह कर वे भी कितना संभाल सकते थे। अश्लील संवादों के दोहरान से थोड़े ही फिल्म चला करती है। सेंसर के लोग सो रहे थे क्या? ऐसे संवाद और ऐसी हरकतें जिनके बारे में लिखा भी नहीं जा सकता। इंजीनियरिंग, एमबीए, एमबीबीएस या बीएमएम करने वाले आज के युवा क्या इसी तरह की सेक्स कॉमेडी देखना पसंद करते सो हैं? लगता तो नहीं है। तुषार और रितेश दो बेकार युवक हैं। दोनों बिना किसी कारण के दोस्त हैं। एक को एक्टर बनना है, दूसरे को डीजे। दोनों की जिंदगी में एक-एक लड़की है। ये दोनों लड़कियां बिना किसी कारण के दोनों लड़कों से दूर भागती हैं। अनुपम खेर एक अमीरजादे हैं जो थोड़े बहुत पागल जैसे हैं। वह एक कुतिया को अपनी मां समझते हैं और रितेश के कुत्ते को अपना बाप। फिल्म का असली हीरो तो रितेश का कुत्ता ही है। ज्यादा हंसाने का काम तो उसी ने किया है। उस कुत्ते में सेक्स की सुपर पावर है। उसी सुपर पावर के जरिये फिल्म को खींचने की कोशिश की गयी है। फिल्म के अंत में जैसा कि होता है, तुषार को अपनी और रितेश को अपनी प्रेमिका मिल जाती है।


प्रोड्यूसर:  एकता कपूर
डायरेक्टर: सचिन यार्डी
कलाकार: तुषार कपूर, रितेश देशमुख, अनुपम खेर, सारा जेन डायस, नेहा शर्मा
संगीत: अंजान मीत ब्रदर्स एवं अन्य

Friday, July 20, 2012

‘काका’ को देश का आखिरी सलाम


काकाको देश का आखिरी सलाम

धीरेन्द्र अस्थाना

रोमांस के बादशाह राजेश खन्ना को बारिश में नम आंखों के साथ उनके परिजनों, दोस्तों और चाहनेवालों ने अंतिम विदाई दी। जब फूलों से लदे हुए ट्रक में रखे एक पारदर्शी बॉक्स में राजेश खन्ना का पार्थिव शरीर विले पाल्रे स्थित पवन हंस श्मशान स्थल पर पहुंचा तो वहां एक अजीब सा भावुक मंजर उपस्थित हो गया। उत्तेजना, सनसनी और शोकग्रस्त लोगों के अपार समूह में अपने चहेते सुपर स्टार की एक झलक पाने की भारी बेचैनी थी। लोग अपने-अपने कैमरों और मोबाइल से जीते जी किंवदंती बन चुके राजेश खन्ना की इस अंतिम यात्रा को लगातार कैद कर रहे थे। लोगों की भीड़ सड़क पर लगे लोहे के डिवाइडर को तोड़ने पर अमादा थी। लोगों ने राजेश खन्ना की फेम जड़ित तस्वीरें हाथ में उठा रखी थीं, जिनमें से कुछ पर लिखा था -राजेश खन्ना आपके बिना देश अधूरा।सुबह साढ़े ग्यारह बजे के करीब राजेश खन्ना के दामाद अभिनेता अक्षय कुमार और उनके बेटे आरव ने मिलकर काका को मुखाग्नि दी। सुरक्षा के भारी इंतजाम किए गए थे। बेहद चुने हुए लोगों को ही श्मशान गृह के भीतर जाने दिया गया था। मीडियाकर्मी भी भीतर नहीं जा पाए थे। खबरों के मुताबिक, बॉलीवुड की बीसियों नामचीन हस्तियां श्मशान गृह के भीतर मौजूद थीं। सुबह करीब दस बजे मुंबई के कार्टर रोड स्थित आशीर्वादबंगले से राजेश खन्ना की अंतिम यात्रा शुरू हुई। काका का पार्थिव शरीर एक पारदर्शी बॉक्स में फूलों से लदे ट्रक पर रखा गया था ताकि आम जनता काका के अंतिम दर्शन सहजता से कर सके। ट्रक के ऊ पर राजेश खन्ना की पत्नी डिंपल कपाड़िया, दामाद अक्षय कुमार, बेटी रिंकी और नाती आरव मौजूद थे। ट्रक के सामने राजेश खन्ना के युवा दिनों की बड़ी सी तस्वीर रखी गई थी। अंतिम यात्रा के समय मुंबई में भारी बारिश चल रही थी। बारिश के बावजूद हाथ में छाता लिए लोग लगातार राजेश खन्ना के इस कारवां में शामिल होते जा रहे थे। शव यात्रा में दूर दूर तक, काले, पीले, नीले, लाल छाते दिख रहे थे। ट्रक के श्मशान स्थल तक पहुंचने तक अपार जनसमूह इकट्ठा हो चुका था। इतना ज्यादा लंबा और बड़ा ट्रैफिक जाम बीते दसियों वर्षों में मुंबईकरों ने नहीं देखा। इस ट्रैफिक जाम में अभिनय के शहंशाह अमिताभ बच्चन, उनके बेटे अभिषेक बच्चन और निर्देशक सतीश कौशिक भी फंसे हुए थे। यही कारण था कि अमिताभ और अभिषेक को अपनी गाड़ी से उतरकर अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिए पैदल चलना पड़ा। इनकी एक झलक पाने के लिए भीड़ में अफरा-तफरी मच गई। पुलिस के सुरक्षाचक्र में दोनों को श्मशान स्थल के भीतर ले जाया गया। भीड़ को काबू में करने के लिए पुलिस को हल्के लाठीचार्ज का भी सहारा लेना पड़ा। राजेश खन्ना अपने समय में स्टाइल, आत्ममुग्धता और अभिमान के प्रतीक बन चुके थे। कॉलेज में कोई लड़का स्टाइल मारता था तो लड़कियां उसे चिढ़ाती थीं -क्या रे, खुद को राजेश खन्ना समझता है क्या?’ लेकिन पिछले कुछ समय से राजेश खन्ना मानो अपना ही यह गाना जी रहे थे -हजार राहें मुड़ के देखीं कहीं से कोई सदा न आयी.. लेकिन जिन लोगों ने उनकी अंतिम यात्रा देखी है वे इस बात के गवाह हैं कि राजेश खन्ना को अपना अंतिम सलाम देने के लिए लोग पूरी मुंबई से इकट्ठा हुए थे।

Saturday, July 14, 2012

कॉकटेल


फिल्म समीक्षा

संवेदना और मस्ती की ‘कॉकटेल‘

धीरेन्द्र अस्थाना


सैफ अली खान को मान लेना चाहिए कि प्यार और संवेदना में डूबी फिल्में उनके व्यक्तित्व के ज्यादा करीब लगती हैं। यह रिश्तों और रोमांस का ‘कॉकटेल‘ उनके लिए लकी भी साबित होता है। फिल्म की कहानी इम्तियाज अली ने लिखी है। इसलिए अनुमान तो था कि कहानी में प्यार का थीसिस और एंटी थीसिस जरूर होगा इसलिए इंटरवल तक जबर्दस्त मस्ती में डूबी फिल्म के बारे में इंटरवल के बाद पता चल जाता है कि अब यह एक गंभीर किस्म का ‘यू टर्न‘ लेने वाली है। संक्षेप में कहानी कुछ यूं है- सैफ एक दिलफेंक युवक है जो प्यार वगैरह में यकीन नहीं करता। उसके लिए लड़कियां बदलना चादर बदलने जैसा है। दीपिका एक प्रैक्टिकल, कामयाब और प्रोफेशनल लड़की है। उसे मां-बाप के होते हुए भी उनका प्यार नहीं मिला। दोनों लंदन में रहते हैं और टकरा जाते हैं। सैफ दीपिका के घर रहने चला आता है। वहां डायना पेंटी है जो अपने पति की तलाश में लंदन आयी है मगर पति उसे ठुकरा चुका है। उसे दीपिका के घर में शरण मिलती है। तीनों जवान दिल दोस्तों के साथ मौज मजा करते हुए एक ही घर में एक साथ रहते हैं कि एक दिन घर में सैफ की मां आ जाती है। मां के संग-साथ से दीपिका को अहसास होता है कि भले ही उसके हिस्से में यह न आया हो लेकिन प्यार तो एक नायाब तोहफा है। वह सैफ से विवाह कर घर बसाना चाहती है, लेकिन तब तक तो लंपट किस्म के सैफ को डायना से प्यार हो चुका होता है। यह ‘थीम‘ इससे पहले कई फिल्मों में दिखायी जा चुकी है, लेकिन तो भी इसे बार-बार देखना अच्छा लगता है। कारण कि लफंगई कुछ ही देर के लिए भाती है। स्थायी तो मोहब्बत ही है। एक लंबे घटनाक्रम के बाद सैफ और डायना मिल जाते हैं और दीपिका हंसी-खुशी के साथ हार जाती है। इस फिल्म में दीपिका का काम इतना परिपक्व है कि वह एक सीनियर एक्ट्रेस होने का भ्रम देती नजर आती है। सैफ ने भी उम्दा काम किया है, लेकिन सबसे ज्यादा चकित करती है डायना पेंटी। यह उनकी पहली फिल्म है और इसी में वह अभिनय के काफी ऊंचे पायदान पर जाकर खड़ी हो गयी हैं। कहीं-कहीं वह तब्बू की झलक देती हैं। फिल्म के कई गाने पहले ही हिट हो चुके हैं। उन्हें फिल्माया भी अच्छे ढंग से गया है। रिश्तों, अभिनय, गीत, फिल्मांकन और मौज मस्ती का अच्छा कॉकटेल है यह फिल्म। देख लें। 

निर्देशक: होमी अदजानिया
कलाकार: सैफ अली खान, दीपिका पादुकोन, डायना पेंटी, डिंपल कपाड़िया, बोमन ईरानी, रणदीप हुडा
संगीत: प्रीतम चक्रवर्ती

Saturday, July 7, 2012

बोल बच्चन


फिल्म समीक्षा

रोहित की चाट मसाला ‘बोल बच्चन‘

धीरेन्द्र अस्थाना

रोहित शेट्टी मनोरंजन के नये और युवा बादशाह हैं। वह अपनी फिल्मों पर निर्माताओं का भरपूर पैसा लगवाते हैं। लेकिन दोनों हाथों से बटोरकर तिगुना-चौगुना पैसा वापस भी करते हैं। विधु विनोद चोपड़ा अच्छा सिनेमा बनाते हैं। उनकी फिल्में भी दर्शक टूटकर देखते हैं। इसके बावजूद उन्हें लगता है कि सिर्फ रबिश फिल्में ही सौ करोड़ कमाती हैं। रोहित शेट्टी को ऐसे बयानों से फर्क नहीं पड़ता। वह सौ करोड़ कमाने के लिए ही फिल्में बनाते हैं और निर्माताओं के चहेते दर्शक बने हुए हैं। एक बार फिर वे दर्शकों के स्वाद को चटपटा टच देने के लिए ‘बोल बच्चन‘ के रूप में अपनी बारह मसालों की चाट को लेकर हाजिर हुए हैं। रोहित का हिट फॉर्मूला है कॉमेडी के ताने-बाने में थोड़ा सा इमोशन और थोड़ा सा एक्शन डालकर एक तेज रफ्तार लार्जर दैन लाइफ ड्रामा तैयार करो। जैसे भी हो दर्शक को मजा मिलना ही चाहिए। उनका यह फंडा चलता है। दर्शक खुश होने के लिए हंसने के लिए रोमांचित होने के लिए रोहित की बनायी चाट खुशी-खुशी खाने सिनेमा हाल के भीतर आता है। रोहित को दर्शकों का टोटा नहीं पड़ता और फिल्म की टीम के घर पैसा बरसता है। ‘बोल बच्चन‘ की कहानी में कोई ताजगी नहीं है। पूरी फिल्म का सेंट्रल थीम एक चिरपरिचित पुराना मुहावरा है। एक झूठ को छिपाने के लिए सौ झूठ बोलने पड़ते हैं। इस मुहावरे की जमीन पर पूरी फिल्म की इमारत खड़ी की गयी है। एक छोटे बच्चे की जान बचाने के लिए अभिषेक बच्चन एक विवादित मंदिर का ताला तोड़कर उसमें बने तालाब में डूबते बच्चे को बचाता है। फिर धर्मांध लोगों से अभिषेक को बचाने के लिए असरानी का बेटा अभिषेक का नाम अभिषेक बच्चन बता देता है। जबकि अभिषेक के किरदार का नाम अब्बास अली होता है। अजय देवगन गांव के निरंकुश तानाशाह जैसा है जो स्वभाव से क्रूर दिखता है लेकिन नेक दिल वाला सच्चा इंसान है। वह झूठ और धोखे से नफरत करता है। नाम वाले झूठ को छिपाने के लिए कई और झूठ बोले जाते हैं जिनको घटित करने के लिए कई कमाल धमाल कॉमिक सिचुएशन्स खड़ी की जाती हैं। अजय देवगन तो कॉमेडी, एक्शन और इमोशन सबके राजा हैं लेकिन इस फिल्म में अभिषेक ने भी गजब कॉमेडी और अजब एक्शन किया है। फिल्म की दोनों हीरोइनों असिन और प्राची देसाई को जितना भी मौका मिला, उन्होंने खुद को प्रमाणित किया। फिल्म के गाने पहले से ही हिट हैं। बिग बी से एक गाना करवा कर फिल्म की स्टार वेल्यू बढ़ायी गयी है। देखें और मजा करें। 

निर्माता: अजय देवगन
निर्देशक: रोहित शेट्टी
कलाकर: अजय देवगन, अभिषेक बच्चन, असिन, प्राची देसाई, असरानी, अर्चना पूरन सिंह
संगीत: हिमेश रेशमिया, अजय-अतुल गोगावले

Saturday, June 23, 2012

डेंजरस गैंग्स ऑफ वासेपुर


फिल्म समीक्षा

डेंजरस गैंग्स ऑफ वासेपुर

धीरेन्द्र अस्थाना

यह अनुराग कश्यप की फिल्म है। इसे एक और गैंगस्टर फिल्म कहकर उड़ाया नहीं जा सकता। यह एक तेज गति वाली, घटनाओं से लबरेज, डेंजरस लेकिन कूल-कूल लहजे में बयान की गयी विराट कथा है। इसे इतने शानदार और सहज-सरल ढंग से बुना गया है कि कहीं कुछ उलझा नजर नहीं आता। यह अनुराग कश्यप की ‘नो स्मोकिंग’ फिल्म के एकदम उलट, पारदर्शी और स्पीडी फिल्म है। ‘नो स्मोकिंग’ एक प्रतीकात्मक और बौद्धिक फिल्म थी तो ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ कॉमन मैन की फिल्म है, जिसे कॉमन मैन के स्तर पर उतरकर बनाया भी गया है। इसका काल बहुत लंबा है। गुलाम भारत से आज तक के समय में आता हुआ। पीढ़ी दर पीढ़ी रंजिश की आंच में सुलगता-पकता वासेपुर और वासेपुर के गली कूचों में आबाद-बरबाद होती जवानियां। इस फिल्म की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि पात्रों का लगभग एक बड़ा सा मेला जुटाने के बावजूद अनुराग ने किसी भी किरदार को ‘खोने’ नहीं दिया है। उन्होंने छोटे से छोटे चरित्र को न केवल पूरा ‘स्पेस’ दिया है बल्कि प्रत्येक पात्र को परिभाषित भी किया है। इस फिल्म में एक भी घटना अतार्किक और फालतू नहीं है, इसीलिए लंबी होने के बावजूद फिल्म बांधे रखती है। सरदार खान के रूप में मनोज बाजपेयी को तो मानो पुनर्जन्म ही मिल गया है। फिल्म ‘सत्या’ के बाद शायद अब जाकर मनोज की प्रतिभा का विस्फोट हुआ है। उनके विलक्षण अभिनय के लिए यह फिल्म सिनेमा के इतिहास में दर्ज हो सकती है। तिग्मांशु धूलिया एक बेहतरीन निर्देशक हैं लेकिन इस फिल्म में अपने उम्दा और प्रभावी अभिनय से चौंका देते हैं। इसी तरह पीयूष मिश्रा मूलतः गीतकार हैं लेकिन वह भी कमाल की एक्टिंग करते हैं। फिल्म में हालांकि पारंपरिक रूप से कोई हीरोईन नहीं है लेकिन फिल्म में जो दो लड़कियां मनोज की पत्नियां बनी हैं, उन्होंने अपने अभिनय से आश्वस्त किया है। गुंडागर्दी, रंगदारी, रंजिश, मारामारी का परिवेश है तो गालियां स्वभावतः बेहद और बेधड़क हैं। एक दोस्त ने पूछा है-इस फिल्म का मकसद क्या है? जवाब फिल्म की तरह सहज है-जिंदगी की जंग में जिंदा रहने से बड़ा मकसद क्या होता है? फिल्म का दूसरा भाग अभी आना बाकी है। रंजिश जारी है। फिल्म का गीत-संगीत उसकी जान है। अवश्य देखें। 

निर्देशक: अनुराग कश्यप
कलाकार: मनोज बाजपेयी, जलालुद्दीन, पीयूष मिश्रा, ऋचा चड्ढा, हुमा कुरैशी, रीमा सेन, तिग्मांशु धूलिया, यशपाल वर्मा
संगीत: स्नेहा खानवलकर

Saturday, June 16, 2012

फेरारी की सवारी


फिल्म समीक्षा

सपने करें ‘फेरारी की सवारी’

धीरेन्द्र अस्थाना

विधु विनोद चोपड़ा भी बाजार में बैठे हुए फिल्मकार हैं लेकिन जब हिंदी के बाजार में ‘एकलव्य’ जैसी फिल्म पिट जाती है तो वह ‘राउडी राठौर’ नहीं बनाते। वह ‘मुन्ना भाई एमबीबीएस’ और ‘थ्री ईडियट्स’ बनाते हैं, जो बाजार को भी साध लेती हैं और अच्छे सिनेमा का दायरा भी बड़ा करती हैं। विधु मानते हैं कि फिल्मकार एक रचनात्मक व्यक्ति होता है और जैसे एक साहित्यकार या पत्रकार की अपने समय और समाज के प्रति जिम्मेदारी होती है, ठीक वैसे ही फिल्मकार की भी होती है। ‘फेरारी की सवारी’ बनाकर विधु ने एक बार फिर अपने दायित्व को अंजाम दिया है। पैसा तो देर-सबेर यह फिल्म भी कमा ही लेगी। फिलहाल तो अर्थपूर्ण सिनेमा की गैलरी में ‘फेरारी’ ने अपनी ‘जगह’ कमाई है। पूरी फिल्म क्रिकेट के बहाने मुसीबतों पर संघर्ष की, अवसाद पर उल्लास की, अंधेरों पर रोशनी की और राजनीति पर ईमानदारी की जीत का आख्यान है। यह गली-कूचों के कॉमन मैन द्वारा देखे जा रहे विराट सपनों के पूरा हो सकने की सच्चाई का रेखांकन भी है। कॉमेडी के ताने-बाने में बनायी गयी यह फिल्म हमारे समय और समाज के सबसे खतरनाक हालात का गंभीर विमर्श है। विधु बड़े सितारों को लेकर भी फिल्म बनाते हैं लेकिन इस फिल्म से उन्होंने साबित कर दिया है कि सफलता और सार्थकता की कसौटी केवल और केवल एक अच्छी कहानी ही होती है। निर्माताओं को यह क्यों समझ नहीं आता है कि वह केवल अच्छी फिल्में बनाएं। दर्शकों को एक दिन अच्छे सिनेमा की लत लग जाएगी। दादर की एक गली में क्रिकेट खेलने वाले एक बच्चे की कहानी के माध्यम से निर्देशक ने क्रिकेट जैसे ग्लैमरस खेल के पीछे चलती घिनौनी राजनीति को भी बख्शा नहीं है। फिल्म थोड़ी लंबी हो गयी लेकिन कहानी की रोचकता में झोल नहीं आने देती। बिना हीरोईन वाली ‘फेरारी की सवारी’ में विद्या बालन ने अपने लावणी डांस से एक अजब ही जादू बिखेरा है। एक गरीब बच्चे के जज्बाती सपनों को पंख देने के लिए अपनी जान लड़ा देने वाले पिता के किरदार को शरमन जोशी ने जबर्दस्त ऊंचाई दी है। इस फिल्म से बालीवुड में उनकी गाड़ी तो निकल पड़ी है। फिल्म की सबसे बड़ी खूबी यह है कि इसका एक भी किरदार नकली नहीं लगता। शायद इस तरह की मौलिक कहानियां रचने में तीन-चार साल का वक्त लगना जायज है। कोई बात नहीं। लगे रहो विधु विनोद चोपड़ा। 

निर्माता: विधु विनोद चोपड़ा
निर्देशक: राजेश मापुस्कर
कलाकार: शरमन जोशी, बोमन ईरानी, ऋत्विक सहोरे, (चाइल्ड आर्टिस्ट)
संगीत: प्रीतम चक्रवर्ती

Saturday, June 2, 2012

राउडी राठौर


फिल्म समीक्षा 

कमाई की ख्वाहिश में ’राउडी राठौर‘

धीरेन्द्र अस्थाना

अफसोस कि कमाई भी वैसी नहीं होगी जैसी ’दबंग‘ या ’सिंघम‘ या ’वांटेड‘ या फिर ’गजनी‘ की हुई थी। बाजार की बिसात पर ’गुजारिश‘, ’ब्लैक‘ और सांवरिया‘ जैसी कालजयी फिल्में बनाने वाला एक और ’सिने योद्धा‘ पराजित हुआ। जो सिनेमा की आस हैं, जो भविष्य के सिनेमाई पाठ हैं, जो सिनेमा के शूरवीर हैं, उनमें से एक चमकते हुए नक्षत्र को आखिरकार बाजार ने लील ही तो लिया। सार्थक और बाजारू सिनेमा के रणक्षेत्र में संजयलीला भंसाली जैसा गर्वीला फिल्मकार न सिर्फ पराजित हुआ बल्कि बाजारू सिनेमा के पैरोकार के रूप में खुद को जस्टिफाई करता भी दिखा। ’गुजारिश‘ गुजर बसर के लिए नहीं थी। ’राउडी राठौर‘ गुजारे भत्ते के लिए मानी जा सकती है क्योंकि धुआंधार कमाई तो यह भी नहीं करने वाली है। एक्शन केंद्रित मसाला फिल्म है, जो सलमान खान की हिट फिल्मों के पास भी नहीं फटकती। असल में बाजारू फिल्में बनाना भी सबके बस की बात नहीं है। एक्शन हो, कॉमेडी हो या इमोशन, मूल बात है कि आपके पास कहने के लिए कोई ठीकठाक विश्वसनीय कहानी है या नहीं। ’राउठी राठौर‘ की समस्या यह है कि यहां मारधाड़ तो बड़ी भारी है लेकिन कहानी एकदम कमजोर और ओवर एक्सपोज्ड है। गांव पर गुंडे का एक छत्र दमन, हीरो का अवतार की शक्ल में प्रकट होना और अपने पराक्रम से सब कुछ दुरुस्त कर देना। इसी के बीच में नाच-गाना-आइटम और थोड़ा सा इमोशन। बाजार के नये पैरोकार संजयलीला भंसाली जरा आत्ममंथन करें कि ’राउडी राठौर‘ और ’सिंघम‘ या ’दबंग‘ या ’गजनी‘ में क्या-क्या मूलभूत फर्क है। कमर्शियल फिल्म बनाने के इरादे भर से काम नहीं चलेगा। कमर्शियल फिल्म बनाने की कला भी सीखनी पड़ेगी। राउडी तक आते-आते सोनाक्षी सिन्हा काफी बिंदास हो गयी हैं लेकिन ’दबंग‘ के थप्पड़ वाला जैसा एक भी डायलॉग यहां उन्हें नसीब नहीं हुआ। जैसा कि कमर्शियल एक्शन फिल्मों में होता है। सोनाक्षी सिन्हा भी एक ’फिलर‘ की तरह इस्तेमाल हुई हैं। उनका अपना न कोई वजूद है, न करिश्मा। पूरी फिल्म अक्षय कुमार की है, जो डबल रोल वाली पुरानी कहानी के जरिए फिल्म को पार लगाने का प्रयत्न करते नजर आते हैं। फिल्म के तथाकथित गुंडे किरदार जरूर दिलचस्प बन पड़े है। एक-दो गाने पहले ही हिट हो चुके हैं। 

निर्माता :  संजय लीला भंसाली
निर्देशन : प्रभु देवा
कलाकार : अक्षय कुमार, सोनाक्षी सिन्हा
संगीत : साजिद-वाजिद

Saturday, May 5, 2012

जन्नत-दो


फिल्म समीक्षा 

‘जन्नत-दो’ में बड़ा अंधेरा

धीरेन्द्र अस्थाना

स्त्री पुरुष संबंधों की पेचीदगी, प्यार, नफरत और स्वर्ग-नरक पर तो बहुत सारी फिल्में बनी हैं और आगे भी बनती रहेंगी। लेकिन भट्ट कैंप की हिट फिल्म ‘जन्नत’ की सीक्वेल ‘जन्नत-दो’ ने रिश्तों की जो राह पकड़ी है, वह हिंदी सिनेमा में शायद एक नयी इबारत है। परिवेश दिल्ली का है, चरित्र और लैंग्वेज दिल्ली-यूपी के हैं। हथियारों के निर्माता पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट बहुल इलाके से हैं। इन हथियारों की गैर कानूनी डिमांड और सप्लाई के तंत्र में इमरान हाशमी एक छोटा सा मोहरा है जो दिल्ली की सड़कों का मुंबइया टपोरी जैसा है। घर से बगावत करके दिल्ली आयी एक डॉक्टरनी जाह्नवी (ईशा गुप्ता) से इमरान हाशमी को मोहब्बत हो गयी। इस मोहब्बत को अर्थ और भाषा देने वाले जो गाने ‘जन्नत-दो’ में फिल्माये गये हैं, वे जन्नत की जान हैं। फिल्म की दूसरी यूएसपी उसके संवाद हैं, जिनके जरिए संजय मासूम ने न सिर्फ एक संस्कृति और माहौल को खड़ा किया है, बल्कि अलग-अलग चरित्रों को अलग-अलग परिभाषित भी किया है। लेकिन फिल्म की सबसे बड़ी और नयी विशेषता कुछ और है। यह है एसीपी प्रताप रघुवंशी (रणदीप हूडा) और सोनू दिल्ली उर्फ कुत्ती कमीनी चीज (इमरान हाशमी) के आपसी रिश्तों का द्वंद्व, पेंच और कमीनापन। इस कमीनेपन में भी लेकिन मोहब्बत की एक सतत मौजूद ऊष्मा है, जिससे इन दोनों मुख्य पात्रों की यात्रा को गति और गर्माहट मिलती है। रणदीप हूडा येन केन प्रकारेण इमरान हाशमी को अपने खबरी के तौर पर इस्तेमाल करता है। मगर यह भी ध्यान रखता है कि उस पर कोई आंच न आने पाये। कह सकते हैं कि हिंदी सिनेमा में पहली बार एक पुलिस अधिकारी और उसके खबरी के आपसी मानवीय रिश्तों की आंच पर कोई कथानक पकाया गया है। फिल्म में कई एंटी क्लाइमेक्स भी हैं जो उत्सुकता बनाये रखते हैं। रोचकता के बावजूद फिल्म लंबी हो गयी है। संपादन से थोड़ी और कसावट लाते तो बेहतर होता। ईशा गुप्ता के मन में इमरान हाशमी की इच्छा से उसकी एक बुरी छवि स्थापित की गयी है ताकि वह यादों के बोझ से मर न जाए। फिल्म का यह अंत दुखद लेकिन रचनात्मक है जो आशिक के प्रेम की गहराई को एक नयी ऊंचाई देता है। इस फिल्म को अंडरवर्ल्ड की एक और कहानी वाले नजरिये से न देखें। यह रिश्तों के एक नये अध्याय की पड़ताल और परिभाषा है। मुख्य पात्रों के अलावा बल्ली का चरित्र सहज और प्रभावी लगता है। ईशा गुप्ता को अभी बहुत सीखना है।

प्रोड्यूसर: महेश भट्ट
कलाकार: इमरान हाशमी, रणदीप हूडा, ईशा गुप्ता, आरिफ जकरिया, मनीष चौधरी
गीत: संजय मासूम, मयूर पुरी, सईद कादरी
संगीत: प्रीतम चक्रवर्ती

Saturday, April 28, 2012

तेज


फिल्म समीक्षा

सपनों के शोक गीत सी ‘तेज’

धीरेन्द्र अस्थाना

प्रियदर्शन की नयी एक्शन थ्रिलर फिल्म ‘तेज’ एक ऐसी सुपर फास्ट ट्रेन की तरह है, जिस पर सपनों के शोक गीत लदे हैं। बड़े बजट की मल्टीस्टारर फिल्म होने के बावजूद प्रियदर्शन ने इसे कहीं-कहीं इमोशनल टच देने की अपनी पुरानी अदा का भी निर्वाह किया है। मल्लिका शेरावत का आइटम नंबर ‘लैला’ वह जादू नहीं जगाता जो इस दौर के कुछ चर्चित आइटम नंबर जगाते आये हैं। इस गाने को हटा कर फिल्म की लंबाई कुछ कम की जा सकती थी। हालांकि फिल्म की पटकथा बेहद कसी हुई और निर्देशन बहुत चुस्त व चौकस है। फिल्म शुरू होने के साथ ही दर्शकों को अपनी पकड़ में ले लेती है। फिर अंत तक उत्सुकता और गति बनी रहती है। फिल्म के सारे ही कलाकार मंजे हुए हैं और लगभग सभी ने अपने-अपने किरदारों को जीवंतता और विश्वसनीयता देने की सफल कोशिश की है। कंगना रानावत हालांकि फिल्म की मुख्य हीरोइन हैं, मगर अपने एक्शन चरित्र को बेहद खूबसूरत और रोमांचक ढंग से निभाने के कारण समीरा रेड्डी दर्शकों को ज्यादा प्रभावित करती हैं। स्पीडी बाइक चलाने का समीरा का खतरनाक अंदाज रोमांच को एक नयी ऊंचाई प्रदान करता है। जायेद खान, अनिल कपूर, अजय देवगन और बोमन ईरानी ने अपने-अपने हिस्से के तनाव को सघनता से रचा है। बिना लीगल वर्क परमिट और वीजा न होने की स्थिति में लंदन में जीवन कितना डरावना हो जाता है। इस छोटे से कथ्य पर प्रियदर्शन ने एक बड़ा सा लार्जर दैन लाइफ ड्रामा खड़ा कर दिया है। अपने साथ हुई नाइंसाफी से नाराज अजय देवगन कैसे एक ट्रेन में बम रख कर लंदन की सरकार से एक बड़ी धनराशि की मांग करता है। इस प्रक्रिया में ही फिल्म की पूरी कहानी और एक्शन साथ-साथ घटित होते हैं। सपनों के देश लंदन में कैसे एक परदेसी के सपनों को पलीता लगता है। इसे व्यक्त करने वाले कुछ मार्मिक संवाद निर्देशक ने अजय देवगन से भी बुलवाये हैं और उनकी पत्नी बनी कंगना रानावत से भी। साउथ के बड़े एक्टर मोहन लाल को छोटा सा चरित्र दिया गया है जो अखरता है। एक बड़े एक्टर को इस तरह ‘वेस्ट’ नहीं करना चाहिए। शुद्ध टाइम पास फिल्म है जो उम्दा ढंग से बनायी गयी है। एक बार देखी जा सकती है। गीत- संगीत प्रभावशाली है।

निर्देशक: प्रियदर्शन
कलाकार: अनिल कपूर, अजय देवगन, जायेद खान, बोमन ईरानी, मोहन लाल, कंगना रानावत, समीरा रेड्डी
संगीत: साजिद-वाजिद

Monday, April 23, 2012

विकी डोनर


फिल्म समीक्षा

जीवन से लबरेज ‘विकी डोनर’

धीरेन्द्र अस्थाना

यह तो अजब-गजब कमाल हो गया। सोचा था, गुमनाम कलाकारों की चालू सी कॉमेडी फिल्म होगी जिसे पूरे एक सौ बाइस मिनट झेलना होगा। लेकिन यह तो ‘तनु वेड्स मनु’ या ‘तेरे बिन लादेन’ या ‘बैंड बाजा बारात’ की तर्ज पर छोटी दुकान का ऊंचा पकवान निकली। अगर इसे इस वर्ष की अब तक की सबसे बेमिसाल फिल्म कहा जाए तो भी ज्यादा नहीं होगा। शूजीत सरकार के निर्देशन ने इस छोटे बजट वाली नये कलाकारों की फिल्म को लगभग सिनेमाई पाठ में ही बदल दिया। एक बंगाली निर्देशक ने पंजाबी भाषा, बोली, खान-पान, रहन-सहन, संस्कृति, रोजगार, परिवेश यानी समूचा लाइफ स्टाइल ही जिस जिंदादिल, वास्तविक और रोचक अंदाज में पेश किया है उसके सामने बड़े-बड़े पंजाबी फिल्मी घराने बहुत कम लगते हैं। ‘स्पर्म डोनेशन’ जैसे अछूते विषय पर बनने वाली यह शायद हिंदी की पहली फिल्म भी है। निःसंतान माता-पिता की जिंदगी में औलाद का चिराग रोशन करने जैसी गंभीर कहानी को निर्देशक ने इतने हल्के-फुल्के, गुदगुदाते अंदाज में पेश किया है कि पूरी फिल्म एक प्यारा सा, सुख देने वाला अनुभव ही बन जाती है। इंटरवल तक तो अगल-बगल, आगे- पीछे की सभी कुर्सियों से युवा लड़के लड़कियों की बेलौस खिलखिलाहट ही सुनाई पड़ती रहती है। जिंदगी से लबरेज और मस्ती से लबालब फिल्म है ‘विकी डोनर।’ पैसे कमाने के लिए स्पर्म डोनेट करने का धंधा करने वाला एक नासमझ, बेकार युवक कैसे एक बड़े संसार को बेहिसाब खुशियां सौंपने का माध्यम बन जाता है, इसे निर्देशक ने 53 बच्चों और उनके मां-बाप को एक साथ एक दृश्य में उतार कर साकार किया है। ये सभी बच्चे विकी के स्पर्म से जन्मे हैं। त्रासदी यह है कि खुद इसी विकी की पत्नी मां नहीं बन पाती है। इसके बाद का रोचक हिस्सा जानने के लिए स्वयं यह फिल्म देखें। जहां तक अभिनय का मामला है तो डॉ. चड्ढा बने अन्नू कपूर की अपने जीवन की सबसे महत्वपूर्ण फिल्म यह बन गयी। दोनों युवा सितारों आयुष्मान खुराना और यमी गौतम ने संकेत दे दिया है कि वे बहुत दूर जाने वाले हैं। कहानी, निर्देशन, संगीत, संवाद, अभिनय हर स्तर पर ‘विकी डोनर’ एक जानदार-शानदार फिल्म है।

निर्देशक: शूजीत सरकार
कलाकार: आयुष्मान खुराना, यमी गौतम, अन्नू कपूर
संगीत: विश्वदीप चटर्जी

राष्ट्रीय सहारा 22 अप्रैल 2012

Monday, April 16, 2012

बिट्टू बॉस

फिल्म समीक्षा

कहानी बिखर गयी ‘बिट्टू बॉस’

धीरेन्द्र अस्थाना

पंजाबी तड़का मार के, एक साधारण से शहर के, साधारण से युवक की मजेदार सी लव स्टोरी बनाने की कोशिश की थी निर्देशक सुपवित्र बाबुल ने। लेकिन इंटरवल के बाद फिल्म को अंजाम तक पहुंचाने में कन्फ्यूजन इस कदर बढ़ा कि कहानी बिखर ही तो गयी ‘बिट्टू बॉस’ की। अनुष्का शर्मा और रणवीर सिंह की हिट फिल्म ‘बैंड बाजा बारात’ की तर्ज पर बनायी गयी ‘बिट्टू बॉस’ भी सफल हो सकती थी अगर कहानी को कायदे से साध लिया जाता। बॉलीवुड के बहुत बड़े प्रोड्यूसर कुमार मंगत पाठक की फिल्म थी इसलिए नयी कास्ट होने के बावजूद इतने सारे थियेटर भी मिल गये वरना फिल्म को थियेटरों के लाले पड़ जाते। इसे कहते हैं एक बड़ा और सुनहरा मौका चूक जाना। पुलकित सम्राट और अमिता पाठक (प्रोड्यूसर की बेटी) ने भी अगर अनुष्का-रणवीर जैसा जानदार शानदार अभिनय कर दिखाया होता तो इन दोनों का भविष्य इनके लिए कोई दूसरी स्वर्णिम इबारत लिख रहा होता। फिलहाल तो यही लगता है कि रील लाइफ का स्ट्रगलर वीडियो शूटर बिट्टू (पुलकित सम्राट) रीयल लाइफ में स्ट्रगल से जल्दी पीछा नहीं छुड़ा सकेगा। अमिता पाठक को नयी फिल्म पकड़ने से पहले अभिनय के कई पाठ संजीदगी से पढ़ने होंगे। दोनों ही युवाओं को अपनी बॉडी लैंग्वेज पर मेहनत करनी होगी। असल में अभिनय से भी ज्यादा दोष कहानी का है। शादी ब्याह का स्टार फोटोग्राफर प्रेमिका की नजरों में बड़ा और सफल आदमी बनने के लिए जिस गंदी यात्रा पर निकलता है वह तार्किक नहीं है। ब्लू फिल्म बनाने के धंधे में उतरना उसके जमीर को रास नहीं आता, यह तार्किक था। पर अचानक जिस तरह वह एक ब्लू फिल्म रैकेट का पर्दाफाश कर ऊंचाई के रास्ते पर एक आदर्श छलांग लगाता है वह पूरी तरह अवास्तविक लगता है। इस मोड़ पर पहुंच कर एक सीधी सादी सी मध्यमवर्गीय प्रेम कहानी मामूली सी कॉमेडी में बदल जाती है। पुलकित और अमिता के बीच न तो प्रेम की गहराई ही स्थापित हो पाती है और न ही दोनों के बीच के तनाव की ही व्याख्या हो पाती है। पुलकित के सहयोगी के रूप में जिस नामालूम से टैक्सी ड्राइवर को फिल्म में जगह दी गयी है उसने अपने लाजवाब अभिनय से कमाल रच दिया है - शक्ल से ऐसा नहीं लगता न (यह उस मामूली से लड़के का तकिया कलाम है)। फिल्म की उपलब्धि यही लड़का है। फिल्म के आरंभ में कुछ अभद्र और अश्लील संवाद हैं जिनकी बिल्कुल भी जरूरत नहीं थी। सेंसर को क्या होता जा रहा है?

निर्देशक: सुपवित्र बाबुल
कलाकार: पुलकित सम्राट, अमिता पाठक
संगीत: राघव सच्चर

Monday, April 9, 2012

हाउसफुल-टू

फिल्म समीक्षा

हाउसफुल-टू भी मस्ती से फुल

धीरेंद्र अस्थाना

जो लोग सिनेमा के जरिये सामाजिक बदलाव लाने में यकीन रखते हैं और इस यकीन को मजबूत करने के लिए सिनेमा बनाते रहते हैं, निर्देशक साजिद खान उनमें से नहीं हैं। वह लोगों को खुश रखने के लिए, उन्हें हंसाने के लिए, उन्हें दो तीन घंटे शुद्ध मनोरंजन के साये में बिठाए रखने के लिए फिल्में बनाते हैं। अपने इस मकसद में वह कामयाब भी होते हैं। आम जनता खुश होकर उनकी फिल्में देखने जाती है और हंसते मुस्कराते बाहर निकलती है। आलोचक भले ही उनके सिनेमा को यथार्थ से पलायन कहें पर उनका सिनेमा कामयाब सिनेमा है। ‘हाउसफुल’ की तरह साजिद खान की ‘हाउसफुल-टू’ भी सौ प्रतिशत मनोरंजन का खजाना है, जिसमें नाच-गाना, हंसना-हंसाना, मार-धाड़, कॉमेडी-एक्शन-इमोशन सब कुछ भरपूर मात्रा में है। सिचुएशन से लेकर संवादों तक में इतना हास्य है कि सिनेमा हॉल के भीतर चारों तरफ से हंसी के फव्वारे छूटते रहते हैं। जब बाहर की दुनिया दुर्घटनाओं, दुखों और त्रास से भरी हुई हो तब हॉल के भीतर की खुशनुमा और मौज-मस्ती की दुनिया भला किसे सुकून नहीं देगी। यही वजह है कि पहले ही दिन ‘हाउसफुल-टू’ दिखा रहे थियेटर सचमुच हाउसफुल थे। पहली फिल्म अभिनेता अक्षय कुमार के आसपास घूमती थी लेकिन यह वाली फिल्म कुल मिलाकर दस चरित्रों के जरिए साकार होती है। चार हीरो की चार हीरोइनें और उनके मां-बाप यानी कलाकारों का एक बड़ा संसार दर्शकों का दिल जीतने में कामयाब हुआ है। ऊपर से पहले ही हिट हो चुका ‘अनारकली डिस्को चली’ वाला आइटम नंबर, दर्शक झूम ही तो उठे। शुद्ध रूप से ‘माइंडलेस कॉमेडी’ का उम्दा उदाहरण है यह फिल्म। मिथुन चक्रवर्ती और बोमन ईरानी के थोड़ा अलग ढंग के किरदार प्रभावित करते हैं। फिल्म को हिट कराने में जॉनी लीवर का योगदान भी माना जाएगा। ऋषी और रणधीर कपूर की कॉमेडी भी उल्लेखनीय है।

निर्देशक: साजिद खान
कलाकार: अक्षय कुमार, जॉन अब्राहम, रितेश देशमुख, श्रेयस तलपदे, असिन, जैकलीन फर्नाडिस, जरीन खान, शहजहान पद्मसी, बोमन ईरानी, ऋषी कपूर, रणधीर कपूर, मिथुन चक्रवर्ती
संगीत: साजिद-वाजिद

Monday, April 2, 2012

ब्लड मनी

फिल्म समीक्षा

ब्लड मनी के सौदागर

धीरेंद्र अस्थाना

अगर इस फिल्म में ऋतिक रोशन-प्रियंका चोपड़ा या नील नितिन मुकेश-कंगना रानावत या फिर इमरान खान-सोनम कपूर की ही जोड़ी होती तो ‘ब्लड मनी’ का बॉक्स ऑफिस नजारा कुछ और होता। तब शायद ‘ब्लड मनी’ से होने वाली कमाई देख कर भट्ट कैंप हैरान रह जाता। लेकिन अच्छी, थोड़ा ताजगी लिए हुए, अलग अंदाज की कहानी चुनने के बावजूद ‘विशेष फिल्म्स‘ बजट के मामले में मार खा जाती है। कहानी अच्छी है। बड़े-बड़े रंगीन ख्वाब देखने वाला एक निम्न मध्यमवर्गीय युवक विदेश में अचानक एक बड़ी सी नौकरी पा जाता है। जो सपनों में भी न अटे इतना विशाल घर पा जाता है। अपनी युवा बीबी को नौकरी के कुछ ही दिन बाद पच्चीस लाख की कीमत वाला हीरों का हार गिफ्ट करे। बीवी शक करे कि सब कुछ इतना अच्छा और सुहाना क्यों हो रहा है। लेकिन अपने सपनों के पंख पर सवार युवक और उड़ता जाए। फिर वह फंस जाए मौत बेचने वाले काले सौदागरों के मकड़ जाल में। सपने बदल जाएं दुस्वप्न में। रिश्ते हो जाएं ध्वस्त। जीवन बन जाए जंजाल। लेकिन इस सीधी सरल कहानी की पेचीदगियों और भयावहता को एक विस्फोट के साथ उछाल देने के लिए कुणाल खेमू-अमृता पुरी की जोड़ी सक्षम नहीं निकली। सौदागरों का सत्यानाश करने में कुणाल की कम उम्र आड़े आ गयी और अमृता पुरी को तो अभिनय करना ही नहीं आया। न दुख का, न सुख का, न ही गुस्से का। फिल्म का निर्देशन कसा हुआ है। केपटाउन और अंगोला के लोकेशन मनभावन हैं। कहीं-कहीं पर फिल्म के संवाद प्रभावित करते हैं। लेकिन समस्या वही है कि एक हर दृष्टिकोण से ‘एडल्ट’ फिल्म को कम उम्र बच्चे जीने निकले हैं। इसीलिए अनेक दृश्यों में कुणाल का अभिनय सहज नहीं लगता। यह अलग बात है कि कुणाल ने अपनी तरफ से फिल्म में जान लगा दी है। अगर कुणाल को कल्कि कोचलिन का साथ मिल जाता तो भी शायद फिल्म का मिजाज और प्रभाव बदल जाता। बहरहाल, भट्ट कैंप से निकली युवा सपनों की पड़ताल करती एक ठीक ठाक फिल्म है जिसे एक बार तो देखा ही जाना चाहिए। फिल्म का सबसे अच्छा पक्ष इसका गीत-संगीत है।

निर्देशक: विशाल म्हाडकर
कलाकार: कुणाल खेमू, अमृता पुरी, मनीष चौधरी
संगीत: जीत गांगुली, सिद्धार्थ हल्दीपुर

Monday, March 26, 2012

एजेंट विनोद

फिल्म समीक्षा

स्पीडी और स्टाइलिश एजेंट विनोद

धीरेन्द्र अस्थाना

कई बार रुक-रुककर बनी सैफ अली खान की महत्वपूर्ण और महत्वाकांक्षी फिल्म ‘एजेंट विनोद’ सिर्फ स्टाइलिश और स्पीडी है। जासूसी और आतंकवादी विरोधी विषय पर पहले भी बहुत सारी फिल्में बनी हैं। यह एक और ऐसी ही फिल्म है। लगभग तीन घंटे लंबी यह फिल्म दर्शकों को बोर नहीं होने देती, यही इसकी खूबी है। वरना तो इतनी महंगी फिल्म बनना ही निरर्थक हो जाता। श्रीराम राघवन की निर्देशन पर शुरू से ही पकड़ बनी रहती है और पटकथा भी ढीली नहीं पड़ने पाती। सैफ अली खान का एक्शन रोचक, रोमांचक और तेज रफ्तार बाइक जैसा है। करीना कपूर ने भी एक्शन दृश्यों में अपनी तरफ से भरपूर मेहनत की है। लेकिन सैफ और करीना दोनों ही इमोशनल फिल्मों में ज्यादा प्रभावशाली और जीवंत लगते हैं। यह ठीक है कि सैफ ने सलमान, आमिर, शाहरुख और अक्षय कुमार से कमतर एक्शन नहीं किया है लेकिन न जाने क्यों सैफ के चेहरे और चरित्र पर ‘हम तुम’ या ‘लव आजकल’ जैसा किरदार ही ज्यादा भाता है। करीना को तो खुद को भावना प्रधान या चरित्र प्रधान किरदारों पर ही केंद्रित करना चाहिए। उसी के लिए वह जानी और पहचानी जाती हैं और वही उनका अपना ठप्पा भी है। अभिनय और निर्देशन के बाद तीसरी खूबी फिल्म की यह है कि ढेर सारे चरित्रों से भरी होने के बावजूद फिल्म का प्रत्येक एक्टर न सिर्फ परिभाषित है बल्कि अपनी ‘जर्नी’ भी पूरी करता है। फिर चाहे वह माफिया डॉन के रूप में प्रेम चोपड़ा हों, या कर्नल के रूप में आदिल हुसैन। सैफ एक भारतीय खुफिया अधिकारी है और करीना पाकिस्तानी जासूस। सैफ एक न्यूक्लीयर बम का पीछा करने के मिशन पर है। वह अपने मिशन में कामयाब भी होता है लेकिन इस दौरान गोलीबारी में, अपनी प्रेमिका बन चुकी, करीना कपूर को खो देता है। पता नहीं हीरोइन की मृत्यु को दर्शक पसंद करेंगे या नहीं लेकिन करीना का मरना कहानी में अनिवार्य नहीं था। जो भी हो ‘एजेंट विनोद’ एक दिलचस्प फिल्म तो है ही, यह अलग बात है कि वह हमारे ज्ञान या संवेदना में कोई इजाफा नहीं करती।

निर्देशक: श्रीराम राघवन
कलाकार: सैफ अली खान, करीना कपूर, प्रेम चोपड़ा, मरयम जकारिया, आदिल हुसैन, गुलशन ग्रोवर, रवि किशन
संगीत: प्रीतम चक्रवर्ती

Thursday, March 22, 2012

कहानी

फिल्म समीक्षा

अद्भुत और यादगार ‘कहानी‘

धीरेन्द्र अस्थाना

लगातार नयी उंचाइयों को नाप रहे हैं विद्या बालन के कदम। ‘डर्टी पिक्चर‘ के बाद एक और यादगार फिल्म जो विद्या बालन के विलक्षण अभिनय के कारण हिंदी सिनेमा के इतिहास में दर्ज की जाएगी। निर्देशक सुजोय घोष की ‘कहानी‘ एक सस्पेंस थ्रिलर होने के बावजूद थोड़ी बौद्धिक जरुर हो गयी है लेकिन कसी हुई पटकथा और रोचक घटना क्रम के कारण बांध कर रखने में सफल है। फिल्म का अंत थोड़ा जटिल और सांकेतिक है जो दर्शकों को उलझा देता है। अगर अंत को थोड़ा स्पष्ट और सरल कर दिया जाता तो आम दर्शक फिल्म का मजा खुलकर ले सकते थे। यह बात आम दर्शक को जल्दी समझ में नहीं आएगी कि फिल्म की प्रमुख पात्र विद्या बागची (विद्या बालन) और उसका पति अरनब दोनों ही खुफिया ऑफिसर थे, कि मेट्रो ट्रेन के गैस हादसे में आम लोगों के साथ अरनब भी मारा गया था, कि इस हादसे को अंजाम देने वाले आतंकवादी को खोजने और उससे बदला लेने के लिए ही विद्या कोलकाता आयी थी, कि आतंकवादी मिलन दामजी का सफाया करने के लिए ही विद्या ने गर्भवती औरत का भेष धरा था कि मिलन दामजी तक पहुंचने के लिए खुफिया तंत्र विद्या का नहीं बल्कि विद्या ही खुफिया तंत्र का इस्तेमाल कर रही थी। इतने सारे पंेच समझने के लिए अगर दर्शकों को माथापच्ची न करनी पड़ती तो ‘कहानी‘ भी ‘डर्टी पिक्चर‘ की तरह हिट हो जाती। जो भी हो इस फिल्म में भी विद्या बालन ने साबित कर दिया है कि वह अपने अकेले के दम पर भी पूरी फिल्म चला सकती है। उसे किसी बड़े स्टार की बैसाखी नहीं चाहिए। हाव भाव, चाल-ढाल और मेकअप (साधारण स्त्री का रुप) से विद्या बालन ने एक गर्भवती स्त्री के किरदार को जितने सहज और प्रभावशाली ढंग से व्यक्त किया है, वह सचमुच अजब-गजब लगता है। फिल्म में विद्या का किरदार इतना विराट हो गया है कि बाकी के चरित्र ‘सपोर्टिंग एक्टर‘ जैसे हो गये हैं। ‘कहानी‘ की सबसे जबर्दस्त खूबी यह है कि फिल्म की असली कहानी अंत तक ‘लीक‘ नहीं होती इसीलिए अंत में जब विद्या बालन अपना भेष उतार कर मिलन दामजी की हत्या करती है तो दर्शक अवाक रह जाते हैं। तेज तर्रार ,बद्दिमाग और खतरनाक खुफिया ऑफिसर के रुप में नवाजुद्दीन सिद्दीकि ने विद्या की ताली से अपनी ताली मिलायी है। अवश्य ही देखने वाली अवार्ड बटोरु फिल्म है।

निर्देशकः सुजोय घोष
कलाकारः विद्या बालन, परमव्रत चट्टोपाध्याय, नवाजुद्दीन सिद्दीकि,दर्शन जरीवाला
संगीतः विशाल-शेखर

पान सिंह तोमर

फिल्म समीक्षा

बगावत के बीहड़ में पान सिंह तोमर

धीरेन्द्र अस्थाना

बरसों बरस पुरानी कहावतें हैं, घटनाएं हैं और उदाहरण हैं-कोई जन्मजात अपराधी या डकैत या बागी नहीं होता। सामाजिक-राजनैतिक-प्रशासनिक अन्याय और दमन ही आदमी को बगावत के बीहड़ में धकेलता है। जुल्म के विरुद्ध हथियार उठा लेने के पीछे हमेशा से यही एक यथार्थ काम करता आ रहा है। जब इस यथार्थ को बाजार की चाशनी में लपेट कर रोमानी नजरिए से धर्मेन्द्र, सुनील दत्त, दिलीप कुमार, अमजद खान की फिल्में बनायी जाती हैं तो वह शुद्ध मनोरंजन होता है। लेकिन जब इस यथार्थ को समकालीन और ज्वलंत प्रश्नों का ताना बाना पहना कर पेश किया जाता है तो वह विमर्श बनता है। निर्देशक तिग्मांशु धूलिया की नयी फिल्म ‘पान सिंह तोमर‘ इसी विमर्श और मकसद वाली श्रेणी की फिल्म है जो ‘मीनिंगफुल सिनेमा‘ के दायरे को थोड़ा और बड़ा करती है। देश के लिए गोल्ड मेडल जीतने वाले एक तेज धावक पान सिंह तोमर के बागी बन चंबल के बीहड़ में उतर जाने के सफर को अत्यंत सधे हुए और रोचक ढंग से बयान करने वाली यह फिल्म खेल और डकैती के कोलाज तथा द्वंद्व को जिस प्रभावशाली ढंग से उठाती है, वह अद्भुत और अविस्मरणीय है। फिल्म देख कर लगता है कि पान सिंह तोमर के सरल और जटिल चरित्र का विरोधाभास जिस अंदाज और अदा के साथ इरफान खान ने निभाया है वैसा किसी स्टार कलाकार के लिए करना शायद बेहद कठिन होता। कहानी सिर्फ इतनी है कि इरफान एक सरल ग्रामीण है जो फौज में शामिल होता है। उसका रुझान दौड़ने में है सो वह धावक बन जाता है। पूरे विश्व में भारत का नाम रौशन करता है। रिटायर होकर जब वह गांव लौटता है तो उसका अपना चचेरा परिवार जुल्म की बंदूकें ताने वहां तैनात मिलता है। पुलिस-प्रशासन से न्याय नहीं मिलता तो मजबूरी में पान सिंह तोमर हाथ में बंदूक लेकर चंबल के बीहड़ में उतर जाता है। वहां वह अपना ‘गैंग‘ बनाता है और एक दिन पुलिस मुठभेड़ में मार दिया जाता है। इस कहानी की लोमहर्षक घटनाओें को निर्देशक ने बेहद ‘कूल‘ ढंग से फिल्माया है। फिल्म का एक भी हिस्सा ‘लाउड‘ नहीं है। डकैत का भी अपना एक परिवार होता है इस सच्चाई के कुछ दृश्यों ने फिल्म को मार्मिक स्पर्श दिया है। फिल्म के संवाद इसकी जान हैं तो अभिनय आत्मा। अनिवार्य रुप से देखने लायक फिल्म है।

निर्देशक: तिग्मांशु धूलिया
कलाकार: इरफान खान, माही गिल, विपिन शर्मा
संगीत: अभिषेक रे

Wednesday, March 21, 2012

जोड़ी ब्रेकर्स

फिल्म समीक्षा
प्यार में पड़ गये ‘जोड़ी ब्रेकर्स‘
धीरेन्द्र अस्थाना

पिछले कुछ समय से जैसी फिल्में आ रही हैं कि नायक-नायिका को एक-दूसरे से अलग होने के बाद पता चलता है कि उन्हें तो प्यार हो गया है। यह भी वैसी ही फिल्म है लेकिन इसमें तो दर्शकों को भी पता चल जाता है कि जोडी तोड़ने का धंधा करने वाले माधवन और बिपाशा बसु को एक-दूसरे से प्यार होने ही वाला है। इन दो अच्छे कलाकारों लेकिन बेमेल जोड़ी को लेकर ‘जोड़ी ब्रेकर्स’ बनाने वाले निर्देशक अश्विनी चौधरी की कहानी पर पकड़ फिल्म शुरू होते ही छूट गयी। इंटरवल तक तो समझ ही नहीं आता कि यह रोमांटिक फिल्म है या कॉमेडी या फिर रोमांटिक कॉमेडी। डाइवोर्स लेने के बाद माधवन को आइडिया आता है कि क्यों न एक-दूसरे से बोर हो चुके पति-पत्नी को तलाक दिलाने का ही धंधा शुरू कर दिया जाए। इस पेशे में उसके साथ एक संयोग के चलते बिपाशा बसु भी पार्टनर बन जाती हैं। दोनों ‘जोड़ी ब्रेकर्स’ का धंधा चल निकलता है लेकिन न तो इन दोनों कलाकारों से और न ही इनके धंधे से दर्शक खुद को ‘को-रिलेट’ कर पाते हैं। आश्चर्य है कि दोनों बेहतरीन कलाकार हैं, इसके बावजूद इनके काम से ऐसा लग रहा था, जैसे यह दोनों पर्दे पर अभिनय की औपचारिकता पूरी करने आए हों। माधवन अपने मोटापे के कारण आज के नहीं, संजीव कुमार या शम्मी कपूर के समय के हीरो जैसे लगने लगे हैं। एक नये सौदे के तहत दोनों ग्रीस जाते हैं और मिलिंद सोमण तथा उनकी पत्नी के बीच भारी गलतफहमी क्रिएट करवा के लौट आते हैं। ग्रीस के ट्रिप में माधवन को एहसास होता है कि उसे बिप्स से लव हो गया है लेकिन वह इस तथ्य से मुंह चुरा लेता है। गुस्सैल बिप्स उसके जीवन से निकल जाती है। इस बीच मिलिंद सोमण अपनी पत्नी को छोड़ देता है। दोनों को फिर से मिलाने के लिए माधवन एक बार फिर बिप्स के साथ व्यावसायिक जोड़ी बनाता है क्योंकि उसे एक डाक्टरी रिपोर्ट से पता चलता है कि मिलिंद की पत्नी तो गर्भवती है। अपने अपराध बोध के कारण इस बार वह जोड़ी तोड़ने के नहीं, जोड़ी बनाने के धंधे में उतरता है। इसी प्रक्रिया के चलते बिप्स के साथ एक बार फिर उसकी इमोशनल जोड़ी बन जाती है। पिक्चर को उसका सुखांत मिल जाता है। फिल्म के दो-तीन गाने और बिपाशा का डांस जरूर बेहतर है।

निर्देशक:अश्विनी चौधरी
कलाकार: माधवन, बिपाशा बसु, ओमी वैद्य, मिलिंद सोमण, दीपानिता शर्मा, हेलन
संगीत: सलीम-सुलेमान

एक दीवाना था

फिल्म समीक्षा
कहानी के घर में ‘एक दीवाना था ‘

धीरेन्द्र अस्थाना

बिल्कुल ऐसा लगा जैसे दो हजार बारह के अत्याधुनिक और बेपरवाह समय में सन् सत्तर-पिचहत्तर की कोई साहित्यिक प्रेम कहानी घट रही हो। बहुत दिनों के बाद युवाओं के प्यार पर केंद्रित कोई समझदार, संवेदनशील और विश्वसनीय फिल्म सामने आयी है। निर्देशक गौतम मेनन ने अपनी अगली फिल्म ‘एक दीवाना था ‘ को बेहद साफ सुथरे और कलात्मक ढंग से प्यार की एक ऐसी यात्रा में बदल दिया है जिसमें युवा दिलों की उमंग है, उलझन है, सहजता है, मुश्किल है, कनफ्युजन है और है निर्णय लेने का हौसला। इस फिल्म के माध्यम से ‘यूथ ओरियेन्टेड‘ विषय या विमर्श की कहानी के घर में वापसी हुई है। प्रतीक बब्बर ने अपने सहज और जीवंत अभिनय से यह दर्ज किया है कि बॉलीवुड को एक और नया रोमांटिक हीरो मिल गया है जिस पर भरोसा किया जा सकता है कि बहुत जल्द वह अपना विशेष दर्शक वर्ग बना लेगा। एक मध्यवर्गीय युवक की प्यार पाने की तड़प् और हड़बड़ी को गहरी दीवानगी के साथ अभिव्यक्त करने की उसकी अदाकारी ने फिल्म में जान डाल दी है। कैटरीना कैफ के बाद बॉलीवुड को एमी जैक्सन के रुप में एक और विदेशी हीरोईन मिल गयी है जो भारतीय रंग-ढंग और बॉडी लैंग्वेज के अनुरुप ढल गयी है। अपनी पहली ही फिल्म में एमी ने जता दिया है कि वह भविष्य की उम्मीद है। केरल की लड़की और महाराष्ट्रª का लड़का, इन दोनों युवाओं की उलझन और बाधाओं से भरी प्रेम कहानी को दुखांत पर पहुंचने के बाद जिस खूबसूरती से सुखांत स्पर्श दिया है वह काबिले तारीफ है। कोई बनावटी फार्मूला नहीं। कोई अविश्वसनीय छलांग नहीं। सारा कार्य व्यापार खरी खरी संवेदनाओं का। पूरी उतार चढ़ाव भरी यात्रा बिल्कुल वैसी जैसी जिदंगी की जंग, जिसमें कभी जीत तो कभी हार। कुछ दृश्य और उपकथाएं कमल हासन की फिल्म ‘एक दूजे के लिए‘ की याद दिलाते हैं। नकल के संदर्भ में नहीं प्यार के तीव्र आवेग के संदर्भ में। कुछ संवाद बहुत प्रभावी और यथार्थवादी है। जैसे प्रतीक का एमी को यह कहना-‘वह जो देखते ही शटाक से हो गया था ना , वही प्यार है।‘ या रमेश सिप्पी की फिल्म कर रहे कैमरा मैन का प्रतीक से कहना-‘ अपनी गर्लफ्रेंड के भाई की नाक कोई तोड़ता है क्या?‘ जिंदगी से एमी के चले जाने के बावजूद प्रतीक द्वारा एमी के वजूद में ही रहते रहना और एमी की जिंदगी पर फिल्म बनाना एक दीवाना था को एक मर्मस्पर्शी उंचाई देता है। बारीक प्यार करने और पसंद करने वालों के लिए अनिवार्यतः देखने लायक फिल्म। ए ़ आर ़रहमान और जावेद का जादू बोनस समझ लें।
निर्देशक: गौतम मेनन
कलाकारः प्रतीक बब्बर, एमी जैक्सन,मनु रिषी,सचिन खेडेकर, सामंथा।
संगीत: ए ़ आर. रहमान

Thursday, February 16, 2012

एक मैं और एक तू

फिल्म समीक्षा

दिलचस्प मगर अवास्तविक ‘एक मैं और एक तू‘

धीरेन्द्र अस्थाना

बेहतर पटकथा, भव्य विदेशी सैर सपाटा, कर्णप्रिय और ताजगी भरा गीत-संगीत, चुस्त निर्देशन और शानदार-जानदार अभिनय। फिर क्या हुआ कि दर्शक बड़ी संख्या में फिल्म देखने नहीं पहुंचे। वही जिसके लिए फिल्म समीक्षक बरसों से सिर पीट रहे हैं। एक अच्छी सी दिल को छूने वाली विश्वसनीय कहानी। धर्मा प्रोडक्शन से निकली नयी फिल्म ‘एक मैं और एक तू’ की सबसे बड़ी कमी यही है कि निर्देशक ने टार्गेट दर्शक यानी युवाओं पर तो फोकस किया मगर कहानी ऐसी चुनी जिसे भारतीय युवक अपनी कहानी नहीं मान सकते। युवा फ्रस्ट्रेशन और प्रॉब्लम को यह फिल्म जितनी ताकत और रोचकता से लगभग अंत में रेखांकित करती है वह काबिले तारीफ है, मगर इमरान एक पार्टी में अपने मां-बाप के सामने अपनी दबी-कुचली इच्छाओं को लेकर जो गुस्सैल विस्फोट करता है उसकी प्रक्रिया अथवा यात्रा अनुपस्थित है। करीना कपूर और इमरान खान जैसे जन्मजात कलाकार इस फिल्म को बहुत ऊंचाई पर ले जा सकते थे, अगर निर्देशक-लेखक शकुन बत्तरा ने कहानी को थोड़ा रियल स्पर्श देने का प्रयत्न किया होता। माना कि दो रईस मां-बाप की संतानें करीना कपूर और इमरान खान विदेश में बेरोजगार होने के बावजूद बढ़िया शराब पी रहे हैं, अच्छा खाना खा रहे हैं, होटलों में नाच-गा रहे हैं, मेले-तमाशों का मजा लूट रहे हैं और कार से चलकर संघर्ष कर रहे हैं, क्योंकि वे रईसों की संतानें हैं। माना कि लॉस वेगास के मैरिज चैपल में किसी भी वक्त, किसी भी हालत में शादी हो जाती है। इसलिए नशे में टल्ली होकर करीना-इमरान भी आधी रात को मैरिज कर लेते हैं। सुबह होश में आने पर दोनों इस लीगल शादी से बंधन मुक्त होने के लिए कोर्ट में अर्जी भी देते हैं जिस पर दर्शक ‘एप्रूव्ड’ की स्टैम्प भी लगता देखते हैं। लेकिन बाद में इमरान को लगता है कि उसे करीना से प्यार हो गया है जबकि करीना उसे समझाती है कि वह दोस्ती को प्यार समझ रहा है। दोनों बोर लाइफ से ‘ब्रेक’ लेने के लिए इंडिया जाते हैं, जहां जिंदगी भर अपने मां-बाप के निर्देशों तले जीने वाला इमरान अपनी खुद की चाहतों का विस्फोट करता है और मां-बाप को हतप्रभ छोड़ वापस लॉस वेगास लौट जाता है। इस बार उसके पास नौकरी भी है। फिल्म इस ‘नोट’ पर खत्म होती है कि इमरान करीना को फिर से शादी करने के लिए राजी करने का प्रयास करता रहेगा। यह इंडियन रियलिटी नहीं है भाई। मुंबई दिल्ली में भी युवाओं की रिलेशनशिप ऐसी नहीं है। हां लॉजिक से कोई लेना-देना नहीं है तो फिल्म देख लें।

निर्देशक: शकुन बत्तरा
कलाकार: इमरान खान, करीना कपूर, राम कपूर, बोमन ईरानी, रत्ना पाठक, सोनिया मेहरा
संगीत: अमित त्रिवेदी