Monday, April 2, 2012

ब्लड मनी

फिल्म समीक्षा

ब्लड मनी के सौदागर

धीरेंद्र अस्थाना

अगर इस फिल्म में ऋतिक रोशन-प्रियंका चोपड़ा या नील नितिन मुकेश-कंगना रानावत या फिर इमरान खान-सोनम कपूर की ही जोड़ी होती तो ‘ब्लड मनी’ का बॉक्स ऑफिस नजारा कुछ और होता। तब शायद ‘ब्लड मनी’ से होने वाली कमाई देख कर भट्ट कैंप हैरान रह जाता। लेकिन अच्छी, थोड़ा ताजगी लिए हुए, अलग अंदाज की कहानी चुनने के बावजूद ‘विशेष फिल्म्स‘ बजट के मामले में मार खा जाती है। कहानी अच्छी है। बड़े-बड़े रंगीन ख्वाब देखने वाला एक निम्न मध्यमवर्गीय युवक विदेश में अचानक एक बड़ी सी नौकरी पा जाता है। जो सपनों में भी न अटे इतना विशाल घर पा जाता है। अपनी युवा बीबी को नौकरी के कुछ ही दिन बाद पच्चीस लाख की कीमत वाला हीरों का हार गिफ्ट करे। बीवी शक करे कि सब कुछ इतना अच्छा और सुहाना क्यों हो रहा है। लेकिन अपने सपनों के पंख पर सवार युवक और उड़ता जाए। फिर वह फंस जाए मौत बेचने वाले काले सौदागरों के मकड़ जाल में। सपने बदल जाएं दुस्वप्न में। रिश्ते हो जाएं ध्वस्त। जीवन बन जाए जंजाल। लेकिन इस सीधी सरल कहानी की पेचीदगियों और भयावहता को एक विस्फोट के साथ उछाल देने के लिए कुणाल खेमू-अमृता पुरी की जोड़ी सक्षम नहीं निकली। सौदागरों का सत्यानाश करने में कुणाल की कम उम्र आड़े आ गयी और अमृता पुरी को तो अभिनय करना ही नहीं आया। न दुख का, न सुख का, न ही गुस्से का। फिल्म का निर्देशन कसा हुआ है। केपटाउन और अंगोला के लोकेशन मनभावन हैं। कहीं-कहीं पर फिल्म के संवाद प्रभावित करते हैं। लेकिन समस्या वही है कि एक हर दृष्टिकोण से ‘एडल्ट’ फिल्म को कम उम्र बच्चे जीने निकले हैं। इसीलिए अनेक दृश्यों में कुणाल का अभिनय सहज नहीं लगता। यह अलग बात है कि कुणाल ने अपनी तरफ से फिल्म में जान लगा दी है। अगर कुणाल को कल्कि कोचलिन का साथ मिल जाता तो भी शायद फिल्म का मिजाज और प्रभाव बदल जाता। बहरहाल, भट्ट कैंप से निकली युवा सपनों की पड़ताल करती एक ठीक ठाक फिल्म है जिसे एक बार तो देखा ही जाना चाहिए। फिल्म का सबसे अच्छा पक्ष इसका गीत-संगीत है।

निर्देशक: विशाल म्हाडकर
कलाकार: कुणाल खेमू, अमृता पुरी, मनीष चौधरी
संगीत: जीत गांगुली, सिद्धार्थ हल्दीपुर

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