Saturday, February 23, 2013

जिला गाजियाबाद


फिल्म समीक्षा

मारधाड़ से लबरेज ‘जिला गाजियाबाद‘

धीरेन्द्र अस्थाना


दिल्ली से सटा हुआ उत्तरप्रदेश का एक प्रमुख जिला है गाजियाबाद। बहुत समय पहले वहां दो गुंडों का आंतक राज कायम था जैसे कि लगभग हर बड़े शहर में होता है। उन दो गुंडों के समय को हटा दें तो गाजियाबाद एक शांत और अपने काम धंधे में व्यस्त शहर है। उन्हीं दो गुंडों के जीवन और समय को ‘लार्जर दैन लाइफ‘ फार्मूले में फिट करके निर्देशक आनंद कुमार ने एक मसाला फिल्म बनायी है जो काफी हद तक दर्शकों को बांधे रखने में कामयाब हुई है। संजय दत्त, अरशद वारसी, विवेक ओबेरॉय, परेश रावल, रवि किशन जैसे आधा दर्जन के करीब स्टार, दो-दो आइटम गीत, हिंसा से लबरेज मारधाड़ और संजय दत्त तथा अरशद वारसी की डायलॉग बाजी के कारण फिल्म अपनी लागत वसूल कर लेगी लेकिन मनोरंजन वाले दायरे को नहीं लांघ सकेगी। फिल्म हमारे ज्ञान या संवेदना में कोई इजाफा नहीं करती है लेकिन एक मनोरंजक, एक्शन पैक्ड ड्रामा रचने में सफल हुई है। निर्देशक ने संजय दत्त पर फिल्माये एक गाने में सलमान खान वाला गाना हुड़ हुड़ दबंग (फिल्म दबंग) जैसा जादू रचाने का प्रयत्न किया है लेकिन वह मात्र कॉपी ही बन पाया है। इसी तरह फिल्म के दोनों आइटम नंबर बोल्ड जरूर हैं लेकिन वे भी ‘मुन्नी बदनाम हुई‘ की याद दिलाते हैं। मारधाड़ तो लगभग हर एक्शन फिल्म में एक जैसी ही होती है। इसमें भी है। परेश रावल गाजियाबाद का चेयरमैन हैं। फौजी (अरशद वारसी) उसका दायां हाथ है और मास्टर (विवेक ओबेराय) उसका पारिवारिक सदस्य जैसा जिससे परेश की बेटी चार्मी कौर मोहब्बत करती है। रवि किशन एक प्रतिद्वंद्वी गुंडा है। इनके बीच में सामाजिक तकरार भी चलती रहती है और गैंगवार भी। एक गलतफहमी या षडयंत्र के चलते विवेक ओबेराय और अरशद वारसी में दुश्मनी हो जाती है। मास्टर पढ़ना-लिखना छोड़ बंदूक उठा लेता है। अरशद वारसी परेश रावल को छोड़ रवि किशन से हाथ मिला लेता है। शहर में खून की बारिश होने लगती है। प्रशासन हतप्रभ, जनता परेशान और पुलिस लाचार है। आखिर इन सब का तोड़ बना कर पुलिस इंस्पेक्टर संजय दत्त को जिला गाजियाबाद बुलाया जाता है। संजय अपने खौफ, अपनी रणनीति और अपने बाहुबल के माध्यम से एक एक कर शहर के खूंखार गुंडों को ठिकाने लगाता है और सबसे अंत में विवेक ओबेराय को जिंदा पकड़ सजा दिलवाता है। पूरी फिल्म का हीरो एक्शन हैं जो विभिन्न किरदारों के जरिए व्यक्त हुआ है। अगर एक्शन फिल्में पसंद हैं तो फिल्म देखिए। अरशद वारसी और विवेक ओबेरॉय की मारधाड़ काबिले गौर है। संजय दत्त तो इसमें पारंगत हैं ही।

निर्देशक: आनंद कुमार
कलाकार: संजय दत्त, अरशद वारसी, विवेक ओबेराय, परेश रावल, रवि किशन, मिनिषा लांबा, चार्मी कौर, दिव्या दत्ता।
संगीत: अमजद/नदीम/बप्पा लाहिरी

   

Saturday, February 16, 2013

मर्डर-3


फिल्म समीक्षा 

‘मर्डर-3‘: रोचक भी रोमांचक भी

धीरेन्द्र अस्थाना

जब कोई फिल्म बॉलीवुड में हिट हो जाती है तो वह एक ‘ब्रांड‘ बन जाती है। फिर उसी नाम से एक-दो-तीन करके नयी फिल्में बनती जाती हैं। ये फिल्में पिछली फिल्म का सीक्वेल नहीं होतीं बल्कि इनके आगे दो-तीन-चार डाल कर मूल सफल फिल्म का शीर्षक भुनाने की मंशा होती है। ‘मर्डर-3‘ भी इसी कड़ी की फिल्म है। इसकी कहानी भी नयी है और चरित्र भी जुदा हैं। ‘मर्डर-2‘ अगर दहशत की कामयाब पटकथा थी तो ‘मर्डर-3‘ रोमांच और भय का दिलचस्प आख्यान है जो अंत में भले ही दर्शकों को हतप्रभ छोड़ देता है लेकिन शुरू से अंत तक बांधे भी रखता है। फिल्म एक स्ट्रगलर फोटोग्राफर रणदीप हुडा के इर्द गिर्द बुनी गयी है जो मुंबई आकर कामयाबी और ग्लैमर के पायदान चढ़ता जाता है। यह नशा उसे डगमगा देता है और अनजाने में वह अपने पहले प्यार अदिति राव हैदरी से दूर होता चला जाता है। या कम से कम अदिति को ऐसा लगता है कि रणदीप उससे दूर जा रहा है। उसकी मकान मालकिन उसे उस मकान के भीतर बने एक ‘मैजिक होम‘ की वास्तविकता से अवगत कराती है। इस मैजिक होम में रह कर बाहर की घटनाएं, दृश्य, संवाद देखे-सुने जा सकता हैं लेकिन मैजिक होम का कुछ भी नहीं देखा-सुना जा सकता। अदिति एक वीडियो शूट कर के बेडरूम में छोड़ देती है जिसमें यह बताया गया है कि वह रणदीप को छोड़ कर जा रही है। इसके बाद स्वयं को ‘मैजिक होम‘ में बंद कर लेती है। अपनी याद में रणदीप को रोता देख अदिति खुश होती है और उसे तसल्ली हो जाती है कि उसका प्रेमी सच्चा है। लेकिन तब तक एक ट्रेजडी हो चुकी होती है। मैजिक रूम की चाबी बाहर छूट गयी है और रोती-बिसूरती-कलपती अदिति भूखी-प्यासी अंदर बंद है। हताश और पल-पल टूटती हुई। यह एक अच्छी परिकल्पना है जो दर्शकों को करूणा से भी भरती है। बाहर पुराने जीवन को भुला कर रणदीप निशा नामक लड़की के साथ नया जीवन और सेक्स लाइफ शुरू करता है जिसे अदिति फटी-फटी आंखों और गहरी वेदना के साथ देखती है। वह डंडे से पीट-पीट कर अपनी उपस्थिति जताना चाहती है जिसे निशा भूत की आवाजें समझ डरने लगती है। उधर, बाहर अदिति की गुमशुदगी का पुलिस केस भी चल रहा है और पुलिस ऑफीसर को रणदीप पर ही शक है। इस तर्क को ताक पर रख दें कि कोई कितने दिन भूखा-प्यासा रह कर होश में बना रह सकता है। बाद की कहानी स्वयं थियेटर जाकर देखें क्योंकि अभी यह जानना बाकी है कि आखिर आदिति मैजिक रूम से कैसे बाहर आयी और निशा मैजिक रूम में कैसे बंद हुई? फिल्म के गीत और संवाद बहुत अच्छे और जीवंत हैं। पटकथा कसी हुई है। एक रोचक और रोमांचक फिल्म है जिसकी चौथी-पांचवी कड़ी भी बन सकती है। 

निर्देशक: विशेष भट्ट 
कलाकार: रणदीप हुडा, अदिति राव हैदरी 
संवाद: संजय मासूम 
संगीत: प्रीतम चक्रवर्ती, अनुपम आमोद 

     

Saturday, February 9, 2013

स्पेशल छब्बीस


फिल्‍म समीक्षा 

दिलचस्प मगर धीमी ‘स्पेशल छब्बीस‘

धीरेन्द्र अस्थाना

आतंकवाद के विरुद्ध आम आदमी के निर्णायक युद्ध का विचार बड़े पर्दे पर पेशकर निर्देशक नीरज पांडेय ने बालीवुड में अपना चमकदार परचम लहराया था। फिल्म थी ‘ए वेडनसडे‘ जिसने देश के प्रबुद्ध दर्शक वर्ग को झकझोर कर रख दिया था। इन्हीं नीरज पांडेय की फिल्म है ‘स्पेशल छब्बीस‘। फिल्म इस लिहाज से बेहतर है कि मसाला फिल्मों के लिए जो सामग्री चाहिए मसलन मारधाड़, आइटम डांस, अर्धनग्न चित्रण, विदेशी लोकेशन - वह सब कुछ इसमें नहीं है। एक साफ सुथरी, कथा केंद्रित और दिलचस्प सस्पेंस फिल्म है। फिल्म को कुशलता के साथ बुना गया है। वर्ष 1987 का समय है इसलिये गानों के बोलों में उस समय का ध्यान रखा गया है। पटकथा सुगठित लेकिन गति सुस्त है। चरित्र, घटनाएं, समय, समाज और परिस्थितियां स्थापित करने में ही आधी फिल्म गुजर जाती है। फिल्म की मुख्य हीरोइन काजल अग्रवाल को कोई काम नहीं मिला है। वह विभिन्न लोकेशनों पर अक्षय कुमार का इंतजार ही करती रहती है। पूरी फिल्म अक्षय कुमार और मनोज बाजपेयी पर केंद्रित है और दोनों ने उम्दा अभिनय से फिल्म को रोचक बनाये रखा है। अक्षय कुमार नकली सीबीआई आफीसर हैं और मनोज बाजपेयी असली सीबीआई आफीसर। दरअसल आज से 25-26 साल पहले मुंबई के एक बड़े और नामी ज्वैलर के शोरूम पर खुद को सीबीआई बताकर कुछ ठगों ने रेड मारी थी। उसी घटना से प्रेरित होकर नीरज ने इस फिल्म को अंजाम दिया है। अक्षय कुमार सीबीआई के नाम पर एक नकली टीम बनाकर देशभर में रेड डालता फिरता है। अंतिम काम के बतौर वह मुंबई के ज्वैलर को चुनता है। इंस्पेक्टर रणवीर सिंह (जिमी शेरगिल) से मिली सूचनाओं के आधार पर मनोज बाजपेयी इस ठगी से टकराने के लिए अपना जाल बिछाता है। वह पुलिस फोर्स के साथ शोरूम के बाहर खड़ा रहता है, जहां अक्षय द्वारा तैयार 26 लोगों की टीम एक वैन में बैठी है शोरूम लूटने के लिये। सब बैठे रह जाते हैं और अक्षय ज्वैलर की वर्कशॉप लूटकर फरार हो जाता है। ठीक इस बिंदु पर मनोज बाजपेयी ने एक ठगे गये आफीसर के हावभाव का गजब अभिनय किया है। असल में जिमी भी अक्षय से मिला होता है। यह रहस्य अंत में खुलता है इसलिये फिल्म का सस्पेंस बना रहता है। 
निर्देशक: नीरज पांडे
कलाकार: अक्षय कुमार, मनोज बाजपेयी, अनुपम खेर, काजल अग्रवाल, जिमी शेरगिल और दिव्या दत्ता आदि।
संगीत:  हिमेश रेशमिया, एमएम करीम