Saturday, April 28, 2012

तेज


फिल्म समीक्षा

सपनों के शोक गीत सी ‘तेज’

धीरेन्द्र अस्थाना

प्रियदर्शन की नयी एक्शन थ्रिलर फिल्म ‘तेज’ एक ऐसी सुपर फास्ट ट्रेन की तरह है, जिस पर सपनों के शोक गीत लदे हैं। बड़े बजट की मल्टीस्टारर फिल्म होने के बावजूद प्रियदर्शन ने इसे कहीं-कहीं इमोशनल टच देने की अपनी पुरानी अदा का भी निर्वाह किया है। मल्लिका शेरावत का आइटम नंबर ‘लैला’ वह जादू नहीं जगाता जो इस दौर के कुछ चर्चित आइटम नंबर जगाते आये हैं। इस गाने को हटा कर फिल्म की लंबाई कुछ कम की जा सकती थी। हालांकि फिल्म की पटकथा बेहद कसी हुई और निर्देशन बहुत चुस्त व चौकस है। फिल्म शुरू होने के साथ ही दर्शकों को अपनी पकड़ में ले लेती है। फिर अंत तक उत्सुकता और गति बनी रहती है। फिल्म के सारे ही कलाकार मंजे हुए हैं और लगभग सभी ने अपने-अपने किरदारों को जीवंतता और विश्वसनीयता देने की सफल कोशिश की है। कंगना रानावत हालांकि फिल्म की मुख्य हीरोइन हैं, मगर अपने एक्शन चरित्र को बेहद खूबसूरत और रोमांचक ढंग से निभाने के कारण समीरा रेड्डी दर्शकों को ज्यादा प्रभावित करती हैं। स्पीडी बाइक चलाने का समीरा का खतरनाक अंदाज रोमांच को एक नयी ऊंचाई प्रदान करता है। जायेद खान, अनिल कपूर, अजय देवगन और बोमन ईरानी ने अपने-अपने हिस्से के तनाव को सघनता से रचा है। बिना लीगल वर्क परमिट और वीजा न होने की स्थिति में लंदन में जीवन कितना डरावना हो जाता है। इस छोटे से कथ्य पर प्रियदर्शन ने एक बड़ा सा लार्जर दैन लाइफ ड्रामा खड़ा कर दिया है। अपने साथ हुई नाइंसाफी से नाराज अजय देवगन कैसे एक ट्रेन में बम रख कर लंदन की सरकार से एक बड़ी धनराशि की मांग करता है। इस प्रक्रिया में ही फिल्म की पूरी कहानी और एक्शन साथ-साथ घटित होते हैं। सपनों के देश लंदन में कैसे एक परदेसी के सपनों को पलीता लगता है। इसे व्यक्त करने वाले कुछ मार्मिक संवाद निर्देशक ने अजय देवगन से भी बुलवाये हैं और उनकी पत्नी बनी कंगना रानावत से भी। साउथ के बड़े एक्टर मोहन लाल को छोटा सा चरित्र दिया गया है जो अखरता है। एक बड़े एक्टर को इस तरह ‘वेस्ट’ नहीं करना चाहिए। शुद्ध टाइम पास फिल्म है जो उम्दा ढंग से बनायी गयी है। एक बार देखी जा सकती है। गीत- संगीत प्रभावशाली है।

निर्देशक: प्रियदर्शन
कलाकार: अनिल कपूर, अजय देवगन, जायेद खान, बोमन ईरानी, मोहन लाल, कंगना रानावत, समीरा रेड्डी
संगीत: साजिद-वाजिद

Monday, April 23, 2012

विकी डोनर


फिल्म समीक्षा

जीवन से लबरेज ‘विकी डोनर’

धीरेन्द्र अस्थाना

यह तो अजब-गजब कमाल हो गया। सोचा था, गुमनाम कलाकारों की चालू सी कॉमेडी फिल्म होगी जिसे पूरे एक सौ बाइस मिनट झेलना होगा। लेकिन यह तो ‘तनु वेड्स मनु’ या ‘तेरे बिन लादेन’ या ‘बैंड बाजा बारात’ की तर्ज पर छोटी दुकान का ऊंचा पकवान निकली। अगर इसे इस वर्ष की अब तक की सबसे बेमिसाल फिल्म कहा जाए तो भी ज्यादा नहीं होगा। शूजीत सरकार के निर्देशन ने इस छोटे बजट वाली नये कलाकारों की फिल्म को लगभग सिनेमाई पाठ में ही बदल दिया। एक बंगाली निर्देशक ने पंजाबी भाषा, बोली, खान-पान, रहन-सहन, संस्कृति, रोजगार, परिवेश यानी समूचा लाइफ स्टाइल ही जिस जिंदादिल, वास्तविक और रोचक अंदाज में पेश किया है उसके सामने बड़े-बड़े पंजाबी फिल्मी घराने बहुत कम लगते हैं। ‘स्पर्म डोनेशन’ जैसे अछूते विषय पर बनने वाली यह शायद हिंदी की पहली फिल्म भी है। निःसंतान माता-पिता की जिंदगी में औलाद का चिराग रोशन करने जैसी गंभीर कहानी को निर्देशक ने इतने हल्के-फुल्के, गुदगुदाते अंदाज में पेश किया है कि पूरी फिल्म एक प्यारा सा, सुख देने वाला अनुभव ही बन जाती है। इंटरवल तक तो अगल-बगल, आगे- पीछे की सभी कुर्सियों से युवा लड़के लड़कियों की बेलौस खिलखिलाहट ही सुनाई पड़ती रहती है। जिंदगी से लबरेज और मस्ती से लबालब फिल्म है ‘विकी डोनर।’ पैसे कमाने के लिए स्पर्म डोनेट करने का धंधा करने वाला एक नासमझ, बेकार युवक कैसे एक बड़े संसार को बेहिसाब खुशियां सौंपने का माध्यम बन जाता है, इसे निर्देशक ने 53 बच्चों और उनके मां-बाप को एक साथ एक दृश्य में उतार कर साकार किया है। ये सभी बच्चे विकी के स्पर्म से जन्मे हैं। त्रासदी यह है कि खुद इसी विकी की पत्नी मां नहीं बन पाती है। इसके बाद का रोचक हिस्सा जानने के लिए स्वयं यह फिल्म देखें। जहां तक अभिनय का मामला है तो डॉ. चड्ढा बने अन्नू कपूर की अपने जीवन की सबसे महत्वपूर्ण फिल्म यह बन गयी। दोनों युवा सितारों आयुष्मान खुराना और यमी गौतम ने संकेत दे दिया है कि वे बहुत दूर जाने वाले हैं। कहानी, निर्देशन, संगीत, संवाद, अभिनय हर स्तर पर ‘विकी डोनर’ एक जानदार-शानदार फिल्म है।

निर्देशक: शूजीत सरकार
कलाकार: आयुष्मान खुराना, यमी गौतम, अन्नू कपूर
संगीत: विश्वदीप चटर्जी

राष्ट्रीय सहारा 22 अप्रैल 2012

Monday, April 16, 2012

बिट्टू बॉस

फिल्म समीक्षा

कहानी बिखर गयी ‘बिट्टू बॉस’

धीरेन्द्र अस्थाना

पंजाबी तड़का मार के, एक साधारण से शहर के, साधारण से युवक की मजेदार सी लव स्टोरी बनाने की कोशिश की थी निर्देशक सुपवित्र बाबुल ने। लेकिन इंटरवल के बाद फिल्म को अंजाम तक पहुंचाने में कन्फ्यूजन इस कदर बढ़ा कि कहानी बिखर ही तो गयी ‘बिट्टू बॉस’ की। अनुष्का शर्मा और रणवीर सिंह की हिट फिल्म ‘बैंड बाजा बारात’ की तर्ज पर बनायी गयी ‘बिट्टू बॉस’ भी सफल हो सकती थी अगर कहानी को कायदे से साध लिया जाता। बॉलीवुड के बहुत बड़े प्रोड्यूसर कुमार मंगत पाठक की फिल्म थी इसलिए नयी कास्ट होने के बावजूद इतने सारे थियेटर भी मिल गये वरना फिल्म को थियेटरों के लाले पड़ जाते। इसे कहते हैं एक बड़ा और सुनहरा मौका चूक जाना। पुलकित सम्राट और अमिता पाठक (प्रोड्यूसर की बेटी) ने भी अगर अनुष्का-रणवीर जैसा जानदार शानदार अभिनय कर दिखाया होता तो इन दोनों का भविष्य इनके लिए कोई दूसरी स्वर्णिम इबारत लिख रहा होता। फिलहाल तो यही लगता है कि रील लाइफ का स्ट्रगलर वीडियो शूटर बिट्टू (पुलकित सम्राट) रीयल लाइफ में स्ट्रगल से जल्दी पीछा नहीं छुड़ा सकेगा। अमिता पाठक को नयी फिल्म पकड़ने से पहले अभिनय के कई पाठ संजीदगी से पढ़ने होंगे। दोनों ही युवाओं को अपनी बॉडी लैंग्वेज पर मेहनत करनी होगी। असल में अभिनय से भी ज्यादा दोष कहानी का है। शादी ब्याह का स्टार फोटोग्राफर प्रेमिका की नजरों में बड़ा और सफल आदमी बनने के लिए जिस गंदी यात्रा पर निकलता है वह तार्किक नहीं है। ब्लू फिल्म बनाने के धंधे में उतरना उसके जमीर को रास नहीं आता, यह तार्किक था। पर अचानक जिस तरह वह एक ब्लू फिल्म रैकेट का पर्दाफाश कर ऊंचाई के रास्ते पर एक आदर्श छलांग लगाता है वह पूरी तरह अवास्तविक लगता है। इस मोड़ पर पहुंच कर एक सीधी सादी सी मध्यमवर्गीय प्रेम कहानी मामूली सी कॉमेडी में बदल जाती है। पुलकित और अमिता के बीच न तो प्रेम की गहराई ही स्थापित हो पाती है और न ही दोनों के बीच के तनाव की ही व्याख्या हो पाती है। पुलकित के सहयोगी के रूप में जिस नामालूम से टैक्सी ड्राइवर को फिल्म में जगह दी गयी है उसने अपने लाजवाब अभिनय से कमाल रच दिया है - शक्ल से ऐसा नहीं लगता न (यह उस मामूली से लड़के का तकिया कलाम है)। फिल्म की उपलब्धि यही लड़का है। फिल्म के आरंभ में कुछ अभद्र और अश्लील संवाद हैं जिनकी बिल्कुल भी जरूरत नहीं थी। सेंसर को क्या होता जा रहा है?

निर्देशक: सुपवित्र बाबुल
कलाकार: पुलकित सम्राट, अमिता पाठक
संगीत: राघव सच्चर

Monday, April 9, 2012

हाउसफुल-टू

फिल्म समीक्षा

हाउसफुल-टू भी मस्ती से फुल

धीरेंद्र अस्थाना

जो लोग सिनेमा के जरिये सामाजिक बदलाव लाने में यकीन रखते हैं और इस यकीन को मजबूत करने के लिए सिनेमा बनाते रहते हैं, निर्देशक साजिद खान उनमें से नहीं हैं। वह लोगों को खुश रखने के लिए, उन्हें हंसाने के लिए, उन्हें दो तीन घंटे शुद्ध मनोरंजन के साये में बिठाए रखने के लिए फिल्में बनाते हैं। अपने इस मकसद में वह कामयाब भी होते हैं। आम जनता खुश होकर उनकी फिल्में देखने जाती है और हंसते मुस्कराते बाहर निकलती है। आलोचक भले ही उनके सिनेमा को यथार्थ से पलायन कहें पर उनका सिनेमा कामयाब सिनेमा है। ‘हाउसफुल’ की तरह साजिद खान की ‘हाउसफुल-टू’ भी सौ प्रतिशत मनोरंजन का खजाना है, जिसमें नाच-गाना, हंसना-हंसाना, मार-धाड़, कॉमेडी-एक्शन-इमोशन सब कुछ भरपूर मात्रा में है। सिचुएशन से लेकर संवादों तक में इतना हास्य है कि सिनेमा हॉल के भीतर चारों तरफ से हंसी के फव्वारे छूटते रहते हैं। जब बाहर की दुनिया दुर्घटनाओं, दुखों और त्रास से भरी हुई हो तब हॉल के भीतर की खुशनुमा और मौज-मस्ती की दुनिया भला किसे सुकून नहीं देगी। यही वजह है कि पहले ही दिन ‘हाउसफुल-टू’ दिखा रहे थियेटर सचमुच हाउसफुल थे। पहली फिल्म अभिनेता अक्षय कुमार के आसपास घूमती थी लेकिन यह वाली फिल्म कुल मिलाकर दस चरित्रों के जरिए साकार होती है। चार हीरो की चार हीरोइनें और उनके मां-बाप यानी कलाकारों का एक बड़ा संसार दर्शकों का दिल जीतने में कामयाब हुआ है। ऊपर से पहले ही हिट हो चुका ‘अनारकली डिस्को चली’ वाला आइटम नंबर, दर्शक झूम ही तो उठे। शुद्ध रूप से ‘माइंडलेस कॉमेडी’ का उम्दा उदाहरण है यह फिल्म। मिथुन चक्रवर्ती और बोमन ईरानी के थोड़ा अलग ढंग के किरदार प्रभावित करते हैं। फिल्म को हिट कराने में जॉनी लीवर का योगदान भी माना जाएगा। ऋषी और रणधीर कपूर की कॉमेडी भी उल्लेखनीय है।

निर्देशक: साजिद खान
कलाकार: अक्षय कुमार, जॉन अब्राहम, रितेश देशमुख, श्रेयस तलपदे, असिन, जैकलीन फर्नाडिस, जरीन खान, शहजहान पद्मसी, बोमन ईरानी, ऋषी कपूर, रणधीर कपूर, मिथुन चक्रवर्ती
संगीत: साजिद-वाजिद

Monday, April 2, 2012

ब्लड मनी

फिल्म समीक्षा

ब्लड मनी के सौदागर

धीरेंद्र अस्थाना

अगर इस फिल्म में ऋतिक रोशन-प्रियंका चोपड़ा या नील नितिन मुकेश-कंगना रानावत या फिर इमरान खान-सोनम कपूर की ही जोड़ी होती तो ‘ब्लड मनी’ का बॉक्स ऑफिस नजारा कुछ और होता। तब शायद ‘ब्लड मनी’ से होने वाली कमाई देख कर भट्ट कैंप हैरान रह जाता। लेकिन अच्छी, थोड़ा ताजगी लिए हुए, अलग अंदाज की कहानी चुनने के बावजूद ‘विशेष फिल्म्स‘ बजट के मामले में मार खा जाती है। कहानी अच्छी है। बड़े-बड़े रंगीन ख्वाब देखने वाला एक निम्न मध्यमवर्गीय युवक विदेश में अचानक एक बड़ी सी नौकरी पा जाता है। जो सपनों में भी न अटे इतना विशाल घर पा जाता है। अपनी युवा बीबी को नौकरी के कुछ ही दिन बाद पच्चीस लाख की कीमत वाला हीरों का हार गिफ्ट करे। बीवी शक करे कि सब कुछ इतना अच्छा और सुहाना क्यों हो रहा है। लेकिन अपने सपनों के पंख पर सवार युवक और उड़ता जाए। फिर वह फंस जाए मौत बेचने वाले काले सौदागरों के मकड़ जाल में। सपने बदल जाएं दुस्वप्न में। रिश्ते हो जाएं ध्वस्त। जीवन बन जाए जंजाल। लेकिन इस सीधी सरल कहानी की पेचीदगियों और भयावहता को एक विस्फोट के साथ उछाल देने के लिए कुणाल खेमू-अमृता पुरी की जोड़ी सक्षम नहीं निकली। सौदागरों का सत्यानाश करने में कुणाल की कम उम्र आड़े आ गयी और अमृता पुरी को तो अभिनय करना ही नहीं आया। न दुख का, न सुख का, न ही गुस्से का। फिल्म का निर्देशन कसा हुआ है। केपटाउन और अंगोला के लोकेशन मनभावन हैं। कहीं-कहीं पर फिल्म के संवाद प्रभावित करते हैं। लेकिन समस्या वही है कि एक हर दृष्टिकोण से ‘एडल्ट’ फिल्म को कम उम्र बच्चे जीने निकले हैं। इसीलिए अनेक दृश्यों में कुणाल का अभिनय सहज नहीं लगता। यह अलग बात है कि कुणाल ने अपनी तरफ से फिल्म में जान लगा दी है। अगर कुणाल को कल्कि कोचलिन का साथ मिल जाता तो भी शायद फिल्म का मिजाज और प्रभाव बदल जाता। बहरहाल, भट्ट कैंप से निकली युवा सपनों की पड़ताल करती एक ठीक ठाक फिल्म है जिसे एक बार तो देखा ही जाना चाहिए। फिल्म का सबसे अच्छा पक्ष इसका गीत-संगीत है।

निर्देशक: विशाल म्हाडकर
कलाकार: कुणाल खेमू, अमृता पुरी, मनीष चौधरी
संगीत: जीत गांगुली, सिद्धार्थ हल्दीपुर