Saturday, December 25, 2010

तीस मार खां

फिल्म समीक्षा

नौटंकी स्टाइल के ‘तीस मार खां‘

धीरेन्द्र अस्थाना

शीला की जवानी ने इतना बड़ा तूफान रच दिया कि ‘तीस मार खां‘ के पहले दिन के शो हाउसफुल चले गये। कैटरीना कैफ पर फिल्माया गीत शीला की जवानी ही फिल्म की जान भी है लेकिन केवल एक आइटम डांस के दम पर फिल्में न बाजार में टिकती हैं, न ही लोगों के दिल दिमाग में। कॉमेडी फराह खान जैसी संवेदनशील निर्देशिका का क्षेत्र नहीं है। पता नहीं वह इस बीहड़ में क्यों उतरीं? हंसाना बहुत कठिन काम है। यह ऐसा इलाका है जहां अच्छे अच्छे तीरंदाज गच्चा खा जाते हैं। एक सार्थक और तार्किक हास्य फिल्म बनाना सचमुच बहुत चुनौती भरा काम है। बारह फिल्में फ्लॉप हो जाती हैं तब जाकर तेरहवीं फिल्म कामयाब होती है। अक्षय कुमार को इस फिल्म से बहुत उम्मीदें थीं। दर्शकों को भी इससे भारी उम्मीदें थीं। सबको निराशा ही हाथ लगेगी। फराह खान ने पूरी फिल्म में पुराने जमाने की नौटंकी का ताना बाना अपनाया है लेकिन मौजूदा युवा पीढ़ी को यह जानकारी नहीं है कि नौटंकी नामक भी कोई शैली होती थी इसलिए इस स्टाइल को वह आत्मसात नहीं कर पायी। ‘तीस मार खां‘ फिल्म का नौटंकी स्टाइल मसखरापन इसीलिए मजा नहीं दे पाता। फिल्म में जहां जहां कमर्शियल फिल्मों का मजाक उड़ाया गया है वह टुकड़े अच्छे लगते हैं लेकिन उनका फिल्म की मूल कहानी से कोई लेना-देना नहीं है। मूल कहानी यह है कि अक्षय कुमार एक अंतरराष्ट्रीय ठग है जिसे कोई जेल अपने भीतर नहीं रख पाती। वह हर जेल से फरार हो जाता है। कैटरीना कैफ उसकी प्रेमिका है जो हीरोईन बनना चाहती है। अक्षय की मां को यह जानकारी नहीं है कि उसका बेटा ठग या अपराधी है। वह उसे फिल्मों का डायरेक्टर समझती है। अपने अपराधी जीवन का सबसे चुनौती पूर्ण काम अक्षय को मिलता है। उसे एक चलती ट्रेन से पांच सौ करोड़ के आभूषण, सोना, दुलर्भ मूर्तियां लूटनी हैं। इसके लिए वह सुपरस्टार अक्षय खन्ना और कैटरीना कैफ को लेकर एक फिल्म की नकली शूटिंग को अंजाम देता है जिसमें ट्रेन डकैती का दृश्य असली है। वह गांव वालों की मदद से ट्रेन लूट लेता है। पकड़ा भी जाता है लेकिन फिर फरार हो जाता है। फिल्म का प्रत्येक चरित्र कॉमेडी के रंग में रंगा हुआ है। अपराधी भी, पुलिस कमिश्नर भी, प्रेमिका भी, मां भी और गांव वाले भी। फिल्म का आरंभिक नेरेशन संजय दत्त की आवाज में है। सलमान खान और अनिल कपूर ने अतिथि भूमिकाएं निभायी हैं। फिल्म से जुड़े सब लोगों को रुक कर सोचना होगा- ‘कहां से चले कहां के लिए?‘

निर्देशक: फराह खान
कलाकार: अक्षय कुमार, कैटरीना कैफ, अक्षय खन्ना, आर्य बब्बर, सचिन खेडेकर
संगीत: शिरीष कुंदेर, विशाल, शेखर

Saturday, December 11, 2010

नो प्रॉब्लम

फिल्म समीक्षा

’नो प्रॉब्लम‘ में प्रॉब्लम ही प्रॉब्लम

धीरेन्द्र अस्थाना

सबसे ज्यादा दुख यह देख कर हुआ कि पांच ऐसे सितारे जिनकी फिल्में देखना दर्शक पसंद करते हैं और जो अपने अभिनय का लोहा मनवा चुके हैं, उनके सामने ऐसी क्या प्रॉब्लम थी, जो उन्हें ’नो प्रॉब्लम‘ जैसी फिल्म में काम करना पड़ा। दूसरा दुख यह देखकर हुआ कि जिस निर्देशक को कॉमेडी का सरताज कहा जाता है वह अपनी नयी फिल्म में कॉमेडी का ककहरा भी नहीं रच सका। तीसरा दुख शाश्वत और फिल्म इंडस्ट्री के जन्म से चला आ रहा है। वह यह कि एक से एक काबिल और कल्पनाशील निर्देशक नायाब पटकथाएं लेकर दर-दर भटकते रहते हैं मगर उन्हें निर्माता नहीं मिलते तो नहीं ही मिलते। जिसके संपर्क हैं, नाम है या खानदान है वह कुछ भी बना कर करोड़ों रुपये पानी में गला देता है। इस फिल्म में भी पैसा पानी की तरह बहाया गया है और पानी में ही बहाया गया है। क्या ग्लैमर और वैभव की इस फिल्म नगरी में अस्तित्व को लेकर सचमुच इतनी गहरी असुरक्षा है कि बड़ा से बड़ा एक्टर भी अपनी इमेज के बारे में कुछ नहीं सोचता, बस काम करने लगता है, फिर चाहे पटकथा कैसी भी हो! और ’नो प्रॉब्लम‘ में तो कोई कहानी ही नहीं है। फिल्म की कोई सीधी, सुचिंतित पटकथा नहीं है। वह कहीं से भी कैसे भी घटने लगती है। और किसी भी घटना का कोई औचित्य या तर्क भी नहीं है। संजय दत्त और अक्षय खन्ना दो लुटेरे हैं। परेश रावल एक गांव का बैंक मैनेजर है। दोनों परेश का बैंक लूटकर डरबन भाग जाते हैं। परेश उन्हें ढूंढने डरबन आता है। सुनील शेट्टी एक बड़ा लुटेरा व गैगस्टर है। अनिल कपूर एक सीनियर पुलिस इंस्पेक्टर है जिसकी पत्नी सुष्मिता सेन को दिन में एक बार पागलपन का दौरा पड़ता है। इस दौरे के दौरान वह अनिल कपूर को मारने का प्रयत्न करती है। कंगना रानावत सुष्मिता की छोटी बहन है जो अक्षय खन्ना को पसंद करती है। दोनों पुलिस कमिश्नर की बेटियां हैं। नीतू चन्द्रा सुनील शेट्टी के साथ है। इस कथा विहीन फिल्म में चंद नकली परिस्थितियां खड़ी करके दर्शकों को हंसाने का जबरन प्रयास किया गया है। फिल्म में अधनंगी लड़कियों की भरमार है। डांस है, ड्रामा है, एक्शन है, कॉमेडी है, गाना है, लेकिन सब कुछ सिर्फ तानाबाना है। इस ताने बाने से कथ्य नदारद है, तथ्य नदारद है और लक्ष्य नदारद है। फिल्म के सभी पात्र विदूषकों के चोले में हैं। सब के सब मंजे हुए कलाकार हैं और अपनी तरफ से हंसाने का भरपूर प्रयत्न भी करते हैं लेकिन हंसने का भी तो एक तर्क और कारण होता है। जब वह कारण ही नहीं है तो दर्शक क्यों हंसेगा? जहां-जहां हंसी का कार्य-कारण तत्व उपस्थित होता है। वहां-वहां दर्शक न सिर्फ हंसते हैं, बल्कि खुलकर हंसते हैं। हंसाने की इस भूमिका का सबसे अच्छा निर्वाह परेश रावल ने ही किया है। एक अच्छी, सुचिंतित, तार्किक पटकथा के अभाव में कैसे कुछ बेहतरीन सितारे अपने सफर में प्रॉब्लम खड़ी कर लेते हैं, इसका दिलचस्प उदाहरण है ’नो प्रॉब्लम।‘

निर्देशक: अनीस बज्मी
कलाकार: अनिल कपूर, संजय दत्त, अक्षय खन्ना, सुनील शेट्टी, परेश रावल, सुष्मिता सेन, कंगना रानावत, नीतू चंद्रा, शक्ति कपूर
संगीत: साजिद-वाजिद, प्रीतम, आनंद राज आनंद

Saturday, December 4, 2010

रक्तचरित्र-दो

फिल्म समीक्षा

राजनीति का वर्गचरित्र: रक्तचरित्र-दो

धीरेन्द्र अस्थाना

अपनी पिछली फिल्म ‘रक्तचरित्र‘ में रामगोपाल वर्मा ने हिंसा का एक वैचारिक पाठ पेश करने की कोशिश की थी। इस पाठ का निहितार्थ यह था कि दलित और वंचित, सर्वहारा किस्म की जनता पर अत्याचार हद से ज्यादा बढ़ जाता है तो वह निरंकुश राजसत्ता के विरुद्ध हथियार उठाने से भी नहीं चूकती। एक प्रकार से रामू का यह सिनेमाई पाठ अतिवादी वाम राजनीति की सीमाओं को स्पर्श करता नजर आता था। इस पाठ के भीतर से रामू एक नया अध्याय लोकतांत्रिक राजनीति का निकाल कर लाये थे जिसका प्रतिनिधित्व उन्होंने विवेक ओबेराय से करवाया था - उसे राजनीति में उतार कर। दुश्मनों को मिटा कर, राजनीति के विशाल बरगद की छांव में विवेक ओबेराय सत्ता सुख में सराबोर है। यह थी ‘रक्त चरित्र‘ की पटकथा।
’रक्तचरित्र-दो‘ में आरम्भ के लगभग बीस मिनट तक पहले भाग का ट्रेलर दिखाने के बाद फिल्म का अगला भाग शुरू होता है, सूर्या की एंट्री से। अपने पिता की हत्या का बदला लेने के लिए विवेक के हाथों सूर्या के खानदान का विनाश हुआ था। नये भाग में वैचारिक सरसराहट दूर-दूर तक नहीं है। यहां सत्ता के विरुद्ध दबी कुचली जनता का प्रतिशोध सिरे से नदारद है। यहां सिर्फ और सिर्फ एक अंधा बदला और उसे व्याख्यायित करने वाली एक हिंसक पटकथा है। इस पटकथा के नायक सूर्या हैं, खलनायक होने के बावजूद। और इस बार खलनायक के रोल में हैं विवेक ओबेराय, जो पहले पार्ट में नायक थे। पिछली बार राजनीति ने अपने हित में विवेक ओबेराय के क्रोध को भुनाया था। इस बार राजनीति सूर्या के क्रोध का इस्तेमाल करती है। राजनीति और हिंसक प्रतिरोध की यह दुरभिसंधि (गठजोड़) ही सत्ता का वर्ग चरित्र है। इस बार विवेक ओबेराय मारा जाता है और सूर्या जेल से छूटने की प्रतीक्षा में है। कोई आश्चर्य नहीं कि ’रक्तचरित्र-तीन‘ भी बने जिसमें विवेक ओबेराय का बेटा (जो दिखा दिया गया है) सूर्या का वध करता नजर आए। हिंसा-प्रतिहिंसा और और हिंसा। हिंसा की बहती धारा में गले-गले तक डूबे हिन्दी के व्यावसायिक सिनेमा का यह समकालीन और उत्तर आधुनिक आख्यान है। अगर भयावह खून खराबा, वीभत्स हत्याएं, बनैली राजनीति का नसें चटखाता शोर आपको लुभाता है तो तत्काल यह फिल्म देख आइए। एक अंधे गुस्से में छटपटाते युवक के हाहाकार को सूर्या ने ओजस्वी अभिव्यक्ति दी है। पहले पार्ट के मुकाबले इस बार शत्रुघ्न सिन्हा ज्यादा परिपक्व राजनेता के किरदार में हैं और प्रभावित भी करते हैं। फिल्म का गीत संगीत चूंकि कथा और घटनाओं को परिभाषित करने के लिए इस्तेमाल हुआ है इसलिए अच्छा तो लगता है लेकिन याद रहने वाला नहीं है। निर्देशन कसा हुआ है।

निर्देशक: राम गोपाल वर्मा
कलाकार: शत्रुध्न सिन्हा, विवेक ओबेराय, सूर्या, प्रियमणि, अनुपम श्याम, जरीना वहाब
संगीत: धरम संदीप, कोहिनूर मुखर्जी, अमर देसाई, सुखविंदर सिंह

Saturday, November 27, 2010

ब्रेक के बाद

फिल्म समीक्षा

जिंदगी ‘ब्रेक के बाद‘

धीरेन्द्र अस्थाना


नये समय की प्रोफेशनल, बिंदास, क्षण में जीने वाली खुशमिजाज युवा पीढ़ी को देखकर तो कतई नहीं लगता कि वह दीपिका पादुकोन की तरह उलझी हुई, कन्फ्यूज्ड और हताश है। निर्माता कुणाल कोहली की फिल्म ’ब्रेक के बाद‘ में आलिया (दीपिका पादुकोन) का चरित्र ऐसा ही है। दीपिका के बरक्स इमरान खान का चरित्र ज्यादा सहज, तार्किक और विश्वसनीय लगता है। फिल्म की कहानी चूंकि जीवन से नहीं उठायी गयी है इसलिए दर्शकों के गले से नीचे भी नहीं उतरती है। अनेक युवा दर्शक सिनेमा हाल में बैठे कह रहे थे-ऐसा नहीं होता बॉस। निर्देशक दानिश असलम की दुविधा पूरी फिल्म में पग-पग पर दिखाई पड़ती है। वह शायद खुद को ही यह नहीं समझा पाये कि फिल्म में वह कहना क्या चाहते हैं? इसलिए दर्शक भी नहीं समझ पाये कि वह कोई लव स्टोरी देख रहे हैं या संबंधों के विखंडन पर कुछ पढ़ रहे हैं? यह नयी पीढ़ी का प्यार को लेकर कोई असमंजस है या नया पाठ? यह रिश्तों से पलायन है या करियर को लेकर कन्फ्यूजन? ‘ब्रेक के बाद‘ में कुछ भी स्थापित और परिभाषित नहीं होता। फिल्म को केवल और केवल दीपिका पादुकोन के अभिनय और प्रसून जोशी के ताजगी भरे गीतों के लिए देखा जा सकता है। संगीत के दीवानों को प्रसून जोशी के रूप में नये समय का गुलजार मिला है। विशाल-शेखर का संगीत भी भावप्रवण है। इमरान खान अच्छे लगते हैं, लेकिन वह आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं। उनकी संवाद अदायगी, हाव-भाव, बॉडी लैंग्वेज उनकी पहली फिल्म ’जाने तू या जाने ना‘ पर ही ठहरी हुई है। आगे जाना है तो उन्हें ग्रो करना होगा जैसे उनके कई समकालीन युवा सितारे कर रहे हैं। दीपिका पादुकोन जरूर अपनी प्रत्येक नयी फिल्म में कदम दर कदम आगे बढ़ रही हैं। जैसा चरित्र उन्हें दिया गया है उसके साथ उन्होंने न्याय किया है। वह दीपिका न रहकर आलिया खान ही हो जाती हैं। अभिनय के पाठ में इसे ही कायांतरण कहा जाता है। अपनी जिद और चाहत के सामने सब कुछ को तुच्छ और द्वितीय मानने वाली भ्रमित लड़की का रोल उन्होंने पूरी शिद्दत से अदा किया है। लेकिन रियल लाइफ में ऐसा नहीं होता कि ’ब्रेक के बाद‘ भी इतनी आसानी से रिश्ते विवाह में बदल जाएं। कहीं-कहीं पर फिल्म में ’लव आज कल‘ के चिराग भी टिमटिमाते हैं। उसमे भी दीपिका थी लेकिन वह ज्यादा विश्वसनीय और परिपक्व फिल्म थी। अगर ’ब्रेक के बाद‘ में फोकस सिर्फ करियर और प्यार के द्वंद पर केंद्रित रखा जाता तो कुछ अलग ही निकल कर आ सकता था- नये समय का सच।

निर्देशक: दानिश असलम
कलाकार: इमरान खान, दीपिका पादुकोन, शर्मीला टैगोर, नवीन निश्चल, शहाना गोस्वामी, युधिष्ठर उर्स
गीत: प्रसून जोशी, विशाल डडलानी
संगीत: विशाल-शेखर

Saturday, November 20, 2010

गुजारिश

फिल्म समीक्षा

जिंदगी से जंग की ’गुजारिश‘

धीरेन्द्र अस्थाना

अगर कोई सिने प्रेमी किसी कारणवश यह फिल्म नहीं देखता है तो वह एक अविस्मरणीय सिनेमाई अनुभव से वंचित रह जाएगा। संजय लीला भंसाली के अब तक के सिनेमाई करियर का यह सबसे मजबूत और चमकदार मील का पत्थर है। हर कलाकृति बाजार का भी ताज बने यह जरूरी नहीं है, लेकिन कोई कृति जब अपने क्षेत्र की मिसाल बन जाए तो अद्वितीय कहलाती है। ’गुजारिश‘ एक अद्वितीय फिल्म है और ऋतिक रोशन ने फिल्म में अपने बहुआयामी तथा संवेदनशील अभिनय से एक जादुई लोक का निर्माण कर दिया है। इतनी कम उम्र में ऋतिक ने इतना अधिक विस्मयकारी अभिनय कर हतप्रभ कर दिया है। अगर अमिताभ बच्चन अभिनय की पाठशाला हैं तो इस फिल्म के बाद ऋतिक रोशन अभिनय का अनिवार्य पाठ बन गये हैं। जादू ऐश्वर्या राय बच्चन ने भी जगाया है। सिर्फ अपनी आंखों और भाव भंगिमा से ऐश ने पूरी फिल्म को ही परिभाषित कर दिया है। अगर अगले वर्ष तमाम बड़े पुरस्कार ’गुजारिश‘ के लिए घोषित हों तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। अभिनय, तकनीक, सिनेमेटोग्राफी, गीत, संगीत, कोरियोग्राफी, पटकथा, कथा, संवाद, संपादन प्रत्येक मोर्चे पर ‘गुजारिश‘ एक सशक्त तथा मुकम्मल फिल्म है जो जिंदगी से टूटकर मोहब्बत करने की अपील करती है। अगर जिंदगी का नाम एक ’चौतरफा अंधकार‘ है तो यह फिल्म जिंदगी से जंग करने की ’गुजारिश‘ करती है। इसके बावजूद कि अपनी नारकीय बीमारी से त्रस्त होकर ऋतिक कोर्ट से इच्छा मृत्यु की अपील करता है, फिल्म का अंतिम संदेश यही है कि जिंदगी बहुत ही खूबसूरत है। इस जिंदगी से सिर्फ और सिर्फ प्यार करो। यह एक ऐसे अद्भुत जादूगर की कहानी है जो अपनी शोहरत और वैभव के शिखर पर एक षड्यंत्रकारी दुर्घटना का शिकार हो अपाहिज हो जाता है। अपनी दुखद जिंदगी के इस बोझिल समय में उसके साथ सिर्फ तीन चार लोग रह जाते हैं। एक नर्स ऐश्वर्या राय बच्चन, एक वकील शेरनाज पटेल, एक डॉक्टर सुहेल सेठ और बाद में जादू सीखने का इच्छुक एक शागिर्द आदित्य राय कपूर। इन चार लोगों के साथ एक चार बाई छह के बिस्तर पर बारह साल गुजारने वाले शख्स की कारुणिक कहानी को इतना विराट कैनवास देकर संजय लीला भंसाली ने करिश्मा कर दिया है। एक साफ सुथरी, तार्किक, मार्मिक और सहज फिल्म है ’गुजारिश‘ जो जिंदगी के साज पर प्यार का नगमा छेड़ती है। अवश्य देखें।

निर्देशन: संजय लीला भंसाली
कलाकार: ऋतिक रोशन, ऐश्वर्या राय, आदित्य राय कपूर, शेरनाज पटेल, सुहेल सेठ
गीत: एएम तुराज, विभु पुरी
संगीत: संजय लीला भंसाली

Monday, November 1, 2010

नक्षत्र

फिल्म समीक्षा

इस ‘नक्षत्र‘ के दर्शक चार

धीरेन्द्र अस्थाना

मल्टीप्लेक्स में जाकर फिल्म देखना बहुत महंगा शौक हो गया है इसलिए दर्शक अब कोई भी फिल्म नहीं देखते। मोहन सावलकर की फिल्म के साथ भी दर्शकों ने यही रवैया अपनाया। उनकी ‘नक्षत्र‘ को देखने दर्शक सिनेमाघरों में नहीं पहुंचे। लेखक ने यह फिल्म केवल तीन अन्य दर्शकों के साथ देखी। आठ करोड़ में बनी ‘नक्षत्र‘ के दर्शक चार। सवाल कम बजट का नहीं है। कम बजट में ‘भेजा फ्राई‘ और ‘देव डी‘ जैसी सुपर हिट तथा अर्थपूर्ण फिल्में भी बनती हैं। दो नये युवा कलाकारों शुभ तथा सबीना को इंट्रोड्यूस करने वाली ‘नक्षत्र‘ की कहानी बेजान, निर्देशन थका हुआ और पटकथा धीमी तथा लड़खड़ाती हुई है। दोनों नये कलाकार अपने अभिनय से कोई उम्मीद नहीं जगाते। लेकिन बहुत दिनों बाद पर्दे पर मिलिंद सोमन का ‘एक्शन‘ देखना अच्छा लगा। इस फिल्म से हो सकता है कि मिलिंद का पुनर्जन्म हो जाए। वह क्राइम ब्रांच के इंस्पेक्टर बने हैं जिसमें उनका साथ दिया है नीरज कुमार ने। अनुपम खेर विलेन के रोल में हैं। फिल्म में उनकी मौजूदगी यह घोषणा करती है कि एक समय के बाद शायद पैसा पाने के लिए कोई भी रोल करना मजबूरी बन जाता है। फिल्म की एकमात्र विशेषता उसका कला निर्देशन है। आर्ट डायरेक्टर संतोष प्रजापति के बनाए कुछ सेट कलात्मक और दिलचस्प हैं। विशेष रूप से चाईना क्रीक में बनाया गया जानवरों की एक डॉक्टर का आवास और अस्पताल। फिल्म का नायक एक दृश्य में बुरी तरह घायल हो कर यहां पहुंचता है। फिल्म के पहले हिस्से में लगता है कि यह शायद बॉलीवुड में ‘स्ट्रगल‘ कर रहे एक लेखक की कहानी है। इस स्ट्रगल के दौरान दो चार अच्छे प्रसंग जुटाये गये हैं लेकिन बाद में कहानी ‘यू टर्न‘ ले लेती है। अब मामला ये है कि चार फिल्म निर्माताओं ने लेखक से एक पटकथा लिखवा कर, उसके जरिए एक नायाब हीरों का हार चुरा लिया है। इस हार की चोरी के आरोप में फिल्म का हीरो फंस गया है। कुछ अविश्वसनीय सूत्रों के जरिए वह एक एक कर चारों प्रोड्यूसर तक पहुंचता है लेकिन क्रमशः चारों ही प्रोड्यूसर कत्ल कर दिए जाते हैं। चौथे प्रोड्यूसर के कत्ल होने से कुछ पहले यह राज खुल जाता है कि असली हीरो चोर तो खुद अनुपम खेर हैं जिनकी छवि एक दानवीर शहंशाह जैसी है। फिल्म मुंबई और बैंकॉक के बीच बेवजह आवाजाही करती रहती है। अनुपम खेर मुंबई में रहते हैं लेकिन उनका निवास बैंकॉक की लोकेशन पर है। इसी तरह फिल्म का हीरो दिल्ली से मुंबई आकर स्ट्रगल कर रहा है। लेकिन कई फिल्म कंपनियों की लोकेशन बैंकॉक में शूट हुई हैं। ‘नक्षत्र‘ सन् 2010 की फिल्म है लेकिन उसे फिल्माने का निर्देशकीय नजरिया 1950 के समय जैसा है। इस ‘नक्षत्र‘ से दूर रहने में ही समझदारी है।

निर्देशक: मोहन सावलकर
कलाकार: शुभ, सबीना, मिलिंद सोमन, अनुपम खेर
संगीत: डीजे शेजवुड, समीर सेन, हैरी आनंद

Saturday, October 23, 2010

रक्त चरित्र

फिल्म समीक्षा

माफिया स्टाइल में क्रांति: रक्त चरित्र

धीरेन्द्र अस्थाना

बहुत दिनों के बाद राम गोपाल वर्मा ने ऐसी फिल्म बनायी है जो उनके सिनेमाई करियर को समृद्ध करती है। समझ नहीं आता कि जब राम गोपाल ‘सत्या‘, ‘सरकार‘ और ‘रक्त चरित्र‘ जैसी फिल्में बना सकते हैं तो वह बीच-बीच में कुछ निरर्थक और उबाऊ फिल्में क्यों बना देते हैं। अंडरवर्ल्ड रामू का चहेता विषय है। ’रक्त चरित्र‘ को भी उन्होंने हालांकि माफिया स्टाइल में ही बनाया है लेकिन इस बार विषय ’नक्सली हिंसा: कारण और निवारण‘ के इर्द-गिर्द घूमता है। यह संभवतः हिन्दी की पहली फिल्म है जो न सिर्फ दो भागों में एक साथ बनी है बल्कि दूसरे भाग के रिलीज होने की तारीख भी पहले भाग के अंत में करती है। घोषणा के अनुसार ’रक्त चरित्र-दो‘ लगभग एक महीने बाद यानी 19 नवंबर को रिलीज होगी। आंध्र प्रदेश के सुदूर इलाकों में राज सत्ता और धन शक्ति के नापाक, निरंकुश तथा खतरनाक गठजोड़ गरीब जनता पर कैसे जुल्म ढा रहे हैं, इसी की पृष्ठभूमि पर रामू हिंसा के विरुद्ध प्रतिहिंसा का पाठ रचते हैं। लेकिन इस प्रतिहिंसा को न तो तार्किक ठहराया जा सकता है न ही महिमा मंडित किया जा सकता है। इसलिए लोकतांत्रिक भाषा और रास्ते का इस्तेमाल करते हुए अपने क्रांतिकारी आख्यान में रामू सिस्टम बदलने के लिए सिस्टम का अंग बनने पर जोर देते हैं। रामू की विशेषता है कि जब वह अपनी शैली का सिनेमा बनाते हैं तो उनके कलाकार परिस्थितियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। वह कहानी की सतह से उठते हुए नजर आते हैं। ’रक्त चरित्र‘ में भी विवेक ओबेराय, सुशांत सिंह तथा अभिमन्यु सिंह हिंसा और प्रतिहिंसा के हरकारे बन कर ही उभरते हैं। इतनी ज्यादा और वैविध्यपूर्ण हिंसा भी लंबे समय बाद पर्दे पर उतरी है। शीषर्क गीत में फिल्म को नये समय की महाभारत कहा गया है। प्रकाश झा की ’राजनीति‘ को भी नये दौर की महाभारत से जोड़ा गया था। लेकिन मूलतः दोनों ही फिल्मों की व्याख्या देश के मौजूदा राजनैतिक परिदृश्य की तह में जाकर ही की जा सकती है। फिल्म का गीत संगीत फिल्म को गति देने के साथ-साथ उसकी कथा का बखान भी करता चलता है। सबसे बड़ी बात, पूरी फिल्म शुरू से अंत तक बांधे रखती है। फिल्म में शत्रुघ्न सिन्हा शिवाजी नामक दक्षिण के सुपर स्टार और राजनेता के किरदार में अच्छे लगे हैं। उनका संवाद ’वाक इज ओवर‘ लोकप्रिय हो सकता है। इस फिल्म से विवेक ओबेराय का सिनेभाई पुनर्जन्म हुआ है। यकीनन देखने लायक फिल्म है।

निर्देशक: राम गोपाल वर्मा
कलाकार: शत्रुघ्न सिन्हा, विवेक ओबेराय, सुशांत सिंह, अभिमन्यु सिंह, राजेंद्र गुप्ता, आशीष विद्यार्थी, प्रियामणि
संगीत: सुखविंदर सिंह/बापी टुटुल

Saturday, October 16, 2010

आक्रोश

फिल्म समीक्षा

बाहुबलियों का जंगलराज: आक्रोश

धीरेन्द्र अस्थाना

जब कभी प्रियदर्शन के भीतर का सरोकारों वाला निर्देशक जागता है तो दर्शकों को एक गंभीर और सामाजिक मंतव्यों से जुड़ी फिल्म देखने को मिलती है। वह सिर्फ कॉमेडी के ही सरताज नहीं विचारों के भी हरकारे हैं। उनकी नयी फिल्म ’आक्रोश‘ महानगरों के खुशगवार हालात से दूर उन बीहड़ इलाकों की टोह लेती है जहां आज भी बाहुबलियों का जंगलराज कायम है और जहां ताकत, वैभव तथा उच्चकुलीय अभियान के सामने सामान्य जन निहत्था और निरुपाय छोड़ दिया गया है। बैक ड्राप के रूप में प्रियदर्शन ने ’आक्रोश‘ में ऑनर किलिंग‘ का ताना-बाना खड़ा किया है, लेकिन असल में उनकी मूल चिंता उस साधारण, वंचित, दलित और सर्वहारा मनुष्य के साथ सलंग्न है जो जिंदगी के हर नये पल में नया सर्वनाश झेल रहा है। पंजाब या राजस्थान या उत्तर प्रदेश तो सिर्फ प्रतीक हैं। यह बनैला दमनचक्र व्यापक स्तर पर देश के प्रत्येक सुदूर इलाके में जारी है। वहां जहां सुरक्षा, सुविधा और सुखों की रोशनी आज भी नहीं पहुंची है। हिंसा के एक बेशर्म नंग नाच की पृष्ठभूमि पर प्रियदर्शन कर्तव्य पारायणता का बेबस पाठ भी तैयार करते है। तीन युवकों के गायब हो जाने के एक रहस्यमय केस की जांच करने के लिए सीबीआई अधिकारी अक्षय खन्ना पंजाब के एक गांव पहुंचते हैं। वहां उनकी मदद के लिए अजय देवगन हैं। दोनों मिलकर जब इस केस की गुत्थियां हल करते हैं, तब पता चलता है कि इलाके के चप्पे-चप्पे में बाहुबलियों की कितनी खतरनाक दहशत तारी है। आम आदमी की बेबसी का कितना दारुण दुखांत वहां कितनी आसानी से लिख दिया जाता है। यह चूंकि फिल्म है इसलिए ताकत का जंगली अंधेरा अंतिम सत्य के तौर पर स्थापित नहीं किया जा सकता था। इसीलिए अंत में तमाम बाहुबलियों के विरुद्ध न्याय की जीत होती दिखाई गयी है जबकि हकीकत दरअसल वहीं तक है जहां तक दमन का दावानल फैला हुआ है। एक अत्यंत यथार्थवादी फिल्म के जरिए आजाद हिंदुस्तान के भीतरी इलाकों में पसरा गुलाम जीवन दर्शाने के लिए प्रियदर्शन बधाई के पात्र हैं। फिल्म तीन प्रमुख पात्रों के इर्द-गिर्द घूमती है- अजय देवगन, अक्षय खन्ना, परेश रावल। तीनों का काम उम्दा है। राहत देने के लिए समीरा रेड्डी का आइटम सांग है जो पहले ही मशहूर हो चुका है। फिल्म में बिपाशा बसु के लिए कायदे का ’स्पेस‘ नहीं रखा गया है। वह नहीं भी होतीं तो चलता। हाशिए पर जीती औरत के रोल में रीमा सेन ने बेहतरीन काम किया है। एक सार्थक फिल्म।

निर्देशक: प्रियदर्शन
कलाकार: अजय देवगन, अक्षय खन्ना, परेश रावल, बिपाशा बसु, रीमा सेन, समीरा रेड्डी
संगीत: प्रीतम चक्रवर्ती

Saturday, October 9, 2010

क्रुक

फिल्म समीक्षा

नस्लवाद से लड़ती ‘क्रुक‘

धीरेन्द्र अस्थाना

जैसी कि भट्ट कैंप की फिल्में होती हैं, ‘क्रुक‘ भी उसी तरह की फिल्म है। छोटा बजट, नयी हीरोईन और घर का एक्टर इमरान हाशमी। मनोरंजन के साथ साथ कोई संदेश देने का प्रयास। कभी इस कैंप की फिल्म हिट हो जाती है कभी नहीं होती। लेकिन प्रत्येक फिल्म अपनी लागत जरूर निकाल ले जाती है। छोटा ही सही लेकिन इमरान हाशमी का भी अपना एक दर्शक वर्ग बन गया है इसलिए उनकी सोलो फिल्म भी ठीक ठाक व्यवसाय कर लेती है। यह फिल्म भी थोड़ा बहुत व्यवसाय कर लेगी। पहले दिन ‘क्रुक‘ को देखने आये दर्शकों की संख्या संतोषजनक कही जा सकती है। अपने मंतव्य के कारण ‘क्रुक‘ थोड़ी गंभीर फिल्म है हालांकि निर्देशक मोहित सूरी ने रोमांस, एक्शन, कॉमेडी के तत्व डाल कर इसे मनोरंजक बनाने की कोशिश की है। फिल्म नस्लवाद से टकराने और उसका एक समाधान तलाशने का प्रयास करती है। इमरान हाशमी नकली नाम और पासपोर्ट के जरिए ऑस्ट्रेलिया जाता है ताकि वहां जा कर वह एक नयी और बेहतर जिंदगी जी सके। मुंबई में उसे कोई काम नहीं देता क्योंकि उसका पिता एक गैंगस्टर था जो जाली एनकाउंटर में मार दिया जाता है। मुंबई में अतीत इमरान के आगे आगे चलता है इसलिए वह एक पुलिस अधिकारी अंकल की मदद से ऑस्ट्रेलिया रवाना होता है।
ऑस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों और व्यक्तियों के साथ जो नस्लभेदी वारदात घट रही हैं उन्हीं में से एक के साथ, न चाहते हुए भी, इमरान हाशमी उलझ जाता है। थोड़ी बहुत मारा मारी, प्रदर्शन, भाषण आदि के बाद फिल्म इस सकारात्मक नोट पर खत्म होती है कि भारत और ऑस्ट्रेलिया के लोग मिल कर ही नस्लवाद का खात्मा कर सकते हैं। एक दूसरे से नफरत करने और झगड़ने की नीति दोनों को हिंसा-प्रतिहंसा की एक अंधी गली में ले जाकर छोड़ देगी। देखा जाए तो इस फिल्म के माध्यम से भट्ट कैंप ने एक अंतरराष्ट्रीय समस्या को सिनेमाई पाठ में ढालने का प्रयत्न किया है लेकिन फिल्म को फिल्मी फार्मूलोें के बंधे बंधाये ढांचे में रख देने से उसका प्रभाव कमजोर हो जाता है। प्रीतम ने हूबहू वही संगीत दिया है जैसा इमरान की फिल्मों के गीतों में दिया जाता है। नेहा शर्मा का अभिनय कोई जादू नहीं जगाता जबकि उसके किरदार में एक तपिश एक तड़प मौजूद थी। इमरान हाशमी अपनी सीरियल किसर की छवि से मुक्त हो रहे हैं यह उनकी अभिनय यात्रा के लिए एक सुखद संकेत है। फिल्म देखी जा सकती है।

निर्माता: मुकेश भट्ट
निर्देशक: मोहित सूरी
कलाकार: इमरान हाशमी, नेहा शर्मा, अर्जन बाजवा, गुलशन ग्रोवर
संगीत: प्रीतम

Monday, September 13, 2010

दबंग

फिल्म समीक्षा

‘दबंग‘ आयी यूपी बिहार लूटने

धीरेन्द्र अस्थाना

बॉलीवुड में धारा के विरुद्ध जाकर अच्छा सिनेमा बनाने के लिए प्रसिद्ध हैं युवा निर्देशक अनुराग कश्यप। उनके खाते में ‘नो स्मोकिंग‘, ‘गुलाल‘, ‘देव डी‘ जैसी बेहतरीन फिल्में हैं लेकिन ऐसी फिल्में पैसा नहीं देतीं। शायद यही वह पाठ है जो अनुराग के भाई अभिनव कश्यप ने उनसे सीखा है। इसलिए अपने करियर का आरंभ करने के लिए उन्होंने मुख्य धारा के सिनेमा यानी मसाला फिल्म का दामन थामा। और अपनी पहली ही फिल्म में वह सुपरहिट हैं। बहुत दिनों के बाद कोई फिल्म देखी जो ’हाउसफुल‘ मिली, जिसमें दर्शक सीटियां बजा रहे थे, कुर्सी से उठकर नाच रहे थे, यह गाते हुए, ’हुड़ दबंग दबंग...‘
अभिनव ने अपनी पहली फिल्म में सलमान खान को तो केंद्र में रखा ही, उनकी उस छवि को भी उभारा जिसके लिए सलमान मूलतः जाने जाते हैं यानी दबंगई। और यह फॉर्मूला काम कर गया है। उ.प्र. के लालगंज इलाके में घटने वाली ’दबंग‘ मुहावरे की भाषा में यूपी बिहार लूटने आ गयी है। पिछली ईद पर सलमान की एक्शन फिल्म ’वांटेड‘ हिट हुई थी। इस बार की ईद पर एक और एक्शन फिल्म ’दबंग‘ हिट हो गयी है। सलमान का तो अपना एक बड़ा दर्शक वर्ग है ही जो उनकी कोई भी फिल्म देखता है। ’दबंग‘ से उनकी लोकप्रियता और बढ़ेगी। लेकिन इस ’दबंग‘ का असली फायदा शत्रुघ्न सिन्हा की बेटी सोनाक्षी सिन्हा को जरूर मिलेगा जिनकी यही पहली फिल्म है। उप्र के एक गरीब बाप की निरीह बेटी के किरदार को उन्होंने बखूबी निभाया है। फिल्म की कहानी पर तो विशेष चर्चा संभव नहीं है लेकिन उसके कुछ प्रसंग बड़े मार्मिक और अनूठे हैं। जैसे किशोर सलमान द्वारा चारा काटने की मशीन से अपनी जन्म कुंडली काट देना। यह कुंडली पर नहीं पुरुषार्थ पर भरोसा करने का प्रतीक है। जैसे सोनाक्षी के पिता का किरदार निभाने वाले शराबी महेश मांजरेकर का आत्महत्या कर लेना ताकि सोनाक्षी अपने पिता की जिम्मेदारी से आजाद होकर सलमान से विवाह कर सके। फिल्म की एक और विशेषता उसका वह नंबर वन चल रहा गाना है जो मलाईका अरोड़ा खान पर बड़ी बेबाकी से फिल्माया गया- ’मुन्नी बदनाम हुई डार्लिंग तेरे लिए।‘
इस फिल्म में विनोद खन्ना, डिंपल कपाड़िया, ओमपुरी, महेश मांजरेकर, अनुपम खेर और टीनू आनंद जैसे दिग्गजों ने काम किया है तो सोनू सूद और अरबाज खान ने भी अपने अभिनय की छाप छोड़ी है। फिल्म का गीत-संगीत तो पहले ही हिट हो चुका है। फिल्म ’वांटेड‘ से ‘दबंग‘ की तुलना तो होगी लेकिन होनी नहीं चाहिए। दोनों फिल्मों में कॉमन सिर्फ एक ही चीज है-एक्शन। तो क्या एक्शन ही सफलता का सच है?

निर्देशक ः अभिनव कश्यप
कलाकार: सलमान खान, सोनाक्षी सिन्हा, अरबाज खान, सोनू सूद, मलाईका अरोड़ा (आइटम नंबर), अनुपम खेर, ओमपुरी, डिंपल आदि।
संगीत: साजिद-वाजिद-ललित पंडित

Saturday, September 4, 2010

वी आर फैमिली

फिल्म समीक्षा

वी आर फैमिली: रियलिटी पर भारी फैंटेसी

धीरेन्द्र अस्थाना

करण जौहर के प्रोडक्शन की नयी फिल्म ’वी आर फैमिली‘ एक बेहतरीन फटकथा है, जिसमें एक असंभव इच्छा फैंटेसी की तरह रहती है। हॉलीवुड की हिट फिल्म ’स्टेपमॉम‘ पर आधारित ’वी आर फैमिली‘ का यथार्थ भारतीय समाज और सच्चाई को अभिव्यक्त नहीं करता, इसलिए इस फिल्म का देश के बड़े दर्शक वर्ग के साथ जुड़ाव संभव नहीं लगता। एक मां के जीवित रहते बच्चों के लिए दूसरी मां लेकर आने की अवधारणा फैंटेसी हो सकती है रियलिटी नहीं। लेकिन ’वी आर फैमिली‘ में यह अवधारणा ही रियलिटी है। हो सकता है कि आज के उत्तर आधुनिक समय का जो सिनेमा है उसके जादुई यथार्थवाद का यह समकालीन आईना हो। लेकिन थोड़ी देर के लिए अगर हम यह मान लें कि सिनेमा समाज और यथार्थ वगैरह से अलग एक स्वायत्त इकाई या कृति है तो ’वी आर फैमिली‘ की कुछ विशेषताओं पर चर्चा की जा सकती है।
पहली विशेषता। यह काजोल की फिल्म है और काजोल के अविस्मरणीय अभिनय के लिए हमेशा याद की जाएगी। एक मरती हुई मां की इच्छा कि उसके तीन अबोध बच्चों को संभालने कोई दूसरी औरत आ जाए। लेकिन जब दूसरी औरत बच्चों के साथ दोस्ती तथा अपनत्व की पगडंडी पर आगे बढ़ने लगे तो मूल मां के भीतर ईर्ष्या का ज्वालामुखी धधकने लगे.. इस कठिन और जटिल मनोभाव को काजोल ने लाजवाब और सहज अभिव्यक्ति दी है। तलाकशुदा होने के बावजूद पति अर्जुन रामपाल को लेकर मन में मचलती मंद-मंद तड़प को वह सार्थक ढंग से सामने लाती है। दूसरी विशेषता। फिल्म की पटकथा बेहद कसी हुई और संवाद मर्मस्पर्शी तथा धारदार हैं। अपने आरंभ होने के साथ ही फिल्म में तनाव की रचना होने लगती है। यह तनाव पूरी फिल्म को बांधे और साधे रखता है। आमतौर पर चुलबुली और शोख युवती का किरदार निभाने वाली करीना कपूर ने इस फिल्म में जैसा रोल किया है वह अवसाद और दुख के अटूट अकेलेपन को पैदा करता है। दो स्त्रियों के विकट संघर्ष में फंसे निहत्थे और विकल्पहीन व्यक्ति की भूमिका को अर्जुन रामपाल ने गजब ढंग से निभाया है। सबसे बेमिसाल है फिल्म के तीन बच्चों का सहज और भावप्रवण अभिनय। कई स्थलों पर फिल्म रुलाती भी है इसलिए इसे मनोरंजन के लिए तो हर्गिज नहीं देखा जा सकता। लेकिन अगर आप एक सौतेली मां और दूसरी औरत के दर्द से दो-चार होना चाहते हैं तो ’वी आर फैमली‘ एक उम्दा अनुभव है। लेकिन बॉलीवुड में बीमारी लौट आयी है क्या? पिछले हफ्ते ही कैंसर से पीड़ित जॉन अब्राहम की ‘आशाएं‘ देखी थी। इस हफ्ते काजोल!

निर्माता: करण जौहर
निर्देशक: सिद्धार्थ मल्होत्रा
कलाकार: अर्जुन रामपाल, काजोल, करीना कपूर, आंचल मुंजाल, दिया सोनेचा, नोमिनाथ गिन्सबर्ग
संगीत: शंकर-अहसान-लॉय

Saturday, August 28, 2010

आशाएं

फिल्म समीक्षा

जिंदगी को पुकारती ’आशाएं‘

धीरेन्द्र अस्थाना

अगर आप बेहतर ढंग से बुनी गयी, एक संवेदनशील और अर्थपूर्ण कहानी पसंद करते हैं तो नागेश कुकनूर की ’आशाएं‘ आपको भरोसा देगी। भरोसा इस बात का कि बाजार की इस अंधी दौड़ में भी कुछ लोग ’अच्छे सिनेमा‘ को जुनून की तरह बचाए हुए हैं। भरोसा इस बात का कि जिंदगी हमेशा जिंदाबाद है और जिंदगी को पूरी शिद्दत के साथ जीना चाहिए। एक पंक्ति में कहें तो ’आशाएं‘ जिंदगी के समर्थन में उठी एक जीवंत पुकार है। और यह पुकार जॉन एब्राहम के मर्मस्पर्शी अभिनय से सजी हुई है। बॉलीवुड की चालू फिल्मों से अलग ’आशाएं‘ कम से कम जॉन एब्राहम की ’फिल्मोग्राफी‘ में एक सितारे की तरह जुड़ने वाली है। यह फिल्म लंबे समय से रोशनी का मुंह देखने को तरस रही थी। अगर यह रिलीज नहीं होती तो पर्दे पर रची हुई एक मार्मिक कविता की अकाल मौत हो जाती और दर्शक कभी नहीं जान पाते कि जॉन के भीतर कितना समर्थ अभिनेता छिपा हुआ है। अनीता नायर के रूप में नागेश ने बॉलीवुड को जो युवा अभिनेत्री दी है वह उचित मौके मिलने पर कमाल कर सकती है। मरती हुई लेकिन जीवंत लड़की का नायाब अनुभव बन गयी है अनीता नायर। वह न सिर्फ पूरी फिल्म को बांधे रखती है बल्कि कैंसर जैसी भयावह तकलीफ को चिढ़ाती भी रहती है। वैसे तो फिल्म की मुख्य हीरोइन सोनल सहगल है लेकिन ज्यादातर स्पेस अनीता नायर को ही मिला है, और इस स्पेस में अनीता ने अपने हिस्से का आकाश रच दिया है। ऐसा नहीं है कि आशाएं कोई अद्वितीय फिल्म है। कैंसरग्रस्त हीरो की कहानी पर राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन की अमर फिल्म ’आनंद‘ बन चुकी है। ’आशाएं‘ इस अर्थ में बेहतरीन फिल्म है कि यह जिंदगी की जिंदादिल दास्तान का कोलाज रचती नजर आती है। जिंदगी से मुंह मोड़ कर जॉन जिस मरते हुए लोगों के आश्रम में जीवन गुजारने जाता है वहां उसका साक्षात्कार इस यथार्थ से होता है कि जिंदगी भागने का नहीं, जीने का नाम है। कि अमर जिंदगी का झरना किसी कल्पना लोक में नहीं जिंदगी के सीने पर गड़ा हुआ है। इस सच से गुजरने के बाद जॉन अपने प्यार के साथ वापस जिंदगी में लौटता है। मारधाड़, कॉमेडी और सेक्स के इस ’मुख्य समय‘ में ’आशाएं‘ को ’बाजार‘ तो नहीं मिलेगा लेकिन अच्छे सिनेमा की गिनती में उसका भी नाम दर्ज होगा, इसमें शक नहीं। सलीम-सुलेमान और प्रीतम ने कहानी के अनुकूल संगीत दिया है जो मन को भाता भी है। धारा के विरुद्ध बने सिनेमा को प्रोत्साहन देने के लिए भी इस फिल्म को देखना चाहिए।


निर्देशक: नागेश कुकनूर
कलाकार: जॉन एब्राहम, सोनल सहगल, अनीता नायर, फरीदा जलाल, गिरीश करनाड।
संगीत: प्रीतम चक्रवर्ती, शिराज उप्पल, सलीम मर्चेन्ट, सुलेमान मर्चेन्ट।
गीत: समीर, कुमार, शकील, मीर अली।

Saturday, August 21, 2010

लफंगे परिंदे

फिल्म समीक्षा

इलीट क्लास के ‘लफंगे परिंदे‘

धीरेन्द्र अस्थाना

अपने बॉलीवुड में कौन-कौन से खास लोग हैं जो झोपड़पट्टी या बैठी चाल या गरीब गुरबों की बस्ती में जीवन जीते किरदारों को विश्वसनीय, सहज और वास्तविक ढंग से पर्दे पर उतार सकते हैं? जो गली कूचों की टपोरी भाषा ही नहीं बोल सकते वैसा जीवन जीवंत भी कर सकते हैं? आम आदमी का जीवन जी सकने में सफल ये खास कलाकार हैं - आमिर खान, सलमान खान, संजय दत्त, अरशद वारसी, नसीरुद्दीन शाह, ओमपुरी, महेश मांजरेकर, करीना कपूर, विद्या बालन, तब्बू, मिथुन चक्रवर्ती, जैकी श्राफ, नाना पाटेकर, रणवीर शौरी, इरफान खान, अक्षय कुमार, सुनील शेट्टी, परेश रावल, उर्मिला मातोंडकर, प्रियंका चोपड़ा आदि। लेकिन अंग्रेज व्यक्तित्व वाले नील नितिन मुकेश और इलीट क्लास की दीपिका पादुकोन तो कहीं से भी ’लफंगे परिंदे‘ नजर नहीं आते। न हावभाव से, न चालढाल से, न संवाद अदायगी से, न बॉडी लैंग्वेज से। इसीलिए गली-कूचों की एक जीवंत, मर्मस्पर्शी और जिंदादिल दास्तान ’निर्जीव तमाशे‘ में बदलती नजर आती है। इलीट क्लास के ’लफंगे परिंदे‘ लोअर डेप्थ (तलछट) का यथार्थ साकार नहीं कर सके। हर निर्देशक का अपना ’जोनर‘ होता है जो उसे पहचानना चाहिए। इसी तरह हर कलाकार की भी अपनी सीमा होती है लेकिन जो उस सीमा का सफलतापूर्वक अतिक्रमण कर लेता है वह महान कलाकारों की श्रेणी में शुमार हो जाता है। जैसे सबसे बड़ा उदाहरण अमिताभ बच्चन। अगर दुर्भाग्य से इस फिल्म में पीयूष मिश्रा और केके मेनन जैसे अद्वितीय कलाकार नहीं होते तो ’लफंगें परिंदे‘ शायद उड़ भी नहीं पाते। फिल्म का सबसे ज्यादा प्रभावशाली पक्ष है इसका गीत-संगीत, उसके बाद ध्यान खींचते हैं संवाद। नील नितिन मुकेश के व्यक्तित्व पर किसी अमीरजादे का चरित्र ही सहज लग सकता है। दीपिका पादुकोन ने अंधी लड़की के किरदार में घुसने की जी-तोड़ कोशिश की है लेकिन फिल्म ’ब्लैक‘ में रानी मुखर्जी ने इस चरित्र के संदर्भ में जो लंबी लकीर खींच दी है उसे पार करना शायद संभव नहीं है। ’लफंगें परिंदे‘ की जो बुनियादी प्रेम कहानी है वह यकीनन बहुत संवेदनशील और ’ट्रेजिक‘ है। इस कहानी को मुंबई की किसी ’चाल‘ या ’वाड़ी‘ के बजाय पैडर रोड, नरीमन प्वाइंट अथवा बांद्रा के ’पॉश परिवेश‘ में घटता दिखाते तो शायद फिल्म का भविष्य कुछ और होता। उस परिवेश में दोनों प्रमुख पात्र ज्यादा ’रीयल‘ लगते। इस फिल्म की एकमात्र कमजोरी इसका अनरीयल होना ही है। इतना जरूर है कि फिल्म का कथानक लगातार बांधे रखता है।

निर्माता: आदित्य चोपड़ा
निर्देशक: प्रदीप सरकार
कलाकार: नील नितिन मुकेश, दीपिका पादुकोन, केके मेनन, पीयूष मिश्रा
गीत: स्वानंद किरकिरे
संगीत: आर.आनंद

Saturday, August 14, 2010

पीपली लाइव

फिल्म समीक्षा

तंत्र पर तमाचा ‘पीपली लाइव‘

धीरेन्द्र अस्थाना

बॉलीवुड में बनने वाली एक अच्छी या बुरी फिल्म नहीं है ‘पीपली लाइव।‘ फिल्म की तरह इसकी समीक्षा की भी नहीं जा सकती। असल में ‘पीपली लाइव‘ बना कर इसके मूल निर्माता आमिर खान ने यह बताया है कि कोई भी सार्थक (और सफल भी) काम करने के लिए केवल और केवल एक बेहतरीन दिमाग की जरूरत पड़ती है। पैसा, ताम झाम, ग्लैमर बहुत बाद की बातें हैं। यही वजह है कि ‘पीपली लाइव‘ नामक तथाकथित फिल्म में कदम कदम पर आमिर खान का उर्वर दिमाग जैसे एक निर्णायक युद्ध सा लड़ता नजर आता है। पारंपरिक अर्थों में ‘पीपली लाइव‘ सिनेमा है भी नहीं। यह दरअसल सिनेमा के नाम पर एक खतरनाक तमाचा है जिसकी अनुगूंज आने वाले कई वर्षों तक वातावरण में बनी रहेगी। इस तमाचे के गहरे, रक्तिम निशान सत्ता के तंत्र पर बरसों बरस चमकते रहेंगे। और जो लोग इस सिनेमाई विमर्श के अनुभव से गुजरे हैं या गुजरेंगे वे इस बात के गवाह रहेंगे कि तंत्र चाहे स्थानीय हो, चाहे प्रादेशिक, चाहे भारतीय वह कितना अमानवीय, लोलुप, बेदर्द और जंगली होता है। तंत्र की बर्बरता का बखान करने के क्रम में आमिर खान ने मीडिया को भी नहीं बख्शा है। ‘पीपली लाइव‘ में मीडिया एक मजाक बन कर दौड़ता है - बदहवास, बेमतलब और बेलगाम। इस प्रकार एक गुमनाम गांव में एक किसान के आत्महत्या करने के ऐलान की पृष्ठभूमि पर आमिर खान का यह सिनेमाई पाठ सत्ता से जुड़ी हर संस्था को खेल-खेल में नंगा कर देता है। महान कवि गजानन माधव मुक्ति बोध की तरह यह बुदबुदाते हुए -‘हाय हाय, मैंने उन्हें देख लिया नंगा/अब मुझे इसकी सजा मिलेगी।‘
अगर ‘पीपली लाइव‘ केवल मल्टीप्लेक्स की फिल्म बन कर रह गयी तो यह इसकी और इससे जुड़े तमाम लोगों की हार होगी। ‘पीपली लाइव‘ की विजय उसके व्यापक प्रदर्शन में निहित है। गांव-गांव-गली-गली-कस्बे-कस्बे में इसका प्रदर्शन ही इसे इसके मकसद तक पहुंचा सकता है। यह कैसे होगा यह भी आमिर खान को ही सोचना होगा। फिल्म के प्रोमोज लगभग पूरी फिल्म पहले ही बयान कर चुके हैं। हम केवल इतना बताना चाहते हैं कि आमिर खान को एक हजार गांवों से एक एक चिट्ठी आयी है। हर गांव का नाम पीपली है यानी कम से कम हिंदुस्तान में पीपली नाम के एक हजार गांव तो मौजूद हैं ही। एक रघुवीर यादव को छोड़ कर कोई भी फिल्मी कलाकार नहीं है लेकिन अभिनय के मामले में कोई कमतर नहीं है। ‘पीपली लाइव‘ के गाने प्रदर्शन से पूर्व ही लोकप्रिय हो चुके हैं। एक अनूठी, दिलचस्प और जरूरी फिल्म को तुरंत देखने जाएं।

निर्माता: आमिर खान /यूटीवी
निर्देशक: अनुषा रिजवी
कलाकार: रघुवीर यादव, ओमकारदास माणिकपुरी, मलाइका शिनॉय, नवाजुद्दीन सिद्धिकी, फारुख जफर
संगीत: इंडियन ऑसियान, बृज आदि

Saturday, August 7, 2010

आयशा

फिल्म समीक्षा

हाथ से छूटती फिसलती सी ‘आयशा‘

धीरेन्द्र अस्थाना

प्रेम कहानी होने के बावजूद थोड़ी गंभीर और जटिल किस्म की फिल्म है इसलिए आम दर्शक संभवतः ‘आयशा‘ को देखना पसंद नहीं करेंगे। लेकिन विशेष अथवा बौद्धिक दर्शकों को भी लीक से हट कर बनी ‘आयशा‘ ट्रीटमेंट के स्तर पर संतुष्ट नहीं करेगी। शुरू से अंत तक हाथ से फिसलती और छूटती सी नजर आती है फिल्म। कह सकते हैं कि एक बेहतरीन, अर्थपूर्ण, कुछ अलग किस्म की कहानी जब बुनावट यानी मेकिंग के स्तर पर लड़खड़ा जाती है तो ‘आयशा‘ जैसी फिल्म बनती है। वरना तो दिल्ली की जिस अमीरजादी, शोख, थोड़ी सी एरोगेंट, ज्यादातर आत्मकेंद्रित और पूरी तरह आत्म मुग्ध लड़की के किरदार में सोनम कपूर को उतारा गया है वह बॉक्स ऑफिस पर गदर मचा सकती थी। इस तरह के चरित्र को ‘नारसिसस‘ कहते हैं। यह चरित्र ग्रीक माइथोलॉजी में मौजूद है और पूरी दुनिया में इस चरित्र के प्रभाव ग्रीक माइथोलॉजी से ही ग्रहण किए गये हैं। यह केवल खुद पर मुग्ध, पूरी तरह पर्फेक्ट, अंतिम सत्य सा ‘तूफान‘ चरित्र होता है जो सोनम कपूर जैसी सॉफ्ट, कम उम्र और दिलकश लड़की पर फिट नहीं बैठता। इस ‘मिसमैच‘ के कारण ही ‘आई हेट लव स्टोरीज‘ की, दर्शकों के दिलों पर राज करने वाली सोनम ‘आयशा‘ में प्रभावित नहीं कर पाती। लेकिन एक लीक से हटकर उठायी गयी कहानी के जीवंत और जुदा अनुभव से गुजरने के लिए फिल्म को एक बार जरूर ही देखना चाहिए। सवा दो घंटे की फिल्म में कोई हीरोईन शायद इतनी तरह की ड्रेसेज नहीं पहन सकती जितनी सोनम ने पहनी हैं। लड़कियों को तो ड्रेसेज की इतनी अधिक वेरायटीज से गुजरने के लिए भी ‘आयशा‘ देख लेनी चाहिए। फिल्म का कथासार इतना सा है कि रियल लाइफ में दूसरों की जोड़ी मिलाने का शौक रखने वाली सोमन कपूर कैसे अपनी सनक और जिद के चलते क्रमशः अपने दोस्तों को खोती चली जाती है। हिंदी फिल्म है। सुखांत फिल्म बनाना मजबूरी है इसलिए अंत में सोनम को ‘रियलाइज‘ होता है कि वह कितनी गलत थी और इस आत्मस्वीकार के बाद वह अपने ‘प्यार‘ अभय देओल को पा लेती है। दिल्ली के बिंदास, बेफिक्रे, अल्हड़ किरदारों के रूप में अभय देओल, साइरस शौकर, इरा दुबे और अमृता पुरी दिल जीत लेते हैं। सोनम का अभिनय मंजता जा रहा है। वह सहज अभिनय करने की कठिन दिशा में आगे बढ़ रही है। अभय देओल के अभिनय में आत्मविश्वास है तो नयी लड़की अमृता पुरी ने बहादुरगढ़ की पंजाबी कुड़ी के रूप में खुद को ‘मनवा‘ लिया है। गीत-संगीत बेहतरीन है। लंबे समय बाद एम. के. रैना को बड़े पर्दे पर देखना सुखद है।

निर्माता: अनिल कपूर, रिया कपूर
निर्देशक: राजश्री ओझा
कलाकार: अभय देओल, सोनम कपूर, साइरस शौकर, इरा दुबे, अमृता पुरी, एम.के. रैना आदि।
गीत: जावेद अख्तर
संगीत: अमित त्रिवेदी

Saturday, July 31, 2010

वन्स अपॉन ए टाइम इन मुंबई

फिल्म समीक्षा

वन्स अपॉन ए टाइम इन मुंबई

सत्तर की मुंबई में माफिया

धीरेन्द्र अस्थाना

मुंबई के माफिया राज या अंडरवल्र्ड पर आधारित जो तीन चार बेहतर फिल्में हिंदी सिनेमा के पास हैं उनमें एक और का इजाफा हो गया है। टीवी क्वीन एकता कपूर लगता है सिनेमा की साम्राज्ञी भी बन कर रहेंगी। पहले छोटे बजट की आॅफ बीट लेकिन सफल फिल्म ‘लव सेक्स और धोखा‘ बना कर खुद को प्रमाणित किया और अब बड़े बजट की सुपरहिट मसाला फिल्म बना कर बाजार में भी अपना सिक्का चलवा दिया। बहुत दिनों के बाद सिनेमाघरों में भारी भीड़ दिखाई पड़ी। सत्तर के समय की मंुबई को अनुभव करने के लिए युवा दर्शक उमड़ पड़े। मिलन लूथरिया का निर्देशकीय कौशल करिश्मा कर गया। उन्होंने सचमुच सातवें दशक की मुंबई के सामाजिक और आपराधिक ताने-बाने का बेहतरीन पाठ पेश किया है। निर्माण के समय खबरें आती थीं कि एकता कपूर बहुत दखलंदाजी कर रही हैं लेकिन फिल्म देखने के बाद महसूस हुआ कि यह दखलंदाजी कितनी रचनात्मक और सकारात्मक रही। फिल्म की पटकथा बेहद कसी हुई है। संवाद चुटीले और संगीत कर्णप्रिय है। केवल प्रमुख पात्रों पर ही नहीं फिल्म के प्रत्येक चरित्र के लुक, कपड़ों, हेयर स्टाइल और अंदाज पर बहुत मेहनत की गयी है। एक पंक्ति में कहना हो तो ‘वन्स अपाॅन ए टाइम इन मुंबई‘ सत्तर के समय में खड़ी दो हजार दस की चेतना है जिसके जरिए हम माफिया राज की नैतिक दीवारों पर मनुष्य विरोधी अनैतिक खिड़कियां खुलते देखते हैं। बीतते हुए और आते हुए डाॅन के इस द्वंद्व को बेहद स्पष्ट और तल्ख अंदाज में पेश करके मिलन लूथरिया ने इसे नये युग के माफिया विमर्श में बदल दिया है। और इस विमर्श को बेहद काबिल, विश्वसनीय, जीवंत तथा यादगार अनुभव में ढाला है इसके पांचों प्रमुख कलाकारों ने। अजय देवगन, इमरान हाशमी, कंगना रानावत, प्राची देसाई और रणदीप हुडा ने अपने किरदारों को अपने अभिनय से एक सिनेमाई पाठ में बदल दिया है। फिल्म में राजनीति और अपराध की दुरभिसंधियों की आहटों को भी जगह दी गयी है। तबाही, बम धमाकों, ट्रेन विस्फोटों, जहरीली शराब, ड्रग्स वगैरह के जिस खौफनाक ज्वालामुखी पर आज की मुंबई बैठी है उसकी रचना कौन से समय में और किन सपनों को पूरा करने की चाहत में हुई थी यह जानने-समझने के लिए नयी पीढ़ी को यह फिल्म अवश्य देखनी चाहिए। ऐसी फिल्मों में हीरोईनों के लिए खास ‘स्पेस‘ नहीं होता तो भी दोनों अभिनेत्रियों - कंगना तथा प्राची - ने अपना जलवा दिखाया है। कंगना के लिए तो यह शायद उसकी चुनी हुई फिल्मों में से एक बनेगी। गीत-संगीत भी सातवें दशक का जादू जगाते हैं।

निर्माता: एकता कपूर, शोभा कपूर
निर्देशक: मिलन लूथरिया
कलाकार: अजय देवगन, इमरान हाशमी, कंगना रानावत, प्राची देसाई, रणदीप हुडा।
गीत: इरशाद कामिल
संगीत: प्रीतम चक्रवर्ती

Saturday, July 24, 2010

खट्टा मीठा

फिल्म समीक्षा

भ्रष्ट तंत्र के विरुद्ध ‘खट्टा मीठा‘

धीरेन्द्र अस्थाना

इस बार प्रियदर्शन और अक्षय कुमार की जोड़ी ने काॅमेडी में इमोशन और मूल्यों का तड़का लगा कर एक ‘मीनिंगफुल‘ फिल्म बनाने की कोशिश की है। प्रियदर्शन ने फिल्म को भ्रष्टचार और भ्रष्ट तंत्र के विरुद्ध जंग का ऐलान बनाने का प्रयास किया है लेकिन यह प्रयास ‘कन्फ्यूजन‘ का शिकार हो गया है। भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई एक गंभीर मुद्दा है जिसे काॅमेडी के औजारों से नहीं लड़ा जा सकता। इंटरवल तक फिल्म तो भी एक उम्मीद से जोड़े रखती है कि शायद यह भ्रष्ट तंत्र पर एक गहरा तंज साबित होगी लेकिन इंटरवल के बाद जब फिल्म बिखरना शुरू होती है तो बिखरती ही जाती है। फिल्म में कई उप कथाएं जोड़ दी गयी हैं जिनकी बिल्कुल भी जरूरत नहीं थी। ये उपकथाएं मूल फिल्म को भटकाव की सड़क पर फिसला देती हैं। असरानी वाला प्रसंग एकदम गैरजरूरी है और अक्षय के रोड रोलर वाला प्रसंग जरूरत से ज्यादा लंबा तथा उबाऊ हो गया है।
मूल रूप से प्रियदर्शन कहना यह चाहते थे कि भ्रष्टाचार, अनाचार और अनैतिकता के दलदल में आकंठ डूबे एक तंत्र में ईमानदारी तथा मूल्यों की लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती। जो लड़ने का प्रयास करेगा वह एक दर्दनाक मौत मरेगा। (फिल्म में मकरंद देशपांडे की हत्या) इस तंत्र में जो सच्ची बात करेगा वह अकेला पड़ जाएगा और भूखा मरेगा (फिल्म में अक्षय कुमार का चरित्र)। यहां तक ही कहानी रहती तो बेहतर था। लेकिन एक सकारात्मक अंत दिखाने की चाहत में कुछ आतर्किक दृश्यों के दम पर फिल्म में सच्चाई की विजय और भ्रष्टाचार की पराजय के ‘नोट‘ पर फिल्म का अंत किया गया। इसे हम एक पवित्र मंशा भले ही कहें लेकिन यह मंशा ढंग से पर्दे पर नहीं उतर सकी। अक्षय कुमार के अपोजिट दक्षिण की जिस हीरोइन तृषा को उतारा गया उसमें जरा भी दम नहीं है। न तो वह ग्लैमरस है न ही समर्थ अभिनेत्री। पूरी फिल्म केवल और केवल अक्षय कुमार के कौशल और अंदाज की है जिसमें वह सौ प्रतिशत कामयाब हुए हैं। अगर आप अक्षय कुमार के प्रशंसक हैं तो फिल्म आपको कम से कम अक्षय के अभिनय के स्तर पर निराश नहीं करेगी। लंबी फिल्म है। कम से कम आधा घंटा छोटा करके एक कसी हुई फिल्म बनायी जा सकती थी। तो भी एक बार तो दर्शक फिल्म देखने जाएं ही क्योंकि फिल्म बोर नहीं करती।

निर्देशक: प्रियदर्शन
कलाकार: अक्षय कुमार, तृषा, मकरंद देशपांडे, राजपाल यादव, मिलिंद गुणाजी, अरुणा ईरानी, कुलभूषण खरबंदा, असरानी
संगीत: प्रीतम चक्रवर्ती

Saturday, July 17, 2010

लम्हा

फिल्म समीक्षा

कश्मीर के वजूद पर विमर्श: लम्हा

धीरेन्द्र अस्थाना

यकीन तो था कि निर्देशन राहुल ढोलकिया का है इसलिए ‘लम्हा‘ अर्थपूर्ण फिल्म होगी, जो कि वह है। फिल्म ‘परजानिया‘ के निर्देशन से राहुल ढोलकिया को विश्व पर्दे की नागरिकता मिली थी। ‘लम्हा‘ में भी उन्होंने निराश नहीं किया। कश्मीर के वजूद पर एक सार्थक विमर्श पेश करने में वह सफल हुए हैं। कश्मीर को लेकर उन्होंने कुछ जलते सवाल हवा में उछाले हैं जिनका जवाब अमन और तरक्की पसंद अवाम को खोजना है। सियासत इन सवालों को उलझाती आयी है और उलझाती रहेगी क्योंकि कश्मीर सुलगता रहेगा तो सियासत का चूल्हा भी दहकता रहेगा। कश्मीर की आग ही सियासत का ईंधन है। कश्मीर एक अनसुलझा समीकरण है, कश्मीर एक कंपनी है, कश्मीर जन्नत और जहन्नुम के बीच ठिठका एक खौफनाक लम्हा है। कश्मीर की बरबादी में सब शामिल हैं, सब शामिल हैं, सब शामिल हैं - यह संदेश दिया है राहुल ढोलकिया ने। इस संदेश के संवाहक बने हैं संजय दत्त, कुणाल कपूर और बिपाशा बसु। संजय एक परिपक्व और समर्थ अभिनेता हैं। उनका काम वजनदार और सहज है। लेकिन बिपाशा बसु ने तो कमाल कर दिया है। एक ग्लैमरस गुड़िया इतना संजीदा और आॅफ बीट रोल इतने जीवंत ढंग से अदा करेगी, सोचा न था। एक बंगाली बाला होने के बावजूद कश्मीर की एक विद्रोही लड़की अजीजा का किरदार उन्होंने बेहद विश्वसनीय ढंग से निभाया है। जब वह संजय दत्त से कहती हैं -‘आंखों में जो गुस्सा है वह हर कश्मीरी लड़की को विरासत में मिलता है‘ तो पर्दे पर बिपाशा नहीं अजीजा ही दिखती है। हथियार फेंक कर चुनाव में उतरने वाले लोकप्रिय युवा नेता के रूप में कुणाल कपूर ने भी सशक्त अभिनय किया है। ‘लम्हा‘ में जो मौजूदा कश्मीर देखने को मिलता है उसे देख वह जन्नत बिल्कुल याद नहीं आती जो कश्मीर के नाम पर प्रचारित है। यह तो बहुत बदहाल, जर्जर और आतंक के साये में जीता शहर है जो सपने में डर की तरह उतरता है। इस डर पर एक नयी जगह खड़े होकर रोशनी डाली है राहुल ढोलकिया ने। संभवतः यह पहली हिंदी फिल्म है जिसमें कश्मीर की जामा मस्जिद में अदा की गयी नमाज का फिल्मांकन हुआ है। फिल्म का गीत-संगीत फिल्म की कहानी और पृष्ठभूमि के अनुकूल है। सबसे ताकतवर हैं फिल्म के संवाद। कुणाल कपूर का मात्र एक संवाद ‘कश्मीर में कोई सियासत नहीं छोड़ता‘ पूरी फिल्म का आख्यान बन जाता है।

निर्माता: बंटी वालिया
निर्देशक: राहुल ढोलकिया
कलाकार: संजय दत्त, बिपाशा बसु, कुणाल कपूर, अनुपम खेर, यशपाल शर्मा, महेश मांजरेकर, राजेश खेरा, एहसान खान
संगीत: मिठुन

Saturday, July 10, 2010

मिलेंगे-मिलेंगे

फिल्म समीक्षा

तकदीर की सड़क पर ‘मिलेंगे-मिलेंगे‘

धीरेन्द्र अस्थाना

इस फिल्म को देख कर सबसे पहला ख्याल यह आता है कि तकदीर ने करीना और शाहिद कपूर के बीच अलगाव क्यों पैदा किया होगा? इन दोनों की आॅन स्क्रीन जोड़ी भली लगती है और आॅन स्क्रीन केमिस्ट्री में कशिश है। सहारा वन मोशन पिक्चर्स द्वारा प्रस्तुत बोनी कपूर की फिल्म ‘मिलेंगे-मिलेंगे‘ पहले बननी शुरू हुई थी लेकिन इसी जोड़ी की ‘जब वी मेट‘ इससे लगभग तीन साल पहले रिलीज हो गयी थी। ‘जब वी मेट‘ का जादू आज भी बरकार है। बोनी कपूर की फिल्म लंबे इंतजार के बाद अब जाकर रिलीज हुई है जब शाहिद-करीना के बीच जबर्दस्त अनबन और अबोला है। बोनी की फिल्म को एक पंक्ति में परिभाषित करना हो तो कह सकते हैं - रोचक, मनोरंजक, इमोशनल लव स्टोरी है जो तकदीर की सड़क पर अपनी यात्रा शुरू करती है और तकदीर में ही अपनी परिणति ढूंढती है। फिल्म किरण खेर की इस भविष्य वाणी से आरंभ होती है कि करीना कपूर को उसका लाइफ पार्टनर सात दिन बाद किसी विदेशी समुद्र के किनारे सात रंग के कपड़े पहने हुए मिलेगा। जबकि करीना दिल्ली में रहती है। यह लाइफ पार्टनर शाहिद कपूर है जो स्वयं भी दिल्ली में ही रहता है। यहां से शुरू होता है तकदीर का खेल। बैंकाक के समुद्र तट पर सुबह सात बजे सात तारीख को सात रंग के कपड़ों में करीना को शाहिद कपूर मिलता है। दोनों मिलते हैं लेकिन दो ही दिन में यह राज खुल जाता है कि जिसे करीना ‘डेस्टिनी‘ समझ रही है वह शाहिद की ‘प्लानिंग‘ है। करीना गुस्सा हो कर शाहिद को ठुकरा देती है। दोनों अपने अपने रास्ते चल पड़ते हैं। लेकिन तकदीर को यह अलगाव मंजूर नहीं है। तीन साल बाद इन दोनों को भाग्य फिर मिला देता है। कैसे, यही इस फिल्म की कथा भी है और उत्सुकता भी। सतीश कौशिक का निर्देशन कसा हुआ है। वह दर्शकों को बांध कर रखने में सफल हुए हैं। बीच-बीच में हास्य के जबर्दस्त क्षण आते रहते हैं जिनका दर्शक खुल कर मजा लेते हैं। यह करीना के जीरो साइज फिगर से पहले की फिल्म है जिसमें करीना ज्यादा आकर्षक लगी हैं। फिल्म का संगीत हिमेश रेशमिया ने दिया है जो बेहद दिलकश है। उनकी आवाज का एक गीत ‘कुछ तो बाकी है‘ दिल को स्पर्श करता है। एक सीधी सादी संवेदनशील प्रेम कहानी है जिसे प्रभावशाली संगीत और हल्के फुल्के हास्य से सजाया गया है।

निर्माता: बोनी कपूर
निर्देशक: सतीश कौशिक
कलाकार: शाहिद कपूर, करीना कपूर, आरती छाबरिया, सतीश शाह, सतीश कौशिक, किरण खेर
संगीत: हिमेश रेशमिया

Saturday, July 3, 2010

आई हेट लेव स्टोरीज

फिल्म समीक्षा

प्यारी सी ‘आई हेट लेव स्टोरीज‘

धीरेन्द्र अस्थाना

युवा दिलों के प्यार को केंद्र में रख कर फिल्में बहुत लंबे समय से बनती आ रही हैं। कुछ का नाम समय की शिला पर भी दर्ज है। करन जौहर की नयी फिल्म ‘आई हेट लव स्टोरीज‘ भी मूलतः दो युवा दिलों की प्रेम कहानी है जिसे थोड़ा अलग अंदाज में आधुनिक ढंग से कहने की कोशिश की गयी है। पुनीत मल्होत्रा द्वारा निर्देशित यह फिल्म हालांकि एक सामान्य सी ही फिल्म है लेकिन अपने कुल प्रभाव में यह प्यारी और दिलचस्प बन गयी है। इसमें पुनीत ने फिल्म के भीतर फिल्म बनाने की तकनीक को चुना है जो बीच बीच में ‘रिलीफ‘ देने का काम करती है। अपनी पिछली फिल्मों के मुकाबले इस फिल्म में सोनम कपूर ने अभिनय, अभिव्यक्ति और सुंदरता के स्तर पर लाजवाब काम किया है। आज के समय के केसानोवा टाइप के कनफ्यूज्ड युवा के चरित्र को इमरान खान ने भी बेहद विश्वसनीय और जीवंत ढंग से अदा किया है। अच्छी बात यह है कि दोनों युवाओं के अभिनय में गहरी संवेदनशीलता भी है। कह सकते हैं कि बाॅलीवुड की यह युवा जोड़ी ‘भविष्य की उम्मीद‘ है। कम से कम दो से तीन रील काट कर फिल्म को ज्यादा चुस्त दुरूस्त किया जा सकता था। कुल मिला कर फिल्म की कहानी यह है कि इंटरवल से पहले सोनम कपूर इमरान को प्यार करती है लेकिन इमरान सोनम के प्यार को ठुकरा देता है। इंटरवल के बाद इमरान सोनम को प्यार करने लगता है और इस बार सोनम इस प्यार को ठुकरा देती है। मजेदार बात यह है कि फिल्म का यह कथासार खुद फिल्मकार ने भी फिल्म के भीतर बताया है। हिंदी फिल्म है इसलिए अंत में सोनम-इमरान का प्यार जीत जाता है। फिल्म एक सुखांत मोड़ पर खत्म होती है। सोनम और इमरान जिस करन जौहर जैसे बड़े फिल्म मेकर के प्रोडक्शन हाउस में सहायक की नौकरी करते हैं उस करन जौहर का किरदार समीर सोनी ने निभाया है। अपने अभिनय की सहजता के कारण समीर सोनी फिल्म में छा गये हैं। समीर दत्तानी सोनम के पहले प्रेमी के रोल में हैं लेकिन उनके चेहरे से हर समय वीरानी बरसती दिखती है। फिल्म का सबसे मजबूत और प्रभावशाली पक्ष इसका गीत-संगीत है। अन्विता, विशाल और कुमार के मर्मस्पर्शी गीतों को विशाल-शेखर ने मधुर संगीत दिया है। फिल्म को देखा जा सकता है।

निर्माता: करन जौहर
निर्देशक: पुनीत मल्होत्रा
कलाकार: इमरान खान, सोनम कपूर, समीर सोनी, समीर दत्तानी, केतकी दवे।
संगीत: विशाल-शेखर

Monday, June 28, 2010

क्रांतिवीर

फिल्म समीक्षा

नेक इरादों की कमजोर क्रांतिवीर

धीरेन्द्र अस्थाना

नाना पाटेकर को लेकर ‘क्रांतिवीर‘ और ‘तिरंगा‘ जैसी यादगार तथा अर्थपूर्ण फिल्में बनाने वाले मेहुल कुमार ने अपनी बेटी जहान ब्लोच को लाॅंन्च करने के लिए ‘क्रांतिवीर‘ का सीक्वेल बनाया है। फिल्म का चुनाव अच्छा है और उनका इरादा भी नेक है। लेकिन केवल नेक इरादों भर से बेहतर फिल्में नहीं बन सकतीं। एक कमजोर तथा गए जमाने की पटकथा के चलते यह सीक्वेल प्रभावित करने में कामयाब नहीं हो पाया है। जहान ब्लोच इस फिल्म में नाना पाटेकर और डिंपल कपाड़िया की तेजतर्रार बेटी के रोल में है। समाज में फैली विसंगतियों और असमानताओं को लेकर वह जहां तहां भिड़ जाती है। अंततः वह फिल्म के हीरो समीर आफताब के साथ मिलकर टीवी मीडिया के जरिए सामाजिक क्रांति करने का उद्देश्य अपने सामने रखती है। इस उद्देश्य में उसका साथ देते हैं उसके दो और युवा दोस्त आदित्य सिंह राजपूत तथा हर्ष राजपूत। इन दोनों में से एक राज्य के भ्रष्ट मंत्री तथा दूसरा एक लालची बिल्डर का बेटा है। फिल्म के अंत में जहान ब्लोच अपने साथियों की मदद से इस उद्देश्य में उस समय सफल भी हो जाती है जब उसकी एक रिपोर्ट को देखकर आम जनता क्रोध में आ जाती है और भ्रष्ट नेताओं के खिलाफ क्रांति का बिगुल बजा देती है। अपने आप में यह एक पवित्र लेकिन मासूम विचार है। क्योंकि इस तरह से क्रांतियां नहीं होती हैं। फिर, इस विचार को अमलीजामा पहनाने के वास्ते जिन चार युवा कलाकारों को चुना गया है उन्हें अभी अभिनय का ककहरा सीखना है। जहान ब्लोच ने ‘राष्ट्रीय सहारा‘ को दिए एक इंटरव्यू में माना है कि इस फिल्म के लिए उसने अपना तीस किलो वजन कम किया। लेकिन यह काफी नहीं है। अभी उसे और पतला होना पड़ेगा। संवाद अदायगी तथा भावाभिव्यक्ति में भी असर लाना होगा। उसके साथी कलाकार समीर आफताब ने ठीक ठाक काम किया है लेकिन बाकी दो हर्ष तथा आदित्य तो कैमरे का सामना भी आत्म विश्वास के साथ नहीं कर पाए हैं अभिनय क्या करते! पूरी फिल्म गोविंद नामदेव और मुकेश तिवारी जैसे समर्थ कलाकारों के दम पर खींची गई है लेकिन दोनों के ही चरित्र नकारात्मक और बेहद ‘लाउड‘ हैं इसलिए प्रभावित नहीं कर पाते हैं। पटकथा, फिल्मांकन, संपादन तीनों पक्ष इस फिल्म की कमजोर कड़ियां हैं। पर खुशी की बात है कि इस फिल्म का गीत-संगीत बेहतर है। खास तौर से एक युवक के जन्म दिन पर फिल्माया हुआ गीत। केवल एक मिनट के बेहद छोटे से दृश्य में दर्शन जरीवाला एक अविस्मरणीय पल सौंप जाते हैं। फरीदा जलाल जहान ब्लोच की नानी के रोल में हैं और उन्होंने अपनी भूमिका सहज ढंग से निभायी है। जिस तरह के समय में हम रह रहे हैं और जैसी क्षणजीवी तथा भौतिकवादी युवा पीढ़ी हमारे इर्द गिर्द है उसे देखते हुए चार आदर्शवादी युवाओं को रोल माॅडल के रूप में पेश करके मेहुल कुमार ने जरूर एक सराहनीय काम किया है।

निर्देशक: मेहुल कुमार
कलाकार: जहान ब्लोच, समीर आफताब, हर्ष राजपूत, आदित्य राजपूत, फरीदा जलाल, गोविंद नामदेव, मुकेश तिवारी, दर्शन जरीवाला।
गीत: समीर
संगीत: सचिन-जिगर

Saturday, June 19, 2010

रावण

फिल्म समीक्षा

ऐसे भी तो संभव है ‘रावण‘

धीरेन्द्र अस्थाना

मणि रत्नम नामवर निर्देशक हैं। अभिषेक बच्चन और ऐश्वर्या राय को लेकर उन्होंने ‘गुरू‘ बनायी, जो बाॅलीवुड और अभिषेक बच्चन के करियर में मील के पत्थर की तरह दर्ज रहेगी। फिल्म बाॅक्स आॅफिस पर भी हिट हुई थी। अब मणि रत्नम ‘रावण‘ लेकर आये हैं। इसमें भी अभिषेक-ऐश्वर्या की जोड़ी है। मीडिया में इस फिल्म की आए दिन चर्चा होती रही है। कभी इसकी मेकिंग को लेकर, कभी इसमें फिल्माए जंगलों को लेकर कभी ऐश्वर्या तथा अभिषेक के हैरतअंगेज स्टंट दृश्यों को लेकर तो कभी शूटिंग के दौरान होने वाली मुसीबतों के चलते। इन सब पैमानों पर ‘रावण‘ खरी उतरती है। अभिषेक और ऐश्वर्या ने इस फिल्म में सचमुच अपने जीवन के अब तक के सबसे कठिन, खतरनाक लेकिन यादगार दृश्यों को अंजाम दिया है। फिल्म की मेकिंग, एडीटिंग, सिनेमेटोग्राफी, बैकग्राउंड म्यूजिक, निर्देशन, अभिनय, गीत सब कुछ आला दर्जे का और अनूठा है। लेकिन कहानी के स्तर पर फिल्म में एक जबर्दस्त चूक हो गयी है। न तो इस फिल्म का नाम ‘रावण‘ होना चाहिए था न ही इसके प्रमुख पात्रों को ‘रामायण‘ के पात्रों की छाया जैसा दिखाना चाहिए था। हर क्षेत्र के दिग्गज लोग इस फिल्म के साथ जुड़े हुए हैं। यह सलाह मणि रत्नम को किसी ने नहीं दी कि ‘रावण‘ जैसे बुराई के आपादमस्तक प्रतीक से भारत की जनता स्वयं को सकारात्मक स्तर पर कभी जोड़ना पसंद नहीं करेगी। रावण, रामायण और रामायण के पात्रों के आ जाने से फिल्म की भावनात्मक और संवेदनात्मक अपील पर प्रतिकूल असर पड़ा है। बौद्धिक स्तर पर भी इसकी कोई विशेष क्या, कतई जरूरत नहीं थी। सीधी सादी बीरा की कहानी है जो अपनी बहन पर हुए जुल्म का बदला लेने के लिए पुलिस अधिकारी की पत्नी का अपहरण करता है। दोनों में जंग होती है और अंततः प्रशासन जीत जाता है। विद्रोह कुचल दिया जाता है। कबीलाई नेता बीरा पुलिस अधिकारी की पत्नी रागिनी के प्रति आसक्त होता है। रागिनी भी उसकी अच्छाई, उसकी निष्ठा, उसके समर्पित प्रेम के कारण अंत में उसे लेकर कहीं भावनात्मक स्तर पर कमजोर पड़ती है। यह स्थिति एकदम स्वाभाविक भी है लेकिन एक यथार्थवादी कहानी के धरातल पर बने रह कर। लेकिन जैसे ही दर्शक को अहसास होता है कि यह नयी व्याख्या एक पौराणिक ग्रंथ के मशहूर चरित्रों के संदर्भ में हो गयी है, वह उससे अपना सामंजस्य नहीं बिठा पाता। इतनी प्रचारित, महंगी, बड़ी स्टार कास्ट वाली अद्भुत फिल्म इसीलिए दर्शकों के मोर्चे पर परास्त होती दिखती है। फिर भी एक जोखिम उठाने के लिए फिल्म की टीम से जुड़े सभी लोगों को सलाम। विशेष कर भोजपुरी स्टार रवि किशन को।

निर्देशक: मणि रत्नम
कलाकार: अभिषेक बच्चन, ऐश्वर्या राय बच्चन, विक्रम, गोविंदा, निखिल द्विवेदी, रवि किशन, प्रिया मणि
गीत: गुलजार
संगीत: ए.आर.रहमान
सिनेमेटोग्राफी: संतोष सिवन

Saturday, June 5, 2010

राजनीति

फिल्म समीक्षा

विराट और भव्य ‘राजनीति‘

धीरेन्द्र अस्थाना

प्रकाश झा की नयी फिल्म ‘राजनीति‘ सब लोगों को देखनी चाहिए। उन्हें भी जो कहते हैं कि हमें राजनीति से कोई लेना देना नहीं। हम जो गेहूं का दाना घर में लाते हैं, वह भी राजनीति से अछूता नहीं है फिर कोई मनुष्य राजनीति से अलग कैसे रह सकता है। फिल्म ‘राजनीति‘ भी हमें यही संदेश देती है कि हम चाहें या न चाहें लेकिन राजनीति हमें पग-पग पर न सिर्फ संचालित करती है बल्कि भ्रष्ट भी करती है। राजनीति ने मनुष्य के कोमलतम रिश्तों में भी सेंध लगा दी है और मानवीयता तथा संवेदनशीलता जैसे पवित्र तथा अनिवार्य रूप से बेहतरीन गुणों को एक बड़े बाजार में धंधे पर बिठा दिया है। एक विराट और भव्य फिल्म बनाई है प्रकाश झा ने। यह उनके अब तक के जीवन का सबसे कामयाब, शानदार, जानदार काम है। अब तक की सबसे दिव्य, बौद्धिक उपलब्धि। यह फिल्म देख कर पता चलता है कि रणबीर कपूर, कैटरीना कैफ, मनोज बाजपेयी और अर्जुन रामपाल के भीतर जो प्रतिभा मौजूद है उसे अभी और और खोजा जाना बाकी है। अजय देवगन ने तो लीक से हट कर किए जीवंत अभिनय से अपने सामने ही चुनौती पेश कर दी है। नाना पाटेकटर और नसीरुद्दीन शाह मंजे हुए अभिनेता हैं। उनके होने ने फिल्म को गरिमा दी है। नाना पाटेकर का चरित्र पूरी फिल्म को अनवरत गति देने का काम भी करता है। इस बात को बहुत ज्यादा प्रचारित किया गया है कि ‘राजनीति‘ की प्रेरणा ‘महाभारत‘ से ली गयी है लेकिन ऐसा कुछ बहुत ठोस नहीं है। प्रकाश झा की फिल्म में महाभारत के कुछ चरित्रों की छायाएं जरूर दिखती हैं लेकिन उनका समय और संदर्भ वर्तमान यथार्थ से जुड़ा हुआ है। फिल्म के अंत में जब कैटरीना कैफ के व्यक्तित्व का राजनीतिकरण होता है तब हम उनके भीतर जरूर एक वर्तमान राजनैतिक व्यक्तित्व की छवियां तलाश सकते हैं लेकिन यह सब एक ‘सिनेमाई पाठ‘ की वजह से हुआ है। मनोज बाजपेयी ने करिश्माई काम किया है। कह सकते हैं कि ‘राजनीति‘ ने उन्हें नया जीवन दिया है। सत्ता की बनैली और दुर्दांत राजनीति में रिश्ते-नाते कैसे धू-धू कर के जल जाते हैं, इसका एक ठोस, अर्थपूर्ण और यथार्थवादी विमर्श पेश किया है प्रकाश झा ने। काॅमेडी के बाजार में एक सार्थक हस्तक्षेप। गीत-संगीत और संवाद भी रचनात्मक हैं।

निर्देशक: प्रकाश झा
कलाकार: नाना पाटेकर, नसीरुद्दीन शाह, अजय देवगन, रणबीर कपूर, कैटरीना कैफ, मनोज बाजपेयी, अर्जुन रामपाल आदि।
संगीत: प्रीतम चक्रवर्ती, आदेश श्रीवास्तव, शांतनु मोईत्रा।

Saturday, May 22, 2010

काइट्स

फिल्म समीक्षा

जटिल प्रेम की ‘काइट्स‘

धीरेन्द्र अस्थाना

बहुत लंबे समय से इंतजार हो रहा था ‘काइट्स‘ के उड़ने और आसमान पर छा जाने का। पहले दिन इस फिल्म को देखने के लिए दर्शकों की भीड़ भी उमड़ पड़ी। लेकिन हाॅल से निकलते समय दर्शकों के चेहरे कुछ-कुछ मायूस थे। किसी ने शायद सोचा भी नहीं था कि ऋतिक रोशन-बारबरा मूरी की एक जटिल सी, दुखांत प्रेम कहानी से सामना होने वाला है। बहुत महंगी फिल्म है ‘काइट्स‘ और फिल्म के आरंभ में ऋतिक रोशन तथा कंगना रानावत का जो डांस है, उसमें ऋतिक ने करिश्मा और जादू सब कर दिया है। कंगना ने भी उसमें अपनी जान लगा दी है। लेकिन इतनी भव्य और खर्चीली फिल्म की कहानी बस इतनी सी है कि कंगना रानावत ऋतिक रोशन से प्यार प्यार करती है जबकि ऋतिक को बारबरा मूरी से प्यार है। बारबरा कंगना के भाई निक ब्राउन की मंगेतर है। निक और कंगना लाॅस वेगास के सबसे बड़े कैसीनो मालिक कबीर बेदी की संताने हैं। निक और कबीर गुंडों की लंबी चैड़ी फौज के साथ लगभग माफिया सरदारों जैसा जीवन जीते हैं। फिल्म के अंत में ऋतिक रोशन और बारबरा मूरी अलग-अलग ढंग से आत्महत्या कर लेते हैं। ऋतिक और बारबरा को एक दूसरे की भाषा समझ नहीं आती। दोनों कबीर बेदी की संतानों से केवल धन के लिए जुड़े थे। फिर पता नहीं क्यों वैभव तथा ताकत का दामन छोड़ कर दोनों एक दूसरे से मोहब्बत करने लगे और माफिया राज से टकरा बैठे। दोनों का प्रेम बेहद जटिल और अबूझ है। फिल्म में कंगना का ‘स्पेस‘ कम है तो भी उसने जानदार अभिनय किया है। भारी प्रचार के बावजूद बारबरा मूरी न तो अभिनय से और न ही सेक्स अपील से प्रभावित कर पायीं। पूरी फिल्म केवल और केवल ऋतिक रोशन के भरोसे खड़ी की गयी है और फिल्म देखी भी ऋतिक के कारण ही जाएगी। ऋतिक का डांस, भागने-लड़ने के दृश्य, बाॅडी लैंग्वेज, आंखों की भाषा सब कुछ बेहद अद्वितीय और विस्मयकारी है। उनके अपोजिट हिंदी और अंग्रेजी न जानने वाली मैक्सिकन हीरोईन रखने की आवश्यकता नहीं थी। अपने भारत की टाॅप टेन अभिनेत्रियों में से कोई भी होती तो फिल्म का मुकद्दर ही बदल जाता। प्यार भले ही भाषा की दीवार को नहीं मानता लेकिन फिल्म को अच्छी तरह समझने के लिए भाषा ही प्राथमिक है। फिल्म बनाने में निर्माता राकेश रोशन ने दिल खोल कर पैसा खर्च किया है। उनकी निर्देशकीय क्षमता को देखते हुए यह विचार आना स्वाभाविक है कि अगर इस फिल्म का निर्देशन उन्होंने किया होता तो शायद नतीजे ज्यादा बेहतर होते। फिर भी, एक बार तो फिल्म देखनी ही चाहिए - लोकेशंस, तकनीक और ऋतिक के लिए।

निर्माता: राकेश रोशन
निर्देशक: अनुराग बसु
कलाकार: ऋतिक रोशन, बारबरा मूरी, कंगना रानावत, कबीर बेदी, निक ब्राउन, यूरी सूरी
संगीत: राजेश रोशन

Saturday, May 15, 2010

बम बम बोले

फिल्म समीक्षा

गरीबी का ग्लोबल आख्यान ‘बम बम बोले‘

धीरेन्द्र अस्थाना

जब भारत के महान फिल्मकार सत्यजित रे विश्व के स्तर पर सराहे जाते थे तो बाॅलीवुड का एक वर्ग चिल्लाता था, ‘रे साहब भारत की गरीबी बेच रहे हैं।‘ लेकिन ये अपने प्रियदर्शन बाबू तो शुद्ध रूप से ‘मेनस्ट्रीम सिनेमा‘ के सरताजों में से हैं। ये तो मनोरंजक, कमर्शियल और मुख्य धारा का सिनेमा बनाते हैं। तो इनकी बनायी ‘बम बम बोले‘ को क्या कहें? एक तथाकथित अमीर देश के सचमुच के गरीब हिस्से का मार्मिक बाइस्कोप है यह। कह सकते हैं कि गरीबी का ग्लोबल आख्यान है क्योंकि ‘टैरर‘, ‘आतंकवादी‘ आदि शब्दों-गतिविधियों के जुड़ते ही मामला लोकल से सीधे अंतरराष्ट्रीय हो जाता है।
दिल-दिमाग को (झकझोर देने वाली नहीं), अवसादग्रस्त कर देने वाली इस फिल्म को क्या परिभाषा दें? बच्चों के संदर्भ में फिल्में दो तरह की होती हैं। पहली तरह की फिल्में होती हैं ‘बच्चों के लिए‘ जैसे ‘हनुमान रिटन्र्स‘, ‘मकड़ी‘, ‘जजंतरम ममंतरम‘, ‘ब्लू अंब्रैला‘ और ‘घटोत्कच‘ आदि। दूसरी तरह की फिल्में होती हैं ‘बच्चों के बारे में‘ जैसे ‘तारे जमीन पर‘ जो दर्शील सफारी के बाल मन और समस्याओं पर बनी बेजोड़ फिल्म है। लेकिन दर्शील सफारी के ही बेहतर अभिनय से सजी ‘बम बम बोले‘ न तो बच्चों के लिए है, न ही बच्चों के बारे में है। ईरानी निर्देशक माजिद मजीदी की चर्चित फिल्म से प्रेरित ‘बम बम बोले‘ एक गंभीर फिल्म है जो एक गरीब मेहनतकश अतुल कुलकर्णी तथा उसकी कर्मठ व संतोषी पत्नी ऋतुपर्णा सेन गुप्ता की फटेहाली और वंचित-अपमानित जीवन का मर्मस्पर्शी विमर्श पेश करती है। इस बदहाल जीवन में दर्शील सफारी और जिया वस्तनी के मासूम बचपन को उपस्थित कर के प्रियदर्शन ने एक खतरनाक सवाल पूछा है -‘खुशहाली, उन्नति, बदमाशी, बेईमानी, चोरी-डकैती, अन्याय, पांच सितारा जीवन संस्कृति, माफिया राज आदि-आदि के मौजूदा समय में ‘मेहनत, ईमानदारी, सच्चाई और मासूमियत‘ का ‘स्पेस‘ कितना है और कहां है?‘ स्कूल जाने के लिए, दो भाई बहनों का एक ही फटा-पुराना जूता अदल बदल कर पहनना और फिर जूतों को लेकर फंतासी दृश्य ही रच देना प्रियदर्शन की कल्पनाशीलता का अदभुत उदाहरण है। फिल्म में दर्शक नहीं थे। जाहिर है कि आज के अतार्किक, नाच गानों और सेक्स से भरपूर ‘काॅमिक सिनेमाई समय‘ में असुविधाजनक सवालों से कौन टकराना चाहेगा?

निर्देशक: प्रियदर्शन
कलाकार: दर्शील सफारी, जिया वस्तनी (होनहार बिरवान के होत चीकने पात / बधाई हो, बहुत आगे जाना है), अतुल कुलकर्णी, ऋतुपर्णा सेन गुप्ता
संगीत: अजान सामी, तापस रेलिया, एम जी श्रीकुमार

Saturday, May 8, 2010

बदमाश कंपनी

फिल्म समीक्षा

देखी जा सकती है ‘बदमाश कंपनी‘

धीरेन्द्र अस्थाना

कहानी, संवाद, पटकथा, निर्देशन सब कुछ एक अच्छे एक्टर परमीत सेठी का है। निर्माता हैं यशराज बैनर यानी यश चोपड़ा-आदित्य चोपड़ा। फिल्म है ‘बदमाश कंपनी‘ जिसे सन् 1994 के समय में फिल्माया गया है। चार दोस्तों के संघर्ष, स्वप्न, महत्वाकांक्षा, अमीर बनने की धुन में हेरा-फेरी, झूठ-फरेब, कस्टम की चोरी, जुआ, शराबखोरी, औरतबाजी, ऐयाशी, मस्ती आदि आदि को ‘लार्जर दैन लाइफ‘ के फार्मूले में रख कर एक रोचक फिल्म बनाने की कोशिश की गयी है। ‘टाइमपास‘ के लिए फिल्म को एक बार देखा जा सकता है। हमारे ज्ञान और संवेदना में कुछ जोड़ती नहीं है तो बहुत अधिक निराश भी नहीं करती ‘बदमाश कंपनी‘। शीर्षक से भ्रम होता है कि फिल्म ‘अंडरवल्र्ड‘ पर आधारित होगी पर ऐसा नहीं है। काॅलेज का इम्तहान पास करके निकले तीन मध्यवर्गीय लड़कों का गैंग ही बदमाश कंपनी है जिसमें अनुष्का शर्मा भी आ मिलती है।
सुबह से रात तक एक ही दफ्तर में, एक ही सीट पर लगातार काम करने वाले अनुपम खेर का बेटा है शाहिद कपूर जो घिस-घिस करके जीवन घिसने में यकीन नहीं करता। वह कोई अनूठा सा व्यापार करके रातों रात अमीर बनना चाहता है। वह जीवन की पहली कमाई डाॅलर छुपा कर बैंकाक ले जाने और वहां खरीददारी करके, कस्टम ड्यूटी बचा कर भारत ले आने से करता है। इस पहले काम में चारों का गैंग बनता है। एक बैग की खरीदारी पर भारत का लोकल स्मगलर उन्हें दस हजार रुपये देता है। शाहिद को व्यापारिक हेराफेरी के नये-नये विचार आते रहते हैं और इन्हें आजमा कर यही कंपनी अमीर भी होने लगती है। शाहिद की अपने नैतिकतावादी पिता से नहीं पटती और वह घर छोड़ देता है। और बड़ा बनने के लिए यह कंपनी अमेरिका जा बसती है लेकिन अनैतिक मूल्यों और व्यावसायिक धोखा धड़ी को तो महिमामंडित किया नहीं जा सकता। इसलिए शाहिद कपूर का पतन शुरू होता है। तीनों दोस्त एक एक करके उसका साथ छोड़ देते हैं। बैंक के साथ धोखाधड़ी के केस में शाहिद को पुलिस पकड़ती है। तब जाकर उसकी आंख खुलती है और नाटकीय ढंग से सब कुछ सामान्य होता जाता है। ‘रब ने बना दी जोड़ी‘ की सीधी सादी अनुष्का शर्मा ने बिंदास और बोल्ड अभिनय अभिनय किया है। शाहिद कपूर किरदार के मुताबिक अभिनय करने में पारंगत होते जा रहे हैं। फिल्म के गीत कहानी को गति देते हैं और संगीत अच्छा है।

निर्माता: यशराज फिल्म्स
निर्देशक: परमीत सेठी
कलाकार: शाहिद कपूर, अनुष्का शर्मा, म्यांग चेंग, वीर दास, अनुपम खेर
संगीत: प्रीतम चक्रवर्ती

Monday, May 3, 2010

हाउसफुल

फिल्म समीक्षा

हाउसफुल कॉमेडी से फुल

धीरेन्द्र अस्थाना

निर्देशक साजिद खान ने कुछ दिन पहले कहा था - ‘मैं इस बात को नहीं मानता कि सिनेमा समाज को बदल सकता है। हां मैं यह जरूर मानता हूं कि सिनेमा समाज को खुश रखने का काम कर सकता है।‘ सार्थक, या अर्थपूर्ण या संदेशपरक सिनेमा के समर्थक इस वक्तव्य से असहमत हो सकते हैं लेकिन हकीकत यही है कि बहुत लंबे समय के बाद सिनेमाघरों में भीड़ उमड़ी थी। लंबी कतारों में लग कर लोग हंसी-खुशी अपना पर्स ढीला कर रहे थे। इस भीड़ में बड़ा प्रतिशत ‘युवाओं‘ का था जो फिल्म देखने के दौरान लगातार खिलखिला रहा था, तालियां बजा रहा था और सीट पर उछला पड़ रहा था। एकदम किसी मेले-ठेले का खुशनुमा माहौल था सिनेमा हॉल के भीतर। दर्शक पर्दे पर टकटकी लगाये अक्षय कुमार, लारा दत्ता, रीतेश देशमुख, दीपिका पादुकोन, बोमन ईरानी, रणधीर कपूर, जिया खान, चंकी पांडे और अर्जुन रामपाल का शानदार-जानदार जलवा देख रहे थे। मौज-मजा-रोमांस, हंसी, इमोशन, नाच-गाना अर्थात सौ प्रतिशत मनोरंजन से लबरेज फिल्म है ‘हाउसफुल।‘ सबका पैसा वसूल। दर्शक का, निर्माता का, निर्देशक का और कलाकारों का भी। ‘माइंडलेस काॅमेडी‘ का अदभुत उदाहरण। कहानी का आइडिया भी अनूठा है। महाराष्ट्र में अनलकी व्यक्ति या बैड लक के लिए एक शब्द प्रचलित है ‘पनौती।‘ तो अक्षय कुमार का रोल एक ‘पनौती‘ जैसा है। वह जहां जाता है चीजें बिगड़ जाती हैं। उसके आगे आगे चलता है उसका दुर्भाग्य। इसी केंद्रीय विचार के चारों तरफ विभिन्न हास्य प्रसंग, उप कथाएं और ‘काॅमिक सिचुएशन्स‘ गूंथ कर हंसी-ठट्ठे का गुलदस्ता तैयार किया गया है। और जैसा कि हिंदी के कमर्शियल सिनेमा में होता है तमाम तरह की बाधाएं आसानी से पार करते हुए नायक-नायिका मिल जाते हैं और फिल्म का ‘हैप्पी एंड‘ हो जाता है। अगर आप सिनेमा से कोई उम्मीद नहीं रखते और उसे हंसने-हंसाने का तमाशा भर मानते हैं तो यह फिल्म तुरंत देख लीजिए। इटली और लंदन के सुंदर दृश्यों तथा बेहद कम कपड़ों में युवतियों के मादक नृत्य फिल्म की अतिरिक्त विशेषता हैं। शंकर-अहसान-लॉय का संगीत कानों को अच्छा लगता है। फिल्म की बॉक्स ऑफिस सफलता तय है। लगता है आम दर्शकों की अदालत में कॉमेडी ही सरताज है।

निर्माता: साजिद नाडियाडवाला
निर्देशक: साजिद खान
कलाकार: अक्षय कुमार, दीपिका पादुकोन, रितेश देशमुख, लारा दत्ता, बोमन ईरानी, रणधीर कपूर, जिया खान, अर्जुन रामपाल
संगीत: शंकर-एहसान-लॉय

Saturday, April 24, 2010

अपार्टमेंट

फिल्म समीक्षा

इस ‘अपार्टमेंट‘ में क्यों रहना?

धीरेन्द्र अस्थाना

निर्देशक जगमोहन मूंदड़ा की फिल्म थी इसलिए बड़े चाव से देखने पहुंचे थे। लेकिन ‘अपार्टमेंट‘ तो पूरी तरह खाली निकला। कोई इस ‘अपार्टमेंट‘ में क्यों रहना चाहेगा? एक अदद सशक्त कहानी तक नहीं बुनी जा सकी। एक नीतू चंद्रा को छोड़ कर कोई नया आर्टिस्ट कायदे से अभिनय भी नहीं कर सका। एक अदद आइटम सांग बेवजह ठूंसा गया। असल में तो पूरी फिल्म में गानों की जरूरत ही नहीं थी। हीरो रोहित राॅय और हीरोईन तनुश्री दत्ता की जोड़ी जरा भी रोमांटिक नहीं लगती। अनुपम खेर मंजे हुए अभिनेता हैं। अपनी उपस्थिति से दिलासा देते रहे।
मुंबई के एक महंगे अपार्टमेंट में अकेले रहना ‘एफोर्ड‘ नहीं कर सकती तनुश्री इसलिए अपने ब्वायफ्रेंड रोहित राॅय को अपना रूम मेट बना कर उससे भाड़ा लेती है। शक्की स्वभाव की तनुश्री जरा सी बात पर रोहित को निकाल देती है। अब महंगी ईएमआई कहां से आये? एक कमरा भाड़े पर देने का विज्ञापन देती है। दर्जनों लड़कियां घर देखने आती हैं जिनमें से नीतू चंद्रा अपनी सादगी और संवेदनशीलता के कारण तनुश्री को पसंद आ जाती है और इस प्रकार दोनों साथ रहने लगते हैं। नीतू चंद्रा क्रमशः तनुश्री की निजी जिंदगी पर हक जमाने लगती है जिससे तनुश्री ‘अपसेट‘ हो जाती है। इस बीच अनुपम खेर के समझाने पर तनुश्री की रोहित से सुलह हो जाती है। यह सुलह अनुपम खेर ने करवायी है इसलिए नीतू पहले अनुपम की लाडली बिल्ली को और फिर अनुपम खेर को भी मार देती है। मरने से पहले अनुपम ईगतपुरी जाकर नीतू का अतीत जान आए थे कि वह एक मनोरोगी है तथा एक हत्या के जुर्म में सजा भी काट आयी है। नीतू यह बात जान चुकी है इसलिए पहले वह अनुपम खेर को मारती है फिर तनुश्री को बंधक बना लेती है। इसी क्रम में वह घर आये पुलिस इंस्पेक्टर का मर्डर करती है फिर रोहित को घायल करती है फिर बिल्डिंग के टैरेस पर तनुश्री को साथ लेकर पहुंच जाती है। अंततः तनुश्री का हाथ छोड़ वह नीचे गिर कर मर जाती है। मानसिक विचलन का शिकार एक असुरक्षित, अनाथ लड़की के नीम-पागल रोल में नीतू चंद्रा का अभिनय इस फिल्म की इकलौती उपलब्धि है।

निर्देशक: जगमोहन मूंदड़ा
कलाकार: रोहित राॅय, तनुश्री दत्ता, नीतू चंद्रा, अनुपम खेर, मुश्ताक खान
संगीत: बप्पी लाहिरी

Monday, April 19, 2010

दूसरा विवाह

कम दगाबाज नहीं साहित्यकार भी

धीरेन्द्र अस्थाना

‘यह क्या/मैंने घर बसाया/और बेघर हो गया/घर में क्यों नहीं रह पाता प्रेम?‘ इन पंक्तियों के भीतर घर बसाने, घर बिखर जाने और फिर से घर बसाने की मुख्य चाहत छिपी है। जिंदगी बिताने के लिए एक मनपसंद जीवन साथी खोजना एक बुनियादी तथा नैसर्गिक इच्छा है जो अनेक कारणों से टूटती-बिखरती भी आयी है। बेमेल विवाह, नकली दंभ, इच्छाओं का टकराव, विपरीत रुचियां और अपने सपनों में जीवन साथी को कतई अजनबी अनुभव करना बिखराव के प्रमुख कारण हैं। यह कितनी बड़ी विसंगति है इस रिश्ते की, कि दूसरे विवाह के मुद्दे पर, शान से दूसरा विवाह करने वाले अनेक नये-पुराने साहित्यकार प्रतिक्रिया देने से न सिर्फ किनारा कर गये बल्कि उन्होंने आग्रह किया कि इस संदर्भ में उनका नामोल्लेख भी न किया जाए। दिवंगत लेखकों में अज्ञेय, धर्मवीर भारती, मोहन राकेश, राहुल सांकृत्यायन, रमेश बक्षी आदि के दूसरे विवाह चर्चित रहे हैं। बहरहाल, अपनी कहानियों से हिंदी में हलचल मचाये रखने वाले साहित्यकार उदय प्रकाश का इस बारे में कहना है -‘समाज के अपारंपरिक क्षेत्र, जिनमें खेल, साहित्य, कला नृत्य, थियेटर और सिनेमा आते हैं, इनमें समाज की पारंपरिक सत्ताओं का उतना नियंत्रण नहीं रहता जितना एक आम नागरिक समाज में रहता है। मीडिया और बाजार के इस नये समय में इन अपारंपरिक इलाकों में रहने वाले लोग सेलिब्रिटी हो जाते हैं। उनकी पहचान उनकी सामाजिक सांस्कृतिक अस्मिता के द्वारा नहीं बल्कि उनकी अपनी सफलता/असफलता पर निर्भर करती है। इन लोगों की दूसरी या तीसरी या चैथी शादी की जरूरत को उन तर्कों से नहीं समझा जा सकता जिन तर्कों से हम एक आम पारिवारिक व्यक्ति के विवाह को समझते हैं। व्यक्ति की स्वतंत्रता और उसके किसी चुनाव की निजता/एकांतिकता पर चैतरफा हमला व्यर्थ है/अर्थहीन है। वैसे, एक ताजा अमेरिकी अध्ययन के मुताबिक तलाक विचलन या दगाबाजी नहीं, अपने साथी के प्रति ईमानदारी का प्रतीक है। यानी जब तक साथ हैं, वफादार हैं। जब वफादार नहीं हैं तो अलग होते हैं।‘
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति, पूर्व पुलिस अधिकारी और उपन्यासकार विभूति नारायण राय ने दो टूक शब्दों में कहा -‘पुरुष बुनियादी रूप से दगाबाज स्वभाव का होता है। वह दूसरी शादी के लिए न सिर्फ तर्क तलाश लेता है बल्कि दूसरी शादी कर भी लेता है। आम तौर पर स्त्री दूसरा विवाह नहीं कर पाती।‘
संपादिका, लेखिका और स्त्री विमर्श की प्रमुख हस्ताक्षर क्षमा शर्मा भी यही मानती हैं कि ‘आम तौर पर, पहला विवाह टूटने पर, स्त्री दूसरा विवाह नहीं कर पाती। एक बड़ी वजह उसके पास छूट गये बच्चे होते हैं। दूसरी वजह, पहले विवाह की असफलता का बोध उसे दूसरे विवाह की (भी) व्यर्थता का पूर्वाभास करा देता है। मजेदार स्थिति यह है कि पहले विवाह में लोग बेहद छोटे कारणों से अलग हो जाते हैं जबकि दूसरी शादी में बेहद बड़े कारणों से भी समझौता कर लेते हैं। यह रवैया पहली शादी में अपनाएं तो शादी टूटे ही न। तलाक के बाद सामान्य जीवन की तरफ लौटने में डेढ़-दो साल लग जाता है। कभी-कभी पुराना सामान्य जीवन लौटता ही नहीं है। इसलिए पहली प्राथमिकता विवाह को बचाये रखने की होनी चाहिए। क्योंकि यह बिल्कुल जरूरी नहीं है कि दूसरा विवाह सफल ही होगा।‘
आठवें दशक की संवेदनशील लेखिका राजी सेठ का कहना है -‘वास्तविक अर्थों में देखें तो तमाम शादियां एक अरसे के बाद सिर्फ शादियां रह जाती हैं। यह बोध होना चाहिए कि शादी को प्रेम नहीं समझदारी जिंदा रखती है। समझ होती है तो प्रेम भी टिक जाता है वरना वह भी टूट जाता है। समझदारी पौधों को पानी देने की तरह होती है। लचीलापन हर चीज को जिंदा रखता है - प्रेम को भी, विवाह को भी, दोस्ती को भी।‘
‘हंस‘ के संपादक और वरिष्ठ लेखक राजेंद्र यादव ने कहा -‘पहले मां-बाप शादी कर देते थे। पढ़-लिख कर पता चलता था कि पत्नी मनमाफिक नहीं है। तब आदमी दूसरे विवाह की तरफ लपकता था। कभी कभी पहली पत्नी की मृत्यु के बाद जीवन का अकेलापन भरने के लिए भी दूसरा विवाह किया जाता है। लेकिन पहला हो या दूसरा, कोई भी विवाह सुख या संतुष्टि की गारंटी नहीं है।‘
दूसरे विवाह की सबसे बड़ी त्रासदी आम तौर पर यह पायी गयी कि वर्तमान में जो अतीत घुस कर बैठा रहता है, वह दूसरी शादी की यात्रा को निर्विघ्न नहीं चलने देता।

Saturday, April 17, 2010

पाठशाला

फिल्म समीक्षा

पाठशाला के पाखंड का पाठ

धीरेन्द्र अस्थाना

बच्चे देखें या न देखें मगर बच्चों के मां-बाप फिल्म ‘पाठशाला‘ जरूर देखे लें। उन्हें पता चलेगा कि शिक्षा के नाम पर कायम मुनाफाखोर प्राइवेट दुकानें उनके बच्चों के जीवन के साथ कैसा बर्बर खिलवाड़ कर रही हैं। मुंबइया हिंदी में कहें तो अंत में जाकर फिल्म थोड़ी ‘पकाऊ‘ (उपदेशात्मक) जरूर हो गयी है लेकिन फिल्म की मंशा बेहद सकारात्मक और सार्थक है। फिल्म के निर्देशक मिलिंद उके ने शिक्षा के बाजारवाद और पाखंड का बेहद उम्दा पाठ तैयार किया है। ‘एक्सट्रा केरिकुलर एक्टिविटीज‘ के नाम पर स्कूल प्रबंधन बच्चों के कोमल मनोलोक को कितना असहाय और जिस्म को किस कदर पस्त किए दे रहा है, इसका बेहद प्रभावशाली रेखांकन करने में निर्देशक को सफलता मिली है।
फिल्म ‘जब वी मेट‘ के बाद शाहिद कपूर ने अपने सहज लेकिन लाजवाब अभिनय की छटाएं बिखेरी हैं तो नाना पाटेकर का गुरू गंभीर व्यक्तित्व भी आकर्षित करता है। अंजन श्रीवास्तव ने संभवतः इस फिल्म में अपने जीवन का सबसे बेजोड़ अभिनय किया है। उनके द्वारा निभाये अनेक मार्मिक दृश्यों से मन भीग भीग उठता है। यूं तो पूरी फिल्म ही अपने गंभीर सरोकारों और हृदयस्पर्शी प्रसंगों के चलते याद की जाएगी लेकिन हाॅस्टल में भूखे-प्यासे, लस्त-पस्त सोये बच्चों वाला दृश्य मन में चिंता पैदा कर देता है कि इस उत्तर आधुनिक समय के बच्चे कितने गहरे दबावों के बीच पढ़ाई कर रहे हैं।
मोटे तौर पर ‘पाठशाला‘ को ‘थ्री ईडियट्स‘ और ‘तारे जमीन पर‘ के जोनर की फिल्म कह सकते हैं लेकिन ‘पाठशाला‘ का कथानक थोड़ा अलग है। यह पिछली दो फिल्मों की तरह शिक्षा के तंत्र या ढांचे पर प्रहार नहीं करती। यह शिक्षण संस्थाओं में फल-फूल रहे बाजारवाद पर चोट करती है। आम तौर पर हिंदी फिल्मों में हीरोईन ‘शो पीस‘ के तौर पर रहती है लेकिन ‘पाठशाला‘ में आयशा टकिया से निर्देशक ने बेहतर काम लिया है। वैसे इस फिल्म की एक खूबी यह भी है कि इसके सभी कलाकारों को उचित ‘स्पेस‘ मिला है। फिल्म का मुख्य गीत सुनने में तो अच्छा लगता ही है वह फिल्म को गति देने तथा उसके कुछ प्रसंगों को परिभाषित करने का काम भी करता है। फिल्म के अंत में मीडिया के हस्तक्षेप तथा नाना पाटेकर के भाषण वाला दृश्य थोड़ा लड़खड़ा गया है लेकिन कुल मिला कर फिल्म देखी जाने लायक है।

निर्देशक: मिलिंद उके
कलाकार: शाहिद कपूर, नाना पाटेकर, आयशा टकिया, सौरभ शुक्ला, अंजन श्रीवास्तव
संगीत: हनीफ शेख

Saturday, April 10, 2010

जाने कहां से आयी है

फिल्म समीक्षा

प्यार खोजने जाने कहां से आयी है

धीरेन्द्र अस्थाना

कुछ अलग हट कर बनीं बॉलीवुड की प्रेम कहानियों में ‘जाने कहां से आयी है‘ ने भी अपना नाम दर्ज कराने में कामयाबी पायी है। कहने को इसे रोमांटिक कॉमेडी कहा गया है लेकिन मूलतः यह एक ‘सीरियस लव स्टोरी‘ ही है। काॅमेडी का जामा पहना देने से प्यार मजाक नहीं हो जाता। और यही इस फिल्म की खूबसूरती तथा नया अंदाज है कि काॅमिक ताने-बाने में रखने के बावजूद मिलाप जवेरी (निर्देशक) प्रेम की तड़प, उसकी गहरी संवेदनशीलता और शाश्वत पवित्रता को कायम रखने में सफल हुए हैं। प्रेम की जो निश्छलता वह दिखाना चाहते थे वह बाकायदा न सिर्फ दिखती है बल्कि दिल में महसूस भी होती है। इस फिल्म ने रितेश देशमुख को यह जताने का नायाब मौका भी दिया है कि वह सिर्फ एक हंसने-हंसाने वाले काॅमिक एक्टर भर नहीं हैं। वह प्यार में डूबे एक संवेदनशील युवक का किरदार भी बेहद प्रभावी तरीके से निभा सकते हैं। इस फिल्म में उनके अभिनय के आयाम को विस्तार मिला है। उनके दोस्त के किरदार में विशाल मल्होत्रा ने भी अच्छा काम किया है। फिल्म के मेन रोल, एक सुपरस्टार के किरदार को रूसलेन मुमताज ने सहजता से निभाया है जबकि इसके भीतर ओवर एक्टिंग के खतरे मौजूद थे। फिल्म की मुख्य हीरोईन जैक्लीन फर्नांडिज भी बेहतर अभिनय कर लेती हैं। कई स्थलों पर उन्होंने दर्शकों के मर्म को छूने में सफलता पायी है। कुल मिला कर एक रोचक प्रेम कहानी है जिसे ‘टाइम पास‘ के लिए देखा जा सकता है। निर्देशक फराह खान को छोड़ कर बाकी किसी बड़े स्टार की दरकार नहीं थी। कोई भी स्टार फिल्म का हिस्सा नहीं लगता लेकिन फराह खान कहानी में फिट बैठती हैं।
रितेश देशमुख प्यार की खोज में भटकता युवा है। फिल्मों में थर्ड निर्देशक है। जैक्लीन वीनस से आयी है। प्यार की तलाश में भी और प्यार का अर्थ जानने भी। उसके ग्रह में बच्चे भी कंप्यूटर से पैदा होते हैं। उसके ग्रह के लोग प्यार, सेक्स, किस, फीलिंग्स के बारे में नहीं जानते। वह चाहती है कि रितेश उसे सुपर स्टार रूसलेन मुमताज से मिलवाये ताकि वह उसके मार्फत इन सब बातों के बारे में जानकर वापस अपने ग्रह लौट जाए। लेकिन होता उलटा है। प्यार की रोचक, काॅमिक यात्रा पर रितेश के साथ चलते चलते जैक्लीन को रितेश देशमुख से ही प्यार हो जाता है। रितेश को तो मन मांगी मुराद मिल जाती है। वह तो प्यार पाने के लिए भटक ही रहा था। हिंदी फिल्म है। अंत सुखद होना मजबूरी है। जैक्लीन अपने ग्रह वापस जाने के बजाय धरती पर रह जाती है और रितेश का घर बसाती है। वीनस पर जाता है रितेश का दोस्त विशाल। जैक्लीन की बहन के साथ। फिल्म का शीर्षक गीत कर्णप्रिय भी है और मधुर भी।

निर्देशक: मिलाप जवेरी
कलाकार: रितेश देशमुख, जैक्लीन फर्नांडिज, विशाल मल्होत्रा, रूसलेन मुमताज, सोनल सहगल
गीत: समीर
संगीत: साजिद-वाजिद

Saturday, April 3, 2010

तुम मिलो तो सही

फिल्म समीक्षा

‘तुम मिलो तो सही‘: जीना यहां

धीरेन्द्र अस्थाना

स्वर्गीय दुष्यंत कुमार का एक प्रसिद्ध शेर है - ‘जियें तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले / मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।‘ जाहिर है कि यहां गुलमोहर एक प्रतीक है - जिंदगी का, जिंदगी के मकसद का, जिंदगी के स्वप्न का। बहुत दिनों बाद कोई कायदे की फिल्म देखने को मिली है जिसमें किसी मकसद को बेहद कुशलता और संवेदनशील ढंग से बुना गया है। निर्देशक कबीर सदानंद की फिल्म ‘तुम मिलो तो सही‘ पूरी तरह फार्मूला फिल्म होने के बावजूद न सिर्फ दिल को स्पर्श करती है बल्कि मकसद की एक अलग ही यात्रा पर ले जाती है। यह मकसद मुंबई को जानने समझने वालों को ज्यादा आंदोलित करेगा। मुंबई में बने ईरानी रेस्तराओं की दशा-दिशा और अतीत की एक लंबी तथा भावनात्मक दास्तान है। इस फिल्म में इसी दास्तान के एक तार को छेड़ा गया है। यह तार है लकी कैफे जिसकी मालकिन डिंपल कापड़िया हैं। वह तीस साल से यह कैफे चला रही हैं और उस परंपरा का निर्वाह कर रही हैं जिसके लिए ईरानी रेस्त्रां तथा उसके पारसी मालिक जाने जाते हैं। फिल्म में तीन जोड़े हैं लेकिन तीनों जोड़े यानी छह मुख्य किरदार लकी कैफे से आकर जुड़ते हैं। पूरी तरह मुंबई में बसे मध्यवर्गीय लोगों के सपनों, संघर्षों, जद्दोजहद और जुननू की चुस्त दुरूस्त कथा कहती है - ‘तुम मिलो तो सही।‘
सुनील शेट्टी शहर के एक मल्टीनेशनल रेस्त्रां का सीईओ है। उसकी कंपनी की नजर डिंपल के लकी कैफे पर गड़ी है क्योंकि वह शहर की प्राइम लोकेशन पर बना हुआ है। कंपनी यह जिम्मेदारी सुनील शेट्टी को सौंपती है क्योंकि उसकी पत्नी विद्या मालवदे तथा उसका बेटा अंकुर डिंपल से भावनात्मक स्तर पर जुड़े हैं। नाना पाटेकर एक रिटायर बीए एल एल बी हंै जो जीवन का पहला मुकदमा लकी कैफे को बचाने के लिए लड़ते हंै। नया हीरो रेहान खान फौज में जाना स्थगित कर जिंदगी देखने मुंबई आया है जहां वह अंजना सुखानी से जुड़ गया है। ये दोनों ‘सेव लकी कैफे‘ के मुख्य सेनानी हैं। सुनील शेट्टी की पत्नी उसका साथ छोड़ कर डिंपल के पक्ष में चली गयी है। उसे सुनील के चार बैडरूम वाले फ्लैट में कोई दिलचस्पी नहीं है। वह रिश्तों की कीमत पर दीवारें नहीं पाना चाहती। छह पात्रों की छह जुदा कहानियां और छह जुदा मकसद हैं। इन सबको निर्देशक ने गूंथकर एक गुलमोहर में बदल दिया है। यही है इस फिल्म का मजबूत पक्ष। सौ प्रतिशत डिंपल कापड़िया की फिल्म है जिसे नाना पाटेकर के जीवंत और बेहतरीन काम ने नयी ऊंचाई बख्शी है। संदेश शांडिल्य का संगीत प्रभावशाली और हृदयस्पर्शी दोनों है। इरशाद कामिल के दो गीत लंबे समय तक गाये जाते रहेंगे। इस वर्ष की अच्छी फिल्मों में गिनी जाएगी यह।

निर्देशक: कबीर सदानंद
कलाकार: नाना पाटेकर, डिंपल कापड़िया, सुनील शेट्टी, विद्या मालवदे, रेहान खान, अंजना सुखानी
संगीत: संदेश शांडिल्य

Saturday, March 27, 2010

वेलडन अब्बा

फिल्म समीक्षा

वेल डन अब्बा, वेल डन

धीरेन्द्र अस्थाना

श्याम बाबू की इस कॉमेडी फिल्म को देखना अपनी प्राथमिकता में शामिल करें। मजाक-मजाक में लोकतंत्र और उसके ढांचे पर टिकी पूरी शासन व्यवस्था को हिला कर रख दिया है श्याम बेनेगल ने। ढाई घंटे में बीसियों समस्याओं, विसंगतियों, असमानताओं तथा कुरूपताओं का पर्दाफाश केवल श्याम बाबू का सिनेमा ही कर सकता है। आजकल बन रही फिल्मों की अवधि के हिसाब से ‘वेलडन अब्बा‘ थोड़ी लंबी हो गयी है लेकिन बनी बहुत खूब है। यह कहना गलत नहीं है कि एक काबिल डायरेक्टर ही किसी अच्छे एक्टर से उसका ‘सर्वश्रेष्ठ‘ निकलवा सकता है। अगर श्याम बाबू यह फिल्म नहीं बनाते तो ढेर सारी हकीकतें दुनिया जान ही नहीं पाती। इस फिल्म से पता चला कि मिनिषा लांबा कमाल की अदाकारा भी हैं। मौका मिलता रहे ढंग के निर्देशक के साथ, तो रवि किशन हिंदी सिनेमा के आसमान पर कई झंडे गाड़ सकते हैं। बोमन ईरानी को लोग अब तक बेहतर लेकिन ‘लाउड‘ एक्टर समझते आये थे लेकिन ‘वेलडन अब्बा‘ में उन्होंने अभिनय का नया आस्वाद और आयाम पेश किया है। ललित तिवारी, राजेंद्र गुप्ता, यशपाल शर्मा, इला अरूण, रजित कपूर सब के सब कलाकारों ने किसी अनुशासित सिपाही की तरह श्याम बाबू के निर्देशन में बेहतरीन काम को अंजाम दिया है। समीर दत्तानी का अभिनय सादा लेकिन सहज है। शांतनु मोइत्रा का संगीत फिल्म की पटकथा के अनुकूल है और फिल्म को गति देता है।
पहले इस फिल्म का नाम ‘अब्बा का कुआं‘ था जिसे बदल कर श्याम बाबू ने ‘वेलडन अब्बा‘ कर दिया। मल्टीप्लेक्स, शॉपिंग मॉल्स, कॉल सेंटर्स , लिव इन रिलेशनशिप, वन नाइट स्टैंड जैसे अत्याधुनिक समय में ग्रामीण भारत का यथार्थ पेश करने की हिम्मत दूसरा कोई निर्देशक कर भी नहीं सकता था। सिनेमा तो सिनेमा गांव तो साहित्य तक से कब का बेदखल हो चुका। कुएं, नहरें, सड़कें और पुल कागजों पर बनते हैं और कागजों में ही ढह भी जाते हैं, इस शासकीय यथार्थ से संभवतः आज की युवा पीढ़ी परिचित नहीं है। यह फिल्म नयी पीढ़ी को बनैली राजनीति की इसी खतरनाक यात्रा पर ले जाती है, वह भी खेल-खेल में। फिल्म में बावड़ी की चोरी होना एक प्रतीकात्मक व्यंग्य है। इस व्यंग्य के समंदर में गांव से लेकर प्रदेश सरकार के स्तर तक सबको चाबुक लगाये गये हैं। बीच बीच में अनेक उप प्रसंगों के जरिए सामाजिक विद्रूपताएं भी रेखांकित होती रहती हैं। भ्रष्टाचार कैसे एक सामाजिक शिष्टाचार में बदल गया है इसकी तरफ भी फिल्म साफ इशारा करती है। फिल्म का सबसे बड़ा संदेश यह है कि जिंदगी का सबसे बड़ा डर ‘डर-डर के जीना‘ है। जितना जल्दी हो इस डर से मुक्ति पा लेनी चाहिए।

निर्देशक: श्याम बेनेगल
कलाकार: बोमन ईरानी, मिनिषा लांबा, समीर दत्तानी, रवि किशन, इला अरूण, राजेन्द्र गुप्ता, ललित तिवारी, यशपाल शर्मा, रजित कपूर
संगीत: शांतनु मोईत्रा
गीत: स्वानंद किरकिरे, इला अरूण, अशोक मिश्र

Saturday, March 20, 2010

लव, सेक्स और धोखा

फिल्म समीक्षा

सच की गली में ‘लव, सेक्स और धोखा‘

धीरेन्द्र अस्थाना

आम तौर पर साहित्य आम जनता के लिए नहीं होता। वह जनता के बारे में हो सकता है। लेकिन सिनेमा के लिए यह सिद्धांत आम तौर पर स्वीकृत नहीं है। माना जाता है कि सिनेमा आम दर्शक के मनोरंजन के लिए बनता है। इस मनोरंजन वाले सिनेमा को ही मेनस्ट्रीम या व्यावसायिक सिनेमा कहते हैं। टीवी सीरियल की ‘क्वीन‘ कही जाने वाली एकता कपूर ने जिस फिल्म ‘लव, सेक्स और धोखा‘ का निर्माण किया है, वह व्यावसायिक सिनेमा नहीं है। ऐसी फिल्में सार्थक, अर्थपूर्ण या रियलिटी सिनेमा की श्रेणी में आती हैं। यदि आप सिनेमा में कुछ तलाशने, कुछ पाने, कुछ सोचने के लिए जाते हैं तो तत्काल यह फिल्म देख आइए। आपको इसमें यथार्थवादी सिनेमा का नया आस्वाद मिलेगा। निर्देशक दिबाकर बनर्जी इसमें समकालीनता का नया मुहावरा गढ़ते नजर आते हैं। देश के छोटे बड़े शहरों में रोज घट रही अप्रिय घटनाओं में से कुछ सच्चाइयां उठा कर पर्दे पर हूबहू पेश करने की एकदम नयी शैली अपनाई है निर्देशक ने। यह शैली हमारे सौंदर्यबोध को झटका भी दे सकती है। इस फिल्म को हम ‘डॉक्यू ड्रामा‘ भी कह सकते हैं क्योंकि फिल्म बनाने का स्टाइल ‘डॉक्यूमेंट्री‘ जैसा ही है। फिल्म देखते समय हम उसका एक हिस्सा बन जाते हैं एक पंक्ति में फिल्म को परिभाषित करना हो तो कहेंगे -‘सच की गली में हुआ स्टिंग हैं ऑपरेशन।‘
एक फिल्म में कई कहानियों वाली कई फिल्में पहले भी बन चुकी हैं। इसमें भी तीन कहानियां हैं। पहली फिल्म में राहुल और श्रुति जैसे युवा प्रेमी युगल की परिणति उनकी नृशंस हत्या में होती है। दूसरी फिल्म में, अपने सिर पर चढ़ा कर्ज उतारने के लिए आदर्श पहले रश्मि के साथ प्यार का ड्रामा करता है फिर उसके साथ सेक्स करते समय उसकी फिल्म बना लेता है। बाद में इस फिल्म को बेच कर वह अपना कर्जा उतार देता है। तीसरी फिल्म में मुख्यतः तीन पात्र हैं। पत्रकार प्रभात, डांसर नैना और पाॅप सिंगर लोकी लोकल। इस फिल्म में ग्लैमर की दुनिया में चल रहे यौन शोषण का ‘स्टिंग ऑपरेशन‘ किया गया है। उद्देश्य सिर्फ अपने चैनल की टीआरपी बढ़ा कर पैसा कमाना है। स्टिंग हैं ऑपरेशन के दौरान पत्रकार प्रभात पॉप सिंगर की गोली का शिकार बन जाता है। फिर वह चैनल की मालकिन को हैं ऑपरेशन का वीडियो फुटेज देने से इनकार कर देता है। इन तीनों फिल्मों के समाप्त हो जाने के बाद फिल्म के सभी पात्र प्रोड्यूसर के घर पर इकट्ठा होते हैं। फिल्म के ‘टाइटल सांग‘ के फिल्मांकन पर फिल्म खत्म होती है। एक नितांत प्रयोगधर्मी फिल्म है जिसके सातों मुख्य चरित्र नये हैं। आदर्श और रश्मि के किरदार में राजकुमार यादव और नेहा चैहान ने जीवंत अभिनय किया है।

निर्देशक: दिबाकर बनर्जी
कलाकार: अंशुमान झा, श्रुति, राजकुमार यादव, नेहा चैहान, आर्या देवदत्ता, हैरी टेंगरी, अमित सयाल
संगीत: स्नेहा खानवलकर

Saturday, March 13, 2010

राइट या रांग

फिल्म समीक्षा

सच को तलाशती ‘राइट या रांग‘

धीरेन्द्र अस्थाना

कई प्रसिद्ध फिल्मों के लेखक नीरज पाठक की बतौर निर्देशक पहली फिल्म है ‘राइट या रांग।‘ इस फिल्म की कई विशेषताएं हैं। पहली-बहुत दिनों बाद कोई फिल्म नैतिक मूल्यों से जुड़े कुछ असुविधाजनक सवालों से जूझ कर ‘अंतिम सत्य‘ तलाशने का प्रयास करती है। दूसरी - फिल्म की पटकथा इतनी कसी हुई है कि सभी किरदारों ने कट-टु-कट अभिनय किया है, फिल्म में कोई झोल नहीं है। तीसरी - आज के दौर में जो ‘समकालीन‘ सिनेमा रचा जा रहा है उसके उलट यह फिल्म ‘एक्शन-थ्रिलर-इमोशन‘ का दो-ढाई दशक पुराना ड्रामा रचने के बावजूद सफल फिल्म है। पूरी फिल्म दर्शकों को अपने साथ अंत तक न सिर्फ बांधे रखती है बल्कि थोड़ी-थोड़ी देर बाद वैचारिक तथा भावनात्मक झटके भी देती चलती है। अंतिम विशेषता - सिनेमा के प्राचीनतम सिद्धांत, बुराई पर अच्छाई की विजय, से जोरदार मुठभेड़ करते हुए फिल्म यह साबित करती है कि सत्य निरपेक्ष नहीं होता। यथार्थ का मूल्यांकन हालात की रोशनी में ही संभव है। इस सत्य को निरूपित करने की प्रक्रिया में, बहुत समय बाद कोई फिल्म, स्थूल अर्थों में नकारात्मक मूल्यों के समर्थन में भावनात्मक तूफान खड़ा करती नजर आती है। अगर सिनेमा हॉल के भीतर दर्शक ‘खलनायक दिखाई देते किरदार‘ के पक्ष में तालियां बजा रहे हैं तो इसका सीधा मतलब है कि निर्देशक की ‘जिरह‘ कामयाब है। फिल्म के ज्यादातर पात्र समर्थ अभिनेता हैं - सनी देओल, इरफान खान से लेकर कोंकणा सेनशर्मा तक - इसलिए हम अभिनय की बात नहीं करेंगे। बात कुछ सवालों की। अगर पत्नी बेवफा हो जाए तो क्या उसका मर्डर करना उचित है? क्या व्यस्त पतियों की पत्नियों को बेवफा हो जाना चाहिए? क्या अपना सबसे प्यारा दोस्त कानून तोड़ दे तो उसके खिलाफ न्याय की लड़ाई लड़ना ही सच्चा कर्तव्य है? क्या इच्छा शक्ति के बल पर कानून और नैतिकता की मशीनरी को मात दी जा सकती है? क्या बेटे के भविष्य के लिए कानून को धोखा देना तार्किक है? अपनी ‘एक्शन और थ्रिलर पैक्ड‘ फिल्म में नीरज ने इन्हीं सब सवालों पर बहस छेड़ी है। इस बहस को पर्दे पर घटते देखना रोचक और रोमांचक दोनों है। कमजोर पब्लिसिटी और जीरो प्रोमोशन के चलते पहले दिन सिनेमा हाॅल खाली रहे लेकिन आने वाले दिनों में ‘मौखिक प्रचार‘ के कारण फिल्म का ‘व्यवसाय‘ जोर पकड़ सकता है। समीर थोक के भाव लिखते हैं इसलिए अब यादगार गीत दे पाना उनके वश में नहीं रहा। मोंटी शर्मा का संगीत भी साधारण है। इरफान खान और कोंकणा सेन शर्मा अपने अभिनय से गजब का ‘टकराव‘ और ‘रिद्म‘ पैदा करते हैं। एक बार देख लें।

निर्देशक: नीरज पाठक
कलाकार: सनी देओल, ईशा कोप्पिकर, कोंकणा सेन शर्मा, इरफान खान, आरव चैधरी, गोविंद नामदेव, दीपल शाॅ।
गीत: समीर
संगीत: मोंटी शर्मा

Saturday, March 6, 2010

अतिथि तुम कब जाओगे

फिल्म समीक्षा

अतिथि, तुम तो आते रहना

धीरेन्द्र अस्थाना

फिल्म का नाम भले ही ‘अतिथि तुम कब जाओगे‘ रखा गया है लेकिन इसका संदेश यही है कि अतिथि तुम आते रहना। हिंदी के प्रख्यात व्यंग्यकार स्वर्गीय शरद जोशी की व्यंग्य रचना ‘अतिथि तुम कब जाओगे‘ का न सिर्फ शीर्षक फिल्म के लिए लिया गया है बल्कि उस रचना की कुछ पंक्तियों को फिल्म की व्याख्या के लिए बतौर नेरेशन भी पेश किया गया है। फिल्म के निर्देशक अश्वनी धीर हैं जो शरद जोशी की रचनाओं पर बने एक धारावाहिक ‘लापतागंज‘ को भी निर्देर्शित कर रहे हैं। यह सीरियल कई दिनों से चल रहा है। बतौर प्रोड्यूसर यह अमिता पाठक की पहली फिल्म है। खुशी की बात है कि बॉलीवुड में लगातार युवा लड़कियां निर्माता के तौर पर भी आ रही हैं।
फिल्म की दो चार कमजोरियों पर चर्चा करने से पहले बता देते हैं कि दर्शक निश्चिंत हो कर, पूरे परिवार के साथ यह फिल्म देखने जा सकते हैं। यह एक बड़ी मजेदार और घरेलू टाइप की अपनी सी लगती फिल्म है। इंटरवल तक फिल्म का ताना बाना और कथानक इतना कसा हुआ है कि हमें पता ही नहीं चलता कि इंटरवल आ गया? प्रतिभावान अभिनेत्री कोंकणा सेन शर्मा की संबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह अभिनेत्री नहीं लगतीं। वह फिल्म में भी वह हमारे आसपास की किसी हाउसिंग सोसायटी में रहने वाली आम फहम घरेलू स्त्री नजर आती हैं। वह एकदम सतह से उठता हुआ अभिनय करती हैं। विश्वसनीय और जिंदादिल। मूलतः यह फिल्म कुल तीन किरदारों अजय देवगन, कोंकणा सेन शर्मा तथा परेश रावल पर ही केंद्रित है। लेकिन सतीश कौशिक और अखिलेंद्र मिश्र के होने से फिल्म को गति और उप कथाएं मिलती हैं। परेश रावल तो खैर कॉमेडी के बादशाह हैं लेकिन इतनी ज्यादा कॉमेडी फिल्में करने के बावजूद अजय देवगन का चेहरा अभी भी एक अजीब सी गंभीरता में तना रहता है। इस गंभीरता को जस्टीफाई करने के लिए ही निर्देशक ने शायद फिल्म के अंत से पहले वाले एक दृश्य में अजय से एक गंभीर संदेश दिलवा दिया है। वैसे अजय देवगन अब परिपक्व हो चुके हैं। उनका अभिनय फिल्म को प्रभावी बनाता है। अब कुछ नाकामियों और विचलन पर। परेश रावल का ‘गैस विसर्जन‘ कुछ ज्यादा हो गया है। इंटरवल के बाद निर्देशक के हाथ से फिल्म फिसलनी शुरू होती है तो फिर फिसलती ही जाती है। अंत में यह दिखा कर कि परेश रावल गलती से गलत घर में मेहमान बन कर आ गये थे, फिल्म को बिखरने से रोक लिया गया है। इंटरवल के बाद का ‘निर्देशकीय कन्फ्यूजन‘ दर्शकों को स्पष्ट समझ में आता है। फिल्म अवांछित अतिथि के आने के पक्ष में है या विपक्ष में, इसका जबर्दस्त भ्रम बन जाता है। दो-एक उपकथाएं भी गैर जरूरी नहीं तो लंबी जरूर हो गयी हैं। तो भी एक बेहतर और रोचक फिल्म है।

निर्देशक : अश्विनी धीर
कलाकार: अजय देवगन, कोंकणा सेन शर्मा, परेश रावल, सतीश कौशिक, अखिलेंद्र मिश्रा
संगीत: प्रीतम चक्रवर्ती

Saturday, February 27, 2010

तीन पत्ती

फिल्म समीक्षा

जटिल है ‘तीन पत्ती‘ का समीकरण

धीरेन्द्र अस्थाना

लीना यादव द्वारा निर्देशित फिल्म ‘तीन पत्ती‘ से ढेर सारी खबरें जुड़ी हुई हैं। इस फिल्म से दो विराट अभिनेता जुड़े हैं। हॉलीवुड के सर बेन किंग्सले, जिन्होंने रिचर्ड एटेनबरो की विश्वविख्यात फिल्म ‘गांधी‘ में महात्मा गांधी का जादुई किरदार निभा कर इतिहास बनाया हुआ है। गांधी जी का उन जैसा रोल आज तक दूसरा कोई नहीं कर पाया है। बॉलीवुड के शहंशाह अमिताभ बच्चन, जिनका ताजा जादू हम पिछले साल 4 दिसंबर को रिलीज हुई यादगार फिल्म ‘पा‘ में देख चुके हैं। इस फिल्म से हिंदुजा परिवार की युवती अंबिका हिंदुजा ने बतौर प्रोड्यूसर बॉलीवुड में प्रवेश किया है। फिल्म में बड़े पैमाने पर लगा हुआ पैसा जगह-जगह बोलता है। फिल्म में कलाकारों की भीड़ है हालांकि मुख्य कहानी अमिताभ बच्चन, आर. माधवन और उनके तीन छात्रों ध्रुव गणेश, सिद्धार्थ खेर तथा श्रृद्धा कपूर के इर्द-गिर्द ही घूमती है। मशहूर खलनायक शक्ति कपूर की बेटी श्रृद्धा कपूर की यह पहली फिल्म है और उसने अपने रोल के लिए भरपूर मेहनत की है। कई दृश्यों में श्रृद्धा की प्रतिभा कौंधती है। विशेष भूमिकाओं में शक्ति कपूर, मीता वशिष्ठ और महेश मांजरेकर प्रभावित करते हैं। केवल आधे मिनट का दृश्य भी मीता वशिष्ट ने विशिष्ट बना दिया है। फिल्म की कहानी, पटकथा और संवाद भी मुख्यतः लीना यादव के हैं। और यही इस फिल्म का जटिल पक्ष है। लीक से हट कर फिल्म बनाना चुनौतीपूर्ण, साहसिक और प्रशंसनीय है। लेकिन संप्रेषण के स्तर पर इतना जटिल और दुरूह भी नहीं हो जाना चाहिए कि दर्शक फिल्म का मर्म और मकसद ही न समझ पायें। इस फिल्म की यही एक सबसे बड़ी सीमा है कि इसमें जो समीकरण उठाया गया है वह कायदे से सुलझ नहीं पाया है।
अमिताभ बच्चन गणित के प्रोफेसर हैं। अपनी एक ‘थ्योरी‘ को ‘प्रेक्टिकली सॉल्व‘ करने के लिए वह जुए को बतौर माध्यम चुनते हैं। लेकिन अपने तीनों छात्रों और साथी प्रोफेसर माधवन के बीच पनप गये पैसे के लालच के कारण वह किसी ब्लैकमेलर का शिकार हो जाते हैं और निरंतर जुआ खेलने पर मजबूर होते हैं। फिल्म के अंत में एक छात्र की आत्म हत्या के बाद उसके ‘सुसाइडल नोट‘ से ‘तीन पत्ती‘ का सस्पेंस खुलता है। आर. माधवन का ‘कन्फेशन‘ पूरी फिल्म की उलझन को सुलझाने की चाबी है। लेकिन दिक्कत यह है कि यहां तक पहुंचते-पहुंचते दर्शक थक चुका होता है। हमारे कई निर्देशक अक्सर यह भूल जाते हैं कि मल्टीप्लेक्स के दर्शक अपेक्षाकृत पैसे वाले जरूर होते हैं लेकिन वे दार्शनिक भी हों, यह जरूरी नहीं है। तमाम कलाकारों ने जम कर अपना श्रेष्ठ प्रदर्शन किया है लेकिन राईमा सेन से कुछ नहीं करवाया गया। बिग बी के कारण फिल्म देख लें।

निर्देशक: लीना यादव
कलाकार: अमिताभ बच्चन, सर बेन किंग्सले, आर. माधवन, श्रृद्धा कपूर, धु्रव गणेश, सिद्धार्थ खेर, वैभव तलवार, शक्ति कपूर, महेश मांजरेकर
संगीत: सलीम-सुलेमान

Saturday, February 20, 2010

तो बात पक्की

फिल्म समीक्षा

कच्ची रह गयी ‘तो बात पक्की‘

धीरेन्द्र अस्थाना

दुनिया जानती है कि तब्बू एक सशक्त और संवेदनशील अभिनेत्री हैं। उनके नाम के साथ अपने अपने समय की कुछ श्रेष्ठ, मर्मस्पर्शी और महत्वपूर्ण फिल्में जुड़ी हैं। वह दो बार राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता भी रह चुकी हैं। तो फिर उन्होंने ‘तो बात पक्की‘ जैसी अत्यंत साधारण फिल्म में काम करना क्यों पसंद किया, यह तो वही बता सकती हैं। उन्होंने बताया भी है कि वह काॅमेडी फिल्म करना चाहती थीं इसलिए इस फिल्म को किया। तब्बू का तर्क अपनी जगह है लेकिन हकीकत यही है कि इस बार तब्बू फिल्म को चुनते वक्त चूक गयीं। जो फिल्म कई जगह से कच्ची है उसमें काम करके तब्बू को कुछ भी उपलब्ध नहीं हुआ है। हुआ यह कि जो थोड़े बहुत लोग तब्बू के कारण सिनेमा हाॅल पहुंचे उन्हें तब्बू के हल्के-फुल्के, मजाकिया किरदार ने निराश ही किया। यह तो सब जानते हैं कि कमर्शियल सिनेमा बहुत ज्यादा तर्कपूर्ण नहीं होता लेकिन कोई फिल्म इतनी भी अतार्किक नहीं होती कि कहानी के नाम पर कुछ भी पेश कर दिया जाए। हजार बारह सौ किराये के लिए तड़पने वाली तब्बू महल जैसे आलीशान घर में रहती है। किसी भी तरह छोटी बहन की सही जगह शादी फिट करने के जुगाड़ में लगी बड़ी बहन के किरदार को तब्बू ने भरसक बेहतर ढंग से निभाया है लेकिन खुद किरदार में ही दम न हो तो कलाकार भी क्या और कितना कर लेगा? यही कारण है कि अनुभवी और परिपक्व तब्बू को शुरू से अंत तक शरमन जोशी जैसा नया कलाकार टक्कर देता नजर आता है। अगर कहा जाए कि जगह जगह गिरती फिल्म को शरमन जोशी ही बार बार उठाता नजर आता है तो गलत न होगा। तब्बू और शरमन के बीच में वत्सल सेठ अपना ‘स्पेस‘ ही नहीं बना पाया है। इंटरवल तक फिल्म ठीक-ठाक चलती है लेकिन उसके बाद जो पटरी से उतरी तो फिर उतरी ही रही। ठेल-ठाल कर किसी तरह फिल्म को निपटा दिया गया। काॅमेडी फिल्म बनाना हंसी खेल नहीं है। काॅमेडी में भी कहानी तथा पात्रों को एक तार्किक परिणति तक पहुंचाना होता है। सबसे बड़ी बात, काॅमेडी में घटनाओं, पात्रों, स्थितियों को वास्तविक और विश्वसनीय लगना चाहिए। ‘तो बात पक्की‘ इनमें से कोई अपेक्षा पूरी नहीं करती। इसीलिए तब्बू और शरमन के बावजूद यह एक साधारण फिल्म बन कर रह गयी है।

निर्देशक: केदार शिंदे
कलाकार: तब्बू, शरमन जोशी, वत्सल सेठ, उविका चैधरी, हिमानी शिवपुरी
संगीत: प्रीतम चक्रवर्ती

Saturday, February 13, 2010

माई नेम इज खान

फिल्म समीक्षा

अद्भुत और अनूठी माई नेम इज खान

धीरेन्द्र अस्थाना

जैसे अमिताभ बच्चन की फिल्म ‘पा‘ का महत्व उसे देख कर ही समझा जा सकता है ठीक उसी तरह ‘माई नेम इज खान‘ का महत्व समझने के लिए उसे देखना जरूरी है। आम मुंबईकरों ने इस फिल्म को पुलिस के पहरे में टूट कर देखा। खबर है कि मुंबई के जिस भी सिनेमाघर में फिल्म चली वहां पहले दिन का प्रत्येक शो हाउसफुल था। आम जनता के ऐसे लाड़-दुलार की उम्मीद तो शायद फिल्म के निर्देशक करण जौहर और फिल्म के कलाकारों - शाहरुख खान, काजोल, जरीना वहाब को भी नहीं रही होगी। 12 फरवरी को मुंबई में जनता जीत गयी और राजनीति हार गयी।
कुछ भटकावों, विचलन और अतियों को नजरअंदाज कर दें तो ‘माई नेम इज खान‘ एक अनूठे अनुभव की यात्रा पर ले जाती है। फिल्म के केंद्र में रिजवान खान नामक एक युवक है जो एसपर्जर सिंड्रोम नामक बीमारी से पीड़ित है। इस बीमारी के बावजूद यह युवक (शाहरुख खान) अमेरिका जाता है, जहां उसका छोटा भाई जिमी शेरगिल एक कामयाब बिजनेसमैन है। छोटे भाई के ब्यूटी प्रोडक्ट बेच कर शाहरुख अपना जीवन आरंभ करता है और एक तलाकशुदा तथा एक बच्चे की मां काजोल से प्यार करने लगता है। शाहरुख की मासूमियत, सच्चाई और अपने बेटे के प्रति उसके प्यार को देख काजोल भी शाहरुख को चाहने लगती है और दोनों विवाह कर लेते हैं। इसके बाद घटता है वह हादसा जिसने अमेरिका ही नहीं पूरी दुनिया के भाईचारे और अमन चैन की बुनियाद ही तहस नहस कर दी। अमेरिका के वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर हुए आतंकवादी हमले ने रिश्तों के समीकरण ही गड़बड़ा दिए। एक मजहबी हमले में शाहरुख-काजोल का बेटा मारा गया। काजोल शाहरुख से विमुख हो गयी और शाहरुख के जीवन का एक ही मकसद रह गया - अमेरिकी राष्ट्रपति से मिलना और उनसे कहना ‘मिस्टर प्रेसीडेंट, माई नेम इज खान ऐंड आई एम नॉट ए टेरेरिस्ट।‘
शाहरुख खान, काजोल और जरीना वहाब ने अपने किरदारों को ‘विस्मय‘ में बदल दिया है। तीनों का अभिनय ‘परकाया प्रवेश‘ का जीवंत उदाहरण है। करण जौहर ने कहीं भी अपनी पकड़ कमजोर नहीं पड़ने दी है। शाहरुख खान के रिजवान खान वाले किरदार को महिमा मंडित करने के लिए उन्होंने कुछ ज्यादा ही कसरत कर दी है इसके बावजूद फिल्म बोझिल और अविश्वसनीय नहीं है। यह मनोरंजक नहीं, मकसद वाली फिल्म है और जिस मकसद से यह बनायी गयी, वह कामयाब हो गया है। फिल्म का एकमात्र संदेश है - दुनिया में दो ही तरह के लोग होते हैं। अच्छे लोग और बुरे लोग। फिल्म को अवश्य देखें।

निर्देशक: करण जौहर
कलाकार: शाहरुख खान, काजोल, जरीना वहाब, जिमी शेरगिल, सोनिया जहान, विनय पाठक
संगीत: शंकर-अहसान-लॉय

Tuesday, February 9, 2010

सिनेमा में भी एक प्रेम रहता है

सिनेमा में भी एक प्रेम ‘रहता‘ है

धीरेन्द्र अस्थाना

वैज्ञानिक और तकनीकी तरक्की के साथ जिंदगी में दबे पांव दाखिल हुए ग्लोबलाइजेशन ने लाइफ स्टाइल के अलावा विचार और संवेदना को भी गहरे स्तर पर प्रभावित किया है। व्यापक जन समुदाय तक पहुंच रखने वाला विराट माध्यम सिनेमा इससे कैसे अप्रभावित रहता? सिनेमा के पास चार-पांच शाश्वत विषय हैं जिनमें ढाई अक्षर का ‘प्रेम‘ सर्वोपरि है। समय बदला, समाज बदला, विचार बदले, सरोकार बदला तो सिनेमा में प्रेम के साथ होने वाला सुलूक और अंदाज भी बदला। राजेन्द्र कुमार-राज कूपर-वैजयंती माला की ‘संगम‘, राजेश खन्ना-शर्मीला टैगोर की ‘अमर प्रेम‘, अमिताभ बच्चन-रेखा की ‘सिलसिला‘, संजीव कुमार-शर्मीला टैगोर की ‘मौसम‘, कमल हासन-श्रीदेवी की ‘सदमा‘ तथा ऋषी कपूर-डिंपल कपाड़िया की ‘बॉबी‘ जैसी प्रेम कहानियां बीते जमाने की मील का पत्थर भर रह गयीं क्योंकि इस बीच सिनेमा का बड़ा दर्शक वर्ग यानी ‘टार्गेट ओडियंस‘ युवा हो गया था। शॉपिंग मॉल्स , कॉरपोरेट कल्चर, मल्टीप्लेक्स, कॉल सेंटर, मोबाइल फोन, इंटरनेट, पब, डांस बार वगैरह वगैरह के आक्रामक लेकिन मखमली अंधेरों में जवान हुई, संख्या की दृष्टि से निर्णायक बन चुकी युवा पीढ़ी सबके निशाने पर आ गयी थी। ‘पल-पल दिल के पास तुम रहती हो‘ जैसे गाने इस पीढ़ी को ‘बोरिंग‘ और हास्यास्पद लग रहे थे और इस लगने में ‘लड़का-लड़की‘ दोनों शामिल थे। मोटर बाइक्स की तूफानी रफ्तार को पसंद करने वाली यह पीढ़ी प्यार में भी रफ्तार और छीन झपट की कायल थी। इसीलिए जब शाहरुख खान को प्यार के लिए विलेन बनने पर राजी करने वाली फिल्म ‘बाजीगर‘ आयी तो युवा दर्शक उस पर टूट पड़ा। यह फिल्म युवाओं के लगभग हिंसक प्रेम को आईना ही नहीं दिखाती थी, उसका समर्थन भी करती थी। फिल्म के सुपर डुपर हिट होने से बॉलीवुड निर्माताओं के दिमाग ठनक गये। वह मान गये कि सिनेमा में जो प्रेम रहता है उसके साथ नये बर्ताव का समय आ पहुंचा है। इस बीच दो परिवर्तन समानांतर हुए। कॉल सेंटरों में मर-खप रही युवा पीढ़ी में प्यार की एक नयी परिभाषा और अभिलाषा ने जन्म लिया। दिन में मिलो, रात में मौज-मस्ती करो, सुबह भूल जाओ। दो-चार बार डेटिंग करो। चार छह रातें बिस्तर पर गुजारो। मन मिले तो साथ रहो। न मिले तो अपना-अपना रास्ता नापो। प्रेम के इस दर्शन को नयी पीढ़ी ने नाम दिया ‘वन नाइट स्टैंड‘ और ‘लिव इन रिलेशनशिप‘। सिनेमा चूंकि बड़े दर्शक समूह का माध्यम है इसलिए वह प्यार के इस दर्शन का तो ताबड़तोड़ प्रदर्शन नहीं कर सका लेकिन उसने प्यार की नयी जमीन पर खड़े होना शुरू कर दिया। पिछले वर्ष 31 जुलाई को रिलीज सैफ अली खान-दीपिका पादुकोन स्टारर हिट फिल्म ‘लव आज कल‘ में तो बाकायदा आज के और बीते समय के प्यार का रोचक लेकिन तुलनात्मक अध्ययन पेश किया गया। इम्तियाज अली द्वारा निर्देशित इस फिल्म में दो युवाओं के प्यार को दो कालखंडों में पेश करके प्रेम की नयी-पुरानी व्याख्या को अंजाम दिया गया। एक सन् पैंसठ की दिल्ली है जिमसें ऋषी कपूर प्रेम करते हैं। एक सन् 2009 का लंदन है जिसमें सैफ-दीपिका का फटाफट प्यार है। इस मोहब्बत के बीच में विलेन बन कर खड़े हैं दोनों के करियर। दोनों सहर्ष अलग होते हैं। दोस्तों को ब्रेकअप पार्टी देते हैं। दोस्त भ्रमित हैं। इस मौके पर बधाई दें या अफसोस प्रकट करें। गिफ्ट क्या दें? ब्रेकअप पार्टी की यह अवधारणा दिलचस्प और अनूठी है। यह ब्रेकअप प्रतिबद्धता से पलायन का दर्शन है। नो डिमांड, नो कमिटमेंट। फिल्म में ऋषी कपूर का जुमला ‘प्यार एक ही बार होता है‘ अंतिम सत्य निकला। लेकिन यह फिल्म का अंतिम सत्य है, समाज का नहीं। ‘लार्जर दैन लाइफ‘ वाले फार्मूले पर टिकी फिल्म इंडस्ट्री में प्यार, प्रेम, इश्क, मोहब्बत को परिभाषित करने का नया जुनून, नयी जिद और नया उन्माद शिखरों पर जा बैठा।
प्रयोगधर्मी फिल्मकार अनुराग कश्यप की फिल्म ‘देव डी‘ ने तो प्यार की रोमानी छवि को ही तहस नहस कर दिया। उन्होंने ‘देवदास‘ की प्रचलित प्रतिमा का विध्वंस कर डाला। अनुराग ने ‘देव डी‘ में एक थीसिस यह दी कि देव ‘नारसिसस‘ है यानी ऐसा शख्स जो संसार में किसी से प्यार नहीं करता। वह सिर्फ खुद से मोहब्बत करता है। यह देवदास पारो के गम में शराब पी कर खून की उल्टियां करने वाला युवक नहीं है। यह एक नया देवदास है जो प्यार में शहीद होने को राजी नहीं है। यह फिल्म चल निकली तो निर्माताओं को लगा कि प्यार की नयी व्याख्या स्वीकार्य है। अब तो वह सिनेमा में रहने वाले पुराने प्रेम की तरफ से पूरी तरह पीठ फेर चुके हैं।
सिनेमा में प्यार की कुछ अलग तस्वीर पेश करने वाली हालिया फिल्मों में हम शाहरुख खान-अनुष्का शर्मा की ‘रब ने बना दी जोड़ी‘ करण जौहर निर्मित ‘दोस्ताना‘, अब्बास टायरवाला निर्देशित इमरान खान-जेनेलिया डिसूजा अभिनीत ‘जाने तू या जाने ना‘, तनूजा चंद्रा की ‘होप ऐंड ए लिटिल शुगर‘, फराह खान निर्देशित ‘ओम शांति ओम‘, संजय लीला भंसाली की ‘सांवरिया‘, आर बालकी की अमिताभ-तब्बू अभिनीत ‘चीनी कम‘, अनुराग बसु निर्देशित ‘मैट्रो‘ और राम गोपाल वर्मा की अमिताभ बच्चन अभिनीत ‘निःशब्द‘ का जिक्र कर सकते हैं। ये सभी फिल्में सिनेमा में बरसों से चले आ रहे प्यार के पुराने फलसफे को नकार कर नया मिजाज, नया मौसम और नया संस्कार रचने के संघर्ष में मुब्तिला हैं।
लेकिन...। और यह लेकिन एक विराट तथा बुनियादी शंका है कि क्या ‘प्यार‘ जैसा दुर्लभ, कीमती और असाधारण अहसास तमाम तकनीकी क्रांतियों के बावजूद अपनी मूल स्थापनाओं को अपदस्थ कर पाया है। शायद नहीं । साहित्य में तो वर्षों पहले कथाकार ममता कालिया ने घोषणा कर दी थी -‘प्यार शब्द घिसते घिसते चपटा हो गया है। हमारी समझ में अब सिर्फ सहवास आता है।‘ लेकिन सामाजिक जीवन में ऐसा हुआ क्या? शायद नहीं हुआ। इसकी तस्दीक करती है अभी अभी रिलीज हुई विशाल भारद्वाज निर्मित अभिषेक चैबे की फिल्म ‘इश्किया‘। इस फिल्म में मामा (नसीरुद्दीन शाह) और भांजा (अरशद वारसी) एक ही लड़की (विद्या बालन) से सच्चा इश्क कर बैठते हैं। इश्क के इस संग्राम में भांजे की जीत होती है और मामा हार जाता है। युवा धड़कनों का यह प्यार ही अप्रतिम और अजेय है। इस प्यार को कोई प्रयोग पराजित नहीं कर सकता। इसलिए सिनेमा हो या जीवन, मोहब्बत जिंदाबाद ही प्यार का इकलौता सच और विमर्श है।

Saturday, January 30, 2010

रण

फिल्म समीक्षा

मीडिया के भीतर का ‘रण‘

धीरेन्द्र अस्थाना

रामगोपाल वर्मा धंधा करने के लिए आमतौर पर फिल्में नहीं बनाते। कुछ अपवादों को छोड़ दें जैसे ‘सत्या‘, ‘भूत‘, ‘कंपनी‘, ‘सरकार‘ तो उनकी फिल्में बड़ा धंधा करती भी नहीं हैं। बाॅलीवुड में रामू का अपना एक अलग अंदाज और मुहावरा है। हां, धंधे का समर्थन करने में उन्हें कोई ऐतरात नहीं है। याद करें यह गीत -‘गंदा है पर धंधा है।‘
लेकिन अपनी नयी फिल्म ‘रण‘ में उन्होंने पूरी ताकत से यह संदेश देना चाहा है कि मीडिया एक मिशन है। उसे धंधा बनने से बचाओ। शायद पहली बार रामू ने मीडिया विमर्श पर केंद्रित फिल्म बनायी है और बहुत दिनों बाद वह एक विचारोत्तेजक तथा सरोकारों वाला विषय लेकर आए हैं। वरना तो उनकी छवि माफियाओं और भूतों वाले फिल्मकार की होने लगी थी। पहले विचार कर लें कि मीडिया से आम जनता का नाता कितना है? इसलिए मीडिया के भीतर चल रही मारकाट, स्पर्धा, षड्यंत्र और चालबाजी को आम आदमी कितना और क्यों आत्मसात करेगा? स्पष्ट कर दें कि सिनेमा आम आदमी का माध्यम है और मीडिया खास आदमी का। खास आदमी के माध्यम के भीतर चल रही साजिशों में आम आदमी क्यों दिलचस्पी लेगा? यही कारण है कि एक सार्थक, महत्वपूर्ण और सरोकारों से जुड़ी होने के बावजूद रामू की ‘रण‘ बाॅक्स आॅफिस पर लड़खड़ा गयी है। विमर्श के मोर्चे पर ‘रण‘ सफल है लेकिन व्यवसाय के मोर्चे पर असफल। काश, ऐसी फिल्में धंधे के मोर्चे पर भी सफल होतीं तो आज बाॅलीवुड का चेहरा कुछ और ही होता। अभिनय के स्तर पर ‘रण‘ कुल मिला कर अमिताभ बच्चन और परेश रावल की फिल्म है। एक सच्चे और खरे चैनल के प्रमुख की भूमिका में अमिताभ ने प्रभावशाली तथा जीवंत अभिनय किया है। उनके बरक्स एक भ्रष्ट और चालबाज नेता के रोल में परेश रावल ने फिल्म को दमदार बना दिया है। लंबे समय बाद राजपाल यादव को एक बेहतर किरदार निभाने को मिला जिसे उन्होंने बेहतरीन ढंग से निभाया। उनका शिष्ट हास्य फिल्म को ‘काॅमिक रिलीफ‘ देता है। एक युवा रिपोर्टर के रूप में रितेश देशमुख की सादगी और पवित्रता भली भली सी लगती है लेकिन एकाध जगह उनका जासूस जैसा चरित्र खटकता है। पात्रों के चयन के संबंध में यह बात तो खुद रामू ही बता सकते हैं कि अमिताभ के वारिस, युवा चैनल मालिक के इतने लंबे और महत्वपूर्ण रोल के लिए उन्हें सुदीप क्यों मिले? और अगर दक्षिण के इस सितारे को लेना ही था तो उनसे ऐसे दृश्य क्यों नहीं करवाये जिनमें वह अपनी अभिनय प्रतिभा दिखा सकते? फिल्म में स्त्री पात्रों के लिए उचित ‘स्पेस‘ नहीं रखा गया है। मीडिया पर केंद्रित फिल्म के लिए अगर रामू ‘लार्जर दैन लाइफ‘ वाला फार्मूला इस्तेमाल नहीं करते तो ‘रण‘ ज्यादा प्रामाणिक, सहज और तार्किक हो सकती थी। फिल्म देख लें।

निर्देशक: राम गोपाल वर्मा
कलाकार: अमिताभ बच्चन, परेश रावल, रितेश देशमुख, सुदीप, सुचित्रा कृष्णमूर्ति, नीतू चंद्रा, राजपाल यादव, गुल पनाग

Saturday, January 23, 2010

वीर

फिल्म समीक्षा

साम्राज्य के विरुद्ध वीर

धीरेन्द्र अस्थाना

पहले दो-तीन बातें संक्षेप में। ‘वीर‘ एक पीरियड फिल्म है जिसकी कहानी फिल्म के हीरो सलमान खान ने लिखी है। प्रचारित किया गया है कि इस कहानी के साथ सलमान खान पिछले बीस साल से रह रहे थे। यह सलमान खान का एक बेहद विशेष और महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट है जिसमें खुद को एक पिंडारी योद्धा का ‘लुक‘ देने के लिए सलमान ने अनथक मेहनत की। ‘वीर‘ बड़े बजट की भव्य फिल्म है जिसके युद्ध दृश्य ‘मुगले आजम‘ और ‘जोधा अकबर‘ की याद दिलाते हैं।
अब बात पूरी फिल्म की। ऐसा लगता है कि सलमान खान की कहानी के ‘थॉट‘ को शक्तिमान तलवार की पटकथा संभाल और सहेज नहीं पायी है। इसीलिए कभी यह युद्ध के बैकड्रॉप पर प्रेम कथा लगती है, कभी ब्रिटिश सल्तनत के विरुद्ध राजे-रजवाड़ों की एकता की गाथा तो कभी पिंडारी योद्धाओं के प्रतिनिधि नायक वीर के माध्यम से देशभक्ति की कहानी नजर आती है। पटकथा में दो चूक और हुई हैं। सलमान का लंदन प्रवास मूल कथा से भटकाव को दर्शाता है। सलमान की मृत्यु का दृश्य अव्यवहारिक और आम दर्शक की मूल चाहत ‘हीरो की विजय‘ के विरुद्ध है। बिना मृत्यु दिखाए भी देश की एकता प्रकट की जा सकती थी।
पूरी फिल्म सलमान खान की है और वह शुरू से अंत तक फिल्म में छाये हुए हैं। उनका पिंडारी योद्धा तथा ब्रिटिश लुक दोनों अच्छे लगते हैं। पिंडारी कबीले के जन नायक ‘दद्दे‘ के रूप में मिथुन चक्रवर्ती ने कमाल का अभिनय किया है लेकिन सलमान खान की नयी खोज जरीन खान ने एक बहुत बड़े मौके को गंवा दिया। सलमान खान जैसे सुपर स्टार के अपोजिट इतने विशाल बजट की फिल्म में इतना लंबा रोल मिलना लॉटरी लग जाने जैसा था। लेकिन न तो अपने ‘लुक‘ और बॉडी लैंग्वेज से जरीन ने प्रभावित किया और न ही अपनी अभिनय प्रतिभा से। प्रचारित हुआ था कि वह कैटरीना कैफ जैसी हैं। लेकिन ऐसा नहीं है। कभी कभी एक धूमिल सी झलक में वह कैटरीना जैसी नजर आती हैं लेकिन सौंदर्य और अभिनय दोनों में वह कैटरीना से कोसों दूर हैं। एक जमाने के बाद अभिनय सम्राट राजकुमार के बेटे पुरू को पर्दे पर काम करते देख सुखद लगा। नीना गुप्ता भी जंचती हैं।
बेहतरीन ढंग से संगीतबद्ध किये हुए ताजगी भरे गीत फिल्म की विशेष उपलब्धि हैं जिसके लिए दर्शकों को गुलजार साहब का आभारी होना चाहिए। ‘वीर‘ अपनी भारी लागत वसूल पायेगी या नहीं, यह वक्त और दर्शक तय करेंगे लेकिन सलमान की फिल्मोग्राफी में एक और उल्लेखनीय फिल्म की संख्या बढ़ गयी है। देख लें।
निर्माता: वियज गलानी
निर्देशक: अनिल शर्मा
कलाकार: सलमान खान, सोहेल खान, मिथुन चक्रवर्ती, नीना गुप्ता, जरीन खान, पुरू राजकुमार
गीत: गुलजार
संगीत: साजिद-वाजिद