Saturday, October 29, 2011

रा.वन

फिल्म समीक्षा

फिल्म समीक्षा

दिल से नहीं तकनीक से ‘रा.वन‘

लगभग दो सौ करोड़ रुपए खर्च कर के बनायी गयी भव्य ‘रा.वन‘ अपनी लागत भले ही निकाल ले या उससे दो कदम आगे बढ़कर दो-चार गुना ज्यादा मुनाफा भी कमा ले लेकिन यह फिल्म न तो दर्शकों के दिल को छूती है और न ही शाहरुख खान की प्रतिभा में कोई इजाफा करती है। यह दिल से बनी हुई फिल्म नहीं है जिसके लिए शाहरुख खान पूरी दुनिया के दर्शकों के दिलों पर राज करते हैं। जो लोग शाहरुख खान को कुछ कुछ होता है, कभी हां कभी ना, कल हो ना हो, मोहब्बतें, देवदास, मैं हूं ना, वीर जारा, चक दे इंडिया और दिल से के लिए दिल दिए बैठे हैं वे ‘रा.वन‘ देखकर एक विराट उदासी से भर जाएंगे क्योंकि ‘रा.वन‘ शुद्ध रूप से एक साइंस फिक्शन है जिसमें तकनीक राज करती है। जिन दर्शकों का विज्ञान से राई-रत्ती का भी नाता नहीं है उनके लिए तो यह फिल्म एक अजीबो गरीब पहेली जैसी है। लगभग इंटरवल तक तो फिल्म पूरी तरह कम्प्यूटर की बारीकियों, उच्च तकनीक वाले वीडियो गेम, विज्ञान की गुत्थियों और बुराई के प्रतीक रा.वन तथा अच्छाई के प्रतीक जी.वन के निर्माण की प्रक्रिया में ही उलझी रहती है। बुराई का प्रतीक बना रा.वन शाहरुख खान द्वारा निर्मित गेम से बाहर आ जाता है और खुद अपनी मर्जी का मालिक बन बैठता है। उससे उलझने के दौरान शाहरुख खान मारा जाता है। पीछे छूट जाती है उसकी पत्नी करीना कपूर और उसका बेटा अरमान वर्मा। चूंकि अरमान ने गेम बीच में ही छोड़ दिया था इसलिए गेम से बाहर निकले रा.वन को अरमान की तलाश है ताकि वह उसे मार कर गेम पूरा कर सके। शाहरुख खान ने रा.वन के साथ-साथ अच्छाई के प्रतीक जी.वन का भी निर्माण किया था। अरमान इस जी.वन को गेम के भीतर से खोज निकालता है और उसे भी रा.वन की तरह गेम के बाहर वास्तविक दुनिया में ले आता है। यह जी.वन जो हू-ब-हू शाहरुख खान की कॉपी लगता है, अरमान और करीना की कदम कदम पर रक्षा करता है। फिर जैसा कि होना चाहिए अंतिम मुकाबले में जी.वन रा.वन को नष्ट कर देता है और स्वयं भी इस नश्वर दुनिया से विदा लेता है। फिल्म को नीरसता से बचाने के लिए फ्लैश बैक का इस्तेमाल किया गया है। फ्लैश बैक में शाहरुख खान का पारिवारिक जीवन दर्शाया गया है जिसमें करीना कपूर के साथ उसका रोमांस भी शामिल है। अगर यह हिस्सा नहीं रखा गया होता तो पता नहीं फिल्म का क्या बनता। इस संवेदनशील हिस्से ने शाहरुख खान की प्रतिष्ठा की लाज रख ली है। इसी हिस्से में शाहरुख और करीना का ‘छमक छल्लो‘ वाला महा पॉपुलर आइटम नंबर भी है। इस गाने और डांस से करीना अपने दर्शकों का दिल जीत लेती हैं। कुल मिलाकर एक बड़ी फिल्म है जो हमें एक नए अनुभव से गुजारती है।

निर्देशक: अनुभव सिन्हा
कलाकार: शाहरुख खान, करीना कपूर, अर्जुन रामपाल, अरमान वर्मा, सतीश शाह, शहाना गोस्वामी।
संगीत: विशाल-शेखर

Monday, October 17, 2011

माई फ्रेंड पिंटो

फिल्म समीक्षा

खुशी बांटता ‘माई फ्रेंड पिंटो’

धीरेन्द्र अस्थाना

आखिर प्रतिभाशाली युवा अभिनेता प्रतीक बब्बर के व्यक्तित्व को अभिव्यक्त करता हुआ एक चरित्र निर्देशक राघव डार ने खोज निकाला। राघव की फिल्म ‘माई फ्रेंड पिंटो’ में प्रतीक बब्बर का किरदार प्रतीक को एक नयी ऊंचाई और संभावना देगा। एक बार फिर सिद्ध हुआ कि अगर जरा भी अलग और फ्रेश सी कहानी हो तो बिना महंगे बजट और स्टार कास्ट के एक बेहतर फिल्म बनायी जा सकती है। ‘माई फ्रेंड पिंटो’ एक फन फिल्म है जो आपके ज्ञान या संवेदना में कोई इजाफा नहीं करती। लेकिन जितनी देर आप हॉल में हैं, पूरी तरह फिल्म में डूबे रहते हैं। पर्दे पर घटती घटनाओं का न सिर्फ मजा लेते रहते हैं बल्कि खुद को भी फिल्म का हिस्सा मानने लगते हैं। अपने रचना कर्म में दर्शकों को भी शामिल कर लेने का अच्छा कौशल राघव डार ने पेश किया है। यह एक रात की फिल्म है। प्रतीक अपने दोस्त से मिलने माया नगरी मुंबई आता है जहां शहर में विभिन्न जगहों पर घट रही अजीबो गरीब घटनाएं उससे टकराती हैं। इस एक रात में वह अपने दोस्त अर्जुन माथुर की नकचढ़ी और महत्वाकांक्षी बीबी से टकराता है। डॉन मकरंद देशपांडे से टकराता है। डांसर बनने मुंबई आयी कलकी कोचलिन से टकराता है। कुछ और भी जरूरी-गैर जरूरी चरित्र उसके जीवन में उस रात उतरते हैं। वह सबको खुश रखने का प्रयास करता है। मुंबई में वह खुद को बहुत ‘मिसफिट’ पाता है लेकिन अपनी मासूमियत से सबका दिल लूट लेता है, सबकी मदद करता है। एक घटना प्रधान फिल्म है जो बेहद मनोरंजक तथा दिलचस्प भी है। इंटरवल तक फिल्म को ले कर भ्रम बना रहता है कि यह क्या कहना चाहती है लेकिन इंटरवल के बाद फिल्म न सिर्फ गति पकड़ती है बल्कि एक शेप भी लेती जाती है। कलकी कोचलिन और प्रतीक बब्बर में भले ही ग्लैमर न हो लेकिन ये दोनों भविष्य की बड़ी उम्मीद हैं। मकरंद देशपांडे और राज जुत्शी की कॉमेडी कहीं कहीं लाउड हो गयी है लेकिन बोझिल नहीं लगती। प्रत्येक चरित्र को उसकी जरूरत के मुताबिक ही स्पेस दिया गया है। प्रतीक और कलकी का बादलों में डांस करने का एक फंतासी दृश्य लुभावना है तो फिल्म के गीतों में ताजगी तथा युवापन। युवा दर्शकों के लिए एक खुशनुमा और जिंदादिल फिल्म-लीक से हट कर।

निर्देशक: राघव डार
कलाकार: प्रतीक बब्बर, कलकी कोचलिन, दिव्या दत्ता, मकरंद देशपांडे, राज जुत्शी, अर्जुन माथुर
संगीत: अजय गोगावले, अतुल गोगावले, समीर टंडन, कविता सेठ

Saturday, October 8, 2011

रास्कल्स

फिल्म समीक्षा

‘रास्कल्स‘ देखो और भूल जाओ

धीरेन्द्र अस्थाना

संजय दत्त के होम प्रोडक्शन की पहली फिल्म थी इसलिए उन्होंने ऐसा कोई रिस्क लेना उचित नहीं समझा कि मामला घर फूंक तमाशा जैसा बन जाए। ‘रास्कल्स‘ का निर्देशन उन्होंने डेविड धवन को सौंपा जो ‘माइन्डलेस कॉमेडी‘ के उस्ताद हैं। डेविड धवन को सिनेमा की सार्थकता वगैरह में कोई दिलचस्पी नहीं है। वह चाहते हैं कि दर्शक उनकी फिल्म देखने आए। सिनेमा हॉल में फिल्म देखने के बाद खुश खुश घर जाए और मस्त रहे। ‘रास्कल्स‘ उनके इस उद्देश्य को पूरा करती है। फिल्म को देखने जाते समय दिमाग घर छोड़ जाएं, उसकी ‘रास्कल्स‘ में कोई जरूरत नहीं है। कौन, कहां क्यों है, क्या कर रहा है, क्यों कर रहा है, कैसे कर पा रहा है इस सब झमेले में नहीं पड़ना है। केवल अधनंगे जिस्मों को देख आंखें सेंकनी हैं, मजेदार संवाद सुनने हैं, अदभुत विदेशी लोकेशन्स देखनी हैं, कुछ मजेदार घटनाओं के कारण घटता हास्य एंजॉय करना है और इस यथार्थ का लुत्फ उठाना है कि संजय दत्त, अजय देवगन और कंगना रानावत जैसे प्रतिभाशाली कलाकार जो फैशन, वन्स अपऑन ए टाइम इन मुंबई, मुन्ना भाई एमबीबीएस, अपहरण, वास्तव तथा गंगाजल के कारण जाने जाते हैं, बाजार के सामने कितने लाचार नजर आते हैं! कंगना ने जिस कदर देह प्रदर्शन किया है उसे देख शायद अब कोई उन्हें फिर से इस तरह देखने की इच्छा में नहीं तड़पेगा। कहानी पर कोई बात अब तक इसलिए नहीं की गयी है क्योंकि इस फिल्म में कोई कहानी है ही नहीं। केवल कुछ घटनाओं को इकट्ठा कर उनका कोलाज जैसा बनाया गया है। अजय देवगन और संजय दत्त मुंबई के ठग टाइप के चरित्र हैं जो पूरी दुनिया में लोगों को ठगते हुए घूमते हैं और आपस में रंजिश भी रखते हैं। दोनों की जिंदगी में कंगना रानावत आती है। थोड़ी कॉमेडी और सेक्स कंगना को पटाने की प्रक्रिया में दिखाया जाता है। अर्जुन रामपाल का चरित्र डाल कर फिल्म को थ्रिलर का स्पर्श देने की भी कोशिश की गयी है। हास्य जुटाने के लिए एक टुकड़ा दृश्य में सतीश कौशिक को भी लपेटा गया है और जिस्मानी नुमाईश सजाने के लिए कंगना काफी नहीं थी तो लीसा हेडन को भी टपकाया गया है। आप बोर नहीं होंगे। हंसेंगे, मजा लेंगे और घर लौट आएंगे। कुछ लोग सिनेमा का यही मकसद समझते हैं। उनको यह फिल्म दशहरा उत्सव का गिफ्ट है।

निर्देशक: डेविड धवन
कलाकार: संजय दत्त, अजय देवगन, कंगना रानावत, सतीश कौशिक, अर्जुन रामपाल, लीसा हेडन
संगीत: विशाल-शेखर
गीत: इरशाद कामिल-अन्विता दत्त

Tuesday, October 4, 2011

फोर्स

फिल्म समीक्षा

जॉन की ‘फोर्स‘ में जान है

धीरेन्द्र अस्थाना

जिस तरह से सिनेमा हॉल भरा हुआ था उसे देख लगता है, कि आज की युवा पीढ़ी भी पिछली पीढ़ी की तरह एक्शन फिल्में देखने को तरजीह देती है। शायद इसीलिए इस वर्ष की तीनों एक्शन फिल्में ‘सिंघम’, ‘बॉडीगार्ड’ और ‘फोर्स’ बॉक्स ऑफिस पर भीड़ खींचने में सफल रहीं। जबकि तीनों फिल्मों के हीरो अलग अलग हैं - अजय देवगन, सलमान खान और जॉन अब्राहम। फोर्स में निशिकांत कामत ने मारधाड़ और रोमांस के अलावा एक बारीक सा कथा तत्व यह भी रखा है कि पुलिस फोर्स के लोग भी आम लोगों की तरह परिवार, इमोशंस और रोमांस को जीते हैं, जीना चाहते हैं। उनका प्यार उन्हें कमजोर भी बनाता है लेकिन मृत्यु के भय से वह जीने की चाहत नहीं छोड़ देते हैं। फिल्म को निशिकांत कामत ने कहीं भी ढीला नहीं छोड़ा है। कहीं एक्शन, तो कहीं संवाद तो कहीं अभिनय के जरिये पूरी फिल्म लगातार देखे जाते जाने की अनिवार्यता में तनी रहती है। यूं ‘फोर्स‘ भी पूरी तरह मसाला फिल्म है। एक तरफ ‘ड्रग्स’ का धंधा करने वाले गिरोह और उनके खूंखार गुंडे, दूसरी तरफ पुलिस के जांबाज अधिकारी और दोनों के बीच चल रही खतरनाक जंग। इस जंग के समानांतर चलती जॉन अब्राहम और जेनेलिया डिसूजा की खामोश लव स्टोरी, जिसे जेनेलिया अपने चुलबुलेपन से रसीला बनाये रखने की भरपूर कोशिश करती है। फिल्म का अंत तो परंपरा के मुताबिक गुंडों के संपूर्ण सफाये के साथ ही होता है, लेकिन पुलिस फोर्स के प्रमुख लोग भी इस जंग में शहीद होते हैं। यहां तक कि जॉन की प्रेमिका जेनेलिया डिसूजा भी। जॉन की बाहों में मरते हुए जब वह कहती है, ‘तुम्हारी बांहों में चैन से मरने का अंतिम सपना तो पूरा हो गया, लेकिन बाकी तमाम सपने रह गये’ तो फिल्म एक कारुणिक अध्याय का पन्ना पलट देती है। विद्युत जामवाल के रूप में हिंदी सिनेमा को एक नया, ओजस्वी खलनायक मिला है जो खतरनाक होने के साथ साथ कूल भी है। लेकिन जॉन अब्राहम के अपोजिट गुड़िया जैसी जेनेलिया की जोड़ी जम नहीं पायी। अपनी तरफ से जेनेलिया ने अभिनय में कोई कसर नहीं छोड़ी, मगर इसका क्या करें कि लंबे चौड़े डील डौल वाले जॉन के सामने वह बच्ची जैसी नजर आती रही। गीत जावेद अख्तर के हैं। जाहिर है कि वे अच्छे हैं। कुछ संवाद भी ध्यान खींचते हैं। मार धाड़ पसंद करने वाले दर्शक इसे भी देख लें। फिल्म निराश नहीं करेगी।

निर्देशक: निशिकांत कामत
कलाकार: जॉन अब्राहम, जेनेलिया डिसूजा, विद्युत जामवाल, राज बब्बर
गीत: जावेद अख्तर
संगीत: हैरिस जयराज/ललित पंडित