Saturday, February 27, 2010

तीन पत्ती

फिल्म समीक्षा

जटिल है ‘तीन पत्ती‘ का समीकरण

धीरेन्द्र अस्थाना

लीना यादव द्वारा निर्देशित फिल्म ‘तीन पत्ती‘ से ढेर सारी खबरें जुड़ी हुई हैं। इस फिल्म से दो विराट अभिनेता जुड़े हैं। हॉलीवुड के सर बेन किंग्सले, जिन्होंने रिचर्ड एटेनबरो की विश्वविख्यात फिल्म ‘गांधी‘ में महात्मा गांधी का जादुई किरदार निभा कर इतिहास बनाया हुआ है। गांधी जी का उन जैसा रोल आज तक दूसरा कोई नहीं कर पाया है। बॉलीवुड के शहंशाह अमिताभ बच्चन, जिनका ताजा जादू हम पिछले साल 4 दिसंबर को रिलीज हुई यादगार फिल्म ‘पा‘ में देख चुके हैं। इस फिल्म से हिंदुजा परिवार की युवती अंबिका हिंदुजा ने बतौर प्रोड्यूसर बॉलीवुड में प्रवेश किया है। फिल्म में बड़े पैमाने पर लगा हुआ पैसा जगह-जगह बोलता है। फिल्म में कलाकारों की भीड़ है हालांकि मुख्य कहानी अमिताभ बच्चन, आर. माधवन और उनके तीन छात्रों ध्रुव गणेश, सिद्धार्थ खेर तथा श्रृद्धा कपूर के इर्द-गिर्द ही घूमती है। मशहूर खलनायक शक्ति कपूर की बेटी श्रृद्धा कपूर की यह पहली फिल्म है और उसने अपने रोल के लिए भरपूर मेहनत की है। कई दृश्यों में श्रृद्धा की प्रतिभा कौंधती है। विशेष भूमिकाओं में शक्ति कपूर, मीता वशिष्ठ और महेश मांजरेकर प्रभावित करते हैं। केवल आधे मिनट का दृश्य भी मीता वशिष्ट ने विशिष्ट बना दिया है। फिल्म की कहानी, पटकथा और संवाद भी मुख्यतः लीना यादव के हैं। और यही इस फिल्म का जटिल पक्ष है। लीक से हट कर फिल्म बनाना चुनौतीपूर्ण, साहसिक और प्रशंसनीय है। लेकिन संप्रेषण के स्तर पर इतना जटिल और दुरूह भी नहीं हो जाना चाहिए कि दर्शक फिल्म का मर्म और मकसद ही न समझ पायें। इस फिल्म की यही एक सबसे बड़ी सीमा है कि इसमें जो समीकरण उठाया गया है वह कायदे से सुलझ नहीं पाया है।
अमिताभ बच्चन गणित के प्रोफेसर हैं। अपनी एक ‘थ्योरी‘ को ‘प्रेक्टिकली सॉल्व‘ करने के लिए वह जुए को बतौर माध्यम चुनते हैं। लेकिन अपने तीनों छात्रों और साथी प्रोफेसर माधवन के बीच पनप गये पैसे के लालच के कारण वह किसी ब्लैकमेलर का शिकार हो जाते हैं और निरंतर जुआ खेलने पर मजबूर होते हैं। फिल्म के अंत में एक छात्र की आत्म हत्या के बाद उसके ‘सुसाइडल नोट‘ से ‘तीन पत्ती‘ का सस्पेंस खुलता है। आर. माधवन का ‘कन्फेशन‘ पूरी फिल्म की उलझन को सुलझाने की चाबी है। लेकिन दिक्कत यह है कि यहां तक पहुंचते-पहुंचते दर्शक थक चुका होता है। हमारे कई निर्देशक अक्सर यह भूल जाते हैं कि मल्टीप्लेक्स के दर्शक अपेक्षाकृत पैसे वाले जरूर होते हैं लेकिन वे दार्शनिक भी हों, यह जरूरी नहीं है। तमाम कलाकारों ने जम कर अपना श्रेष्ठ प्रदर्शन किया है लेकिन राईमा सेन से कुछ नहीं करवाया गया। बिग बी के कारण फिल्म देख लें।

निर्देशक: लीना यादव
कलाकार: अमिताभ बच्चन, सर बेन किंग्सले, आर. माधवन, श्रृद्धा कपूर, धु्रव गणेश, सिद्धार्थ खेर, वैभव तलवार, शक्ति कपूर, महेश मांजरेकर
संगीत: सलीम-सुलेमान

Saturday, February 20, 2010

तो बात पक्की

फिल्म समीक्षा

कच्ची रह गयी ‘तो बात पक्की‘

धीरेन्द्र अस्थाना

दुनिया जानती है कि तब्बू एक सशक्त और संवेदनशील अभिनेत्री हैं। उनके नाम के साथ अपने अपने समय की कुछ श्रेष्ठ, मर्मस्पर्शी और महत्वपूर्ण फिल्में जुड़ी हैं। वह दो बार राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता भी रह चुकी हैं। तो फिर उन्होंने ‘तो बात पक्की‘ जैसी अत्यंत साधारण फिल्म में काम करना क्यों पसंद किया, यह तो वही बता सकती हैं। उन्होंने बताया भी है कि वह काॅमेडी फिल्म करना चाहती थीं इसलिए इस फिल्म को किया। तब्बू का तर्क अपनी जगह है लेकिन हकीकत यही है कि इस बार तब्बू फिल्म को चुनते वक्त चूक गयीं। जो फिल्म कई जगह से कच्ची है उसमें काम करके तब्बू को कुछ भी उपलब्ध नहीं हुआ है। हुआ यह कि जो थोड़े बहुत लोग तब्बू के कारण सिनेमा हाॅल पहुंचे उन्हें तब्बू के हल्के-फुल्के, मजाकिया किरदार ने निराश ही किया। यह तो सब जानते हैं कि कमर्शियल सिनेमा बहुत ज्यादा तर्कपूर्ण नहीं होता लेकिन कोई फिल्म इतनी भी अतार्किक नहीं होती कि कहानी के नाम पर कुछ भी पेश कर दिया जाए। हजार बारह सौ किराये के लिए तड़पने वाली तब्बू महल जैसे आलीशान घर में रहती है। किसी भी तरह छोटी बहन की सही जगह शादी फिट करने के जुगाड़ में लगी बड़ी बहन के किरदार को तब्बू ने भरसक बेहतर ढंग से निभाया है लेकिन खुद किरदार में ही दम न हो तो कलाकार भी क्या और कितना कर लेगा? यही कारण है कि अनुभवी और परिपक्व तब्बू को शुरू से अंत तक शरमन जोशी जैसा नया कलाकार टक्कर देता नजर आता है। अगर कहा जाए कि जगह जगह गिरती फिल्म को शरमन जोशी ही बार बार उठाता नजर आता है तो गलत न होगा। तब्बू और शरमन के बीच में वत्सल सेठ अपना ‘स्पेस‘ ही नहीं बना पाया है। इंटरवल तक फिल्म ठीक-ठाक चलती है लेकिन उसके बाद जो पटरी से उतरी तो फिर उतरी ही रही। ठेल-ठाल कर किसी तरह फिल्म को निपटा दिया गया। काॅमेडी फिल्म बनाना हंसी खेल नहीं है। काॅमेडी में भी कहानी तथा पात्रों को एक तार्किक परिणति तक पहुंचाना होता है। सबसे बड़ी बात, काॅमेडी में घटनाओं, पात्रों, स्थितियों को वास्तविक और विश्वसनीय लगना चाहिए। ‘तो बात पक्की‘ इनमें से कोई अपेक्षा पूरी नहीं करती। इसीलिए तब्बू और शरमन के बावजूद यह एक साधारण फिल्म बन कर रह गयी है।

निर्देशक: केदार शिंदे
कलाकार: तब्बू, शरमन जोशी, वत्सल सेठ, उविका चैधरी, हिमानी शिवपुरी
संगीत: प्रीतम चक्रवर्ती

Saturday, February 13, 2010

माई नेम इज खान

फिल्म समीक्षा

अद्भुत और अनूठी माई नेम इज खान

धीरेन्द्र अस्थाना

जैसे अमिताभ बच्चन की फिल्म ‘पा‘ का महत्व उसे देख कर ही समझा जा सकता है ठीक उसी तरह ‘माई नेम इज खान‘ का महत्व समझने के लिए उसे देखना जरूरी है। आम मुंबईकरों ने इस फिल्म को पुलिस के पहरे में टूट कर देखा। खबर है कि मुंबई के जिस भी सिनेमाघर में फिल्म चली वहां पहले दिन का प्रत्येक शो हाउसफुल था। आम जनता के ऐसे लाड़-दुलार की उम्मीद तो शायद फिल्म के निर्देशक करण जौहर और फिल्म के कलाकारों - शाहरुख खान, काजोल, जरीना वहाब को भी नहीं रही होगी। 12 फरवरी को मुंबई में जनता जीत गयी और राजनीति हार गयी।
कुछ भटकावों, विचलन और अतियों को नजरअंदाज कर दें तो ‘माई नेम इज खान‘ एक अनूठे अनुभव की यात्रा पर ले जाती है। फिल्म के केंद्र में रिजवान खान नामक एक युवक है जो एसपर्जर सिंड्रोम नामक बीमारी से पीड़ित है। इस बीमारी के बावजूद यह युवक (शाहरुख खान) अमेरिका जाता है, जहां उसका छोटा भाई जिमी शेरगिल एक कामयाब बिजनेसमैन है। छोटे भाई के ब्यूटी प्रोडक्ट बेच कर शाहरुख अपना जीवन आरंभ करता है और एक तलाकशुदा तथा एक बच्चे की मां काजोल से प्यार करने लगता है। शाहरुख की मासूमियत, सच्चाई और अपने बेटे के प्रति उसके प्यार को देख काजोल भी शाहरुख को चाहने लगती है और दोनों विवाह कर लेते हैं। इसके बाद घटता है वह हादसा जिसने अमेरिका ही नहीं पूरी दुनिया के भाईचारे और अमन चैन की बुनियाद ही तहस नहस कर दी। अमेरिका के वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर हुए आतंकवादी हमले ने रिश्तों के समीकरण ही गड़बड़ा दिए। एक मजहबी हमले में शाहरुख-काजोल का बेटा मारा गया। काजोल शाहरुख से विमुख हो गयी और शाहरुख के जीवन का एक ही मकसद रह गया - अमेरिकी राष्ट्रपति से मिलना और उनसे कहना ‘मिस्टर प्रेसीडेंट, माई नेम इज खान ऐंड आई एम नॉट ए टेरेरिस्ट।‘
शाहरुख खान, काजोल और जरीना वहाब ने अपने किरदारों को ‘विस्मय‘ में बदल दिया है। तीनों का अभिनय ‘परकाया प्रवेश‘ का जीवंत उदाहरण है। करण जौहर ने कहीं भी अपनी पकड़ कमजोर नहीं पड़ने दी है। शाहरुख खान के रिजवान खान वाले किरदार को महिमा मंडित करने के लिए उन्होंने कुछ ज्यादा ही कसरत कर दी है इसके बावजूद फिल्म बोझिल और अविश्वसनीय नहीं है। यह मनोरंजक नहीं, मकसद वाली फिल्म है और जिस मकसद से यह बनायी गयी, वह कामयाब हो गया है। फिल्म का एकमात्र संदेश है - दुनिया में दो ही तरह के लोग होते हैं। अच्छे लोग और बुरे लोग। फिल्म को अवश्य देखें।

निर्देशक: करण जौहर
कलाकार: शाहरुख खान, काजोल, जरीना वहाब, जिमी शेरगिल, सोनिया जहान, विनय पाठक
संगीत: शंकर-अहसान-लॉय

Tuesday, February 9, 2010

सिनेमा में भी एक प्रेम रहता है

सिनेमा में भी एक प्रेम ‘रहता‘ है

धीरेन्द्र अस्थाना

वैज्ञानिक और तकनीकी तरक्की के साथ जिंदगी में दबे पांव दाखिल हुए ग्लोबलाइजेशन ने लाइफ स्टाइल के अलावा विचार और संवेदना को भी गहरे स्तर पर प्रभावित किया है। व्यापक जन समुदाय तक पहुंच रखने वाला विराट माध्यम सिनेमा इससे कैसे अप्रभावित रहता? सिनेमा के पास चार-पांच शाश्वत विषय हैं जिनमें ढाई अक्षर का ‘प्रेम‘ सर्वोपरि है। समय बदला, समाज बदला, विचार बदले, सरोकार बदला तो सिनेमा में प्रेम के साथ होने वाला सुलूक और अंदाज भी बदला। राजेन्द्र कुमार-राज कूपर-वैजयंती माला की ‘संगम‘, राजेश खन्ना-शर्मीला टैगोर की ‘अमर प्रेम‘, अमिताभ बच्चन-रेखा की ‘सिलसिला‘, संजीव कुमार-शर्मीला टैगोर की ‘मौसम‘, कमल हासन-श्रीदेवी की ‘सदमा‘ तथा ऋषी कपूर-डिंपल कपाड़िया की ‘बॉबी‘ जैसी प्रेम कहानियां बीते जमाने की मील का पत्थर भर रह गयीं क्योंकि इस बीच सिनेमा का बड़ा दर्शक वर्ग यानी ‘टार्गेट ओडियंस‘ युवा हो गया था। शॉपिंग मॉल्स , कॉरपोरेट कल्चर, मल्टीप्लेक्स, कॉल सेंटर, मोबाइल फोन, इंटरनेट, पब, डांस बार वगैरह वगैरह के आक्रामक लेकिन मखमली अंधेरों में जवान हुई, संख्या की दृष्टि से निर्णायक बन चुकी युवा पीढ़ी सबके निशाने पर आ गयी थी। ‘पल-पल दिल के पास तुम रहती हो‘ जैसे गाने इस पीढ़ी को ‘बोरिंग‘ और हास्यास्पद लग रहे थे और इस लगने में ‘लड़का-लड़की‘ दोनों शामिल थे। मोटर बाइक्स की तूफानी रफ्तार को पसंद करने वाली यह पीढ़ी प्यार में भी रफ्तार और छीन झपट की कायल थी। इसीलिए जब शाहरुख खान को प्यार के लिए विलेन बनने पर राजी करने वाली फिल्म ‘बाजीगर‘ आयी तो युवा दर्शक उस पर टूट पड़ा। यह फिल्म युवाओं के लगभग हिंसक प्रेम को आईना ही नहीं दिखाती थी, उसका समर्थन भी करती थी। फिल्म के सुपर डुपर हिट होने से बॉलीवुड निर्माताओं के दिमाग ठनक गये। वह मान गये कि सिनेमा में जो प्रेम रहता है उसके साथ नये बर्ताव का समय आ पहुंचा है। इस बीच दो परिवर्तन समानांतर हुए। कॉल सेंटरों में मर-खप रही युवा पीढ़ी में प्यार की एक नयी परिभाषा और अभिलाषा ने जन्म लिया। दिन में मिलो, रात में मौज-मस्ती करो, सुबह भूल जाओ। दो-चार बार डेटिंग करो। चार छह रातें बिस्तर पर गुजारो। मन मिले तो साथ रहो। न मिले तो अपना-अपना रास्ता नापो। प्रेम के इस दर्शन को नयी पीढ़ी ने नाम दिया ‘वन नाइट स्टैंड‘ और ‘लिव इन रिलेशनशिप‘। सिनेमा चूंकि बड़े दर्शक समूह का माध्यम है इसलिए वह प्यार के इस दर्शन का तो ताबड़तोड़ प्रदर्शन नहीं कर सका लेकिन उसने प्यार की नयी जमीन पर खड़े होना शुरू कर दिया। पिछले वर्ष 31 जुलाई को रिलीज सैफ अली खान-दीपिका पादुकोन स्टारर हिट फिल्म ‘लव आज कल‘ में तो बाकायदा आज के और बीते समय के प्यार का रोचक लेकिन तुलनात्मक अध्ययन पेश किया गया। इम्तियाज अली द्वारा निर्देशित इस फिल्म में दो युवाओं के प्यार को दो कालखंडों में पेश करके प्रेम की नयी-पुरानी व्याख्या को अंजाम दिया गया। एक सन् पैंसठ की दिल्ली है जिमसें ऋषी कपूर प्रेम करते हैं। एक सन् 2009 का लंदन है जिसमें सैफ-दीपिका का फटाफट प्यार है। इस मोहब्बत के बीच में विलेन बन कर खड़े हैं दोनों के करियर। दोनों सहर्ष अलग होते हैं। दोस्तों को ब्रेकअप पार्टी देते हैं। दोस्त भ्रमित हैं। इस मौके पर बधाई दें या अफसोस प्रकट करें। गिफ्ट क्या दें? ब्रेकअप पार्टी की यह अवधारणा दिलचस्प और अनूठी है। यह ब्रेकअप प्रतिबद्धता से पलायन का दर्शन है। नो डिमांड, नो कमिटमेंट। फिल्म में ऋषी कपूर का जुमला ‘प्यार एक ही बार होता है‘ अंतिम सत्य निकला। लेकिन यह फिल्म का अंतिम सत्य है, समाज का नहीं। ‘लार्जर दैन लाइफ‘ वाले फार्मूले पर टिकी फिल्म इंडस्ट्री में प्यार, प्रेम, इश्क, मोहब्बत को परिभाषित करने का नया जुनून, नयी जिद और नया उन्माद शिखरों पर जा बैठा।
प्रयोगधर्मी फिल्मकार अनुराग कश्यप की फिल्म ‘देव डी‘ ने तो प्यार की रोमानी छवि को ही तहस नहस कर दिया। उन्होंने ‘देवदास‘ की प्रचलित प्रतिमा का विध्वंस कर डाला। अनुराग ने ‘देव डी‘ में एक थीसिस यह दी कि देव ‘नारसिसस‘ है यानी ऐसा शख्स जो संसार में किसी से प्यार नहीं करता। वह सिर्फ खुद से मोहब्बत करता है। यह देवदास पारो के गम में शराब पी कर खून की उल्टियां करने वाला युवक नहीं है। यह एक नया देवदास है जो प्यार में शहीद होने को राजी नहीं है। यह फिल्म चल निकली तो निर्माताओं को लगा कि प्यार की नयी व्याख्या स्वीकार्य है। अब तो वह सिनेमा में रहने वाले पुराने प्रेम की तरफ से पूरी तरह पीठ फेर चुके हैं।
सिनेमा में प्यार की कुछ अलग तस्वीर पेश करने वाली हालिया फिल्मों में हम शाहरुख खान-अनुष्का शर्मा की ‘रब ने बना दी जोड़ी‘ करण जौहर निर्मित ‘दोस्ताना‘, अब्बास टायरवाला निर्देशित इमरान खान-जेनेलिया डिसूजा अभिनीत ‘जाने तू या जाने ना‘, तनूजा चंद्रा की ‘होप ऐंड ए लिटिल शुगर‘, फराह खान निर्देशित ‘ओम शांति ओम‘, संजय लीला भंसाली की ‘सांवरिया‘, आर बालकी की अमिताभ-तब्बू अभिनीत ‘चीनी कम‘, अनुराग बसु निर्देशित ‘मैट्रो‘ और राम गोपाल वर्मा की अमिताभ बच्चन अभिनीत ‘निःशब्द‘ का जिक्र कर सकते हैं। ये सभी फिल्में सिनेमा में बरसों से चले आ रहे प्यार के पुराने फलसफे को नकार कर नया मिजाज, नया मौसम और नया संस्कार रचने के संघर्ष में मुब्तिला हैं।
लेकिन...। और यह लेकिन एक विराट तथा बुनियादी शंका है कि क्या ‘प्यार‘ जैसा दुर्लभ, कीमती और असाधारण अहसास तमाम तकनीकी क्रांतियों के बावजूद अपनी मूल स्थापनाओं को अपदस्थ कर पाया है। शायद नहीं । साहित्य में तो वर्षों पहले कथाकार ममता कालिया ने घोषणा कर दी थी -‘प्यार शब्द घिसते घिसते चपटा हो गया है। हमारी समझ में अब सिर्फ सहवास आता है।‘ लेकिन सामाजिक जीवन में ऐसा हुआ क्या? शायद नहीं हुआ। इसकी तस्दीक करती है अभी अभी रिलीज हुई विशाल भारद्वाज निर्मित अभिषेक चैबे की फिल्म ‘इश्किया‘। इस फिल्म में मामा (नसीरुद्दीन शाह) और भांजा (अरशद वारसी) एक ही लड़की (विद्या बालन) से सच्चा इश्क कर बैठते हैं। इश्क के इस संग्राम में भांजे की जीत होती है और मामा हार जाता है। युवा धड़कनों का यह प्यार ही अप्रतिम और अजेय है। इस प्यार को कोई प्रयोग पराजित नहीं कर सकता। इसलिए सिनेमा हो या जीवन, मोहब्बत जिंदाबाद ही प्यार का इकलौता सच और विमर्श है।