Sunday, November 30, 2014

उंगली

फिल्म समीक्षा

नेक इरादों की थकी उंगली

धीरेन्द्र अस्थाना

नेक इरादों को लेकर थकी पटकथा के साथ बनायी गयी एक औसत फिल्म। करण जौहर के धर्मा प्रोडक्शन से ऐसी फिल्म निकलने की उम्मीद नहीं थी। कलाकारों के नाम देख कर दर्शक ज्यादा बड़ी उम्मीदें ले कर न जाएं। करप्ट सिस्टम के खिलाफ हिंदी में एक से एक नायाब फिल्में बनी हैं। यह फिल्म भी उसी कतार में है लेकिन पिछली पंक्ति में। सिस्टम से लड़ने के लिए निर्देशक ने एक नया और युवा अंदाज जरूर चुना लेकिन उसे एक बेहतरीन अमली जामा नहीं पहना पाए। कंगना के भाई को एक बड़े फिक्सर का बेटा जान से मारने की कोशिश करता है। भाई कोमा में चला जाता है। न पुलिस में फरियाद होती है न न्याय में। हर जगह करप्शन है या बाहुबल है। क्रिमिनल तो बन नहीं सकते इसलिए सिस्टम को सुधारने के लिए चार दोस्त मिल कर उंगली गैंग बनाते हैं। इस गैंग में हैं कंगना रनौत, रणदीप हुडा, अंगद बेदी और नील भूपलम। एसएम जहीर दो साल से पेंशन दफ्तर के चक्कर काट रहे हैं मगर उन्हें पैसे नहीं मिलते। ये पेंशन बाबू बनते हैं उंगली गैंग के पहले शिकार। उंगली गैंग इन्हें अगवा करके इनके शरीर में नकली बम बांध कर स्टेडियम में दौड़ने को कहता है-इस धमकी के साथ कि अगर वे रूके तो बम फट जाएगा। फिर इसकी खबर वे पुलिस और मीडिया को दे देते हैं। पूरा देश खबर देखता है और उंगली गैंग पब्ल्कि के बीच लोकप्रिय हो जाता है। उनका दूसरा शिकार बनता है शहर का एक प्रभावशाली लेकिन करप्ट नेता जिसके जन्म दिन पर उंगली गैंग उसके घर के चप्पे चप्पे पर उंगली के पोस्टर लगवा देते हैं। उंगली गैंग को पकड़ने के लिए एसीपी काले यानी संजय दत्त को बुलाया जाता है जिसकी इमेंज पुलिस महकमें में एक इमानदार और सख्त पुलिस ऑफिसर की है। संजय अपनी मदद के लिए इस मिशन में इमरान हाशमी को शामिल करता है जो खुद भी एक सनकी पुलिस ऑफिसर है। इमरान उंगली गैंग में घुसने के लिए उंगली गैंग जैसे ही दो कारनामे करता है। पहला, लम्बा भाड़ा चाहने वाले ऑटो चालक को उसी के ऑटो में बांध कर माल गाड़ी से दिल्ली रवाना करने का। दूसरा, नगर पालिका कमिश्नर के घर के सामने वाली चमचमाती सड़क पर बम फोड़ कर सड़क को तहस नहस करने का। उंगली गैंग चक्कर में पड़ जाता है क्योंकि दोनो कारनामे उंगली गैंग के नाम पर हुए हैं। उंगली गैंग के सदस्य इमरान हाशमी से मिलते हैं और काफी पूछताछ तथा जांच पडताल के बाद इमरान को अपने गैंग में शामिल कर लेते हैं। इसके बाद की कहानी बतायी तो फिल्म में आप की दिलचस्पी खत्म हो जाएगी इसलिए फिल्म देखिए क्योंकि एक बार तो देखना बनता है। जो सरोकारों की फिल्म हो उसे एक बार तो देखना ही चाहिए। फिल्म वाले सिनेमाई लिबर्टी के नाम पर जो छूट ले लेते हैं वह कई बार बहुत कोफ्त पैदा करती है। इस फिल्म में भी पुलिस महकमें को ले कर ऐसी छूट ली गयी है। कभी भी कहीं भी पूरा काला या पूरा सफेद नहीं होता। अगर ऐसा हो तो देश चलना तो दूर रेंग भी नहीं सकता। लेकिन कोई बात नहीं। अच्छे इरादों की फिल्म है इसलिए यह छूट भी स्वीकार है।

निर्देशक : रेंसिल डिसिल्वा
कलाकारः संजय दत्त, इमरान हाशमी, रणदीप हुडा, कंगना रनौत, नेहा धूपिया, अंगद बेदी
संगीत : सलीम सुलेमान, सचिन जिगर




Wednesday, November 26, 2014

हैप्पी एंडिंग

फिल्म समीक्षा

ट्रेजेडी में बदली हैप्पी एंडिंग 

धीरेन्द्र अस्थाना

युवा पीढ़ी के कौन से सच का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं हिंदी सिनेमा वाले। अपनी जान पहचान के पूरे देश में जो सैकड़ों हजारों युवक हैं उनमें से तो एक भी ऐसा नहीं मिला जो लड़की के साथ केवल मौज मजा करना चाहता है, मगर कमिटमेंट या जिम्मेदारी से बचता है। एकाध ऐसे परिचित जरूर हैं जिन्होंने अपनी मर्जी से विवाह किया मगर विवाह के एक दो साल बाद ही रिश्ता टूट गया। लेकिन एक दो केस के आधार पर इसे नियम नहीं बनाया जा सकता कि नयी पीढ़ी के लड़के आत्मकेंद्रित, सेल्फिश और जिम्मेदारी से भागने वाले होते हैं। मगर फिल्म हैप्पी एंडिंग का सच और सार यही है। शायद इसी कारण यंग जेनरेशन ने फिल्म को नकार दिया। यूं भी जिस थॉट को फिल्म में स्टैब्लिश किया गया है उसका प्रतिनिधित्व सैफ अली खान नहीं अली जाफर या अली फजल जैसे एकदम नये कलाकार कर सकते हैं। सैफ अली अब वरिष्ठों की कतार में आ गये हैं। बहरहाल, सैफ अली अमेरिका में बसे एक लेखक हैं जिनका इकलौता उपन्यास बेस्ट सेलर बन कर बाजार में छा गया था। वह लड़कियों के साथ रिश्ते तो बनाते हैं पर उन पर टिकते नहीं। अमेरिका में उनका एक मात्र दोस्त रणवीर शौरी है। धीरे धीरे सैफ के सारे पैसे खत्म हो जाते हैं। उन्हें नया उपन्यास लिखने की प्रेरणा नहीं मिलती। इसी बीच मार्केट में एक नयी लेखिका आंचल का सिक्का जम जाता है। यह आंचल यानी इलियाना सैफ अली का नया प्यार या कहें नया शिकार है। मगर इलियाना खुद भी सैफ टाइप की ही है यानी उसे भी प्यार व्यार में कोई यकीन नहीं है। अमेरिका में कुछ दिन सैफ के साथ बिता कर जब वह इंडिया लौट जाती है तो सैफ को एहसास होता है कि उसे जिंदगी में पहली बार प्यार हो गया है। इस बीच वह सिंगल स्क्रीन के सुपर स्टार गोविंदा के लिए एक फिल्म की पटकथा लिख रहा है जो खुद उसी के जीवन पर आधारित है लेकिन फिल्म का अंत नहीं सूझ रहा है। इस अंत की तलाश में वह भारत जाता है और इलियाना से मिलता है। वहां वह यह साबित करने में कामयाब हो जाता है कि वह बदल गया है, उसकी सोच बदल गयी है। और वह सचमुच इलियाना के प्यार में उतर गया है। दोनों मिल जाते हैं और सैफ को अपनी फिल्म की हैप्पी एंडिंग मिल जाती है। वह पटकथा पूरी करता है जो गोविंदा पर शूट होती है। फिल्म में छोड़ी गयी प्रेमिकाओं के रूप में प्रिति जिंटा, करीना कपूर और कल्की कोचलीन है। सैफ और इलियाना समेत सभी कलाकारों ने उम्दा अभिनय किया है मगर सुस्त पटकथा और अतार्किक कहानी के चलते फिल्म एक ट्रेजेडी में बदल गयी है। गोविंदा और सैफ के जरिये प्रोडयूसर की दबंगई और डायरेक्टर की बेचारगी को दिलचस्प अंदाज में पेश किय गया है। दरअसल यही फिल्म की यूएसपी भी है। किल दिल के बाद गोविंदा एक बार फिर नये अवतार में हैं। लगता है उनकी दूसरी पारी शानदार होने वाली है। संपूर्णता में नहीं टुकड़ों मे फिल्म दिलचस्प है।

निर्देशक : डीके-राज
कलाकारः सैफ अली खान, इलियाना डिक्रूज, गोविंदा, रणवीर शौरी, कल्की कोचलीन, प्रिति जिंटा, करीना कपूर
संगीत : सचिन जिगर




Tuesday, November 18, 2014

किल दिल

फिल्म समीक्षा

एक कहानी कितनी बार 

धीरेन्द्र अस्थाना

 हिंदी का कमर्शियल सिनेमा बाजार के ऐसे दुश्चक्र में फंसा हुआ है कि लीक से थोड़ा भी इधर उधर होने का रिस्क उठाने से डरता है। हांलाकि इस डर का कोई बड़ा लाभ भी नहीं मिलता। फिल्म देखकर सामान्य दर्शक भी दो एक नेगेटिव कमेंट पास कर ही देते हैं। किल दिल के साथ भी यही ट्रेजडी घटित हुई है। पचासों बार फिल्मायी गयी कहानी एक बार फिर सामने है बस कलाकार नये हैं। कहानी में कोई नया डायमेंशन, कोई नयी उपकथा ही डाल देते तो भी कुछ राहत मिलती। नये ट्र्रैक के नाम पर इंटरवल के बाद कॉमेडी तड़का लगाया है जो बोरियत पैदा करता है। दो अनाथ बच्चे हैं जिन्हें एक डॉन पालता पोसता है। दोनों भागते भागते बड़े हो जाते हैं और डॉन के शूटर में बदल जाते हैं। दोनों जिगरी यार हैं। फिर एक की जिंदगी में एक लड़की का प्रवेश होता है। लड़की का साथ पा कर लड़के का सुधरने का मन करता है जिस कारण डॉन नाराज हो जाता है। तो भी बागी लड़का सुधार के रास्ते पर ही चलता जाता है और लड़की का दिल जीत लेता है। अब एंटी क्लाइमेक्स यह कि जब लडका सुधर जाता है तो लड़की को पता चल जाता है कि उसका आशिक तो शूटर था। लड़की रिश्ता तोड़ लेती है। फिर दो चार बेतुकी घटनाओं के बाद लड़का लड़की के प्यार की हैप्पी एंडिंग हो जाती है। डॉन का साम्राज्य नष्ट हो जाता है। इसी पुरानी कहानी को रणवीर सिंह, अली जफर और परिणति चोपड़ा जैसे नयी पीढ़ी के प्रतिभाशाली कलाकारों के जरिए फिर से पर्दे पर उतारा गया है। केवल अंग्रेजी में नाम रख देने से थोड़े ही अठारह से पच्चीस साल के युवक फिल्म देखने दौड़े चले आएंगे। डॉन बने गोविंदा ने भैयाजी के किरदार में पूरी फिल्म को लूट लिया। नहीं समझ आया कि जब गोविंदा इतना शानदार अभिनय कर सकते हैं तो फिर कई दफा फूहड़ कॉमेडी के शिकंजे में क्यूं फंस जाते हैं। रणवीर और अली पूरी दिल्ली में कहीं भी किसी भी गली, नुक्कड़, होटल, बाजार और कार में जा कर शूट कर आते हैं और शहर में प्रशासनिक स्तर पर कोई हरकत भी नहीं होती। कहीं कोई खबर भी नहीं चलती या छपती। फिल्म में गानों की भी भरमार है। शायद दो घंटे सात मिनट की फिल्म में चालीस पचास मिनट तो गानों के फिल्मांकन में निकल गये होंगे। यह अलग बात है कि गाने गुलजार के हैं इसलिए स्वाभाविक रूप से अच्छे हैं और शंकर अहसान लाय ने उन्हें बेहतर ढंग से संगीतबद्ध भी किया है। परिणति अपनी अदाओं को रिपीट कर रही है। ऐसा करने से उन्हें बचना चाहिए और बहन प्रियंका के बहुरंगी, बहुआयामी अभिनय से पाठ लेना चाहिए। लुटेरा और रामलीला जैसी फिल्मों के बाद रणवीर सिंह का किल दिल करना शोभा नहीं दिया। ऐसी फिल्में करेंगे तो उनके पास बी ग्रेड फिल्मों की कतार लग जाएगी। फिल्म को केवल गोविंदा के अभिनय के कारण देखा जा सकता है। शाद अली भी सोच लें कि उन्हें इम्तियाज अली, अनुराग कश्यप और विशाल भारद्वाज की तरह अपनी लकीर खींचनी है या फिर पिटी पिटाई राह पर चलना है।
निर्देशक : शाद अली
कलाकारः रणवीर सिंह, अली जाफर,परिणति चोपड़ा, गोविंदा
संगीत : शंकर अहसान लाय




रंगरसिया


फिल्म समीक्षा

रंगरसिया मन बसिया 

धीरेन्द्र अस्थाना

आखिर भारत के महान चित्रकार राजा रवि वर्मा के जीवन संघर्ष और कलात्मक प्रक्रिया पर आघारित केतन मेहता की फिल्म रंगरसिया छह साल के बाद सिनेमाघरों में रिलीज हो ही गयी। राजा रवि वर्मा के काल में देवी देवताओं की सिर्फ कल्पना की जाती थी । रवि वर्मा ने उन्हें चेहरे  दिए । एक जर्मन दोस्त की मदद से उन्होंने अपना खुद का प्रिंटिंग प्रेस खोला और प्रसिद्ध देवी देवताओं की पेंटिग्स के प्रिंट निकाल कर सस्ती दरों पर आम आदमी तक उपलब्ध करवाये। उन्होंने ईश्वर को कॉमन मेन के घरों तक पहुंचा दिया। रवि वर्मा दुनिया भर में प्रसिद्ध हो गये। उनकी यह शोहरत तत्कालीन धर्मगुरूओं को पसंद नहीं आयी। अपने जीते जी किंवदंति बन जाने वाले इस आम आदमी के पेंटर को न सिर्फ धर्म के ठेकेदारों का विरोध सहना पड़ा बल्कि उन पर अश्लीलता के आरोप का मुकदमा भी चला। उनके घर, स्टूडियो और प्रिंटिंग प्रेस को जलाने के प्रयत्न हुए। संभवतः वह पहले ऐसे भारतीय कलाकार थे जिन्हें कला और अभिव्यक्ति की आजादी के लिए इतना खतरनाक विरोध झेलना पड़ा। कुछ इलीट पेंटरों द्वारा राजा रवि वर्मा को केलेंडर आर्टिस्ट कह कर अपमानित किया गया। लेकिन इस सब से उनकी कलात्मक क्षमता और अमरता पर कोई असर नहीं पड़ा । आज भी राजा रवि वर्मा को एक महान पेंटर के तौर पर ही याद किया जाता है। इन्हीं रवि वर्मा के जीवन पर फिल्म बना कर केतन मेहता ने एक बड़ा काम  किया है।़ उन्होंने एक छोटे से दायरे में सिमटे पेंटर को ठीक उसी तरह आम आदमी तक पहुंचा दिया जैसे स्वर्ग की अप्सराओं उर्वशी मेनका और देवी देवताओं को एक चेहरा दे कर रवि वर्मा ने आम लोगों तक पहुंचा दिया था। यह दिल और साहस के साथ बनायी गयी फिल्म है। फिल्म में राजा रवि वर्मा के किरदार में रणदीप हुडा और उनकी मॉडल मिस्ट्र्रेस सुगंधा के रोल में नंदना सेन हैं। आठ नौ साल पहले जब फिल्म बननी शुरू हुयी तब यह दोनों ही कलाकार लगभग नये थे। लेकिन दोनों ने अपने रोल में जान डाल दी है। आज के समय में ब्रिटिश कालीन मुंबई को देखना एक नया अनुभव बनता है। सब जानते हैं कि राजा रवि वर्मा एक रंगीले व्यक्ति थे लेकिन अपनी आशिकाना तबियत का इस्तेमाल उन्होंने अपनी कला की प्रेरणा के लिए किया। नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन की बेटी नंदना सेन ने लगभग निर्वस्त्र पोज दे कर खतरनाक साहस का परिचय दिया है। लेकिन उससे फिल्म की विश्वसनीयता दो पायदान उपर चढ़ गयी है। युवा संगीतकार संदेश शांडिल्य ने फिल्म में यादगार और मनभावन संगीत रचा है। दर्शन जरीवाला, परेश रावल, आशीष विद्धार्थी और सचिन खेडेकर के संक्षिप्त रोल भी चेतना में ठहर से जाते हैं। निर्माता जयंति लाल गाडा का शुक्रगुजार होना चाहिए जिनके कारण एक बेहतरीन फिल्म पर्दे का मुंह देख पायी है। अगर आप राजा रवि वर्मा के नाम और काम को नहीं जानते हैं तो भी यह फिल्म जरूर देख लें।               
निर्देशक : केतन मेहता
कलाकारः रणदीप हुडा, नंदना सेन, परेश रावल, दर्शन जरीवाला, आशीष विद्धार्थी, सचिन खेडेकर।
संगीत : संदेश शांडिल्य




सुपर नानी


फिल्म समीक्षा

नौटंकी बन गयी सुपर नानी

धीरेन्द्र अस्थाना

मसाला फिल्में होने के बावजूद निर्देशक इंद्रकुमार की फिल्में आम तौर पर दर्शनीय होती हैं। उनमें कॉमेडी के साथ इमोशन का भी संतुलित तड़का होता है और उनकी मेकिंग भी सधी हुई तथा परिपक्व होती है। मगर अपनी नयी फिल्म सुपर नानी का निर्माण करते समय इंद्रकुमार से एक दो नहीं कई गलतियां हो गयी हैं। एक अच्छा विषय उन्होंनें चुना था। परिवार में मां का दर्जा। मां जो खुद को मिटा कर घर परिवार को खड़ा करती है। जो साल के तीन सौ पैंसठ दिन चौबीस घंटे बिना पगार लिए काम करती है। जो कभी रिटायर नहीं होती है। जो अपने पति, बेटे, बेटी, बहु के सुख की खातिर खुद को तिरोहित कर देती है। लेकिन बदले में उसे परिवार का प्यार नहीं वंचना और हिकारत मिलती है। इस मार्मिक विषय पर इंद्रकुमार जैसा परिपक्व निर्देशक एक मर्मांतक और यादगार अफसाना रच सकते थे। शायद इसी चाहत के चलते उन्होंने यह विषय उठाया भी होगा। मगर अफसोस, उनसे सबसे बड़ी चूक यह हो गयी कि वह भूल गये कि वह सन 2014के अंतिम महीनों में खड़े हैं। सिनेमा बहुत आगे बढ़ गया है जबकि इंद्रकुमार ने बहुत पुराने छूटे हुए समय, शायद 70 या 80 के दशक वाले विचार में रह कर यह फिल्म बना डाली है। अगर अपने विषय को उन्होंने पर्दे पर उतारते समय आजकी चेतना और समय तथा मुहावरे का स्पर्श दे दिया होता तो फिल्म अमिताभ बच्चन की बागबान की तरह कमाल रच सकती थी। जोर जोर से बोले गये संवादों, बोर करती भावुकता, हर पल बहते आंसुओं और पारिवारिक सदस्यों की लाउड एक्टिंग के कारण पूरी फिल्म नौटंकी बन कर रह गयी है। दो हफ्ते पहल आई फिल्म सोनाली केबल में अपने खराब अभिनय से अनुपम खेर ने दर्शकों को जो दुख दिया था उसका पश्चाताप इस फिल्म में हो गया है। हिलती हुई गर्दन का एक नया ही लुक दे कर अनुपम ने अपनी एक्टिंग बुक में एक नया पाठ जोड़ दिया है। शरमन जोशी और रेखा तो मंज हुए कलाकार हैं। मगर इंद्रकुमार की बेटी श्वेता कुमार को अगर सिनेमा में ही करियर बनाना है तो उन्हें अभिनय के कई पाठ सीखने होंगे। उन्हें अनुष्का, परिणीता और आलिया जैसी कई प्रतिभाशाली युवा अभिनेत्रियों के सामने खुद को प्रमाणित करना है। वंचित, अपमानित रेखा को फिर से उसके सुनहरे दिनों में लौटने में मदद कर शरमन जोशी रेखा के परिवार के दुष्ट और घटिया सदस्यों को एक एक कर अच्छा सबक सिखाता है। सबसे अंत में रेखा के पति बने रणधीर कपूर भी पश्चाताप के घर में लौटते है। नानी को सुपर नानी बना कर शरमन विदेश चला जाता है। रेखा के परिवार में सुख लौटता है।
निर्देशक : इंद्रकुमार
कलाकारः, रेखा, शरमन जोशी, श्वेता कुमार, रणधीर कपूर, अनुपम खेर
संगीत : हर्षित सक्सेना, संजीव दर्शन




हैप्पी न्यू ईयर


फिल्म समीक्षा

हिट है हैप्पी न्यू ईयर

धीरेन्द्र अस्थाना

आम तौर पर आमिर खान, शाहरूख खान और सलमान खान की फिल्में हिट होती ही हैं। वजह यह है कि ये तीनों अपनी फिल्मों में रोमांस, एक्शन, डांस, कॉमेडी और इमोशन का एक संतुलित मिश्रण तैयार करते हैं। ये तीनों इस बात का भी खयाल रखते हैं कि उनकी फिल्म के जरिए कोई ना कोई संदेश भी जारी हो। शाहरूख खान की हैप्पी न्यू ईयर में भी इन सभी तत्वों का समावेश है। यह कोई मीनिंग फुल या कमाल की फिल्म नहीं है। न ही इसकी कहानी में कोई नयापन है। लेकिन पूरे परिवार को ध्यान में रख कर बनायी गयी यह फिल्म पूरी तरह मनोरंजक और खुशनुमा अनुभव देती है। कोई सोच भी नहीं सकता कि जिंदगी के छह लूजर्स वर्ल्ड ड़ांस चैंपियनशिप में भाग लेने के बहाने दुनिया की सबसे बडी चोरी करने के लिए निकलते हैं। इस फिल्म का एक लोकप्रिय संवाद है जो शायद दुनिया के हर आदमी के जीवन पर फिट बैठता है- किस्मत बड़ी कुत्ती चीज है। वह कभी भी पलट जाती है। जिंदगी में दो ही तरह के लोग होते हैं- लूजर्स और विनर्स। लेकिन जिंदगी हर लूजर को कभी न कभी एक मौका जरूर देती है कि वह विनर बन जाए। यह फिल्म भी छह लूजर्स की कहानी को सधे हुए और दिलचस्प अंदाज में पेश करती है। इन छह में से पांच मंजे हुए तथा अनुभवी एक्टर हैं। छटा एक नया लेकिन प्रतिभाशाली कलाकार है। ये छह लूजर्स हैं- शाहरूख खान, दीपिका पादुकोन, बोमन इरानी, सोनू सूद, अभिषेक बच्चन और विवान शाह। वर्ल्ड डांस चैंपियनशिप में भाग लेने के नाम पर शाहरूख खान इन्हें एक डायमंड डकैती के लिए एकजुट करता है। आधी फिल्म इस डकैती और डांस कंपटीशन की रिहर्सल में निकल जाती है। इंटरवल के बाद शुरू होती है वास्तविक फिल्म और उसका मकसद। छह के छह कलाकारों ने एकदम शानदार काम किया है। उन्होंने दर्शकों को रोमांचित भी किया, हंसाया भी और रूलाया भी। फिल्म का गीत संगीत तो पहले से ही हिट है। कई संवाद भी यादगान बन गये हैं। मसलन इजी नहीं है। मोनिका डांस इजी नहीं है। डांस एक पूजा है। डांस एक आर्ट है आर्ट। इस संवाद को दीपिका ने जिस स्टाइल में बोला है उससे इसकी लाइफ बढ़ गयी है। फिल्म में देश प्रेम का भी जज्बा है जिसका शाहरूख खास खयाल रखते हैं। रियलीटी शो के बैकड्राप पर आधारित चोरी की यह कहानी दरअसल एक रिवेंज स्टोरी है जिसे कथानक और हालात ने पॉजिटिव स्टेटमेंट में बदल दिया है। इस चोरी के जरिए शाहरूख खान अपने बाप अनुपम खेर की बर्बादी और मौत  का बदला जैकी श्राफ  की तबाही से लेता है जो अनुपम खेर की दौलत के दम पर दुबई में मौज काट रहा है। मनोरंजन का अच्छा पैकेज है हैप्पी न्यू ईयर।
निर्देशक : फराह खान
कलाकारः, शाहरूख खान, दीपिका पादुकोन, अभिषेक बच्चन, बोमन ईरानी, सोनू सूद, विवान शाह, जैकी श्रॉफ
संगीत : विशाल-शेखर