Tuesday, January 29, 2013

रेस-2


फिल्म समीक्षा

पहली रेस से बेहतर ‘रेस-2‘

धीरेन्द्र अस्थाना

पहले ही बता दें कि निर्देशक अब्बास मस्तान की ‘रेस-2‘ पहली ‘रेस‘ से ज्यादा वास्तविक, ज्यादा मनोरंजक और ज्यादा तर्क पूर्ण है। शुद्ध रूप से यह भी एक लार्जर दैन लाइफ फार्मूले पर टिकी मसाला फिल्म है। लेकिन पिछली ‘रेस‘ की तरह बेसिर पैर और निरर्थक नहीं है। ‘रेस-2‘ में एक नयी कहानी है इसलिये इसे सीक्वेल नहीं माना जा सकता। सैफ अली खान और अनिल कपूर के अलावा बाकी कलाकार भी अलग हैं। पूरी फिल्म में निर्देशक सस्पेंस को बरकरार रखने में कामयाब रहे हैं। यही वजह है कि दर्शक की दिलचस्पी लगातार बनी रहती है। एक्शन दृश्य भी दर्शकों को बांधे रखते हैं। और गाने भी काफी पसंद किए जा सकते हैं। रोचकता बनाये रखने के लिए जो क्लाइमेक्स-एंटी क्लाईमेक्स वाला फॉर्मूला है उसे निर्देशकों ने बड़ी खूबसूरती से अंजाम दिया है। एक प्रतिभाशाली अभिनेत्री अमीषा पटेल का फिल्म में फिलर की तरह रहना खटकता है। वह हर समय फल खाते रहने वाले रेस्त्रां मालिक अनिल कपूर की सेक्रेटरी बनी हैं। प्रमुख कहानी जॉन अब्राहम और सैफ अली खान की है। और इन दोनों का टकराव तथा दांव पेंच ही कहानी को गति भी देता है। दीपिका पदुकोन तो खैर अब मंजी हुई अभिनेत्रियों में शामिल हैं। इसलिए उन्होंने अपनी प्रतिभा और योग्यता के अनुरूप ही अभिनय किया है, लेकिन उनसे अपेक्षाकृत जूनियर जैकलीन फर्नाडीस ने भी अपने अभिनय और डांस की छाप छोड़ी है। जॉन ने चूंकि सैफ की पत्नी बिपाशा बसु को एक कार बम विस्फोट के जरिए मरवाया है, इसलिए सैफ एक मकसद के साथ जॉन से मिलने आया है। मकसद है जॉन को कंगाल कर देना। क्योंकि जॉन की सबसे बड़ी चाहत पैसा है। पैसे के लिए वह रिश्तों का खून भी कर सकता है। अरबपति जॉन की प्रेमिका है जैकलीन और बहन है दीपिका पादुकोन। सैफ कैसे जॉन के किले और दिमाग में सेंध लगाता है यही इस फिल्म की यूएसपी है। फिल्म के अंत में विजय सैफ को ही मिलती है क्योंकि अरबपति जॉन को भिखारी बना देने में सैफ कामयाब हो जाता है। लेकिन जिस तरह भिखारी जॉन एक डायलॉग मारता है, उससे लगता है कि रेस-तीन भी बनेगी। डायलॉग है- ‘रणवीर (जॉन) को पता नहीं है कि रेस जहां समाप्त होती है वहीं से शुरू भी होती है।‘ वैसे भी इस फिल्म के सभी प्रमुख पात्रों को जीवित रखा गया है। तो सीक्वेल तो बन सकता है बॉस। 

निर्देशक: अब्बास-मस्तान 
कलाकार: सैफ अली खान, जॉन अब्राहम, अनिल कपूर, दीपिका पादुकोन, अमीषा पटेल, जैकलीन फर्नाडिस 
संगीत: प्रीतम चक्रवर्ती

Saturday, January 19, 2013

इंकार


फिल्म समीक्षा

रिश्तों में महत्वाकांक्षा की सेंध: इंकार

धीरेन्द्र अस्थाना


यह निर्देशक सुधीर मिश्रा की फिल्म है। यह मनोरंजन नहीं चिंतन प्रधान फिल्म है। चिंतन भी नये समय के स्त्री-पुरुष संबंधों पर। यह दफ्तर में यौन शोषण की फिल्म नहीं है जैसा कि प्रचारित किया गया है। यह दो क्रिएटिव लोगों के पास आने, जुड़ने, टूटने और फिर जुड़ने की कोशिश करने वाली विमर्श केंद्रित फिल्म है जो स्त्री पुरुष संबंधों पर लंबे समय से चलती आ रही बहस को नये कामकाजी समय में नये ढंग से उठाती है। फिल्म के दोनों मुख्य चरित्रों अर्जुन रामपाल और चित्रांगदा सिंह ने श्रेष्ठ और यादगार अभिनय किया है। अर्जुन एक विज्ञापन एजेंसी का सीईओ है जो कंपनी में हिमाचल के एक छोटे से शहर सोलन की लड़की को स्क्रिप्ट राइटर के तौर पर नियुक्त करता है। उसे लगता है कि चित्रांगदा की हर तरक्की की नींव में उसका श्रम खड़ा है जब कि चित्रांगदा समझती है कि तरक्की का प्रत्येक पायदान उसने अपनी प्रतिभा के दम पर चढ़ा है। वह मामूली लेखिका से इस अंतरराष्ट्रीय कंपनी की नेशनल क्रिएटिव डायरेक्टर बन जाती है। इसके बाद शुरू होता है रिश्तों में द्वंद्व। दोनों की महत्वाकांक्षाएं टकराने लगती हैं और अंतत महत्वाकांक्षा संबंधों की गर्माहट को लील जाती है। प्यार में सेंध लग जाती है। चित्रांगदा अर्जुन को सबक सिखाने के लिए उस पर सेक्सुअल हैरेसमेंट का आरोप लगा देती है जिस पर कंपनी के बंद कमरे में सुनवाई चलती है। यह कोर्ट रूम ड्रामा फिल्म का सबसे नीरस पक्ष है क्योंकि इतनी बोरिंग और लंबी बहस देखना बौद्धिक लोग भी पसंद नहीं करेंगे। इस कोर्ट रूम ड्रामे को सांकेतिक और संक्षिप्त रख कर फिल्म को घटनात्मक बनाना चाहिए था। जांच में कोई नतीजा नहीं निकलता इसलिए मैनेजमेंट अपनी तरफ से फैसले के लिए बैठता है। मगर तब तक अर्जुन रामपाल इस्तीफा देकर अपने शहर सहारनपुर के लिए निकल पड़ता है यह मेल भेजकर कि इतनी बेइज्जती के बाद काम करने का कोई औचित्य नहीं है। कंपनी चित्रांगदा को बुलाती है लेकिन वह भी गायब है। उसका मोबाइल डस्टबिन में पड़ा है। फिल्म के अंत में एक झगड़े के दौरान चित्रांगदा, अर्जुन से पूछती है क्या अब भी हम दोनों के बीच कुछ मुमकिन है। यह इस बात का संकेत है कि दोनों फिर से जुड़ने के लिए निकल पड़े हैं। एक संवेदनशील विषय पर नाजुक फिल्म है जो सिनेमा का पाठ तो बन सकती है बॉक्स ऑफिस का ठाठ नहीं। 


निर्देशक: सुधीर मिश्रा
कलाकार: अर्जुन रामपाल, चित्रांगदा सिंह, दीप्ति नवल, रेहाना सुल्तान
संगीत: शांतनु मोईत्रा

Saturday, January 12, 2013

मटरू की बिजली का मंडोला


फिल्म समीक्षा 

मटरू की बिजली का मंडोला

क्रांति का कॉमिक पाठ

धीरेन्द्र अस्थाना

कमर्शियल यानी मुख्य धारा के मसाला सिनेमा में सांस लेने की मजबूरी और दबाव के बावजूद कुछ फिल्मकार अपने मन की हसरत पूरी कर ही लेते हैं। विशाल भारद्वाज, तिग्मांशु धूलिया, सुधीर मिश्रा, अनुराग कश्यप, अनुराग बसु, फरहान अख्तर, संजय लीला भंसाली आदि ऐसे ही कुछ नाम हैं जो संदेश परक सिनेमा की अपनी जिद पूरी कर लेते हैं। कभी ये बॉक्स आफिस पर सफल हो जाते हैं तो कभी असफल। लेकिन सार्थक सिनेमा ऐसे ही फिल्मकारों की बदौलत बचा हुआ भी है। विशाल भारद्वाज भी अपने सिनेमा में कुछ कुछ प्रयोग करते रहते हैं। अपनी नयी फिल्म ‘मटरू की बिजली का मंडोला‘ में उन्होंने पहली बार कॉमेडी का दामन थामा है और क्रांति जैसे गंभीर कर्म का कॉमिक पाठ पेश कर दिया है। फिल्म की पृष्ठ भूमि हरियाणा की है और मुद्दा है जमीनों का अधिग्रहण। यानी गरीब नेतृत्वहीन किसानों से उनकी जमीन औने पौने दामों में खरीद कर वहां मल्टीप्लेक्स और शॉपिंग मॉल खड़े करने का हजारेदारों का इरादा। इस इरादे से लोहा लेने के लिए मटरू यानी उसी गांव का एक युवक इमरान खान छिप छिप कर माओ के नाम से किसानों के आंदोलन को लीड करता है और उसे गति देता है। गांव का सामंत पंकज कपूर है जिसके दो रूप हैं। एक शराब पीने से पहले वाला क्रूर और दंभी। दूसरा शराब पीने के बाद वाला नेक और दयालू। अनुष्का उसकी बेटी है जिसे यह नहीं पता कि उसे जीवन से क्या चाहिए? यह फिल्म इन तीनों लोगों के उन्मुक्त, जीवंत, सहज और बेमिसाल अभिनय लिए देखी जा सकती है। विशाल ने इन तीनों से जो काम लिया है उस ‘एक्टिंग मैथड‘ को समझने के लिए भी फिल्म देखनी चाहिए। लेकिन दिक्कत एक ही है कि जैसे अनुराग कश्यप की गंभीर फिल्म नो स्मोकिंग‘ दर्शकों के सिर के ऊपर से गुजर गयी थी वैसे ही ‘मटरू‘ भी ऊपर से न गुजर जाए। हास्य होने बावजूद फिल्म थोड़ी जटिल और उलझी हुई भी है। सामंतवादी-पूंजीवादी आचरण के खिलाफ एक जन आंदोलन को कॉमेडी का चोला देने का आइडिया भी समझ नहीं आया। इससे फिल्मकार के नेक इरादे पर आंच आती है। फिल्म का टाइटल सांग तो पहले ही सुपरहिट हो चुका है। बातचीत, संवादों और रोजमर्रा के जीवन में प्रयुक्त भाषा में हरियाणवी का ध्यान सभी कलाकारों ने सजग हो कर किया है लेकिन पूरी सहजता से। 

निर्देशक-लेखक: विशाल भारद्वाज 
कलाकार: इमरान खान, अनुष्का शर्मा, पंकज कपूर, शबाना आजमी, आर्य बब्बर 
गीत: गुलजार 
संगीत: विशाल भारद्वाज