Monday, September 30, 2013

वार्निंग

फिल्म समीक्षा

रोमांच की पटकथा वार्निंग

धीरेन्द्र अस्थाना

बड़े प्रोड्यूसर द्वारा नये लोगों को लेकर बनायी गयी एक छोटी सी साफ सुथरी फिल्म है वार्निंगजिसमें रोमांच, डर और मौत की आहटों को कायदे से बुना गया है। फिल्म की जान उसकी पटकथा और मृत्यु की तरफ बढ़ती एक रोमांचक यात्रा है। जिसे डर के धागे गतिशील बनाये रखते हैं। मगर फिल्म का शीर्षक सटीक नहीं है क्योंकि फिल्म के किरदारों को कोई किसी किस्म की वार्निंग नहीं देता। यहां तो जीवन विरोधी स्थितियों में घिर गये कुछ किरदारों की जिजीविषा की रोमांचक पटकथा है। जिंदगी की जंग लड़ते इन चरित्रों की लाचारी, बेबसी और धुंधली पड़ती उम्मीदों के इस आख्यान को कोई और बेहतर नाम दिया जाता तो ज्यादा अच्छा होता। डिस्कवरी चैनल पर ऐसे कई प्रोग्राम दिखाए जाते हैं जो खराब और मर्मांतक हालात पर मनुष्य की इच्छा शक्ति और उसके साहस की कथा रचते हैं। इनमें कभी कोई निर्जन द्वीप में अकेला छूटता है, कभी बर्फीले टापू पर टनों बर्फ के नीचे दब जाता है, कभी शार्क मछलियों से भरे समुद्र में एक टूटी, फूटी नाव में निहत्था पड़ा रह जाता है। कास्ट अवेजैसी अनेक खूबसूरत विदेशी फिल्मों ने भी इस कथानक पर खुद को केंद्रित कर मर्मस्पर्शी और भावनात्मक क्षण जुटाए हैं। वार्निंगभी इसी विषय पर खुद को फोकस करती है और हॉलीवुड की फिल्म ओपन वाटर 2से प्रेरित है। फिजी में रहने वाला एक युवक अपने कॉलेज के दिनों के पांच दोस्तों को अपने महंगे यॉट (एक प्रकार का छोटा शिप) के जरिए समुद्री यात्रा का आनंद उठाने के लिए आमंत्रित करता है। ये सब आते हैं और यॉट पर मौज मजा करते हुए समुद्र के बीच आगे बढ़ते हैं। इनमें मंजरी फड़निस अपने पति जितिन गुलाटी और छोटी बेटी के साथ आयी है। सब लोग एक-एक कर समुद्र में तैरने के लिए कूदते हैं। अंत में जो कूदता है वह गलती से उस बटन को दबा देता है जिससे पानी में लटकी सीढ़ियां वापस यॉट में लौट जाती हैं। अब सभी लोग पानी में हैं। और यॉट पर चढ़ने के तमाम प्रयास नाकामयाब हैं। कोई पेट में पानी भरने से, कोई बेहोशी से और कोई शार्क मछली के हमले से एक-एक कर मरते जाते हैं। सबसे अंत में अपने दोस्त के कंधे पर चढ़कर मंजरी ऊपर पहुंचती हैं और सीढ़ियां नीचे जाने का बटन दबा देती है। इन सीढ़ियों पर चढ़कर मंजरी का पति भी ऊपर पहुंच जाता है। ऊपर बेटी भी जीवित है। फिल्म में अभिनय का स्कोप कम था क्योंकि हर समय तो किरदार समुद्र में ही हैं।

निर्देशक:     गुरमीत सिंह
कलाकार:     संतोष बारमोला, सुजाना रॉड्रिग्स, मंजरी फड़निस, वरुण शर्मा, जितिन गुलाटी, मधुरिमा

संगीत:       मीत एवं साबरी बदर्स।

फटा पोस्टर निकला हीरो

फिल्म समीक्षा

फिर वही मसाला: फटा पोस्टर निकला हीरो

धीरेन्द्र अस्थाना

इस फिल्म को खुद शाहिद कपूर परिभाषित करते हैं। फिल्म के अंत में वह संजय मिश्रा (लेखक) से कहते हैं - अब मुझे फिल्म का हीरो नहीं बनना। एक हीरो फिल्म में जो कुछ करता है वह सब मैंने कर दिया है। विलेन के साथ मारामारी, डायलॉग की गोलाबारी, हीरोइन के साथ नैन मटक्का, आइटम डांसर के साथ डांस। अजब प्रेम की गजब कहानीजैसी खूबसूरत और दिलचस्प फिल्म बना चुके राजकुमार संतोषी पता नहीं किस दबाव में फिर से वही मसाला उठा लाये हैं जो सालों से बॉलीवुड में इस्तेमाल किया जा रहा है। गुंडों द्वारा मां को अपने अड्डे पर उठा लाना, मां को बचाने की खातिर बेटे का गुंडों के लिये काम करना, बचपन में बिछड़ गये (मर गये) बाप का लौट आना, बेटे द्वारा अपराधी बाप को गिरफ्तार करवा देना और रीयल लाइफ का हीरो बन पुलिस से मेडल पाकर मां के इस सपने को साकार करना कि उसका बेटा पुलिस ऑफीसर बने। मां के रूप में यह फिल्म पद्मिनी कोल्हापुरे का कमबैक भी है। उन्हांेने बेहतर काम किया है। खासकर उन क्षणों में जब वह ऑटो चलाती हैं। यह फिल्म लेकिन शाहिद कपूर के अभिनय के लिये याद की जायेगी। शाहिद ने क्या कमाल की कॉमेडी की है। अपने अभिनय का जो जलवा शाहिद ने फिल्म जब वी मेटमें एक संजीदा और संवेदनशील दोस्त प्रेमी बनकर दिखाया था ठीक वैसा ही जादू उन्होंने यहां अपने कॉमिक अभिनय से पैदा किया है। फिल्म की कहानी में जबरन कॉमेडी नहीं डाली गयी होती, लंबाई थोड़ा कम रहती और कंटेंट थोड़ा सधा हुआ होता तो एक बेहतरीन फिल्म बन सकती थी। अच्छी बात यही है कि यहां सिचुएशन से कॉमेडी पैदा की गयी है। शाहिद फिल्मों का हीरो बनना चाहता है जबकि पद्मिनी अपने बेटे को एक ईमानदार पुलिस ऑफीसर बनाना चाहती है। इसी द्वंद्व से कहानी को कुछ उपकथाओं के साथ मिलाकर आगे बढ़ाया गया है। फिल्म के सारे ही कलाकार मंजे हुए हैं और खुद को बीसियों बार साबित कर चुके हैं। इसलिये एक्टिंग के मोर्चे पर फिल्म पूरी तरह परफेक्ट है। फिल्म में सलमान खान का केमो और नरगिस फाखरी का आइटम नंबर आम दर्शकों को खुश करेगा। तू मेरे अगल-बगल हैवाला गाना पहले ही हिट हो चुका है। दर्शकों को हंसाने के लिये फिल्म में पर्याप्त मसाला है इसलिये फिल्म को एकबार देख सकते हैं।


निर्देशक:     राजकुमार संतोषी
कलाकार:     शाहिद कपूर, इलीना डीक्रूज, पद्मिनी कोल्हापुरे, दर्शन जरीवाला, नरगिस फाखरी, संजय मिश्रा
संगीत:       प्रीतम चक्रवर्ती।

21 सितंबर 2013


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जॉन डे

फिल्म समीक्षा

जानदार लेकिन जटिल जॉन डे

धीरेन्द्र अस्थाना

यह एक शानदार जानदार फिल्म है लेकिन बनी लार्जर दैन लाइफ वाले फार्मूले पर ही है। मतलब इसमें बहुत सारी बातें ऐसी हैं जिनका कोई तर्क नहीं है और जो अविश्वसनीय भी हैं। फिल्म बहुत ज्यादा धीमी है लेकिन आश्चर्यजनक ढंग से बांधे रखती है। मतलब रोचक भी है और रोमांचक भी। यकीनन यह एक मसाला फिल्म नहीं है मगर बहुत अर्थपूर्ण या संदेशपरक भी नहीं है। यह फिल्म एक बड़ा सवाल यह भी खड़ा करती है कि क्या हर बेहतरीन फिल्म को उद्देश्यपूर्ण भी होना चाहिए या उद्देश्य कभी कभी नजरअंदाज कर देना चाहिए। क्योंकि जॉन डे एक बेमकसद फिल्म है मगर मेकिंग, अभिनय और बुनावट के मोर्चे पर एक लाजवाब फिल्म भी है। यह सिर्फ बदले पर आधारित एक रोमांचक ड्रामा है जिसमें नसीरुद्दीन शाह, रणदीप हुडा, शरत सक्सेना, मकरंद देशपांडे और विपिन शर्मा का अभिनय जादू जगाता है। फिल्म की हीरोइन एलीना कजान जरा भी प्रभावित नहीं करतीं। अभी उनका हिंदी उच्चारण भी दोषपूर्ण है। एक्टिंग करने के लिए एलीना के पास ज्यादा स्कोप और स्पेस भी नहीं था। वह सिर्फ शराब पीती रहती है और मां बनने का सपना देखती रहती है। सस्पेंस बनाए रखने के लिए ज्यादातर चरित्रों को परिभाषित नहीं किया गया है जिसके चलते फिल्म की कहानी थोड़ी जटिल हो गयी है। फिल्म के जो प्रोमोज टीवी पर दिखाए गये वे भी काफी सांकेतिक और जटिल थे इसलिए ज्यादा दर्शक फिल्म देखने थिएटर नहीं आए। फिल्म में लेकिन संवादों ने समां बांधे रखा। मोटे तौर पर कहानी कुछ इस प्रकार है। नसीर एक बैंक का मैनेजर है। शरत सक्सेना एक डॅान है। रणदीप एक क्रू्रर और संवेदनहीन पुलिस ऑफिसर है जो बचपन में अनाथ हो गया था। वह शरत के लिए भी काम करता है। शरत ने एक फर्जी कंपनी बना कर किसानों की हजारों एकड़ जमीन को हड़प कर वहां एक कैसाब्लांका एस्टेट खड़ी की और फिर उसमें आग लगवाकर करोड़ों रुपयों का क्लेम वसूल किया। इस आग मंे नसीर की बेटी भी जल कर मर जाती है जो एस्टेट में अपने दोस्त के साथ पिकनिक मनाने गयी थी। इस एस्टेट के कागज़ात जिस फाइल में थे वह फाइल नसीर के बैंक के लॉकर में थी और इस लॉकर की मालकिन थी रणदीप की प्रेमिका एलीना। यह फाइल रणदीप को छुपा कर रखने के लिए शरत ने दी थी। शरत वह फाइल वापस मांग रहा था जबकि कुछ गुंडे नसीर को बंधक बना कर बैंक लूट चुके थे। इस लूट में फाइल चली गयी थी। नसीर और रणदीप अपने अपने ढंग से फाइल चोरों के पीछे लग जाते हैं। इस प्रक्रिया में बहुत खून खराबा होता है। अंत में नसीर के अलावा सब लोग मारे जाते हैं। एक अपराधी का अंत होता है और एक नेक आदमी नसीर का आपराधिक जीवन आरंभ होता है। यह है जॉन डे।

निर्देशक:     अहिशोर सोलोमन
कलाकार:     नसीरुद्दीन शाह, रणदीप हुडा, एलीना कजान, शरत सक्सेना, विपिन शर्मा।
संगीत:       क्षिति तरे

14 सितंबर 2013


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जंजीर

फिल्म समीक्षा

बांधने में कामयाब हुई जंजीर

धीरेन्द्र अस्थाना

महानायक का एंग्री यंगमैन का सफर फिल्म जंजीरसे शुरू हुआ था। इस फिल्म ने पर्दे पर एक ऐसे नाराज नौजवान को उतारा था जिसके भीतर गुनहगारों को उनकी जगह दिखाने का जज्बा और जुनून था। यह नुस्खा चल निकला और साथ ही चल पड़े अमिताभ बच्चन। तब से अब तक बहादुर और ईमानदार पुलिस वाले तथा माफिया सरदारों के बीच बड़े पर्दे पर सैकड़ों जंग लड़ी जा चुकी हैं। नयी जंजीरभी उसी कड़ी की एक मसालेदार और मनोरंजक फिल्म है। शर्त केवल इतनी है कि आपको यह भूलना होगा कि आप अमिताभ बच्चन वाली जंजीरका रीमेक देख रहे हैं। एक बुनियादी कहानी और कुछ दृश्यों को जस का तस उठा लेने के अलावा नयी जंजीरका पुरानी जंजीरसे कोई विशेष लेना देना नहीं है। नयी जंजीरमें सबसे बेहतरीन काम संजय दत्त्त ने किया है जो प्राण साहब वाले किरदार में शेर खान के अवतार में उतरे हैं। इसके बाद बाजी मारी है प्रियंका चोपड़ा ने जो विदेश से एक शादी देखने आयी थी लेकिन मुबंई में एक खून होता देखकर मुसीबत में फंस गयी। एक चुलबुली एनआरआई लड़की के अलमस्त चरित्र को प्रियंका ने बेहद चटपटे अंदाज में जिया है। माही गिल मोना डार्लिग बनी हैं और तेल माफिया का किरदार निभाया है प्रकाश राज ने। अमिताभ बच्चन उर्फ एसीपी विजय खन्ना का रोल निभाया है दक्षिण के युवा सितारे रामचरण ने। निर्देशक अपूर्व लखिया ने अपने साक्षात्कारों में बार-बार बताया है कि अमिताभ वाले रोल के लिये उन्होंने रामचरण का चुनाव इसलिये किया क्योंकि हिंदी में रामचरण की पहले से स्थापित कोई छवि नहीं है। उन्हें इस किरदार के लिये फ्रेश चेहरा चाहिये था। अपूर्व के तर्क अपनी जगह सही हैं लेकिन वह यह भूल गये कि एक्सप्रेशंस (भाव) अमिताभ बच्चन के गुलाम हैं। और पुरानी जंजीरमें अमिताभ के एक्सप्रेशंस ने ही दर्शकों के दिलों पर राज किया था, जबकि रामचरण के चेहरे पर सिर्फ गुस्से के ही भाव जमे रहते हैं। रोमांटिक दृश्यों में भी उनका चेहरा तना हुआ ही रहता है। अगर नये के मोह में अपूर्व नहीं पड़ते तो इस किरदार को अजय देवगन बखूबी निभा सकते थे, जैसे अग्निपथके रीमेक में बिग बी का किरदार ऋतिक रोशन ने शानदार ढंग से निभाया था। तो भी रामचरण ने इस चरित्र को निभाने के लिये अपनी जान लड़ा दी है। उन्हें अपनी भाव भंगिमाओं पर मेहनत करनी होगी तभी वह हिंदी सिनेमा में पूरी तरह स्वीकार्य हो सकेंगे। जैसे अपनी पहली ही हिंदी फिल्म रांझनासे दक्षिण के एक और युवा सितारे धनुष हिंदी में भी छा गये हैं। फिल्म के अंत में संकेत दे दिया गया है कि इस जंजीरकी अगली कड़ी भी बन सकती है।

निर्देशक:     अपूर्व लखिया
कलाकार:     रामचरण, प्रियंका चोपड़ा, संजय दत्त्त, प्रकाश राज, माही गिल, अतुल कुलकर्णी
संगीत:       चिरंतन भट्ट, आनंद राज आनंद, मीत ब्रदर्स

7 सितंबर 2013
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सत्याग्रह


फिल्म समीक्षा

अन्ना आंदोलन की पटकथा सत्याग्रह

धीरेन्द्र अस्थाना

यह पूरी तरह अमिताभ बच्चन की फिल्म है। उनके अभिनय का जादू न सिर्फ बरकरार है बल्कि उस जादू के रंग और भी गाढ़े होते जा रहे हैं। यकीन मानिए जब फिल्म के एक दृश्य में वह मंच पर अचानक कटे पेड़ की तरह गिर पड़ते हैं तो थिएटर में मौजूद कई लोगों की चीख निकल पड़ी थी। इसे कहते हैं अपने अभिनय से मंत्रमुग्ध कर देना। वैसे कुल मिलाकर इस फिल्म को कलाकारों के विविधरंगी और अनूठे अभिनय के कारण ही देखा भी जाएगा। अभिनय के मोर्चे पर दूसरा नंबर मनोज वाजपेयी का है। वह हर कोण से छटे हुए घाघ नेता के किरदार को बड़ी सहजता और विश्वसनीयता के साथ जी गए हैं। बाकी लोगों में अजय देवगन, अर्जुन रामपाल, करीना कपूर और अमृता राव हैं। करीना कपूर किरदार के भीतर नहीं उतर सकीं। वह करीना कपूर ही नजर आती हैं। अजय देवगन अब इस तरह के चरित्रों को निभाने के अभ्यस्त हो गए हैं। अर्जुन रामपाल और अमृता राव ने भी बेहतर काम किया है। अब बचे प्रकाश झा। बहुत लंबे समय बाद प्रकाश झा की फिल्म देखकर लगा नहीं कि हम प्रकाश झा के सिनेमा से रू-ब-रू हैं। फिल्म में प्रकाश झा वाला वह ठप्पा ही नहीं है जो अपहरण‘, ‘गंगाजल‘, ‘राजनीतिमें दिखाई दिया था। सीधे-सीधे अन्ना हजारे के जन आंदोलन से प्रभावित होकर एक पटकथा तैयार कर उसे फिल्मा दिया गया है। अपने इंजीनियर बेटे की सड़क दुर्घटना में हुई मौत के बाद अमिताभ बच्चन अपनी साफगोई, अपनी जिद और अपने अटल व्यक्तित्व के चलते अनायास ही जन नेता बनते चले जाते हैं। वह सरकार और सरकारी कार्यालयों में फैले भ्रष्टाचार से लड़ने के लिये जन सत्याग्रह पार्टीबनाते हैं। इस सत्याग्रह आंदोलन में उनका साथ देते हैं उनके बेटे का दोस्त अजय देवगन, टीवी पत्रकार करीना कपूर, उनकी बहू अमृता राव और एक लोकल दबंग नेता अर्जुन रामपाल। बाद में एक वकील और पुलिस अधिकारी भी इस टीम में आ जुटते हैं और बाकायदा अन्ना हजारे जैसी टीम तैयार हो जाती है। अन्ना की तरह बिग बी भी आमरण अनशन करते हैं और उनका आंदोलन भी ट्वीटर तथा फेसबुक जैसी सोशल साइट्स के जरिये पॉपुलर होता जाता है। अंत में बस इतना ही फर्क है कि मंत्री के गुंडे की गोली से बिग बी यानी दादू मारे जाते हैं। गठबंधन सरकार के मंत्री मनोज बाजपेयी को मुख्यमंत्री गिरफ्तार करवाते हैं और फिल्म अजय देवगन की इस स्पीच के साथ खत्म होती है- अपने गुस्से को संभाल कर रखो। यह गुस्सा क्रांति ला सकता है।फिल्म में राजनीति के खतरनाक और जनद्रोही मंसूबों को अच्छी तरह एक्सपोज किया गया है जिसमें प्रकाश माहिर हैं।

निर्देशक:     प्रकाश झा
कलाकार:     अमिताभ बच्चन, अजय देवगन, करीना कपूर, मनोज बाजपेयी, अर्जुन रामपाल और अमृता राव
संगीत:       सलीम-सुलेमान, आदेश श्रीवास्तव

31 अगस्त 2013


मद्रास कैफे


फिल्म समीक्षा

सत्ता के षड्यंत्र की मद्रास कैफे

धीरेन्द्र अस्थाना


जो थोड़ी बहुत फिल्में हिंदी सिनेमा का चेहरा बदलने के जुनून और साहस में लगी हुई हैं उनमें जॉन अब्राहम द्वारा प्रोड्यूस की गयी मद्रास कैफेका नाम भी शामिल होने वाला है। भले ही इस फिल्म को बॉक्स आफिस पर भारी सफलता न मिले लेकिन पहले दिन जितने दर्शक इस फिल्म को देखने पहुंचे उससे यह भरोसा भी कायम हुआ कि बेहतर और संजीदा फिल्म देखने वालों की संख्या में इजाफा हो रहा है। अपने इंटरव्यू में जॉन ने इसे एक पॉलिटिकल थ्रिलर बताया है लेकिन हकीकत में यह सत्ता के षड्यंत्रों को बेनकाब करने वाली फिल्म है जो यह भी दर्ज करती है कि राजनीति की डोर कैसे-कैसे दुर्गम गलियारों में जा रही है। यह इन दो तथ्यों पर भी उंगली रखती है कि पैसों के लालच में कैसे कुछ महत्वपूर्ण पदों पर बैठे हुए लोग देश की सुरक्षा को भी दांव पर लगा देते हैं और कैसे कुछ लोग अपने परिवार की कुर्बानी देकर भी देश की सुरक्षा के सामने लौह कवच की तरह तने रहते हैं। निर्देशक शूजीत सरकार ने अपनी बेहतरीन प्रतिभा और ज्ञान से एक अत्यंत परिपक्व राजनैतिक फिल्म बनायी है लेकिन फिल्म निर्माण में कहीं कहीं जिस तरह वह तथ्यों से दूर चले गये हैं वह उनके भीतर के डर को रेखांकित करता है। पूरी दुनिया जानती है कि भारत के कौन से अत्यंत शक्तिशाली राजनैतिक नेता की तमिलनाडु में मानव बम का इस्तेमाल कर हत्या की गयी थी। उस महिला का नाम भी सब जानते हैं जिसने इस नेता को माला पहनायी थी और बम धमाके से खुद भी उड़ गयी थी। फिल्म में सही नाम लेने से बचा गया है लेकिन इसके बावजूद फिल्म कई जगह डॉक्यूमेंट्री सिनेमा में बदलती नजर आती है। यह पूरी तरह से केवल जॉन अब्राहम की ही फिल्म है जो एक रॉ एजेंट बने हैं। फिल्म के दो महिला किरदार नरगिस फाखरी एक विदेशी पत्रकार के रूप में उनके मिशन को सपोर्ट करने के काम आती हैं। दूसरी राशि खन्ना ने जॉन की पत्नी के रोल में उनके पारिवारिक जीवन की उपकथा बुनी है। फिल्म तकनीकी रूप से भी बेहद उच्च स्तरीय है और संपादन के मोर्चे पर भी कसी हुई है। फिल्म में एक भी गाना नहीं है। गाने की जरूरत भी नहीं थी। एकमात्र गीत अंत में बैकग्राउंड में बजता है। श्रीलंका और तमिल समस्या के नाजुक मुद्दे को फिल्म पूरी संवेदनशीलता के साथ उठाती है। जरूर देखें।

निर्देशक:     शूजीत सरकार
कलाकार:     जॉन अब्राहम, नरगिस फाखरी, राशि खन्ना
संगीत:       शांतनु मोहत्रा

24 अगस्त 2013


वन्स अपऑन ए टाइम इन मुंबई दोबारा

फिल्म समीक्षा

वन्स अपऑन ए टाइम इन मुंबई दोबारा क्यों?

धीरेन्द्र अस्थाना

जब निर्देशक का नाम मिलन लूथरिया हो और वह एकता कपूर के साथ मिल कर वन्स अपऑन ए टाइम इन मुंबईऔर द डर्टी पिक्चरजैसी कामयाब तथा यथार्थवादी फिल्में बना चुका हो, तो उससे दर्शकों की उम्मीदें ज्यादा बढ़ जाती हैं। माना जाता है कि एकता कपूर पैशन और परफेक्शन के मामले में इतनी सख्त हैं कि कोई निर्देशक उनके जुड़ाव को हल्के में नहीं ले सकता। तो फिर इस सीक्वेल में ये क्या हुआ? सबसे पहले तो फिल्म की पूरी कास्ट ही मिस मैच है। कौन है कास्टिंग डायरेक्टर जिसने इस बात पर गौर ही नहीं किया कि अक्षय कुमार दूर-पास कहीं से भी दाऊद इब्राहिम जैसे डॉन नहीं लगते। फिर, इमरान खान को गुंडा क्यों बनाते हो भाई। यह मासूम चेहरे वाला लड़का प्यार करते हुए ही अच्छा लगता है। दूसरे, लार्जर दैन लाइफ का मतलब यह थोड़े ही है कि आप सच को देशनिकाला दे दो। कौन इस बात पर यकीन करेगा कि दाऊद जैसा खतरनाक आतंकवादी फिर से मुंबई लौटेगा और वह भी एक चिंदी से बागी गंुडे को सबक सिखाने के लिए। और भारत आकर वह एक लड़की के प्यार में इतना पागल हो जाएगा कि बेचारा और निरीह जैसा दिखने लगेगा। और हीरोईन बनने के लिए मुंबई आयी सोनाक्षी सिन्हा को इतना भी भान (ज्ञान) नहीं है कि जो गैंगस्टर उसके आगे-पीछे घूम रहा है और बार-बार बता भी रहा है कि वह शहर पर राज करता है, वह एक डॉन है। अब अंतिम प्रश्न यह कि जब अंडरवर्ल्ड के ऊपर आप एक नायाब फिल्म बना चुके हो तो उसका नकली, काल्पनिक और बेतुका सीक्वेल बनाने की जरूरत क्यों आन पड़ी? यह तो एक हरदम डायलॉगबाजी करने वाले नकली से गुंडे की असफल प्रेम कहानी का निर्माण जैसा कुछ हो गया। हां, इतनी तारीफ तो करनी ही पड़ेगी कि पूरी फिल्म बेहतरीन डायलॉगों से भरी हुई है। फिल्म के तमाम चरित्र जब भी बात करते हैं कोई न कोई डायलॉग ही मारते हैं। फिर चाहे वह फिल्म में कुछ क्षण के लिए प्रकट हुई सोनाली बेंद्रे ही क्यों न हों। यह अलग बात है कि कुछ क्षणों में भी वह कमाल कर गयी हैं। इस किरदार में निर्देशक अपनी क्रिएटिविटी का इस्तेमाल करते हुए यह स्थापित करता है कि डॉन ने मंदाकिनी जैसी हीरोइन का करिअर तो खत्म किया ही, अब वह किसी और को बर्बाद न करे। कुल मिला कर फिल्म रोचक है, अच्छी एंटरटेनर है लेकिन है शुद्ध काल्पनिक। उसका डॉन दाऊद या उसकी जिंदगी से कोई लेना देना नहीं है। वह अंडरवर्ल्ड से प्रेरित भी नहीं है। एक प्रेम त्रिकोण है जिसे अंडरवर्ल्ड के बैक ड्रॉप पर डाल दिया गया है।

निर्देशक: मिलन लूथरिया
कलाकार: अक्षय कुमार, सोनाक्षी सिन्हा, इमरान खान
संगीत: प्रीतम

16 अगस्त 2013





चेन्नई एक्सप्रेस

फिल्म समीक्षा

कॉमेडी और रोमांस की चेन्नई एक्सप्रेस

धीरेन्द्र अस्थाना

पता नहीं क्यों मगर सच यही है कि शाहरुख खान जैसे बड़े और संवेदनशील एक्टर के साथ फिल्म बनानी हो तो एक कायदे की कहानी का होना अनिवार्य है। कल हो न हो, मैं हूं न, वीर जारा, माई नेम इज खान या फिर दीपिका पादुकोन के ही साथ ओम शांति ओम दर्जनों ऐसी फिल्में हैं, जिनमें कहानी के कारण शाहरुख अभिनय का एक से बढ़कर एक उम्दा ककहरा लिखते आये हैं। मगर एक्शन और कॉमेडी के मास्टर कहे जाने वाले निर्देशक रोहित शेट्टी अपनी नयी फिल्म चेन्नई एक्सप्रेसके जरिए शाहरुख के खाते में एक साधारण फिल्म ही दर्ज कर पाये हैं। द्विभाषी प्रेम की संवेदनापरक कथा को कॉमिक चोला पहनाकर रोहित ने फिल्म की संभावनाओं को सीमित कर दिया। अभी क्या है कि लगभग ढाई घंटे की फिल्म में दर्शक करीब डेढ़ घंटे तक तो हंसता रहता है। पंद्रह-बीस मिनट तक शाहरुख के एक्शन सीन्स को तकता है और अंत में यह सोचता हुआ थियेटर से निकलता है कि शाहरुख खान की फिल्में जिस तरह की होती हैं, यह ठीक वैसी फिल्म तो नहीं है। यह जरूर है कि फिल्म की कहानी समाज के भीतर से ही उठायी गयी है। बचपन में मां-बाप को खो चुका शाहरुख खान अपने दादा-दादी का लाडला पोता है। दादा की अंतिम इच्छा थी कि मरने के बाद उनकी अस्थियों को रामेश्वरम में विसर्जित किया जाये लेकिन ठीक उसी वक्त अपने दोस्तों के साथ शाहरुख गोवा पिकनिक का प्रोग्राम बना चुका होता है। लेकिन दादा की इच्छा का भी मान रखना है। दोस्त लोग एक मजाकिया सुझाव देते हैं कि अस्थियों की राख गोवा में बहा देंगे। गोवा की नदी का पानी भी तो घूम फिर कर रामेश्वरम ही जाएगा न। तय होता है कि दादी को चकमा देने के लिए शाहरुख चेन्नई एक्सप्रेस में चढ़ेगा लेकिन कर्जत में उतर जायेगा, जहां दोस्त उसका इंतजार करेंगे। कर्जत से सभी लोग गोवा के लिए निकल लेंगे। इसके बाद जैसा कि सभी की जिंदगी में कोई अनहोनी घट जाती है, उसी तरह क्रमशः तेज होती चेन्नई एक्सप्रेस की तरफ भाग कर आती दीपिका पादुकोन को अपने हाथ का सहारा देकर शाहरुख गाड़ी में चढ़ा लेता है। सिर्फ दीपिका को ही नहीं वह दीपिका के पीछे भागते चार गुंडों को भी गाड़ी में उसी तरह चढ़ा लेता है। गाड़ी दीपिका, शाहरुख और उन गुंडों को लेकर दीपिका के पिताजी के गांव पहुंचती है, जहां पिता का आतंक राज चलता है। पिता दूसरे गांव के एक और डॉन तंगा बल्ली (निकितिन धीर) से दीपिका की शादी करना चाहता है, ताकि वह दो गांवों पर निरंकुश राज कर सके। इस प्रतिकूल परिस्थिति में फंस गये शाहरुख खान की जिंदगी का अंत में क्या बनता है, यह जानने के लिए फिल्म देख लें। दक्षिण की लड़की के किरदार में दीपिका ने कमाल का काम किया है। फिल्म का गीत- संगीत प्रभावशाली है। 

निर्देशक: रोहित शेट्टी 
कलाकार: शाहरुख खान, दीपिका पादुकोन, सत्याराज 
संगीत: विशाल-शेखर
10 अगस्‍त 2013