Monday, December 29, 2014

अगली

फिल्म समीक्षा

काले तंत्र की क्रूर कथा : अगली

धीरेन्द्र अस्थाना

अनुराग कश्यप का एक और बेहतरीन प्रोजेक्ट : अगली। क्रूर तंत्र की काली कथा बयां करने का एक नया अंदाज और सिनेमा का एक नया पाठ। कितना कठिन संधर्ष किया है इस बंदे ने तब जा कर कहीं यह बॉलीवुड में अपनी खुद की लकीर खींच पाया है। अगली समाज के धुले पुछे लोगों के कुरूप चेहरों की पड़ताल करती है। इस फिल्म के हीरो हीरोइन इसकी कहानी है और उस कहानी को विमर्श में ढाल देने का अंदाज उसका क्राफ्ट है। इस फिल्म को इसलिए भी देखा जाना चाहिए ताकि पता चले कि अच्छा सिनेमा कैसे बुना और रचा जाता है। यह सौ करोड़ के क्लब में शामिल होने वाली फिल्म भले ही ना हो लेकिन सौ बरस के बेहतरीन सिनेमा की एक फिल्म अवश्य है। रोनित रॉय, राहुल भट्ट, तेजस्वनी कोल्हापुरे, सुरवीन चावला इन सभी कलाकारों ने अपने किरदार में जान लड़ा दी है। ये सब समय के हाथों पिटे हुए चरित्र हैं। राहुल एक स्ट्रगलर एक्टर है जिसे अब तक किसी भी फिल्म में मौका नहीं मिला है। उसका अपनी बीबी तेजस्वनी से तलाक हो चुका है और वह हर शनिवार अपनी बेटी कली को अपने साथ ले जाता है। तेजस्वनी ने राहुल को छोड़ एक कठोर, निर्मम पुलिस ऑफिसर रोनित रॉय से शादी कर ली है लेकिन इस रिश्ते में भी उसके हाथ हताशा और वंचना ही आयी है। इस दौरान तेजस्वनी और राहुल की बेटी कली को एक उचक्का उठा ले जाता है। कली को बांध कर छुपाने के बाद वह उच्चका एक सड़क दुर्घटना में मारा जाता है। राहुल कली के किडनेप की खबर लिखाने पुलिस के पास जाता है और खुद ही अपहरण के शक में घर लिया जाता है। अनुराग ने यह बताने की कोशिश की है कि बच्ची के अपहरण की सही खोज कोई नहीं करता। सब इस अपहरण के नाम पर अपनी निजी कुंठाएं और दुश्मनी तथा फायदे सिद्ध करना चाहते हैं। रोनित को राहुल को फंसा कर अपने कॉलेज के दिनों की दुश्मनी निकालनी है। तेेजस्वनी का भाई बहन से फिरौती की रकम मांग कर ऐश करना चाहता है। राहुल का दोस्त रोनित से पैसे एेंठना चाहता है। तेजस्वनी अपने पति के कू्रर और ठंडे व्यवहार से आहत और दुखी है। सब अपने अपने हिस्से की एक थकी हुयी लड़ाई लड़ रहे हैं जबकि वह बच्ची जिसका अपहरण हुआ था एक गली में बंघी सड़ रही है। जिस जगह से बच्ची का अपहरण हुआ था अगर उस जगह के आस पास की पुलिस महकमा तलाशी लेता तो शायद लड़की को बचा लिया जाता। अपहरण कर्ता की जिस बुआ के साथ पुलिस अंत में सख्ती बरतती है उसके साथ अगर शुरू में ही सख्ती से पेश आती तो शायद बंघक लड़की तक पहुंचा जा सकता था। यही तो है अनुराग कश्यप का अंदाज। उन काले कोनों को उजागर करना जहां किसी की नजर नहीं जा पाती। अवश्य देख लें। कहानी, एक्टिंग, निमार्ण सब कुछ बेमिसाल है।

निर्देशक : अनुराग कश्यप
कलाकारः रोनित रॉय, राहुल भट्ट, तेजस्वनी कोल्हापुरे, सुरवीन चावला
संगीत : जीवी प्रकाशराव




Sunday, December 21, 2014

पी के

फिल्म समीक्षा

एलियन की प्रेम कहानी: पी के

धीरेन्द्र अस्थाना

जब यह खबर बाहर आयी कि इस बार आमिर की फिल्म में कोई संदेश नहीं है। कि वह शुद्ध कॉमेडी फिल्म है जो दर्शकों को हंसा हंसा कर लोटपोट कर देगी। फिल्म के ट्रेलर से भी कोई अंदाजा नहीं लगा पा रहा था और आमिर खान के इंटरव्यूज से भी इस बात का खुलासा नहीं हो रहा था कि आखिर पीके नाम की इस फिल्म की कहानी क्या है। जो भी हो दिल यह मानने को तैयार नहीं था कि आमिर खान जैसा मिस्टर परफैक्शनिस्ट सिर्फ कॉमेडी करके दर्शकों का दिल बहलाएगा। इस काम के लिए तो बॉलीवुड में एक्टरों की कतारें लगी हुयी हैं। तो क्या आमिर भी उसी कतार में? लेकिन फिल्म ने आंखों में पड़े सारे धुंधलके साफ कर दिये। फिल्म में न सिर्फ संदेश है बल्कि बड़ा करारा संदेश है। ऐसा संदेश कि जिसके लिए लोहे का कलेजा चाहिए। धर्म चाहे जो भी हो यह फिल्म हर धर्म के भगवान के मैनेजरों के खिलाफ युद्ध का ऐलान करती है। धर्म के ठकेदारों से टकराते टकराते यह फिल्म एक एलियन की खामोश प्रेम कहानी में ढल जाती है। इस एलियन और उसकी मासूमियत के माध्यम से निर्देशक राजकुमार हिरानी ने समाज के कई ज्वलंत मुद्दों को बेधक सवालों से बेपर्दा किया है। यह एलियन है आमिर खान जो अपने ग्रह से पृथ्वी पर आया है यह जानने के लिए कि क्या उनके ग्रह जैसा जीवन किसी और ग्रह पर भी है। उसके गले में एक लॉकेट है जो दरअसल उसका रिमोट कंट्रोल है। इसके जरिए वह अपने यान को बुलाकर वापस अपने ग्रह लौट सकता है। उसके ग्रह पर लोग नंगे रहते हैं इसलिए वह भी पृथ्वी पर नंगा ही उतरता है। लेकिन राजस्थान के जिस गांव में वह उतरता है वहां एक चोर उसका रिमोट छीन कर भाग जाता है। अब पृथ्वी की भाषा बोली आचरण व्यवहार और पोशाकों से कतई अनजान एक एलियन कैसे सर्वाइव करे। कुल मिला कर फिल्म का यही संघर्ष है और इस संघर्ष की प्रक्रिया में एलियन टकराता है खुदा के विभिन्न सौदागरों से। इसी दौरान उसकी मुलाकात टीवी रिपोर्टर अनुष्का शर्मा से होती है जो सरफराज नामक प्रेमी से धोखा खाए बैठी है। एलियन अनुष्का की तरफ आकर्षित होने लगता है और अंततः उसे प्यार कर बैठता है। चोर ने एलियन का रिमोट कंट्रोल देश के एक बहुत बड़े स्वामीजी को चालीस हजार में बेच दिया था। अनुष्का एलियन और स्वामीजी के बीच में एक टीवी शो करवा कर वह रिमोट वापस पाने का चक्कर चलाती है। ताकि एलियन फिर से अपने घर अपने ग्रह लौट सके। जब एलियन अपने ग्रह लौट रहा होता है तब उजागर होती है एलियन यानी पीके की खामोश प्रेम कहानीे। लेकिन तब तक तो दोनों के जीवन में बहुत कुछ बुनियादी रूप से बदल चुका होता है। जिसे अनहुआ नहीं किया जा सकता। फिल्म शब्द और उसके अर्थ का एक नया पाठ भी आपके सामने रखती है जिससे गुजरते समय आप आवाक रह जाएंगें।सुंदर, मार्मिक, बेहतरीन और अर्थपूर्ण फिल्म है जिसमें मनोरंजन का भी भरपूर ध्यान रखा गया है। अनुष्का और आमिर दोनों ही अब तक के नये लुक में हैं। एक करिश्माई फिल्म जिसका जादू सिर पर देर तक चढ़ा रहता है। अवश्य देखें। 

निर्देशक: राज कुमार हिरानी
कलाकारः आमिर खान, अनुष्का शर्मा, बोमन ईरानी, सुशांत सिेह राजपूत, संजय दत्त, सौरभ शुक्ला
संगीत: शांतनु मौइ़त्रा



Thursday, December 18, 2014

एक्शन जैक्सन

फिल्म समीक्षा
एक्शन जैक्सन केवल एक्शन
धीरेन्द्र अस्थाना
पता नहीं दर्शकों को कैसे पता लग जाता है कि कौन सी फिल्म देखनी है और कौन सी नहीं। वरना तो जितना इस फिल्म का प्रचार हुआ है उसे देख कर लग रहा था कि अजय की यह फिल्म कहीं उनकी ही सुपर हिट फिल्म सिंघम का रिकॉर्ड न तोड़ दे। मगर अजय देवगन जैसा आजमाया हुआ एक्शन स्टार, सुपर हिट सोनाक्षी और प्रभु देवा जैसे हिट निर्देशक के बावजूद दर्शकों ने फिल्म को ठुकरा दिया। कुल तीस चालीस लोग अपने साथ यह एक्शन पैक्ड नाटक देखने पहुंचे थे। दरअसल दिक्कत यह है कि बार बार यह लिखने के बावजूद कि सिनेमा की सफलता के लिए एक अदद अच्छी और तार्किक कहानी का होना बहुत जरूरी है, निर्माता निर्देशक बस कहानी पर ही ध्यान नहीं देते। उनकी लोकेशन लाजवाब, उनका बजट बेमिसाल, उनका गीत संगीत धमाल। गायब है तो सिर्फ एक अच्छी और थोड़ी सी नयी कहानी। एक्शन जैक्शन में तो नयी या अच्छी क्या कहानी ही नहीं है। पूरी फिल्म आरंभ से अंत तक सिर्फ मारधाड से भरी है। इंटरवल के बाद थोड़ा सा कॉमिक रिलीफ दिया गया है जो बहुत बेतुका है और फिल्म की थोड़ी बहुत लय को भी गड़बड़ा देता है। फिल्म की सबसे बड़ी विशेषता उसके गाने और हिमेश रेशमिया का संगीत है। सभी गाने बहुत पहले ही हिट हो चुके हैं। हिमेश को सिर्फ संगीत में ही रहना चाहिए। वही उनका असली मुकाम है। बड़े ही अजीबो गरीब चेहरों वाले खलनायकों को तो सिनेमा वाले पकड़ ही लाते हैं लेकिन इस बार मनस्वी ममगांई नाम की जिस लड़की को खलनायिका के रूप में उतारा गया है वह काबिले तारीफ है। वह अपने लुक से ही नहीं अपने पूरे हाव भाव से भी वैंप लगती है। डर है कि कहीं इस नयी लड़की को अब सिर्फ ऐसे ही रोल ना ऑफर होने लगें। सोनाक्षी सिन्हा को देखकर अजय देवगन का यह कहना कि जब जब पैंट उतारता हूं, सामने आ जाती है, बहुत भद्दा और अश्लील लगता है। इस डायलॉग को एवॉइड किया जा सकता था लेकिन सिनेमा जो ना कराए। सोनाक्षी ने अपने हिसाब से मनोरंजक काम किया है लेकिन वह फिर से मोटापे की तरफ बढ़ रही है। यमी गौतम के लिए ज्यादा स्पेस नहीं था। जितना था उसमें उसने अपना होना जस्टीफाई किया। अब बचे अजय देवगन। वह डबल रोल में हैं। दोनों गुंडे हैं। एक लोकल एक इंटरनेशनल। दोनों की जिंदगी में एक अदद लड़की आती है और दोनों अपराध की दुनियां से निकल कर साफ सुथरी जिंदगी बिताना चाहतें हैं। मगर ऐसा होता थोड़े ही है। एक बार जो अंधेरी गलियों में उतर गया उसका रौशन सड़क पर लौटना संभव ही नहीं है। एक अजय मुंबई का लोकल गुंडा है दूसरा अजय एशिया के सबसे बड़े डॉन का राइट हैंड है। दोनो को अपनी अपनी प्रेमिकाओं के लिए अच्छा आदमी बनना है लेकिन भाई लोग बनने ही नहीं देते। अब क्या करें। एक ही रास्ता है कि येन केन प्रकारेण जुर्म और जुल्म के सरदारों का सत्यानाश करो और फिल्म की हैप्पी एंडिंग को अंजाम दो। यही रास्ता इस फिल्म के लिए भी आजमाया गया है। डॉन का अंत होता है और दोनों देवगन अपनी अपनी प्रेमिकाओं के साथ प्यार की खुशनुमा गली में उतर जाते हैं। जो मारधाड और मारकाट के शौकीन हैं उनके लिए यह फिल्म टकाटक है। बाजार के खिलाफ जाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। 

निर्देशक: प्रभु देवा
कलाकारः अजय देवगन, यमी गौेतम, सोनाक्षी सिन्हा, मनस्वी ममगांई
संगीत: हिमेश रेशमिया



Sunday, November 30, 2014

उंगली

फिल्म समीक्षा

नेक इरादों की थकी उंगली

धीरेन्द्र अस्थाना

नेक इरादों को लेकर थकी पटकथा के साथ बनायी गयी एक औसत फिल्म। करण जौहर के धर्मा प्रोडक्शन से ऐसी फिल्म निकलने की उम्मीद नहीं थी। कलाकारों के नाम देख कर दर्शक ज्यादा बड़ी उम्मीदें ले कर न जाएं। करप्ट सिस्टम के खिलाफ हिंदी में एक से एक नायाब फिल्में बनी हैं। यह फिल्म भी उसी कतार में है लेकिन पिछली पंक्ति में। सिस्टम से लड़ने के लिए निर्देशक ने एक नया और युवा अंदाज जरूर चुना लेकिन उसे एक बेहतरीन अमली जामा नहीं पहना पाए। कंगना के भाई को एक बड़े फिक्सर का बेटा जान से मारने की कोशिश करता है। भाई कोमा में चला जाता है। न पुलिस में फरियाद होती है न न्याय में। हर जगह करप्शन है या बाहुबल है। क्रिमिनल तो बन नहीं सकते इसलिए सिस्टम को सुधारने के लिए चार दोस्त मिल कर उंगली गैंग बनाते हैं। इस गैंग में हैं कंगना रनौत, रणदीप हुडा, अंगद बेदी और नील भूपलम। एसएम जहीर दो साल से पेंशन दफ्तर के चक्कर काट रहे हैं मगर उन्हें पैसे नहीं मिलते। ये पेंशन बाबू बनते हैं उंगली गैंग के पहले शिकार। उंगली गैंग इन्हें अगवा करके इनके शरीर में नकली बम बांध कर स्टेडियम में दौड़ने को कहता है-इस धमकी के साथ कि अगर वे रूके तो बम फट जाएगा। फिर इसकी खबर वे पुलिस और मीडिया को दे देते हैं। पूरा देश खबर देखता है और उंगली गैंग पब्ल्कि के बीच लोकप्रिय हो जाता है। उनका दूसरा शिकार बनता है शहर का एक प्रभावशाली लेकिन करप्ट नेता जिसके जन्म दिन पर उंगली गैंग उसके घर के चप्पे चप्पे पर उंगली के पोस्टर लगवा देते हैं। उंगली गैंग को पकड़ने के लिए एसीपी काले यानी संजय दत्त को बुलाया जाता है जिसकी इमेंज पुलिस महकमें में एक इमानदार और सख्त पुलिस ऑफिसर की है। संजय अपनी मदद के लिए इस मिशन में इमरान हाशमी को शामिल करता है जो खुद भी एक सनकी पुलिस ऑफिसर है। इमरान उंगली गैंग में घुसने के लिए उंगली गैंग जैसे ही दो कारनामे करता है। पहला, लम्बा भाड़ा चाहने वाले ऑटो चालक को उसी के ऑटो में बांध कर माल गाड़ी से दिल्ली रवाना करने का। दूसरा, नगर पालिका कमिश्नर के घर के सामने वाली चमचमाती सड़क पर बम फोड़ कर सड़क को तहस नहस करने का। उंगली गैंग चक्कर में पड़ जाता है क्योंकि दोनो कारनामे उंगली गैंग के नाम पर हुए हैं। उंगली गैंग के सदस्य इमरान हाशमी से मिलते हैं और काफी पूछताछ तथा जांच पडताल के बाद इमरान को अपने गैंग में शामिल कर लेते हैं। इसके बाद की कहानी बतायी तो फिल्म में आप की दिलचस्पी खत्म हो जाएगी इसलिए फिल्म देखिए क्योंकि एक बार तो देखना बनता है। जो सरोकारों की फिल्म हो उसे एक बार तो देखना ही चाहिए। फिल्म वाले सिनेमाई लिबर्टी के नाम पर जो छूट ले लेते हैं वह कई बार बहुत कोफ्त पैदा करती है। इस फिल्म में भी पुलिस महकमें को ले कर ऐसी छूट ली गयी है। कभी भी कहीं भी पूरा काला या पूरा सफेद नहीं होता। अगर ऐसा हो तो देश चलना तो दूर रेंग भी नहीं सकता। लेकिन कोई बात नहीं। अच्छे इरादों की फिल्म है इसलिए यह छूट भी स्वीकार है।

निर्देशक : रेंसिल डिसिल्वा
कलाकारः संजय दत्त, इमरान हाशमी, रणदीप हुडा, कंगना रनौत, नेहा धूपिया, अंगद बेदी
संगीत : सलीम सुलेमान, सचिन जिगर




Wednesday, November 26, 2014

हैप्पी एंडिंग

फिल्म समीक्षा

ट्रेजेडी में बदली हैप्पी एंडिंग 

धीरेन्द्र अस्थाना

युवा पीढ़ी के कौन से सच का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं हिंदी सिनेमा वाले। अपनी जान पहचान के पूरे देश में जो सैकड़ों हजारों युवक हैं उनमें से तो एक भी ऐसा नहीं मिला जो लड़की के साथ केवल मौज मजा करना चाहता है, मगर कमिटमेंट या जिम्मेदारी से बचता है। एकाध ऐसे परिचित जरूर हैं जिन्होंने अपनी मर्जी से विवाह किया मगर विवाह के एक दो साल बाद ही रिश्ता टूट गया। लेकिन एक दो केस के आधार पर इसे नियम नहीं बनाया जा सकता कि नयी पीढ़ी के लड़के आत्मकेंद्रित, सेल्फिश और जिम्मेदारी से भागने वाले होते हैं। मगर फिल्म हैप्पी एंडिंग का सच और सार यही है। शायद इसी कारण यंग जेनरेशन ने फिल्म को नकार दिया। यूं भी जिस थॉट को फिल्म में स्टैब्लिश किया गया है उसका प्रतिनिधित्व सैफ अली खान नहीं अली जाफर या अली फजल जैसे एकदम नये कलाकार कर सकते हैं। सैफ अली अब वरिष्ठों की कतार में आ गये हैं। बहरहाल, सैफ अली अमेरिका में बसे एक लेखक हैं जिनका इकलौता उपन्यास बेस्ट सेलर बन कर बाजार में छा गया था। वह लड़कियों के साथ रिश्ते तो बनाते हैं पर उन पर टिकते नहीं। अमेरिका में उनका एक मात्र दोस्त रणवीर शौरी है। धीरे धीरे सैफ के सारे पैसे खत्म हो जाते हैं। उन्हें नया उपन्यास लिखने की प्रेरणा नहीं मिलती। इसी बीच मार्केट में एक नयी लेखिका आंचल का सिक्का जम जाता है। यह आंचल यानी इलियाना सैफ अली का नया प्यार या कहें नया शिकार है। मगर इलियाना खुद भी सैफ टाइप की ही है यानी उसे भी प्यार व्यार में कोई यकीन नहीं है। अमेरिका में कुछ दिन सैफ के साथ बिता कर जब वह इंडिया लौट जाती है तो सैफ को एहसास होता है कि उसे जिंदगी में पहली बार प्यार हो गया है। इस बीच वह सिंगल स्क्रीन के सुपर स्टार गोविंदा के लिए एक फिल्म की पटकथा लिख रहा है जो खुद उसी के जीवन पर आधारित है लेकिन फिल्म का अंत नहीं सूझ रहा है। इस अंत की तलाश में वह भारत जाता है और इलियाना से मिलता है। वहां वह यह साबित करने में कामयाब हो जाता है कि वह बदल गया है, उसकी सोच बदल गयी है। और वह सचमुच इलियाना के प्यार में उतर गया है। दोनों मिल जाते हैं और सैफ को अपनी फिल्म की हैप्पी एंडिंग मिल जाती है। वह पटकथा पूरी करता है जो गोविंदा पर शूट होती है। फिल्म में छोड़ी गयी प्रेमिकाओं के रूप में प्रिति जिंटा, करीना कपूर और कल्की कोचलीन है। सैफ और इलियाना समेत सभी कलाकारों ने उम्दा अभिनय किया है मगर सुस्त पटकथा और अतार्किक कहानी के चलते फिल्म एक ट्रेजेडी में बदल गयी है। गोविंदा और सैफ के जरिये प्रोडयूसर की दबंगई और डायरेक्टर की बेचारगी को दिलचस्प अंदाज में पेश किय गया है। दरअसल यही फिल्म की यूएसपी भी है। किल दिल के बाद गोविंदा एक बार फिर नये अवतार में हैं। लगता है उनकी दूसरी पारी शानदार होने वाली है। संपूर्णता में नहीं टुकड़ों मे फिल्म दिलचस्प है।

निर्देशक : डीके-राज
कलाकारः सैफ अली खान, इलियाना डिक्रूज, गोविंदा, रणवीर शौरी, कल्की कोचलीन, प्रिति जिंटा, करीना कपूर
संगीत : सचिन जिगर




Tuesday, November 18, 2014

किल दिल

फिल्म समीक्षा

एक कहानी कितनी बार 

धीरेन्द्र अस्थाना

 हिंदी का कमर्शियल सिनेमा बाजार के ऐसे दुश्चक्र में फंसा हुआ है कि लीक से थोड़ा भी इधर उधर होने का रिस्क उठाने से डरता है। हांलाकि इस डर का कोई बड़ा लाभ भी नहीं मिलता। फिल्म देखकर सामान्य दर्शक भी दो एक नेगेटिव कमेंट पास कर ही देते हैं। किल दिल के साथ भी यही ट्रेजडी घटित हुई है। पचासों बार फिल्मायी गयी कहानी एक बार फिर सामने है बस कलाकार नये हैं। कहानी में कोई नया डायमेंशन, कोई नयी उपकथा ही डाल देते तो भी कुछ राहत मिलती। नये ट्र्रैक के नाम पर इंटरवल के बाद कॉमेडी तड़का लगाया है जो बोरियत पैदा करता है। दो अनाथ बच्चे हैं जिन्हें एक डॉन पालता पोसता है। दोनों भागते भागते बड़े हो जाते हैं और डॉन के शूटर में बदल जाते हैं। दोनों जिगरी यार हैं। फिर एक की जिंदगी में एक लड़की का प्रवेश होता है। लड़की का साथ पा कर लड़के का सुधरने का मन करता है जिस कारण डॉन नाराज हो जाता है। तो भी बागी लड़का सुधार के रास्ते पर ही चलता जाता है और लड़की का दिल जीत लेता है। अब एंटी क्लाइमेक्स यह कि जब लडका सुधर जाता है तो लड़की को पता चल जाता है कि उसका आशिक तो शूटर था। लड़की रिश्ता तोड़ लेती है। फिर दो चार बेतुकी घटनाओं के बाद लड़का लड़की के प्यार की हैप्पी एंडिंग हो जाती है। डॉन का साम्राज्य नष्ट हो जाता है। इसी पुरानी कहानी को रणवीर सिंह, अली जफर और परिणति चोपड़ा जैसे नयी पीढ़ी के प्रतिभाशाली कलाकारों के जरिए फिर से पर्दे पर उतारा गया है। केवल अंग्रेजी में नाम रख देने से थोड़े ही अठारह से पच्चीस साल के युवक फिल्म देखने दौड़े चले आएंगे। डॉन बने गोविंदा ने भैयाजी के किरदार में पूरी फिल्म को लूट लिया। नहीं समझ आया कि जब गोविंदा इतना शानदार अभिनय कर सकते हैं तो फिर कई दफा फूहड़ कॉमेडी के शिकंजे में क्यूं फंस जाते हैं। रणवीर और अली पूरी दिल्ली में कहीं भी किसी भी गली, नुक्कड़, होटल, बाजार और कार में जा कर शूट कर आते हैं और शहर में प्रशासनिक स्तर पर कोई हरकत भी नहीं होती। कहीं कोई खबर भी नहीं चलती या छपती। फिल्म में गानों की भी भरमार है। शायद दो घंटे सात मिनट की फिल्म में चालीस पचास मिनट तो गानों के फिल्मांकन में निकल गये होंगे। यह अलग बात है कि गाने गुलजार के हैं इसलिए स्वाभाविक रूप से अच्छे हैं और शंकर अहसान लाय ने उन्हें बेहतर ढंग से संगीतबद्ध भी किया है। परिणति अपनी अदाओं को रिपीट कर रही है। ऐसा करने से उन्हें बचना चाहिए और बहन प्रियंका के बहुरंगी, बहुआयामी अभिनय से पाठ लेना चाहिए। लुटेरा और रामलीला जैसी फिल्मों के बाद रणवीर सिंह का किल दिल करना शोभा नहीं दिया। ऐसी फिल्में करेंगे तो उनके पास बी ग्रेड फिल्मों की कतार लग जाएगी। फिल्म को केवल गोविंदा के अभिनय के कारण देखा जा सकता है। शाद अली भी सोच लें कि उन्हें इम्तियाज अली, अनुराग कश्यप और विशाल भारद्वाज की तरह अपनी लकीर खींचनी है या फिर पिटी पिटाई राह पर चलना है।
निर्देशक : शाद अली
कलाकारः रणवीर सिंह, अली जाफर,परिणति चोपड़ा, गोविंदा
संगीत : शंकर अहसान लाय




रंगरसिया


फिल्म समीक्षा

रंगरसिया मन बसिया 

धीरेन्द्र अस्थाना

आखिर भारत के महान चित्रकार राजा रवि वर्मा के जीवन संघर्ष और कलात्मक प्रक्रिया पर आघारित केतन मेहता की फिल्म रंगरसिया छह साल के बाद सिनेमाघरों में रिलीज हो ही गयी। राजा रवि वर्मा के काल में देवी देवताओं की सिर्फ कल्पना की जाती थी । रवि वर्मा ने उन्हें चेहरे  दिए । एक जर्मन दोस्त की मदद से उन्होंने अपना खुद का प्रिंटिंग प्रेस खोला और प्रसिद्ध देवी देवताओं की पेंटिग्स के प्रिंट निकाल कर सस्ती दरों पर आम आदमी तक उपलब्ध करवाये। उन्होंने ईश्वर को कॉमन मेन के घरों तक पहुंचा दिया। रवि वर्मा दुनिया भर में प्रसिद्ध हो गये। उनकी यह शोहरत तत्कालीन धर्मगुरूओं को पसंद नहीं आयी। अपने जीते जी किंवदंति बन जाने वाले इस आम आदमी के पेंटर को न सिर्फ धर्म के ठेकेदारों का विरोध सहना पड़ा बल्कि उन पर अश्लीलता के आरोप का मुकदमा भी चला। उनके घर, स्टूडियो और प्रिंटिंग प्रेस को जलाने के प्रयत्न हुए। संभवतः वह पहले ऐसे भारतीय कलाकार थे जिन्हें कला और अभिव्यक्ति की आजादी के लिए इतना खतरनाक विरोध झेलना पड़ा। कुछ इलीट पेंटरों द्वारा राजा रवि वर्मा को केलेंडर आर्टिस्ट कह कर अपमानित किया गया। लेकिन इस सब से उनकी कलात्मक क्षमता और अमरता पर कोई असर नहीं पड़ा । आज भी राजा रवि वर्मा को एक महान पेंटर के तौर पर ही याद किया जाता है। इन्हीं रवि वर्मा के जीवन पर फिल्म बना कर केतन मेहता ने एक बड़ा काम  किया है।़ उन्होंने एक छोटे से दायरे में सिमटे पेंटर को ठीक उसी तरह आम आदमी तक पहुंचा दिया जैसे स्वर्ग की अप्सराओं उर्वशी मेनका और देवी देवताओं को एक चेहरा दे कर रवि वर्मा ने आम लोगों तक पहुंचा दिया था। यह दिल और साहस के साथ बनायी गयी फिल्म है। फिल्म में राजा रवि वर्मा के किरदार में रणदीप हुडा और उनकी मॉडल मिस्ट्र्रेस सुगंधा के रोल में नंदना सेन हैं। आठ नौ साल पहले जब फिल्म बननी शुरू हुयी तब यह दोनों ही कलाकार लगभग नये थे। लेकिन दोनों ने अपने रोल में जान डाल दी है। आज के समय में ब्रिटिश कालीन मुंबई को देखना एक नया अनुभव बनता है। सब जानते हैं कि राजा रवि वर्मा एक रंगीले व्यक्ति थे लेकिन अपनी आशिकाना तबियत का इस्तेमाल उन्होंने अपनी कला की प्रेरणा के लिए किया। नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन की बेटी नंदना सेन ने लगभग निर्वस्त्र पोज दे कर खतरनाक साहस का परिचय दिया है। लेकिन उससे फिल्म की विश्वसनीयता दो पायदान उपर चढ़ गयी है। युवा संगीतकार संदेश शांडिल्य ने फिल्म में यादगार और मनभावन संगीत रचा है। दर्शन जरीवाला, परेश रावल, आशीष विद्धार्थी और सचिन खेडेकर के संक्षिप्त रोल भी चेतना में ठहर से जाते हैं। निर्माता जयंति लाल गाडा का शुक्रगुजार होना चाहिए जिनके कारण एक बेहतरीन फिल्म पर्दे का मुंह देख पायी है। अगर आप राजा रवि वर्मा के नाम और काम को नहीं जानते हैं तो भी यह फिल्म जरूर देख लें।               
निर्देशक : केतन मेहता
कलाकारः रणदीप हुडा, नंदना सेन, परेश रावल, दर्शन जरीवाला, आशीष विद्धार्थी, सचिन खेडेकर।
संगीत : संदेश शांडिल्य




सुपर नानी


फिल्म समीक्षा

नौटंकी बन गयी सुपर नानी

धीरेन्द्र अस्थाना

मसाला फिल्में होने के बावजूद निर्देशक इंद्रकुमार की फिल्में आम तौर पर दर्शनीय होती हैं। उनमें कॉमेडी के साथ इमोशन का भी संतुलित तड़का होता है और उनकी मेकिंग भी सधी हुई तथा परिपक्व होती है। मगर अपनी नयी फिल्म सुपर नानी का निर्माण करते समय इंद्रकुमार से एक दो नहीं कई गलतियां हो गयी हैं। एक अच्छा विषय उन्होंनें चुना था। परिवार में मां का दर्जा। मां जो खुद को मिटा कर घर परिवार को खड़ा करती है। जो साल के तीन सौ पैंसठ दिन चौबीस घंटे बिना पगार लिए काम करती है। जो कभी रिटायर नहीं होती है। जो अपने पति, बेटे, बेटी, बहु के सुख की खातिर खुद को तिरोहित कर देती है। लेकिन बदले में उसे परिवार का प्यार नहीं वंचना और हिकारत मिलती है। इस मार्मिक विषय पर इंद्रकुमार जैसा परिपक्व निर्देशक एक मर्मांतक और यादगार अफसाना रच सकते थे। शायद इसी चाहत के चलते उन्होंने यह विषय उठाया भी होगा। मगर अफसोस, उनसे सबसे बड़ी चूक यह हो गयी कि वह भूल गये कि वह सन 2014के अंतिम महीनों में खड़े हैं। सिनेमा बहुत आगे बढ़ गया है जबकि इंद्रकुमार ने बहुत पुराने छूटे हुए समय, शायद 70 या 80 के दशक वाले विचार में रह कर यह फिल्म बना डाली है। अगर अपने विषय को उन्होंने पर्दे पर उतारते समय आजकी चेतना और समय तथा मुहावरे का स्पर्श दे दिया होता तो फिल्म अमिताभ बच्चन की बागबान की तरह कमाल रच सकती थी। जोर जोर से बोले गये संवादों, बोर करती भावुकता, हर पल बहते आंसुओं और पारिवारिक सदस्यों की लाउड एक्टिंग के कारण पूरी फिल्म नौटंकी बन कर रह गयी है। दो हफ्ते पहल आई फिल्म सोनाली केबल में अपने खराब अभिनय से अनुपम खेर ने दर्शकों को जो दुख दिया था उसका पश्चाताप इस फिल्म में हो गया है। हिलती हुई गर्दन का एक नया ही लुक दे कर अनुपम ने अपनी एक्टिंग बुक में एक नया पाठ जोड़ दिया है। शरमन जोशी और रेखा तो मंज हुए कलाकार हैं। मगर इंद्रकुमार की बेटी श्वेता कुमार को अगर सिनेमा में ही करियर बनाना है तो उन्हें अभिनय के कई पाठ सीखने होंगे। उन्हें अनुष्का, परिणीता और आलिया जैसी कई प्रतिभाशाली युवा अभिनेत्रियों के सामने खुद को प्रमाणित करना है। वंचित, अपमानित रेखा को फिर से उसके सुनहरे दिनों में लौटने में मदद कर शरमन जोशी रेखा के परिवार के दुष्ट और घटिया सदस्यों को एक एक कर अच्छा सबक सिखाता है। सबसे अंत में रेखा के पति बने रणधीर कपूर भी पश्चाताप के घर में लौटते है। नानी को सुपर नानी बना कर शरमन विदेश चला जाता है। रेखा के परिवार में सुख लौटता है।
निर्देशक : इंद्रकुमार
कलाकारः, रेखा, शरमन जोशी, श्वेता कुमार, रणधीर कपूर, अनुपम खेर
संगीत : हर्षित सक्सेना, संजीव दर्शन




हैप्पी न्यू ईयर


फिल्म समीक्षा

हिट है हैप्पी न्यू ईयर

धीरेन्द्र अस्थाना

आम तौर पर आमिर खान, शाहरूख खान और सलमान खान की फिल्में हिट होती ही हैं। वजह यह है कि ये तीनों अपनी फिल्मों में रोमांस, एक्शन, डांस, कॉमेडी और इमोशन का एक संतुलित मिश्रण तैयार करते हैं। ये तीनों इस बात का भी खयाल रखते हैं कि उनकी फिल्म के जरिए कोई ना कोई संदेश भी जारी हो। शाहरूख खान की हैप्पी न्यू ईयर में भी इन सभी तत्वों का समावेश है। यह कोई मीनिंग फुल या कमाल की फिल्म नहीं है। न ही इसकी कहानी में कोई नयापन है। लेकिन पूरे परिवार को ध्यान में रख कर बनायी गयी यह फिल्म पूरी तरह मनोरंजक और खुशनुमा अनुभव देती है। कोई सोच भी नहीं सकता कि जिंदगी के छह लूजर्स वर्ल्ड ड़ांस चैंपियनशिप में भाग लेने के बहाने दुनिया की सबसे बडी चोरी करने के लिए निकलते हैं। इस फिल्म का एक लोकप्रिय संवाद है जो शायद दुनिया के हर आदमी के जीवन पर फिट बैठता है- किस्मत बड़ी कुत्ती चीज है। वह कभी भी पलट जाती है। जिंदगी में दो ही तरह के लोग होते हैं- लूजर्स और विनर्स। लेकिन जिंदगी हर लूजर को कभी न कभी एक मौका जरूर देती है कि वह विनर बन जाए। यह फिल्म भी छह लूजर्स की कहानी को सधे हुए और दिलचस्प अंदाज में पेश करती है। इन छह में से पांच मंजे हुए तथा अनुभवी एक्टर हैं। छटा एक नया लेकिन प्रतिभाशाली कलाकार है। ये छह लूजर्स हैं- शाहरूख खान, दीपिका पादुकोन, बोमन इरानी, सोनू सूद, अभिषेक बच्चन और विवान शाह। वर्ल्ड डांस चैंपियनशिप में भाग लेने के नाम पर शाहरूख खान इन्हें एक डायमंड डकैती के लिए एकजुट करता है। आधी फिल्म इस डकैती और डांस कंपटीशन की रिहर्सल में निकल जाती है। इंटरवल के बाद शुरू होती है वास्तविक फिल्म और उसका मकसद। छह के छह कलाकारों ने एकदम शानदार काम किया है। उन्होंने दर्शकों को रोमांचित भी किया, हंसाया भी और रूलाया भी। फिल्म का गीत संगीत तो पहले से ही हिट है। कई संवाद भी यादगान बन गये हैं। मसलन इजी नहीं है। मोनिका डांस इजी नहीं है। डांस एक पूजा है। डांस एक आर्ट है आर्ट। इस संवाद को दीपिका ने जिस स्टाइल में बोला है उससे इसकी लाइफ बढ़ गयी है। फिल्म में देश प्रेम का भी जज्बा है जिसका शाहरूख खास खयाल रखते हैं। रियलीटी शो के बैकड्राप पर आधारित चोरी की यह कहानी दरअसल एक रिवेंज स्टोरी है जिसे कथानक और हालात ने पॉजिटिव स्टेटमेंट में बदल दिया है। इस चोरी के जरिए शाहरूख खान अपने बाप अनुपम खेर की बर्बादी और मौत  का बदला जैकी श्राफ  की तबाही से लेता है जो अनुपम खेर की दौलत के दम पर दुबई में मौज काट रहा है। मनोरंजन का अच्छा पैकेज है हैप्पी न्यू ईयर।
निर्देशक : फराह खान
कलाकारः, शाहरूख खान, दीपिका पादुकोन, अभिषेक बच्चन, बोमन ईरानी, सोनू सूद, विवान शाह, जैकी श्रॉफ
संगीत : विशाल-शेखर


Sunday, October 19, 2014

सोनाली केबल


फिल्म समीक्षा

केबल वॉर के दिनों में सोनाली केबल

धीरेन्द्र अस्थाना

हांलाकि ज्यादा दर्शक फिल्म देखने नहीं आये लेकिन फिल्म ठीक ठाक थी। कहानी का विषय भी नया था और युवा कलाकार रिया चक्रवर्ती तथा अली फजल ने काम भी बेहतर किया है। फिल्म दर्शकों को उन दिनों में ले जाती है जब मुंबई में केबल वॉर शुरू हो गयी थी। बड़ी बड़ी कंपनी वाले केबल व्यवसाय पर कब्जा करने के लिए सड़कों पर उतर आये थे। उन्होंने छोटे केबल व्यापारियों को या तो खरीद कर उनका इलाका हथिया लिया था या फिर बाहुबल के दम पर उन्हें उनके इलाकों से खदेड़ दिया था। अब मुंबई में वह स्थिति नहीं है। केबल व्यवसाय में शांतिपूर्ण सह अस्तित्व की स्थिति है। लेकिन सोनाली केबल उन्हीं पुराने जंग के दिनों में लौटती है। रिया चक्रवर्ती मुंबई के  कोलाबा वाले इलाके में अपना खुद का सोनाली केबल सेंटर चलाती है। इलाके के तीन हजार घरों में सोनाली का केबल चलता है। उसके साथ पांच छह लड़के भी काम करते हैं। हालांकि वह सब की बॉस है लेकिन उनके बीच दोस्ती का रिश्ता है। सोनाली उन तीन हजार घरों को अपना कस्टमर नहीं अपना घर मानती है क्योंकि उन घरों के भीतर से उसे मां वाली खुशबू आती है। यह खुशबू उसके अपने घर में नहीं है क्योंकि उसकी मां उसे बचपन में ही छोड़ कर चली गयी थी। सोनाली के बाप ने ही उसे पाल पोस कर बड़ा किया है। सोनाली का बाप वड़ापाव का ठेला लगाता है। बाप के रोल में मशहूर गीतकार स्वानंद किरकिरे उतरे हैं और क्या खूब किरदार निभाया है उन्होंने। एकदम महेश मांजरेकर की तरह मंजे हुए एक्टर लगते हैं। इन्ही दिनों इलाके की विधायक स्मिता जयकर का बेटा अली फजल अमेरिका से एमबीए करके अपने घर लौटता है। वह और सोनाली स्कूल में साथ पढ़े हैं। दोनों का अठारह बरस का साथ है। अली के लौटने से सोनाली के एकाकी जीवन में नये रंग खिलने लगते हैं मगर स्मिता को अपने बेटे का सोनाली से घुलना मिलना जरा भी पसंद नहीं है। निर्देशक ने मां और बेटे की प्रेमिका के बीच उपजे तनाव को खूबसूरती से उभारा है। सोनाली केबल में स्मिता का साठ प्रतिशत हिस्सा है। स्मिता चाहती है कि सोनाली केबल की बागडोर उसका बेटा संभाल ले और सोनाली को इस धंधे से हटा दे। तभी शहर में एक बड़ी कंपनी शाइनिंग प्रवेश करती है। वह पानी भी बेचती है और खाखरा भी। इसके चेयरमैन अनुपम खेर हैं जो डेेढ़ लाख रूपये वाली शराब पीते हैं और उसके साथ खाखरा खाते हैं। वह अपने पॉश दफ्तर में भी पायजामा पहन कर आते हैं। यह गुजराती व्यापारी अनुपम अब पूरी मुंबई पर राज करना चाहते हैं। उनका मंसूबा है कि मुंबई के लगभग नहीं हर घर में उनका केबल चले। उनके बाहुबली मंसूबों से सोनोली कैसे टकराती है और कैसे उन्हें ध्वस्त करती है इस दिलचस्प और दिमागी जंग को देखने के लिए फिल्म को एक बार देखना तो बनता है। हालांकि इंटरवल के बाद फिल्म बिखर गयी है लेकिन दर्शक एक पल के लिए भी बोर नहीं होते। फिल्म के गानों की अलग से कोई सत्ता नहीं है। वह केवल कहानी और स्थिति को परिभाषित करते हैं। एकदम हमारे आस पास के किसी गली मोहल्ले की सच्ची कहानी जैसी है फिल्म। 
निर्देशक : चारूदत्त आचार्य
कलाकारः, रिया चक्रवर्ती, अली फजल, अनुपम खेर, स्मिता जयकर, स्वानंद किरकिरे
संगीत : अंकित तिवारी




इक्कीस तोपों की सलामी

फिल्म समीक्षा

आम आदमी की जंगः इक्कीस तोपों की सलामी 

धीरेन्द्र अस्थाना

आम तौर पर मुख्य धारा के सिनेमा को केवल मनोरंजन का माध्यम माना जाता है। अविश्वसनीय लगने वाले सीन या धटनाओं को सिनेमाई लिबर्टी या लार्जर देन लाइफ का हवाला देकर जस्टीफाइ कर लिया जाता है। लेकिन कुछ लोग हैं जो मनोरंजन के इस व्यापक माध्यम में सेंध लगा कर कोई न कोई संदेश देने का मौका तलाश ही लेते हैं। असल में इन थोड़े से लोगों के कारण ही थोड़ा सा मुख्य धारा का सिनेमा सार्थकता के हाशिये पर खड़ा टिमटिमाता रहता है। इक्कीस तोपों की सलामी एक कच्ची, कमजोर लेकिन सार्थक फिल्म हैं। यह सत्ता की शक्ति संपन्नता और भ्रष्टाचार की नदी को ठेंगा दिखाते हुए एक आम आदमी की इमानदारी को परिभाषित करती है। इस क्रम में जब आम आदमी हार जाता है तो फिल्म आम आदमी की जंग को अन्य तरीकों से अंजाम देती है। अनुपम खेर महानगर पालिका में जमादार है और मच्छर ग्रस्त कॉलोनियों में मच्छर धुआं उडाने का काम करता है। अपनी सत्ताइस साल की नौकरी में उसने एक भी छुट्टी नहीं ली और न ही उसके उपर भ्रष्टाचार का एक भी आरोप है। अपनी इस अडिग इमानदारी के कारण उसका अपने दोनों बेटों के साथ भी टकराव और टशन है। बड़ा बेटा नगरपालिका में है और रिश्वत लेने को बुरा नहीं मानता। छोटा बेटा भ्रष्टाचारी मुख्य मंत्री की सिपहसालार टीम का गुर्गा है और पिता को मूर्ख तथा निकम्मा मानता है। मुख्य मंत्री राजेश शर्मा एक नंबर का लम्पट और अय्याश है। वह फिल्मों की सी ग्रेड नाइका नेहा धूपिया के प्रेम पाश में बंधा हुआ है। राजेश शर्मा ने मुख्य मंत्री के रूप में बेहद शानदार और जीवंत अभिनय किया है जबकि नेहा धूपिया अपने करियर के सबसे खराब और नकली रोल में है। हालांकि उन्हें एक ऐसा दमदार चरित्र दिया गया था कि वह फिल्म में अपना सिक्का जमा सकती थी। फिल्म का शुरू का आधा हिस्सा उटपटांग और नकली है। लेकिन रिटायरमेंट के अंतिम दिन जब अनुपम खेर को भ्रष्टाचार के आरोप में निलंबित कर दिया जाता है और सदमे से अनुपम खेर का देहांत हो जाता है उसके बाद फिल्म एक सार्थक और संदेशपरक डगर पर चल पड़ती है। दोनों बेटे पिता को इक्कीस तोपों की सलामी दिलाने की पिता कि अंतिम इच्छा को पूरा करने की प्रक्रिया में जुट जाते हैं। दोनों की लड़ाई में बड़े की पत्नी और छोटे की प्रेमिका भी उनके साथ आ खड़ी होती हैं। चूंकि छोटे की प्रेमिका अदिती शर्मा मुख्य मंत्री की पर्सनल सचिव है इसलिए दोनों बेटों की योजना आसानी से साकार हो जाती है। वे हार्ट अटेक से मरे मुख्य मंत्री की लाश को भाइंदर, मुंबई की खाड़ी में फेंकने और उसकी जगह अपने पिता को इक्कीस तोपों की सलामी दिलाने में कामयाब हो जाते हैं। फिल्म के कई सीन नकली हैं लेकिन सार्थक संदेश के कारण उन्हें माफ किया जा सकता है। संगीत लुभावना है। फिल्म को एक बार देखा जा सकता है। यह कलाकारों की नहीं कहानी की फिल्म है।
निर्देशक : रवीन्द्र गौतम
कलाकारः, अनुपम खेर, नेहा धूपिया, दिव्येंदू शर्मा मनू रिषी चढ्ढा, अदिती शर्मा
संगीत : राम संपत




Friday, October 10, 2014

बैंग बैंग


फिल्म समीक्षा

एक्शन और रोमांस की बैंग बैंग

धीरेन्द्र अस्थाना

इस फिल्म को रितिक रोशन के हैरतअंगेज एक्शन सीन, खतरनाक फाईट और दिलकश डांस के लिए भी देखा जा सकता है तथा कैटरीना कैफ की कयामत ढाती खुबसूरती के लिए भी। एक्शनसीन एकदम हॉलीवुड के अंदाज और तकनीक के साथ अंजाम दिये गये हैं। फिल्म की कहानी में कोई नयापन नहीं है, न ही कोई संदेश। लेकिन एक एक्शन पैक्ड सुंदर अनुभव से गुजरने के लिए फिल्म को देखना बनता है। पता नहीं क्यों निर्देशकों को यह बात समझ में नहीं आती कि लार्जर देन लाईफ का मतलब तथ्यों से छेड़छाड़ करना या उन्हें एकदम नकार देना नहीं होता। अब देहरादून जैसे घाटी के शहर की राजपुर रोड जैसी राजसी और व्यस्त सड़क को बर्फ से ढकी हुयी और सुनसान क्यों दिखा दिया? क्या पिक्चर को देहरादून वाले नहीं देखेंगे? बहरहाल, एक इंटरनेशनल और खतरनाक डॉन डैनी लंदन की जेल में बंद है। एक भारतीय सैन्य अधिकारी जिमी शेरगिल उससे मिलने जेल पहुंचता है और उसे बताता है कि दिल्ली की तिहाड़ जेल पहुंचने का इंतजार करो क्यों कि जल्दी ही एक ऐसी संधि होने जा रही है जिसके तहत किसी भी देश के अपराधी को उसके मूल देश को तत्काल सौंप दिया जाएगा। लेकिन बातचीत के दौरान ही डैनी के लोग जेल पर हमला करते हैं और डैनी को छुड़ा ले जाते हैं। जाते जाते डैनी जिमी को गोली मार कर आग में जिंदा जला देता है। फिल्म के अंत में पता चलता है कि रितिक रोश नही जिमी का बड़ा भाई था जो डैनी का साम्राज्य ध्वस्त करता है और डैनी को आग में जला कर मार डालता है। असल में लंदन की जेल से आजाद होने के बाद डैनी अपने दांये हाथ जावेद जाफरी के जरिए दुनिया के बेशकीमती हीरे कोहेनूर की चोरी करने वाले व्यक्ति को भारी इनाम का लालच एक विज्ञापन के जरिए दिलवाता है। यह हीरा रितिक रोशन चुरा लेता है। इसी हीरे को रितिक से वसूल करने के लिए पूरी फिल्म खड़ी की गयी है। हवा, जमीन तथा पानी में खतरनाक स्टंट सीन करवाए गये हैं। कई एक्शन सीन में कैटरीना ने भी अच्छा काम कर अपना होना साबित किया है। फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि दर्शकों को आरंभ में ही इस बात का एहसास हो जाता है कि रितिक जैसा फिल्म का सुपर हिरो एक डॉन के लिए हीरा चुराने का काम क्यों करेगा?  और जब इस रहस्य पर से पर्दा उठता है कि हीरा तो चोरी हुआ ही नहीं। वह तो लंदन पुलिस का एक प्लान था जिसमें भारतीय सेना का बड़ा अधिकारी रितिक रोशन खुफिया तौर पर शामिल था। यह सब तो डॉन को समाप्त करने की रणनीति थी। डैनी का आतंक राज समाप्त होता है। कैटरीना बेहोश रितिक के उसके घर राजपुर रोड देहरादून ले जाती है जहां रितिक अपने मां बाप से मिलता है। मां बाप को यह गम है कि उनके दोनों बेटे जिमी और रितिक एक मिशन में मारे जा चुके हैं। घर में खुशियां लौटती हैं। यही है इस फिल्म का बैंग बैंग। 
निर्देशक : सि़द्धार्थ आनंद
कलाकारः, रितिक रोशन, कैटरीना कैफ, डैनी।                                                              
संगीत : विशाल- शेखर




देसी कट्टे


फिल्म समीक्षा

दिल, दोस्ती और जुनून के देसी कट्टे 

धीरेन्द्र अस्थाना

अभावग्रस्त बचपन जीते दो दोस्त। नौ दस की उम्र से ही देसी कट्टे हाथ में थामे स्कूली बच्चों के टिफिन से उनका भोजन थाम नौ दो ग्यारह होते दोस्त। जुर्म की दुनिया के बेताज बादशाह बनने का सपना आंखों मे लिए भागते भागते बड़े हो जाने वाल दोस्त। कथा कहने का पुराना ढर्रा। अपराध जगत के बादशाह आशुतोष राणा के सबसे बड़े और खतरनाक सिपहसालार की हत्या कर उसकी जगह स्थापित होन वाले दोस्त - पाली और ज्ञानी। मतलब अखिल कपूर और जय भानुशाली। कहानी का लोकेल कानपुर। गुंडई, मारामारी, नाचगाना, आईटम सब कुछ कस्बाई अंदाज में। पचासों बार बनी एक और क्राईम फिल्म। लेकिन औरों से जुदा इसलिए कि बैकड्रॉप खेल का। अगर फिल्म बहुत धीमी न होती तो अच्छी की श्रेणी में जा सकती थी। मगर एक्शन, रोमांस, ड्रामा सबकुछ इतना सुस्त और उनींदा कि आदमी बोर हो जाए। दोनों दोस्तों की जिंदगी में सुनील शेट्टी का आगमन होता है जो सेना का रिटायर मेजर है। वह उन्हें समझाता है कि अपने हुनर का उपयोग देश के लिए करो। अच्छे शूटर हो तो देश के लिए शूटिंग में मेडल जीत कर लाओ। वह उन्हें निशाना लगाने की सख्त ट्र्रेनिंग देता है। अब उन्हें नेशनल चैंपियनशिप में भाग लेना है लेकिन तभी दोनों दोस्तों के जीवन में आशुतोष राणा फिर से मौजूद हो जाता है, उन्हें अपने साथ जुड़ने का आग्रह करता हुआ। यह है मध्यांतर। दो दोस्तों की राहें अलग अलग हो जाती हैं। एक फिर से जुर्म की दुनियां में उतर जाता है। दूसरा खेल में अपना करियर बनाने चल पड़ता है। अपराधी है अखिल कपूर जिसके चेहरे पर किसी भी तरह के भाव उभरते ही नहीं हैं। प्लेयर है जय भानुशाली जिससे आगे चल कर कुछ उम्मीदें की जा सकती हैं। साशा आगा और टिया बाजपेयी को ज्यादा कुछ करने का मौका ही नहीं मिला। जितना मिला उसमें भी वह किसी छोटे कस्बे के आर्टिस्ट की तरह रह गयी। सुनील शेट्टी, अखिलेन्द्र मिश्रा, आशुतोष राणा और मुरली शर्मा जैसे सीनियर फिल्म में छाये रहे। अपने काम से भी, अपने अंदाज से भी। इस फिल्म से गायक कैलाश खेर संगीतकार बने। उनका संगीत कहानी को गति भी देता रहा और परिभाषित भी करता रहा। कहानी में तनाव तब पैदा होता है जब शूटिंग के नेशनल चैंपियन जय भानुशाली को विश्व चैंपियनशीप में भाग लेने की अनुमति नहीं मिल पाती क्योंकि उसका आपराधिक रिकॉर्ड है। जय और सुनील दोनों टूट जाते हैं। किस कारण जय को अनुमति मिलती है और किस तरह वह विश्व प्रतियोगिता में गोल्ड मेडल लेने में कामयाब होता है और क्यों उसकी कामयाबी को अंजाम देते हुए उसका दोस्त अखिल कपूर मारा जाता है, यह सब जानने के लिए तो फिल्म को एक बार देखना बनता है। हॉकी, क्रिकेट, दौड़, बॉक्सिंग के बाद शूटिंग के खेल पर रोचक फिल्म है।

निर्देशक : आनंद कुमार
कलाकारः, सुनील शेट्टी, अखिल कपूर, जय भानुशाली, साशा आगा, टिया बाजपेयी, आशुतोष राणा, अखिलेन्द्र मिश्रा।
संगीत : कैलाश खेर





दावते इश्क


फिल्म समीक्षा

मजेदार जायकेदार दावते इश्क 

धीरेन्द्र अस्थाना

काफी दिनों के बाद एक साफ सुथरी और दिलचस्प फिल्म देखने को मिली। न सिर्फ मनोरंजक बल्कि अच्छी तरह से बुनी गयी कहानी वाली तार्किक फिल्म है दावते इश्क। कहानी भी एकदम हमारे आस पास के वास्तविक जीवन से उठाई गयी। फिल्म में मुख्यतह तीन किरदार हैं। आदित्य राय कपूर, परिणिती चोपड़ा, अनुपम खेर। तीनों का काम जीवंत और जानदार है। वैसे तो आदित्य ने अपने बारे में प्रचारित इस राय को कि वह एक बड़े प्रोड्यूसर का भाई है इसलिए उसे फिल्में मिलतीं हैं, अपनी फिल्म आशिकी टू से ही ध्वस्त कर दिया था। आशिकी टू में उनके मार्मिक और कुंठित किरदार ने दर्शकों का दिल लूट लिया था। दावते इश्क में उन्होंने अपने अभिनय का एक नया ही आयाम पेश कर एक बार फिर लोगों का दिल लुभा लिया। चुलबुला, खिलंदड़ा , बेपरवाह शेफ जिसके बनाए कबाब खाने के लिए पूरी दुनियां से लोग आते हैं। परिणिती ने भी फिर साबित किया कि बॉलीवुड में वह देर तक टिकने वाली है। उंचे ख्वाब देखने वाली एक निम्न मध्य वर्गीय लड़की जो एक जूतों की दुकान में सेल्स गर्ल है। वह अपना खुद का शू स्टोर खोल कर खुद के डिजाइन किये जूते बेचना चाहती है और इसके लिए अमेरिका जा कर पढ़ना चाहती है। मगर उसका क्लर्क पिता अनुपम खेर जल्दी से जल्दी उसकी शादी कर उसे ठिकाने लगाना चाहता है और इस चिंता में घुलता रहता है। वह कई लड़कों के सामने अपनी बेटी का रिश्ता रखता है लेकिन बार बार बात दहेज पर आ कर टूट जाती है। परिणिती एक प्लान बनाती है जिसमें वह अपने पिता को भी शामिल कर लेती है। प्लान यह है कि दोनों रूप और पहचान बदल कर लखनऊ जाएंगे। वहां के आलिशान होटल में ठहरेंगे। शादी की वेब साइट पर जो लखनऊ के अमीर लड़के दिखेंगे उनको परिणिती के साथ विवाह करने के इंटरव्यू पर बुलाएंगे। सबसे अमीर लड़के के साथ गुपचुप विवाह करने के बाद परिणिती उसका सारा पैसा ले कर चंपत हो जाएगी। इसी क्रम में हैदरी के कबाब नाम वाले शहर के शानदार होटल के मालिक आदित्य से उनका सामना होता है। आदित्य की शर्त है कि शादी से पहले एक दूसरे को समझने के लिए दोनों तीन दिन एक साथ घूमेंगें फिरेंगें। पर होता यह है कि इन तीन दिनों में दोनों को एक दूसरे से सचमुच का प्यार हो जाता है। इसे जस्टीफाई करने के लिए निर्देशक ने कई रोचक सीन डाले हैं। ़ मगर अपने प्यार को दरकिनार कर परिणिती प्लान के मुताबिक  आदित्य का अस्सी लाख रूपया हथिया कर पिता के साथ हैदराबाद लौट जाती है। हैदराबाद में हर मोड़ पर परिणिती को लगता है कि आदित्य उसे धोखेबाज कह कर बुला रहा है। उसका मन पलट जाता है। वह पिता के साथ पैसे वापस करने लखनऊ की ट्रेन पकड़ने स्टेशन पहुंच जाती है जहां उससे आदित्य टकरा जाता है। आदित्य उसे खोजते हुए हैदराबाद आया है। परिणिती बताती है कि उसने दहेजखोर लड़कों से तंग आ कर ऐसा प्लान बनाया लेकिन आदित्य के प्यार ने उसे ऐसा करने से रोक दिया। वह आदित्य का पैसा लौटाने के लिए ही फिर से आदित्य के घर जा रही थी। दोनों गले मिल जाते हैं। अवश्य देखें, निराश नहीं होंगे। दिल ने दस्तरखान बिछाया दावते इश्क है।

निर्देशक : हबीब फैजल
कलाकारः आदित्य राय कपूर, परिणिती चोपड़ा, अनुपम खेर
संगीत : साजिद वाजिद





फाइंडिंग फेनी

फिल्म समीक्षा

जटिल प्यार की फाइंडिंग फेनी

धीरेन्द्र अस्थाना

कला सिनेमा के दायरे में बनने वाली फिल्मों जैसी है फाइंडिग फेनी। बेजोड़ एक्टरों की कुछ अलग किस्म का अनुभव दिलाने वाली लेकिन ठीक ठाक सी फिल्म। ऐसी नहीं कि उसे यादगार फिल्मों की श्रेणी में रखा जा सके। आम दर्शक सोच समझ कर फिल्म देखने जाएं क्योंकि इस फिल्म को बनाते समय दर्शकों की तरफ पीठ कर ली गयी थी। दरअसल यह फिल्म एक अनकहे प्यार की तलाश करने वाली यात्रा फिल्म है जिसकी संरचना बहुत जटिल और अभिव्यक्ति बेहद गूढ़ है। फिल्म इतनी स्लो है की बौद्विक दर्शक भी बोर होने के कगार पर जा खड़े होते हैं।फिल्म की एक मात्र उपलब्धि इसके कलाकार और उनका काम है। नसीरूद्दीन शाह, डिंपल कपाडिया, पंकज कपूर, दीपिका पादुकोन, अर्जुन कपूर। एक सीन की एंट्री में रणवीर सिंह भी। इतने मंजे हुए कलाकारों का काम एक बार तो देखना बनता है। अभिनय के मोर्चे पर ही फिल्म को सफल भी कहा जा सकता है। ये सब लोग गोवा के एक छोटे से, गुमनाम से, उंधते रहते गांव में बड़ा नीरस और एकाकी जीवन बिता रहे हैं। नसीर एक अवकाश प्राप्त पोष्टमास्टर है। पंकज कपूर एक सनकी किस्म का पेंटर है जिसे लगता है कि उसका काम विश्व स्तर का है। दीपिका और डिंपल सास बहु हैं। अर्जुन कपूर दीपिका का दोस्त है जो दीपिका के शादी कर लेने के कारण रूठ कर मुंबई चला गया था और पूरे छह साल बाद लौटा है। दीपिका शादी करने के कुछ ही मिनट बाद विधवा हो गयी थी क्यों कि पैसे बचाने के लिए डिंपल ने केक में शक्कर के कंचे लगाने के बजाए प्लास्टिक के कंचे लगा दिए थे। इस केक को खा कर डिंपल का लड़का गला रूंधने से मर जाता है। एक सुबह इस गांव में तब हलचल मच जाती है जब नसीर को अपने दरवाजे पर एक खत मिलता है। यह खत नसीर ने अपनी गर्लफ्रेंड फेनी को लिखा था जिसमें उसे विवाह के लिए प्रपोज़ किया था। पूरे छियालीस साल बाद यह खत बंद का बंद वापस आ गया है। यानी नसीर का प्रणय निवेदन फेनी तक पहुंचा ही नहीं। और नसीर ने पूरी उम्र कुंवारा रह कर फेनी की याद में गुजार दी। नसीर अपनी यह मर्मातंक त्रासदी दीपिका से शेयर करता है और दीपिका के अनुरोध पर सब लोग पंकज कपूर की खटारा कार में बैठ कर फेनी को खोजने गोवा की यात्रा पर निकल पड़ते हैं। इस यात्रा में होने वाले खट्टे मीठे दुखद अनुभवों पर ही पूरी फिल्म की पटकथा खड़ी की गयी है। फिल्म में कहीं कहीं कॉमेडी का दामन भी थामा गया है जिसके चलते फिल्म की गंभीरता को गहरा आधात पहुंचा है। इस यात्रा में एक दूसरे के रहस्य और अंतरमन भी उजागर होते चलते हैं। अंत में वापस अपने गांव लौट कर डिंपल और नसीर तथा अर्जुन और दीपिका शादी कर लेेेते हैं। जिस फेनी की खोज में ये लोग निकले थे वह एक शोक यात्रा में इन्हें एक ताबूत में चिरनिद्रा में लीन मिल जाती है। हो सकता है कि फिल्म कोई नेशनल अवार्ड मिल जाए। 
निर्देशक : होमी अदजानिया
कलाकारः नसीरूद्दीन शाह, पंकज कपूर, डिंपल कपाडिया, दीपिका पादुकोन, अर्जुन कपूर, रणवीर सिंह
संगीत : सचिन-जिगर




Thursday, September 11, 2014

मेरी कॉम


फिल्म समीक्षा

  जुनून की शिखर यात्रा :  मेरी कॉम 

धीरेन्द्र अस्थाना

बहुत दिनों के बाद एक बहुत अच्छी फिल्म देखने को मिली। चक दे इंडिया और भाग मिल्खा भाग के बाद खेल पर बनी एक उम्दा फिल्म। बरफी के बाद प्रियंका चोपड़ा की अभिनय यात्रा में एक और मील का पत्थर। खेल फेडरेशनों के कुचक्रों , तानाशाही और जुल्मों को बेनकाब करने वाली एक और साहसिक फिल्म। कितने अभावों, प्रतिकूलताओं और वंचनाओं के बीच रह कर हमारे खिलाड़ी देश के लिए सोने और चांदी के पदक लाते हैं। लेकिन इस अविराम संधर्ष की सराहना करने के बजाय खेल फेडरेशनों के पदाधिकारी सत्ता के मद में प्रतिभाओं को नष्ट करने के षड्यंत्रों मे लीन रहते हैं। क्या इन मदान्ध लोगों पर नजर रखने और उन्हें सजा देने वाला कोई तंत्र विकसित नहीं किया जा सकता।देश विदेश के शहरों में खिलाड़ी होटल की डोरमेटरी में ठूंस दिए जाते हैं जबकि अधिकारी पांच सितारा सुविधाओं की ऐश का उपभोग करते हैं। और बिल फटता है खिलाडियों के नाम पर। खिलाडी को बैन करने का भय दिखा कर अक्सर उसका यौन शोषण करने की घटनाएं भी जब तब उजागर होती रहती हैं। खिलाडियों को भारत का नागरिक होने के बावजूद क्षेत्रवाद की राजनीति से भी लड़ना होता है।    इतने सारे मुद्दों को बैकड्र्रॉप में समेटकर निर्देशक उमंग कुमार ने भारत की महान, जीवित महिला बॉक्सर, मणिपुर की मेरी कॉम की संघर्ष यात्रा को अपनी फिल्म का विषय बनाया है। मेरी कॉम के किरदार को पर्दे पर जीवंत करने वाली अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा ने भी कमाल का परिश्रम, अभ्यास और अभिनय करके फिल्म को एक यादगार अनुभव में बदल दिया है। मेरी कॉम के पति के रूप में प्रियंका के अपोजिट जो लड़का दर्शन कुमार उतरा है उसने हालांकि खुद कहा है कि प्रियंका जैसी बड़ी अभिनेत्री के सामने उसका चुनाव सिर्फ इसलिए हुआ है क्योंकि उसका चेहरा मणिपुरी लुक देेता है। लेकिन हकिकत यह है कि पहली फिल्म होने के बावजूद उसने बड़ा ही सहज और स्वाभाविक अभिनय किया है। फिल्म की एक बड़ी यूएसपी उसके गाने भी हैं जो फिल्म को न सिर्फ परिभाषित करते हैं बल्कि गति भी देेते चलते हैं। क्रिकेट को महान समझने वाले लोग इस फिल्म को देख कर अपने ज्ञान में यह इजाफा भी कर सकते हैं कि बॉक्सिंग संभवतः सब खेलों के उपर है। क्योंकि यह जान लेवा और दमतोड़ है। फिल्म के संवाद तो बॉक्सिंग के अनिवार्य पाठ की तरह हैं। फिल्म में अनेक जगहों पर कुछ मर्मस्पर्शी सीन भी हैं जो थरथरा देते हैं। देश के बहुत सारे लोग जो शायद बॉक्सर मेरी कॉम के बारे में उतना नहीं जानते जितना सचिन तेंडुलकर के बारे में जानते हैं, इस फिल्म के बाद मेरी कॉम के जुझारू और जुनूनी व्यक्तित्व से आमना सामना कर सकेंगे। अनिवार्य रूप से देखने लायक फिल्म।
निर्देशक : उमंग कुमार
कलाकारः प्रियंका चोपड़ा, दर्शन कुमार
संगीत : शशि सुमन, शिवम





राजा नटवरलाल

फिल्म समीक्षा

 ठगी का मायाजाल : राजा नटवरलाल

धीरेन्द्र अस्थाना

दुनिया के एक शातिर ठग और छोटे मोटे डॅान के के मेनन को ठगने की कहानी है राजा नटवरलाल। इसे ठगता है इमरान हाशमी जो एक छोटा सा ठग है। इमरान हाशमी की प्रेमिका है हुमाईमा मलिक। यह पाकिस्तानी अभिनेत्री है और इसकी हिंदी में यह पहली फिल्म है। मगर वह पहली फिल्म में ऐसा कुछ नहीं कर पाई जो उसकी अभिनय क्षमता के प्रति उम्मीद जगाता हो। फिल्म में वह एक बार डांसर बनी है। छोटी मोटी ठगी से प्राप्त रकम को इमरान हुमाईमा पर लुटाता रहता है। इमरान का एक दोस्त है राधव जिसका इमरान के जीवन में बड़े भाई जैसा दर्जा है। इमरान एक बार कोई लम्बा हाथ मार कर हुमाईमा के साथ घर बसाना चाहता है और हुमाईमा को डांस बार से छुटकारा दिलाना चाहता है। एक दफा एक बार में शराब पीते हुए इमरान दो गुंडों की बातचीत सुन लेता है। दोनों कहीं से अस्सी लाख की रकम उठा कर कहीं पहुंचाने वाले हैं। इमरान फौरन अपने दोस्त राधव के घर पहुंचता है और उससे इस बड़ी ठगी में सहयोग चाहता है। दोनों मिल कर यह रकम पार करने में कामयाब हो जाते हैं और आपस में चालीस चालीस लाख बांट लेते हैं। लेकिन समस्या यह पैदा होती है कि यह रकम साउथ अफ्रीका के केपटाउन शहर में बैठे डॅान के के मेनन की है। वह दोनों की सुपारी दे देता है। इस क्रम में इमरान का दोस्त राधव मार दिया जाता है। हत्यारों को इमरान की तलाश जारी है लेकिन इमरान को अभी तक पहचाना नहीं गया है इसलिए वह बचा हुआ है। इमरान हिमाचल के शहर धर्मशाला पहुंचता है जहां देश का सबसे बड़ा ठग परेश रावल रहता है। यह बात इमरान को एक बार राधव ने ही बताई थी। इमरान परेश से अपना साथ देने की गुजारिश करता है। वह परेश के सहयोग से के के मेनन को ठग कर राधव की मौत का बदला लेना चाहता है। इसके लिए उसके पास एक योजना है। के के की एक बड़ी कमजोरी क्रिकेट है। इमरान एक नकली क्रिकेट टीम के के को बेच कर उससे कई सौ करोड़ रूपये ऐंठना चाहता है। यह है पूरी पटकथा जिसके उपर यह लगभग ढाई घंटे की फिल्म खड़ी हुई है। इस फिल्म के दो सकारात्मक गुण भी हैं। पहला इमरान, परेश रावल और के के मेनन का शानदार और सहज अभिनय। जो जिस किरदार में है उसमें एकदम जीवंत और विश्वसनीय लगता है। दूसरा गुण है संजय मासूम के बेहतरीन संवाद जो कहानी से मेल खाते हैं। फिल्म के एक दो गाने भी अच्छे हैं। के के मेनन को कितनी सफाई से ठगा जाता है इस पूरी प्रकिया को बड़े दिलचस्प ढंग से बुना गया है। लेकिन इसमें कुछ अतिरंजना भी है। क्रिकेट टीमें इतने साधारण तरीके से नहीं बिका करतीं। उनकी बोलियों का नजारा बेहद भव्य और राजसी होता है। उसमें ग्लैमर भी बहुत होता है। लेकिन इतनी सिनेमाई आजादी तो चलती है। फिल्म को अभिनय के मोर्चे पर बेहतरीन और कहानी के मोर्चे पर साधारण माना जा सकता है। लेकिन कहीं पर भी फिल्म बोर नहीं करती। एक बार देखी जा सकती है।
   
निर्देशक : कुणाल देशमुख
कलाकारः इमरान हाशमी, हुमाईमा मलिक, परेश रावल, के के मेनन
संगीत : युवान शंकर राजा

Wednesday, August 27, 2014

मर्दानीः

फिल्म समीक्षा

मर्दानीः लड़ाई अभी बाकी है

धीरेन्द्र अस्थाना


जब मुख्य धारा सिनेमा के जोनर से कोई सार्थक फिल्म निकलती है तो बड़ी खुशी मिलती है। स्मगलिंग, उसका भंडाफोड़ और मारधाड़ वाली फिल्में बहुत पहले से बनती आ रही हैं। इस अर्थ में मर्दानी कोई महान फिल्म नहीं है। मर्दानी का महत्व उसके संदेश और उसके निर्माण में निहित यथार्थवादी स्पर्श से है। यह अपनी मेकिंग के दौरान पूरी तरह वास्तविक बनी रहती है। इसके एक्शन सीन भी रियल हैं और अपराधी तक पहुंचने का रानी का रास्ता भी विश्वसनीय और जमीन से जुड़ा हुआ है। फिल्म के अंत में रानी केवल एक ही गुंडे से भिड़ती है। वह मारती भी है और मार खाती भी है। फिल्म बहुत चुस्त दुरूस्त भी है। कहीं कोई झोल नजर नहीं आता। कोई रोमांटिक सीन नहीं। कोई लव सांग नहीं। अपनी बेटी जैसी लड़की प्यारी के अचानक गायब हो जाने के कारणों को तलाशती क्राईम ब्रांच की इंस्पेक्टर रानी मुखर्जी का टकराव उस गैंग से हो जाता है जो न सिर्फ ड्रग की तस्करी करता है बल्कि अलग अलग शहरों से नाबालिग लड़कियों को उठा कर उन्हें सेक्स रैकेट में धकेल देता है। अपनी खोजबीन की प्रक्रिया में रानी गैंग लीडर ताहिर राज भसीन के एक खतरनाक गुंडे को मार देती है और दूसरे को उठा लेती है। यह उठाया हुआ गुंडा रानी को गैंग लीडर के कई रहस्यों की जानकारी देता है। सबसे महत्वपूर्ण यह कि एक वकील साहब हैं जो ताहिर के जोड़दार हैं और गैंग में नम्बर दो का महत्व रखते हैं। वकील साहब दिल्ली में रहते हैं। रानी अपना जाल बिछा कर वकील के अड्डे पर पहुंचने में सफल हो जाती है। लेकिन वकील खुद को गोली मार लेता है। ताहिर बौखला जाता है। रानी उसे अब तक नहीं ढूंढ पायी है। वकील की बाडी से मिले कुछ सामानों के जरिए वह ताहिर के घर पहुंच जाती है। वहां ताहिर की मां रानी को दवा वाली चाय पिला कर बेहोश कर देती है। फिर ताहिर आ कर रानी को बांध देता है। ताहिर के विशाल घर से ही चलता है सेक्स रैकेट। फिर कैसे बंधी हुयी रानी खुद को आजाद करती है, एक मंत्री, ताहिर की मां और ताहिर के खास लोगों को गिरफ्तार करती है, और आखिर कार पहले ताहिर को खुद मारती है फिर उन पचासों अगवा की गयी लड़कियों के हवाले कर देती है जो वहां कैद है, यह आपको फिल्म में ही देखना चाहिये। क्योंकि यही फिल्म का रहस्य है। ये अगवा की गयी लड़कियां ताहिर को पीट पीट कर उसे जान से मार डालती हैं। यही है उन नाबालिग लड़कियों का प्रतिशोध और फिल्म का संदेश। नये खलनायक ताहिर ने बहुत शानदार काम किया है। उसका अभिनय सहज और कूल है। वह बहुत आगे जाने वाला है। अठारह साल से ज्यादा उम्र की सभी लड़कियों को यह फिल्म जरूर देखनी चाहिए। रानी के अभिनय में अभी जान बाकी है।


निर्देशक : प्रदीप सरकार
कलाकारः रानी मुखर्जी , ताहिर राज भसीन, प्रियंका शर्मा
संगीत : जूलियस पकियम




सिंघम रिटर्न

फिल्म समीक्षा

  निर्बल पुलिसबल का प्रतिशोध : सिंघम रिटर्न

धीरेन्द्र अस्थाना

अगर आप फिल्म मेकिंग में तर्क और यथार्थ को तरजीह देते हैं तो फिल्म देखते समय बहुत सारे अगर मगर कुलबुलायेंगे। लेकिन अगर आप भी कई निर्देशकों की तरह यह मानते हैं कि अपनी बात कहने के लिए थोड़ी बहुत नहीं कितनी भी छूट ली जा सकती है तो सिंघम रिटर्न आपको भरपूर मजा देगी। यह सिनेमा के आम दर्शकों के लिए बनी फिल्म है और निर्देशक रोहित शेट्टी ने लार्जर दैन लाइफ फार्मूले का अनलिमिटेड फायदा उठाते हुए एक ऐसी रोचक रोमांचक फिल्म बना दी है जो कई जगहों पर फेंटेसी की दुनियां में प्रवेश करती हुई सी लगती है। फिल्म को देखने के लिए दर्शक सिनेमा घरों पर टूट पड़े। और फिल्म ने भी दर्शकों को निराश नहीं किया। लेकिन जिंदगी में पहली बार करीना कपूर ने दर्शकों को काफी निराश किया। वह पूरी फिल्म में कॉमेडी के नाम पर नाटकीय अभिनय का शिकार हो गयी। कई सीन में वह ओवर ऐक्टिंग करती नजर आयीं। असल में फिल्म में उनके करने के लिए कुछ था भी नहीं। लेकिन जितना भी था वह सहज और सरल नहीं था। पूरी फिल्म बाजीराव सिंघम ( अजय देवगन) के नाम ही समर्पित है। अजय देवगन ने दर्शकों के बीच अभिनय का गहरा असर छोड़ा है। कह सकते हैं कि अजय सलमान खान का जादू तोड़ते नजर आये हैं। सत्ता और धर्म के गठजोड़ के सामने असहाय पुलिस बल की पुरानी कहानी को इस बार निर्देशक ने एक नया मोड़ दिया है। इस मोड़ के कारण यह फिल्म निर्बल पुलिस बल के प्रतिशोध में भी बदल गयी है। आता माझी सटकली। यह अजय देवगन का प्रिय जुमला है। इस जुमले को वह तब बोलता है जब सचमुच उसका दिमाग सटक जाता है और उसे अपराधियों का संहार करना होता है। करप्ट राजनैतिक नेता और धार्मिक बाबा के गठबंधन के सामने जब पूरा पुलिस बल कमजोर पड़ जाता है तो पूरा पुलिस महकमा वर्दी उतार कर नेता और बाबा के महल को घेर लेते हैं। फिर दोनों को कोर्ट ले जाते समय एक वाटर टैंकर से उडवा कर मार देते हैं। मुंबई के कई हजार पुलिस कर्मियों का बनियान पहन कर सड़क पर उतरना एक अनूठे सीन की संरचना करता लगता है। बाबा की भूमिका में अमोल गुप्ते ने कमाल की परफॉरमेंस दी है। उनका अभिनय जीवंत, विश्वसनीय और प्रभावशाली रहा। इसे ही मैथड एक्टिंग कहते हैं जिसमें कोई कलाकार किरदार के भीतर परकाया प्रवेश करता है। इतनी कसी हुयी फिल्म में जहां हर कदम पर गाड़ियां और लोग उड़ रहे हों गानों की जरूरत ही नहीं थी। इसी लिए जब गाना आया तो दर्शक बाहर निकल गये। इस बार रोहित शेट्टी ने फिल्म में गाड़ियों को उड़ाने के साथ इमोशंस भी उड़ाये। हो सकता है कि इस वर्ष की यह सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म बन जाये। मतलब अब तक रिलीज फिल्मों में। फिल्म न देखने का कोई कारण ही नहीं है।


निर्देशक : रोहित शेट्टी
कलाकारः अजय देवगन, करीना कपूर, अमोल गुप्ते, अनुपम खेर, दयानंद शेट्टी
संगीत : अंकित तिवारी, जीत गांगुली




एंटरटेनमेंट

फिल्म समीक्षा

मांइडलेस कॉमेडी हार्डकोर एंटरटेनमेंट

धीरेन्द्र अस्थाना

असफल होने के बावजूद निर्माता निर्देशक कॉमेडी का दामन नहीं छोड़ते। वह कॉमेडी को मनोरंजन का सरताज मानते हैं। कॉमेडी में अगर थोड़ा दिमाग लगाया जाए या उसे तार्किक भी रखा जाए तो कॉमेडी भाती भी है। लेकिन ज्यादातर निर्देशक माइंडलेस कॉमेडी को ही तरजीह देते हैं। अक्षय कुमार की एंटरटेनमेंट भी उसी कतार की फिल्म है। वह माइंडलेस तो है लेकिन उसका एंटरटेनमेंट हार्डकोर है। दर्शक फिल्म के संवादों और दृश्यों के कारण हर पांच मिनट बाद हंसते नजर आ रहे थे। इतनी हंसी छलकेगी तो नोट तो बरसेंगे ही। आम दर्शक भी महंगा टिकट खरीद कर हंसने खिलखिलाने के लिए ही सिनेमा घर में जया करते हैं। फिल्म में मनोरंजन के सभी तत्व हैं। डांस-गाना-मारधाड़-इमोशन-ड्रामा-मोहब्बत और पैरोडी। टीवी धारावाहिकों की दिलचस्प पैरोडी फिल्म में की गयी है। टीवी स्टार कृष्णा अभिषेक भी फिल्म की यूएसपी हैं। उन्होंने भी दर्शकों को हंसाने में अक्षय का भरपूर साथ दिया है। तमन्ना की भूमिका शोपीस जैसी है। मिथुन चक्रवर्ती तमन्ना के पिता की भूमिका में हैं और उन्होंने अपनी भूमिका के साथ न्याय किया है। इंटरवल तक पूरी फिल्म सिर्फ हंसाने का काम करती है। उसके बाद फिल्म में इमोशन और एक्शन का आयाम जुड़ता है। अक्षय कुमार बैंकॉक के एक डायमंड किंग की नाजायज औलाद है। एक दिन अक्षय को पता चलता है कि डायमंड किंग तीन हजार करोड़ की संपत्ति छोड़ कर परलोक सिधार गया है। वह औलाद होने के सारे सबूत साथ ले कर बैंकॉक पहुंचता है जहां केयर टेकर जॉनी लीवर उसे बताता है कि तुम्हारे पिता जायदाद का वारिस एंटरटेनमेंट नामक कुत्ते को बना गये हैं जिसने उनकी जान बचायी थी। अक्षय और उसका दोस्त कुत्ते को मारने के कई उपाय करते हैं जो नाकाम होेते हैं। इंटरवल से ठीक पहले कुत्ता एक हादसे में अक्षय कुमार को मरने से बचा लेता है। अक्षय का दिल बदल जाता है और अब वह कुत्ते का साथी है। अब प्रकट होते हैं सोनू सूद और प्रकाश राज जो डायमंड किंग के कजिन ब्रदर हैं। वह जायदाद पर दावा करने आ धमकते हैं। अक्षय कैसे इन दोनों से लोहा लेता है और जायदाद उनके कब्जे से छुड़ा कर वापस कुत्ते को सौंपता है- बाकी आधी फिल्म इस तमाशे में खत्म होती है। कुत्ते ने बहुत शानदार काम किया है। सौ कुत्तों की एक ब्रिगेड को फिल्म में उतारने का कंसेप्ट प्रभावित करता है। कई जगह कुत्ता भी दर्शकों को हंसा कर लोटपोट कर देता है। सोनू सूद और प्रकाश राज जैसे कद्दावर विलेन कॉमेडी करते हुए बड़े अटपटे लगते हैं। मूलतः पूरी फिल्म अक्षय कुमार, जॉनी लीवर और कुत्ते की है। बाकी सब सहयोगी कलाकार हैं। गीत संगीत अच्छा है। देखी जाने लायक फिल्म है।

निर्देशक : साजिद - फरहाद
कलाकारःअक्षय कुमार, तमन्ना भाटिया,  मिथुन चक्रवर्ती, जॉनी लीवर, कृष्णा अभिषेक, सोनू सूद और प्रकाश राज
संगीत : सचिन-जिगर






किक

फिल्म समीक्षा

इस किक में जान है

धीरेन्द्र अस्थाना

मुख्यधारा सिनेमा के प्रमुख निर्माता साजिद नाडियाडवाला ने किक से बतौर निर्देशक दस्तक दी है। अपनी पहली ही निर्देशित फिल्म से उन्होंने साबित किया है कि वह एक सफल मसाला फिल्म बना सकते हैं। यह सलमान टाईप की ही एक एंटरटेनर फिल्म है। इसमें दर्शकों को लुभानेवाले चारों तत्व हैं। एक्शन, कॉमेडी ,इमोशन, डांस तथा म्यूजिक। दर्शकों को बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं है।  इस फिल्म में उन्हें हिट फिल्म धूम और उसके सीक्वेल के काफी सारे तत्व मिल जाएंगे। तो भी यह एक मनोरंजक और दिलचस्प फिल्म है जो अंत तक बांधे रखती है। दर्शकों को यह फिल्म इसमें काम कर रहे एक्टरों की अजब गजब एक्टिंग के लिए देखनी चाहिए। सब तो मंजे हुए कलाकार हैं। सलमान खान, मिथुन, नवाजुद्दीन, रणदीप, नरगिस, जैकलीन, सौरभ शुक्ला, संजय शर्मा। सलमान की पसंद को सही साबित करने के लिए जैकलीन ने अपनी जान लगा दी है। उसने बेहतर और भावात्मक अभिनय किया है तथा डांस में भी अपने जलवे दिखाए हैं। नरगिस का आइटम डांस भी लुभाता है। सच यह है कि इन दिनों अभिनेत्रियां केवल शो पीस नहीं हैं। उन्हें भी दमतोड़ मेहनत करनी पड़ती है और अभिनय के स्तर पर भी खुद को साबित करना पड़ता है। नवाजुद्दीन बहुत बढ़िया जा रहे हैं। उनके भीतर बेहतर एक्टर होने की असीम संभावनाएं भरी पड़ी हैं। इस फिल्म में अपने अभिनय से उन्होंने एक मौलिक छाप छोड़ी है और एक अपना ठप्पा लगाया है कि जो काम नवाजुद्दीन कर सकता है वह दुसरा कोई नहीं। उन्होंने खलनायकी को एक नया चेहरा दिया है। उनके संघर्ष के दिनों में कौन जानता था कि एक बड़ा एक्टर सतह से उपर उठने को है। रणदीप हुडा भी बेहतर रोल निभा गये हैं और मिथुन तो मिथुन हैं ही। अब बचे सलमान खान तो यह पूरी फिल्म उन्हीं की है और उन्हीं की वजह से है। गरीब बच्चों के महंगे इलाज के कारण वह देवीलाल से डेविल बनते हैं और करोड़पतियों का अवैध पैसा डंके की चोट पर लूटते हैं। उनके इस मिशन में उन्हें अपने पिता का सपोर्ट मिला हुआ है। पिता हैं मिथुन चक्रवर्ती । फिल्म में किक का अर्थ फुटबॉल वाली किक नहीं उछाल या प्रेरणा से है। यानी ऐसा कोई झन्नाटेदार काम जिससे कुछ बड़ा करने का मूड बने। यह बड़ा काम है लफंगई का पैसा लूटकर असहाय बच्चों के इलाज पर खर्च  करना। इस उपकथा से इस फिल्म को एक सोशल कॉज भी मिल गया है। गीत संगीत तो अच्छा है ही। हिमेश रेशमिया एक्टर भले ही अच्छे न हों पर संगीतकार तो वह बेहतरीन वाले ही हैं। फिल्म का हैंगओवर वाला गाना पहले ही हिट हो चुका है। यह फिल्म बॉलीवुड को गुलजार कर सकती है।


निर्देशक : साजिद नाडियाडवाला
कलाकारः सलमान खान,जैकलीन फर्नांडिस, रणदीप हुडा, नवाजुद्दीन सिद्दीकि, मिथुन चक्रवर्ती।
संगीत : हिमेश रेशमिया





हंप्टी शर्मा की दुल्हनिया

फिल्म समीक्षा

साधारण है हंप्टी शर्मा की दुल्हनिया

धीरेन्द्र अस्थाना

करण जौहर के धर्मा प्रोडक्शन से इतनी साधारण फिल्म निकलेगी उम्मीद नहीं थी। आलिया भट्ट ने हाईवे से जो नाम कमाया था उसे इस फिल्म में गवां दिया। वह इस फिल्म तक आते आते टाइप्ड होती जा रही है। जो भी अदाएं उसने इस फिल्म में दिखाने की कोशिशें की हैं उन्हें दर्शक उसकी पिछली फिल्मों में देख चुके हैं। अब समय है संभलने का और सोच समझ कर भूमिकाएं चुनने का। वरूण धवन के किरदार को तो निर्देशक ने इतना बेदम बनाया है कि वह कहीं से भी प्यार के लिए कुछ भी कर गुजरने वाला प्रेमी नजर आता ही नहीं है। ऐसे लड़के जवान पीढ़ी के आदर्श थोड़े ही होते हैं। जिस लड़के सिद्धार्थ शुक्ला के साथ आलिया के पिता आशुतोष राणा ने आलिया की शादी तय की है उसकी खूबियों के सामने वरूण सरेंडर करने पर आमादा है। जब आलिया वरूण से शादी करने के लिए खुद घर से भाग जाती है तो वरूण उसे भागने नहीं देता और एक लेक्चर पिलाता है- परिवार को छोड़ कर कैसे रहोगी? ना जी ना। पंजाबी लहजे में बोलने से कुछ होता हवाता नहीं। उसके लिए पंजाबी दिल भी चाहिए। लड़की के बाप से आशिक प्यार की भीख नहीं मांगते वह अपने प्यार को उठा कर ले जाते हैं। फिर भले ही उनका मर्डर क्यों न हो जाए? असल में कमजोर कहानी, ढीली पटकथा और साधारण निर्देशन ने फिल्म को साधारण से उपर उठने ही नहीं दिया। आलिया और वरूण ही क्या करते जब पटकथा में ही दम नहीं था। फिल्म की शुरूआत अच्छी हुई थी जब अंबाला की आलिया की मुलाकात दिल्ली के वरूण से होती है। दोनों की नोक झोंक और झड़प भरी मीठी मुलाकात दिलचस्प लगती है। साथ ही दोनें के संवाद भी चुलबुले और हास्य से भरपूर हैं। लेकिन इंटरवल के बाद फिल्म निर्देशक के हाथ से फिसल जाती है। वह दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे के हैंगओवर में घुस जाती है। आलिया का बाप वरूण को पांच दिन देता है। इन पांच दिनों में वरूण को साबित करना है कि जिस अंगद से आलिया की शादी होनी है वह वरूण से कमतर क्यों है? अगर वरूण एक भी वजह बता देगा तो उसकी शादी आलिया से हो जाएगी। लेकिन वरूण तो अंगद की खूबियों से खुद ही कुंठा का शिकार हो जाता है। शादी की दिन आ पहुंचा है। आलिया का भागने का प्लान भी वरूण फेल कर चुका है। अब? पिक्चर को दुखांत तो नहीं बनाया जा सकता है ना। आलिया के घर बारात आ पहुंची है। वरूण शराब पी कर रो रहा है। तभी आलिया का बाप प्रकट होता है और वरूण से बोलता है- जा अपनी मर्जी का जीवन जी ले। फिल्म अतार्किक रूप से सुखांत हो जाती है। फिल्म के गाने अच्छे हैं लेकिन सिर्फ गानों के अच्छे होने से क्या होता है? कोई म्यूजिक एलबम तो नहीं बना रहें हैं न? फिल्म पर करण जौहर की पकड़ नजर नहीं आती। जो नाचने गाने बजाने के शौकीन हैं उन्हें यह फिल्म टुकड़ों में पसंद आ सकती है।

निर्देशक : शशांक खेतान
कलाकारः वरूण धवन, आलिया भट्ट, आशुतोष राणा
संगीत : सचिन जिगर, साबरी ब्रदर्स






बॉबी जासूस


फिल्म समीक्षा

बॉबी जासूस : पुरुषों की गली में दखल

धीरेन्द्र अस्थाना

विद्या बालन का आत्मविश्वास देखते ही बनता है। वह निरंतर सोलो फिल्म करने वाली स्टार बनती जा रही हैं। फिल्म ठीक ठाक है। संदेश भी देती है। अर्थपूर्ण भी है। लेकिन पता नहीं क्यों ज्यादा दर्शक फिल्म देखने नहीं पहुंचे। पूरी फिल्म विद्या बालन की है। उनके अपोजिट अली फजल सिर्फ औपचारिकता के लिए हैं और विद्या के सहायक जैसे रोल में हैं। विद्या एक उच्च मध्यवर्गीय मुसलिम परिवार की सबसे बड़ी बेटी है जिसका आचरण, हाव भाव और रहन सहन उसे पिता ( राजेन्द्र गुप्ता) की नजरों में बागी जैसा साबित करता है। फिल्म की लोकेशन हैद्राबाद की है। इसलिए विद्या बालन से लेकर राजेन्द्र गुप्ता तक को हैदराबादी हिंदी बोलनी पड़ी है। सुप्रिया पाठक विद्या की मां के किरदार में हैं और उनके हिस्से में ज्यादा संवाद नहीं आए हैं। तो भी कई जगह अपनी बॉडी लैंगवेज से उन्होंने साबित किया कि वह एक प्रतिभावान एक्ट्रेस हैं। विद्या को जासूस बन कर आड़े टेढे़ केस सुलझाने का शौक है। यह पुरुषों की गली में दखल है। वह करमचंद और सीआइडी जैसे जासूसी धारावाहिकों को देख कर बड़ी हुइ है। उसने अपना नाम बॉबी जासूस रखा है। जब एक सरदारजी की डिटेक्टिव कंपनी में उसे नौकरी नहीं मिलती तो वह खुद की जासूसी कंपनी बना लेती है। वह अपने दोस्त इंटरनेट वाले के दड़बे नुमा ऑफिस से अपना कारोबार शुरू करती है। फिल्म का हीरो अली फजल भी अपने रिश्ते तुड़वाने का काम देने के कारण विद्या के करीब आता जाता हैं। विद्या के अंदर बेचेनी है उसे बड़े थकाउ और भिखमंगे टाइप के काम हल करने पड़ रहे हैं जबकि वह कोई शानदार जानदार केस हल करना चाहती है। यह काम उसे मोटी फीस चुका कर अनीस खान देता है। वह पचास हजार रूपये में एक लड़की को ढूंढने का काम देता है। यह लड़की मिल जाती है तो वह एक लाख रूपये दे कर एक और लड़की को ढुंढवाता है। अंत में पांच लाख रूपये दे कर एक लड़के को तलाशने का काम देता है। दोनो लड़कियों को ढूंढने की बचकानी कोशिशों में फिल्म का इंटरवल आ जाता है। इंटरवल के बाद फिल्म यू टर्न लेती है। विद्या बालन को अपने क्लाइंट अनीस खान पर ही शक हो जाता है कि वह इतने भारी पैसे दे कर काम क्यों करवा रहा है। अब विद्या अनीस खान के पीछे लग जाती है। इस मोड़ पर आ कर फिल्म रोचक हो जाती है और उसमें दिलचस्पी भी बढ़ जाती है। इस दौरान परिवार के मोर्चे पर भी कई घटनाएं घटती हैं जो विद्या के प्रोफेशनल जीवन की राह में रोड़े अटकाने का काम करती हैं। अंत में फिल्म का क्लाइमेक्स पूरी फिल्म का मर्म ही बदल देता है और फिल्म एक संवेदनशील आख्यान के रूप में ढल जाती है। फिल्म का अंत ही उसकी यूएसपी है इसलिए अंत अपनी आंख से देखें। फिल्म में विद्या बालन, सुप्रिया पाठक, राजेन्द्र गुप्ता और किरण कुमार ने उत्तम काम किया है। संगीत कर्णप्रिय है। सुनने में अच्छा लगता है। फिल्म को एक बार देखा जा सकता है। खासकर विद्या के विभिन्न जासूसी रूपों का मजा लेने के लिए।
निर्देशक : समर शेख
कलाकारः विद्या बालन, अली फजल, अरजन बाजवा, राजेन्द्र गुप्ता, किरण कुमार,सुप्रिया पाठक
संगीत : शांतनु मोईत्रा






एक विलेन

फिल्म समीक्षा

एक विलेन

प्यार की लाउड स्टोरी

धीरेन्द्र अस्थाना


पता नहीं मोहित सूरी की पिछली सफल फिल्मों का हैंगओवर था या मोहित का कहानी कहने का आक्रामक अंदाज या फिर सिद्धार्थ मलहोत्रा ( गुरू ) और श्रद्धा कपूर (आयशा) की भरोसे मंद कलाकार जोड़ी- बहुत दिनों के बाद थियेटर को हाउसफुल देखा। आमतौर पर फिल्मों में एक हीरो, एक हीरोइन और एक विलेन होता है। लेकिन यह एक विलेन की लव स्टोरी है और मोहित सूरी की फिल्म होने के कारण अपारंपरिक है। इसके तीनो प्रमुख कलाकार सिद्धार्थ, श्रद्धा कपूर और रितेश देशमुख नये अवतार में पेश हुए हैं। सिद्धार्थ बदले की आग में तड़पता एक गुंडा है जो माफिया डॉन सीजर के लिए काम करता है। श्रद्धा कपूर किसी अनाम बीमारी से मरती हुई लड़की है जिसके जीने का अंदाज बड़ा अलमस्त और शिद्दत भरा है। वह लोगों को खुशियां बांटती फिरती है। उसकी मुलाकात पुलिस स्टेशन में मार खाते सिद्धार्थ से होती है और वह सिद्धार्थ में दिलचस्पी लेने लगती है। जिंदगी जीने की श्रद्धा की जिजिविषा और जिंदादिली को देख सिद्धार्थ जैसा रफटफ हत्यारा भी अपने भीतर एक संवेदनात्मक राग को दबे पांव उतरता अनुभव करने लगता है। वह श्रद्धा में न सिर्फ दिलचस्पी लेने लगता है बल्कि श्रद्धा के जरिए अपने जीवन में पसरे अंधेरों से बाहर भी आने की ख्वाहिश रखने लगता है। ये ख्वाहिशें मूर्त होने के मोड़ पर हैं कि श्रद्धा रितेश देशमुख के हाथों मार दी जाती है। पता चलता है कि मरती हुई श्रद्धा के पेट में सिद्धार्थ का बच्चा भी था। श्रद्धा के प्रेम में हथियार फेंक चुका सिद्धार्थ फिर से बदले की रक्त रंजित गली मे उतर जाता है। लंबी तलाश के बाद उसके हाथ रितेश देशमुख लग जाता है। असल में रितेश को एक साइको किलर दिखाया गया है। वह हर उस औरत की हत्या कर देता है जो किसी भी कारण उसे डांटती फटकारती या जलील करती है। वह फोन ठीक करने का काम करता है और प्रत्येक हत्या स्क्रू ड्राइवर से करता है। मोहित ने जहां सिद्धार्थ और श्रद्धा के किरदारों को बड़ी खूबसूरती और संवेदनशीलता के साथ रचा है वहीं रितेश के किरदार को अंजाम देते वक्त उनसे चूक हो गयी है। दफ्तर में, घर में, समाज में तो लगभग नब्बे प्रतिशत आम लोगों को किसी न किसी कारण फटकार खानी पड़ती है। लेकिन सब के सब हत्यारे थोड़े ही हो जाते हैं। फिल्म में रितेश वाला टै्रक थोड़ा नाटकीय और अविश्वसनीय हो गया है। एक विलेन की यह प्रेम कहानी बदले की खूनी पटकथा से उलझ जाने के कारण थोड़ी लाउड भी हो गयी है। फिल्म के तीन गाने पहले से ही अत्यंत पॉपुलर हो चुके हैं। पूरी फिल्म वर्तमान से अतीत में आती जाती रहती है। फिल्म के अंत में रखा गया मुंबई के मीरा रोड इलाके के एक बार वाला सीन और डांस एकदम फालतू है जो फिल्म की गंभीरता को ठेस पहुंचाता है। फिल्म देख लें, मजा आएगा। लगता है कि श्रद्धा और सिद्धार्थ की यह जोड़ी भविष्य की उम्मीद है।
निर्देशक : मोहित सूरी
कलाकारः सिद्धार्थ मलहोत्रा, श्रद्धा कपूर, रितेश देशमुख
संगीत : अंकित तिवारी, मिथून




हमशकल्स



फिल्म समीक्षा

हमशकल्स का हास्य

धीरेन्द्र अस्थाना


साजिद खान की नयी फिल्म हमशकल्स ढेर सारी सिचुएशंस, ढेर सारे चुटकुलों, ढेर सारे कलाकारों के बावजूद एक ठीकठाक कॉमेडी फिल्म बनने में कामयाब नहीं हो पायी है। हमशकल्स के हास्य ने मन में इतनी खीज पैदा की कि दर्शक फंस गये रे ओबामा बोलते नजर आये। कुछ इंटरवल से पहले ही फिल्म छोड़ कर चले गये। कुछ इंटरवल के कुछ देर बाद गये। कुछ एसी की ठंडी ठंडी हवा में सो कर पैसा वसूल करते पाये गये। फिल्म में एक सीन है। पागलखाने का जुलमी जेलर सैफ अली खान और रितेश देशमुख को कुर्सियों से बांध कर कहता है-अब मैं तुम्हें ऐसा टार्चर दुंगा कि तुम कांप जाओगे। फिर वह टीवी, रिमोट कंट्रोल और डीवीडी मंगाता है और बोलता है-अब मैं तुम्हें साजिद खान की हिम्मतवाला दिखाने जा रहा हूं। एक तरीके से यह खुद पर हंस कर शहीद होने जैसी भंगिमा है। इस संवाद को इसतरह भी बदल सकते हैं- अब मैं तुम्हें साजिद खान की हमशकल्स दिखाने जा रहा हूं। अतीत के हैंगओवर से बाहर निकलो यारो। अब हिंदी सिनेमा का दर्शक छठे सातवें दशक वाला मासूम और नासमझ दर्शक नहीं है। वह कंप्यूटर कं्राति के विस्फोट के बाद वाले चमत्कारी और ज्ञानवान वाले समय में बैठा हुआ है। उसे कॉमेडी के नाम पर कुछ भी आंय बांय शांय दिखा कर बहकाया नहीं जा सकता। माना कि आज भी दर्शकों का एक बड़ा वर्ग गंभीर सिनेमा से कन्नी काटता है और सिनेमा हॉल में केवल हंसने हंसाने के लिए जाना चाहता है। लेकिन हास्य तो ठीक से क्रियेट करो। सिनेमा का एक फंडा यह भी समझ में नहीं आता कि जिन एक्टरों के खाते में एक नहीं अनेक बेहतर फिल्में दर्ज हैं वे ऐसी उटपटांग फिल्में क्यूं कर लेते हैं? पैसे के लिए? पर पैसा तो रितेश देशमुख के पास भी बहुत है और सैफ तो छोटे नवाब हैं। आमिर खान कैसे खराब फिल्मों को ठुकरा देते हैं? बहरहाल, साजिद खान ने अपने इस भानुमति के कुनबे में सैफ रितेश और राम कपूर के तीन तीन हमशकल मौजूद कर कॉमेडी का किला खड़ा करने की कोशिश की है जो जरा ही देर में ताश के पत्तों की तरह ढह जाता है। बची रह जाती है खीज, उकताहट और हताशा। इस वर्ष की पहली सबसे सुपर फ्लॅाप फिल्म का एवार्ड हमशकल्स को देेेने का विचार भी कोई चैनल करे तो हताशा कुछ कम हो सकती है। फिल्म में कोई कहानी नहीं है इस लिए कहानी पर कैसे बात करें? हां नशा करने वालों के लिए इसमें एक नया संदेश यह है कि कोकिन और बोदका के परांठे बना कर लोगों को मस्ती का एक बड़ा डोज दिया जा सकता है। बिपाशा, ईशा और तमन्ना इस फिल्म में क्यों हैं यह तो खुद उन्हें ही अपने से पूछना चाहिए। फिल्म के गाने जरूर सुनने में अच्छे लगते हैं। शायद इसी तरह की फिल्मों को मुख्यधारा के सिनेमा में माइंडलेस कॉमेडी कहा जाता है। फिल्म देखने का एक मात्र यही कारण गिनाया जा सकता है।

निर्देशक : साजिद खान
कलाकारः सैफ अली खान, रितेश देशमुख, राम कपूर, बिपाशा बसु, तमन्ना, ईशा गुप्ता, दर्शन जरीवाला
संगीत : हिमेश रेशमिया






फगली


फिल्म समीक्षा

फुकरों की फगली

धीरेन्द्र अस्थाना

फगली का कोई आधिकारिक अर्थ नहीं है जैसे फुकरों का भी कोई अर्थ नहीं है। मगर फुकरों का एक मतलब यह मान लिया गया है कि किसी की परवाह न करने वाले बिंदास अलमस्त और मौज मजा में यकीन रखने वाले युवाओं की टोली। इसी तरह फगली का मतलब पागलपंती मान लेते हैं। ऐसी पागलपंती जिसमे जुनून के साथ कोई मिशन भी जुड़ा हो। निर्देशक कबीर सदानंद ने विषय अच्छा उठाया था लेकिन उसे साध नही पाये। दर्शक शायद थोड़ी अश्लीलता, थोड़ी कॉमेडी और थोड़े एंटरटेनमेंट की आस ले कर फिल्म देखने आये थे। इसीलिए पहले दिन सिनेमा घरों में अच्छी खासी भीड़ रही। नये कलाकारों के बावजूद युवा दर्शक फिल्म देखने आये। मगर अफसोस कि बहुत लंबे समय बाद यह नजारा देखने को मिला कि पचासों दर्शक फिल्म खत्म होने से काफी पहले ही सिनेमाघर छोड़ कर जाते दिखे। संदेशपरक और गंभीर फिल्म थी लेकिन बहुत बोझिल और उबाउ हो गयी थी कई जगह। कहीं कहीं पर दिल्ली का खिलंदड़ा अंदाज था, खुली गालियां थी लेकिन कुल मिला कर पूरी फिल्म पर एक थकावट सी तारी थी। फिल्म की रफ्तार भी बीच बीच में टूट टूट जाती थी। बॉक्सर विजेन्द्र सिंह की यह डेबू फिल्म है।  बाकी युवा टाली भी प्रायः नये कलाकारों की है। विजेन्द्र सिंह, मोहित मारवाह, अरफी लांबा और कायरा आडवानी बचपन के दोस्त हैं जो अपने अपने संधर्ष का जीवन बिताते हुए जवान हो गये हैं। उनके कुछ सपने हैं। विजेन्द्र को वर्ल्ड फेमस बॉक्सर बनना है। मोहित को एडवेंचर कैंप लगाने हैं। कायरा को मां को खुश रखना है और अरफी कनफ्यूज्ड है। दिल्ली की सड़कों पर यह टोली मस्ती करती घूमती रहती है। कभी पुलिस इन्हें पकड़ लेती है तो विजेन्द्र अपने बाप का नाम लेकर सबको छुड़ा लेता है। विजेन्द्र का बाप मंत्री है। लेकिन एक बार इनका टकराव चौटाला नाम के सिरफिरे और लालची पुलिस अधिकारी जिमी शेरगील से हो जाता है। घटना की रात ये लोग उस दुकानदार के हाथ पांव बांध कर अपनी कार की डिक्की में डाले हुए थे जिसने कायरा को छेड़ा था। जिमी दुकानदार का मर्डर कर देता है और उस भाले पर विजेन्द्र के हाथों के निशान ले लेता है जिससे मर्डर हुआ है। फिर वह चारों को गाड़ी में बिठा कर एक पुराने किले में ले आता है। जिमी इनसे इकसठ लाख रूपये दे कर मुक्त हो जाने या फिर तिहाड़ जेल की हवा खाने की पेशकश करता है। ये लोग पैसे जुटाने के लिए क्या क्या पापड़ बेलते हैं और इसके बावजूद जिमी के बिछाये जाल में उलझते जाते हैं, यह फिल्म देखकर जानना ज्यादा उचित होगा। फिल्म खुलती है उस शॉट से जिसमें फिल्म का हीरो मोहित अमर जवान ज्योति के सामने खुद पर मिट्टी का तेल डाल कर आग लगा लेता है। इसके बाद पूरी फिल्म फ्लैशबैक में चलती है। इस घटना से पूरी दिल्ली में कैसे जनजागरण होता है यही इस फिल्म का संदेश है। फिल्म के अंत में मोहित मारा जाता है। जिमी पहले गिरफ्तार होता है फिर मार दिया जाता है। बाकी बचे दोस्तों के सपने पूरे हो जाते हैं। यही है फगली।

निर्देशक : कबीर सदानंद
कलाकारः जिमी शेरगिल, मोहित मारवाह, विजेन्द्र सिंह, कायरा आडवानी, अरफी लांबा।   
संगीत : यो यो हनी सिंह        






Monday, June 9, 2014

हॉलीडे


फिल्म समीक्षा

रोमांस, एक्शन और रोमांच का पैकेज : हॉलीडे  

धीरेन्द्र अस्थाना

कुछ जुनूनी निर्देशकों द्वारा सार्थक फिल्मों की कतार लगा देने के कारण मुख्यधारा सिनेमा के निर्माता-निर्देशक भी दबाव में आ गए लगते हैं। तभी न कमर्शियल फिल्मों के सफल प्रोड्यूसर विपुल शाह ने ‘हॉलीडे‘ जैसी फिल्म में पैसा लगाया जो मनोरंजन के साथ-साथ मैसेज भी देती है। एक्शन, रोमांस और रोमांच का एक अच्छा पैकेज पेश करती है फिल्म। सुंदर कॉमेडी का तड़का भी है। रोमांस को भी वल्गर नहीं होने दिया गया है। अक्षय के अपोजिट एक सीनियर स्टार की बेटी सोनाक्षी सिन्हा है इसलिए निर्देशक ने बाकायदा यह ध्यान रखा कि जैसे ही होठ चूमने के दृश्य आते हैं कोई न कोई बाधा दस्तक दे देती है। फिल्म में गानों की कोई जरूरत नहीं थी लेकिन हिंदी फिल्मों के दर्शकों का काम गानों के बिना चलता नहीं है इसलिए गाने हैं और फिल्म की रिलीज से पहले ही हिट भी हो चुके हैं। प्रीतम का संगीत कर्णप्रिय है। फिल्म ने एक सार्थक मुद्दा उठाया है। आतंकवादियों के मास्टर माइंड इस थ्योरी पर काम करते हैं कि आम जनता के बीच रहने-उठने-बैठने-जीने वाले आम लोगों को अपना कार्यकर्ता बनाओ। ऐसे लोगों को चुनो जो किसी न किसी कारण अपने मुल्क, सिस्टम या शासन से खफा हैं। उनकी नाराजगी को नफरत में बदल कर उसे विद्रोह का आकार दो और उस चिंगारी को नोटों की हवा से शोलों में भड़कने दो। आतंकवादी ऑपरेशन की भाषा में इन लोगों को ‘स्लीपर सेल‘ कहा जाता है। इनके इमीजिएट बॉस भी ‘स्लीपर सेल‘ के लोग ही होते हैं। मास्टर माइंड के बारे में इन्हें कुछ पता नहीं होता। ये पकड़े भी जाते हैं तो मुख्य साजिशकर्ता तक नहीं पहुंचा सकते। अच्छा थीम है। लोगों को आतंकवादी ऑपरेशन और उसके खिलाफ देशभक्तों की जंग को किसी महत्वपूर्ण पाठ की तरह दिखाती है यह फिल्म। न सिर्फ जागरूक करती है बल्कि यह संदेश भी देती है कि आंतक के खिलाफ लड़ने का ठेका पुलिस या सेना ने ही नहीं ले रखा है। आम नागरिक को भी इसके विरूद्ध लामबद्ध होना चाहिए। फिल्म के अंत में अक्षय और सोनाक्षी का विवाह नहीं हो पाया है इससे लगता है कि ‘हॉलीडे‘ का सीक्वेल भी बनेगा। आतंकवादियों के मास्टर माइंड बने युवा एक्टर फरहाद की यह पहली फिल्म है। इस लड़के ने बेहतर काम किया है लेकिन दिक्कत यह है कि अब इसके ऊपर विलेन का ठप्पा लग गया है। सुमित राघवन तो टीवी के मंजे हुए कलाकार हैं। यहां उन्होंने अक्षय कुमार के हर समय बौखलाये से रहने वाले पुलिस ऑफीसर का दोस्त शानदार ढंग से प्ले किया है। सोनाक्षी अब नंबर वन के पायदान पर हैं। थोड़ा मोटापा और कम करना चाहिए। फिल्म में गोविंदा को बरबाद कर दिया गया है। हालांकि अपनी इस बरबादी के वह खुद जिम्मेदार हैं। ऐसा फिलर टाइप का रोल उन्हें करना ही नहीं चाहिए था। अक्षय के एक्शन और स्टाइल में दम है। निर्देशक ए.आर. मुरूगादॉस उनसे उनका बेहतर काम निकलवाने में कामयाब हुए हैं। इस बार अक्षय ने सलमान की तरह अपना स्टाइल स्टेटमेंट भी देने का काम किया है। आंख से चश्मा उठाना और बांह से आस्तीन को ऊपर चढ़ाने वाला अंदाज दर्शकों ने नोट किया। तालियां भी बजाईं। हिट है बॉस। 
निर्देशक : ए.आर. मुरूगादॉस
कलाकार : अक्षय कुमार, सोनाक्षी सिन्हा, फरहाद, सुमित राघवन
संगीत : प्रीतम चक्रवर्ती

Tuesday, June 3, 2014

सिटीलाइट्स

फिल्म समीक्षा

सिटीलाइट्स : ऐसे भी तो संभव है सिनेमा 

धीरेन्द्र अस्थाना

नयी उम्र के दर्शकों-पाठकों को सबसे पहले यह बताना चाहते हैं कि सत्तर के दशक में हम लोग आर्थिक मोर्चे पर अच्छे खासे गरीब होते थे। तकनीक के स्तर पर भी काफी पिछड़े हुए थे। गरीब और पिछड़े होने के साथ हम बहुत भोले और ईमानदार भी होते थे। यह बताने का अर्थ यह है कि आज के जमाने में बनी फिल्म ‘सिटीलाइट्स‘ ऊपर बताए यथार्थ पर ही खड़ी है। यह एक बेहतर फिल्म है जिसके अर्थ धीरे-धीरे खुलते हैं। पर अपने देखे जाने के दौरान अपनी धीमी गति के कारण यह खीझ भी पैदा करती है। राजकुमार राव को कहां से उठा लायी है यह फिल्म इंडस्ट्री। कहीं से भी एक्टर नहीं लगता लेकिन एक्टिंग की पूरी रंगशाला कंधे पर लादे घूमता है। उसके अपोजिट पत्रलेखा को तलाशा है निर्देशक हंसल मेहता ने। ये दोनों इंडस्ट्री के नसीरुद्दीन शाह और शबाना आजमी बनने वाले हैं। सत्तर के दशक में साहित्य में जिस गरीब आदमी की कहानियां लिखी जाती थीं वैसी ही एक कहानी को हंसल मेहता ने बड़े पर्दे पर थोड़ी स्मार्टनेस के साथ पेश कर दिया है। पर दिक्कत यह है कि मल्टीप्लेक्स में जो दर्शक ढाई सौ रुपए का टिकट लेकर साठ रुपए का समोसा खाता है और डेढ़ सौ रुपए का कोल्ड ड्रिंक पीता है उसके मुंह का स्वाद बिगाड़ देगी यह फिल्म। धुर गरीबी, ठोस हताशा और गहरी बेचारगी की बात करती है फिल्म। फिल्म बहुत अद्भुत बनी है। लेकिन यहां निर्देशक के लिए भी एक ज्ञान की बात परोसनी जरूरी है। जब हम कमर्शियल सिनेमा की बात करते हैं तो निर्देशक को लार्जर दैन लाईफ फार्मूले के नाम पर काफी छूट देते हैं। यह छूट रियलिस्टिक सिनेमा बनाने वाले को नहीं दी जाती। निर्देशक से शुरुआत में ही एक गलती हो गई। मोबाइल फोन के जमाने में, फिल्म का हीरो राजकुमार राव अपनी पत्नी और बेटी के साथ राजस्थान के गांव से सीधा मुंबई आ जाता है। जबकि जिस गांव वाले दोस्त ने उसे मुंबई बुलाया है उसका पता राजकुमार के पास नहीं है। गांव वाले मित्र का फोन स्विच ऑफ है। पुलिस फोन नंबर के आधार पर दोस्त का पता ठिकाना आसानी से निकाल सकती थी। लेकिन नहीं निकालती। जबकि मुंबई पुलिस इतनी हृदयहीन नहीं है। इस बिना पते और बंद मोबाइल वाले दोस्त को राजकुमार मुंबई की गलियों में केवल नाम के आधार पर खोजता फिरता है जो बेहद हास्यास्पद लगता है। बाकी गलतियां भी इस मूल गलती से जुड़ी हुई ही हैं। अनजान आदमी से बिना लिखत-पढ़त के किराए पर मकान लेने के चक्कर में जो फर्जीवाड़ा होता है उससे राजकुमार की जेब का दस हजार रुपया भी लुट जाता है। अब पेट पालने के लिए मुंबई में किसी औरत के लिए सबसे आसान रास्ता है बीयर बार में नाचना। यही करती है फिल्म की हीरोइन पत्रलेखा। काफी जद्दोजहद के बाद राजकुमार को एक सिक्योरिटी सर्विस कंपनी में नौकरी मिल जाती है। वह मेहनत से काम करता है लेकिन पगार मिलने से पहले ही अपने सीनियर के किए षड्यंत्र का शिकार होकर सस्पेंड हो जाता है। जितने दिन काम किया है उसकी भी पगार नहीं मिलती। उधर पत्नी का काम भी छूट जाता है। राजकुमार एजेंसी के मालिक के केबिन में घुस जाता है। फिर उसे बंधक बना कर गले में लटकी लक्ष्मी जी के पेंडल की भीतरी सतह पर उस बक्से की चाबी की छाप ले लेता है जो बक्सा मर चुके सीनियर के उस घर में रखा है जिसमें इन दिनों राजकुमार रहता है। अंत में राजकुमार सिक्योरिटी गार्ड्स के हाथों मारा जाता है और नियम के मुताबिक कंपनी उसका निजी सामान उसकी पत्नी के घर पहुंचवा देती है। इस सामान में लक्ष्मी जी का पेंडल भी है। घर से काम पर जाते समय यह पेंडल राजकुमार के गले में नहीं था। इसलिए पत्नी को यह पेंडल देख कुछ हैरानी होती है। वह उत्सुकता से उसे खोलती है तो भीतर एक चाबी की छवि दिखाई देती है। पत्नी को बक्से के बारे में पता था। वह तुरंत डुप्लीकेट चाबी बनवा कर बक्सा खोलती है। इस बक्से में किसी के करोड़ों रुपए हैं। यह बक्सा कहां से आया और किसका है, यही फिल्म का सस्पेंस है। पत्नी पैसों और बेटी को ले फिर से  अपने गांव निकल जाती है। फिल्म की टैग लाइन है - आप अपने परिवार के लिए किस हद तक जा सकते हैं? अनिवार्य रूप से देखने लायक फिल्म।
निर्देशक : हंसल मेहता
कलाकार : राजकुमार राव, पत्रलेखा
संगीत : जीत गांगुली

Monday, May 26, 2014

हीरोपंती

फिल्म समीक्षा

हीरोपंती : लोगों को आती नहीं 

धीरेन्द्र अस्थाना

रोमांस और एक्शन के जोनर तले बनी, जैकी श्रॉफ के बेटे टाइगर को लांच करने वाली फिल्म है ‘हीरोपंती‘। फिल्म इंडस्ट्री में ऐसे ढेर सारे उदाहरण हैं कि स्टार एक्टर का बेटा एक्टिंग के क्षेत्र में नहीं चल पाया या फिर दोयम दर्जे का एक्टर बना रहा। टाइगर को बड़े पैमाने पर लांच किया गया था। उसकी छवि बतौर एक्शन हीरो प्रोजेक्ट की गयी थी। फिल्म में उसने अपने एक्शन के कमाल भी दिखाए, जिन पर युवा दर्शकों ने सीटियां भी बजाईं। लेकिन सिर्फ इतने भर से कुछ होता जाता नहीं है। एक बड़े घटिया से डायलॉग को पूरी फिल्म की यूएसपी बना कर पेश किया गया है। जब जब कोई टाइगर की हीरोपंती पर कमेंट करता है वह बोलता है - क्या करूं लोगों को आती नहीं, मेरी जाती नहीं। टाइगर के चेहरे पर कोई भाव हरकत ही नहीं करता है। उसका जिस्म बोलता है चेहरा नहीं। इसमें शक नहीं कि उसने अपनी बॉडी पर जम कर मेहनत की है मगर एक्टिंग के खाते में भी तो थोड़ी मेहनत ट्रांस्फर करनी चाहिए थी। उसके अपोजिट जो नयी लड़की कृति सेनन इंट्रोड्यूस की गयी है उसमें भी अनुष्का, कंगना, आलिया, इलियाना, परिणिति जैसी चमक, ऊर्जा और विस्फोट नहीं है। नहीं लगता है कि आगे चल कर दोनों का कुछ खास होने वाला है। हां, यदि दोनों आर्टिस्ट सब कुछ भूल कर कुछ समय खुद को एक्टिंग के विभिन्न आयाम सीखने में बिताएं तो युवा पीढ़ी के दिलों में जगह बना सकते हैं। टाइगर को तो कहीं जाने की भी जरूरत नहीं है। उनके पिता जैकी कमाल के एक्टर हैं। टाइगर को जैकी से सीखना चाहिए। फिल्म की सबसे बड़ी उपलब्धि है इसमें प्रकाश राज का नये अवतार में मौजूद होना। उन्हें हम अभी तक एक क्रूर खलनायक के रूप में देखते आये थे। यहां तो उन्होंने एक विलेन के भीतर रहने वाले संवेदनशील बाप के भी दर्शन करा दिए। कमाल की एक्टिंग की है प्रकाश राज ने। पहली बार किसी विलेन के किरदार ने रुलाने का काम किया है। फिल्म की बुनियाद खाप पंचायतों के नियमों से प्रेरित बताई गयी है। एक जाट लैंड है जहां प्यार के लिए कोई जगह नहीं। दो बच्चे पैदा होने के बाद तो लड़की से उसका नाम पूछा जाता है। ऐसा फिल्म में कहा गया है। तो ऐसे जाट लैंड से प्रकाश राज की बड़ी बेटी को उसका प्रेमी भगा ले जाता है। भगाने में सहायक हैं टाइगर और उसके दोस्त। प्रकाश के लोग इन सबको उठा लेते हैं और जम कर ठुकाई करते हैं। टाइगर का दिल प्रकाश राज की छोटी बेटी पर आ जाता है। यहीं से शुरू होता है रोमांस और एक्शन का तड़का। छोटी बेटी यानी कृति सेनन को टाइगर विद्रोह का पाठ पढ़ाता है और उसे उसकी शादी के मंडप से भगा ले जाने के लिए पहुंचता है। लेकिन प्रकाश राज के भीतर के टूटे बाप को देख वह अपना इरादा बदल देता है। प्रकाश राज के भीतर का बाप भी जाट लैंड के नियमों को बाय बाय बोल टाइगर को अपनी बेटी ले जाने की इजाजत दे देता है। इतनी जरा सी बात पर इतनी खर्चीली फिल्म बना डाली। जबकि बेहतरीन फिल्मों को थियेटर तक नसीब नहीं होते। कमाल है अपना बॉलीवुड और उसका मायावी संसार।
निर्देशक : सब्बीर खान
कलाकार : टाइगर श्राफ, कृति सेनन, प्रकाश राज
संगीत : साजिद-वाजिद

Monday, May 19, 2014

द एक्सपोज

फिल्म समीक्षा

छठे दशक का लव, सेक्स और धोखा: द एक्सपोज 

धीरेन्द्र अस्थाना

गायक और संगीतकार तो हिमेश रेशमिया शुरू से बेहतर रहे हैं लेकिन बतौर एक्टर दर्शकों और फिल्म समीक्षकों ने उन्हें अब तक स्वीकार नहीं किया था। मगर एक्टर बनने की उनकी जिद ने अंततः कामयाबी का दामन थाम ही लिया। फिल्म भले ही सौ करोड़ क्लब में शामिल न हो मगर हिमेश ने इस फिल्म के जरिए यह साबित कर दिया कि वह एक्टिंग कर सकते हैं। इस फिल्म में वह अपने जमाने के मशहूर एक्टर राजकुमार से प्रेरित हैं। वैसा ही अंदाज, वही एरोगेंस और वैसा ही आत्मविश्वास। फिल्म साठ के दशक के फिल्मी माहौल में घटती है। हिमेश साउथ के सुपर स्टार हैं जिन्हें लेकर हिंदी का सुपरहिट निर्देशक फिल्म बनाता है। मुख्य धारा सिनेमा के उसके प्रतिद्वंद्वी निर्देशक की उसी दिन रिलीज फिल्म सुपरहिट हो जाती है जबकि हिमेश और जारा (सोनाली राउत) की फिल्म अनेक षड्यंत्रों के चलते फ्लॉप हो जाती है। इरफान खान फिल्म के सूत्रधार हैं और फिल्म में उन्होंने टिकटों को ब्लैक में बेचने वाले व्यक्ति का किरदार भी निभाया है। इस फिल्म से पता चलता है कि कैसे साठ के दशक में ब्लैकियों को खरीद लिया जाता था और वे पांच का टिकट तीन में बेचने का नाटक कर फिल्म को फ्लॉप करवा देते थे। फिल्म की दो हीरोइनें जोया अफरोज (चांदनी) और सोनाली राउत (जारा) एक दूसरे के साथ प्रोफेशनल जेलेसी का शिकार हैं। हिमेश मन ही मन चांदनी से प्यार करता है जबकि चांदनी एक अन्य एक्टर की गर्लफ्रेंड है। फिल्म के सेट पर आग लग जाती है तो हिमेश चांदनी को बचा लाता है। हिमेश का सौतेला भाई डॉन है। संगीतकार यो यो हनी सिंह ने भ्रष्ट संगीतकार के डी का किरदार निभाया है। फिल्म के निर्देशक अनंत महादेवन निर्देशक के ही किरदार में हैं। हिमेश एक्टर बनने से पहले पुलिस इंस्पेक्टर थे। उनसे एक मंत्री का मर्डर हो जाता है तो उन्हें सजा हो जाती है। सजा काटने के बाद वह एक्टर बनते हैं। चांदनी पर बनी फिल्म की सक्सेस पार्टी में सब लोग एक साथ हैं। यहां चांदनी और जारा में झगड़ा होता है। मार पीट भी। इसके बाद जारा टैरेस पर जाती है जहां से गिर कर उसकी मौत हो जाती है। यहां से फिल्म मर्डर मिस्ट्री में बदल जाती है। कम से कम छह किरदारों से इस रात जारा के पंगे हुए थे इसलिए मर्डर का शक छहों पर है। लेकिन असली हत्यारा कौन है, यही इस फिल्म का रहस्य और रोमांच है। फिल्म के सारे गाने पहले ही हिट हो चुके हैं। बहुत दिनों बाद ऐसे संवाद सुनने को मिले जिस पर थिएटर के भीतर बैठे दर्शक तालियां बजा रहे थे। फिल्म साधारण है लेकिन भरपूर मनोरंजन करती है और दर्शकों को एक पल के लिए भी बोर नहीं होने देती। देख सकते हैं। निराश नहीं होंगे।
निर्देशक: अनंत महादेवन
कलाकार: हिमेश रेशमिया, जोया अफरोज, सोनाली राउत, इरफान खान, यो यो हनी सिंह, आदिल हुसैन
संगीत: हिमेश रेशमिया



हवा हवाई

फिल्म समीक्षा

खुली आंखों का सपना: हवा हवाई

धीरेन्द्र अस्थाना

दूसरों का मालूम नहीं मैंने मकरंद देशपांडे को जीवन में पहली बार बिना दाढ़ी और बिना लंबे बालों के देखा। मुश्किल से कुल मिला कर दो मिनट का रोल और दिल जीत लिया दर्शकों का। फिल्म के मेन हीरो चाइल्ड आर्टिस्ट पार्थो गुप्ते के पिता के रोल में हैं मकरंद और एक गाने के जरिए संदेश देते हैं कि अंगारों पर चलना ही है जीवन का मंत्र। वह एक कपास उगाने वाले किसान हैं जिनकी फसल को पाला मार जाता है। वह हार्ट अटैक से मर जाते हैं। लेकिन यह घटना फ्लैश बैक में खुलती है। चाइल्ड हीरो पार्थो गुप्ते निर्देशक अमोल गुप्ते का बेटा है और उसने साबित कर दिया है कि साधारण शक्ल सूरत के बावजूद वह बहुत दूर जाने वाला है। ये बॉलीवुड में कैसे कैसे कमाल के लोग बसे हुए हैं तो फिर घटिया लोगों की लॉटरी क्यों निकल आती है? फिल्म के पांच चाइल्ड आर्टिस्ट ने जो काम किया है उसकी सीडी बना कर कई स्टार पुत्रों को दिन में पांच बार देखनी चाहिए। इस बार अमोल गुप्ते ने कोई रिस्क नहीं लिया। कहानी भी खुद लिखी, निर्देशन भी खुद किया और प्रोड्यूस भी खुद ही कर दी। और उनका यह निर्णय अच्छा ही हुआ। उनके काम का क्रेडिट कोई और तो नहीं ले गया। बहुत गजब फिल्म है ‘हवा हवाई‘। खुली आंखों से देखे हुए सपने का नतीजा है यह कृति जिसे किसी स्टार की दरकार नहीं थी। फिल्म के मूल किरदार पांच बच्चे तलछट से उठते हुए नायक हैं। पिता के मरने के बाद पार्थो को एक चाय की दुकान पर नौकरी करनी पड़ती है। इस दुकान के बाहर शाम 7 बजे के बाद अमीर घरों के बच्चे स्केटिंग सीखने आते हैं। नौकरी के पहले दिन पार्थो इस ट्रेनिंग को कौतुहल से देखता है। वह एक सपने को अपने भीतर जगह देता है कि वह भी स्केटिंग का चैंपियन बने। उसके चार दोस्त भंगार से सामान बटोर कर उसे स्केट बना कर देते हैं। इन दोस्तों में एक कचरा बीनता है, एक जरदोरी का काम करता है, एक कार गैराज में है और एक फूल बेचता है। तलछट का जीवन। वहां से चैंपियन बनने की छलांग। इस सपने को पालता पोसता है कोच साकिब सलीम। इसके बाद तमाम बाधाएं हैं जिन्हें पार करते हुए साकिब सलीम और पार्थो गुप्ते का सपना पूरा होता है और महाराष्ट्र स्टेट स्केट चैंपियनशिप प्रतियोगिता में पार्थो विजेता घोषित होता है। ‘चक दे इंडिया‘ और ‘भाग मिल्खा भाग‘ के बाद खेल और उसके संघर्ष पर बनी एक और अनूठी फिल्म। लेकिन यह इस मायने में अलग कि इसका कैनवास उन दो फिल्मों से छोटा जरूर है मगर जज्बा और जुनून लगभग वही है। यह तलछट से छलांग लगाने की फिल्म है। एक अनिवार्य रूप से देखी जाने वाली फिल्म।
निर्देशक: अमोल गुप्ते
कलाकार: पार्थो गुप्ते, साकिब सलीम, प्रज्ञा यादव, मकरंद देशपांडे, नेहा जोशी, दिव्या जगदाले
संगीत: हितेश सोनिक

पुरानी जीन्स

फिल्म समीक्षा

दोस्ती और प्यार की थकी कहानी: पुरानी जीन्स 

धीरेन्द्र अस्थाना


तीन, चार या पांच दोस्त। उनका एक दूसरे पर जान छिड़कना। उनके बीच तनाव का पसरना। उनका बिछड़ना। फिर मिलना। गलतफहमियों का दूर होना। दोस्ती का फिर लौट आना। एक लड़की। उस पर दो दोस्तों का एक साथ फिदा हो जाना। रिश्ते का उजागर होना। दोस्ती की खातिर किसी एक दोस्त का पांव पीछे खींच लेना। प्रेमी-प्रेमिका का मिल जाना। हिंदी सिनेमा में यह कहानी इतनी बार फिल्मायी गयी है कि अगर कोई नया कोण या विशेष अंदाज न हो तो फिल्म कोई थ्रिल नहीं जगा पाती। उस पर तुर्रा यह कि कलाकारों की एक्टिंग में भी कोई दम नहीं। ऐसा लगता है कि किसी छोटे शहर के अनुभवहीन नाट्यकर्मियों द्वारा कोई नाटक पेश किया जा रहा हो। सारिका जैसी प्रतिभाशाली और मंजी हुई अभिनेत्री को भी पूरी तरह बर्बाद कर दिया गया है। रति अग्निहोत्री के काम में जरूर कुछ चमक और ऊर्जा दिखाई देती है वरना तो पूरी फिल्म स्लोमोशन वाली बुझी बुझी यात्रा जैसी हो गयी है। रति अग्निहोत्री फिल्म के हीरो तनुज वीरवानी की मां के किरदार में हैं। हीरो समेत फिल्म में पांच दोस्तों की कहानी है। ये पांचों हिमाचल प्रदेश के एक छोटे से पहाड़ी शहर कसौली में रहते हैं। इन पांचों को लीड करता है नया एक्टर आदित्य सील। इसके चेहरे से जॉन अब्राहम के शेड्स कौंधते रहते हैं इसलिए यह एक्टिंग के स्तर पर भी जॉन की छाया के नीचे चलता नजर आता है। हालांकि यही एक्टर पूरी फिल्म में सबसे ज्यादा जीवंत और सक्रिय भी दिखाई देता है। मूल कहानी भी इसी के इर्द-गिर्द बुनी गयी है। यह पैसे वाली रानी सारिका का बेटा है जो हर समय शराब के नशे में धुत्त रहती है। आदित्य का पिता एक विदेशी लड़की के साथ तब भाग गया था जब आदित्य छह सात साल का था। उसे बाप का प्यार मिला ही नहीं। मां ने भी उसे हॉस्टल आदि में भेज अपने से दूर ही रखा। उसने दोस्तों के ग्रुप में अपने इमोशंस अर्जित किए। फिर उसने जिस लड़की इजाबेल को चाहा वह उसके बेस्ट फ्रेंड तनुज वीरवानी की चाहत में गिरफ्तार दिखी। आदित्य सील आत्महत्या कर लेता है। मन में अपराध बोध लिए तनुज विदेश में जाकर बस जाता है - पीछे सबको छोड़। फिर मां के मरने के बाद वह प्रॉपर्टी बेचने कसौली लौटता है। वहां पुराने दोस्त एक एक कर मिलते हैं, प्रेमिका भी। फिर वह आदित्य की मां सारिका से मिलता है उसे सॉरी बोलने के लिए कि आदित्य उसके कारण मरा। सारिका उस रात की असली कहानी बताता है कि आदित्य  सारिका की वजह से मरा क्योंकि जब जब आदित्य को मां की जरूरत थी सारिका तब तब वहां नहीं थी। तनुज का अपराध बोध जाता रहता है। वह और इजाबेल शादी कर लेते हैं। तनुज विदेश नहीं जाता। फिर से कसौली में बस जाता है। फिल्म के दो-तीन गाने अच्छे हैं। कसौली की फोटोग्राफी भी ध्यान खींचती है। क्या करना है खुद निर्णय लें। 
निर्देशक: तनुश्री चटर्जी बासु
कलाकार: तनुज वीरवानी, आदित्य सील, इजाबेल, सारिका, रति अग्निहोत्री
संगीत: राम संपत

Tuesday, April 29, 2014

रिवॉल्वर रानी

फिल्म समीक्षा

शानदार जानदार रिवॉल्वर रानी 

धीरेन्द्र अस्थाना

यह सोचते हुए फिल्म देखने गया था कि कंगना रनौत ने इस तरह की फिल्म क्यों की होगी? आज के समय में डाकुओं पर बनी फिल्म में क्या और कितना करने को होगा जबकि इस विषय पर हम ‘शोले‘ जैसी नायाब फिल्म देख चुके हैं। हाल फिलहाल ही ‘क्वीन‘ में कंगना अपने अभिनय का जलवा दिखा चुकी हैं फिर यह सी ग्रेड टाइप फिल्म क्या सोच कर साइन की होगी? लेकिन ‘रिवॉल्वर रानी‘ में तो कंगना ने करिश्मा ही कर दिया। मूलतः पूरी फिल्म कंगना की ही है लेकिन तीन अन्य कलाकारों जाकिर हुसैन, पीयूष मिश्रा और वीर दास के होने से फिल्म को एक गति और कुछ नये आयाम तथा विस्तार मिल गये हैं। इंटरवल तक फिल्म में गति, एक्शन और कंगना की ढांय ढांय है लेकिन इंटरवल के बाद कहानी इमोशनल ट्रैक पर पहुंच जाती है। डकैत कंगना के अपने कुछ भावनात्मक उसूल हैं जिनमें वह वह किसी को भी सेंध नहीं लगाने देती। अपने मामा पीयूष मिश्रा को भी नहीं जो उसकी मां भी हैं और पिता भी। डकैत कंगना के जीवन की पटकथा लिखने वाले उसके मामा पीयूष मिश्रा ही हैं। दूसरा है वीर दास जिसने बदसूरत, बदजबान और बीहड़ कंगना के भीतर खोजा है एक सुंदर, विनम्र और कोमल स्त्री को, जिसे वह प्यार करने लगा है। कंगना जैसी खूंखार डकैत इस प्यार के सामने समर्पण कर देती है और वीर दास उसके जीवन में बतौर प्रेमी उपस्थित हो जाता है। मगर कंगना प्रेम भी काफी आक्रामक ढंग से और अपनी ही शर्तों पर करती है। कंगना के जीवन का तीसरा कोण है भानु भइया यानी जाकिर हुसैन। यह कंगना का राजनैतिक प्रतिद्वंद्वी है। कंगना राजनीति में भी शामिल है। वह पांच साल तक क्षेत्र की विधायक रहने के बाद नये चुनाव में भानु भइया से हार गयी है। अपने राजनैतिक रूप से बलशाली समय में वह भानु भइया के बड़े भाई को मरवा चुकी है। इस बात को भानु भइया का गुस्सैल परिवार पचा नहीं पा रहा है और उसके अंत के षड्यंत्र रचता रहता है। इंटरवल के बाद कहानी नया मोड़ लेती है। कंगना गर्भवती है जबकि वह बांझ औरत के रूप में प्रचारित थी। यह बच्चा वीर दास का है क्योंकि मूल पति को तो कंगना बहुत पहले मार चुकी थी, उसी बेवफाई के चलते। खोट पति में ही था मगर बांझ के रूप में प्रचारित हुई कंगना। अब उसे मां बन कर इस झूठ को रद्द करना है। यही नहीं अब उसे ‘हाउस वाइफ‘ बन कर बाकी का जीवन जीना है। मामा और पति को यह मंजूर नहीं क्योंकि पति (वीर दास) को तो बॉलीवुड का एक्टर बनना है और मामा को दबंग राजनेता। मामा दुश्मन कैंप से मिल जाता है और कंगना को मरवाने की इजाजत दे देता है। वीर दास इमोशनल ब्लैकमेल कर दस करोड़ रूपये के साथ कंगना के साथ इटली के लिए निकल पड़ता है। रात बिताने के लिए जिस गेस्ट हाउस में दोनों रुकते हैं वहां दुश्मन का सशस्त्र हमला हो जाता है। हमले में कंगना घायल होती है लेकिन वह पूरी दुश्मन फौज को खदेड़ देती है। फिर वह वीर दास से कहती है - चलो। मगर वीर दास कंगना को तीन गोली मार रुपयों से भरा ब्रीफकेस ले भाग जाता है। दरअसल सबके सब कंगना का इस्तेमाल कर रहे थे। फिल्म इस ‘नोट‘ पर खत्म होती है कि घायल कंगना को बागी कैंप के लोग उठा ले जाते हैं। वहां कंगना की एक आंख खुल जाती है और फिल्म समाप्त हो जाती है। यह अंत फिल्म के सीक्वेल बनने का भी संकेत है। दिलचस्प फिल्म है। देखी जा सकती है। गीत-संगीत लीक से हट कर है। 
निर्देशक - साईं कबीर
कलाकार - कंगना रनौत, वीर दास, पीयूष मिश्रा, जाकिर हुसैन
संगीत - संजीव श्रीवास्तव

Tuesday, April 22, 2014

टू स्टेट्स

फिल्म समीक्षा

खूबसूरत और संवेदनशील ‘टू स्टेट्स‘ 

धीरेन्द्र अस्थाना

पहले ‘हाइवे और अब ‘टू स्टेट्स‘। आलिया भट्ट की गाड़ी तो निकल पड़ी। महेश भट्ट की बेटा का हाव भाव बड़ा स्टाइलिश और मनभावन है। सबसे हटकर एकदम मौलिक। दो फिल्मों में अलग अलग किरदार सहज, जीवंत और असरदार तरीके से निभा कर आलिया ने खुद को साबित कर दिया है। अर्जुन कपूर भी सहज और संवेदनशील अभिनय करते नजर आए हैं। फिल्म का विषय नया नहीं है लेकिन जिस अंदाज में उसे साधा गया है वह आकर्षित करता है। दो जवान दिलों की मोहब्बत और फिर आपस में विवाह - यह स्थिति दोनों के माता-पिता को बर्दाश्त नहीं है। इस विषय को अलग अलग कोण और अलग अलग उप कथाओं के जरिए कई फिल्मों में दिखाया गया है। इस फिल्म को सुखांत मोड़ लड़के के पिता के हस्तक्षेप से दिलवाया गया है। फिल्म में प्रेम के द्वंद्व से ज्यादा मर्मस्पर्शी पिता-पुत्र के बीच पसरा तनाव और क्रोध है जो पिघलता है तो जिंदगी के समीकरण सुलझने लगते हैं। अर्जुन कपूर के पिता के रूप में रोनित रॉय और मां के रोल में अमृता सिंह ने अच्छा और दिलचस्प काम किया है। एक गुस्सैल, बेकार और कुंठित पति व पिता के किरदार में रोनित रॉय ने यादगार जान डाल दी है। पिता-पुत्र में संवाद तक नहीं है। लेकिन यही पिता बिन बताए लड़की के मां-बाप से मिलने चेन्नई चले जाते हैं और अपनी पत्नी के खराब बर्ताव के लिए माफी मांग कर लड़की के मां-बाप का दिल जीत लेते हैं। पिता के इस आचरण से अर्जुन स्तब्ध रह जाता है। वह तो अपने पिता से नफरत करता था। तो फिर यह उसके पिता ने क्या किया? जवाब भी पिता देता है - ‘मैं बुढ़ापे में अपने बेटे को खोना नहीं चाहता था।‘ संवाद सुनते और दृश्य देखते हुए दिल में हाहाकार जैसा तो कुछ होता है। आलिया तमिल लड़की है। अर्जुन पंजाबी मुंडा है। दोनों अहमदाबाद के आईआईएम इंस्टीट्यूट में टकराते हैं। दोनों में दोस्ती होती है फिर दोनों बड़े आराम से सेक्स भी कर लेते हैं। अब दोनों को शादी करनी है क्योंकि इंस्टीट्यूट से निकल कर दोनों नौकरी पा चुके हैं। लेकिन दोनों के ही परिवारों को यह रिश्ता मंजूर नहीं है। दोनों पक्ष अपने अपने कल्चर और कम्युनिटी की दुहाई देते हैं। अर्जुन और आलिया अपने परिवारों को कई बार मिलाने का प्रयास करते हैं लेकिन इस बार मामला उलझ जाता है। आखिर तंग आकर आलिया इस रिश्ते से हटने की घोषणा करती है। अर्जुन भीतर ही भीतर टूट जाता है। उसकी टूटन को उसका पिता ‘फील‘ करता है और अगले दिन बिना किसी को बताए आलिया के मां-बाप के घर के लिए निकल पड़ता है। अर्जुन के पिता के इस हस्तक्षेप के बाद राहें आसान हो जाती हैं। दोनों का परिवार की सहमति से विवाह हो जाता है। यही वे दोनों चाहते भी थे। फिल्म का संदेश यह है कि जब मां-बाप अपने हिस्से का जीवन अपनी मर्जी से जी चुके हैं तो फिर अपनी संतानों की राह को कठिन क्यों करना चाहते हैं? अच्छी फिल्म है। देख लेनी चाहिए। गीत संगीत में भी जान है। 
निर्देशक: अभिषेक वर्मन
कलाकार: अर्जुन कपूर, आलिया भट्ट, रोनित राय, अमृता सिंह, रेवती
संगीत: शंकर-अहसान-लॉय