Saturday, August 20, 2011

चतुर सिंह टू स्टार

फिल्म समीक्षा

बचकानी ’चतुर सिंह टू स्टार‘

धीरेन्द्र अस्थाना

बनी तो बीसियों होंगी लेकिन इस लेखक को याद नहीं आता कि उसने अपनी कुल जिंदगी में कोई इतनी बचकानी फिल्म कभी देखी होगी। ऐसा भी लगता है कि शायद यह फिल्म बहुत पुरानी है जो अब जाकर रिलीज हो पायी है। वरना तो संजय दत्त के खाते में एक से एक बेहतरीन फिल्में दर्ज हैं। एक्शन भी, कॉमेडी भी, संजीदा भी। आश्चर्य है कि कॉमेडी के नाम पर क्या क्या बनाया जा रहा है और पैसे को पानी में डाला जा रहा है। निर्देशक अजय चंडोक को फिल्म में काम करने के लिए संजय दत्त, अनुपम खेर, सतीश कौशिक, मुरली शर्मा, अमीषा पटेल, गुलशन ग्रोवर जैसे मंजे हुए कलाकार मिले थे, लेकिन वह एक भी कलाकार से अच्छा काम नहीं करवा सके। कॉमेडी के नाम पर विदूषकों की टोली बना डाली उन्होंने। यह टोली अपनी बचकानी हरकतों से एक वाहियात सी कहानी को फॉलो करती हुई एक बेतुके और फूहड़ से अंत पर पहुंचती है। न फिल्म के संवाद दिल को गुदगुदाते हैं और न ही नाच गाने प्रभावित करते हैं। अमीषा पटेल से निर्देशक ने दिल खोल कर देह प्रदर्शन करवाया है। लेकिन इंटरनेट और एक से एक खतरनाक वेबसाइटों के जमाने में अमीषा पटेल का देह प्रदर्शन देखने तो दर्शक सिनेमा हॉल में जाने से रहे। दर्शकों को बांधे रखने वाली कोई एक बात तो फिल्म में होती। शायद इसीलिए जो भी 8-10 दर्शक फिल्म देखने आए थे वे बार-बार उठ कर बाहर जा रहे थे। निर्देशक ने इतना भी नहीं सोचा कि पूरे के पूरे पुलिस महकमे को जोकरों जैसा चित्रित करके वह कोई तीर नहीं मार रहे हैं। संजय दत्त एक जासूस है जो जासूसी कम जोकरी ज्यादा करता है। एक र्मडर मिस्ट्री सुलझाने साउथ अफ्रीका जाता है। इस र्मडर के पीछे बेशकीमती हीरों की चोरी की कहानी है। जिस गैंगस्टर पर शक है उसकी याद्दाश्त चली गयी है, इसलिए वह भी जोकर बन गया है। उसे पीट पीटकर उसकी याद्दाश्त वापस लायी जाती है। फिर उसका पीछा करके हीरे हड़प लिए जाते हैं। मर्डर मिस्ट्री सॉल्व हो जाती है, क्योंकि जिसका मर्डर हुआ है उसकी पत्नी साउथ अफ्रीका में प्रकट होकर बताती है कि मर्डर उसने किया है। क्या क्या सोचते और बनाते हैं लोग।

निर्देशक: अजय चंडोक
कलाकार: संजय दत्त, अमीषा पटेल, अनुपम खेर, सतीश कौशिक, गुलशन ग्रोवर
संगीत: साजिद-वाजिद
गीत: जलीस शेरवानी

Tuesday, August 16, 2011

आरक्षण

विमर्श

बेमतलब है ‘आरक्षण’ पर बवाल

धीरेन्द्र अस्थाना


याद नहीं आता कि इससे पहले कोई फिल्म पुलिस के पहरे में देखी थी। पुलिस सिनेमा हॉल के भीतर भी थी और बाहर भी। फिल्म देखकर हॉल से बाहर निकलने के काफी देर बाद तक भी समझ नहीं आया कि प्रकाश झा की नयी फिल्म ‘आरक्षण’ में ऐसा क्या आपत्तिजनक है, जिस पर कुछ लोग बवाल मचा रहे हैं। प्रकाश झा अर्थपूर्ण सिनेमा बनाते आये हैं। फर्क सिर्फ इतना आया है कि अब वह बड़ी स्टार कास्ट को लेकर बड़े बजट की फिल्म बनाते हैं। इसका एक लाभ यह हुआ कि अब उनके संदेशपरक सिनेमा को पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा दर्शक मिल जाते हैं, लेकिन केवल नाम को लेकर जो हंगामा मचाया गया उससे दर्शक डर गये और इस कारण इस सार्थक फिल्म को देखने उस मात्रा में नहीं आये, जिसका अनुमान लगाया गया था। पंजाब, आंध्र और यूपी में फिल्म पर प्रतिबंध है। तीन प्रदेशों के दर्शक एक विचारोत्तेजक और संवेदनशील फिल्म को अकारण नहीं देख पाएंगे, जबकि इस फिल्म में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिससे किसी की भावनाएं आहत होती हों। फिल्म अमिताभ बच्चन के माध्यम से यह संदेश देती है कि शिक्षा का हक सभी को है। अमिताभ आरक्षण को समय की मांग मानते हैं और अपने विचारों के समर्थन में अपनी नौकरी, अपना घर गंवाकर भी खड़े रहते हैं। मिथिलेश सिंह यानी मनोज वाजपेयी के माध्यम से फिल्म यह संदेश देती है कि उनके जैसे धनलोलुप लोग किस तरह ऊंची शिक्षा का लाभ एक मलाईदार तबके तक सीमित रखान चाहते हैं कि कैसे देश में कोचिंग क्लासेज के जरिये शिक्षा का व्यापारीकरण कर दिया गया है। फिल्म सैफ अली खान के माध्यम से संदेश देती है कि कैसे एक जाति विशेष में जन्म लेने के कारण उसे कदम-कदम पर अनाचार का दंश झेलना पड़ता है। फिल्म कहीं से भी आरक्षण के पक्ष या विपक्ष में नहीं है। देश में मौजूद एक ज्वलंत मुद्दे पर विमर्श करने वाली फिल्म को नाहक ही राजनीति का शिकार बनाया जा रहा है। अगर कुछ गलत होता तो भला सेंसर बोर्ड फिल्म को हरी झंडी क्यों देता? फिल्म के सभी कलाकारों से प्रकाश झा ने बेहतर काम लिया है। दुख है कि अश्लील फिल्मों का कोई विरोध नहीं होता मगर गंभीर विमर्श को खारिज किया जाता है। एक नाजुक मुद्दे पर पूरी फिल्म एक सार्थक और साझा सहमति बनाना चाहती है लेकिन साझा सहमति चाहता कौन है।