Monday, December 23, 2013

धूम 3

फिल्म समीक्षा

धूम मचाने आयी धूम 3‘ ****

धीरेन्द्र अस्थाना

            यह आमिर खान की फिल्म है। और जिस फिल्म में आमिर खान हों वह केवल आमिर खान की ही फिल्म होती है। यूं तो धूम 3‘ में अभिषेक बच्चन, उदय चोपड़ा, कैटरीना कैफ और जैकी श्रॉफ ने भी बेहतरीन अदाकारी की है मगर सब के सब हाशिए पर चले गये हैं क्योंकि विलेन होने के बावजूद पूरी फिल्म में आमिर खान ही दर्शकों को अपनी तरफ एकाग्र किए रखते हैं। धूम 3‘ में कैटरीना कैफ अपने सिनेमाई करिअर के सबसे ग्लैमरस रोल में हैं और जैकी श्रॉफ ने पांच मिनट के अपने रोल में भी दर्शकों के भीतर तीव्र संवेदना जगाने में सफलता पायी है। जैकी शिकागो में द ग्रेट इंडियन सर्कसचलाते हैं। वह वेस्टर्न बैंक ऑफ शिकागो के कर्जदार हैं। बैंक उनका कर्ज माफ नहीं करता जिसके चलते वह खुद को गोली मार कर खत्म कर लेते हैं। उनके दो छोटे बेटे हैं समर और साहिर। ये दोनों कालांतर में आमिर खान के डबल रोल में आते हैं। लेकिन डबल रोल वाला सीक्रेट इंटरवल के बाद उजागर होता है। इस बार की धूमबदले की कार्रवाई पर आधारित है लेकिन यह बदला व्यक्ति से नहीं वेस्टर्न बैंक ऑफ शिकागो से लिया जा रहा है जिसने जैकी श्रॉफ को आत्महत्या करने पर मजबूर किया था। आमिर खान एक तरफ साहिर वाले किरदार में अपने पिता के सर्कस को फिर से स्थापित करने के संघर्ष में हैं दूसरी तरफ वह वेस्टर्न बैंक की शाखाओं में एक एक करके डकैती डाल रहे हैं और बैंक की इमारत तथा फर्नीचर को तबाह भी कर रहे हैं। आमिर का चरित्र एक सुपर डकैत, अदभुत तकनीशियन और जांबाज बाईकर का है। बैंक लूटने के बाद वह अपनी बाइक पर बैठ छू मंतर हो जाते हैं। इंटरवल तक फिल्म को दर्शक सांस रोक कर देखते हैं। लेकिन इंटरवल के बाद निर्देशक की पकड़ फिल्म के ऊपर से क्रमशः छूटने लगती है। फिल्म तीन घंटे लंबी हो गई है। जबकि कई प्रसंगों को छोटा किया जा सकता था। फिर भी थ्रिलर फिल्मों के इतिहास में धूम 3‘ एक नया अध्याय जोड़ती है। सर्कस के नायाब और हैरतअंगेज करतब दिखाने के लिए साहिर हमेशा दर्शकों के सामने रहता है जबकि समर पर्दे के पीछे, गुमनाम। साहिर को पकड़ने के लिए मुंबई पुलिस का खतरनाक अधिकारी अभिषेक बच्चन और उसका सहयोगी उदय चोपड़ा शिकागो पहुंचते हैं। उदय चोपड़ा का रोल कॉमिक है जिसे उन्होंने बेहद स्तरीयता और नफासत से अंजाम दिया है। इन तीनों ने पूरी फिल्म में बाइक चलाने के अपने अंदाज से दर्शकों के दिलों को छुआ है। आमिर की बाइक तो तकनीकी क्रांति का अदभुत नमूना है। फिल्म के लगभग अंत में आमिर खान बैंक की चौथी और सबसे बड़ी शाखा में डकैती डालते हैं और उसे बम से उड़ा देते हैं। अभिषेक बच्चन शिकागो पुलिस के सहयोग से नदी पर बने एक संकरे पुल पर दोनों आमिर भाइयों को घेरने में सफल हो जाते हैं। इसके बाद क्या, यह फिल्म में जाकर देखें। बैंक तबाह हो कर बंद हो जाता है। आमिर का बदला पूरा होता है। अनिवार्य रूप से देखने लायक फिल्म। गीत-संगीत-कथा-पटकथा-एक्शन-डांस-अभिनय-सस्पेंस हर मोर्चे पर साल की सबसे परफेक्ट फिल्म।

निर्देशक:          विजय कृष्ण आचार्य 
कलाकार:         आमिर खान, अभिषेक बच्चन, उदय चोपड़ा, कैटरीना कैफ, जैकी श्रॉफ
संगीत:              प्रीतम चक्रवर्ती



*बेकार  **साधारण ***अच्छी  ****बहुत अच्छी *****अद्वितीय 


Tuesday, December 17, 2013

जैकपॉट

 फिल्म समीक्षा 

झोल का ‘जैकपॉट‘ 

धीरेन्द्र अस्थाना


कैजाद गुस्ताद की फिल्म ‘जैकपॉट‘ कुछ अचरजों का पिटारा है। अचरज नंबर एक - ऐसी फिल्मों को फाइनेंसर और वितरक कैसे मिल जाते हैं जबकि अनेक महान फिल्में रिलीज का मुंह बमुकश्किल देख पाती हैं। अचरज नंबर दो - नसीरुद्दीन शाह जैसा महान अभिनेता ऐसी फिल्मों का हिस्सा क्यों बन जाता है जो दर्शकों के साथ झोल करती हैं। अचरज नंबर तीन - फिल्म के तीन या चार गानों के लिए दस संगीतकार, दस गायक और आठ गीतकार क्या कर रहे हैं? वह भी ऐसे गाने जो याद नहीं रह पाते। नसीर इस खराब फिल्म का हिस्सा हैं लेकिन नसीर के अभिनय की वजह से ही यह फिल्म देखी भी जा सकती है। कैजाद की यह विशेषता तो रेखांकित करनी पड़ेगी कि उन्होंने नसीर को उनके अब तक के करियर का सबसे अनूठा लुक दिया है। फिल्म की सबसे बड़ी कमी उसकी मेकिंग है। फिल्म बहुत जल्दी जल्दी बहुत सारे फ्लैश बैक में से वर्तमान में आती जाती है। इससे दर्शक कन्फ्यूज हो जाता है। कहानी की डोर दर्शक के हाथ से बार बार छूट जाती है। मुख्यतः यह फिल्म कुछ ठगों की अजीबोगरीब दास्तान का सिनेमाई अवतार है। नसीरुद्दीन शाह गोवा के जैकपॉट नामक कसीनो का मालिक है। उसे सचिन जोशी, जो खुद को ‘ठग कलाकार‘ मानता है, एक आईडिया देता है। आईडिया यह कि कसीनो में जुए की एक बड़ी प्रतियोगिता रखते हैं जिसमें प्रथम विजेता को पांच करोड़ रुपये का ईनाम दिया जाएगा। इस प्रतियोेगिता को सचिन का ही कार्ड प्लेयर दोस्त जालसाजी से जीत लेगा। कसीनो में मौजूद ग्राहकों के सामने दोस्त को पांच करोड़ का ब्रीफकेस दिया जाएगा जिसे सचिन डकैत की शक्ल में आकर छीन ले जाएगा। इस डकैती की एफआईआर लिखाने के बाद इंश्योरेंस कंपनी से पांच करोड़ का क्लेम वसूला जाएगा। सचिन एक आइडिया और देता है। उसके अंकल की दो सौ पचास एकड़ की एक जमीन केवल दो सौ पचास करोड़ में खरीद कर उसे दस गुना ज्यादा दामों में बेच देंगे। इसके लिए विदेशी इन्वेस्टरों को डिज्नीलैंड बनाने का ऑफर दिया जाएगा। इन्वेस्टमेंट नसीर करेंगे। प्रॉफिट में सचिन और उनके दोस्तों का हिस्सा तीस प्रतिशत होगा। बाकी सत्तर प्रतिशत नसीर का। नसीर झांसे में आ जाते हैं। बहुत सारी घटनाओं और नकली हत्याओं के बाद पता चलता है कि सचिन ने नसीर के साथ बहुत बड़ा झोल कर दिया है। फिल्म के अंत में नसीरुद्दीन शाह पानी में डूब कर मारे जाते हैं और सचिन तथा उनका गैंग ठगी से कमाए गये पैसों का समान वितरण कर मजे करता है। इसमें नकली मुख्यमंत्री, नकली अंकल और नकली पुलिस इंस्पेक्टर के अलावा और भी ढेरों नकली किरदार हैं। फिल्म को देखने का कोई भी कारण फिल्म में मौजूद नहीं है।
निर्देशक: कैजाद गुस्ताद
कलाकार: नसीरुद्दीन शाह, सचिन जोशी, सनी लियोनी, मकरंद देशपांडे, भरत निवास
संगीत: शरीब शाबरी, तोशी शाबरी समेत दस संगीतकार

Tuesday, December 10, 2013

आर... राजकुमार

फिल्म समीक्षा

‘आर... राजकुमार‘ 
अतिरंजित और अवास्तविक राजकुमार

धीरेन्द्र अस्थाना

इस फिल्म को इसलिए देखा जा सकता है कि इसमें शाहिद कपूर, सोनाक्षी सिन्हा, सोनू सूद, मुकुल देव और आशीष विद्यार्थी ने कमाल का अभिनय किया है। सोनाक्षी फिल्म दर फिल्म एक-एक पायदान ऊपर चढ़ रही हैं। उनकी किस्मत अच्छी है कि हर फिल्म में उनके लिए एक ऐसा डायलॉग रख दिया जाता है जो दर्शकों को याद रह जाता है। ऐसा ही एक डायलॉग इस फिल्म में भी है। जिसका आनंद फिल्म देखते समय ही लेना बेहतर होगा। सोनू सूद का यह डायलॉग भी दर्शकों को पसंद आया है -‘मेरे मुंह मत लगना, मैं सेहत के लिए हानिकारक हूं।‘ अभिनय के बाद इस फिल्म को इसके सभी गानों के लिए देखा जा सकता है जो फिल्म की रिलीज से पहले ही सुपरहिट हो चुके हैं। फिल्म के संवाद भी प्रभावित करते हैं। जब फिल्म के तीन तीन पक्ष मजबूत हैं तो हम इस फिल्म को साधारण क्यों कह रहे हैं? इसलिए कि ‘आर... राजकुमार‘ की कहानी अवास्तविक और अतिरंजित है। माना कि सिनेमा ‘लार्जर दैन लाइफ‘ होता है लेकिन उसे इतना भी लार्ज नहीं होना चाहिए कि उसके हाथ से लाइफ ही छूट जाये। इस फिल्म में यही हुआ है। खास कर इंटरवल के बाद। फिल्म की कहानी को अनेक जगहों पर जबरन खींचा गया है। एक्शन से लबरेज फिल्म को जबरन कॉमेडी का चोला पहना कर उसकी सघनता और तीव्रता में बाधा डाली गयी है। बदले और पलटवार के वही पुराने फार्मूलों से फिल्म अटी पड़ी है जिन्हें हम वर्षों से देखते आ रहे हैं। नदी में डुबकी लगाने के एक दृश्य में जैसे ही सोनू सूद और सोनाक्षी सिन्हा का आमना-सामना होता है दर्शक तुरंत समझ जाते हैं कि सोनू सूद का फंटर शाहिद कपूर अब उसका दुश्मन बन जाएगा क्योंकि सोनाक्षी से तो शाहिद प्यार करता है। दुबला और औसत कद का शाहिद पचास पचास महाबली गुंडों को धराशायी करता हुआ एकदम कृत्रिम नजर आता है। फिल्म के अंत से पहले अफीम का सौदागर शाहिद के पेट में खतरनाक चाकू घुसेड़ कर उसे दो-तीन बार घुमा देता है। ठीक यही काम पीठ की तरफ से सोनू सूद भी करता है। इस लगभग मरे हुए शाहिद को सोनू के गुंडे जमीन में दफना देते हैं। लेकिन जब शादी का मंडप सजा हुआ होता है और सोनू खुश हो कर नाच रहा होता है तो शाहिद लौट आता है। पहले वह खूब मार खाता है फिर अफीम के सौदागर और सोनू सूद को जान से मार डालता है। प्रभु देवा जैसे प्रतिभाशाली निर्देशक से इस तरह की कल्पनाशीलता की उम्मीद नहीं थी। सोनाक्षी सिन्हा को देख कर शाहिद कपूर जिस तरह अस्त व्यस्त और ध्वस्त होता है वह स्टाइल फिल्म ‘रांझना‘ से उठाया गया है जिसमें लगभग इसी तरह धनुष सोनम कपूर पर फिदा होता है। फिल्म का आनंद लेना है तो दिमाग घर पर छोड़ जाएं। 
निर्देशक:  प्रभु देवा
कलाकार: शाहिद कपूर, सोनाक्षी सिन्हा, सोनू सूद, आशीष विद्यार्थी, मुकुल देव
संगीत: प्रीतम चक्रवर्ती

Monday, December 2, 2013

बुलेट राजा

फिल्म समीक्षा 

राजनीति, मोहब्बत और गैंगवार: ‘बुलेट राजा‘ 

धीरेन्द्र अस्थाना 

सिनेमा उसके निर्देशक के खास स्टाइल और मुहावरे के कारण पहचाना जाता रहा है। जैसे गुरुदत का सिनेमा, राज कपूर का सिनेमा, करण जौहर का सिनेमा, अनुराग कश्यप का सिनेमा, यश चोपड़ा का सिनेमा। इसी तरह नये लोगों में अब तिग्मांशु धूलिया का सिनेमा भी अपनी पहचान बना चुका है। राजनीति, मोहब्बत, रंजिश और गैंगवार के बैकड्रॉप पर वह एक्शन फिल्म बनाते हैं। ‘बुलेट राजा‘ उनकेे इसी स्टाइल की नवीनतम प्रतिनिधि है। फर्क सिर्फ इतना है कि उनका इलाका मुंबई, दिल्ली या पंजाब नहीं उत्तरप्रदेश होता है। ‘बुलेट राजा‘ भी उत्तरप्रदेश के लखनऊ में घटित होती है और राजनीति तथा गंुडागर्दी के गठजोड़ को रेखांकित करती है। यह फिल्म हिंसा और मारामारी का नया रिकॉर्ड भी कायम करती है। सैफ अली खान अपने खुद के बैनर की फिल्म ‘एजेंट विनोद‘ में जो करिश्मा नहीं कर सके थे वह उन्होंने तिग्मांशु की फिल्म में कर दिखाया है। एक्शन के मामले में वह अक्षय, सलमान, शाहरुख से आगे निकलते दिखाई पड़े हैं। उनके एक्शन में गजब की फुर्ती और रोमांच है। फिल्म में यूपी की भाषा और संस्कृति एक अलग ही नजारा पेश करती है। आधी फिल्म सैफ अली खान और जिमी शेरगिल की है और आधी केवल सैफ की। इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि अगर इंटरवल से ठीक पहले जिमी शेरगिल का मर्डर नहीं करवाया जाता तो यह ‘शोले‘ के जय-वीरू की तरह दोनों की फिल्म बन जाती। जिमी ने अपने काम से फिल्म को रफ्तार और ऊंचाई दी है। यह फिल्म ंिहंसा का एक नया पाठ्यक्रम है। जो राम गोपाल वर्मा के स्कूल से थोड़ा अलग मिजाज और तेवर लिये हुए है। राज बब्बर ने एक कूल लेकिन शातिर पॉलीटीशियन की भूमिका को बखूबी अंजाम दिया है। सोनाक्षी सिन्हा अपने काम से लगातार नये पायदान चढ़ रही हैं। यहां उन्हें ज्यादा ‘स्पेस‘ नहीं मिला है तो भी वह प्रभावित करती हैं। नये एक्शन स्टार विद्युत जामवाल ने विशेष भूमिका के तहत थोड़ी देर के लिए ही सही लेकिन दमदार उपस्थिति दर्ज करायी है। फिल्म एक बार फिर इस भयावह सच्चाई का खुलासा करती है कि गैंगस्टर्स को राजनीति ही संरक्षण देती है। और राजनीति को संचालित करते हैं धन कुबेर। यहां यूपी की राजनीति, यूपी के धनपति और यूपी के ही गुंडे फिल्म का मुख्य कथानक है। माही गिल का आइटम डांस जोरदार है और सैफ-सोनाक्षी पर फिल्माया गया एक रोमांटिक गाना असरदार है। यहां रवि किशन को याद न करना अन्याय होगा। उन्होंने गैंगस्टर और कृष्ण भक्त राधा के दो किरदार निभा कर फिल्म को एक नया ही रंग दिया है। अनिवार्य रूप से देखने लायक फिल्म।

निर्देशक:  तिग्मांशु धूलिया
कलाकार:  सैफ अली खान, सोनाक्षी सिन्हा, जिमी शेरगिल, रवि किशन, राज बब्बर, माही गिल, गुलशन ग्रोवर, विद्युत जामवाल
संगीत: साजिद-वाजिद

Monday, November 25, 2013

सिंह साब द ग्रेट

फिल्म समीक्षा

एक्शन, इमोशन, डायलॉग का कॉकटेल
सिंह साब द ग्रेट

धीरेन्द्र अस्थाना

अगर आप सनी देओल के जबर्दस्त प्रशंसक हैं तो उनके कुछ जानदार डायलॉग सुनने और कुछ दमदार एक्शन देखने के लिए फिल्म देख सकते हैं। निर्देशक अनिल शर्मा ने एक बहुत बार दिखाई गयी पुरानी कहानी को थोड़े बहुत हेर फेर के साथ बेहद थके हुए ढंग से पेश किया है। दारू बंद कल सेवाला गाना अपने बोल और फिल्मांकन की वजह से फिल्म की जान है वरना तो हर गाने पर दर्शक उठ कर हॉल से बाहर जाते रहे। एक सौ पचास मिनट की यह फिल्म बड़े आराम से काट-पीट कर एक सौ बीस मिनट की बनायी जा सकती थी। कुछ मिला कर सिंह साब द ग्रेटएक्शन, इमोशन और डायलॉगबाजी का एक साधारण सा कॉकटेल है जो थोड़ा भी सुरूर पैदा नहीं करता। इमोशन के कई दृश्यों को बेवजह बहुत लंबा खींचा गया है। क्लीन शेव्ड सनी देओल के चेहरे पर उतरा हुआ अधेड़पन साफ नजर आता है लेकिन सरदार के रोल में वह जंचते भी हैं और प्रभावित भी करते हैं। एक्शन और गुस्से के दृश्यों में वह खासा कमाल कर गये हैं। प्रकाश राज खलनायकी के अपने पुराने अवतार में हैं। वह दर्शकों को कुछ नया नहीं दे पा रहे हैं। इस बार उन्होंने अपनी कुटिलता में इमोशन का छौंक डाल कर एक नया रंग देने की कोशिश जरूर की है। बदले से शुरू हुई कथा बदलाव पर जोर देती हुई आगे बढ़ती है। काफी मारामारी और हिंसा के बाद फिल्म इस मोड़ पर आकर खत्म होती है कि प्रकाश राज के भीतर का दानव परास्त हो जाता है और वह सनी देओल के सामने हाथ जोड़ कर उनका शुक्रिया अदा करता है कि उन्होंने डॉक्टर को प्रकाश राज की घायल बेटी का ऑपरेशन करने के लिए मना लिया। सनी देओल अपनी ताकत, जन समर्थन तथा मीडिया सहयोग के बल पर पूरे प्रदेश में बदलाव की एक हवा को तेज करने वाले जन नेता के तौर पर पेश हुए हैं। उनकी पत्नी, नयी एक्ट्रेस उर्वशी रौतेला को कुछ खास करने का मौका नहीं मिला। वैसे भी वह फर्स्ट हाफ में ही मर जाती है। टीवी पत्रकार बनी अमृता राव बड़ी फनी लगती हैं। वह सीधी सादी नेक्सट डोर गर्ल के किरदारों में ही ज्यादा असरदार नजर आती हैं। जॉनी लीवर का काम उम्दा है। बहुत सारे गुंडों ने भी अच्छा काम किया है। फिल्म की यूएसपी उसके डायलॉग हैं।

निर्देशक: अनिल शर्मा
कलाकार: सनी देओल, अमृता राव, उर्वशी रौतेला, जॉनी लीवर, प्रकाश राज, यशपाल शर्मा
संगीत: सोनू निगम, आनंद राज आनंद


Tuesday, November 19, 2013

राम-लीला

फिल्म समीक्षा

भव्य और दिव्य राम-लीला 

धीरेन्द्र अस्थाना

प्यार के सौदागर संजय लीला भंसाली ने इस बार ‘राम-लीला‘ के नाम से रणवीर सिंह और दीपिका पादुकोन की जो रासलीला बनायी है उसके बैकड्रॉप में नफरत, दुश्मनी, हत्याएं और गोलियों की तड़तड़ाहट है। बॉलीवुड में गैंगस्टर फिल्में बनाने वाले निर्देशक-निर्माताओं को संजय लीला भंसाली ने बताया और चेताया है कि संजय लीला चाहें तो कहीं ज्यादा खतरनाक और हिंसक गैंगस्टर फिल्म बना सकते हैं। फिल्म ‘राम-लीला‘ एक दुर्लभ और गैर पारंपरिक सिनेमाई अनुभव है। शेक्सपीयर के विश्व प्रसिद्ध नाटक ‘रोमियो जूलियट‘ से प्रेरित एक और हिंदी फिल्म लेकिन सबसे अलग और धारा के विरूद्ध। अगर हिंसा और कबीलाई दुश्मनी को एक तरफ रख दें तो यह संगीत प्रधान प्रेम कहानी भी है क्योंकि इस हिंसक प्रेम कहानी की आत्मा इसका गीत-संगीत और नृत्य है। यह गीत संगीत और नृत्य भी लीक से थोड़ा हटकर और अनूठा है। फिल्म इस फ्रेम से खुलती है कि पुलिस का एक अधिकारी गुजरात के एक कस्बे में बावला सा घूम रहा है। वह हैरान-परेशान है कि कस्बे में बंदूकों का कारोबार खुलेआम और धड़ल्ले से हो रहा है। वह पाता है कि कस्बा दो कबीलों में बंटा हुआ है। इन दोनों कबीलों की दुश्मनी पिछले पांच सौ सालों से चली आ रही है। इस कस्बे में गोलीबारी और खून खराबा एक आम घटना है जिसे बवाल जैसे मामूली शब्द से पुकारा जाता है। रजाड़ी और सनेड़ा नामक ये दोनों कबीले एक प्रकार के गैंगस्टर ही हैं। रजाड़ी गैंग का प्रतिनिधित्व रणवीर सिंह करते हैं और सनेड़ा गैंग से दीपिका पादुकोन आती हैं। एक होली में दीपिका और रणवीर एक दूसरे को दिल दे बैठते हैं। दुश्मनों में प्यार! इस प्यार की अभिव्यक्ति भी अजीबोगरीब है - गुस्सैल भी रोमानी भी। यह संभवतः रणवीर और दीपिका के अब तक के सबसे विस्मयकारी किरदार कहलाये जाएंगे। सनेड़ा गैंग की महिला डॉन का किरदार निभा कर सुप्रिया पाठक सिनेमा के अभिनय इतिहास में दर्ज हो गयी हैं। फिल्म में प्रियंका चोपड़ा का एक आइटम डांस है जिसे दिलचस्प नहीं जानलेवा कहा जा सकता है। कालांतर में रणवीर रजाड़ी गैंग के और दीपिका सनेड़ा गैंग के डॉन बनते हैं। फिल्म के अंत में दोनों प्रेमी एक दूसरे को गोली मार कर खत्म कर देते हैं। ताकि दोनों कबीले दुश्मनी भूल कर अमन चैन और प्यार मुहब्बत के साथ रह सकें। अब वहां दीवाली पर घर नहीं दीये जलते हैं। होली पर खून नहीं रंग उछलता है। एक अनिवार्य रूप से देखने लायक फिल्म। निर्देशन-अभिनय-गीत-संगीत हर मोर्चे पर एक लाजवाब अनुभव। 

निर्देशक:  संजय लीला भंसाली
कलाकार:  रणवीर सिंह, दीपिका पादुकोन, रिचा चड्ढा, सुप्रिया पाठक
संगीत:  संजय लीला भंसाली 

सत्या 2

फिल्म समीक्षा

दहशत के विचार की पटकथा ‘सत्या-2‘ 


धीरेन्द्र अस्थाना

यह रामगोपाल वर्मा की सुपरहिट फिल्म ‘सत्या‘ का सीक्वेल नहीं है। लेकिन फिल्म के अंत में हुई कुछ सूचनाओं के अनुसार जब ‘सत्या-3‘ बनेगी तो वह निश्चित तौर पर ‘सत्या-2‘ का सीक्वेल होगी। ‘सत्या-2‘ में रामगोपाल वर्मा एक नया विचार लेकर आये हैं। विचार यह कि दाउद, छोटा राजन, अबु सलेम वगैरह की गलती यह थी कि वह अपना नाम चमकाने के चक्कर में शासन-प्रशासन की नजरों में आ गये। ‘सत्या-2‘ का मास्टर माइंड सत्या (नया एक्टर पुनीत सिंह रत्न) नाम और चेहरा विहीन कंपनी बनाता है। इस कंपनी के सदस्यों में फायनेंस एक्सपर्ट, पुलिसकर्मी, सुरक्षाकर्मी, छात्र, भाजी बेचने वाले, फल बेचने वाले, शूटर, कुली आदि सब तरह के लोग शामिल हैं। किसी को नहीं पता कि वह किसके लिए काम कर रहे हैं मगर अपने काम का उन्हें जरूरत से ज्यादा मेहनताना मिल रहा है। सत्या का मानना है कि कंपनी एक सोच है और कंपनी का प्रोडक्ट ‘डर‘ है। अर्थात् फिल्म ‘सत्या-2‘ दहशत के विचार की पटकथा है। सत्या का मानना है कि ‘पावर‘ उसे दिखाने में नहीं छिपा कर रखने में है। वह एक नये किस्म का अंडरवर्ल्ड बनाना चाहता है जो दिमाग से चलेगा और जिसमें आम जनता की हिस्सेदारी होगी। उन तमाम लोगों की हिस्सेदारी जो किसी न किसी वजह से मौजूदा व्यवस्था के खिलाफ हैं या उससे नाराज हैं। सत्या अपने इस विचार को लेकर आगे बढ़ता है। उसके आर्थिक सहयोगी हैं मुंबई के चार पांच बड़े अरबपति। इन सबको सत्या ने अपने दिमाग से कुछ बड़े फायदे करवाये हैं। जब कंपनी का गठन हो जाता है तो सत्या एक साथ मुंबई के पुलिस कमिश्नर, बड़े उद्योगपति, एक तेज तर्रार नेता और एक बड़े टीवी चैनल के मालिक का मर्डर करवाता है। इसे वह अपनी कंपनी का उद्घाटन और ऐलान बताता है। इस चेहरा विहीन कंपनी से शहर और प्रशासन दहल जाता है। नये अंडरवर्ल्ड का यह विचार अगर रामू ने कुछ मंजे हुए कलाकारों को साथ लेकर पर्दे पर उतारा होता तो शायद सिनेमा में उनके करिश्मे की वापसी हो जाती। मगर अफसोस कि फिल्म में सहयोगी कलाकारों ने जितना अच्छा काम किया है उतना फिल्म के लीड आर्टिस्ट नहीं कर पाये हैं। पूरी फिल्म एक्टिंग के मोर्चे पर मार खा गयी है। मसलन फिल्म का हीरो पुनीत सिंह रत्न हमेशा अपने चेहरे पर नाराजगी का भाव ओढ़े रखता है तो हीरोईन हरदम चुलबुली बनी फुदकती रहती है। इन दोनों के प्रेम दृश्य और डांस सीक्वेंस बनावटी लगते हैं और रोमांस का अहसास नहीं जगा पाते। हीरो का लुक, बॉडी लैंग्वेज और शारीरिक गठन कहीं से भी ‘डॉन‘ का भान नहीं कराता। हां, फिल्म की कहानी और उसका फिल्मांकन औसत से अधिक है और इसे एक बार देखा जा सकता है। 
निर्देशक:  रामगोपाल वर्मा
कलाकार:  पुनीत सिंह रत्न, अनाईका सोटी, महेश ठाकुर, आराधना गुप्ता, राज प्रेमी
संगीत:  संजीव-दर्शन, नितिन रायकर, श्री डी



Thursday, November 7, 2013

क्रिश-3

फिल्म समीक्षा

मेहनत और प्रतिभा का विस्फोट क्रिश-3‘

धीरेन्द्र अस्थाना


पहले कोई मिल गयाफिर कृषऔर अब क्रिश-3‘। फिल्म के अंत में जिस तरह कृष्णा (रितिक रोशन) को अस्पताल की नर्स यह सूचना देती है कि बधाई हो बेटा हुआ हैउसे सुनते ही दर्शक लयबद्ध स्वर में चिल्ला उठे-क्रिश-4 भी बनेगी और इसमें हर्ज भी क्या है। क्रिश एक विचार है और शानदार फिल्म है। बुराई पर अच्छाई की विजय एक सनातन और शास्वत विचार है जो रामायण और महाभारत से निकलकर आधुनिक साहित्य और सिनेमा तक में उपस्थित है। इस विचार को लेखक और फिल्मकार अपने-अपने ढंग और शैली से दिखाते आ रहे हैं। इसलिये कोई गलत नहीं कि निर्माता निर्देशक राकेश रोशन क्रिश के विचार को ही नये-नये आयामों में पेशकर क्रिशके ही सीक्वेल बनाते रहें पहले ही बता दें कि क्रिश-3‘ मेहनत प्रतिभा और जुनून का एक महाविस्फोट है जो बड़े पर्दे पर मात्र ढाई घंटे में घटित हुआ है। हिंदी सिनेमा के दर्शकों में संभवतः पहली बार किसी हिंदी फिल्म में इतने खतरनाक और डरावने एक्शन दृश्य देखे होंगे जिनसे क्रिश-3‘ भरी पड़ी है। अगर कहें कि क्रिश-3‘ हिंदी सिनेमा में अब तक की सबसे जानदार और शानदार एक्शन फिल्म है तो गलत नहीं होगा। यकीनन राकेश रोशन ने फिल्म को अपनी मेहनत, ज्ञान और एक्टरों से उनका बेस्ट निकलवाने की अपनी क्षमता से हिंदी सिनेमा को एक आलादर्जे की तकनीक और अभिनय से लैस फिल्म सौंपने का काम किया है। सवाल यह नहीं कि भारतीय दर्शक जुरासिक पार्क‘, ‘मैन ऑफ स्टील‘, ‘पैसिस्फिक रिम अवतार‘, ‘हल्कऔर ‘2012‘ जैसी तकनीक से लवरेज विदेशी फिल्में देख चुके हैं। सवाल यह है कि भारतीय दर्शकों को पहली बार किसी भारतीय निर्देशक ने सुपर हीरो वाली पहली भारतीय फिल्म का उपहार दिया है। इस फिल्म में रितिक रोशन ने तीन किरदारों को जिया है और तीनों में कमाल कर दिया है। कंगना रानावत ब्रह्मांड के शैतान काल (विवेक ओबेराय की पैदाइश हैं) लेकिन फिल्मके इस दृश्य में जब इस खलनायिका को रितिक का चुंबन मिलता है तो उसके भीतर अच्छाई और संवेदना का अहसास जाग जाता है। वह दिल से क्रिश की हो जाती है। कंगना और रितिक का एक लव सांग भी इस फिल्म में है जो मनभावन और दर्शनीय है। इस गीत में निर्देशक ने कंगना की खूबसूरत देह यस्टि को शालीनता से पेश किया है। यह कहना शायद गलत नहीं होगा कि क्रिश-3‘ में रितिक रोशन, प्रियंका चोपड़ा, विवेक ओबरॉय और कंगना रानावत ने अपने अब तक के सिनेमाई करिअर का करिश्मा कर दिया है। फिल्म के संवाद सटीक और तथ्य को गति देने वाले हैं। विज्ञान और तकनीक का कमाल पसंद करने वाले दर्शकों के लिये तो यह अद्वितीय फिल्म है ही उन दर्शकों के लिये भी उपयोगी है जो एक्शन फिल्में पसंद करते हैं। फिल्म में इमोशन और एक्सप्रेशन को पर्याप्त स्पेश दिया गया है। अवश्य देखें क्योंकि ऐसी फिल्में कभी-कभी बनती हैं। 

निर्देशक:          राकेश रोशन 
कलाकार:         रितिक रोशन, प्रियंका चोपड़ा, कंगना रानावत, विवेक ओबरॉय 
संगीत:             राजेश रोशन 
सवांद:              संजय मासूम 


मिकी वायरस

फिल्म समीक्षा

दिलचस्प और समझदार मिकी वायरस

धीरेन्द्र अस्थाना

फिल्म के शुरुआती पलों में लगा था कि युवा पीढ़ी की कुछ बेतुकी हरकतों पर फोकस करने वाली कोई साधारण सी फिल्म देखने को मिलने वाली है, लेकिन जैसे-जैसे कहानी ने गति पकड़ी फिल्म ने बांधना शुरू कर दिया। और जब फिल्म समाप्त हो गयी तो दिल को बहुत तसल्ली मिली कि एक दिलचस्प, समझदार और आधुनिक फिल्म लंबे समय बाद सिनेमाई अनुभव का हिस्सा बनी। इसे समझने के लिए थोड़ा बहुत कम्प्यूटर की दुनिया का ज्ञान होना अनिवार्य है क्योंकि इसकी मूल कहानी हैकर्स (साइट चुराने वाले) और उनके कारनामों के इर्दगिर्द बुनी गयी है। यह इस बात का भी शानदार उदाहरण है कि नये लेकिन प्रतिभाशाली कलाकारों के साथ एकदम कम बजट की फिल्म बनायी जा सकती है। बशर्ते एक मौलिक किस्म की जेनुइन और जीनियस कहानी आपके पास हो। निर्देशक सौरभ वर्मा ने एक समझदारी वाला कदम यह उठाया कि फिल्म के अंत में कहानी को समझने वाला पासवर्ड डाल दिया। मतलब अपराध की व्याख्या करने वाला एक दृश्य डालकर फिल्म को सभी दर्शकों के लिये बोधगम्य और सरल बना दिया। अगर वह ऐसा नहीं करते तो शायद फिल्म के कॉमन दर्शकों को पूरी फिल्म अजीब सा गोरखधंधा लगती। फिल्म का मेन हीरो नया लड़का मनीष पाल है जो पूरी फिल्म को बेहद सफलता पूर्वक अपने अकेले कंधों पर उठा ले गया है। उसने आज की जेनरेशन के बिंदास, खिलंदड़े, आज में जीने वाले बेफिक्र युवक का किरदार अलमस्त अंदाज में जिया है। यही है मिकी वायरस जो अपने तीन और ऐसे ही युवाओं के साथ जीवन गुजार रहा है। ये चारों कंम्प्यूटर ज्ञान में महारत हासिल किये हुए हैं। दिल्ली शहर में दो विदेशी हैकर्स का खून हो जाता है। इस मर्डर की गुत्थी सुलझाने के लिये एसीपी सिद्धांत मिकी वायरस का चुनाव करता है। तभी मिकी के जीवन में एली एवराम नामक लड़की का प्रवेश होता है और मिकी एली से मोहब्बत करने लगता है। इसी बीच एली गलती से एक कस्टमर का सौ करोड़ रुपया गलत एकाउंट में ट्रांसफर कर देती है। एली मिकी से मदद मांगती है और मिकी उसके बैंक जाकर चुपके से उस पैसे को सही एकाउंट में वापस ले आता है। इसके बाद एली का भी उसी तरह सायनाइड के इंजेक्शन से मर्डर हो जाता है जैसे दो विदेशी हैकर्स का हुआ था। इस मर्डर में मिकी फंसता हुआ नजर आता है जबकि वह खूनी नहीं है। फिर कैसे मिकी बेदाग बच जाता है और असली अपराधी एसीपी सिद्धांत और मिकी के तीन दोस्त निकलते हैं इस रहस्य पर से पर्दा उठा दिया तो फिल्म का मजा ही जाता रहेगा। इसलिये जाइये और एक शानदार-जानदार फिल्म देख आइये। 

निर्देशक:          सौरभ वर्मा 
कलाकार:         मनीष पाल, एली एवराम, वरुण बडोला, मनीष चौधरी, पूजा गुप्ता 
संगीत:              हनीफ शेख


Friday, October 18, 2013

बॉस

फिल्म समीक्षा

इस बॉसमें जान है

धीरेन्द्र अस्थाना

इसे कहते हैं फुल एंटरटेनमेंट या पैसा वसूल फिल्म। एक्शन, इमोशन, डांस, कॉमेडी, म्यूजिक, डायलॉग और लोकेशन का मुकम्मल पैकेज। कहीं कोई झोल नहीं, ढीला ढाला पन नहीं। ढाई घंटे की रोचक और मसाला फिल्म दर्शकों ने पूरे मजे लेकर और डूब कर देखी। थियेटर छोड़ कर एक बार भी बाहर नहीं गये। छुट्टी का दिन था। फिर क्या हुआ कि दर्शकों की संख्या संतोषजनक नहीं थी। शायद कहानी का पुरानापन। इस संपूर्ण पैकेज के साथ शायद दर्शकों को कहानी में भी ताजगी चाहिए। मां-बेटे के रिश्ते पर तो सैकड़ों फिल्में बनी हैं। बॉसपिता-पुत्र के द्वंद्व, नासमझी, लगाव और जुड़ाव पर बनी है। एक्टर भी छोटे-मोटे नहीं हैं। महत्वाकांक्षी मंत्री के रूप में गोविंद नामदेव हैं। ग्लैमरस अदिति राव हैदरी हैं। सोनाक्षी सिन्हा और प्रभुदेवा का आइटम नंबर है। अक्षय कुमार की हैरतअंगेज फाइट और मर्मस्पर्शी इमोशन है। जॉनी लीवर की कॉमेडी है, अमिताभ बच्चन की आवाज है और रोनित राय की खलनायकी है। मशहूर टीवी एक्टर रोनित राय के रूप में बॉलीवुड को प्रकाश राज के बाद एक और दमदार विलेन मिल गया है। फिल्म के संवाद सड़क छाप हैं लेकिन ताली बटोरते हैं। फिल्म को मिला हरयाणवी टचभाषा को चटपटा बनाता है। हो सकता है कि आने वाले दिनों में फिल्म के दर्शक बढ़ जाएं। आंटी पुलिस बुला लेगीवाला गाना युवा दर्शकों के बीच बहुत लोकप्रिय हो सकता है। बाकी तड़कते भड़कते गीतों में भी युवा भावनाओं को पकड़ने का सफल प्रयास है। फिल्म की शुरुआत बहुत नाटकीय अंदाज में होती है जहां युवा अक्षय कुमार इलाके के डॉन बिग बॉस डैनी डेनजोंग्पा को गुंडों से बचाता है। डैनी इस घर से भागे या भगाये गये बच्चे को अपना वारिस बना कर उसे बॉसकी पदवी देता है। इसके बाद वही पुराना फार्मूला है - कहानी फ्लैशबैक में जाती है और वर्तमान में लौटती है। अक्षय कुमार से इलाका थर्राता है लेकिन मिथुन चक्रवर्ती अपने इस बेटे से नफरत करते हैं क्योंकि वह उसे खूनी समझते हैं। असल बात यह है कि एक घटनाक्रम के तहत वह खून अनजाने में खुद मिथुन से ही हुआ था। जिसका इल्जाम अपने सिर लेकर युवा अक्षय जेल की सजा काटता है। अदिति राव हैदरी इसमें अक्षय के छोटे भाई बने शिव पंडित की प्रेमिका बनी हैं। खुद अक्षय के अपोजिट फिल्म में कोई हीरोईन नहीं है। फिल्म की सबसे अच्छी बात यह है कि यह किसी अकेले की नहीं बल्कि थोड़ी थोड़ी सबकी फिल्म है। स्टारडम में भी लोकतंत्र का इतना स्पेस तो बनता है बॉस। जब इतने सारे लोगों को लिया है तो सबको काम करने का मौका भी तो दो। मजेदर मसाला है। देख आएं।
निर्देशक:          एंथोनी डिसूजा 
कलाकार:     अक्षय कुमार, मिथुन चक्रवर्ती, अदिति राव हैदरी, शिव पंडित, डैनी डेनजोंग्पा, जॉनी लीवररोनित राय, परिक्षित साहनी।
संगीत:             मीत ब्रदर्स, अंजान, हनी सिंह, चिरंतन भट्ट।


Tuesday, October 15, 2013

वार छोड़ ना यार

फिल्म समीक्षा

वार छोड़ ना यार: बात बनी नहीं यार

धीरेन्द्र अस्थाना

युद्ध एक भयावह शब्द है जो अगर सचमुच घट जाए तो मुल्कों की लाखों लाख आबादी पर बरबादी का कहर ढा सकता है। युद्ध में सिर्फ लोग ही नहीं मरते विश्वास और आशाएं भी मर जाती हैं। सिर्फ जिस्म ही लहुलुहान नहीं होते आत्माओं पर भी दाग लग जाते हैं। युद्ध एक गंभीर विषय है। इसे कॉमेडी बना कर पेश करना एक नया विचार हो सकता है लेकिन सार्थक विचार नहीं है। इसीलिए फिल्म ‘वार छोड़ न यार‘ के पास न तो दर्शक थे न समर्थक। फिल्म बनाने की मंशा जरूर पाक-साफ है कि एक युद्ध विरोधी संदेश दिया जाए। मगर फिल्म की बुनावट और कॉमेडी वाला जोनर जमा नहीं। बात शुरू से ही बन नहीं पायी। निर्देशक अपनी मंशा को अंजाम तक नहीं पहुंचा सका और कॉमेडी फिल्म अपने आप में ही कॉमेडी बन गयी। निर्देशक को युद्ध संबंधी कुछ देशी-विदेशी फिल्में देख लेनी चाहिए थीं। इस फिल्म का सबसे कमजोर पहलू इसकी अस्त व्यस्त और बचकानी पटकथा है। पूरी फिल्म में एक भी जगह हंसी नहीं आती, यह इस फिल्म की ट्रेजेडी है। वरना कलाकार कोई मामूली नहीं हैं इसमें। जावेद जाफरी हैं जो हंसाने के काम में माहिर हैं। संजय मिश्रा हैं जो कॉमेडी उस्ताद हैं। शरमन जोशी हैं जो खुद को सफल एक्टर साबित कर चुके हैं। सोहा अली खान हैं जिन्होंने एक संवेदनशील अभिनेत्री होने का दर्जा हासिल कर लिया है। मगर ये सब लोग मिल कर क्या कर लेते जब पटकथा और संवादों में न दम था न तालमेल। ऊपर से एक पाकिस्तानी जनरल द्वारा टॉयलेट कॉमेडी करवाना तो हद दर्जे का बेहूदापन रहा। फिल्म का एकमात्र सकारात्मक पक्ष यह है कि यह युद्ध को मनुष्य विरोधी, मुल्क विरोधी साबित करने की कोशिश करती है और इस तथ्य की तरफ उंगली उठाना चाहती है कि युद्ध दो देशों की अनिवार्यता नहीं है। युद्ध भी एक राजनैतिक कदम है जो देश की जनता का बुनियादी समस्याओं की तरफ से ध्यान हटाने के लिए कराया जाता है। कितना सार्थक संदेश था यह! इसे कॉमेडी के चोले में पेश करने की क्या वजह थी? गंभीरता से फिल्माते, फिर देखते इसका असर। लोग फिल्म देखने के लिए टूट पड़ते। कॉमेडी हर मर्ज का इलाज थोड़े ही है। अंत में यह कि ‘कौन बनेगा करोड़पति‘ गेम शो में सात करोड़ रुपये के दाम वाला सवाल यह हो सकता है कि इस फिल्म में पूरे 23 गायक क्या कर रहे हैं? इस हफ्ते फिल्म देखना टाल सकते हैं। 

निर्देशक :  फराज हैदर
कलाकार:  शरमन जोशी, सोहा अली खान, जावेद जाफरी, संजय मिश्रा, मुकुल देव, मनोज पाहवा
संगीत: असलम केई

Friday, October 4, 2013

बेशरम

फिल्म समीक्षा

बड़ा एंटरटेनर है बेशरम

धीरेन्द्र अस्थाना

सबसे पहले बता दें कि रणबीर कपूर की इस फिल्म से बहुत बड़ी उम्मीदें मत लगा लेना। बॉलीवुड में जिस तरह की मसाला और एंटरटेनर फिल्में बनती हैं ठीक वैसी ही है बेशरम। देखो, हंसो, मजे लो और फिर भूल जाओ। भाषा, संवाद और संस्कृति के स्तर पर फिल्म हरियाणवी स्पर्श लिये हुए है। लोकेल दिल्ली और चंडीगढ़ का है लेकिन कई गानों और दृश्यों में पता चलता रहता है कि यह मुंबई की फिल्मसिटी में लगा हुआ सेट है। दूसरी बात यह कि बेशरमरणबीर कपूर की सबसे कमजोर फिल्म है। कहानी के मामले में रणबीर को सतर्क रहना होगा। सांवरियासे लेकर ये जवानी है दीवानीतक वह साबित कर चुके हैं कि उनके भीतर एक बड़ा और संवदेनशील एक्टर रहता है। बर्फीसे तो वह पूरे संसार का दिल जीत चुके हैं। तो फिर ऐसी चालू फिल्म क्यों जो कहीं नहीं पहुंचाती। हां, इतना जरूर है कि बेशरमदर्शकों का फुल मनोरंजन करती है। इसमें रणबीर की चिरपरिचित दिलकश मस्ती भी है, रोमांस भी है, कॉमेडी भी है और चटपटे संवाद भी हैं। और हां, पंद्रह-बीस हथियार बंद लोगों को अकेले और निहत्थे ही निपटा देने वाली दबंग मारामारी भी। इस लिहाज से यह एक वही बारह मसालों वाली चाट है जिस पर मुख्यधारा सिनेमा के निर्देशक पूरा भरोसा करते हैं। फिल्म से जुड़े लोग खुश हो सकते हैं कि रिलीज के पहले दिन बेशरमके सभी शो हाउसफुल रहे। फिल्म की एक विशेषता यह भी है कि इसमें मां नीतू सिंह, पिता ऋषी कपूर और बेटा रणबीर कपूर पहली पर एक साथ अभिनय कर रहे हैं। मां और पिता पुलिस वाले हैं और बेटा कार चुराने वाला नामी चोर। फिल्म में एक एक्टर और है जिसने बहुत ऊंचे दर्ज की खलनायकी की है। यह हैं जावेद जाफरी जो फिल्म की सफलता के एक मजबूत खंभे बने हैं। हीरोईन पल्लवी शारदा का काम अच्छा है लेकिन वह रणबीर के सामने थोड़ी सी बड़ी लगती हैं। कार चुराते चुराते रणबीर पल्लवी शारदा द्वारा चुरा लिये जाते हैं। इसके बाद वह जल्दबाजी में पल्लवी की ही कार चुरा कर चंडीगढ़ के डॉन जावेद जाफरी को बेच देते हैं। गलती का अहसास होने पर वह पल्लवी के साथ चंडीगढ़ जाते हैं जहां उनका टकराव डॉन और उसके गुंडों से होता है। वह डॉन के गैंग का सफाया कर देते हैं। नखरेबाज पल्लवी टपोरी रणबीर से पट जाती है और निःसंतान पुलिस दंपति ऋषी-नीतू रणबीर को अपना बेटा बना कर गोद ले लेते हैं। लो हो गया सुखांत। ढाई घंटे की मजेदार फिल्म टाइमपास के लिए देख लें। 
निर्देशक:          अभिनव कश्यप
कलाकार:     रणबीर कपूर, पल्लवी शारदा, ऋषी कपूर, नीतू सिंह, जावेद जाफरी
संगीत:              इश्क बेक्टर, श्रीडी, ललित पंडित


Monday, September 30, 2013

वार्निंग

फिल्म समीक्षा

रोमांच की पटकथा वार्निंग

धीरेन्द्र अस्थाना

बड़े प्रोड्यूसर द्वारा नये लोगों को लेकर बनायी गयी एक छोटी सी साफ सुथरी फिल्म है वार्निंगजिसमें रोमांच, डर और मौत की आहटों को कायदे से बुना गया है। फिल्म की जान उसकी पटकथा और मृत्यु की तरफ बढ़ती एक रोमांचक यात्रा है। जिसे डर के धागे गतिशील बनाये रखते हैं। मगर फिल्म का शीर्षक सटीक नहीं है क्योंकि फिल्म के किरदारों को कोई किसी किस्म की वार्निंग नहीं देता। यहां तो जीवन विरोधी स्थितियों में घिर गये कुछ किरदारों की जिजीविषा की रोमांचक पटकथा है। जिंदगी की जंग लड़ते इन चरित्रों की लाचारी, बेबसी और धुंधली पड़ती उम्मीदों के इस आख्यान को कोई और बेहतर नाम दिया जाता तो ज्यादा अच्छा होता। डिस्कवरी चैनल पर ऐसे कई प्रोग्राम दिखाए जाते हैं जो खराब और मर्मांतक हालात पर मनुष्य की इच्छा शक्ति और उसके साहस की कथा रचते हैं। इनमें कभी कोई निर्जन द्वीप में अकेला छूटता है, कभी बर्फीले टापू पर टनों बर्फ के नीचे दब जाता है, कभी शार्क मछलियों से भरे समुद्र में एक टूटी, फूटी नाव में निहत्था पड़ा रह जाता है। कास्ट अवेजैसी अनेक खूबसूरत विदेशी फिल्मों ने भी इस कथानक पर खुद को केंद्रित कर मर्मस्पर्शी और भावनात्मक क्षण जुटाए हैं। वार्निंगभी इसी विषय पर खुद को फोकस करती है और हॉलीवुड की फिल्म ओपन वाटर 2से प्रेरित है। फिजी में रहने वाला एक युवक अपने कॉलेज के दिनों के पांच दोस्तों को अपने महंगे यॉट (एक प्रकार का छोटा शिप) के जरिए समुद्री यात्रा का आनंद उठाने के लिए आमंत्रित करता है। ये सब आते हैं और यॉट पर मौज मजा करते हुए समुद्र के बीच आगे बढ़ते हैं। इनमें मंजरी फड़निस अपने पति जितिन गुलाटी और छोटी बेटी के साथ आयी है। सब लोग एक-एक कर समुद्र में तैरने के लिए कूदते हैं। अंत में जो कूदता है वह गलती से उस बटन को दबा देता है जिससे पानी में लटकी सीढ़ियां वापस यॉट में लौट जाती हैं। अब सभी लोग पानी में हैं। और यॉट पर चढ़ने के तमाम प्रयास नाकामयाब हैं। कोई पेट में पानी भरने से, कोई बेहोशी से और कोई शार्क मछली के हमले से एक-एक कर मरते जाते हैं। सबसे अंत में अपने दोस्त के कंधे पर चढ़कर मंजरी ऊपर पहुंचती हैं और सीढ़ियां नीचे जाने का बटन दबा देती है। इन सीढ़ियों पर चढ़कर मंजरी का पति भी ऊपर पहुंच जाता है। ऊपर बेटी भी जीवित है। फिल्म में अभिनय का स्कोप कम था क्योंकि हर समय तो किरदार समुद्र में ही हैं।

निर्देशक:     गुरमीत सिंह
कलाकार:     संतोष बारमोला, सुजाना रॉड्रिग्स, मंजरी फड़निस, वरुण शर्मा, जितिन गुलाटी, मधुरिमा

संगीत:       मीत एवं साबरी बदर्स।

फटा पोस्टर निकला हीरो

फिल्म समीक्षा

फिर वही मसाला: फटा पोस्टर निकला हीरो

धीरेन्द्र अस्थाना

इस फिल्म को खुद शाहिद कपूर परिभाषित करते हैं। फिल्म के अंत में वह संजय मिश्रा (लेखक) से कहते हैं - अब मुझे फिल्म का हीरो नहीं बनना। एक हीरो फिल्म में जो कुछ करता है वह सब मैंने कर दिया है। विलेन के साथ मारामारी, डायलॉग की गोलाबारी, हीरोइन के साथ नैन मटक्का, आइटम डांसर के साथ डांस। अजब प्रेम की गजब कहानीजैसी खूबसूरत और दिलचस्प फिल्म बना चुके राजकुमार संतोषी पता नहीं किस दबाव में फिर से वही मसाला उठा लाये हैं जो सालों से बॉलीवुड में इस्तेमाल किया जा रहा है। गुंडों द्वारा मां को अपने अड्डे पर उठा लाना, मां को बचाने की खातिर बेटे का गुंडों के लिये काम करना, बचपन में बिछड़ गये (मर गये) बाप का लौट आना, बेटे द्वारा अपराधी बाप को गिरफ्तार करवा देना और रीयल लाइफ का हीरो बन पुलिस से मेडल पाकर मां के इस सपने को साकार करना कि उसका बेटा पुलिस ऑफीसर बने। मां के रूप में यह फिल्म पद्मिनी कोल्हापुरे का कमबैक भी है। उन्हांेने बेहतर काम किया है। खासकर उन क्षणों में जब वह ऑटो चलाती हैं। यह फिल्म लेकिन शाहिद कपूर के अभिनय के लिये याद की जायेगी। शाहिद ने क्या कमाल की कॉमेडी की है। अपने अभिनय का जो जलवा शाहिद ने फिल्म जब वी मेटमें एक संजीदा और संवेदनशील दोस्त प्रेमी बनकर दिखाया था ठीक वैसा ही जादू उन्होंने यहां अपने कॉमिक अभिनय से पैदा किया है। फिल्म की कहानी में जबरन कॉमेडी नहीं डाली गयी होती, लंबाई थोड़ा कम रहती और कंटेंट थोड़ा सधा हुआ होता तो एक बेहतरीन फिल्म बन सकती थी। अच्छी बात यही है कि यहां सिचुएशन से कॉमेडी पैदा की गयी है। शाहिद फिल्मों का हीरो बनना चाहता है जबकि पद्मिनी अपने बेटे को एक ईमानदार पुलिस ऑफीसर बनाना चाहती है। इसी द्वंद्व से कहानी को कुछ उपकथाओं के साथ मिलाकर आगे बढ़ाया गया है। फिल्म के सारे ही कलाकार मंजे हुए हैं और खुद को बीसियों बार साबित कर चुके हैं। इसलिये एक्टिंग के मोर्चे पर फिल्म पूरी तरह परफेक्ट है। फिल्म में सलमान खान का केमो और नरगिस फाखरी का आइटम नंबर आम दर्शकों को खुश करेगा। तू मेरे अगल-बगल हैवाला गाना पहले ही हिट हो चुका है। दर्शकों को हंसाने के लिये फिल्म में पर्याप्त मसाला है इसलिये फिल्म को एकबार देख सकते हैं।


निर्देशक:     राजकुमार संतोषी
कलाकार:     शाहिद कपूर, इलीना डीक्रूज, पद्मिनी कोल्हापुरे, दर्शन जरीवाला, नरगिस फाखरी, संजय मिश्रा
संगीत:       प्रीतम चक्रवर्ती।

21 सितंबर 2013


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जॉन डे

फिल्म समीक्षा

जानदार लेकिन जटिल जॉन डे

धीरेन्द्र अस्थाना

यह एक शानदार जानदार फिल्म है लेकिन बनी लार्जर दैन लाइफ वाले फार्मूले पर ही है। मतलब इसमें बहुत सारी बातें ऐसी हैं जिनका कोई तर्क नहीं है और जो अविश्वसनीय भी हैं। फिल्म बहुत ज्यादा धीमी है लेकिन आश्चर्यजनक ढंग से बांधे रखती है। मतलब रोचक भी है और रोमांचक भी। यकीनन यह एक मसाला फिल्म नहीं है मगर बहुत अर्थपूर्ण या संदेशपरक भी नहीं है। यह फिल्म एक बड़ा सवाल यह भी खड़ा करती है कि क्या हर बेहतरीन फिल्म को उद्देश्यपूर्ण भी होना चाहिए या उद्देश्य कभी कभी नजरअंदाज कर देना चाहिए। क्योंकि जॉन डे एक बेमकसद फिल्म है मगर मेकिंग, अभिनय और बुनावट के मोर्चे पर एक लाजवाब फिल्म भी है। यह सिर्फ बदले पर आधारित एक रोमांचक ड्रामा है जिसमें नसीरुद्दीन शाह, रणदीप हुडा, शरत सक्सेना, मकरंद देशपांडे और विपिन शर्मा का अभिनय जादू जगाता है। फिल्म की हीरोइन एलीना कजान जरा भी प्रभावित नहीं करतीं। अभी उनका हिंदी उच्चारण भी दोषपूर्ण है। एक्टिंग करने के लिए एलीना के पास ज्यादा स्कोप और स्पेस भी नहीं था। वह सिर्फ शराब पीती रहती है और मां बनने का सपना देखती रहती है। सस्पेंस बनाए रखने के लिए ज्यादातर चरित्रों को परिभाषित नहीं किया गया है जिसके चलते फिल्म की कहानी थोड़ी जटिल हो गयी है। फिल्म के जो प्रोमोज टीवी पर दिखाए गये वे भी काफी सांकेतिक और जटिल थे इसलिए ज्यादा दर्शक फिल्म देखने थिएटर नहीं आए। फिल्म में लेकिन संवादों ने समां बांधे रखा। मोटे तौर पर कहानी कुछ इस प्रकार है। नसीर एक बैंक का मैनेजर है। शरत सक्सेना एक डॅान है। रणदीप एक क्रू्रर और संवेदनहीन पुलिस ऑफिसर है जो बचपन में अनाथ हो गया था। वह शरत के लिए भी काम करता है। शरत ने एक फर्जी कंपनी बना कर किसानों की हजारों एकड़ जमीन को हड़प कर वहां एक कैसाब्लांका एस्टेट खड़ी की और फिर उसमें आग लगवाकर करोड़ों रुपयों का क्लेम वसूल किया। इस आग मंे नसीर की बेटी भी जल कर मर जाती है जो एस्टेट में अपने दोस्त के साथ पिकनिक मनाने गयी थी। इस एस्टेट के कागज़ात जिस फाइल में थे वह फाइल नसीर के बैंक के लॉकर में थी और इस लॉकर की मालकिन थी रणदीप की प्रेमिका एलीना। यह फाइल रणदीप को छुपा कर रखने के लिए शरत ने दी थी। शरत वह फाइल वापस मांग रहा था जबकि कुछ गुंडे नसीर को बंधक बना कर बैंक लूट चुके थे। इस लूट में फाइल चली गयी थी। नसीर और रणदीप अपने अपने ढंग से फाइल चोरों के पीछे लग जाते हैं। इस प्रक्रिया में बहुत खून खराबा होता है। अंत में नसीर के अलावा सब लोग मारे जाते हैं। एक अपराधी का अंत होता है और एक नेक आदमी नसीर का आपराधिक जीवन आरंभ होता है। यह है जॉन डे।

निर्देशक:     अहिशोर सोलोमन
कलाकार:     नसीरुद्दीन शाह, रणदीप हुडा, एलीना कजान, शरत सक्सेना, विपिन शर्मा।
संगीत:       क्षिति तरे

14 सितंबर 2013


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जंजीर

फिल्म समीक्षा

बांधने में कामयाब हुई जंजीर

धीरेन्द्र अस्थाना

महानायक का एंग्री यंगमैन का सफर फिल्म जंजीरसे शुरू हुआ था। इस फिल्म ने पर्दे पर एक ऐसे नाराज नौजवान को उतारा था जिसके भीतर गुनहगारों को उनकी जगह दिखाने का जज्बा और जुनून था। यह नुस्खा चल निकला और साथ ही चल पड़े अमिताभ बच्चन। तब से अब तक बहादुर और ईमानदार पुलिस वाले तथा माफिया सरदारों के बीच बड़े पर्दे पर सैकड़ों जंग लड़ी जा चुकी हैं। नयी जंजीरभी उसी कड़ी की एक मसालेदार और मनोरंजक फिल्म है। शर्त केवल इतनी है कि आपको यह भूलना होगा कि आप अमिताभ बच्चन वाली जंजीरका रीमेक देख रहे हैं। एक बुनियादी कहानी और कुछ दृश्यों को जस का तस उठा लेने के अलावा नयी जंजीरका पुरानी जंजीरसे कोई विशेष लेना देना नहीं है। नयी जंजीरमें सबसे बेहतरीन काम संजय दत्त्त ने किया है जो प्राण साहब वाले किरदार में शेर खान के अवतार में उतरे हैं। इसके बाद बाजी मारी है प्रियंका चोपड़ा ने जो विदेश से एक शादी देखने आयी थी लेकिन मुबंई में एक खून होता देखकर मुसीबत में फंस गयी। एक चुलबुली एनआरआई लड़की के अलमस्त चरित्र को प्रियंका ने बेहद चटपटे अंदाज में जिया है। माही गिल मोना डार्लिग बनी हैं और तेल माफिया का किरदार निभाया है प्रकाश राज ने। अमिताभ बच्चन उर्फ एसीपी विजय खन्ना का रोल निभाया है दक्षिण के युवा सितारे रामचरण ने। निर्देशक अपूर्व लखिया ने अपने साक्षात्कारों में बार-बार बताया है कि अमिताभ वाले रोल के लिये उन्होंने रामचरण का चुनाव इसलिये किया क्योंकि हिंदी में रामचरण की पहले से स्थापित कोई छवि नहीं है। उन्हें इस किरदार के लिये फ्रेश चेहरा चाहिये था। अपूर्व के तर्क अपनी जगह सही हैं लेकिन वह यह भूल गये कि एक्सप्रेशंस (भाव) अमिताभ बच्चन के गुलाम हैं। और पुरानी जंजीरमें अमिताभ के एक्सप्रेशंस ने ही दर्शकों के दिलों पर राज किया था, जबकि रामचरण के चेहरे पर सिर्फ गुस्से के ही भाव जमे रहते हैं। रोमांटिक दृश्यों में भी उनका चेहरा तना हुआ ही रहता है। अगर नये के मोह में अपूर्व नहीं पड़ते तो इस किरदार को अजय देवगन बखूबी निभा सकते थे, जैसे अग्निपथके रीमेक में बिग बी का किरदार ऋतिक रोशन ने शानदार ढंग से निभाया था। तो भी रामचरण ने इस चरित्र को निभाने के लिये अपनी जान लड़ा दी है। उन्हें अपनी भाव भंगिमाओं पर मेहनत करनी होगी तभी वह हिंदी सिनेमा में पूरी तरह स्वीकार्य हो सकेंगे। जैसे अपनी पहली ही हिंदी फिल्म रांझनासे दक्षिण के एक और युवा सितारे धनुष हिंदी में भी छा गये हैं। फिल्म के अंत में संकेत दे दिया गया है कि इस जंजीरकी अगली कड़ी भी बन सकती है।

निर्देशक:     अपूर्व लखिया
कलाकार:     रामचरण, प्रियंका चोपड़ा, संजय दत्त्त, प्रकाश राज, माही गिल, अतुल कुलकर्णी
संगीत:       चिरंतन भट्ट, आनंद राज आनंद, मीत ब्रदर्स

7 सितंबर 2013
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सत्याग्रह


फिल्म समीक्षा

अन्ना आंदोलन की पटकथा सत्याग्रह

धीरेन्द्र अस्थाना

यह पूरी तरह अमिताभ बच्चन की फिल्म है। उनके अभिनय का जादू न सिर्फ बरकरार है बल्कि उस जादू के रंग और भी गाढ़े होते जा रहे हैं। यकीन मानिए जब फिल्म के एक दृश्य में वह मंच पर अचानक कटे पेड़ की तरह गिर पड़ते हैं तो थिएटर में मौजूद कई लोगों की चीख निकल पड़ी थी। इसे कहते हैं अपने अभिनय से मंत्रमुग्ध कर देना। वैसे कुल मिलाकर इस फिल्म को कलाकारों के विविधरंगी और अनूठे अभिनय के कारण ही देखा भी जाएगा। अभिनय के मोर्चे पर दूसरा नंबर मनोज वाजपेयी का है। वह हर कोण से छटे हुए घाघ नेता के किरदार को बड़ी सहजता और विश्वसनीयता के साथ जी गए हैं। बाकी लोगों में अजय देवगन, अर्जुन रामपाल, करीना कपूर और अमृता राव हैं। करीना कपूर किरदार के भीतर नहीं उतर सकीं। वह करीना कपूर ही नजर आती हैं। अजय देवगन अब इस तरह के चरित्रों को निभाने के अभ्यस्त हो गए हैं। अर्जुन रामपाल और अमृता राव ने भी बेहतर काम किया है। अब बचे प्रकाश झा। बहुत लंबे समय बाद प्रकाश झा की फिल्म देखकर लगा नहीं कि हम प्रकाश झा के सिनेमा से रू-ब-रू हैं। फिल्म में प्रकाश झा वाला वह ठप्पा ही नहीं है जो अपहरण‘, ‘गंगाजल‘, ‘राजनीतिमें दिखाई दिया था। सीधे-सीधे अन्ना हजारे के जन आंदोलन से प्रभावित होकर एक पटकथा तैयार कर उसे फिल्मा दिया गया है। अपने इंजीनियर बेटे की सड़क दुर्घटना में हुई मौत के बाद अमिताभ बच्चन अपनी साफगोई, अपनी जिद और अपने अटल व्यक्तित्व के चलते अनायास ही जन नेता बनते चले जाते हैं। वह सरकार और सरकारी कार्यालयों में फैले भ्रष्टाचार से लड़ने के लिये जन सत्याग्रह पार्टीबनाते हैं। इस सत्याग्रह आंदोलन में उनका साथ देते हैं उनके बेटे का दोस्त अजय देवगन, टीवी पत्रकार करीना कपूर, उनकी बहू अमृता राव और एक लोकल दबंग नेता अर्जुन रामपाल। बाद में एक वकील और पुलिस अधिकारी भी इस टीम में आ जुटते हैं और बाकायदा अन्ना हजारे जैसी टीम तैयार हो जाती है। अन्ना की तरह बिग बी भी आमरण अनशन करते हैं और उनका आंदोलन भी ट्वीटर तथा फेसबुक जैसी सोशल साइट्स के जरिये पॉपुलर होता जाता है। अंत में बस इतना ही फर्क है कि मंत्री के गुंडे की गोली से बिग बी यानी दादू मारे जाते हैं। गठबंधन सरकार के मंत्री मनोज बाजपेयी को मुख्यमंत्री गिरफ्तार करवाते हैं और फिल्म अजय देवगन की इस स्पीच के साथ खत्म होती है- अपने गुस्से को संभाल कर रखो। यह गुस्सा क्रांति ला सकता है।फिल्म में राजनीति के खतरनाक और जनद्रोही मंसूबों को अच्छी तरह एक्सपोज किया गया है जिसमें प्रकाश माहिर हैं।

निर्देशक:     प्रकाश झा
कलाकार:     अमिताभ बच्चन, अजय देवगन, करीना कपूर, मनोज बाजपेयी, अर्जुन रामपाल और अमृता राव
संगीत:       सलीम-सुलेमान, आदेश श्रीवास्तव

31 अगस्त 2013


मद्रास कैफे


फिल्म समीक्षा

सत्ता के षड्यंत्र की मद्रास कैफे

धीरेन्द्र अस्थाना


जो थोड़ी बहुत फिल्में हिंदी सिनेमा का चेहरा बदलने के जुनून और साहस में लगी हुई हैं उनमें जॉन अब्राहम द्वारा प्रोड्यूस की गयी मद्रास कैफेका नाम भी शामिल होने वाला है। भले ही इस फिल्म को बॉक्स आफिस पर भारी सफलता न मिले लेकिन पहले दिन जितने दर्शक इस फिल्म को देखने पहुंचे उससे यह भरोसा भी कायम हुआ कि बेहतर और संजीदा फिल्म देखने वालों की संख्या में इजाफा हो रहा है। अपने इंटरव्यू में जॉन ने इसे एक पॉलिटिकल थ्रिलर बताया है लेकिन हकीकत में यह सत्ता के षड्यंत्रों को बेनकाब करने वाली फिल्म है जो यह भी दर्ज करती है कि राजनीति की डोर कैसे-कैसे दुर्गम गलियारों में जा रही है। यह इन दो तथ्यों पर भी उंगली रखती है कि पैसों के लालच में कैसे कुछ महत्वपूर्ण पदों पर बैठे हुए लोग देश की सुरक्षा को भी दांव पर लगा देते हैं और कैसे कुछ लोग अपने परिवार की कुर्बानी देकर भी देश की सुरक्षा के सामने लौह कवच की तरह तने रहते हैं। निर्देशक शूजीत सरकार ने अपनी बेहतरीन प्रतिभा और ज्ञान से एक अत्यंत परिपक्व राजनैतिक फिल्म बनायी है लेकिन फिल्म निर्माण में कहीं कहीं जिस तरह वह तथ्यों से दूर चले गये हैं वह उनके भीतर के डर को रेखांकित करता है। पूरी दुनिया जानती है कि भारत के कौन से अत्यंत शक्तिशाली राजनैतिक नेता की तमिलनाडु में मानव बम का इस्तेमाल कर हत्या की गयी थी। उस महिला का नाम भी सब जानते हैं जिसने इस नेता को माला पहनायी थी और बम धमाके से खुद भी उड़ गयी थी। फिल्म में सही नाम लेने से बचा गया है लेकिन इसके बावजूद फिल्म कई जगह डॉक्यूमेंट्री सिनेमा में बदलती नजर आती है। यह पूरी तरह से केवल जॉन अब्राहम की ही फिल्म है जो एक रॉ एजेंट बने हैं। फिल्म के दो महिला किरदार नरगिस फाखरी एक विदेशी पत्रकार के रूप में उनके मिशन को सपोर्ट करने के काम आती हैं। दूसरी राशि खन्ना ने जॉन की पत्नी के रोल में उनके पारिवारिक जीवन की उपकथा बुनी है। फिल्म तकनीकी रूप से भी बेहद उच्च स्तरीय है और संपादन के मोर्चे पर भी कसी हुई है। फिल्म में एक भी गाना नहीं है। गाने की जरूरत भी नहीं थी। एकमात्र गीत अंत में बैकग्राउंड में बजता है। श्रीलंका और तमिल समस्या के नाजुक मुद्दे को फिल्म पूरी संवेदनशीलता के साथ उठाती है। जरूर देखें।

निर्देशक:     शूजीत सरकार
कलाकार:     जॉन अब्राहम, नरगिस फाखरी, राशि खन्ना
संगीत:       शांतनु मोहत्रा

24 अगस्त 2013


वन्स अपऑन ए टाइम इन मुंबई दोबारा

फिल्म समीक्षा

वन्स अपऑन ए टाइम इन मुंबई दोबारा क्यों?

धीरेन्द्र अस्थाना

जब निर्देशक का नाम मिलन लूथरिया हो और वह एकता कपूर के साथ मिल कर वन्स अपऑन ए टाइम इन मुंबईऔर द डर्टी पिक्चरजैसी कामयाब तथा यथार्थवादी फिल्में बना चुका हो, तो उससे दर्शकों की उम्मीदें ज्यादा बढ़ जाती हैं। माना जाता है कि एकता कपूर पैशन और परफेक्शन के मामले में इतनी सख्त हैं कि कोई निर्देशक उनके जुड़ाव को हल्के में नहीं ले सकता। तो फिर इस सीक्वेल में ये क्या हुआ? सबसे पहले तो फिल्म की पूरी कास्ट ही मिस मैच है। कौन है कास्टिंग डायरेक्टर जिसने इस बात पर गौर ही नहीं किया कि अक्षय कुमार दूर-पास कहीं से भी दाऊद इब्राहिम जैसे डॉन नहीं लगते। फिर, इमरान खान को गुंडा क्यों बनाते हो भाई। यह मासूम चेहरे वाला लड़का प्यार करते हुए ही अच्छा लगता है। दूसरे, लार्जर दैन लाइफ का मतलब यह थोड़े ही है कि आप सच को देशनिकाला दे दो। कौन इस बात पर यकीन करेगा कि दाऊद जैसा खतरनाक आतंकवादी फिर से मुंबई लौटेगा और वह भी एक चिंदी से बागी गंुडे को सबक सिखाने के लिए। और भारत आकर वह एक लड़की के प्यार में इतना पागल हो जाएगा कि बेचारा और निरीह जैसा दिखने लगेगा। और हीरोईन बनने के लिए मुंबई आयी सोनाक्षी सिन्हा को इतना भी भान (ज्ञान) नहीं है कि जो गैंगस्टर उसके आगे-पीछे घूम रहा है और बार-बार बता भी रहा है कि वह शहर पर राज करता है, वह एक डॉन है। अब अंतिम प्रश्न यह कि जब अंडरवर्ल्ड के ऊपर आप एक नायाब फिल्म बना चुके हो तो उसका नकली, काल्पनिक और बेतुका सीक्वेल बनाने की जरूरत क्यों आन पड़ी? यह तो एक हरदम डायलॉगबाजी करने वाले नकली से गुंडे की असफल प्रेम कहानी का निर्माण जैसा कुछ हो गया। हां, इतनी तारीफ तो करनी ही पड़ेगी कि पूरी फिल्म बेहतरीन डायलॉगों से भरी हुई है। फिल्म के तमाम चरित्र जब भी बात करते हैं कोई न कोई डायलॉग ही मारते हैं। फिर चाहे वह फिल्म में कुछ क्षण के लिए प्रकट हुई सोनाली बेंद्रे ही क्यों न हों। यह अलग बात है कि कुछ क्षणों में भी वह कमाल कर गयी हैं। इस किरदार में निर्देशक अपनी क्रिएटिविटी का इस्तेमाल करते हुए यह स्थापित करता है कि डॉन ने मंदाकिनी जैसी हीरोइन का करिअर तो खत्म किया ही, अब वह किसी और को बर्बाद न करे। कुल मिला कर फिल्म रोचक है, अच्छी एंटरटेनर है लेकिन है शुद्ध काल्पनिक। उसका डॉन दाऊद या उसकी जिंदगी से कोई लेना देना नहीं है। वह अंडरवर्ल्ड से प्रेरित भी नहीं है। एक प्रेम त्रिकोण है जिसे अंडरवर्ल्ड के बैक ड्रॉप पर डाल दिया गया है।

निर्देशक: मिलन लूथरिया
कलाकार: अक्षय कुमार, सोनाक्षी सिन्हा, इमरान खान
संगीत: प्रीतम

16 अगस्त 2013





चेन्नई एक्सप्रेस

फिल्म समीक्षा

कॉमेडी और रोमांस की चेन्नई एक्सप्रेस

धीरेन्द्र अस्थाना

पता नहीं क्यों मगर सच यही है कि शाहरुख खान जैसे बड़े और संवेदनशील एक्टर के साथ फिल्म बनानी हो तो एक कायदे की कहानी का होना अनिवार्य है। कल हो न हो, मैं हूं न, वीर जारा, माई नेम इज खान या फिर दीपिका पादुकोन के ही साथ ओम शांति ओम दर्जनों ऐसी फिल्में हैं, जिनमें कहानी के कारण शाहरुख अभिनय का एक से बढ़कर एक उम्दा ककहरा लिखते आये हैं। मगर एक्शन और कॉमेडी के मास्टर कहे जाने वाले निर्देशक रोहित शेट्टी अपनी नयी फिल्म चेन्नई एक्सप्रेसके जरिए शाहरुख के खाते में एक साधारण फिल्म ही दर्ज कर पाये हैं। द्विभाषी प्रेम की संवेदनापरक कथा को कॉमिक चोला पहनाकर रोहित ने फिल्म की संभावनाओं को सीमित कर दिया। अभी क्या है कि लगभग ढाई घंटे की फिल्म में दर्शक करीब डेढ़ घंटे तक तो हंसता रहता है। पंद्रह-बीस मिनट तक शाहरुख के एक्शन सीन्स को तकता है और अंत में यह सोचता हुआ थियेटर से निकलता है कि शाहरुख खान की फिल्में जिस तरह की होती हैं, यह ठीक वैसी फिल्म तो नहीं है। यह जरूर है कि फिल्म की कहानी समाज के भीतर से ही उठायी गयी है। बचपन में मां-बाप को खो चुका शाहरुख खान अपने दादा-दादी का लाडला पोता है। दादा की अंतिम इच्छा थी कि मरने के बाद उनकी अस्थियों को रामेश्वरम में विसर्जित किया जाये लेकिन ठीक उसी वक्त अपने दोस्तों के साथ शाहरुख गोवा पिकनिक का प्रोग्राम बना चुका होता है। लेकिन दादा की इच्छा का भी मान रखना है। दोस्त लोग एक मजाकिया सुझाव देते हैं कि अस्थियों की राख गोवा में बहा देंगे। गोवा की नदी का पानी भी तो घूम फिर कर रामेश्वरम ही जाएगा न। तय होता है कि दादी को चकमा देने के लिए शाहरुख चेन्नई एक्सप्रेस में चढ़ेगा लेकिन कर्जत में उतर जायेगा, जहां दोस्त उसका इंतजार करेंगे। कर्जत से सभी लोग गोवा के लिए निकल लेंगे। इसके बाद जैसा कि सभी की जिंदगी में कोई अनहोनी घट जाती है, उसी तरह क्रमशः तेज होती चेन्नई एक्सप्रेस की तरफ भाग कर आती दीपिका पादुकोन को अपने हाथ का सहारा देकर शाहरुख गाड़ी में चढ़ा लेता है। सिर्फ दीपिका को ही नहीं वह दीपिका के पीछे भागते चार गुंडों को भी गाड़ी में उसी तरह चढ़ा लेता है। गाड़ी दीपिका, शाहरुख और उन गुंडों को लेकर दीपिका के पिताजी के गांव पहुंचती है, जहां पिता का आतंक राज चलता है। पिता दूसरे गांव के एक और डॉन तंगा बल्ली (निकितिन धीर) से दीपिका की शादी करना चाहता है, ताकि वह दो गांवों पर निरंकुश राज कर सके। इस प्रतिकूल परिस्थिति में फंस गये शाहरुख खान की जिंदगी का अंत में क्या बनता है, यह जानने के लिए फिल्म देख लें। दक्षिण की लड़की के किरदार में दीपिका ने कमाल का काम किया है। फिल्म का गीत- संगीत प्रभावशाली है। 

निर्देशक: रोहित शेट्टी 
कलाकार: शाहरुख खान, दीपिका पादुकोन, सत्याराज 
संगीत: विशाल-शेखर
10 अगस्‍त 2013