Saturday, December 25, 2010

तीस मार खां

फिल्म समीक्षा

नौटंकी स्टाइल के ‘तीस मार खां‘

धीरेन्द्र अस्थाना

शीला की जवानी ने इतना बड़ा तूफान रच दिया कि ‘तीस मार खां‘ के पहले दिन के शो हाउसफुल चले गये। कैटरीना कैफ पर फिल्माया गीत शीला की जवानी ही फिल्म की जान भी है लेकिन केवल एक आइटम डांस के दम पर फिल्में न बाजार में टिकती हैं, न ही लोगों के दिल दिमाग में। कॉमेडी फराह खान जैसी संवेदनशील निर्देशिका का क्षेत्र नहीं है। पता नहीं वह इस बीहड़ में क्यों उतरीं? हंसाना बहुत कठिन काम है। यह ऐसा इलाका है जहां अच्छे अच्छे तीरंदाज गच्चा खा जाते हैं। एक सार्थक और तार्किक हास्य फिल्म बनाना सचमुच बहुत चुनौती भरा काम है। बारह फिल्में फ्लॉप हो जाती हैं तब जाकर तेरहवीं फिल्म कामयाब होती है। अक्षय कुमार को इस फिल्म से बहुत उम्मीदें थीं। दर्शकों को भी इससे भारी उम्मीदें थीं। सबको निराशा ही हाथ लगेगी। फराह खान ने पूरी फिल्म में पुराने जमाने की नौटंकी का ताना बाना अपनाया है लेकिन मौजूदा युवा पीढ़ी को यह जानकारी नहीं है कि नौटंकी नामक भी कोई शैली होती थी इसलिए इस स्टाइल को वह आत्मसात नहीं कर पायी। ‘तीस मार खां‘ फिल्म का नौटंकी स्टाइल मसखरापन इसीलिए मजा नहीं दे पाता। फिल्म में जहां जहां कमर्शियल फिल्मों का मजाक उड़ाया गया है वह टुकड़े अच्छे लगते हैं लेकिन उनका फिल्म की मूल कहानी से कोई लेना-देना नहीं है। मूल कहानी यह है कि अक्षय कुमार एक अंतरराष्ट्रीय ठग है जिसे कोई जेल अपने भीतर नहीं रख पाती। वह हर जेल से फरार हो जाता है। कैटरीना कैफ उसकी प्रेमिका है जो हीरोईन बनना चाहती है। अक्षय की मां को यह जानकारी नहीं है कि उसका बेटा ठग या अपराधी है। वह उसे फिल्मों का डायरेक्टर समझती है। अपने अपराधी जीवन का सबसे चुनौती पूर्ण काम अक्षय को मिलता है। उसे एक चलती ट्रेन से पांच सौ करोड़ के आभूषण, सोना, दुलर्भ मूर्तियां लूटनी हैं। इसके लिए वह सुपरस्टार अक्षय खन्ना और कैटरीना कैफ को लेकर एक फिल्म की नकली शूटिंग को अंजाम देता है जिसमें ट्रेन डकैती का दृश्य असली है। वह गांव वालों की मदद से ट्रेन लूट लेता है। पकड़ा भी जाता है लेकिन फिर फरार हो जाता है। फिल्म का प्रत्येक चरित्र कॉमेडी के रंग में रंगा हुआ है। अपराधी भी, पुलिस कमिश्नर भी, प्रेमिका भी, मां भी और गांव वाले भी। फिल्म का आरंभिक नेरेशन संजय दत्त की आवाज में है। सलमान खान और अनिल कपूर ने अतिथि भूमिकाएं निभायी हैं। फिल्म से जुड़े सब लोगों को रुक कर सोचना होगा- ‘कहां से चले कहां के लिए?‘

निर्देशक: फराह खान
कलाकार: अक्षय कुमार, कैटरीना कैफ, अक्षय खन्ना, आर्य बब्बर, सचिन खेडेकर
संगीत: शिरीष कुंदेर, विशाल, शेखर

Saturday, December 11, 2010

नो प्रॉब्लम

फिल्म समीक्षा

’नो प्रॉब्लम‘ में प्रॉब्लम ही प्रॉब्लम

धीरेन्द्र अस्थाना

सबसे ज्यादा दुख यह देख कर हुआ कि पांच ऐसे सितारे जिनकी फिल्में देखना दर्शक पसंद करते हैं और जो अपने अभिनय का लोहा मनवा चुके हैं, उनके सामने ऐसी क्या प्रॉब्लम थी, जो उन्हें ’नो प्रॉब्लम‘ जैसी फिल्म में काम करना पड़ा। दूसरा दुख यह देखकर हुआ कि जिस निर्देशक को कॉमेडी का सरताज कहा जाता है वह अपनी नयी फिल्म में कॉमेडी का ककहरा भी नहीं रच सका। तीसरा दुख शाश्वत और फिल्म इंडस्ट्री के जन्म से चला आ रहा है। वह यह कि एक से एक काबिल और कल्पनाशील निर्देशक नायाब पटकथाएं लेकर दर-दर भटकते रहते हैं मगर उन्हें निर्माता नहीं मिलते तो नहीं ही मिलते। जिसके संपर्क हैं, नाम है या खानदान है वह कुछ भी बना कर करोड़ों रुपये पानी में गला देता है। इस फिल्म में भी पैसा पानी की तरह बहाया गया है और पानी में ही बहाया गया है। क्या ग्लैमर और वैभव की इस फिल्म नगरी में अस्तित्व को लेकर सचमुच इतनी गहरी असुरक्षा है कि बड़ा से बड़ा एक्टर भी अपनी इमेज के बारे में कुछ नहीं सोचता, बस काम करने लगता है, फिर चाहे पटकथा कैसी भी हो! और ’नो प्रॉब्लम‘ में तो कोई कहानी ही नहीं है। फिल्म की कोई सीधी, सुचिंतित पटकथा नहीं है। वह कहीं से भी कैसे भी घटने लगती है। और किसी भी घटना का कोई औचित्य या तर्क भी नहीं है। संजय दत्त और अक्षय खन्ना दो लुटेरे हैं। परेश रावल एक गांव का बैंक मैनेजर है। दोनों परेश का बैंक लूटकर डरबन भाग जाते हैं। परेश उन्हें ढूंढने डरबन आता है। सुनील शेट्टी एक बड़ा लुटेरा व गैगस्टर है। अनिल कपूर एक सीनियर पुलिस इंस्पेक्टर है जिसकी पत्नी सुष्मिता सेन को दिन में एक बार पागलपन का दौरा पड़ता है। इस दौरे के दौरान वह अनिल कपूर को मारने का प्रयत्न करती है। कंगना रानावत सुष्मिता की छोटी बहन है जो अक्षय खन्ना को पसंद करती है। दोनों पुलिस कमिश्नर की बेटियां हैं। नीतू चन्द्रा सुनील शेट्टी के साथ है। इस कथा विहीन फिल्म में चंद नकली परिस्थितियां खड़ी करके दर्शकों को हंसाने का जबरन प्रयास किया गया है। फिल्म में अधनंगी लड़कियों की भरमार है। डांस है, ड्रामा है, एक्शन है, कॉमेडी है, गाना है, लेकिन सब कुछ सिर्फ तानाबाना है। इस ताने बाने से कथ्य नदारद है, तथ्य नदारद है और लक्ष्य नदारद है। फिल्म के सभी पात्र विदूषकों के चोले में हैं। सब के सब मंजे हुए कलाकार हैं और अपनी तरफ से हंसाने का भरपूर प्रयत्न भी करते हैं लेकिन हंसने का भी तो एक तर्क और कारण होता है। जब वह कारण ही नहीं है तो दर्शक क्यों हंसेगा? जहां-जहां हंसी का कार्य-कारण तत्व उपस्थित होता है। वहां-वहां दर्शक न सिर्फ हंसते हैं, बल्कि खुलकर हंसते हैं। हंसाने की इस भूमिका का सबसे अच्छा निर्वाह परेश रावल ने ही किया है। एक अच्छी, सुचिंतित, तार्किक पटकथा के अभाव में कैसे कुछ बेहतरीन सितारे अपने सफर में प्रॉब्लम खड़ी कर लेते हैं, इसका दिलचस्प उदाहरण है ’नो प्रॉब्लम।‘

निर्देशक: अनीस बज्मी
कलाकार: अनिल कपूर, संजय दत्त, अक्षय खन्ना, सुनील शेट्टी, परेश रावल, सुष्मिता सेन, कंगना रानावत, नीतू चंद्रा, शक्ति कपूर
संगीत: साजिद-वाजिद, प्रीतम, आनंद राज आनंद

Saturday, December 4, 2010

रक्तचरित्र-दो

फिल्म समीक्षा

राजनीति का वर्गचरित्र: रक्तचरित्र-दो

धीरेन्द्र अस्थाना

अपनी पिछली फिल्म ‘रक्तचरित्र‘ में रामगोपाल वर्मा ने हिंसा का एक वैचारिक पाठ पेश करने की कोशिश की थी। इस पाठ का निहितार्थ यह था कि दलित और वंचित, सर्वहारा किस्म की जनता पर अत्याचार हद से ज्यादा बढ़ जाता है तो वह निरंकुश राजसत्ता के विरुद्ध हथियार उठाने से भी नहीं चूकती। एक प्रकार से रामू का यह सिनेमाई पाठ अतिवादी वाम राजनीति की सीमाओं को स्पर्श करता नजर आता था। इस पाठ के भीतर से रामू एक नया अध्याय लोकतांत्रिक राजनीति का निकाल कर लाये थे जिसका प्रतिनिधित्व उन्होंने विवेक ओबेराय से करवाया था - उसे राजनीति में उतार कर। दुश्मनों को मिटा कर, राजनीति के विशाल बरगद की छांव में विवेक ओबेराय सत्ता सुख में सराबोर है। यह थी ‘रक्त चरित्र‘ की पटकथा।
’रक्तचरित्र-दो‘ में आरम्भ के लगभग बीस मिनट तक पहले भाग का ट्रेलर दिखाने के बाद फिल्म का अगला भाग शुरू होता है, सूर्या की एंट्री से। अपने पिता की हत्या का बदला लेने के लिए विवेक के हाथों सूर्या के खानदान का विनाश हुआ था। नये भाग में वैचारिक सरसराहट दूर-दूर तक नहीं है। यहां सत्ता के विरुद्ध दबी कुचली जनता का प्रतिशोध सिरे से नदारद है। यहां सिर्फ और सिर्फ एक अंधा बदला और उसे व्याख्यायित करने वाली एक हिंसक पटकथा है। इस पटकथा के नायक सूर्या हैं, खलनायक होने के बावजूद। और इस बार खलनायक के रोल में हैं विवेक ओबेराय, जो पहले पार्ट में नायक थे। पिछली बार राजनीति ने अपने हित में विवेक ओबेराय के क्रोध को भुनाया था। इस बार राजनीति सूर्या के क्रोध का इस्तेमाल करती है। राजनीति और हिंसक प्रतिरोध की यह दुरभिसंधि (गठजोड़) ही सत्ता का वर्ग चरित्र है। इस बार विवेक ओबेराय मारा जाता है और सूर्या जेल से छूटने की प्रतीक्षा में है। कोई आश्चर्य नहीं कि ’रक्तचरित्र-तीन‘ भी बने जिसमें विवेक ओबेराय का बेटा (जो दिखा दिया गया है) सूर्या का वध करता नजर आए। हिंसा-प्रतिहिंसा और और हिंसा। हिंसा की बहती धारा में गले-गले तक डूबे हिन्दी के व्यावसायिक सिनेमा का यह समकालीन और उत्तर आधुनिक आख्यान है। अगर भयावह खून खराबा, वीभत्स हत्याएं, बनैली राजनीति का नसें चटखाता शोर आपको लुभाता है तो तत्काल यह फिल्म देख आइए। एक अंधे गुस्से में छटपटाते युवक के हाहाकार को सूर्या ने ओजस्वी अभिव्यक्ति दी है। पहले पार्ट के मुकाबले इस बार शत्रुघ्न सिन्हा ज्यादा परिपक्व राजनेता के किरदार में हैं और प्रभावित भी करते हैं। फिल्म का गीत संगीत चूंकि कथा और घटनाओं को परिभाषित करने के लिए इस्तेमाल हुआ है इसलिए अच्छा तो लगता है लेकिन याद रहने वाला नहीं है। निर्देशन कसा हुआ है।

निर्देशक: राम गोपाल वर्मा
कलाकार: शत्रुध्न सिन्हा, विवेक ओबेराय, सूर्या, प्रियमणि, अनुपम श्याम, जरीना वहाब
संगीत: धरम संदीप, कोहिनूर मुखर्जी, अमर देसाई, सुखविंदर सिंह