Saturday, May 22, 2010

काइट्स

फिल्म समीक्षा

जटिल प्रेम की ‘काइट्स‘

धीरेन्द्र अस्थाना

बहुत लंबे समय से इंतजार हो रहा था ‘काइट्स‘ के उड़ने और आसमान पर छा जाने का। पहले दिन इस फिल्म को देखने के लिए दर्शकों की भीड़ भी उमड़ पड़ी। लेकिन हाॅल से निकलते समय दर्शकों के चेहरे कुछ-कुछ मायूस थे। किसी ने शायद सोचा भी नहीं था कि ऋतिक रोशन-बारबरा मूरी की एक जटिल सी, दुखांत प्रेम कहानी से सामना होने वाला है। बहुत महंगी फिल्म है ‘काइट्स‘ और फिल्म के आरंभ में ऋतिक रोशन तथा कंगना रानावत का जो डांस है, उसमें ऋतिक ने करिश्मा और जादू सब कर दिया है। कंगना ने भी उसमें अपनी जान लगा दी है। लेकिन इतनी भव्य और खर्चीली फिल्म की कहानी बस इतनी सी है कि कंगना रानावत ऋतिक रोशन से प्यार प्यार करती है जबकि ऋतिक को बारबरा मूरी से प्यार है। बारबरा कंगना के भाई निक ब्राउन की मंगेतर है। निक और कंगना लाॅस वेगास के सबसे बड़े कैसीनो मालिक कबीर बेदी की संताने हैं। निक और कबीर गुंडों की लंबी चैड़ी फौज के साथ लगभग माफिया सरदारों जैसा जीवन जीते हैं। फिल्म के अंत में ऋतिक रोशन और बारबरा मूरी अलग-अलग ढंग से आत्महत्या कर लेते हैं। ऋतिक और बारबरा को एक दूसरे की भाषा समझ नहीं आती। दोनों कबीर बेदी की संतानों से केवल धन के लिए जुड़े थे। फिर पता नहीं क्यों वैभव तथा ताकत का दामन छोड़ कर दोनों एक दूसरे से मोहब्बत करने लगे और माफिया राज से टकरा बैठे। दोनों का प्रेम बेहद जटिल और अबूझ है। फिल्म में कंगना का ‘स्पेस‘ कम है तो भी उसने जानदार अभिनय किया है। भारी प्रचार के बावजूद बारबरा मूरी न तो अभिनय से और न ही सेक्स अपील से प्रभावित कर पायीं। पूरी फिल्म केवल और केवल ऋतिक रोशन के भरोसे खड़ी की गयी है और फिल्म देखी भी ऋतिक के कारण ही जाएगी। ऋतिक का डांस, भागने-लड़ने के दृश्य, बाॅडी लैंग्वेज, आंखों की भाषा सब कुछ बेहद अद्वितीय और विस्मयकारी है। उनके अपोजिट हिंदी और अंग्रेजी न जानने वाली मैक्सिकन हीरोईन रखने की आवश्यकता नहीं थी। अपने भारत की टाॅप टेन अभिनेत्रियों में से कोई भी होती तो फिल्म का मुकद्दर ही बदल जाता। प्यार भले ही भाषा की दीवार को नहीं मानता लेकिन फिल्म को अच्छी तरह समझने के लिए भाषा ही प्राथमिक है। फिल्म बनाने में निर्माता राकेश रोशन ने दिल खोल कर पैसा खर्च किया है। उनकी निर्देशकीय क्षमता को देखते हुए यह विचार आना स्वाभाविक है कि अगर इस फिल्म का निर्देशन उन्होंने किया होता तो शायद नतीजे ज्यादा बेहतर होते। फिर भी, एक बार तो फिल्म देखनी ही चाहिए - लोकेशंस, तकनीक और ऋतिक के लिए।

निर्माता: राकेश रोशन
निर्देशक: अनुराग बसु
कलाकार: ऋतिक रोशन, बारबरा मूरी, कंगना रानावत, कबीर बेदी, निक ब्राउन, यूरी सूरी
संगीत: राजेश रोशन

Saturday, May 15, 2010

बम बम बोले

फिल्म समीक्षा

गरीबी का ग्लोबल आख्यान ‘बम बम बोले‘

धीरेन्द्र अस्थाना

जब भारत के महान फिल्मकार सत्यजित रे विश्व के स्तर पर सराहे जाते थे तो बाॅलीवुड का एक वर्ग चिल्लाता था, ‘रे साहब भारत की गरीबी बेच रहे हैं।‘ लेकिन ये अपने प्रियदर्शन बाबू तो शुद्ध रूप से ‘मेनस्ट्रीम सिनेमा‘ के सरताजों में से हैं। ये तो मनोरंजक, कमर्शियल और मुख्य धारा का सिनेमा बनाते हैं। तो इनकी बनायी ‘बम बम बोले‘ को क्या कहें? एक तथाकथित अमीर देश के सचमुच के गरीब हिस्से का मार्मिक बाइस्कोप है यह। कह सकते हैं कि गरीबी का ग्लोबल आख्यान है क्योंकि ‘टैरर‘, ‘आतंकवादी‘ आदि शब्दों-गतिविधियों के जुड़ते ही मामला लोकल से सीधे अंतरराष्ट्रीय हो जाता है।
दिल-दिमाग को (झकझोर देने वाली नहीं), अवसादग्रस्त कर देने वाली इस फिल्म को क्या परिभाषा दें? बच्चों के संदर्भ में फिल्में दो तरह की होती हैं। पहली तरह की फिल्में होती हैं ‘बच्चों के लिए‘ जैसे ‘हनुमान रिटन्र्स‘, ‘मकड़ी‘, ‘जजंतरम ममंतरम‘, ‘ब्लू अंब्रैला‘ और ‘घटोत्कच‘ आदि। दूसरी तरह की फिल्में होती हैं ‘बच्चों के बारे में‘ जैसे ‘तारे जमीन पर‘ जो दर्शील सफारी के बाल मन और समस्याओं पर बनी बेजोड़ फिल्म है। लेकिन दर्शील सफारी के ही बेहतर अभिनय से सजी ‘बम बम बोले‘ न तो बच्चों के लिए है, न ही बच्चों के बारे में है। ईरानी निर्देशक माजिद मजीदी की चर्चित फिल्म से प्रेरित ‘बम बम बोले‘ एक गंभीर फिल्म है जो एक गरीब मेहनतकश अतुल कुलकर्णी तथा उसकी कर्मठ व संतोषी पत्नी ऋतुपर्णा सेन गुप्ता की फटेहाली और वंचित-अपमानित जीवन का मर्मस्पर्शी विमर्श पेश करती है। इस बदहाल जीवन में दर्शील सफारी और जिया वस्तनी के मासूम बचपन को उपस्थित कर के प्रियदर्शन ने एक खतरनाक सवाल पूछा है -‘खुशहाली, उन्नति, बदमाशी, बेईमानी, चोरी-डकैती, अन्याय, पांच सितारा जीवन संस्कृति, माफिया राज आदि-आदि के मौजूदा समय में ‘मेहनत, ईमानदारी, सच्चाई और मासूमियत‘ का ‘स्पेस‘ कितना है और कहां है?‘ स्कूल जाने के लिए, दो भाई बहनों का एक ही फटा-पुराना जूता अदल बदल कर पहनना और फिर जूतों को लेकर फंतासी दृश्य ही रच देना प्रियदर्शन की कल्पनाशीलता का अदभुत उदाहरण है। फिल्म में दर्शक नहीं थे। जाहिर है कि आज के अतार्किक, नाच गानों और सेक्स से भरपूर ‘काॅमिक सिनेमाई समय‘ में असुविधाजनक सवालों से कौन टकराना चाहेगा?

निर्देशक: प्रियदर्शन
कलाकार: दर्शील सफारी, जिया वस्तनी (होनहार बिरवान के होत चीकने पात / बधाई हो, बहुत आगे जाना है), अतुल कुलकर्णी, ऋतुपर्णा सेन गुप्ता
संगीत: अजान सामी, तापस रेलिया, एम जी श्रीकुमार

Saturday, May 8, 2010

बदमाश कंपनी

फिल्म समीक्षा

देखी जा सकती है ‘बदमाश कंपनी‘

धीरेन्द्र अस्थाना

कहानी, संवाद, पटकथा, निर्देशन सब कुछ एक अच्छे एक्टर परमीत सेठी का है। निर्माता हैं यशराज बैनर यानी यश चोपड़ा-आदित्य चोपड़ा। फिल्म है ‘बदमाश कंपनी‘ जिसे सन् 1994 के समय में फिल्माया गया है। चार दोस्तों के संघर्ष, स्वप्न, महत्वाकांक्षा, अमीर बनने की धुन में हेरा-फेरी, झूठ-फरेब, कस्टम की चोरी, जुआ, शराबखोरी, औरतबाजी, ऐयाशी, मस्ती आदि आदि को ‘लार्जर दैन लाइफ‘ के फार्मूले में रख कर एक रोचक फिल्म बनाने की कोशिश की गयी है। ‘टाइमपास‘ के लिए फिल्म को एक बार देखा जा सकता है। हमारे ज्ञान और संवेदना में कुछ जोड़ती नहीं है तो बहुत अधिक निराश भी नहीं करती ‘बदमाश कंपनी‘। शीर्षक से भ्रम होता है कि फिल्म ‘अंडरवल्र्ड‘ पर आधारित होगी पर ऐसा नहीं है। काॅलेज का इम्तहान पास करके निकले तीन मध्यवर्गीय लड़कों का गैंग ही बदमाश कंपनी है जिसमें अनुष्का शर्मा भी आ मिलती है।
सुबह से रात तक एक ही दफ्तर में, एक ही सीट पर लगातार काम करने वाले अनुपम खेर का बेटा है शाहिद कपूर जो घिस-घिस करके जीवन घिसने में यकीन नहीं करता। वह कोई अनूठा सा व्यापार करके रातों रात अमीर बनना चाहता है। वह जीवन की पहली कमाई डाॅलर छुपा कर बैंकाक ले जाने और वहां खरीददारी करके, कस्टम ड्यूटी बचा कर भारत ले आने से करता है। इस पहले काम में चारों का गैंग बनता है। एक बैग की खरीदारी पर भारत का लोकल स्मगलर उन्हें दस हजार रुपये देता है। शाहिद को व्यापारिक हेराफेरी के नये-नये विचार आते रहते हैं और इन्हें आजमा कर यही कंपनी अमीर भी होने लगती है। शाहिद की अपने नैतिकतावादी पिता से नहीं पटती और वह घर छोड़ देता है। और बड़ा बनने के लिए यह कंपनी अमेरिका जा बसती है लेकिन अनैतिक मूल्यों और व्यावसायिक धोखा धड़ी को तो महिमामंडित किया नहीं जा सकता। इसलिए शाहिद कपूर का पतन शुरू होता है। तीनों दोस्त एक एक करके उसका साथ छोड़ देते हैं। बैंक के साथ धोखाधड़ी के केस में शाहिद को पुलिस पकड़ती है। तब जाकर उसकी आंख खुलती है और नाटकीय ढंग से सब कुछ सामान्य होता जाता है। ‘रब ने बना दी जोड़ी‘ की सीधी सादी अनुष्का शर्मा ने बिंदास और बोल्ड अभिनय अभिनय किया है। शाहिद कपूर किरदार के मुताबिक अभिनय करने में पारंगत होते जा रहे हैं। फिल्म के गीत कहानी को गति देते हैं और संगीत अच्छा है।

निर्माता: यशराज फिल्म्स
निर्देशक: परमीत सेठी
कलाकार: शाहिद कपूर, अनुष्का शर्मा, म्यांग चेंग, वीर दास, अनुपम खेर
संगीत: प्रीतम चक्रवर्ती

Monday, May 3, 2010

हाउसफुल

फिल्म समीक्षा

हाउसफुल कॉमेडी से फुल

धीरेन्द्र अस्थाना

निर्देशक साजिद खान ने कुछ दिन पहले कहा था - ‘मैं इस बात को नहीं मानता कि सिनेमा समाज को बदल सकता है। हां मैं यह जरूर मानता हूं कि सिनेमा समाज को खुश रखने का काम कर सकता है।‘ सार्थक, या अर्थपूर्ण या संदेशपरक सिनेमा के समर्थक इस वक्तव्य से असहमत हो सकते हैं लेकिन हकीकत यही है कि बहुत लंबे समय के बाद सिनेमाघरों में भीड़ उमड़ी थी। लंबी कतारों में लग कर लोग हंसी-खुशी अपना पर्स ढीला कर रहे थे। इस भीड़ में बड़ा प्रतिशत ‘युवाओं‘ का था जो फिल्म देखने के दौरान लगातार खिलखिला रहा था, तालियां बजा रहा था और सीट पर उछला पड़ रहा था। एकदम किसी मेले-ठेले का खुशनुमा माहौल था सिनेमा हॉल के भीतर। दर्शक पर्दे पर टकटकी लगाये अक्षय कुमार, लारा दत्ता, रीतेश देशमुख, दीपिका पादुकोन, बोमन ईरानी, रणधीर कपूर, जिया खान, चंकी पांडे और अर्जुन रामपाल का शानदार-जानदार जलवा देख रहे थे। मौज-मजा-रोमांस, हंसी, इमोशन, नाच-गाना अर्थात सौ प्रतिशत मनोरंजन से लबरेज फिल्म है ‘हाउसफुल।‘ सबका पैसा वसूल। दर्शक का, निर्माता का, निर्देशक का और कलाकारों का भी। ‘माइंडलेस काॅमेडी‘ का अदभुत उदाहरण। कहानी का आइडिया भी अनूठा है। महाराष्ट्र में अनलकी व्यक्ति या बैड लक के लिए एक शब्द प्रचलित है ‘पनौती।‘ तो अक्षय कुमार का रोल एक ‘पनौती‘ जैसा है। वह जहां जाता है चीजें बिगड़ जाती हैं। उसके आगे आगे चलता है उसका दुर्भाग्य। इसी केंद्रीय विचार के चारों तरफ विभिन्न हास्य प्रसंग, उप कथाएं और ‘काॅमिक सिचुएशन्स‘ गूंथ कर हंसी-ठट्ठे का गुलदस्ता तैयार किया गया है। और जैसा कि हिंदी के कमर्शियल सिनेमा में होता है तमाम तरह की बाधाएं आसानी से पार करते हुए नायक-नायिका मिल जाते हैं और फिल्म का ‘हैप्पी एंड‘ हो जाता है। अगर आप सिनेमा से कोई उम्मीद नहीं रखते और उसे हंसने-हंसाने का तमाशा भर मानते हैं तो यह फिल्म तुरंत देख लीजिए। इटली और लंदन के सुंदर दृश्यों तथा बेहद कम कपड़ों में युवतियों के मादक नृत्य फिल्म की अतिरिक्त विशेषता हैं। शंकर-अहसान-लॉय का संगीत कानों को अच्छा लगता है। फिल्म की बॉक्स ऑफिस सफलता तय है। लगता है आम दर्शकों की अदालत में कॉमेडी ही सरताज है।

निर्माता: साजिद नाडियाडवाला
निर्देशक: साजिद खान
कलाकार: अक्षय कुमार, दीपिका पादुकोन, रितेश देशमुख, लारा दत्ता, बोमन ईरानी, रणधीर कपूर, जिया खान, अर्जुन रामपाल
संगीत: शंकर-एहसान-लॉय