Sunday, November 29, 2009

दे दना दन

फिल्म समीक्षा

हंसने की चाह में 'दे दना दन'

धीरेन्द्र अस्थाना

हास्य सम्राट निर्देशक प्रियदर्शन का जादू देखने सिनेमा हॉल पहुंचने वाले दर्शक निराश हो सकते हैं। जैसी कि आमतौर पर कॉमेडी फिल्में होती हैं ’दे दना दन’ भी एक अतार्किक और शुद्ध हास्य फिल्म है। इंटरवल तक तो कोई कहानी या स्थिति बन ही नहीं पाती है। इंटरवल के बाद जरुर सब पात्र जब होटल में इकठ्ठा हो जाते हैं तब ढेर सारे कन्यूजन, गलत फहमी और सिचुएशन से हंसी का कुछ सामान जुटता है। फिल्म बहुत लंबी हो गयी है। तीन घंटे से भी कुछ मिनट ज्यादा लंबी। बहुत सारी उपकथाएं, पात्र और उलझनें मूल कहानी को दबा लेती हैं। कई जगह हंसी की जगह झुंझलाहट भी होती है क्योंकि अनेक दृश्यों को बहुत ज्यादा खींचा गया है। कई घटनाएं अनावश्यक भी हैं। मूलतरू यह घटनाओं की ही फिल्म है और इसीलिए फिल्म के सभी पात्रों ने अपने उपर घटती घटनाओं को लेकर दर्शकों को हंसाने की जी तोड़ कोशिश की है। इस कोशिश में सबसे ज्यादा कामयाब हुए हैं परेश रावल और जॉनी लीवर क्योंकि उनका हास्य एकदम जीवंत और स्वाभाविक लगता है। बाकी लोगों की कोशिश पकड़ में आती है। हंसने हंसाने वाली एक हल्की फुल्की ’मांइडलेस कॉमेडी’ है ’दे दना दन’। बहुत उंची उम्मीद लेकर देखने न जाएं। इससे बेहतरीन हास्य के पल प्रियद्रर्शन अपनी पुरानी फिल्मों में ज्यादा शानदार और जानदार ढंग से पेश कर चुके हैं।
फिल्म एक अरबपति स्त्री अर्चना पूरन सिंह के यहां बंधुआ मजदूर जैसा जीवन बिताने वाले अक्षय कुमार से आरंभ होती है। अक्षय संयोगवश बने दोस्त सुनील शेट्टी के साथ मिल कर अर्चना के कुत्ते का अपहरण करने का प्रयास करते हैं जो नाकाम होता है। एक गलतफहमी के चलते खबर अक्षय के अपहरण की फैल जाती है। पूरी फिल्म का ताना बाना इसी के इर्द-गिर्द बुना गया है। बीच बीच में परेश रावल के बेटे चंकी पांडे की शादी, नेहा धूपिया की बतौर कॉलगर्ल एंट्री, अक्षय और सुनील शेट्टी के प्रेम प्रसंग, जॉनी लीवर के सुपारी किलर वाले दृश्य रखे गये हैं। पूरी फिल्म का सबसे प्रभावशाली दृश्य होटल में हुए बम धमाके के कारण वाटर टैंक के फूटने से पैदा बाढ़ है। इसी बाढ़ में अर्चना से प्राप्त फिरौती का पैसा डूब कर फिर मिल जाता है। फिल्म के अंत में हंसी का वास्तविक ’दे दना दन’ है।

निर्देशक : प्रियदर्शन

कलाकार : अक्षय कुमार, कैटरीना कैफ, सुनील शेट्टी, परेश रावल, अर्चना पूरन सिंह, जॉनी लीवर, चंकी पांडे, नेहा धूपिया

संगीत : प्रीतम

Saturday, November 21, 2009

कुर्बान

फिल्म समीक्षा

प्रेम से परास्त होता आतंक: कुर्बान

धीरेन्द्र अस्थाना

एकबारगी ऐसा लगा था कि सैफ अली खान का चरित्र आतंकवाद के अक्स में जाकर घुलने ही वाला है। उस वक्त चिंता हुई थी कि ‘बुराई पर अच्छाई की विजय‘ के विरूद्ध जाकर करण जौहर यह कैसा नाकारात्मक पाठ्यक्रम तैयार कर रहे हैं? लेकिन अंत में ऐसा नहीं हुआ। प्रेम के विराट और स्नेहिल संसार के सामने आतंक का दुर्दांत लेकिन बौना विश्व परास्त हो गया। आतंकवाद की काली पृष्ठभूमि पर करण जौहर प्रेम और भविष्य की उजली पटकथा लिखने में कामयाब हुए हैं। यों पटकथा रेंसिल डिसिल्वा की है जो फिल्म ‘कुर्बान‘ के निर्देशक भी हैं। कहानी जरूर करण जौहर की है जो उन्होंने सन् 2000 में सोची थी जब अमेरिका के वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर हमला नहीं हुआ था। यह प्रसंग पटकथा में शामिल किया गया है। बतौर निर्देशक रेंसिल की यह पहली फिल्म है और इसकी तुलना स्वभावतः ‘न्यूयॉर्क‘ से की जाएगी। ‘न्यूयॉर्क‘ आतंकवाद के दुष्प्रभावों पर फोकस करती थी, ‘कुर्बान‘ आतंकवादी की राह में प्यार आ जाने के बाद उसकी बदली हुई सोच पर फोकस करती है। रेंसिल की तारीफ करनी होगी कि पूरी फिल्म में उन्होंने जबर्दस्त तनाव बनाए रखा है। कहानी में कहीं कोई झोल नहीं है। लेकिन यह पूरी तरह से सैफ अली खान की फिल्म है। करीना कपूर जैसी प्रतिभाशाली अभिनेत्री के लिए इसमें कुछ कर दिखाने की कोई गुंजाइश नहीं रखी गयी। सैफ के साथ करीना के अंतरंग रिश्तों को दर्शाने भर के लिए करीना का इस्तेमाल किया गया है। और किसी हीरो के साथ करीना इन दृश्यों को फिल्माने से परहेज कर सकती थीं।
एक और बात। यह एक गंभीर फिल्म है जो देखे जाने से लेकर समझे जाने तक समझदारी की उम्मीद रखती है। मौज-मजा चाहने वाले दर्शक इस फिल्म से निराश होंगे। शायद हुए भी हैं। सिनेमा हाॅल में आम दर्शकों के चालू फिकरे बता रहे थे कि ‘कुर्बान‘ उनके सिर के ऊपर से गुजर रही है। यह करण जौहर कैंप की भी अब तक की सबसे परिपक्व और महत्वपूर्ण फिल्म है। साधन संपन्न फिल्मकारों का फर्ज बनता है कि यदा-कदा वे सिनेमा जैसे शक्तिशाली माध्यम का इस्तेमाल ‘संदेश‘ देने के लिए करें। निर्माण के स्तर पर फिल्म दिव्य, भव्य और संपूर्ण है। गीत-संगीत फिल्म के अनुकूल है। सैफ अली खान अभिनय की नयी ऊंचाइयां तय कर रहे हैं। किरण खेर ने अभिनय का अलग ही आस्वाद दिया है। वह आतंकवादी बनी हैं तो भी उन्हें लेकर गुस्सा नहीं पनपता। ऐसा उनके जानदार और तार्किक अभिनय के कारण है। फिल्म देखें।

निर्माता: करण जौहर
निर्देशक: रेंसिल डिसिल्वा
कलाकार: सैफ अली खान, करीना कपूर, ओम पुरी, किरण खेर, विवेक ओबेरॉय, दिया मिर्जा
संगीत: सलीम-सुलेमान

Saturday, November 14, 2009

तुम मिले

फिल्म समीक्षा

अर्थपूर्ण और तार्किक ‘तुम मिले‘

धीरेन्द्र अस्थाना

महेश भट्ट कैंप से निकली फिल्म के बारे में इतना तो तय रहता है कि वह अर्थहीन और बेहूदी नहीं होगी। भट्ट कैंप का फंडा है छोटा बजट, छोटी स्टार कास्ट लेकिन एक प्रभावित करने वाली हृदयस्पर्शी कहानी। उनकी फिल्में सुपर डुपर हिट नहीं कहलातीं लेकिन अपनी कीमत निकाल लेती हैं। इमरान हाशमी भट्ट कैंप के लगभग स्थायी हीरो हैं और युवा वर्ग में उन्हें पसंद भी किया जाता है। सोहा अली खान भी इस बीच नयी पीढ़ी के बीच स्वीकृत हुई हैं और वह फिल्म दर फिल्म अपने अभिनय में निखार ला रही हैं। यही वजह है कि युवा पीढ़ी का काफी बड़ा तबका ‘तुम मिले‘ देखने पहुंचा। 26 जुलाई 2005 की ऐतिहासिक मुंबई की बाढ़ के बैकड्रॉप पर एक युवा प्रेम कहानी खड़ी की गयी है। इस बाढ़ को भी बड़े पर्दे पर देखने का रोमांच दर्शकों को खींच लाया।

प्रेम कहानी में कुछ भी नयापन नहीं है। सोहा अली खान एक अमीर पिता की आत्मनिर्भर कामकाजी युवती है। इमरान हाशमी एक स्वाभिमानी लेकिन स्ट्रगलर आर्टिस्ट है जो बाजार में बिकने के लिए नहीं बना है। अपने स्वभाव के कारण कला के बाजार में वह ठुकराया जाता है जिससे उसके भीतर कुंठाओं का अंधेरा सघन होता जाता है। इस बीच मनमौजी और फक्कड़ इमरान को सोहा दिल दे चुकी है। दोनों लिव इन रिलेशनशिप के तहत एक साथ रहते हैं। इमरान के जीवन में पसरी आर्थिक तंगी उसे बेचैन बनाती है। वह चिड़चिड़ा, एकाकी और उग्र होने लगता है। दोनों के बीच का प्यार सूखने लगता है। तकरार बढ़ने लगती है। एक दूसरे पर दोषारोपण का दौर शुरू हो जाता है। एक ऐसे ही मोड़ पर इमरान को सिडनी में एक बड़े बजट की फिल्म में क्रिएटिव आर्टिस्ट का जॉब मिलता है। सोहा अपनी नौकरी, अपने रिश्ते छोड़ कर उसके साथ जाने से मना कर देती है।

26 जुलाई 2005 को दोनों एक ही जहाज से मुंबई आये हैं जहां भारी बरसात हो रही है। दोनों अपने अपने रास्ते चले जाते हैं लेकिन भारी बारिश, जाम और तूफान दोनों को फिर से एक बस में मिला देता है। फिल्म ‘टाइटनिक‘ से भी एक दृश्य का आइडिया लिया गया है। पूरी कहानी फ्लैश बैक में घटित होती रहती है। अंत में दोनों को अपनी अपनी गलती का अहसास होता है और फिल्म का सुखी अंत हो जाता है। इस फिल्म की खूबी इसका सधा हुआ निर्माण है। प्रीतम चक्रवर्ती के संगीत निर्देशन में सईद कादरी और कुमार के गीतों को पांच गायकों ने बेहतरीन ढंग से पेश किया है। फिल्म को एक बार देखना चाहिए।

निर्माता: मुकेश भट्ट
निर्देशक: कुणाल देशमुख
कलाकार: इमरान हाशमी, सोहा अली खान
संगीत: प्रीतम चक्रवर्ती

Saturday, November 7, 2009

अजब प्रेम की गजब कहानी

फिल्म समीक्षा

हल्की फुल्की अजब प्रेम की गजब कहानी

धीरेन्द्र अस्थाना

कॉमेडी का दौर है इसलिए राजकुमार संतोषी ने भी हाथ आजमा लिया। कुछ हद तक वह सफल भी हुए हैं। ‘अजब प्रेम की गजब कहानी‘ एक रोमांटिक कॉमेडी है जिसकी सबसे बड़ी उपलब्धि है रणबीर कपूर और कैटरीना कैफ की जोड़ी। पहली बार कैटरीना कैफ को अपना हमउम्र को-स्टार मिला है। दोनों की केमेस्ट्री ने पर्दे पर एक उन्मुक्त और जीवंत उल्लास रचा है। यह जोड़ी भाती है, लुभाती भी है। रणबीर साबित करते हैं कि अभिनय उनके रक्त में रचा-बसा है। कैटरीना भी लगातार मंज रही हैं। विदेश से आकर पहले बॉलीवुड में रिजेक्ट होना फिर उसी बॉलीवुड पर राज करना सिर्फ भाग्य का खेल नहीं है। इसके पीछे कैटरीना की प्रतिभा और परिश्रम भी है। कुल मिला कर यह एक हल्की फुल्की, टाइमपास फिल्म है जिसे कम से कम एक बार देखा जा सकता है - हंसते हंसाने और खिलखिलाने के लिए।

लेकिन... और यह लेकिन थोड़ा वजनदार है। हिंदी सिनेमा में राजकुमार संतोषी टाइमपास फिल्मों के लिए नहीं जाने जाते। मुख्यधारा का सिनेमा बनाने के बावजूद वह कुछ न कुछ संदेश देते भी नजर आते हैं। उनकी दूसरी विशेषता यह है कि वह तर्कपूर्ण फिल्में बनाते हैं। ‘अजब प्रेम की गजब कहानी‘ की सबसे बड़ी कमी यही है कि इसमें तर्क सिरे से गैरहाजिर हैं। यह एक ऐसी फंतासी है जिसमें सब कुछ अतार्किक है।

फिल्म की दूसरी खामी यह है कि इंटरवल तक बांध कर रखने वाली एक मनोरंजक फिल्म इंटरवल के बाद पूरी तरह बिखर जाती है। एक अच्छी भली, युवा दिलों के मासूम रोमांस की ताजगी भरी कहानी काॅमेडी के चक्कर में कई जगह कबाड़ बन गयी है। डॉन वाला पूरा प्रकरण अर्थहीन, बोझिल और अनावश्यक है। इस प्रसंग ने फिल्म को गति देने के बजाय उसे लड़खड़ा दिया। कैटरीना द्वारा उपेन पटेल को प्रेम करने वाली उप कथा भी ठूंसी हुई और बेदम लगती है। फिल्म को नया मोड़ देने की चाह ने उसे पटरी से ही उतार देने का काम कर दिया है। इन दो प्रसंगों के कारण फिल्म थोड़ी लंबी भी हो गयी है। जरा इन दोनों उपकथाओं को माइनस कीजिए। ‘अजब प्रेम की गजब कहानी‘ ज्यादा मनभावन लगेगी। सिर्फ भावाभिव्यक्ति और प्रेम के कुछ ताजे क्षण जुटा दिए गए होते तो फिल्म को स्थायित्व मिल सकता था।

फिल्म का सबसे सशक्त पहलू है इसका गीत-संगीत। प्रीतम चक्रवर्ती ने इस फिल्म में अपनी आत्मा उंडेल दी है। इरशद कामिल, आशीष पंडित और हार्ड कोर के बेहतरीन शब्दों को प्रीतम के यादगार संगीत में के के, सुनिधि चैहान, मीका सिंह, कैलाश खेर समेत कुल पंद्रह गायकों ने अपनी आवाज देकर समां बांधा है।

निर्देशक: राजकुमार संतोषी
कलाकार: रणबीर कपूर, कैटरीना कैफ, उपेन पटेल, दर्शन जरीवाला, गोविंद नामदेव
संगीतकार: प्रीतम चक्रवर्ती