Saturday, April 24, 2010

अपार्टमेंट

फिल्म समीक्षा

इस ‘अपार्टमेंट‘ में क्यों रहना?

धीरेन्द्र अस्थाना

निर्देशक जगमोहन मूंदड़ा की फिल्म थी इसलिए बड़े चाव से देखने पहुंचे थे। लेकिन ‘अपार्टमेंट‘ तो पूरी तरह खाली निकला। कोई इस ‘अपार्टमेंट‘ में क्यों रहना चाहेगा? एक अदद सशक्त कहानी तक नहीं बुनी जा सकी। एक नीतू चंद्रा को छोड़ कर कोई नया आर्टिस्ट कायदे से अभिनय भी नहीं कर सका। एक अदद आइटम सांग बेवजह ठूंसा गया। असल में तो पूरी फिल्म में गानों की जरूरत ही नहीं थी। हीरो रोहित राॅय और हीरोईन तनुश्री दत्ता की जोड़ी जरा भी रोमांटिक नहीं लगती। अनुपम खेर मंजे हुए अभिनेता हैं। अपनी उपस्थिति से दिलासा देते रहे।
मुंबई के एक महंगे अपार्टमेंट में अकेले रहना ‘एफोर्ड‘ नहीं कर सकती तनुश्री इसलिए अपने ब्वायफ्रेंड रोहित राॅय को अपना रूम मेट बना कर उससे भाड़ा लेती है। शक्की स्वभाव की तनुश्री जरा सी बात पर रोहित को निकाल देती है। अब महंगी ईएमआई कहां से आये? एक कमरा भाड़े पर देने का विज्ञापन देती है। दर्जनों लड़कियां घर देखने आती हैं जिनमें से नीतू चंद्रा अपनी सादगी और संवेदनशीलता के कारण तनुश्री को पसंद आ जाती है और इस प्रकार दोनों साथ रहने लगते हैं। नीतू चंद्रा क्रमशः तनुश्री की निजी जिंदगी पर हक जमाने लगती है जिससे तनुश्री ‘अपसेट‘ हो जाती है। इस बीच अनुपम खेर के समझाने पर तनुश्री की रोहित से सुलह हो जाती है। यह सुलह अनुपम खेर ने करवायी है इसलिए नीतू पहले अनुपम की लाडली बिल्ली को और फिर अनुपम खेर को भी मार देती है। मरने से पहले अनुपम ईगतपुरी जाकर नीतू का अतीत जान आए थे कि वह एक मनोरोगी है तथा एक हत्या के जुर्म में सजा भी काट आयी है। नीतू यह बात जान चुकी है इसलिए पहले वह अनुपम खेर को मारती है फिर तनुश्री को बंधक बना लेती है। इसी क्रम में वह घर आये पुलिस इंस्पेक्टर का मर्डर करती है फिर रोहित को घायल करती है फिर बिल्डिंग के टैरेस पर तनुश्री को साथ लेकर पहुंच जाती है। अंततः तनुश्री का हाथ छोड़ वह नीचे गिर कर मर जाती है। मानसिक विचलन का शिकार एक असुरक्षित, अनाथ लड़की के नीम-पागल रोल में नीतू चंद्रा का अभिनय इस फिल्म की इकलौती उपलब्धि है।

निर्देशक: जगमोहन मूंदड़ा
कलाकार: रोहित राॅय, तनुश्री दत्ता, नीतू चंद्रा, अनुपम खेर, मुश्ताक खान
संगीत: बप्पी लाहिरी

Monday, April 19, 2010

दूसरा विवाह

कम दगाबाज नहीं साहित्यकार भी

धीरेन्द्र अस्थाना

‘यह क्या/मैंने घर बसाया/और बेघर हो गया/घर में क्यों नहीं रह पाता प्रेम?‘ इन पंक्तियों के भीतर घर बसाने, घर बिखर जाने और फिर से घर बसाने की मुख्य चाहत छिपी है। जिंदगी बिताने के लिए एक मनपसंद जीवन साथी खोजना एक बुनियादी तथा नैसर्गिक इच्छा है जो अनेक कारणों से टूटती-बिखरती भी आयी है। बेमेल विवाह, नकली दंभ, इच्छाओं का टकराव, विपरीत रुचियां और अपने सपनों में जीवन साथी को कतई अजनबी अनुभव करना बिखराव के प्रमुख कारण हैं। यह कितनी बड़ी विसंगति है इस रिश्ते की, कि दूसरे विवाह के मुद्दे पर, शान से दूसरा विवाह करने वाले अनेक नये-पुराने साहित्यकार प्रतिक्रिया देने से न सिर्फ किनारा कर गये बल्कि उन्होंने आग्रह किया कि इस संदर्भ में उनका नामोल्लेख भी न किया जाए। दिवंगत लेखकों में अज्ञेय, धर्मवीर भारती, मोहन राकेश, राहुल सांकृत्यायन, रमेश बक्षी आदि के दूसरे विवाह चर्चित रहे हैं। बहरहाल, अपनी कहानियों से हिंदी में हलचल मचाये रखने वाले साहित्यकार उदय प्रकाश का इस बारे में कहना है -‘समाज के अपारंपरिक क्षेत्र, जिनमें खेल, साहित्य, कला नृत्य, थियेटर और सिनेमा आते हैं, इनमें समाज की पारंपरिक सत्ताओं का उतना नियंत्रण नहीं रहता जितना एक आम नागरिक समाज में रहता है। मीडिया और बाजार के इस नये समय में इन अपारंपरिक इलाकों में रहने वाले लोग सेलिब्रिटी हो जाते हैं। उनकी पहचान उनकी सामाजिक सांस्कृतिक अस्मिता के द्वारा नहीं बल्कि उनकी अपनी सफलता/असफलता पर निर्भर करती है। इन लोगों की दूसरी या तीसरी या चैथी शादी की जरूरत को उन तर्कों से नहीं समझा जा सकता जिन तर्कों से हम एक आम पारिवारिक व्यक्ति के विवाह को समझते हैं। व्यक्ति की स्वतंत्रता और उसके किसी चुनाव की निजता/एकांतिकता पर चैतरफा हमला व्यर्थ है/अर्थहीन है। वैसे, एक ताजा अमेरिकी अध्ययन के मुताबिक तलाक विचलन या दगाबाजी नहीं, अपने साथी के प्रति ईमानदारी का प्रतीक है। यानी जब तक साथ हैं, वफादार हैं। जब वफादार नहीं हैं तो अलग होते हैं।‘
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति, पूर्व पुलिस अधिकारी और उपन्यासकार विभूति नारायण राय ने दो टूक शब्दों में कहा -‘पुरुष बुनियादी रूप से दगाबाज स्वभाव का होता है। वह दूसरी शादी के लिए न सिर्फ तर्क तलाश लेता है बल्कि दूसरी शादी कर भी लेता है। आम तौर पर स्त्री दूसरा विवाह नहीं कर पाती।‘
संपादिका, लेखिका और स्त्री विमर्श की प्रमुख हस्ताक्षर क्षमा शर्मा भी यही मानती हैं कि ‘आम तौर पर, पहला विवाह टूटने पर, स्त्री दूसरा विवाह नहीं कर पाती। एक बड़ी वजह उसके पास छूट गये बच्चे होते हैं। दूसरी वजह, पहले विवाह की असफलता का बोध उसे दूसरे विवाह की (भी) व्यर्थता का पूर्वाभास करा देता है। मजेदार स्थिति यह है कि पहले विवाह में लोग बेहद छोटे कारणों से अलग हो जाते हैं जबकि दूसरी शादी में बेहद बड़े कारणों से भी समझौता कर लेते हैं। यह रवैया पहली शादी में अपनाएं तो शादी टूटे ही न। तलाक के बाद सामान्य जीवन की तरफ लौटने में डेढ़-दो साल लग जाता है। कभी-कभी पुराना सामान्य जीवन लौटता ही नहीं है। इसलिए पहली प्राथमिकता विवाह को बचाये रखने की होनी चाहिए। क्योंकि यह बिल्कुल जरूरी नहीं है कि दूसरा विवाह सफल ही होगा।‘
आठवें दशक की संवेदनशील लेखिका राजी सेठ का कहना है -‘वास्तविक अर्थों में देखें तो तमाम शादियां एक अरसे के बाद सिर्फ शादियां रह जाती हैं। यह बोध होना चाहिए कि शादी को प्रेम नहीं समझदारी जिंदा रखती है। समझ होती है तो प्रेम भी टिक जाता है वरना वह भी टूट जाता है। समझदारी पौधों को पानी देने की तरह होती है। लचीलापन हर चीज को जिंदा रखता है - प्रेम को भी, विवाह को भी, दोस्ती को भी।‘
‘हंस‘ के संपादक और वरिष्ठ लेखक राजेंद्र यादव ने कहा -‘पहले मां-बाप शादी कर देते थे। पढ़-लिख कर पता चलता था कि पत्नी मनमाफिक नहीं है। तब आदमी दूसरे विवाह की तरफ लपकता था। कभी कभी पहली पत्नी की मृत्यु के बाद जीवन का अकेलापन भरने के लिए भी दूसरा विवाह किया जाता है। लेकिन पहला हो या दूसरा, कोई भी विवाह सुख या संतुष्टि की गारंटी नहीं है।‘
दूसरे विवाह की सबसे बड़ी त्रासदी आम तौर पर यह पायी गयी कि वर्तमान में जो अतीत घुस कर बैठा रहता है, वह दूसरी शादी की यात्रा को निर्विघ्न नहीं चलने देता।

Saturday, April 17, 2010

पाठशाला

फिल्म समीक्षा

पाठशाला के पाखंड का पाठ

धीरेन्द्र अस्थाना

बच्चे देखें या न देखें मगर बच्चों के मां-बाप फिल्म ‘पाठशाला‘ जरूर देखे लें। उन्हें पता चलेगा कि शिक्षा के नाम पर कायम मुनाफाखोर प्राइवेट दुकानें उनके बच्चों के जीवन के साथ कैसा बर्बर खिलवाड़ कर रही हैं। मुंबइया हिंदी में कहें तो अंत में जाकर फिल्म थोड़ी ‘पकाऊ‘ (उपदेशात्मक) जरूर हो गयी है लेकिन फिल्म की मंशा बेहद सकारात्मक और सार्थक है। फिल्म के निर्देशक मिलिंद उके ने शिक्षा के बाजारवाद और पाखंड का बेहद उम्दा पाठ तैयार किया है। ‘एक्सट्रा केरिकुलर एक्टिविटीज‘ के नाम पर स्कूल प्रबंधन बच्चों के कोमल मनोलोक को कितना असहाय और जिस्म को किस कदर पस्त किए दे रहा है, इसका बेहद प्रभावशाली रेखांकन करने में निर्देशक को सफलता मिली है।
फिल्म ‘जब वी मेट‘ के बाद शाहिद कपूर ने अपने सहज लेकिन लाजवाब अभिनय की छटाएं बिखेरी हैं तो नाना पाटेकर का गुरू गंभीर व्यक्तित्व भी आकर्षित करता है। अंजन श्रीवास्तव ने संभवतः इस फिल्म में अपने जीवन का सबसे बेजोड़ अभिनय किया है। उनके द्वारा निभाये अनेक मार्मिक दृश्यों से मन भीग भीग उठता है। यूं तो पूरी फिल्म ही अपने गंभीर सरोकारों और हृदयस्पर्शी प्रसंगों के चलते याद की जाएगी लेकिन हाॅस्टल में भूखे-प्यासे, लस्त-पस्त सोये बच्चों वाला दृश्य मन में चिंता पैदा कर देता है कि इस उत्तर आधुनिक समय के बच्चे कितने गहरे दबावों के बीच पढ़ाई कर रहे हैं।
मोटे तौर पर ‘पाठशाला‘ को ‘थ्री ईडियट्स‘ और ‘तारे जमीन पर‘ के जोनर की फिल्म कह सकते हैं लेकिन ‘पाठशाला‘ का कथानक थोड़ा अलग है। यह पिछली दो फिल्मों की तरह शिक्षा के तंत्र या ढांचे पर प्रहार नहीं करती। यह शिक्षण संस्थाओं में फल-फूल रहे बाजारवाद पर चोट करती है। आम तौर पर हिंदी फिल्मों में हीरोईन ‘शो पीस‘ के तौर पर रहती है लेकिन ‘पाठशाला‘ में आयशा टकिया से निर्देशक ने बेहतर काम लिया है। वैसे इस फिल्म की एक खूबी यह भी है कि इसके सभी कलाकारों को उचित ‘स्पेस‘ मिला है। फिल्म का मुख्य गीत सुनने में तो अच्छा लगता ही है वह फिल्म को गति देने तथा उसके कुछ प्रसंगों को परिभाषित करने का काम भी करता है। फिल्म के अंत में मीडिया के हस्तक्षेप तथा नाना पाटेकर के भाषण वाला दृश्य थोड़ा लड़खड़ा गया है लेकिन कुल मिला कर फिल्म देखी जाने लायक है।

निर्देशक: मिलिंद उके
कलाकार: शाहिद कपूर, नाना पाटेकर, आयशा टकिया, सौरभ शुक्ला, अंजन श्रीवास्तव
संगीत: हनीफ शेख

Saturday, April 10, 2010

जाने कहां से आयी है

फिल्म समीक्षा

प्यार खोजने जाने कहां से आयी है

धीरेन्द्र अस्थाना

कुछ अलग हट कर बनीं बॉलीवुड की प्रेम कहानियों में ‘जाने कहां से आयी है‘ ने भी अपना नाम दर्ज कराने में कामयाबी पायी है। कहने को इसे रोमांटिक कॉमेडी कहा गया है लेकिन मूलतः यह एक ‘सीरियस लव स्टोरी‘ ही है। काॅमेडी का जामा पहना देने से प्यार मजाक नहीं हो जाता। और यही इस फिल्म की खूबसूरती तथा नया अंदाज है कि काॅमिक ताने-बाने में रखने के बावजूद मिलाप जवेरी (निर्देशक) प्रेम की तड़प, उसकी गहरी संवेदनशीलता और शाश्वत पवित्रता को कायम रखने में सफल हुए हैं। प्रेम की जो निश्छलता वह दिखाना चाहते थे वह बाकायदा न सिर्फ दिखती है बल्कि दिल में महसूस भी होती है। इस फिल्म ने रितेश देशमुख को यह जताने का नायाब मौका भी दिया है कि वह सिर्फ एक हंसने-हंसाने वाले काॅमिक एक्टर भर नहीं हैं। वह प्यार में डूबे एक संवेदनशील युवक का किरदार भी बेहद प्रभावी तरीके से निभा सकते हैं। इस फिल्म में उनके अभिनय के आयाम को विस्तार मिला है। उनके दोस्त के किरदार में विशाल मल्होत्रा ने भी अच्छा काम किया है। फिल्म के मेन रोल, एक सुपरस्टार के किरदार को रूसलेन मुमताज ने सहजता से निभाया है जबकि इसके भीतर ओवर एक्टिंग के खतरे मौजूद थे। फिल्म की मुख्य हीरोईन जैक्लीन फर्नांडिज भी बेहतर अभिनय कर लेती हैं। कई स्थलों पर उन्होंने दर्शकों के मर्म को छूने में सफलता पायी है। कुल मिला कर एक रोचक प्रेम कहानी है जिसे ‘टाइम पास‘ के लिए देखा जा सकता है। निर्देशक फराह खान को छोड़ कर बाकी किसी बड़े स्टार की दरकार नहीं थी। कोई भी स्टार फिल्म का हिस्सा नहीं लगता लेकिन फराह खान कहानी में फिट बैठती हैं।
रितेश देशमुख प्यार की खोज में भटकता युवा है। फिल्मों में थर्ड निर्देशक है। जैक्लीन वीनस से आयी है। प्यार की तलाश में भी और प्यार का अर्थ जानने भी। उसके ग्रह में बच्चे भी कंप्यूटर से पैदा होते हैं। उसके ग्रह के लोग प्यार, सेक्स, किस, फीलिंग्स के बारे में नहीं जानते। वह चाहती है कि रितेश उसे सुपर स्टार रूसलेन मुमताज से मिलवाये ताकि वह उसके मार्फत इन सब बातों के बारे में जानकर वापस अपने ग्रह लौट जाए। लेकिन होता उलटा है। प्यार की रोचक, काॅमिक यात्रा पर रितेश के साथ चलते चलते जैक्लीन को रितेश देशमुख से ही प्यार हो जाता है। रितेश को तो मन मांगी मुराद मिल जाती है। वह तो प्यार पाने के लिए भटक ही रहा था। हिंदी फिल्म है। अंत सुखद होना मजबूरी है। जैक्लीन अपने ग्रह वापस जाने के बजाय धरती पर रह जाती है और रितेश का घर बसाती है। वीनस पर जाता है रितेश का दोस्त विशाल। जैक्लीन की बहन के साथ। फिल्म का शीर्षक गीत कर्णप्रिय भी है और मधुर भी।

निर्देशक: मिलाप जवेरी
कलाकार: रितेश देशमुख, जैक्लीन फर्नांडिज, विशाल मल्होत्रा, रूसलेन मुमताज, सोनल सहगल
गीत: समीर
संगीत: साजिद-वाजिद

Saturday, April 3, 2010

तुम मिलो तो सही

फिल्म समीक्षा

‘तुम मिलो तो सही‘: जीना यहां

धीरेन्द्र अस्थाना

स्वर्गीय दुष्यंत कुमार का एक प्रसिद्ध शेर है - ‘जियें तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले / मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।‘ जाहिर है कि यहां गुलमोहर एक प्रतीक है - जिंदगी का, जिंदगी के मकसद का, जिंदगी के स्वप्न का। बहुत दिनों बाद कोई कायदे की फिल्म देखने को मिली है जिसमें किसी मकसद को बेहद कुशलता और संवेदनशील ढंग से बुना गया है। निर्देशक कबीर सदानंद की फिल्म ‘तुम मिलो तो सही‘ पूरी तरह फार्मूला फिल्म होने के बावजूद न सिर्फ दिल को स्पर्श करती है बल्कि मकसद की एक अलग ही यात्रा पर ले जाती है। यह मकसद मुंबई को जानने समझने वालों को ज्यादा आंदोलित करेगा। मुंबई में बने ईरानी रेस्तराओं की दशा-दिशा और अतीत की एक लंबी तथा भावनात्मक दास्तान है। इस फिल्म में इसी दास्तान के एक तार को छेड़ा गया है। यह तार है लकी कैफे जिसकी मालकिन डिंपल कापड़िया हैं। वह तीस साल से यह कैफे चला रही हैं और उस परंपरा का निर्वाह कर रही हैं जिसके लिए ईरानी रेस्त्रां तथा उसके पारसी मालिक जाने जाते हैं। फिल्म में तीन जोड़े हैं लेकिन तीनों जोड़े यानी छह मुख्य किरदार लकी कैफे से आकर जुड़ते हैं। पूरी तरह मुंबई में बसे मध्यवर्गीय लोगों के सपनों, संघर्षों, जद्दोजहद और जुननू की चुस्त दुरूस्त कथा कहती है - ‘तुम मिलो तो सही।‘
सुनील शेट्टी शहर के एक मल्टीनेशनल रेस्त्रां का सीईओ है। उसकी कंपनी की नजर डिंपल के लकी कैफे पर गड़ी है क्योंकि वह शहर की प्राइम लोकेशन पर बना हुआ है। कंपनी यह जिम्मेदारी सुनील शेट्टी को सौंपती है क्योंकि उसकी पत्नी विद्या मालवदे तथा उसका बेटा अंकुर डिंपल से भावनात्मक स्तर पर जुड़े हैं। नाना पाटेकर एक रिटायर बीए एल एल बी हंै जो जीवन का पहला मुकदमा लकी कैफे को बचाने के लिए लड़ते हंै। नया हीरो रेहान खान फौज में जाना स्थगित कर जिंदगी देखने मुंबई आया है जहां वह अंजना सुखानी से जुड़ गया है। ये दोनों ‘सेव लकी कैफे‘ के मुख्य सेनानी हैं। सुनील शेट्टी की पत्नी उसका साथ छोड़ कर डिंपल के पक्ष में चली गयी है। उसे सुनील के चार बैडरूम वाले फ्लैट में कोई दिलचस्पी नहीं है। वह रिश्तों की कीमत पर दीवारें नहीं पाना चाहती। छह पात्रों की छह जुदा कहानियां और छह जुदा मकसद हैं। इन सबको निर्देशक ने गूंथकर एक गुलमोहर में बदल दिया है। यही है इस फिल्म का मजबूत पक्ष। सौ प्रतिशत डिंपल कापड़िया की फिल्म है जिसे नाना पाटेकर के जीवंत और बेहतरीन काम ने नयी ऊंचाई बख्शी है। संदेश शांडिल्य का संगीत प्रभावशाली और हृदयस्पर्शी दोनों है। इरशाद कामिल के दो गीत लंबे समय तक गाये जाते रहेंगे। इस वर्ष की अच्छी फिल्मों में गिनी जाएगी यह।

निर्देशक: कबीर सदानंद
कलाकार: नाना पाटेकर, डिंपल कापड़िया, सुनील शेट्टी, विद्या मालवदे, रेहान खान, अंजना सुखानी
संगीत: संदेश शांडिल्य