Wednesday, August 27, 2014

मर्दानीः

फिल्म समीक्षा

मर्दानीः लड़ाई अभी बाकी है

धीरेन्द्र अस्थाना


जब मुख्य धारा सिनेमा के जोनर से कोई सार्थक फिल्म निकलती है तो बड़ी खुशी मिलती है। स्मगलिंग, उसका भंडाफोड़ और मारधाड़ वाली फिल्में बहुत पहले से बनती आ रही हैं। इस अर्थ में मर्दानी कोई महान फिल्म नहीं है। मर्दानी का महत्व उसके संदेश और उसके निर्माण में निहित यथार्थवादी स्पर्श से है। यह अपनी मेकिंग के दौरान पूरी तरह वास्तविक बनी रहती है। इसके एक्शन सीन भी रियल हैं और अपराधी तक पहुंचने का रानी का रास्ता भी विश्वसनीय और जमीन से जुड़ा हुआ है। फिल्म के अंत में रानी केवल एक ही गुंडे से भिड़ती है। वह मारती भी है और मार खाती भी है। फिल्म बहुत चुस्त दुरूस्त भी है। कहीं कोई झोल नजर नहीं आता। कोई रोमांटिक सीन नहीं। कोई लव सांग नहीं। अपनी बेटी जैसी लड़की प्यारी के अचानक गायब हो जाने के कारणों को तलाशती क्राईम ब्रांच की इंस्पेक्टर रानी मुखर्जी का टकराव उस गैंग से हो जाता है जो न सिर्फ ड्रग की तस्करी करता है बल्कि अलग अलग शहरों से नाबालिग लड़कियों को उठा कर उन्हें सेक्स रैकेट में धकेल देता है। अपनी खोजबीन की प्रक्रिया में रानी गैंग लीडर ताहिर राज भसीन के एक खतरनाक गुंडे को मार देती है और दूसरे को उठा लेती है। यह उठाया हुआ गुंडा रानी को गैंग लीडर के कई रहस्यों की जानकारी देता है। सबसे महत्वपूर्ण यह कि एक वकील साहब हैं जो ताहिर के जोड़दार हैं और गैंग में नम्बर दो का महत्व रखते हैं। वकील साहब दिल्ली में रहते हैं। रानी अपना जाल बिछा कर वकील के अड्डे पर पहुंचने में सफल हो जाती है। लेकिन वकील खुद को गोली मार लेता है। ताहिर बौखला जाता है। रानी उसे अब तक नहीं ढूंढ पायी है। वकील की बाडी से मिले कुछ सामानों के जरिए वह ताहिर के घर पहुंच जाती है। वहां ताहिर की मां रानी को दवा वाली चाय पिला कर बेहोश कर देती है। फिर ताहिर आ कर रानी को बांध देता है। ताहिर के विशाल घर से ही चलता है सेक्स रैकेट। फिर कैसे बंधी हुयी रानी खुद को आजाद करती है, एक मंत्री, ताहिर की मां और ताहिर के खास लोगों को गिरफ्तार करती है, और आखिर कार पहले ताहिर को खुद मारती है फिर उन पचासों अगवा की गयी लड़कियों के हवाले कर देती है जो वहां कैद है, यह आपको फिल्म में ही देखना चाहिये। क्योंकि यही फिल्म का रहस्य है। ये अगवा की गयी लड़कियां ताहिर को पीट पीट कर उसे जान से मार डालती हैं। यही है उन नाबालिग लड़कियों का प्रतिशोध और फिल्म का संदेश। नये खलनायक ताहिर ने बहुत शानदार काम किया है। उसका अभिनय सहज और कूल है। वह बहुत आगे जाने वाला है। अठारह साल से ज्यादा उम्र की सभी लड़कियों को यह फिल्म जरूर देखनी चाहिए। रानी के अभिनय में अभी जान बाकी है।


निर्देशक : प्रदीप सरकार
कलाकारः रानी मुखर्जी , ताहिर राज भसीन, प्रियंका शर्मा
संगीत : जूलियस पकियम




सिंघम रिटर्न

फिल्म समीक्षा

  निर्बल पुलिसबल का प्रतिशोध : सिंघम रिटर्न

धीरेन्द्र अस्थाना

अगर आप फिल्म मेकिंग में तर्क और यथार्थ को तरजीह देते हैं तो फिल्म देखते समय बहुत सारे अगर मगर कुलबुलायेंगे। लेकिन अगर आप भी कई निर्देशकों की तरह यह मानते हैं कि अपनी बात कहने के लिए थोड़ी बहुत नहीं कितनी भी छूट ली जा सकती है तो सिंघम रिटर्न आपको भरपूर मजा देगी। यह सिनेमा के आम दर्शकों के लिए बनी फिल्म है और निर्देशक रोहित शेट्टी ने लार्जर दैन लाइफ फार्मूले का अनलिमिटेड फायदा उठाते हुए एक ऐसी रोचक रोमांचक फिल्म बना दी है जो कई जगहों पर फेंटेसी की दुनियां में प्रवेश करती हुई सी लगती है। फिल्म को देखने के लिए दर्शक सिनेमा घरों पर टूट पड़े। और फिल्म ने भी दर्शकों को निराश नहीं किया। लेकिन जिंदगी में पहली बार करीना कपूर ने दर्शकों को काफी निराश किया। वह पूरी फिल्म में कॉमेडी के नाम पर नाटकीय अभिनय का शिकार हो गयी। कई सीन में वह ओवर ऐक्टिंग करती नजर आयीं। असल में फिल्म में उनके करने के लिए कुछ था भी नहीं। लेकिन जितना भी था वह सहज और सरल नहीं था। पूरी फिल्म बाजीराव सिंघम ( अजय देवगन) के नाम ही समर्पित है। अजय देवगन ने दर्शकों के बीच अभिनय का गहरा असर छोड़ा है। कह सकते हैं कि अजय सलमान खान का जादू तोड़ते नजर आये हैं। सत्ता और धर्म के गठजोड़ के सामने असहाय पुलिस बल की पुरानी कहानी को इस बार निर्देशक ने एक नया मोड़ दिया है। इस मोड़ के कारण यह फिल्म निर्बल पुलिस बल के प्रतिशोध में भी बदल गयी है। आता माझी सटकली। यह अजय देवगन का प्रिय जुमला है। इस जुमले को वह तब बोलता है जब सचमुच उसका दिमाग सटक जाता है और उसे अपराधियों का संहार करना होता है। करप्ट राजनैतिक नेता और धार्मिक बाबा के गठबंधन के सामने जब पूरा पुलिस बल कमजोर पड़ जाता है तो पूरा पुलिस महकमा वर्दी उतार कर नेता और बाबा के महल को घेर लेते हैं। फिर दोनों को कोर्ट ले जाते समय एक वाटर टैंकर से उडवा कर मार देते हैं। मुंबई के कई हजार पुलिस कर्मियों का बनियान पहन कर सड़क पर उतरना एक अनूठे सीन की संरचना करता लगता है। बाबा की भूमिका में अमोल गुप्ते ने कमाल की परफॉरमेंस दी है। उनका अभिनय जीवंत, विश्वसनीय और प्रभावशाली रहा। इसे ही मैथड एक्टिंग कहते हैं जिसमें कोई कलाकार किरदार के भीतर परकाया प्रवेश करता है। इतनी कसी हुयी फिल्म में जहां हर कदम पर गाड़ियां और लोग उड़ रहे हों गानों की जरूरत ही नहीं थी। इसी लिए जब गाना आया तो दर्शक बाहर निकल गये। इस बार रोहित शेट्टी ने फिल्म में गाड़ियों को उड़ाने के साथ इमोशंस भी उड़ाये। हो सकता है कि इस वर्ष की यह सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म बन जाये। मतलब अब तक रिलीज फिल्मों में। फिल्म न देखने का कोई कारण ही नहीं है।


निर्देशक : रोहित शेट्टी
कलाकारः अजय देवगन, करीना कपूर, अमोल गुप्ते, अनुपम खेर, दयानंद शेट्टी
संगीत : अंकित तिवारी, जीत गांगुली




एंटरटेनमेंट

फिल्म समीक्षा

मांइडलेस कॉमेडी हार्डकोर एंटरटेनमेंट

धीरेन्द्र अस्थाना

असफल होने के बावजूद निर्माता निर्देशक कॉमेडी का दामन नहीं छोड़ते। वह कॉमेडी को मनोरंजन का सरताज मानते हैं। कॉमेडी में अगर थोड़ा दिमाग लगाया जाए या उसे तार्किक भी रखा जाए तो कॉमेडी भाती भी है। लेकिन ज्यादातर निर्देशक माइंडलेस कॉमेडी को ही तरजीह देते हैं। अक्षय कुमार की एंटरटेनमेंट भी उसी कतार की फिल्म है। वह माइंडलेस तो है लेकिन उसका एंटरटेनमेंट हार्डकोर है। दर्शक फिल्म के संवादों और दृश्यों के कारण हर पांच मिनट बाद हंसते नजर आ रहे थे। इतनी हंसी छलकेगी तो नोट तो बरसेंगे ही। आम दर्शक भी महंगा टिकट खरीद कर हंसने खिलखिलाने के लिए ही सिनेमा घर में जया करते हैं। फिल्म में मनोरंजन के सभी तत्व हैं। डांस-गाना-मारधाड़-इमोशन-ड्रामा-मोहब्बत और पैरोडी। टीवी धारावाहिकों की दिलचस्प पैरोडी फिल्म में की गयी है। टीवी स्टार कृष्णा अभिषेक भी फिल्म की यूएसपी हैं। उन्होंने भी दर्शकों को हंसाने में अक्षय का भरपूर साथ दिया है। तमन्ना की भूमिका शोपीस जैसी है। मिथुन चक्रवर्ती तमन्ना के पिता की भूमिका में हैं और उन्होंने अपनी भूमिका के साथ न्याय किया है। इंटरवल तक पूरी फिल्म सिर्फ हंसाने का काम करती है। उसके बाद फिल्म में इमोशन और एक्शन का आयाम जुड़ता है। अक्षय कुमार बैंकॉक के एक डायमंड किंग की नाजायज औलाद है। एक दिन अक्षय को पता चलता है कि डायमंड किंग तीन हजार करोड़ की संपत्ति छोड़ कर परलोक सिधार गया है। वह औलाद होने के सारे सबूत साथ ले कर बैंकॉक पहुंचता है जहां केयर टेकर जॉनी लीवर उसे बताता है कि तुम्हारे पिता जायदाद का वारिस एंटरटेनमेंट नामक कुत्ते को बना गये हैं जिसने उनकी जान बचायी थी। अक्षय और उसका दोस्त कुत्ते को मारने के कई उपाय करते हैं जो नाकाम होेते हैं। इंटरवल से ठीक पहले कुत्ता एक हादसे में अक्षय कुमार को मरने से बचा लेता है। अक्षय का दिल बदल जाता है और अब वह कुत्ते का साथी है। अब प्रकट होते हैं सोनू सूद और प्रकाश राज जो डायमंड किंग के कजिन ब्रदर हैं। वह जायदाद पर दावा करने आ धमकते हैं। अक्षय कैसे इन दोनों से लोहा लेता है और जायदाद उनके कब्जे से छुड़ा कर वापस कुत्ते को सौंपता है- बाकी आधी फिल्म इस तमाशे में खत्म होती है। कुत्ते ने बहुत शानदार काम किया है। सौ कुत्तों की एक ब्रिगेड को फिल्म में उतारने का कंसेप्ट प्रभावित करता है। कई जगह कुत्ता भी दर्शकों को हंसा कर लोटपोट कर देता है। सोनू सूद और प्रकाश राज जैसे कद्दावर विलेन कॉमेडी करते हुए बड़े अटपटे लगते हैं। मूलतः पूरी फिल्म अक्षय कुमार, जॉनी लीवर और कुत्ते की है। बाकी सब सहयोगी कलाकार हैं। गीत संगीत अच्छा है। देखी जाने लायक फिल्म है।

निर्देशक : साजिद - फरहाद
कलाकारःअक्षय कुमार, तमन्ना भाटिया,  मिथुन चक्रवर्ती, जॉनी लीवर, कृष्णा अभिषेक, सोनू सूद और प्रकाश राज
संगीत : सचिन-जिगर






किक

फिल्म समीक्षा

इस किक में जान है

धीरेन्द्र अस्थाना

मुख्यधारा सिनेमा के प्रमुख निर्माता साजिद नाडियाडवाला ने किक से बतौर निर्देशक दस्तक दी है। अपनी पहली ही निर्देशित फिल्म से उन्होंने साबित किया है कि वह एक सफल मसाला फिल्म बना सकते हैं। यह सलमान टाईप की ही एक एंटरटेनर फिल्म है। इसमें दर्शकों को लुभानेवाले चारों तत्व हैं। एक्शन, कॉमेडी ,इमोशन, डांस तथा म्यूजिक। दर्शकों को बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं है।  इस फिल्म में उन्हें हिट फिल्म धूम और उसके सीक्वेल के काफी सारे तत्व मिल जाएंगे। तो भी यह एक मनोरंजक और दिलचस्प फिल्म है जो अंत तक बांधे रखती है। दर्शकों को यह फिल्म इसमें काम कर रहे एक्टरों की अजब गजब एक्टिंग के लिए देखनी चाहिए। सब तो मंजे हुए कलाकार हैं। सलमान खान, मिथुन, नवाजुद्दीन, रणदीप, नरगिस, जैकलीन, सौरभ शुक्ला, संजय शर्मा। सलमान की पसंद को सही साबित करने के लिए जैकलीन ने अपनी जान लगा दी है। उसने बेहतर और भावात्मक अभिनय किया है तथा डांस में भी अपने जलवे दिखाए हैं। नरगिस का आइटम डांस भी लुभाता है। सच यह है कि इन दिनों अभिनेत्रियां केवल शो पीस नहीं हैं। उन्हें भी दमतोड़ मेहनत करनी पड़ती है और अभिनय के स्तर पर भी खुद को साबित करना पड़ता है। नवाजुद्दीन बहुत बढ़िया जा रहे हैं। उनके भीतर बेहतर एक्टर होने की असीम संभावनाएं भरी पड़ी हैं। इस फिल्म में अपने अभिनय से उन्होंने एक मौलिक छाप छोड़ी है और एक अपना ठप्पा लगाया है कि जो काम नवाजुद्दीन कर सकता है वह दुसरा कोई नहीं। उन्होंने खलनायकी को एक नया चेहरा दिया है। उनके संघर्ष के दिनों में कौन जानता था कि एक बड़ा एक्टर सतह से उपर उठने को है। रणदीप हुडा भी बेहतर रोल निभा गये हैं और मिथुन तो मिथुन हैं ही। अब बचे सलमान खान तो यह पूरी फिल्म उन्हीं की है और उन्हीं की वजह से है। गरीब बच्चों के महंगे इलाज के कारण वह देवीलाल से डेविल बनते हैं और करोड़पतियों का अवैध पैसा डंके की चोट पर लूटते हैं। उनके इस मिशन में उन्हें अपने पिता का सपोर्ट मिला हुआ है। पिता हैं मिथुन चक्रवर्ती । फिल्म में किक का अर्थ फुटबॉल वाली किक नहीं उछाल या प्रेरणा से है। यानी ऐसा कोई झन्नाटेदार काम जिससे कुछ बड़ा करने का मूड बने। यह बड़ा काम है लफंगई का पैसा लूटकर असहाय बच्चों के इलाज पर खर्च  करना। इस उपकथा से इस फिल्म को एक सोशल कॉज भी मिल गया है। गीत संगीत तो अच्छा है ही। हिमेश रेशमिया एक्टर भले ही अच्छे न हों पर संगीतकार तो वह बेहतरीन वाले ही हैं। फिल्म का हैंगओवर वाला गाना पहले ही हिट हो चुका है। यह फिल्म बॉलीवुड को गुलजार कर सकती है।


निर्देशक : साजिद नाडियाडवाला
कलाकारः सलमान खान,जैकलीन फर्नांडिस, रणदीप हुडा, नवाजुद्दीन सिद्दीकि, मिथुन चक्रवर्ती।
संगीत : हिमेश रेशमिया





हंप्टी शर्मा की दुल्हनिया

फिल्म समीक्षा

साधारण है हंप्टी शर्मा की दुल्हनिया

धीरेन्द्र अस्थाना

करण जौहर के धर्मा प्रोडक्शन से इतनी साधारण फिल्म निकलेगी उम्मीद नहीं थी। आलिया भट्ट ने हाईवे से जो नाम कमाया था उसे इस फिल्म में गवां दिया। वह इस फिल्म तक आते आते टाइप्ड होती जा रही है। जो भी अदाएं उसने इस फिल्म में दिखाने की कोशिशें की हैं उन्हें दर्शक उसकी पिछली फिल्मों में देख चुके हैं। अब समय है संभलने का और सोच समझ कर भूमिकाएं चुनने का। वरूण धवन के किरदार को तो निर्देशक ने इतना बेदम बनाया है कि वह कहीं से भी प्यार के लिए कुछ भी कर गुजरने वाला प्रेमी नजर आता ही नहीं है। ऐसे लड़के जवान पीढ़ी के आदर्श थोड़े ही होते हैं। जिस लड़के सिद्धार्थ शुक्ला के साथ आलिया के पिता आशुतोष राणा ने आलिया की शादी तय की है उसकी खूबियों के सामने वरूण सरेंडर करने पर आमादा है। जब आलिया वरूण से शादी करने के लिए खुद घर से भाग जाती है तो वरूण उसे भागने नहीं देता और एक लेक्चर पिलाता है- परिवार को छोड़ कर कैसे रहोगी? ना जी ना। पंजाबी लहजे में बोलने से कुछ होता हवाता नहीं। उसके लिए पंजाबी दिल भी चाहिए। लड़की के बाप से आशिक प्यार की भीख नहीं मांगते वह अपने प्यार को उठा कर ले जाते हैं। फिर भले ही उनका मर्डर क्यों न हो जाए? असल में कमजोर कहानी, ढीली पटकथा और साधारण निर्देशन ने फिल्म को साधारण से उपर उठने ही नहीं दिया। आलिया और वरूण ही क्या करते जब पटकथा में ही दम नहीं था। फिल्म की शुरूआत अच्छी हुई थी जब अंबाला की आलिया की मुलाकात दिल्ली के वरूण से होती है। दोनों की नोक झोंक और झड़प भरी मीठी मुलाकात दिलचस्प लगती है। साथ ही दोनें के संवाद भी चुलबुले और हास्य से भरपूर हैं। लेकिन इंटरवल के बाद फिल्म निर्देशक के हाथ से फिसल जाती है। वह दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे के हैंगओवर में घुस जाती है। आलिया का बाप वरूण को पांच दिन देता है। इन पांच दिनों में वरूण को साबित करना है कि जिस अंगद से आलिया की शादी होनी है वह वरूण से कमतर क्यों है? अगर वरूण एक भी वजह बता देगा तो उसकी शादी आलिया से हो जाएगी। लेकिन वरूण तो अंगद की खूबियों से खुद ही कुंठा का शिकार हो जाता है। शादी की दिन आ पहुंचा है। आलिया का भागने का प्लान भी वरूण फेल कर चुका है। अब? पिक्चर को दुखांत तो नहीं बनाया जा सकता है ना। आलिया के घर बारात आ पहुंची है। वरूण शराब पी कर रो रहा है। तभी आलिया का बाप प्रकट होता है और वरूण से बोलता है- जा अपनी मर्जी का जीवन जी ले। फिल्म अतार्किक रूप से सुखांत हो जाती है। फिल्म के गाने अच्छे हैं लेकिन सिर्फ गानों के अच्छे होने से क्या होता है? कोई म्यूजिक एलबम तो नहीं बना रहें हैं न? फिल्म पर करण जौहर की पकड़ नजर नहीं आती। जो नाचने गाने बजाने के शौकीन हैं उन्हें यह फिल्म टुकड़ों में पसंद आ सकती है।

निर्देशक : शशांक खेतान
कलाकारः वरूण धवन, आलिया भट्ट, आशुतोष राणा
संगीत : सचिन जिगर, साबरी ब्रदर्स






बॉबी जासूस


फिल्म समीक्षा

बॉबी जासूस : पुरुषों की गली में दखल

धीरेन्द्र अस्थाना

विद्या बालन का आत्मविश्वास देखते ही बनता है। वह निरंतर सोलो फिल्म करने वाली स्टार बनती जा रही हैं। फिल्म ठीक ठाक है। संदेश भी देती है। अर्थपूर्ण भी है। लेकिन पता नहीं क्यों ज्यादा दर्शक फिल्म देखने नहीं पहुंचे। पूरी फिल्म विद्या बालन की है। उनके अपोजिट अली फजल सिर्फ औपचारिकता के लिए हैं और विद्या के सहायक जैसे रोल में हैं। विद्या एक उच्च मध्यवर्गीय मुसलिम परिवार की सबसे बड़ी बेटी है जिसका आचरण, हाव भाव और रहन सहन उसे पिता ( राजेन्द्र गुप्ता) की नजरों में बागी जैसा साबित करता है। फिल्म की लोकेशन हैद्राबाद की है। इसलिए विद्या बालन से लेकर राजेन्द्र गुप्ता तक को हैदराबादी हिंदी बोलनी पड़ी है। सुप्रिया पाठक विद्या की मां के किरदार में हैं और उनके हिस्से में ज्यादा संवाद नहीं आए हैं। तो भी कई जगह अपनी बॉडी लैंगवेज से उन्होंने साबित किया कि वह एक प्रतिभावान एक्ट्रेस हैं। विद्या को जासूस बन कर आड़े टेढे़ केस सुलझाने का शौक है। यह पुरुषों की गली में दखल है। वह करमचंद और सीआइडी जैसे जासूसी धारावाहिकों को देख कर बड़ी हुइ है। उसने अपना नाम बॉबी जासूस रखा है। जब एक सरदारजी की डिटेक्टिव कंपनी में उसे नौकरी नहीं मिलती तो वह खुद की जासूसी कंपनी बना लेती है। वह अपने दोस्त इंटरनेट वाले के दड़बे नुमा ऑफिस से अपना कारोबार शुरू करती है। फिल्म का हीरो अली फजल भी अपने रिश्ते तुड़वाने का काम देने के कारण विद्या के करीब आता जाता हैं। विद्या के अंदर बेचेनी है उसे बड़े थकाउ और भिखमंगे टाइप के काम हल करने पड़ रहे हैं जबकि वह कोई शानदार जानदार केस हल करना चाहती है। यह काम उसे मोटी फीस चुका कर अनीस खान देता है। वह पचास हजार रूपये में एक लड़की को ढूंढने का काम देता है। यह लड़की मिल जाती है तो वह एक लाख रूपये दे कर एक और लड़की को ढुंढवाता है। अंत में पांच लाख रूपये दे कर एक लड़के को तलाशने का काम देता है। दोनो लड़कियों को ढूंढने की बचकानी कोशिशों में फिल्म का इंटरवल आ जाता है। इंटरवल के बाद फिल्म यू टर्न लेती है। विद्या बालन को अपने क्लाइंट अनीस खान पर ही शक हो जाता है कि वह इतने भारी पैसे दे कर काम क्यों करवा रहा है। अब विद्या अनीस खान के पीछे लग जाती है। इस मोड़ पर आ कर फिल्म रोचक हो जाती है और उसमें दिलचस्पी भी बढ़ जाती है। इस दौरान परिवार के मोर्चे पर भी कई घटनाएं घटती हैं जो विद्या के प्रोफेशनल जीवन की राह में रोड़े अटकाने का काम करती हैं। अंत में फिल्म का क्लाइमेक्स पूरी फिल्म का मर्म ही बदल देता है और फिल्म एक संवेदनशील आख्यान के रूप में ढल जाती है। फिल्म का अंत ही उसकी यूएसपी है इसलिए अंत अपनी आंख से देखें। फिल्म में विद्या बालन, सुप्रिया पाठक, राजेन्द्र गुप्ता और किरण कुमार ने उत्तम काम किया है। संगीत कर्णप्रिय है। सुनने में अच्छा लगता है। फिल्म को एक बार देखा जा सकता है। खासकर विद्या के विभिन्न जासूसी रूपों का मजा लेने के लिए।
निर्देशक : समर शेख
कलाकारः विद्या बालन, अली फजल, अरजन बाजवा, राजेन्द्र गुप्ता, किरण कुमार,सुप्रिया पाठक
संगीत : शांतनु मोईत्रा






एक विलेन

फिल्म समीक्षा

एक विलेन

प्यार की लाउड स्टोरी

धीरेन्द्र अस्थाना


पता नहीं मोहित सूरी की पिछली सफल फिल्मों का हैंगओवर था या मोहित का कहानी कहने का आक्रामक अंदाज या फिर सिद्धार्थ मलहोत्रा ( गुरू ) और श्रद्धा कपूर (आयशा) की भरोसे मंद कलाकार जोड़ी- बहुत दिनों के बाद थियेटर को हाउसफुल देखा। आमतौर पर फिल्मों में एक हीरो, एक हीरोइन और एक विलेन होता है। लेकिन यह एक विलेन की लव स्टोरी है और मोहित सूरी की फिल्म होने के कारण अपारंपरिक है। इसके तीनो प्रमुख कलाकार सिद्धार्थ, श्रद्धा कपूर और रितेश देशमुख नये अवतार में पेश हुए हैं। सिद्धार्थ बदले की आग में तड़पता एक गुंडा है जो माफिया डॉन सीजर के लिए काम करता है। श्रद्धा कपूर किसी अनाम बीमारी से मरती हुई लड़की है जिसके जीने का अंदाज बड़ा अलमस्त और शिद्दत भरा है। वह लोगों को खुशियां बांटती फिरती है। उसकी मुलाकात पुलिस स्टेशन में मार खाते सिद्धार्थ से होती है और वह सिद्धार्थ में दिलचस्पी लेने लगती है। जिंदगी जीने की श्रद्धा की जिजिविषा और जिंदादिली को देख सिद्धार्थ जैसा रफटफ हत्यारा भी अपने भीतर एक संवेदनात्मक राग को दबे पांव उतरता अनुभव करने लगता है। वह श्रद्धा में न सिर्फ दिलचस्पी लेने लगता है बल्कि श्रद्धा के जरिए अपने जीवन में पसरे अंधेरों से बाहर भी आने की ख्वाहिश रखने लगता है। ये ख्वाहिशें मूर्त होने के मोड़ पर हैं कि श्रद्धा रितेश देशमुख के हाथों मार दी जाती है। पता चलता है कि मरती हुई श्रद्धा के पेट में सिद्धार्थ का बच्चा भी था। श्रद्धा के प्रेम में हथियार फेंक चुका सिद्धार्थ फिर से बदले की रक्त रंजित गली मे उतर जाता है। लंबी तलाश के बाद उसके हाथ रितेश देशमुख लग जाता है। असल में रितेश को एक साइको किलर दिखाया गया है। वह हर उस औरत की हत्या कर देता है जो किसी भी कारण उसे डांटती फटकारती या जलील करती है। वह फोन ठीक करने का काम करता है और प्रत्येक हत्या स्क्रू ड्राइवर से करता है। मोहित ने जहां सिद्धार्थ और श्रद्धा के किरदारों को बड़ी खूबसूरती और संवेदनशीलता के साथ रचा है वहीं रितेश के किरदार को अंजाम देते वक्त उनसे चूक हो गयी है। दफ्तर में, घर में, समाज में तो लगभग नब्बे प्रतिशत आम लोगों को किसी न किसी कारण फटकार खानी पड़ती है। लेकिन सब के सब हत्यारे थोड़े ही हो जाते हैं। फिल्म में रितेश वाला टै्रक थोड़ा नाटकीय और अविश्वसनीय हो गया है। एक विलेन की यह प्रेम कहानी बदले की खूनी पटकथा से उलझ जाने के कारण थोड़ी लाउड भी हो गयी है। फिल्म के तीन गाने पहले से ही अत्यंत पॉपुलर हो चुके हैं। पूरी फिल्म वर्तमान से अतीत में आती जाती रहती है। फिल्म के अंत में रखा गया मुंबई के मीरा रोड इलाके के एक बार वाला सीन और डांस एकदम फालतू है जो फिल्म की गंभीरता को ठेस पहुंचाता है। फिल्म देख लें, मजा आएगा। लगता है कि श्रद्धा और सिद्धार्थ की यह जोड़ी भविष्य की उम्मीद है।
निर्देशक : मोहित सूरी
कलाकारः सिद्धार्थ मलहोत्रा, श्रद्धा कपूर, रितेश देशमुख
संगीत : अंकित तिवारी, मिथून




हमशकल्स



फिल्म समीक्षा

हमशकल्स का हास्य

धीरेन्द्र अस्थाना


साजिद खान की नयी फिल्म हमशकल्स ढेर सारी सिचुएशंस, ढेर सारे चुटकुलों, ढेर सारे कलाकारों के बावजूद एक ठीकठाक कॉमेडी फिल्म बनने में कामयाब नहीं हो पायी है। हमशकल्स के हास्य ने मन में इतनी खीज पैदा की कि दर्शक फंस गये रे ओबामा बोलते नजर आये। कुछ इंटरवल से पहले ही फिल्म छोड़ कर चले गये। कुछ इंटरवल के कुछ देर बाद गये। कुछ एसी की ठंडी ठंडी हवा में सो कर पैसा वसूल करते पाये गये। फिल्म में एक सीन है। पागलखाने का जुलमी जेलर सैफ अली खान और रितेश देशमुख को कुर्सियों से बांध कर कहता है-अब मैं तुम्हें ऐसा टार्चर दुंगा कि तुम कांप जाओगे। फिर वह टीवी, रिमोट कंट्रोल और डीवीडी मंगाता है और बोलता है-अब मैं तुम्हें साजिद खान की हिम्मतवाला दिखाने जा रहा हूं। एक तरीके से यह खुद पर हंस कर शहीद होने जैसी भंगिमा है। इस संवाद को इसतरह भी बदल सकते हैं- अब मैं तुम्हें साजिद खान की हमशकल्स दिखाने जा रहा हूं। अतीत के हैंगओवर से बाहर निकलो यारो। अब हिंदी सिनेमा का दर्शक छठे सातवें दशक वाला मासूम और नासमझ दर्शक नहीं है। वह कंप्यूटर कं्राति के विस्फोट के बाद वाले चमत्कारी और ज्ञानवान वाले समय में बैठा हुआ है। उसे कॉमेडी के नाम पर कुछ भी आंय बांय शांय दिखा कर बहकाया नहीं जा सकता। माना कि आज भी दर्शकों का एक बड़ा वर्ग गंभीर सिनेमा से कन्नी काटता है और सिनेमा हॉल में केवल हंसने हंसाने के लिए जाना चाहता है। लेकिन हास्य तो ठीक से क्रियेट करो। सिनेमा का एक फंडा यह भी समझ में नहीं आता कि जिन एक्टरों के खाते में एक नहीं अनेक बेहतर फिल्में दर्ज हैं वे ऐसी उटपटांग फिल्में क्यूं कर लेते हैं? पैसे के लिए? पर पैसा तो रितेश देशमुख के पास भी बहुत है और सैफ तो छोटे नवाब हैं। आमिर खान कैसे खराब फिल्मों को ठुकरा देते हैं? बहरहाल, साजिद खान ने अपने इस भानुमति के कुनबे में सैफ रितेश और राम कपूर के तीन तीन हमशकल मौजूद कर कॉमेडी का किला खड़ा करने की कोशिश की है जो जरा ही देर में ताश के पत्तों की तरह ढह जाता है। बची रह जाती है खीज, उकताहट और हताशा। इस वर्ष की पहली सबसे सुपर फ्लॅाप फिल्म का एवार्ड हमशकल्स को देेेने का विचार भी कोई चैनल करे तो हताशा कुछ कम हो सकती है। फिल्म में कोई कहानी नहीं है इस लिए कहानी पर कैसे बात करें? हां नशा करने वालों के लिए इसमें एक नया संदेश यह है कि कोकिन और बोदका के परांठे बना कर लोगों को मस्ती का एक बड़ा डोज दिया जा सकता है। बिपाशा, ईशा और तमन्ना इस फिल्म में क्यों हैं यह तो खुद उन्हें ही अपने से पूछना चाहिए। फिल्म के गाने जरूर सुनने में अच्छे लगते हैं। शायद इसी तरह की फिल्मों को मुख्यधारा के सिनेमा में माइंडलेस कॉमेडी कहा जाता है। फिल्म देखने का एक मात्र यही कारण गिनाया जा सकता है।

निर्देशक : साजिद खान
कलाकारः सैफ अली खान, रितेश देशमुख, राम कपूर, बिपाशा बसु, तमन्ना, ईशा गुप्ता, दर्शन जरीवाला
संगीत : हिमेश रेशमिया






फगली


फिल्म समीक्षा

फुकरों की फगली

धीरेन्द्र अस्थाना

फगली का कोई आधिकारिक अर्थ नहीं है जैसे फुकरों का भी कोई अर्थ नहीं है। मगर फुकरों का एक मतलब यह मान लिया गया है कि किसी की परवाह न करने वाले बिंदास अलमस्त और मौज मजा में यकीन रखने वाले युवाओं की टोली। इसी तरह फगली का मतलब पागलपंती मान लेते हैं। ऐसी पागलपंती जिसमे जुनून के साथ कोई मिशन भी जुड़ा हो। निर्देशक कबीर सदानंद ने विषय अच्छा उठाया था लेकिन उसे साध नही पाये। दर्शक शायद थोड़ी अश्लीलता, थोड़ी कॉमेडी और थोड़े एंटरटेनमेंट की आस ले कर फिल्म देखने आये थे। इसीलिए पहले दिन सिनेमा घरों में अच्छी खासी भीड़ रही। नये कलाकारों के बावजूद युवा दर्शक फिल्म देखने आये। मगर अफसोस कि बहुत लंबे समय बाद यह नजारा देखने को मिला कि पचासों दर्शक फिल्म खत्म होने से काफी पहले ही सिनेमाघर छोड़ कर जाते दिखे। संदेशपरक और गंभीर फिल्म थी लेकिन बहुत बोझिल और उबाउ हो गयी थी कई जगह। कहीं कहीं पर दिल्ली का खिलंदड़ा अंदाज था, खुली गालियां थी लेकिन कुल मिला कर पूरी फिल्म पर एक थकावट सी तारी थी। फिल्म की रफ्तार भी बीच बीच में टूट टूट जाती थी। बॉक्सर विजेन्द्र सिंह की यह डेबू फिल्म है।  बाकी युवा टाली भी प्रायः नये कलाकारों की है। विजेन्द्र सिंह, मोहित मारवाह, अरफी लांबा और कायरा आडवानी बचपन के दोस्त हैं जो अपने अपने संधर्ष का जीवन बिताते हुए जवान हो गये हैं। उनके कुछ सपने हैं। विजेन्द्र को वर्ल्ड फेमस बॉक्सर बनना है। मोहित को एडवेंचर कैंप लगाने हैं। कायरा को मां को खुश रखना है और अरफी कनफ्यूज्ड है। दिल्ली की सड़कों पर यह टोली मस्ती करती घूमती रहती है। कभी पुलिस इन्हें पकड़ लेती है तो विजेन्द्र अपने बाप का नाम लेकर सबको छुड़ा लेता है। विजेन्द्र का बाप मंत्री है। लेकिन एक बार इनका टकराव चौटाला नाम के सिरफिरे और लालची पुलिस अधिकारी जिमी शेरगील से हो जाता है। घटना की रात ये लोग उस दुकानदार के हाथ पांव बांध कर अपनी कार की डिक्की में डाले हुए थे जिसने कायरा को छेड़ा था। जिमी दुकानदार का मर्डर कर देता है और उस भाले पर विजेन्द्र के हाथों के निशान ले लेता है जिससे मर्डर हुआ है। फिर वह चारों को गाड़ी में बिठा कर एक पुराने किले में ले आता है। जिमी इनसे इकसठ लाख रूपये दे कर मुक्त हो जाने या फिर तिहाड़ जेल की हवा खाने की पेशकश करता है। ये लोग पैसे जुटाने के लिए क्या क्या पापड़ बेलते हैं और इसके बावजूद जिमी के बिछाये जाल में उलझते जाते हैं, यह फिल्म देखकर जानना ज्यादा उचित होगा। फिल्म खुलती है उस शॉट से जिसमें फिल्म का हीरो मोहित अमर जवान ज्योति के सामने खुद पर मिट्टी का तेल डाल कर आग लगा लेता है। इसके बाद पूरी फिल्म फ्लैशबैक में चलती है। इस घटना से पूरी दिल्ली में कैसे जनजागरण होता है यही इस फिल्म का संदेश है। फिल्म के अंत में मोहित मारा जाता है। जिमी पहले गिरफ्तार होता है फिर मार दिया जाता है। बाकी बचे दोस्तों के सपने पूरे हो जाते हैं। यही है फगली।

निर्देशक : कबीर सदानंद
कलाकारः जिमी शेरगिल, मोहित मारवाह, विजेन्द्र सिंह, कायरा आडवानी, अरफी लांबा।   
संगीत : यो यो हनी सिंह