Saturday, August 28, 2010

आशाएं

फिल्म समीक्षा

जिंदगी को पुकारती ’आशाएं‘

धीरेन्द्र अस्थाना

अगर आप बेहतर ढंग से बुनी गयी, एक संवेदनशील और अर्थपूर्ण कहानी पसंद करते हैं तो नागेश कुकनूर की ’आशाएं‘ आपको भरोसा देगी। भरोसा इस बात का कि बाजार की इस अंधी दौड़ में भी कुछ लोग ’अच्छे सिनेमा‘ को जुनून की तरह बचाए हुए हैं। भरोसा इस बात का कि जिंदगी हमेशा जिंदाबाद है और जिंदगी को पूरी शिद्दत के साथ जीना चाहिए। एक पंक्ति में कहें तो ’आशाएं‘ जिंदगी के समर्थन में उठी एक जीवंत पुकार है। और यह पुकार जॉन एब्राहम के मर्मस्पर्शी अभिनय से सजी हुई है। बॉलीवुड की चालू फिल्मों से अलग ’आशाएं‘ कम से कम जॉन एब्राहम की ’फिल्मोग्राफी‘ में एक सितारे की तरह जुड़ने वाली है। यह फिल्म लंबे समय से रोशनी का मुंह देखने को तरस रही थी। अगर यह रिलीज नहीं होती तो पर्दे पर रची हुई एक मार्मिक कविता की अकाल मौत हो जाती और दर्शक कभी नहीं जान पाते कि जॉन के भीतर कितना समर्थ अभिनेता छिपा हुआ है। अनीता नायर के रूप में नागेश ने बॉलीवुड को जो युवा अभिनेत्री दी है वह उचित मौके मिलने पर कमाल कर सकती है। मरती हुई लेकिन जीवंत लड़की का नायाब अनुभव बन गयी है अनीता नायर। वह न सिर्फ पूरी फिल्म को बांधे रखती है बल्कि कैंसर जैसी भयावह तकलीफ को चिढ़ाती भी रहती है। वैसे तो फिल्म की मुख्य हीरोइन सोनल सहगल है लेकिन ज्यादातर स्पेस अनीता नायर को ही मिला है, और इस स्पेस में अनीता ने अपने हिस्से का आकाश रच दिया है। ऐसा नहीं है कि आशाएं कोई अद्वितीय फिल्म है। कैंसरग्रस्त हीरो की कहानी पर राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन की अमर फिल्म ’आनंद‘ बन चुकी है। ’आशाएं‘ इस अर्थ में बेहतरीन फिल्म है कि यह जिंदगी की जिंदादिल दास्तान का कोलाज रचती नजर आती है। जिंदगी से मुंह मोड़ कर जॉन जिस मरते हुए लोगों के आश्रम में जीवन गुजारने जाता है वहां उसका साक्षात्कार इस यथार्थ से होता है कि जिंदगी भागने का नहीं, जीने का नाम है। कि अमर जिंदगी का झरना किसी कल्पना लोक में नहीं जिंदगी के सीने पर गड़ा हुआ है। इस सच से गुजरने के बाद जॉन अपने प्यार के साथ वापस जिंदगी में लौटता है। मारधाड़, कॉमेडी और सेक्स के इस ’मुख्य समय‘ में ’आशाएं‘ को ’बाजार‘ तो नहीं मिलेगा लेकिन अच्छे सिनेमा की गिनती में उसका भी नाम दर्ज होगा, इसमें शक नहीं। सलीम-सुलेमान और प्रीतम ने कहानी के अनुकूल संगीत दिया है जो मन को भाता भी है। धारा के विरुद्ध बने सिनेमा को प्रोत्साहन देने के लिए भी इस फिल्म को देखना चाहिए।


निर्देशक: नागेश कुकनूर
कलाकार: जॉन एब्राहम, सोनल सहगल, अनीता नायर, फरीदा जलाल, गिरीश करनाड।
संगीत: प्रीतम चक्रवर्ती, शिराज उप्पल, सलीम मर्चेन्ट, सुलेमान मर्चेन्ट।
गीत: समीर, कुमार, शकील, मीर अली।

Saturday, August 21, 2010

लफंगे परिंदे

फिल्म समीक्षा

इलीट क्लास के ‘लफंगे परिंदे‘

धीरेन्द्र अस्थाना

अपने बॉलीवुड में कौन-कौन से खास लोग हैं जो झोपड़पट्टी या बैठी चाल या गरीब गुरबों की बस्ती में जीवन जीते किरदारों को विश्वसनीय, सहज और वास्तविक ढंग से पर्दे पर उतार सकते हैं? जो गली कूचों की टपोरी भाषा ही नहीं बोल सकते वैसा जीवन जीवंत भी कर सकते हैं? आम आदमी का जीवन जी सकने में सफल ये खास कलाकार हैं - आमिर खान, सलमान खान, संजय दत्त, अरशद वारसी, नसीरुद्दीन शाह, ओमपुरी, महेश मांजरेकर, करीना कपूर, विद्या बालन, तब्बू, मिथुन चक्रवर्ती, जैकी श्राफ, नाना पाटेकर, रणवीर शौरी, इरफान खान, अक्षय कुमार, सुनील शेट्टी, परेश रावल, उर्मिला मातोंडकर, प्रियंका चोपड़ा आदि। लेकिन अंग्रेज व्यक्तित्व वाले नील नितिन मुकेश और इलीट क्लास की दीपिका पादुकोन तो कहीं से भी ’लफंगे परिंदे‘ नजर नहीं आते। न हावभाव से, न चालढाल से, न संवाद अदायगी से, न बॉडी लैंग्वेज से। इसीलिए गली-कूचों की एक जीवंत, मर्मस्पर्शी और जिंदादिल दास्तान ’निर्जीव तमाशे‘ में बदलती नजर आती है। इलीट क्लास के ’लफंगे परिंदे‘ लोअर डेप्थ (तलछट) का यथार्थ साकार नहीं कर सके। हर निर्देशक का अपना ’जोनर‘ होता है जो उसे पहचानना चाहिए। इसी तरह हर कलाकार की भी अपनी सीमा होती है लेकिन जो उस सीमा का सफलतापूर्वक अतिक्रमण कर लेता है वह महान कलाकारों की श्रेणी में शुमार हो जाता है। जैसे सबसे बड़ा उदाहरण अमिताभ बच्चन। अगर दुर्भाग्य से इस फिल्म में पीयूष मिश्रा और केके मेनन जैसे अद्वितीय कलाकार नहीं होते तो ’लफंगें परिंदे‘ शायद उड़ भी नहीं पाते। फिल्म का सबसे ज्यादा प्रभावशाली पक्ष है इसका गीत-संगीत, उसके बाद ध्यान खींचते हैं संवाद। नील नितिन मुकेश के व्यक्तित्व पर किसी अमीरजादे का चरित्र ही सहज लग सकता है। दीपिका पादुकोन ने अंधी लड़की के किरदार में घुसने की जी-तोड़ कोशिश की है लेकिन फिल्म ’ब्लैक‘ में रानी मुखर्जी ने इस चरित्र के संदर्भ में जो लंबी लकीर खींच दी है उसे पार करना शायद संभव नहीं है। ’लफंगें परिंदे‘ की जो बुनियादी प्रेम कहानी है वह यकीनन बहुत संवेदनशील और ’ट्रेजिक‘ है। इस कहानी को मुंबई की किसी ’चाल‘ या ’वाड़ी‘ के बजाय पैडर रोड, नरीमन प्वाइंट अथवा बांद्रा के ’पॉश परिवेश‘ में घटता दिखाते तो शायद फिल्म का भविष्य कुछ और होता। उस परिवेश में दोनों प्रमुख पात्र ज्यादा ’रीयल‘ लगते। इस फिल्म की एकमात्र कमजोरी इसका अनरीयल होना ही है। इतना जरूर है कि फिल्म का कथानक लगातार बांधे रखता है।

निर्माता: आदित्य चोपड़ा
निर्देशक: प्रदीप सरकार
कलाकार: नील नितिन मुकेश, दीपिका पादुकोन, केके मेनन, पीयूष मिश्रा
गीत: स्वानंद किरकिरे
संगीत: आर.आनंद

Saturday, August 14, 2010

पीपली लाइव

फिल्म समीक्षा

तंत्र पर तमाचा ‘पीपली लाइव‘

धीरेन्द्र अस्थाना

बॉलीवुड में बनने वाली एक अच्छी या बुरी फिल्म नहीं है ‘पीपली लाइव।‘ फिल्म की तरह इसकी समीक्षा की भी नहीं जा सकती। असल में ‘पीपली लाइव‘ बना कर इसके मूल निर्माता आमिर खान ने यह बताया है कि कोई भी सार्थक (और सफल भी) काम करने के लिए केवल और केवल एक बेहतरीन दिमाग की जरूरत पड़ती है। पैसा, ताम झाम, ग्लैमर बहुत बाद की बातें हैं। यही वजह है कि ‘पीपली लाइव‘ नामक तथाकथित फिल्म में कदम कदम पर आमिर खान का उर्वर दिमाग जैसे एक निर्णायक युद्ध सा लड़ता नजर आता है। पारंपरिक अर्थों में ‘पीपली लाइव‘ सिनेमा है भी नहीं। यह दरअसल सिनेमा के नाम पर एक खतरनाक तमाचा है जिसकी अनुगूंज आने वाले कई वर्षों तक वातावरण में बनी रहेगी। इस तमाचे के गहरे, रक्तिम निशान सत्ता के तंत्र पर बरसों बरस चमकते रहेंगे। और जो लोग इस सिनेमाई विमर्श के अनुभव से गुजरे हैं या गुजरेंगे वे इस बात के गवाह रहेंगे कि तंत्र चाहे स्थानीय हो, चाहे प्रादेशिक, चाहे भारतीय वह कितना अमानवीय, लोलुप, बेदर्द और जंगली होता है। तंत्र की बर्बरता का बखान करने के क्रम में आमिर खान ने मीडिया को भी नहीं बख्शा है। ‘पीपली लाइव‘ में मीडिया एक मजाक बन कर दौड़ता है - बदहवास, बेमतलब और बेलगाम। इस प्रकार एक गुमनाम गांव में एक किसान के आत्महत्या करने के ऐलान की पृष्ठभूमि पर आमिर खान का यह सिनेमाई पाठ सत्ता से जुड़ी हर संस्था को खेल-खेल में नंगा कर देता है। महान कवि गजानन माधव मुक्ति बोध की तरह यह बुदबुदाते हुए -‘हाय हाय, मैंने उन्हें देख लिया नंगा/अब मुझे इसकी सजा मिलेगी।‘
अगर ‘पीपली लाइव‘ केवल मल्टीप्लेक्स की फिल्म बन कर रह गयी तो यह इसकी और इससे जुड़े तमाम लोगों की हार होगी। ‘पीपली लाइव‘ की विजय उसके व्यापक प्रदर्शन में निहित है। गांव-गांव-गली-गली-कस्बे-कस्बे में इसका प्रदर्शन ही इसे इसके मकसद तक पहुंचा सकता है। यह कैसे होगा यह भी आमिर खान को ही सोचना होगा। फिल्म के प्रोमोज लगभग पूरी फिल्म पहले ही बयान कर चुके हैं। हम केवल इतना बताना चाहते हैं कि आमिर खान को एक हजार गांवों से एक एक चिट्ठी आयी है। हर गांव का नाम पीपली है यानी कम से कम हिंदुस्तान में पीपली नाम के एक हजार गांव तो मौजूद हैं ही। एक रघुवीर यादव को छोड़ कर कोई भी फिल्मी कलाकार नहीं है लेकिन अभिनय के मामले में कोई कमतर नहीं है। ‘पीपली लाइव‘ के गाने प्रदर्शन से पूर्व ही लोकप्रिय हो चुके हैं। एक अनूठी, दिलचस्प और जरूरी फिल्म को तुरंत देखने जाएं।

निर्माता: आमिर खान /यूटीवी
निर्देशक: अनुषा रिजवी
कलाकार: रघुवीर यादव, ओमकारदास माणिकपुरी, मलाइका शिनॉय, नवाजुद्दीन सिद्धिकी, फारुख जफर
संगीत: इंडियन ऑसियान, बृज आदि

Saturday, August 7, 2010

आयशा

फिल्म समीक्षा

हाथ से छूटती फिसलती सी ‘आयशा‘

धीरेन्द्र अस्थाना

प्रेम कहानी होने के बावजूद थोड़ी गंभीर और जटिल किस्म की फिल्म है इसलिए आम दर्शक संभवतः ‘आयशा‘ को देखना पसंद नहीं करेंगे। लेकिन विशेष अथवा बौद्धिक दर्शकों को भी लीक से हट कर बनी ‘आयशा‘ ट्रीटमेंट के स्तर पर संतुष्ट नहीं करेगी। शुरू से अंत तक हाथ से फिसलती और छूटती सी नजर आती है फिल्म। कह सकते हैं कि एक बेहतरीन, अर्थपूर्ण, कुछ अलग किस्म की कहानी जब बुनावट यानी मेकिंग के स्तर पर लड़खड़ा जाती है तो ‘आयशा‘ जैसी फिल्म बनती है। वरना तो दिल्ली की जिस अमीरजादी, शोख, थोड़ी सी एरोगेंट, ज्यादातर आत्मकेंद्रित और पूरी तरह आत्म मुग्ध लड़की के किरदार में सोनम कपूर को उतारा गया है वह बॉक्स ऑफिस पर गदर मचा सकती थी। इस तरह के चरित्र को ‘नारसिसस‘ कहते हैं। यह चरित्र ग्रीक माइथोलॉजी में मौजूद है और पूरी दुनिया में इस चरित्र के प्रभाव ग्रीक माइथोलॉजी से ही ग्रहण किए गये हैं। यह केवल खुद पर मुग्ध, पूरी तरह पर्फेक्ट, अंतिम सत्य सा ‘तूफान‘ चरित्र होता है जो सोनम कपूर जैसी सॉफ्ट, कम उम्र और दिलकश लड़की पर फिट नहीं बैठता। इस ‘मिसमैच‘ के कारण ही ‘आई हेट लव स्टोरीज‘ की, दर्शकों के दिलों पर राज करने वाली सोनम ‘आयशा‘ में प्रभावित नहीं कर पाती। लेकिन एक लीक से हटकर उठायी गयी कहानी के जीवंत और जुदा अनुभव से गुजरने के लिए फिल्म को एक बार जरूर ही देखना चाहिए। सवा दो घंटे की फिल्म में कोई हीरोईन शायद इतनी तरह की ड्रेसेज नहीं पहन सकती जितनी सोनम ने पहनी हैं। लड़कियों को तो ड्रेसेज की इतनी अधिक वेरायटीज से गुजरने के लिए भी ‘आयशा‘ देख लेनी चाहिए। फिल्म का कथासार इतना सा है कि रियल लाइफ में दूसरों की जोड़ी मिलाने का शौक रखने वाली सोमन कपूर कैसे अपनी सनक और जिद के चलते क्रमशः अपने दोस्तों को खोती चली जाती है। हिंदी फिल्म है। सुखांत फिल्म बनाना मजबूरी है इसलिए अंत में सोनम को ‘रियलाइज‘ होता है कि वह कितनी गलत थी और इस आत्मस्वीकार के बाद वह अपने ‘प्यार‘ अभय देओल को पा लेती है। दिल्ली के बिंदास, बेफिक्रे, अल्हड़ किरदारों के रूप में अभय देओल, साइरस शौकर, इरा दुबे और अमृता पुरी दिल जीत लेते हैं। सोनम का अभिनय मंजता जा रहा है। वह सहज अभिनय करने की कठिन दिशा में आगे बढ़ रही है। अभय देओल के अभिनय में आत्मविश्वास है तो नयी लड़की अमृता पुरी ने बहादुरगढ़ की पंजाबी कुड़ी के रूप में खुद को ‘मनवा‘ लिया है। गीत-संगीत बेहतरीन है। लंबे समय बाद एम. के. रैना को बड़े पर्दे पर देखना सुखद है।

निर्माता: अनिल कपूर, रिया कपूर
निर्देशक: राजश्री ओझा
कलाकार: अभय देओल, सोनम कपूर, साइरस शौकर, इरा दुबे, अमृता पुरी, एम.के. रैना आदि।
गीत: जावेद अख्तर
संगीत: अमित त्रिवेदी