Saturday, May 28, 2011

फिल्म समीक्षा

उम्दा अभिनय साधारण किस्सा

कुछ लव जैसा

धीरेन्द्र अस्थाना

बहुत दिनों के बाद शेफाली शाह को बड़े पर्दे पर काम करते देखना अच्छा लगता है। पूरी फिल्म की कहानी शेफाली को कें्रद में रख कर ही बुनी गयी है इसलिए यह स्वभावतः स्त्री केंद्रित फिल्म हो गयी है। अगर फिल्म की कहानी पर ज्यादा मेहनत की गयी होती और उसे कोई नया कोण या आयाम दिया जाता तो ‘कुछ लव जैसा‘ ऑफबीट फिल्मों में शुमार हो सकती थी। शेफाली शाह और राहुल बोस के उम्दा अभिनय से सजी इस फिल्म को बस इन दोनों के अभिनय के कारण ही देखा जा सकता है। कहानी जैसी भी है लेकिन इतनी कसी हुई है कि शुरु से अंत तक बांधे रखती है। बरनाली शुक्ला का निर्देशन सशक्त और गतिवान है। उसमें कहीं भी झोल नहीं है। संवाद बेहद दो टूक, संक्षिप्त मगर सार्थक हैं। गीत पात्रों के भीतर चल रही कशमकश को प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति देने में सफल भी हैं और सुनने में भी अच्छे लगते हैं। तो फिर ऐसा क्या है कि इतने सारे सकारात्मक कारणों के बावजूद फिल्म औसत से उपर नहीं जा पाती? एक मात्र वजह है फिल्म की कहानी में नयापन न होना और उपकथाओं का अतार्किक होना। उच्च मध्यवर्ग की असंतुष्ट पत्नियों के त्रास और एकाकी छूट रहे जीवन के व्यर्थता बोध से साहित्य और सिनेमा अटा पड़ा है। पहले प्रेम फिर विवाह और अंततः अलगाव।
रोजमर्रा के कामकाजी तनाव के चलते पति-पत्नी के बीच का अनुराग सूखते जाना और रिश्तों में एक धूमिल सी उदासी का पसरना। इस उदासी को उतार कर जीवन में फिर से उतर कर अपने होने का अर्थ तलाशना। यहां तक तो ठीक है लेकिन पूरा दिन एक अनजाने क्रिमिनल के साथ यहां वहां और एक होटल के कमरे में बिता देना रियल लाइफ में संभव ही नहीं है। एक आदमी की पत्नी पूरा दिन घर से गायब है। उसका फोन नॉट रीचेबल है और पति आराम से ऑफिस में बैठा है। लड़की के मां बाप भी चैन से हैं। लड़की के बच्चों को भी ममा की खास चिंता नहीं है। पूरा दिन बाहर बिता कर औरत घर लौटी है और जिंदगी सामान्य है। घर में उसके जन्मदिन की पार्टी आयोजित है मगर औरत दिन भर क्रिमिनल के साथ बिताए कुछ क्षणों को कुछ लव जैसा फील कर रही है। रागात्मक संबंधों की दुनिया में इस तरह के विचार तार्किक नहीं लगते। तो भी इतना जरुर है कि शेफाली ने एक उद्विग्न, बैचेन, चिंतित और दुविधाग्रस्त स्त्री के किरदार में जान डाल दी है। राहुल बोस का अभिनय हमेशा की तरह कूल और सधा हुआ है। असल में इस फिल्म में अभिनय ही इसकी ‘यूएसपी‘ है। शेफाली को फिल्मों में बने रहना चाहिए।

निर्देशकः बरनाली शुक्ला
कलाकारः राहुल बोस, शेफाली शाह, सुमीत राघवन, ओम पुरी, नीतू चंद्रा।
संगीतः प्रीतम चक्रवर्ती
गीतः इरशाद कामिल

Saturday, May 21, 2011

pyar ka panchnama

फिल्म समीक्षा
युवाओं के प्यार का पंचनामा
धीरेन्द्र अस्थाना

ऐसा नहीं है कि आज की युवा पीढ़ी केवल खाने पीने और मौज मजा करने मंे ही यकीन करती है। बदलते हुए सिनेमा के इस नये दौर में ऐसे युवा भी दस्तक दे रहे हैं जो अपनी पीढ़ी के संघर्ष, विफलता, स्वप्न,प्यार,अविश्वास और असुरक्षा को विमर्ष का विषय बना रहे हैं। ’प्यार का पंचनामा‘ ऐसी ही फिल्म है जो पूरी तरह युवाओं के बारे में बनायी गयी है। फिल्म का नाम जरुर पुराना लगता है लेकिन फिल्म का विषय एकदम आधुनिक है। आज से पच्चीस तीस साल पहले स्त्री-पुरुष की जो रिलेशनशिप होती थी आज वह पूरी तरह बदल गयी है। स्त्रियों की दुनिया में कई बुनियादी बदलाव आ गये हैं। लड़कियां उच्च शिक्षा प्राप्त हैं, आत्मनिर्भर हैं, अपने जीवन के निर्णय खुद ले रही हैं। अब वे अपना एक ‘स्पेस‘ चाहती हैं। अपनी आजादी उन्हें सबसे ज्यादा प्रिय है। अब अपनी प्रॉब्लम्स पर वे बहस करती हैं। लड़ती-झगड़ती हैं। रिश्ते दिल से नहीं दिमाग से तय करती हैं। और लड़कियों का यह नया वजूद ही लड़कांे की नयी समस्या है। मोटे तौर पर इस फिल्म की यही कहानी है जिसे दिल्ली में घटित होता दिखाया गया है-दिल्ली के भदेसपन और उद्दंड चरित्र के साथ। दिल्ली की मस्ती और अराजकता के मनोभावों के बीच। और हां दिल्ली की गालियों सहित। तीन दोस्तों की कहानी है। एक साथ रहते हैं। अपने अपने काम पर जाते हैं और फ्रस्ट्रेट रहते हैं। तीनों की जिंदगियों में लड़कियां आती हैं तो लगता है कि जीवन को एक अर्थ मिल गया है। एक लंबा भांय भांय करता खालीपन भर रहा है। लेकिन गजब कि लड़कियां उनके जीवन में खुशबू की तरह नही उतरतीं। वे आती हैं तूफान की तरह और लड़कों के जीवन का हर सुंदर पल उड़ा ले जाना चाहती हैं। प्यार का स्वर्ग पाने की चाह लड़कों को प्यार का नरक पकड़ा देेती है। उन्हंे लगता है कि प्यार पाने के चक्कर में वह दुम हिलाने वाले कुत्ते हो कर रह गये हैं। लड़कियों के ‘स्पेस‘ ने उनका अपना ‘स्पेस‘ हड़प लिया है। तीनों अपने अपने तरीके से उन लड़कियों से अपना पिंड छुडाते हैं और फिर से अपने पुराने घर में एक साथ लौट आते हैं। इस सबके बीच में पीना-पिलाना, सेक्स करना, डांस-मस्ती-नशाखोरी भी चलती है। बेबाक गालियां भी और रोना उदास होना भी चलता रहता है। नये होने के बावजूद निर्देशक की कहानी पर गहरी पकड़ बनी रहती है। फिल्म का ‘कुत्ता‘ वाला गाना आज के मिजाज को सटीक अभिव्यक्ति देता है। सारे कलाकार नये ही हैं लेकिन उन्होंने जम कर अभिनय किया है। नये जमाने की फिल्म है। नये-पुराने दोनों वर्ग के दर्शकों को फिल्म का आस्वाद लेना चाहिए।

निर्देशकः लव रंजन
कलाकारः कार्तिकेय तिवारी, रेयो, दिवयेंदु शर्मा, ईशिता, नुसरत, सोनाली।
गीतः लव रंजन
संगीतः हितेश, क्लिंटन, लव
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pyar ka panchnama

फिल्म समीक्षा
युवाओं के प्यार का पंचनामा
धीरेन्द्र अस्थाना

ऐसा नहीं है कि आज की युवा पीढ़ी केवल खाने पीने और मौज मजा करने मंे ही यकीन करती है। बदलते हुए सिनेमा के इस नये दौर में ऐसे युवा भी दस्तक दे रहे हैं जो अपनी पीढ़ी के संघर्ष, विफलता, स्वप्न,प्यार,अविश्वास और असुरक्षा को विमर्ष का विषय बना रहे हैं। ’प्यार का पंचनामा‘ ऐसी ही फिल्म है जो पूरी तरह युवाओं के बारे में बनायी गयी है। फिल्म का नाम जरुर पुराना लगता है लेकिन फिल्म का विषय एकदम आधुनिक है। आज से पच्चीस तीस साल पहले स्त्री-पुरुष की जो रिलेशनशिप होती थी आज वह पूरी तरह बदल गयी है। स्त्रियों की दुनिया में कई बुनियादी बदलाव आ गये हैं। लड़कियां उच्च शिक्षा प्राप्त हैं, आत्मनिर्भर हैं, अपने जीवन के निर्णय खुद ले रही हैं। अब वे अपना एक ‘स्पेस‘ चाहती हैं। अपनी आजादी उन्हें सबसे ज्यादा प्रिय है। अब अपनी प्रॉब्लम्स पर वे बहस करती हैं। लड़ती-झगड़ती हैं। रिश्ते दिल से नहीं दिमाग से तय करती हैं। और लड़कियों का यह नया वजूद ही लड़कांे की नयी समस्या है। मोटे तौर पर इस फिल्म की यही कहानी है जिसे दिल्ली में घटित होता दिखाया गया है-दिल्ली के भदेसपन और उद्दंड चरित्र के साथ। दिल्ली की मस्ती और अराजकता के मनोभावों के बीच। और हां दिल्ली की गालियों सहित। तीन दोस्तों की कहानी है। एक साथ रहते हैं। अपने अपने काम पर जाते हैं और फ्रस्ट्रेट रहते हैं। तीनों की जिंदगियों में लड़कियां आती हैं तो लगता है कि जीवन को एक अर्थ मिल गया है। एक लंबा भांय भांय करता खालीपन भर रहा है। लेकिन गजब कि लड़कियां उनके जीवन में खुशबू की तरह नही उतरतीं। वे आती हैं तूफान की तरह और लड़कों के जीवन का हर सुंदर पल उड़ा ले जाना चाहती हैं। प्यार का स्वर्ग पाने की चाह लड़कों को प्यार का नरक पकड़ा देेती है। उन्हंे लगता है कि प्यार पाने के चक्कर में वह दुम हिलाने वाले कुत्ते हो कर रह गये हैं। लड़कियों के ‘स्पेस‘ ने उनका अपना ‘स्पेस‘ हड़प लिया है। तीनों अपने अपने तरीके से उन लड़कियों से अपना पिंड छुडाते हैं और फिर से अपने पुराने घर में एक साथ लौट आते हैं। इस सबके बीच में पीना-पिलाना, सेक्स करना, डांस-मस्ती-नशाखोरी भी चलती है। बेबाक गालियां भी और रोना उदास होना भी चलता रहता है। नये होने के बावजूद निर्देशक की कहानी पर गहरी पकड़ बनी रहती है। फिल्म का ‘कुत्ता‘ वाला गाना आज के मिजाज को सटीक अभिव्यक्ति देता है। सारे कलाकार नये ही हैं लेकिन उन्होंने जम कर अभिनय किया है। नये जमाने की फिल्म है। नये-पुराने दोनों वर्ग के दर्शकों को फिल्म का आस्वाद लेना चाहिए।

निर्देशकः लव रंजन
कलाकारः कार्तिकेय तिवारी, रेयो, दिवयेंदु शर्मा, ईशिता, नुसरत, सोनाली।
गीतः लव रंजन
संगीतः हितेश, क्लिंटन, लव
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Saturday, May 14, 2011

रागिनी एमएमएस

फिल्म समीक्षा

सेक्स और डर की जुगलबंदी: रागिनी एमएमएस

धीरेन्द्र अस्थाना

डर बेच कर घर भरने के मामले में एकता कपूर रामगोपाल वर्मा और विक्रम भट्ट दोनों से आगे निकल गयी हैं। डर के निर्माण और डर के कारोबार दोनों को उनकी नयी फिल्म ‘रागिनी एमएमएस‘ ने बेहद कुशलता से साधा है। विक्रम भट्ट की हालिया फिल्म ‘हॉन्टेड‘ जहां डर की इमोशनल पटकथा थी, जिसके धागे डर की पारंपरिक फिल्मों और अनुभव से जुड़े हुए थे। वहीं ‘रागिनी एमएमएस‘ एक यथार्थवादी फिल्म है जो आज के उत्तर आधुनिक समय में खड़ी है। यंग जेनरेशन के कल्चर और अंदाज पर फोकस करने वाली एकता कपूर की यह फिल्म सेक्स के साथ डर की जुगलबंदी पेश करती है और तकनीक, छायांकन तथा संगीत के दम पर दर्शकों को डराने में कामयाब हो जाती है। यहां डर सचमुच एक डरावने अहसास में तब्दील हो जाता है। यूं ‘रागिनी एमएमएस‘ एक धोखेबाज फिल्म भी है। छोटे शहरों के जो दर्शक इसे एक सेक्सी फिल्म समझकर सिनेमाघरों पर टूटेंगे वे खुद को एक डरावने मायालोक में खड़ा पाएंगे। लेकिन डर का यह साक्षात्कार उन्हें फिल्म की मेकिंग के स्तर पर सुखद लगेगा। बिना स्टार कास्ट और बिना भव्य विदेशी लोकेशंस के बेहद कम बजट में बनी यह फिल्म कमाई का कीर्तिमान इस स्तर पर बनाएगी कि लागत से दस-बीस गुना ज्यादा कैसे आता है। फिल्म का हीरो राजकुमार अपनी गर्लफ्रेंड कैनाज मोतीवाला के साथ माथेरान के एक सुनसान घर में मौज-मजा करने पहुंचता है, जहां हिडेन कैमरे मौजूद हैं। एक्टर बनने की मंशा में वह गर्लफ्रेंड का सेक्सी एमएमएस बनवाने पर भी राजी हो जाता है। लेकिन उस घर में एक आत्मा का निवास है जिसे उसके घर वालों ने चुड़ैल कह कहकर मार मार डाला था। यह आत्मा अपने घर में किसी को गलत काम नहीं करने देती। लड़का चूंकि प्यार के नाम पर सेक्स क्लिप बनाना चाहता है अतः आत्मा का शिकार बनता है। लड़की चूंकि घर से झूठ बोलकर मस्ती करने आयी है इसलिए आत्मा उसे भी शारीरिक दंड देती है। बस इतनी सी कथा है जिसे खूबसूरती से बुना गया है। इंटरवल से पहले फिल्म जितनी कसी हुई है इंटरवल के बाद थोड़ी खिंच गयी है। नंगे संवादों के चलते भी चर्चित होगी।

प्रोडयूसर: एकता कपूर, शोभा कपूर
निर्देशक: पवन कृपलानी
कलाकार: राजकुमार यादव, कैनाज मोतीवाला
संगीत: शमीर टंडन, फैजान हुसैन, बप्पी लाहिरी

Saturday, May 7, 2011

हॉन्टेड

फिल्म समीक्षा

डर की इमोशनल पटकथा: हॉन्टेड

धीरेन्द्र अस्थाना

छोटे बजट और नये चेहरों के साथ एक बेहतर फिल्म बनाने के लिए प्रसिद्ध विक्रम भट्ट इस बार ‘हॉन्टेड‘ लेकर आये हैं। यह डर की इमोशनल पटकथा है। यानी डर के अदृश्य द्वार के पार एक प्यार है जिसे ईविल (दुष्टता) के शिकंजे से मुक्ति दिलानी है। यह प्यार है नयी अभिनेत्री टीया बाजपेयी जो पिछले 80 साल से एक बंगले में चीख-तड़प रही है। उसकी आत्मा उसके रेपिस्ट प्रोफेसर की बुरी आत्मा के कब्जे में है जिसे टीया ने मार डाला था। टीया की अच्छी आत्मा को मुक्ति दिलाने के लिए नये नाम महाअक्षय के साथ मिथुन चक्रवर्ती के साहबजादे मिमोह उपस्थित हैं, न सिर्फ नये नाम बल्कि नये लुक के भी साथ। एक फकीर की सलाह पर महाअक्षय 80 साल पीछे के समय में लौटते हैं और सन् 1936 में जी रही टीया की जिंदगी में उतरते हैं। अब रेपिस्ट प्रोफेसर और टीया वाली पटकथा में महाअक्षय भी हैं जो टीया का प्रेम जीत चुके हैं। टीया को शैतानी साये से मुक्ति दिलाने के बाद महाअक्षय वापस उन्नीस सौ ग्यारह के समय में लौट आते हैं। अब उनके पैतृक बंगले से टीया की चीखें आनी बंद हो गयी हैं। एक अच्छी फैंटेसी रची है विक्रम ने जिसमें डर, प्यार और संस्पेंस का संतुलित कोलाज बनाया है। कुछ डर का माया लोक, कुछ थ्री डी फॉर्मेट का आकर्षण, ‘हॉन्टेड‘ को छोटे और मझोले शहरों में अच्छी ओपनिंग मिलने की खबर है। मुंबई में दर्शकों की संख्या ठीक-ठाक रही। अगर इसे हिट फिल्म नहीं कहेंगे तो फ्लॉप फिल्म भी नहीं कही जाएगी। केवल कहानी के दम पर खड़ी हुई फिल्म अपनी लागत से ज्यादा वसूल लेती है तो उसे सफल ही कहा जाएगा। शैतान से मुक्ति चाहने की तंत्र-मंत्र की प्रक्रिया के चलते फिल्म थोड़ी बोझिल और नाटकीय जरूर हो गयी है, लेकिन बांधे रखती है। चिरंतन भट्ट का संगीत फिल्म की कथा के अनुरूप है। फिल्म के दो गीत भावप्रवण और मर्म स्पर्शी हैं। सेट लगाकर और कैमरे के जरिए 1936 के समय को रिक्रिएट करना कामयाब रहा है। यूं तो पूरी फिल्म की सिनेमेटोग्राफी ही उम्दा है। हालांकि डरावनी फिल्में देख-देख कर दर्शक डरना छोड़ चुके हैं फिर भी विक्रम भट्ट की विशेषता है कि इस फिल्म में उन्होंने डर का एक विश्वसनीय मंजर रचने की सफल कोशिश की है। महाअक्षय और टीया दोनों का अभिनय सामान्य से अच्छा है लेकिन दोनों को और मेहनत करनी होगी। भावों की अभिव्यक्ति में महाअक्षय को कुछ और विविधता लानी होगी। फिल्म देखी जा सकती है।

निर्देशक: विक्रम भट्ट
कलाकार: महाअक्षय, टीया बाजपेयी, अचिंत कौर, आरिफ जकरिया, मोहन कपूर
गीत: शकील आजमी, जुनैद वसी
संगीत: चिरंतन भट्ट