Wednesday, July 24, 2013

रमैया वस्तावैया

फिल्म समीक्षा

इश्क के इम्तिहान की रमैया वस्तावैया

धीरेन्द्र अस्थाना

टिप्स कंपनी के राजकुमार गिरीश कुमार को लांच करने के लिए तौरानी ब्रदर्स ने प्रभुदेवा जैसे प्रतिभाशाली डांसर-एक्टर डायरेक्टर से जो लवस्टोरी बनवायी उसी का नाम है ‘रमैया वस्तावैया‘। वैसे तो फिल्म के सभी गाने पहले से ही चर्चित हो चुके हैं, लेकिन ‘जीने लगा हूं पहले से ज्यादा, पहले से ज्यादा मरने लगा हूं‘ तो सुपरहिट है। इस गाने के फिल्मांकन में काफी सुंदर कल्पनाशीलता भी बरती गयी है, लेकिन प्रभुदेवा ने फिल्म की कहानी के साथ कोई प्रयोग नहीं किया है। नये समय और नये मिजाज के इस दौर में जब नये निर्देशक नये विचार लेकर आ रहे हैं तो प्रभु ने कहानी का ट्रेडीशनल दामन ही थामा है। गिरीश कुमार और श्रुति हसन की प्रेम कहानी के इर्दगिर्द उन्होंने वही फ्रेम खड़ा किया है जो पुराने दौर के सिनेमा में खड़ा किया जाता था। पिता द्वारा मां को छोड़ दिया जाना, सदमे से मां का मर जाना, भाई-बहन का अनाथ हो जाना, भाई द्वारा कड़ी मेहनत करके फिर से घर बसाना, बहन को बड़ा करना, उसे पढ़ाना-लिखाना, बहन पर जान छिड़कना, गांव-खेत जमींदार। भाई के रोल में सोनू सूद ने प्रभावशाली अभिनय किया है। कहानी को स्टार वैल्यू देने के लिए प्रभु ने रणधीर कपूर, गोविंद नामदेव, पूनम ढिल्लो, सतीश शाह, विनोद खन्ना जैसे पुराने और धुरंधर कलाकारों का तो सहयोग लिया ही है स्वयं भी एक आकर्षक डांस पर जमकर नाचे हैं। जैकलीन फर्नांडिस जैसी नयी लेकिन चर्चित हो चुकी हीरोइन से उन्होंने एक आइटम सांग भी करवा लिया है। श्रुति हसन ने भी अपने किरदार के साथ न्याय किया है। भाई का आदेश मानने वाली गांव की सीधी सादी गोरी के किरदार में वह सहज लगी है लेकिन गिरीश कुमार का क्या करें। उसने मेहनत तो बहुत की है-प्यार में भी और मारधाड़ में भी। मगर उसके भीतर स्टार वाली चमक नहीं है। वह चमक जिससे दर्शक कलाकार के दीवाने हो जाते हैं। जैसी चमक ऋतिक, रणबीर, इमरान आदि की पहली फिल्मों में थी। यह बात भी समझ में नहीं आयी कि प्रभु ने फिल्म का पहला भाग कॉमेडी के चोले में क्यों रखा? हां इश्क के इम्तिहान के रूप में गिरीश से खेती करवाना, तबेला साफ करवाना, फसल उगवाना आदि का विचार जरूर नया और जमीन से जुड़ा हुआ नजर आता है। फिल्म के अंत में गिरीश से जमींदार के बेटे का कत्ल हो जाता है, जिसे बचाने के लिये सोनू सूद पुराने स्टाइल में इल्जाम अपने सिर लेकर सात साल के लिये जेल चला जाता है। पूरी फिल्म फ्लैश बैक में है। ढाई घंटे की फिल्म है, लेकिन कहीं भी बोर नहीं करती। 

निर्देशक:  प्रभुदेवा 
कलाकार:  गिरीश कुमार, श्रुति हसन, सोनू सूद, रणधीर कपूर, पूनम ढिल्लो, गोविंद नामदेव, विनोद खन्ना, सतीश शाह 
संगीत: सचिन-जिगर

Monday, July 15, 2013

भाग मिल्खा भाग

फिल्म समीक्षा

जिद और जुनून का शिलालेख: भाग मिल्खा भाग

धीरेन्द्र अस्थाना


जो लोग सार्थक या गंभीर फिल्में देखने से बचते हैं उन लोगों को भी भाग मिल्खा भागदेख लेनी चाहिए। कारण कि यह सिर्फ फिल्म नहीं है, यह मनुष्य की जिद, जिजीविषा और जुनून का शिलालेख है। यह दुनिया भर में भारत का झंडा लहराने वाले, फ्लाइंग सिख के नाम से मशहूर एक धावक मिल्खा सिंह की कहानी भर नही है। यह उस मिल्खा सिंह के सफर का दस्तावेज है जो मिल्खा सिंह प्रत्येक मनुष्य के भीतर मौजूद है मगर जिसे खोजा नहीं गया है। निर्देशक राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने जीवनी जैसे शुष्क विषय में देश के विभाजन की त्रासदी और जख्म, कस्बाई रोमांस, गली कूचों की टपोरीगिरी और लड़कपन का बिंदास रहन सहन मिलाकर मिल्खा सिंह के सफर और संघर्ष को बेहद रोचक और दिलचस्प अंदाज में पेश किया है। राकेश मेहरा कहानी बुनना जानते हैं। उस पर गीत और पटकथा के लिये उन्हें प्रसून जोशी जैसे बहुआयामी तथा प्रतिभाशाली रचनाकार का साथ मिला। कमाल तो होना ही था। प्रसून जोशी के गीतों का एक अलग ही आस्वाद और तेवर होता है। उनका यह रंग इस फिल्म में जमकर निखरा है। हवन करेंगे, प्याला पूरा भर दे जैसे गीत तो बहुत पहले से ही पॉपुलर हो चुके हैं मगर उनका फिल्मांकन देखना और भी गजब लगता है। वर्तमान से फ्लैश बैक के बीच निरंतर आवाजाही करना राकेश का मुहावरा है जो इस फिल्म में भी कायम है। वर्तमान से अचानक अतीत में जाकर कुछ पकड़ना और फिर वर्तमान में लौटकर एक निर्णय को आकार दे देना इस फिल्म में कई बार होता है और यही क्राफ्ट इस फिल्म को एक खूबसूरत ऊंचाई देता है। इस फिल्म के माध्यम से फरहान अख्तर अभिनय के बहुत ऊंचे पायदान पर जा खड़े हुए हैं। उन्होंने पर्दे पर सचमुच के मिल्खा सिंह को उतार दिया है। यह फरहान की नायाब फिल्मों में गिनी जायेगी। और बीस पच्चीस साल बाद जब लोग उनसे उनकी पसंद की तीन फिल्मों का नाम लेंने को कहेंगे तो भाग मिल्खा भागइन तीन में से एक होगी। जहां तक सोनम की बात है तो उनके हिस्से में ज्यादा कुछ आया नहीं है मगर जितना भी रोल उन्हें मिला उसमें वह अपनी छाप छोड़ती हैं। दिव्या दत्ता का नाम न लेना नाइंसाफी होगी। मिल्खा सिंह की बहन के रोल में उन्होंने बहुत ही उम्दा काम किया है। इन दिनों खतरनाक विलेन के रूप में दिख रहे प्रकाश राज इस फिल्म में कड़क आर्मी ऑफीसर के रूप में अलग ही मजा देते हैं। बाकी लोगों ने भी बेहतर काम किया है। तीन घंटे बीस मिनट लंबी इस फिल्म को कई बार देखा जा सकता है।

निर्देशक: राकेश ओमप्रकाश मेहरा
कलाकार: फरहान अख्तर, सोनम कपूर, दिव्या दत्ता, प्रकाश राज, दिलीप ताहिल (नेहरू जी के रोल में)
संगीत: शंकर-अहसान-लॉय


Monday, July 8, 2013

लुटेरा

फिल्म समीक्षा

मर्मान्तक प्रेम की ‘लुटेरा‘

धीरेन्द्र अस्थाना

बेवजह और अविश्वसनीय मारधाड़ तथा ऊटपटांग कॉमेडी की भीड़ में जब कभी महीन भावनाओं और गहरे प्यार की कहानी आती है तो अच्छा लगता है। निर्देशक विक्रमादित्य मोटवाने फिल्म ‘लुटेरा‘ के रूप में ऐसी ही मार्मिक प्रेम कहानी लेकर आये हैं जिसे देखते समय अहसास होता है कि आप ताजा हवा के बीच से गुजर रहे हैं। बस इसका दुखद पहलू यह है कि यह एक मरते हुए प्रेम की मर्मान्तक कहानी बनकर पर्दे पर उतरी है। डर है कि सुखद अंत के अभ्यस्त दर्शक इस दुखद अंत वाली प्रेम कथा को अपनाएंगे या नहीं। फिल्म अपने कहे जाने के दौरान दर्शकों से थोड़े धैर्य की उम्मीद भी करती है क्योंकि फिल्म में पांचवंे दशक का कालखंड है इसलिए दो जनों के बीच प्रेम की भाषा और अभिव्यक्ति में उस समय का ध्यान रखा गया है। इस कारण फिल्म काफी धीमी है। विशेषकर इंटरवल तक तो फिल्म के पात्रों और कथा को जस्टीफाई भर किया जा सका है। इंटरवल के बाद फिल्म थोड़ा गति पकड़ती है और दर्शकों को अपने साथ बनाये रखने में कामयाब हो जाती है। एक टीबीग्रस्त मरती लड़की के किरदार को सोनाक्षी ने गजब जीवंतता और सहजता से साकार किया है। सोनाक्षी ने साबित किया है कि वह सिर्फ स्टार नहीं बल्कि एक्ट्रेस भी हैं। रणवीर सिंह को भी पहली बार अपने भीतर के अभिनेता को उजागर करने का मौका मिला है एक स्मगलर और चोर के भीतर रहने वाले इंसान और प्रेमी के टकराव को उभारने में वह सफल हुए हैं। मरती हुई सोनाक्षी के मन में यह विश्वास जम गया है कि जिस दिन उनके घर के बाहर खड़े पेड़ की आखिरी पत्ती भी झर जाएगी उसी दिन उनकी मौत भी हो जाएगी। इस बात का पता रणवीर सिंह को है इसलिए वह एक नकली पत्ती बनाकर पेड़ पर बांध देता है ताकि सोनाक्षी के भीतर जीने की जिजीविषा बनी रहे। यही उसका प्रेम है। फिल्म के अंत में रणवीर पुलिस की गोली से मारा जाता है लेकिन सोनाक्षी के रूप में उसका प्यार जिंदा रहता है। आखिरी पत्ती झरती नहीं, वह लहराती रहती है। इस प्रतीकात्मक और संवेदनशील प्रेम कहानी की प्रेरणा निर्देशक ने विश्व प्रसिद्ध कहानीकार ओ. हेनरी की कथा ‘द लास्ट लीफ‘ से ली है और इस तथ्य को स्वीकार भी किया है। संवेदनशील, नाजुक और बारीक विषयों को पसंद करने वाले दर्शकों के लिए यह एक नायाब तोहफा है। आम दर्शक भी सिनेमा के एक अलग आस्वाद से गुजरने के लिए फिल्म देख सकते हैं। 

निर्देशक: विक्रमादित्य मोटवाने
कलाकार: रणवीर सिंह, सोनाक्षी सिन्हा
संगीत: अमित त्रिवेदी
गीत: अमिताभ भट्टाचार्य 

Monday, July 1, 2013

घनचक्कर

फिल्म समीक्षा

घनचक्करका क्या है चक्कर?

धीरेन्द्र अस्थाना

नो वन किल्ड जेसिकाजैसी सरोकारों और तेवर वाली संजीदा फिल्म बना कर खुद को पहले ही काम से साबित कर लेने वाले निर्देशक राजकुमार गुप्ता कॉमेडी लेकर आये हैं। पता नहीं फिल्मकारों को कॉमेडी का दामन थामना क्यों जरूरी लगता है, उन्हें भी जो कॉमेडी को साध नहीं पाते। अच्छी भली सस्पेंस और थ्रिल वाली कहानी थी घनचक्करकी जिसे कॉमेडी के रास्ते पर डालकर उलझा दिया गया। दो चार दृश्यों को छोड़कर बाकी फिल्म में कहीं हंसी भी नहीं आती। यहां एक्टिंग की बात नहीं करेंगे क्योंकि दोनों ही मुख्य कलाकार विद्या बालन और इमरान हाशमी मंजे हुए परिपक्व कलाकार हैं। विद्या बालन ने पहली बार कॉमेडी की है और अपने चरित्र के भीतर उतर आयी हैं। चाल-ढाल, बोली सब लिहाज से वह ठेठ पंजाबी कुड़ी नजर आती हैं। अगर कहा जाये कि पूरी फिल्म को अपने अकेले के कंधे पर खींच ले गयी हैं विद्या बालन, तो गलत नहीं होगा। इमरान हाशमी ने भी अपने याद्दाश्त खो चुके किरदार को कायदे से साधा है। बस झोल है तो केवल फिल्म की पटकथा में जो इंटरवल के बाद पटरी से उतरी तो फिर लुढ़कती ही चली गयी। अंत में तो फिल्म निर्देशक के हाथ से ऐसी छूटी कि उसका बैंड ही बज गया। फिल्म के अंत में अचानक एक व्यक्ति प्रकट हुआ वह भी चलती ट्रेन में। उसने पहले उन दो गुंडों को मारा जिन्होंने इमरान हाशमी से एक बैंक लुटवाया था और पूरे पैंतीस करोड़ रुपये उसे यह कहकर रखने को दिये थे कि तीन महीने बाद जब मामला ठंडा हो जायेगा तब पैसे आपस में बांट लेंगे लेकिन इमरान पैसे रखकर भूल गया क्योंकि एक दुर्घटना में उसकी याद्दाश्त चली गयी। तीन महीने बाद दोनों गुंडे उससे मिलने पहुंचे तो वह उन्हें और पैसों को भूल चुका था। दोनों इमरान के पीछे लग गये। उन दोनों गुंडों को मारने के बाद अज्ञात व्यक्ति ने विद्या बालन को मारा। फिर इमरान हाशमी को भी मार दिया। फिर इमरान का एक फोनकॉल सुनकर वह वापस ट्रेन में लौटा और फिसल कर जमीन पर गिरा तो खाने वाला कांटा उसकी गर्दन में घुस गया। इस प्रकार वह भी मारा गया। जब फिल्म के सारे ही किरदार मारे गये तो फिल्म को खत्म होना ही था। अब आप खुद ही तय करें कि यह कॉमेडी है या ट्रेजडी। हां फिल्म की एक खूबी यह जरूर है कि वह बांधे रखती है। पूरी तो नहीं टुकड़ों में फिल्म मजा देती है।

निर्देशक:     राजकुमार गुप्ता
कलाकार:     इमरान हाशमी, विद्या बालन, राजेश शर्मा, नमित दास
संगीत:       अमित त्रिवेदी


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