Monday, April 29, 2013

आशिकी 2


फिल्म समीक्षा

मोहब्बत और प्रतिभा की सांप-सीढ़ी: ‘आशिकी-2‘

धीरेन्द्र अस्थाना

यह पुरानी ‘आशिकी‘ का सीक्वेल नहीं है। पहली वाली ‘आशिकी‘ चूंकि सुपरहिट रही थी, इसलिए शोहरत भुनाने की कोशिश में इसे ‘आशिकी-2‘ कहा गया है। अगर आप रणबीर कपूर की ‘रॉकस्टार‘ और अमिताभ बच्चन की ‘अभिमान‘ जैसी बेहतरीन तथा संवेदनशील फिल्में देख चुके हैं तो ‘आशिकी-2‘ आपके ज्ञान या संवेदन में कोई इजाफा नहीं कर पायेगी। ‘आशिकी-2‘ मूलतः एक संगीत प्रधान प्रेम कहानी है, जिसमें एक सुपर स्टार सिंगर की कुंठा और नाकामी को जबरन और बेवजह डाला गया है। असल में यह अच्छे अभिनय की फीकी प्रेम कहानी बन कर रह गयी है। दोनों युवा कलाकारों श्रृद्धा कपूर और आदित्य राय कपूर ने अपनी तरफ से बेहतर अभिनय किया है। प्यार, नफरत, दुख, पश्चाताप और फ्रस्ट्रेशन का इमोशन सधे हुए ढंग से निभाया है दोनों ने लेकिन फिल्म की कहानी में ‘लॉजिक‘ नहीं है। गाने भी सुनने में अच्छे लगते हैं और कई संवाद भी मर्मस्पर्शी हैं मगर निर्देशन और कथा में चमक और चुस्ती नहीं है। आदित्य राय कपूर एक सुपर स्टार सिंगर रहा है लेकिन शोहरत और दौलत उसे हजम नहीं हुई। अब वह जिंदगी चलाने के लिए छोटे छोटे शहरों में एकल शो करता फिर रहा है। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि वह हर समय शराब पीता रहता है और दर्शकों, श्रोताओं तथा प्रेस कर्मियों से मारपीट करता रहता है। सिंगर इंडस्ट्री में वह शराबी और कुंठित और नकचढ़ा गायक के तौर पर बदनाम है। लेकिन उसका चरित्र ऐसा क्यों बन गया है, इसका कोई ठोस और विश्वसनीय कारण मौजूद नहीं है। उसके जीवन में एक संघर्षशील गायिका श्रद्धा कपूर अवतरित होती है, जिससे वह तुरंत प्यार करने लगता है और उसे बड़ी गायिका बनाने का जिम्मा लेता है। जब उसके प्रयासों से यह लड़की सफलता की सीढ़ियां चढ़ने लगती है तो नायक अपनी ही बनायी मूरत से ईर्ष्या करने लगता है। हीरोइन की शोहरत हीरो की छाती में सेंध बनाने लगती है और वह खुद को नष्ट करने पर आमादा हो उठता है। हीरोइन का प्यार हीरो को सही सीढ़ियों की तरफ ले चलता है लेकिन हीरो की कुंठा उस सीढ़ी को तोड़ कर उसे आत्महत्या के रास्ते पर ले जाती है। इस हादसे से स्तब्ध हीरोइन पहले गायन से संन्यास लेने का मन बनाती है लेकिन फिर बड़ी गायिका बन कर अपने आशिक का सपना पूरा करने के रास्ते पर चल पड़ती है। अच्छे अभिनय और सुंदर गानों के लिए फिल्म देखी जा सकती है।

निर्देशक: मोहित सूरी
कलाकार: आदित्य राय कपूर, श्रृद्धा कपूर, शाद रंधावा
संगीत: जीत गांगुली, मिथुन, अंकित तिवारी

Monday, April 15, 2013

कमांडो


फिल्म समीक्षा

आतंक कुचलने आया ‘कमांडो‘

धीरेन्द्र अस्थाना

पूरी तरह मसाला फिल्म है लेकिन इतने शानदार ढंग और बेजोड़ समझदारी के साथ बनी है कि आनंद आ जाता है। आने वाले समय में इसके दर्शक बढेंगे। निर्माता विपुल शाह ने फिल्म इंडस्ट्री को जो नया एक्शन स्टार दिया है उससे आने वाले समय में दर्शक काफी उम्मीदें करेंगे इसलिए फिल्म के हीरो विद्युत जामवाल की जिम्मेदारी भी बढ़ जाती है कि वह भविष्य की उम्मीद बनता नजर आये। विद्युत ने पहले भी छोटा मोटा रोल किया है लेकिन ‘कमांडो‘ में वह सचमुच कमांडो बन कर उतरा है। बहुत गहरी वादी में उसे फेंके जाने का जो दृश्य है उसके अलावा तमाम सारे खतरनाक और रोमांचक स्टंट स्वयं विद्युत ने ही किये हैं। एक बातचीत में विद्युत ने बताया भी था कि वह पांच-छह साल की उम्र से ही मार्शल आर्ट की दुनिया में उतर गया था। शायद यही कारण है कि उसके द्वारा की गयी मारामारी में काफी कुछ ताजगी भी है। लेकिन उसका चेहरा इतना भावशून्य और सपाट है कि कई उन युवा एक्टरों की तरह वह रोमांस के जोनर में फिट नहीं बैठ सकता जो रोमांच और एक्शन दोनों को सफलता पूर्वक निभा ले जाते हैं। निर्माता-निर्देशक दोनों इस तथ्य से परिचित रहे हैं इसीलिए उन्होंने फिल्म की हीरोईन पूजा चोपड़ा के मुंह से कहलवा दिया है -‘लोगों के तो कपड़े इस्त्री किए हुए होते हैं पर तुम्हारा तो चेहरा ही इस्त्री किया हुआ है।‘ संवाद और हीरोईन की बात आयी है तो बता दें कि बॉलीवुड को अनुष्का शर्मा जैसी एक और चुलबुली और पंजाबी स्टाइल वाली कुड़ी मिल गयी है। फिल्म में पूजा और विद्युत का जो ड्रीम सीक्वेन्स रखा गया है उसके सभी दृश्यों में पूजा दिलकश और खूबसूरत लगी है। उस पर विशेष बात यह कि पूजा को विभिन्न आयामी अभिनय कला भी आती है। फिल्म दो मजबूत संदेश भी देती है। पहला यह कि कोई भी शख्स यूं ही कमांडो नहीं बन जाता। दस हजार लोगों में से कोई एक व्यक्ति कमांडो बन पाता है। दूसरा संदेश यह कि बॉर्डर पर तैनात जवानों से हमारी सीमाएं सुरक्षित हैं लेकिन गुंडागर्दी, दहशतगर्दी और दादागिरी के नाम पर जो कचरा देश के भीतर इकट्ठा है पहले उसकी सफाई भी जरूरी है। इस कचरे का प्रतीक बना, फुल फॉर्म में आया नया खलनायक जयदीप अहलावत भी अपने अंदाज से दर्शकों को लुभाने में सफल हुआ है। फिल्म का गीत-संगीत भी बेहतर और कर्णप्रिय है। बहुत कसी हुई फिल्म है। एक भी पल बोझिल नहीं है। फिल्म देख लेनी चाहिए। फुल टाइमपास। 

निर्देशक: दिलीप घोष 
कलाकार: विद्युत जामवाल, पूजा चोपड़ा, जयदीप अहलावत 
संगीत: मन्नन शाह

Monday, April 8, 2013

चश्मेबद्दूर


फिल्म समीक्षा

फिर हंसने हंसाने को आयी ‘चश्मेबद्दूर‘

धीरेन्द्र अस्थाना

अगर आप बहुत दिनों से खुल कर नहीं हंसे हैं तो डेविड धवन द्वारा निर्देशित ‘चश्मेबद्दूर‘ देख आयें। यह पुरानी ‘चश्मेबद्दूर‘ का लगभग कहानी के स्तर पर जरूर रीमेक है लेकिन संवेदना, सोच, ट्रीटमेंट, मुहावरा और अभिनय आज के युवा समय का है इसलिये आर्श्चय नहीं कि युवा दर्शक इसे हाथों हाथ लें। फिल्म का गाना ‘हरेक दोस्त कमीना होता है‘ पहले ही महापॉपुलर हो चुका है लेकिन अगर इसे फिल्म के बीच में कहीं शूट किया जाता तो गाने का मजा दुगना हो जाता। गाना चल रहा होता है और दर्शक उठकर जा रहे होते हैं क्योंकि फिल्म समाप्त हो चुकी होती है। भले ही फिल्म में बड़े सितारे नहीं हैं लेकिन इस फिल्म की स्टार वेल्यू इसका निर्देशन और युवा अभिनेताओं का सहज, कॉमिक और यथार्थवादी अभिनय है। डेविड धवन ने कहीं भी फूहड़ सिचुएशन का सहारा नहीं लिया है। वह संवादों, स्थितियों और कलाकारों के जरिये दर्शकों को पूरी फिल्म में लगातार हंसाने में सफल हुए हैं। यह फिल्म भी तीन युवा दोस्तों की कहानी है जो मस्तीखोर, मुंहफट और बिंदास हैं। उन्होंने एक साल से न अपनी मकान मालकिन के घर का भाड़ा चुकाया है और न ही रेस्त्रां के मालिक को खाने का बिल अदा किया है। एक दिन उनके जीवन में एक लड़की तापसी पन्नू का आगमन होता है और तीनों उसे दिल दे बैठते हैं। तापसी पन्नू ने इस बिंदास, चुलबुली और स्मार्ट लड़की के किरदार को स्वतः स्फूर्त ढंग से किया है। उसके अभिनय में जरा भी बनावट नहीं लगती। इन तीन दोस्तों अली जफर, सिद्धार्थ और द्विव्येंदु शर्मा में से सिद्धार्थ और द्विव्येंदु लड़की पटाने के चक्कर में जमकर पिटते हैं जबकि अली जफर अपनी सादगी और कमिटमेंट के चलते तापसी का दिल जीतने में कामयाब हो जाता है। इस बात से कुढ़कर दोनों दोस्त अली के दिमाग में तापसी को लेकर अनाप शनाप सस्ती बातें भरते हैं। और दोनों की स्पेशल फ्रेंडशिप में दरार डलवाने में कामयाब हो जाते हैं। इसके बाद शुरू होता है इस कहानी का पार्ट टू। यानी दो प्रेमियों को फिर से मिलाने के लिये कमीने दोस्तों का सच्चा प्रयास। पूरी तरह कॉमेडी और यूथ फिल्म को ऋषि कपूर वाली उपकथा डालकर एक मेच्योर लुक देने का अनूठा प्रयास हुआ है। ऋषि कपूर और लिलेट दुबे का बीस सेकेंड का बारिश वाला दृश्य फिल्म को रोमानी स्तर पर समृद्ध करता है। असल में इस फिल्म का असली मजा इसे देखकर ही लिया जा सकता है क्योंकि हंसाने वाले तमाम दृश्यों को बताया नहीं जा सकता है उनका आनंद उन्हें देखने में ही है। पूरी तरह पैसा वसूल फिल्म है। 

निर्देशक: डेविड धवन
कलाकार: अली जफर, सिद्धार्थ, द्विव्येंदु शर्मा, तापसी पन्नू, ऋषि कपूर, अनुपम खेर, लिलेट दुबे
संगीत: साजिद-वाजिद

Monday, April 1, 2013

हिम्मतवाला


फिल्म समीक्षा

अस्सी का मसाला ‘हिम्मतवाला‘

धीरेन्द्र अस्थाना

अस्सी वाले दशक के आरंभ में एक फिल्म आयी थी हिम्मतवाला। उसके हीरो जितेन्द्र थे और फिल्म सुपर डुपर हिट हुई थी। जरा तीस साल पुराने समय में लौट कर देखें। थोड़ा सा रोमांस, काफी सा एक्शन, रिश्तों का उलटफेर, जमींदार का अत्याचार, भगवान का चमत्कार। यह बॉलीवुड का उन दिनों का मसाला था जो फिल्मों को हिट करवा देता था। निर्देशक साजिद खान ने उस समय और उस मसाले को दो हजार तेरह में क्रिएट किया है। देव डी, विकी डोनर या रॉक स्टार जैसी फिल्मों को पसंद करने वाले आज के युवा दर्शकों को अजय देवगन अभिनीत ‘हिम्मतवाला‘ थोड़ी अटपटी लग सकती है लेकिन फिल्म इस मायने में उल्लेखनीय है कि उसमें अस्सी के दशक का अभिनय स्टाइल, इमोशन, ड्रामा, समय और संस्कृति रेखांकित हुई है। अगर साजिद ने फिल्म की कहानी को थोड़ा आधुनिक स्पर्श या आयाम दिया होता तो नयी ‘हिम्मतवाला‘ भी बॉक्स आफिस पर धमाल कर सकती थी। पूरी फिल्म अजय देवगन, परेश रावल और महेश मांजरेकर के कंधों पर टिकी है और तीनों ने अपनी अपनी जिम्मेदारी सफलता से निभायी है। बहुत दिनों के बाद कोई हीरो (अजय देवगन) शेर से लड़ता हुआ दिखाया गया है। रामनगर नाम के गांव में शेरंिसंह (महेश मांजरेकर) का निरंकुश और जुल्मी साम्राज्य है। परेश रावल उसका साला, सहयोगी और सिपहसालार है। गांव के ईमानदार पंडित (अनिल धवन) को ये लोग चोरी के आरोप में फंसा देते हैं। पंडित आत्महत्या कर लेते हैं। जमींदार उनका घर जलवा देता है और पंडित की पत्नी जरीना वहाब तथा उनकी बेटी को गांव से निकाल देता है। पंडित का बेटा रवि (रितेश देशमुख) शहर चला जाता है। शहर में उसका दोस्त अजय देवगन है जो एक जांबाज और नामी स्ट्रीट फाइटर है। एक दिन रितेश को पता चलता है कि रामनगर में उसकी मां और बहन जिंदा हैं और बुरे हाल में हैं। रितेश और अजय दोनों गांव जाने का प्लान बनाते हैं लेकिन रितेश एक ट्रक एक्सीडेंट में मारा जाता है। अजय देवगन रवि बनकर गांव पहुंचता है और असली फिल्म यहीं से शुरू भी होती है। अजय गांव वालों को जमींदार के अत्याचार से बचाता है। जले हुए घर को फिर से बसाता है। मां और बहन को नया सम्मानजनक जीवन देता है लेकिन तभी एक घटना के कारण यह राज खुल जाता है कि अजय देवगन रवि नहीं है। इसके बाद बहुत सारा ड्रामा है जिससे रू-ब-रू होने के लिये फिल्म देखना ज्यादा बेहतर होगा। फिल्म की हीरोइन तमन्ना की काया तो बेहद खूबसूरत है लेकिन हिंदी फिल्मों में जमने के लिये खूबसूरत अभिनय की दरकार होती है। यह उन्हें जल्द ही समझ लेना होगा। फिल्म में दो दर्शनीय आइटम नंबर भी हैं।

निर्देशक: साजिद खान
कलाकर: अजय देवगन, तमन्ना, परेश रावल, महेश मांजरेकर, जरीना वहाब
संगीत: साजिद-वाजिद