Monday, March 26, 2012

एजेंट विनोद

फिल्म समीक्षा

स्पीडी और स्टाइलिश एजेंट विनोद

धीरेन्द्र अस्थाना

कई बार रुक-रुककर बनी सैफ अली खान की महत्वपूर्ण और महत्वाकांक्षी फिल्म ‘एजेंट विनोद’ सिर्फ स्टाइलिश और स्पीडी है। जासूसी और आतंकवादी विरोधी विषय पर पहले भी बहुत सारी फिल्में बनी हैं। यह एक और ऐसी ही फिल्म है। लगभग तीन घंटे लंबी यह फिल्म दर्शकों को बोर नहीं होने देती, यही इसकी खूबी है। वरना तो इतनी महंगी फिल्म बनना ही निरर्थक हो जाता। श्रीराम राघवन की निर्देशन पर शुरू से ही पकड़ बनी रहती है और पटकथा भी ढीली नहीं पड़ने पाती। सैफ अली खान का एक्शन रोचक, रोमांचक और तेज रफ्तार बाइक जैसा है। करीना कपूर ने भी एक्शन दृश्यों में अपनी तरफ से भरपूर मेहनत की है। लेकिन सैफ और करीना दोनों ही इमोशनल फिल्मों में ज्यादा प्रभावशाली और जीवंत लगते हैं। यह ठीक है कि सैफ ने सलमान, आमिर, शाहरुख और अक्षय कुमार से कमतर एक्शन नहीं किया है लेकिन न जाने क्यों सैफ के चेहरे और चरित्र पर ‘हम तुम’ या ‘लव आजकल’ जैसा किरदार ही ज्यादा भाता है। करीना को तो खुद को भावना प्रधान या चरित्र प्रधान किरदारों पर ही केंद्रित करना चाहिए। उसी के लिए वह जानी और पहचानी जाती हैं और वही उनका अपना ठप्पा भी है। अभिनय और निर्देशन के बाद तीसरी खूबी फिल्म की यह है कि ढेर सारे चरित्रों से भरी होने के बावजूद फिल्म का प्रत्येक एक्टर न सिर्फ परिभाषित है बल्कि अपनी ‘जर्नी’ भी पूरी करता है। फिर चाहे वह माफिया डॉन के रूप में प्रेम चोपड़ा हों, या कर्नल के रूप में आदिल हुसैन। सैफ एक भारतीय खुफिया अधिकारी है और करीना पाकिस्तानी जासूस। सैफ एक न्यूक्लीयर बम का पीछा करने के मिशन पर है। वह अपने मिशन में कामयाब भी होता है लेकिन इस दौरान गोलीबारी में, अपनी प्रेमिका बन चुकी, करीना कपूर को खो देता है। पता नहीं हीरोइन की मृत्यु को दर्शक पसंद करेंगे या नहीं लेकिन करीना का मरना कहानी में अनिवार्य नहीं था। जो भी हो ‘एजेंट विनोद’ एक दिलचस्प फिल्म तो है ही, यह अलग बात है कि वह हमारे ज्ञान या संवेदना में कोई इजाफा नहीं करती।

निर्देशक: श्रीराम राघवन
कलाकार: सैफ अली खान, करीना कपूर, प्रेम चोपड़ा, मरयम जकारिया, आदिल हुसैन, गुलशन ग्रोवर, रवि किशन
संगीत: प्रीतम चक्रवर्ती

Thursday, March 22, 2012

कहानी

फिल्म समीक्षा

अद्भुत और यादगार ‘कहानी‘

धीरेन्द्र अस्थाना

लगातार नयी उंचाइयों को नाप रहे हैं विद्या बालन के कदम। ‘डर्टी पिक्चर‘ के बाद एक और यादगार फिल्म जो विद्या बालन के विलक्षण अभिनय के कारण हिंदी सिनेमा के इतिहास में दर्ज की जाएगी। निर्देशक सुजोय घोष की ‘कहानी‘ एक सस्पेंस थ्रिलर होने के बावजूद थोड़ी बौद्धिक जरुर हो गयी है लेकिन कसी हुई पटकथा और रोचक घटना क्रम के कारण बांध कर रखने में सफल है। फिल्म का अंत थोड़ा जटिल और सांकेतिक है जो दर्शकों को उलझा देता है। अगर अंत को थोड़ा स्पष्ट और सरल कर दिया जाता तो आम दर्शक फिल्म का मजा खुलकर ले सकते थे। यह बात आम दर्शक को जल्दी समझ में नहीं आएगी कि फिल्म की प्रमुख पात्र विद्या बागची (विद्या बालन) और उसका पति अरनब दोनों ही खुफिया ऑफिसर थे, कि मेट्रो ट्रेन के गैस हादसे में आम लोगों के साथ अरनब भी मारा गया था, कि इस हादसे को अंजाम देने वाले आतंकवादी को खोजने और उससे बदला लेने के लिए ही विद्या कोलकाता आयी थी, कि आतंकवादी मिलन दामजी का सफाया करने के लिए ही विद्या ने गर्भवती औरत का भेष धरा था कि मिलन दामजी तक पहुंचने के लिए खुफिया तंत्र विद्या का नहीं बल्कि विद्या ही खुफिया तंत्र का इस्तेमाल कर रही थी। इतने सारे पंेच समझने के लिए अगर दर्शकों को माथापच्ची न करनी पड़ती तो ‘कहानी‘ भी ‘डर्टी पिक्चर‘ की तरह हिट हो जाती। जो भी हो इस फिल्म में भी विद्या बालन ने साबित कर दिया है कि वह अपने अकेले के दम पर भी पूरी फिल्म चला सकती है। उसे किसी बड़े स्टार की बैसाखी नहीं चाहिए। हाव भाव, चाल-ढाल और मेकअप (साधारण स्त्री का रुप) से विद्या बालन ने एक गर्भवती स्त्री के किरदार को जितने सहज और प्रभावशाली ढंग से व्यक्त किया है, वह सचमुच अजब-गजब लगता है। फिल्म में विद्या का किरदार इतना विराट हो गया है कि बाकी के चरित्र ‘सपोर्टिंग एक्टर‘ जैसे हो गये हैं। ‘कहानी‘ की सबसे जबर्दस्त खूबी यह है कि फिल्म की असली कहानी अंत तक ‘लीक‘ नहीं होती इसीलिए अंत में जब विद्या बालन अपना भेष उतार कर मिलन दामजी की हत्या करती है तो दर्शक अवाक रह जाते हैं। तेज तर्रार ,बद्दिमाग और खतरनाक खुफिया ऑफिसर के रुप में नवाजुद्दीन सिद्दीकि ने विद्या की ताली से अपनी ताली मिलायी है। अवश्य ही देखने वाली अवार्ड बटोरु फिल्म है।

निर्देशकः सुजोय घोष
कलाकारः विद्या बालन, परमव्रत चट्टोपाध्याय, नवाजुद्दीन सिद्दीकि,दर्शन जरीवाला
संगीतः विशाल-शेखर

पान सिंह तोमर

फिल्म समीक्षा

बगावत के बीहड़ में पान सिंह तोमर

धीरेन्द्र अस्थाना

बरसों बरस पुरानी कहावतें हैं, घटनाएं हैं और उदाहरण हैं-कोई जन्मजात अपराधी या डकैत या बागी नहीं होता। सामाजिक-राजनैतिक-प्रशासनिक अन्याय और दमन ही आदमी को बगावत के बीहड़ में धकेलता है। जुल्म के विरुद्ध हथियार उठा लेने के पीछे हमेशा से यही एक यथार्थ काम करता आ रहा है। जब इस यथार्थ को बाजार की चाशनी में लपेट कर रोमानी नजरिए से धर्मेन्द्र, सुनील दत्त, दिलीप कुमार, अमजद खान की फिल्में बनायी जाती हैं तो वह शुद्ध मनोरंजन होता है। लेकिन जब इस यथार्थ को समकालीन और ज्वलंत प्रश्नों का ताना बाना पहना कर पेश किया जाता है तो वह विमर्श बनता है। निर्देशक तिग्मांशु धूलिया की नयी फिल्म ‘पान सिंह तोमर‘ इसी विमर्श और मकसद वाली श्रेणी की फिल्म है जो ‘मीनिंगफुल सिनेमा‘ के दायरे को थोड़ा और बड़ा करती है। देश के लिए गोल्ड मेडल जीतने वाले एक तेज धावक पान सिंह तोमर के बागी बन चंबल के बीहड़ में उतर जाने के सफर को अत्यंत सधे हुए और रोचक ढंग से बयान करने वाली यह फिल्म खेल और डकैती के कोलाज तथा द्वंद्व को जिस प्रभावशाली ढंग से उठाती है, वह अद्भुत और अविस्मरणीय है। फिल्म देख कर लगता है कि पान सिंह तोमर के सरल और जटिल चरित्र का विरोधाभास जिस अंदाज और अदा के साथ इरफान खान ने निभाया है वैसा किसी स्टार कलाकार के लिए करना शायद बेहद कठिन होता। कहानी सिर्फ इतनी है कि इरफान एक सरल ग्रामीण है जो फौज में शामिल होता है। उसका रुझान दौड़ने में है सो वह धावक बन जाता है। पूरे विश्व में भारत का नाम रौशन करता है। रिटायर होकर जब वह गांव लौटता है तो उसका अपना चचेरा परिवार जुल्म की बंदूकें ताने वहां तैनात मिलता है। पुलिस-प्रशासन से न्याय नहीं मिलता तो मजबूरी में पान सिंह तोमर हाथ में बंदूक लेकर चंबल के बीहड़ में उतर जाता है। वहां वह अपना ‘गैंग‘ बनाता है और एक दिन पुलिस मुठभेड़ में मार दिया जाता है। इस कहानी की लोमहर्षक घटनाओें को निर्देशक ने बेहद ‘कूल‘ ढंग से फिल्माया है। फिल्म का एक भी हिस्सा ‘लाउड‘ नहीं है। डकैत का भी अपना एक परिवार होता है इस सच्चाई के कुछ दृश्यों ने फिल्म को मार्मिक स्पर्श दिया है। फिल्म के संवाद इसकी जान हैं तो अभिनय आत्मा। अनिवार्य रुप से देखने लायक फिल्म है।

निर्देशक: तिग्मांशु धूलिया
कलाकार: इरफान खान, माही गिल, विपिन शर्मा
संगीत: अभिषेक रे

Wednesday, March 21, 2012

जोड़ी ब्रेकर्स

फिल्म समीक्षा
प्यार में पड़ गये ‘जोड़ी ब्रेकर्स‘
धीरेन्द्र अस्थाना

पिछले कुछ समय से जैसी फिल्में आ रही हैं कि नायक-नायिका को एक-दूसरे से अलग होने के बाद पता चलता है कि उन्हें तो प्यार हो गया है। यह भी वैसी ही फिल्म है लेकिन इसमें तो दर्शकों को भी पता चल जाता है कि जोडी तोड़ने का धंधा करने वाले माधवन और बिपाशा बसु को एक-दूसरे से प्यार होने ही वाला है। इन दो अच्छे कलाकारों लेकिन बेमेल जोड़ी को लेकर ‘जोड़ी ब्रेकर्स’ बनाने वाले निर्देशक अश्विनी चौधरी की कहानी पर पकड़ फिल्म शुरू होते ही छूट गयी। इंटरवल तक तो समझ ही नहीं आता कि यह रोमांटिक फिल्म है या कॉमेडी या फिर रोमांटिक कॉमेडी। डाइवोर्स लेने के बाद माधवन को आइडिया आता है कि क्यों न एक-दूसरे से बोर हो चुके पति-पत्नी को तलाक दिलाने का ही धंधा शुरू कर दिया जाए। इस पेशे में उसके साथ एक संयोग के चलते बिपाशा बसु भी पार्टनर बन जाती हैं। दोनों ‘जोड़ी ब्रेकर्स’ का धंधा चल निकलता है लेकिन न तो इन दोनों कलाकारों से और न ही इनके धंधे से दर्शक खुद को ‘को-रिलेट’ कर पाते हैं। आश्चर्य है कि दोनों बेहतरीन कलाकार हैं, इसके बावजूद इनके काम से ऐसा लग रहा था, जैसे यह दोनों पर्दे पर अभिनय की औपचारिकता पूरी करने आए हों। माधवन अपने मोटापे के कारण आज के नहीं, संजीव कुमार या शम्मी कपूर के समय के हीरो जैसे लगने लगे हैं। एक नये सौदे के तहत दोनों ग्रीस जाते हैं और मिलिंद सोमण तथा उनकी पत्नी के बीच भारी गलतफहमी क्रिएट करवा के लौट आते हैं। ग्रीस के ट्रिप में माधवन को एहसास होता है कि उसे बिप्स से लव हो गया है लेकिन वह इस तथ्य से मुंह चुरा लेता है। गुस्सैल बिप्स उसके जीवन से निकल जाती है। इस बीच मिलिंद सोमण अपनी पत्नी को छोड़ देता है। दोनों को फिर से मिलाने के लिए माधवन एक बार फिर बिप्स के साथ व्यावसायिक जोड़ी बनाता है क्योंकि उसे एक डाक्टरी रिपोर्ट से पता चलता है कि मिलिंद की पत्नी तो गर्भवती है। अपने अपराध बोध के कारण इस बार वह जोड़ी तोड़ने के नहीं, जोड़ी बनाने के धंधे में उतरता है। इसी प्रक्रिया के चलते बिप्स के साथ एक बार फिर उसकी इमोशनल जोड़ी बन जाती है। पिक्चर को उसका सुखांत मिल जाता है। फिल्म के दो-तीन गाने और बिपाशा का डांस जरूर बेहतर है।

निर्देशक:अश्विनी चौधरी
कलाकार: माधवन, बिपाशा बसु, ओमी वैद्य, मिलिंद सोमण, दीपानिता शर्मा, हेलन
संगीत: सलीम-सुलेमान

एक दीवाना था

फिल्म समीक्षा
कहानी के घर में ‘एक दीवाना था ‘

धीरेन्द्र अस्थाना

बिल्कुल ऐसा लगा जैसे दो हजार बारह के अत्याधुनिक और बेपरवाह समय में सन् सत्तर-पिचहत्तर की कोई साहित्यिक प्रेम कहानी घट रही हो। बहुत दिनों के बाद युवाओं के प्यार पर केंद्रित कोई समझदार, संवेदनशील और विश्वसनीय फिल्म सामने आयी है। निर्देशक गौतम मेनन ने अपनी अगली फिल्म ‘एक दीवाना था ‘ को बेहद साफ सुथरे और कलात्मक ढंग से प्यार की एक ऐसी यात्रा में बदल दिया है जिसमें युवा दिलों की उमंग है, उलझन है, सहजता है, मुश्किल है, कनफ्युजन है और है निर्णय लेने का हौसला। इस फिल्म के माध्यम से ‘यूथ ओरियेन्टेड‘ विषय या विमर्श की कहानी के घर में वापसी हुई है। प्रतीक बब्बर ने अपने सहज और जीवंत अभिनय से यह दर्ज किया है कि बॉलीवुड को एक और नया रोमांटिक हीरो मिल गया है जिस पर भरोसा किया जा सकता है कि बहुत जल्द वह अपना विशेष दर्शक वर्ग बना लेगा। एक मध्यवर्गीय युवक की प्यार पाने की तड़प् और हड़बड़ी को गहरी दीवानगी के साथ अभिव्यक्त करने की उसकी अदाकारी ने फिल्म में जान डाल दी है। कैटरीना कैफ के बाद बॉलीवुड को एमी जैक्सन के रुप में एक और विदेशी हीरोईन मिल गयी है जो भारतीय रंग-ढंग और बॉडी लैंग्वेज के अनुरुप ढल गयी है। अपनी पहली ही फिल्म में एमी ने जता दिया है कि वह भविष्य की उम्मीद है। केरल की लड़की और महाराष्ट्रª का लड़का, इन दोनों युवाओं की उलझन और बाधाओं से भरी प्रेम कहानी को दुखांत पर पहुंचने के बाद जिस खूबसूरती से सुखांत स्पर्श दिया है वह काबिले तारीफ है। कोई बनावटी फार्मूला नहीं। कोई अविश्वसनीय छलांग नहीं। सारा कार्य व्यापार खरी खरी संवेदनाओं का। पूरी उतार चढ़ाव भरी यात्रा बिल्कुल वैसी जैसी जिदंगी की जंग, जिसमें कभी जीत तो कभी हार। कुछ दृश्य और उपकथाएं कमल हासन की फिल्म ‘एक दूजे के लिए‘ की याद दिलाते हैं। नकल के संदर्भ में नहीं प्यार के तीव्र आवेग के संदर्भ में। कुछ संवाद बहुत प्रभावी और यथार्थवादी है। जैसे प्रतीक का एमी को यह कहना-‘वह जो देखते ही शटाक से हो गया था ना , वही प्यार है।‘ या रमेश सिप्पी की फिल्म कर रहे कैमरा मैन का प्रतीक से कहना-‘ अपनी गर्लफ्रेंड के भाई की नाक कोई तोड़ता है क्या?‘ जिंदगी से एमी के चले जाने के बावजूद प्रतीक द्वारा एमी के वजूद में ही रहते रहना और एमी की जिंदगी पर फिल्म बनाना एक दीवाना था को एक मर्मस्पर्शी उंचाई देता है। बारीक प्यार करने और पसंद करने वालों के लिए अनिवार्यतः देखने लायक फिल्म। ए ़ आर ़रहमान और जावेद का जादू बोनस समझ लें।
निर्देशक: गौतम मेनन
कलाकारः प्रतीक बब्बर, एमी जैक्सन,मनु रिषी,सचिन खेडेकर, सामंथा।
संगीत: ए ़ आर. रहमान