Saturday, December 26, 2009

थ्री ईडियट्स

फिल्म समीक्षा

मर्जी के मानचित्र पर थ्री ईडियट्स

धीरेन्द्र अस्थाना

सिनेमा को सपना, सृजन और संभावना बनाने के साथ-साथ व्यावसायिक सफलता के शिखर पर भी खड़ा कर देने की विस्मयकारी कला का नाम है आमिर खान। हंसते गाते हुए एक मर्मस्पर्शी संदेश छोड़ जाना, मनोरंजन को किसी मकसद से जोड़ देना और व्यापार को सार्थकता से नत्थी कर देना यह सिनेमा की एक नयी पटकथा है जो फिल्मकारों को आमिर खान से सीखनी चाहिए। ’थ्री ईडियट्स’ के निर्देशक आमिर खान नहीं हैं लेकिन पूरी फिल्म में आमिर खान की ’वैचारिक इच्छाएं’ फिल्म को उपर उठाती चलती हैं। ’तारे जमीन पर’ के बाद ’थ्री ईडियट्स’ में एक बार फिर आमिर की प्रतिभा का विस्फोट हुआ है। इस फिल्म को ’तारे जमीन पर’ का वयस्क संस्करण भी कह सकते हैं। अपनी मर्जी के आसमान पर बचपन को आकार लेने का जो विमर्श ’तारे जमीन पर’ में स्कूल के स्तर पर रचा गया था ठीक वही विमर्श ’थ्री ईडियट्स’ में कॉलेज के स्तर पर रेखांकित किया गया है। अगर कोई नौजवान लेखक बनना चाहता है तो यह परिवार और समाज उसे इंजीनियर बनाने पर क्यों तुला है? अगर कोई युवक फोटोग्राफर बनना चाहता है तो उसे डॉक्टरी पढ़ने पर क्यों मजबूर किया जाता है। क्या लता मंगेशकर क्रिकेटर और सचिन तेंदुलकर गायक बन सकते थे? कॉमेडी की शक्ल और अंदाज में ’थ्री ईडियट्स’ इसी विमर्श को आगे बढ़ाती है। यह अपनी मर्जी के आसमान पर अपने जीवन को ढालने की वकालात करती है। निर्देशक राजकुमार हिरानी ने मुन्ना भाई एम.बी.बी.एस के बाद पर्दे पर फिर एक कविता रच दी है। फिल्म बनाने का उनका खिलंदड़ा अंदाज उन्हें धारा से अलग करता है। फिल्म के प्रमुख कलाकार हिरानी के अंदाज को अपने अभिनय से उंचाई देते हैं।
करीना कपूर ने ’जब वी मेट’ के बाद फिर एक बार अपनी मौलिक जिंदादिली के दर्शन कराए हैं। करीना का बेलौस अभिनय उन्हें स्टार के अलावा कलाकार का दर्जा भी सौंपता है। आमिर खान निर्विवाद रुप से उत्कृष्ट कलाकार हैं। शरमन जोशी, आर. माधवन और बोमन ईरानी ने भी अपना सर्वश्रेष्ठ प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इस फिल्म को इसके गीत-संगीत और संवाद के लिए भी याद किया जाएगा। यह फिल्म चेतन भगत के उपन्यास पर आधारित रही होगी लेकिन पर्दे तक आते आते यह पूरी तरह राजकुमार हिरानीमय हो गयी है। वर्ष 2009 की इस एक अत्यंत महत्वपूर्ण और सफल फिल्म को देखना अपनी पहली सूची में दर्ज करें। एक नये सिनेमाई अनुभव से वंचित होने की भूल हर्गिज न करें।

निर्माता : विधु विनोद चोपड़ा
निर्देशक : राजकुमार हिरानी
कलाकार : आमिर खान, करीना कपूर, आर. माधवन, शरमन जोशी, बोमन ईरानी, जावेद जाफरी, ओमी
संगीत : शांतनु मित्रा
गीत : स्वानंद किरकिरे

Saturday, December 12, 2009

रॉकेट सिंह: सेल्समैन ऑफ द ईयर

फिल्म समीक्षा

कहानी के घर में ‘रॉकेट सिंह‘

धीरेन्द्र अस्थाना

वैसे तो यशराज, बैनर की नयी फिल्म ‘रॉकेट सिंह: सेल्समैन ऑफ द ईयर‘ को कॉमेडी फिल्म कह कर प्रचारित किया गया है लेकिन हकीकत में यह कॉमेडी से थोड़ा आगे की फिल्म है। यह उन फिल्मों की अगली कतार में खड़ी मानी जाएगी जिनके चलते हिंदी सिनेमा की ‘कहानी के घर में वापसी‘ हुई है। एक सार्थक, चुस्त दुरूस्त, नयी सी कसी हुई कहानी वाली साफ सुथरी मनोरंजक फिल्म है रॉकेट सिंह। जो लोग सिनेमा में एक बेहतर कहानी पसंद करते हैं उन्हें यकीनन यह फिल्म बहुत पसंद आएगी। बॉक्स ऑफिस पर भी फिल्म अच्छा व्यवसाय कर सकती है क्योंकि इसे पसंद न करने का एक भी कारण निर्देशक शिमित अमीन ने छोड़ा नहीं है। फिल्म के कथानक में तो ताजगी है ही, उसे बेहतर ढंग से फिल्माया भी गया है। यह शिमित अमीन निर्देशित तीसरी फिल्म है जिसके जरिए उन्होंने साबित किया है कि वह एक काबिल और सुलझे हुए निर्देशक हैं। इससे पहले की उनकी दो फिल्में भी जबर्दस्त चर्चित रही थीं। सहारा वन मोशन पिक्चर्स की ‘अब तक छप्पन‘ और यशराज की ही ‘चक दे इंडिया‘। अलग-अलग जोनर की फिल्में होने के बावजूद ये दोनों भी सिर्फ एक दमदार कहानी के कारण हिट हुई थीं। ‘रॉकेट सिंह‘ भी कहानी के स्तर पर दम खम वाली फिल्म है।

यह जानना दिलचस्प होगा कि पूरी फिल्म में न तो कोई नाच-गाना है, न मारधाड़ है और न ही कोई चूमा चाटी या आइटम नंबर है। न तो नंगई है, न ही लफंगई तो भी पूरी फिल्म लगातार बांधे रखती है। पूरी तरह मार्केटिंग जैसे शुष्क विषय पर होने के बावजूद ‘राकेट सिंह‘ एक रसीली फिल्म है। एक सिख नौजवान के नये अवतार में रणबीर कपूर ने जता दिया है कि निर्माता-निर्देशक उन्हें लेकर सोलो हीरो वाली फिल्में बना सकते हैं। इतने कम समय में रणबीर ने अपना खुद का एक युवा दर्शक वर्ग खड़ा कर लिया है। इससे जाहिर होता है कि उन्होंने अभिनय के काम में खुद को झोंक दिया है। उनकी सफलता का ग्राफ लगातार बढ़ रहा है। फिल्म में हीरोईन के लिए कोई गंजाइश नहीं थी इसीलिए रणबीर के अपोजिट नया चेहरा रखा गया है। पूरी फिल्म मार्केटिंग की एक अजानी दुनिया से हमारा परिचय कराती है। इस दुनिया को जानना रोचक भी है और रोमांचक भी। फिल्म एक संदेश भी देती नजर आती है - तमाम छल छद्म, गला काट प्रतियोगिता और भ्रष्टाचार के बावजूद व्यापार की बुनियादी ताकत ईमानदारी, प्रतिबद्धता और हौसला ही है। इन्हीं तीन ताकतों के चलते रणबीर कपूर अंततः एक साम्राज्य से टकरा कर भी जीत जाता है। प्रेम चोपड़ा की नए ढंग की अभिनय शैली भी फिल्म का विशेष आकर्षण है। फिल्म को देख लेना चाहिए।

निर्माता: आदित्य चोपड़ा
निर्देशक: शिमित अमीन
कलाकार: रणबीर कपूर, शाजहान पद्मसी, शेरोन प्रभाकर, प्रेम चोपड़ा
कथा: जयदीप साहनी

Saturday, December 5, 2009

पा

फिल्म समीक्षा

नये से अनुभवों की मर्मस्पर्शी ‘पा‘

धीरेन्द्र अस्थाना


एक बार फिर निर्देशक आर. बालकी ने साबित किया कि वह एक बेहतर तथा मंजे हुए फिल्मकार हैं। वह कहानी को खूबसूरत और सधे हुए ढंग से पर्दे पर उतारना जानते हैं। ‘चीनी कम‘ में जहां उन्होंने बुजुर्ग अमिताभ की परिपक्व प्रेम कहानी संवेदना के स्तर पर बुनी थी वहीं ‘पा‘ में बाल अमिताभ की ‘बुजुर्ग त्रासदी‘ को अत्यंत ही मर्मस्पर्शी स्पर्श देने में सफलता पायी है। यह कहना गलत नहीं है कि अमिताभ बच्चन अभिनय का आश्चर्यलोक हैं। ‘ब्लैक‘ फिल्म में उन्होंने अभिनय का एक शिखर छुआ था तो ‘पा‘ में दूसरा शिखर छू लिया। ‘प्रोजेरिया‘ नामक अत्यंत विरल तथा त्रासद बीमारी के शिकार एक बारह-तेरह साल के बुजुर्ग दिखते बच्चे का हैरतअंगेज किरदार निभा कर बिग बी ने सचमुच अभिनय का एक नया ही ‘ककहरा‘ लिख दिया है। इतने विश्वसनीय, जीवंत और विस्मित कर देने वाले अंदाज में अमिताभ ने आॅरो (बच्चे) का चरित्र अदा किया है जिसकी मिसाल हिंदी सिनेमा के इतिहास में हमेशा दी जाया करेगी।

यह एक गंभीर विमर्श है जो दर्शकों से अतिरिक्त समझदारी और संवदेनशीलता की उम्मीद रखता है। मुख्यधारा की फिल्म होने के बावजूद ‘पा‘ उन साधारण फिल्मों से अलग है जो ‘मौज मजे‘ के लिए देखी जाती हैं। इस फिल्म में दर्शक लगातार कुछ नये से अनुभवों से गुजरता रहता है। वह ऐसा कुछ घटते देखता है जो अब तक उसके ‘देखे जाने सत्य‘ से बाहर का है। इसके बावजूद कथा के प्रति उसका कौतुक बना रहता है। अनेक मार्मिक प्रसंग ऐसे हैं जहां फिल्म विचलित करती है। ‘गुरू‘ के बाद अभिषेक बच्चन की भी यह एक महत्वपूर्ण फिल्म कही जाएगी। अपने पिता का पिता बनना पर्दे पर भी कठिन होता है। अभिषेक ने यह चुनौती सशक्त और सहज ढंग से निभायी है। मूल रूप से पिता-पुत्र के एक गैर पारंपरिक रिश्ते की व्याख्या करने वाली ‘पा‘ में आर. बालकी ने फिल्म की हीरोईन विद्या बालन के लिए भी भरपूर ‘स्पेस‘ छोड़ा है। विद्या ने अपने लिए छोड़े गये ‘स्पेस‘ को व्यर्थ नहीं जाने दिया है। उन्होंने अपने अभिनय की एक दमदार छाप छोड़ी है। अनेक स्थलों पर उन्होंने शब्दों की जगह भंगिमाओं से अपने चरित्र को अभिव्यक्त किया है। परेश रावल को दर्शक ‘हास्य अवतार‘ में देखने के अभ्यस्त हो गये हैं। इस फिल्म में उनका अलग चरित्र देखने को मिलेगा। फिल्म का गीत-संगीत भी कर्णप्रिय और ताजगी भरा है। कोई भी फिल्म अनायास ही सृजन कैसे बन जाती है इसका प्रतीक है ‘पा‘। अर्थपूर्ण सिनेमा के समर्थक इसे कृपया अवश्य देखें।

निर्माता: ए.बी.कॉर्प.
निर्देशक: आर. बालकी
कलाकार: अमिताभ बच्चन, अभिषेक बच्चन, विद्या बालन, जया बच्चन (फिल्म की टीम का परिचय देती हैं, यह नया स्टाइल है।)
संगीत: इलिया राजा
गीत: स्वानंद किरकिरे

Sunday, November 29, 2009

दे दना दन

फिल्म समीक्षा

हंसने की चाह में 'दे दना दन'

धीरेन्द्र अस्थाना

हास्य सम्राट निर्देशक प्रियदर्शन का जादू देखने सिनेमा हॉल पहुंचने वाले दर्शक निराश हो सकते हैं। जैसी कि आमतौर पर कॉमेडी फिल्में होती हैं ’दे दना दन’ भी एक अतार्किक और शुद्ध हास्य फिल्म है। इंटरवल तक तो कोई कहानी या स्थिति बन ही नहीं पाती है। इंटरवल के बाद जरुर सब पात्र जब होटल में इकठ्ठा हो जाते हैं तब ढेर सारे कन्यूजन, गलत फहमी और सिचुएशन से हंसी का कुछ सामान जुटता है। फिल्म बहुत लंबी हो गयी है। तीन घंटे से भी कुछ मिनट ज्यादा लंबी। बहुत सारी उपकथाएं, पात्र और उलझनें मूल कहानी को दबा लेती हैं। कई जगह हंसी की जगह झुंझलाहट भी होती है क्योंकि अनेक दृश्यों को बहुत ज्यादा खींचा गया है। कई घटनाएं अनावश्यक भी हैं। मूलतरू यह घटनाओं की ही फिल्म है और इसीलिए फिल्म के सभी पात्रों ने अपने उपर घटती घटनाओं को लेकर दर्शकों को हंसाने की जी तोड़ कोशिश की है। इस कोशिश में सबसे ज्यादा कामयाब हुए हैं परेश रावल और जॉनी लीवर क्योंकि उनका हास्य एकदम जीवंत और स्वाभाविक लगता है। बाकी लोगों की कोशिश पकड़ में आती है। हंसने हंसाने वाली एक हल्की फुल्की ’मांइडलेस कॉमेडी’ है ’दे दना दन’। बहुत उंची उम्मीद लेकर देखने न जाएं। इससे बेहतरीन हास्य के पल प्रियद्रर्शन अपनी पुरानी फिल्मों में ज्यादा शानदार और जानदार ढंग से पेश कर चुके हैं।
फिल्म एक अरबपति स्त्री अर्चना पूरन सिंह के यहां बंधुआ मजदूर जैसा जीवन बिताने वाले अक्षय कुमार से आरंभ होती है। अक्षय संयोगवश बने दोस्त सुनील शेट्टी के साथ मिल कर अर्चना के कुत्ते का अपहरण करने का प्रयास करते हैं जो नाकाम होता है। एक गलतफहमी के चलते खबर अक्षय के अपहरण की फैल जाती है। पूरी फिल्म का ताना बाना इसी के इर्द-गिर्द बुना गया है। बीच बीच में परेश रावल के बेटे चंकी पांडे की शादी, नेहा धूपिया की बतौर कॉलगर्ल एंट्री, अक्षय और सुनील शेट्टी के प्रेम प्रसंग, जॉनी लीवर के सुपारी किलर वाले दृश्य रखे गये हैं। पूरी फिल्म का सबसे प्रभावशाली दृश्य होटल में हुए बम धमाके के कारण वाटर टैंक के फूटने से पैदा बाढ़ है। इसी बाढ़ में अर्चना से प्राप्त फिरौती का पैसा डूब कर फिर मिल जाता है। फिल्म के अंत में हंसी का वास्तविक ’दे दना दन’ है।

निर्देशक : प्रियदर्शन

कलाकार : अक्षय कुमार, कैटरीना कैफ, सुनील शेट्टी, परेश रावल, अर्चना पूरन सिंह, जॉनी लीवर, चंकी पांडे, नेहा धूपिया

संगीत : प्रीतम

Saturday, November 21, 2009

कुर्बान

फिल्म समीक्षा

प्रेम से परास्त होता आतंक: कुर्बान

धीरेन्द्र अस्थाना

एकबारगी ऐसा लगा था कि सैफ अली खान का चरित्र आतंकवाद के अक्स में जाकर घुलने ही वाला है। उस वक्त चिंता हुई थी कि ‘बुराई पर अच्छाई की विजय‘ के विरूद्ध जाकर करण जौहर यह कैसा नाकारात्मक पाठ्यक्रम तैयार कर रहे हैं? लेकिन अंत में ऐसा नहीं हुआ। प्रेम के विराट और स्नेहिल संसार के सामने आतंक का दुर्दांत लेकिन बौना विश्व परास्त हो गया। आतंकवाद की काली पृष्ठभूमि पर करण जौहर प्रेम और भविष्य की उजली पटकथा लिखने में कामयाब हुए हैं। यों पटकथा रेंसिल डिसिल्वा की है जो फिल्म ‘कुर्बान‘ के निर्देशक भी हैं। कहानी जरूर करण जौहर की है जो उन्होंने सन् 2000 में सोची थी जब अमेरिका के वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर हमला नहीं हुआ था। यह प्रसंग पटकथा में शामिल किया गया है। बतौर निर्देशक रेंसिल की यह पहली फिल्म है और इसकी तुलना स्वभावतः ‘न्यूयॉर्क‘ से की जाएगी। ‘न्यूयॉर्क‘ आतंकवाद के दुष्प्रभावों पर फोकस करती थी, ‘कुर्बान‘ आतंकवादी की राह में प्यार आ जाने के बाद उसकी बदली हुई सोच पर फोकस करती है। रेंसिल की तारीफ करनी होगी कि पूरी फिल्म में उन्होंने जबर्दस्त तनाव बनाए रखा है। कहानी में कहीं कोई झोल नहीं है। लेकिन यह पूरी तरह से सैफ अली खान की फिल्म है। करीना कपूर जैसी प्रतिभाशाली अभिनेत्री के लिए इसमें कुछ कर दिखाने की कोई गुंजाइश नहीं रखी गयी। सैफ के साथ करीना के अंतरंग रिश्तों को दर्शाने भर के लिए करीना का इस्तेमाल किया गया है। और किसी हीरो के साथ करीना इन दृश्यों को फिल्माने से परहेज कर सकती थीं।
एक और बात। यह एक गंभीर फिल्म है जो देखे जाने से लेकर समझे जाने तक समझदारी की उम्मीद रखती है। मौज-मजा चाहने वाले दर्शक इस फिल्म से निराश होंगे। शायद हुए भी हैं। सिनेमा हाॅल में आम दर्शकों के चालू फिकरे बता रहे थे कि ‘कुर्बान‘ उनके सिर के ऊपर से गुजर रही है। यह करण जौहर कैंप की भी अब तक की सबसे परिपक्व और महत्वपूर्ण फिल्म है। साधन संपन्न फिल्मकारों का फर्ज बनता है कि यदा-कदा वे सिनेमा जैसे शक्तिशाली माध्यम का इस्तेमाल ‘संदेश‘ देने के लिए करें। निर्माण के स्तर पर फिल्म दिव्य, भव्य और संपूर्ण है। गीत-संगीत फिल्म के अनुकूल है। सैफ अली खान अभिनय की नयी ऊंचाइयां तय कर रहे हैं। किरण खेर ने अभिनय का अलग ही आस्वाद दिया है। वह आतंकवादी बनी हैं तो भी उन्हें लेकर गुस्सा नहीं पनपता। ऐसा उनके जानदार और तार्किक अभिनय के कारण है। फिल्म देखें।

निर्माता: करण जौहर
निर्देशक: रेंसिल डिसिल्वा
कलाकार: सैफ अली खान, करीना कपूर, ओम पुरी, किरण खेर, विवेक ओबेरॉय, दिया मिर्जा
संगीत: सलीम-सुलेमान

Saturday, November 14, 2009

तुम मिले

फिल्म समीक्षा

अर्थपूर्ण और तार्किक ‘तुम मिले‘

धीरेन्द्र अस्थाना

महेश भट्ट कैंप से निकली फिल्म के बारे में इतना तो तय रहता है कि वह अर्थहीन और बेहूदी नहीं होगी। भट्ट कैंप का फंडा है छोटा बजट, छोटी स्टार कास्ट लेकिन एक प्रभावित करने वाली हृदयस्पर्शी कहानी। उनकी फिल्में सुपर डुपर हिट नहीं कहलातीं लेकिन अपनी कीमत निकाल लेती हैं। इमरान हाशमी भट्ट कैंप के लगभग स्थायी हीरो हैं और युवा वर्ग में उन्हें पसंद भी किया जाता है। सोहा अली खान भी इस बीच नयी पीढ़ी के बीच स्वीकृत हुई हैं और वह फिल्म दर फिल्म अपने अभिनय में निखार ला रही हैं। यही वजह है कि युवा पीढ़ी का काफी बड़ा तबका ‘तुम मिले‘ देखने पहुंचा। 26 जुलाई 2005 की ऐतिहासिक मुंबई की बाढ़ के बैकड्रॉप पर एक युवा प्रेम कहानी खड़ी की गयी है। इस बाढ़ को भी बड़े पर्दे पर देखने का रोमांच दर्शकों को खींच लाया।

प्रेम कहानी में कुछ भी नयापन नहीं है। सोहा अली खान एक अमीर पिता की आत्मनिर्भर कामकाजी युवती है। इमरान हाशमी एक स्वाभिमानी लेकिन स्ट्रगलर आर्टिस्ट है जो बाजार में बिकने के लिए नहीं बना है। अपने स्वभाव के कारण कला के बाजार में वह ठुकराया जाता है जिससे उसके भीतर कुंठाओं का अंधेरा सघन होता जाता है। इस बीच मनमौजी और फक्कड़ इमरान को सोहा दिल दे चुकी है। दोनों लिव इन रिलेशनशिप के तहत एक साथ रहते हैं। इमरान के जीवन में पसरी आर्थिक तंगी उसे बेचैन बनाती है। वह चिड़चिड़ा, एकाकी और उग्र होने लगता है। दोनों के बीच का प्यार सूखने लगता है। तकरार बढ़ने लगती है। एक दूसरे पर दोषारोपण का दौर शुरू हो जाता है। एक ऐसे ही मोड़ पर इमरान को सिडनी में एक बड़े बजट की फिल्म में क्रिएटिव आर्टिस्ट का जॉब मिलता है। सोहा अपनी नौकरी, अपने रिश्ते छोड़ कर उसके साथ जाने से मना कर देती है।

26 जुलाई 2005 को दोनों एक ही जहाज से मुंबई आये हैं जहां भारी बरसात हो रही है। दोनों अपने अपने रास्ते चले जाते हैं लेकिन भारी बारिश, जाम और तूफान दोनों को फिर से एक बस में मिला देता है। फिल्म ‘टाइटनिक‘ से भी एक दृश्य का आइडिया लिया गया है। पूरी कहानी फ्लैश बैक में घटित होती रहती है। अंत में दोनों को अपनी अपनी गलती का अहसास होता है और फिल्म का सुखी अंत हो जाता है। इस फिल्म की खूबी इसका सधा हुआ निर्माण है। प्रीतम चक्रवर्ती के संगीत निर्देशन में सईद कादरी और कुमार के गीतों को पांच गायकों ने बेहतरीन ढंग से पेश किया है। फिल्म को एक बार देखना चाहिए।

निर्माता: मुकेश भट्ट
निर्देशक: कुणाल देशमुख
कलाकार: इमरान हाशमी, सोहा अली खान
संगीत: प्रीतम चक्रवर्ती

Saturday, November 7, 2009

अजब प्रेम की गजब कहानी

फिल्म समीक्षा

हल्की फुल्की अजब प्रेम की गजब कहानी

धीरेन्द्र अस्थाना

कॉमेडी का दौर है इसलिए राजकुमार संतोषी ने भी हाथ आजमा लिया। कुछ हद तक वह सफल भी हुए हैं। ‘अजब प्रेम की गजब कहानी‘ एक रोमांटिक कॉमेडी है जिसकी सबसे बड़ी उपलब्धि है रणबीर कपूर और कैटरीना कैफ की जोड़ी। पहली बार कैटरीना कैफ को अपना हमउम्र को-स्टार मिला है। दोनों की केमेस्ट्री ने पर्दे पर एक उन्मुक्त और जीवंत उल्लास रचा है। यह जोड़ी भाती है, लुभाती भी है। रणबीर साबित करते हैं कि अभिनय उनके रक्त में रचा-बसा है। कैटरीना भी लगातार मंज रही हैं। विदेश से आकर पहले बॉलीवुड में रिजेक्ट होना फिर उसी बॉलीवुड पर राज करना सिर्फ भाग्य का खेल नहीं है। इसके पीछे कैटरीना की प्रतिभा और परिश्रम भी है। कुल मिला कर यह एक हल्की फुल्की, टाइमपास फिल्म है जिसे कम से कम एक बार देखा जा सकता है - हंसते हंसाने और खिलखिलाने के लिए।

लेकिन... और यह लेकिन थोड़ा वजनदार है। हिंदी सिनेमा में राजकुमार संतोषी टाइमपास फिल्मों के लिए नहीं जाने जाते। मुख्यधारा का सिनेमा बनाने के बावजूद वह कुछ न कुछ संदेश देते भी नजर आते हैं। उनकी दूसरी विशेषता यह है कि वह तर्कपूर्ण फिल्में बनाते हैं। ‘अजब प्रेम की गजब कहानी‘ की सबसे बड़ी कमी यही है कि इसमें तर्क सिरे से गैरहाजिर हैं। यह एक ऐसी फंतासी है जिसमें सब कुछ अतार्किक है।

फिल्म की दूसरी खामी यह है कि इंटरवल तक बांध कर रखने वाली एक मनोरंजक फिल्म इंटरवल के बाद पूरी तरह बिखर जाती है। एक अच्छी भली, युवा दिलों के मासूम रोमांस की ताजगी भरी कहानी काॅमेडी के चक्कर में कई जगह कबाड़ बन गयी है। डॉन वाला पूरा प्रकरण अर्थहीन, बोझिल और अनावश्यक है। इस प्रसंग ने फिल्म को गति देने के बजाय उसे लड़खड़ा दिया। कैटरीना द्वारा उपेन पटेल को प्रेम करने वाली उप कथा भी ठूंसी हुई और बेदम लगती है। फिल्म को नया मोड़ देने की चाह ने उसे पटरी से ही उतार देने का काम कर दिया है। इन दो प्रसंगों के कारण फिल्म थोड़ी लंबी भी हो गयी है। जरा इन दोनों उपकथाओं को माइनस कीजिए। ‘अजब प्रेम की गजब कहानी‘ ज्यादा मनभावन लगेगी। सिर्फ भावाभिव्यक्ति और प्रेम के कुछ ताजे क्षण जुटा दिए गए होते तो फिल्म को स्थायित्व मिल सकता था।

फिल्म का सबसे सशक्त पहलू है इसका गीत-संगीत। प्रीतम चक्रवर्ती ने इस फिल्म में अपनी आत्मा उंडेल दी है। इरशद कामिल, आशीष पंडित और हार्ड कोर के बेहतरीन शब्दों को प्रीतम के यादगार संगीत में के के, सुनिधि चैहान, मीका सिंह, कैलाश खेर समेत कुल पंद्रह गायकों ने अपनी आवाज देकर समां बांधा है।

निर्देशक: राजकुमार संतोषी
कलाकार: रणबीर कपूर, कैटरीना कैफ, उपेन पटेल, दर्शन जरीवाला, गोविंद नामदेव
संगीतकार: प्रीतम चक्रवर्ती

Saturday, October 31, 2009

लंडन ड्रीम्स

फिल्म समीक्षा

लंदन जो एक ड्रीम है।

धीरेन्द्र अस्थाना

विषय पुराना हो तो भी उसे नये तथा आकर्षक अंदाज में कैसे बयान किया जाए, यह कला निर्देशक विपुल शाह को बखूबी आती है। अपनी नयी फिल्म ‘लंडन ड्रीम्स‘ में उन्होंने अपनी इस कला का बेहतरीन नमूना पेश किया है। दो दोस्तों की बचपन की मोहब्बत, उनकी प्रतिभाओं का टकराव, अभिमान की गांठ, पश्चाताप की आग और फिर मेल-मिलाप। इस पचासों बार कही गयी कहानी को विपुल शाह ने ‘लंडन ड्रीम्स‘ में थोड़ा अलग ढंग से कहा है। संगीत की पृष्ठभूमि पर प्रतिभाओं के टकराव तथा दोस्ती के द्वंद्व को विपुल ने भव्य और प्रभावशाली तरीके से रचा है। एक गंभीर यात्रा के बीच में रह-रह कर पड़ता पंजाब का तड़का फिल्म को रोचक बनाये रखता है। सलमान खान ने पंजाबी मुंडे के बिंदास तथा बेलौस चरित्र में मानो खुद को ही उतार दिया है। इसीलिए उनका किरदार जीवंत होने के साथ-साथ विश्वसनीय भी लगता है। ‘गजनी‘ के बाद असिन ने भी मौका गंवाया नहीं है। अपने किरदार के उतार-चढ़ाव को उन्होंने पूरी प्रतिभा और निष्ठा से निभाया है। अजय देवगन का चरित्र संजीदा है जो उनके मूल व्यक्तित्व से मेल भी खाता है। पता नहीं क्यों अजय देवगन कॉमेडी के बजाय गंभीर चरित्रों को ज्यादा सहज और प्रभावी ढंग से निभाते नजर आते हैं। संगीत के स्तर पर भी फिल्म प्रभावित करती है। संगीत की पृष्ठभूमि पर आधारित फिल्म का संगीत तो सबसे पहले प्राणवाण होना चाहिए, जो कि है। प्रसून जोशी के गीतों में न सिर्फ ताजगी है बल्कि वे सार्थक और अर्थपूर्ण भी हैं। बहुत दिनों के बाद मुख्यधारा की कोई फिल्म अपनी संपूर्णता में अच्छी बनी है। एक साफ-सुथरा मनोरंजन पसंद करने वालों को फिल्म पसंद आएगी। स्पष्ट कर दें कि ‘लंडन ड्रीम्स‘ अर्थपूर्ण सिनेमा वाली कतार के बाहर खड़ी फिल्म है। युवा दर्शकों को आकर्षित करने के कई मसाले फिल्म में मौजूद हैं। शायद इसीलिए युवाओं का बड़ा प्रतिशत यह फिल्म देख रहा है। ‘वांटेड‘ के बाद सलमान खान को एक बार फिर सफलता का स्वाद चखने को मिला है। पंजाब और लंदन का कोलाज विपुल शाह का ‘ट्रेड मार्क‘ बनता जा रहा है।

निर्देशक: विपुल शाह
कलाकार: अजय देवगन, सलमान खान, असिन, ओम पुरी
गीत: प्रसून जोशी
संगीत: शंकर-अहसान-लॉस

Saturday, October 10, 2009

एसिड फैक्ट्री

फिल्म समीक्षा

भव्य लेकिन निस्तेज ‘एसिड फैक्ट्री‘

धीरेन्द्र अस्थाना

निर्माता संजय गुप्ता की लंबे समय से मीडिया में छायी हुई फिल्म ‘एसिड फैक्ट्री‘ दर्शक जुटाने में कामयाब नहीं हो सकी। संजय गुप्ता की फिल्में बहुत खर्चीली, भव्य, चकाचैंध में डूबी और तेज गति की होती हैं। यह भी वैसी ही फिल्म है। इस कदर ‘एक्शन पेक्ड‘ की कहानी के बारे में सोचने की मोहलत भी न मिले। इस फिल्म से दीया मिर्जा भी स्टंट कर सकने वाली हीरोईनों में शुमार हो गयी हैं। लेकिन फिल्म के अंत में उनका विलेन का किरदार स्थापित हुआ है जो बतौर हीरोईन उन्हें नुकसान पहुंचा सकता है।
फिल्म में एक साधारण सी कहानी यह है कि फरदीन खान, मनोज बाजपेयी, दीनो मोरिया, आफताब शिवदासानी, डैनी डेनजोंग्पा और दीया मिर्जा एक फैक्ट्री में बेहोश पड़े हैं। सबसे पहले फरदीन खान को होश आता है फिर एक-एक कर बाकी सब को। ये लोग एक ‘एसिड फैक्ट्री‘ में बंद हैं। तमाम लोगों की याद्दाश्त चली गयी है। सब एक-दूसरे पर शक कर रहे हैं। बीच-बीच में एक फोन आता है जो इरफान खान का है। उस फोन से पता चलता है कि फैक्ट्री में बंद कुछ लोग इरफान खान के बंदे हैं और दो लोग बंधक हैं। उनमें से एक बंधक बिजनेसमैन सार्थक है जिसकी पत्नी से तीस मिलियन डाॅलर वसूल कर इरफान खान फैक्ट्री की तरफ आ रहा है। पुलिस उसके पीछे है। पुलिस के साथ इरफान खान की लोमहर्षक मुठभेड़ है जिसमें कई दर्जन कारों को तोड़ा फोड़ा गया है। इधर फैक्ट्री के भीतर एक घटनाक्रम के तहत सबको क्रमशः याद आता है कि वह कौन है और कैसे बेहोश हुआ था। सिर्फ फरदीन खान है जो पुलिस आॅफीसर है। वह इरफान खान का नेटवर्क तोड़ने के लिए उसके गैंग में शामिल हुआ था। लेकिन यह बात फैक्ट्री में बंद किसी भी अपराधी को पता नहीं। इस बीच पुलिस को झांसा देकर इरफान खान ‘एसिड फैक्ट्री‘ में आ पहुंचता है। वह घोषणा करता है कि हममें से कोई पुलिस का आदमी है। थोड़ी बहुत नाटकीयता के बाद खुलासा हो जाता है कि फरदीन खान ही पुलिस अधिकारी है। भयानक मारधाड़ चलती है। फरदीन एसिड सिलेंडरों को गोलियों से उड़ा कर बाहर भाग जाता है। दमघोंटू गैस के फैलने से अपराधी फिर बेहोश हो जाते हैं। तभी पुलिस आ जाती है और पिक्चर का ‘दी एंड‘ हो जाता है। सार्थक और उसकी पत्नी का पुनर्मिलन हो जाता है। दीया मिर्जा समेत बाकी सबको पुलिस पकड़ कर ले जाती है। फिल्म ‘सत्या‘ के बाद पहली बार मनोज वाजपेयी ने बहुत दमदार और यादगार अभिनय किया है। गीत-संगीत साधारण है तो सिनेमेटोग्राफी अद्भुत है।

निर्माता: संजय गुप्ता
निर्देशक: सुपर्ण वर्मा
कलाकार: फरदीन खान, इरफान खान, मनोज वाजपेयी, दीनो मोरिया, आफताब शिवदासानी, डैनी डेनजोंग्पा, दीया मिर्जा
संगीत: शमीर टंडन, रंजीत बारोट, मानसी, बप्पा लाहिरी

Saturday, October 3, 2009

डू नॉट डिस्टर्ब

फिल्म समीक्षा

डेविड धवन ने कुनबा जोड़ा

धीरेन्द्र अस्थाना

बड़ी पुरानी कहावत है - कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमति ने कुनबा जोड़ा। वशु भगनानी जैसे बड़े निर्माता की महंगी फिल्म ‘डू नॉट डिस्टर्ब‘ में निर्देशक डेविड धवन ने भी यही किया है। मुख्य धारा सिनेमा के कुछ लोग मानते हैं कि कॉमेडी एक ऐसा नुस्खा है जो बॉक्स ऑफिस पर कभी फ्लॉप नहीं होता है। बात कुछ हद तक सही भी है। इस भागमभाग, मारकाट, दुख-संताप और गले गले तक गम में डूबी दुनिया का कौन सा ऐसा नागरिक है जो यह कहेगा कि साहब, मैं हंसना नहीं चाहता। जन मानस की इसी कमजोरी को भांप कर कॉमेडी किंग डेविड धवन ने फिर एक माइंडलेस कॉमेडी बनायी है। अगर आपकी दिलचस्पी सिर्फ हंसने-हंसाने में है और सिनेमा का काम आप सिर्फ मनोरंजन करना मानते हैं तो फिल्म को देख आइए। प्रदर्शन के पहले दिन की रिपोर्ट कहती है कि गोविंदा-सुष्मिता-लारा-रितेश देशमुख अभिनीत इस फिल्म को देखने हजारों दर्शक पहुंचे।
यकीनन फिल्म में हंसने हंसाने की कई जबर्दस्त स्थितियां पैदा की गयी हैं। भंगिमाओं से भी, संवादों से भी और सिचुएशंस से भी। कहानी बड़ी साधारण सी है। सुष्मिता सेन एक करोड़पति बिजनेस वुमेन है। गोविंदा उसका पति है जिसे बार बार सुष्मिता यह अहसास दिलाती रहती है कि गोविंदा उसकी कंपनी का कर्मचारी है। लारा दत्ता गोविंदा की गर्लफ्रेंड है जबकि सोहेल खान लारा का सच्चा आशिक है।
सुष्मिता सेन को शक है कि गोविंदा का टांका कहीं और भिड़ा हुआ है। वह प्राइवेट डिटेक्टिव रणवीर शोरी को गोविंदा की जासूसी के लिए तैनात करती है। इधर गोविंदा एक गरीब लेकिन ऐशो आराम पसंद युवक रितेश देशमुख को खरीद कर उसे लारा दत्ता का नकली आशिक बना देता है ताकि प्राइवेट जासूस नाकाम रहे। इस स्थूल सी कहानी के इर्द-गिर्द कुछ उपकथाएं और स्थितियां निर्मित कर पूरी फिल्म बनायी गयी है। गोविंदा हंसाने में माहिर माने जाते हैं। माहिर हैं भी। लेकिन उन्हें अपना वजन कम करना चाहिए। वह काफी थुलथुल नजर आने लगे हैं। सुष्मिता सेन भी मोटी दिखती हैं। हालांकि अदाकारा वह अच्छी हैं। लारा दत्ता और रितेश देशमुख ने भी दर्शकों को हंसाने की भरपूर कोशिश की है। राजपाल यादव तो मूलतः हास्य कलाकार ही हैं। रणवीर शोरी को कॉमेडी नहीं करनी चाहिए। वह उनके बस की बात नहीं है। वह एक संजीदा कलाकार हैं। उन्हें के के मेनन की तरह गंभीर भूमिकाएं ही करनी चाहिए। कॉमेडी और गंभीर अभिनय के बीच का असमंजस उनकी बॉडी लैंग्वेज से साफ पता चलता है। फिल्म के दस गायकों ने मिल कर भी एक गाना ऐसा नहीं गाया जिसे गुनगुनाया जा सके। गीत-संगीत एकदम औसत है। हां, फिल्म की कुछ लोकेशंस आकर्षक हैं।

निर्माता: वशु भगनानी
निर्देशक: डेविड धवन
कलाकार: गोविंदा, सुष्मिता सेन, रितेश देशमुख, लारा दत्ता, सोहेल खान, राजपाल यादव
गीतकार: समीर

Saturday, September 26, 2009

व्हाट्स योर राशि

फिल्म समीक्षा

बारह कहानियों की एक राशि
धीरेन्द्र अस्थाना

आशुतोष गोवारीकर आम तौर पर लंबी फिल्में ही बनाते हैं लेकिन 'व्हाट्स योर राशि' बना कर तो उन्होंने अपना ही रिकॉर्ड तोड़ दिया है। दो घंटे का सिनेमा वाले आज के समय में पौने चार घंटे की फिल्म ... 'मेरा नाम जोकर' की याद आ गयी जो चार घंटे और दो इंटरवल वाली फिल्म थी। फिल्म की एक मात्र विषता प्रियंका चोपड़ा हैं जिन्होंने बारह राशि के बारह विभिन्न किरदारों को अंजाम देने के मामले में यह विश्व रिकॉर्ड है। इससे पहले संख्या और गुणवत्ता के संदर्भ में सिर्फ संजीव कुमार को याद किया जाता है जिन्होंने फिल्म 'नया दिन नयी रात' में नौ चरि़त्र निभाये थे।

प्रियंका के कम से कम दो चरित्र ऑफ बीट हैं। एक सबसे पहला, लगभग गंवई लड़की का। दूसरा एक नाबालिग किशोरी का जो पढ़ना चाहती है लेकिन जिसका पिता पंद्रह साल की छोटी सी उम्र में ही उसका ब्याह रचा देना चाहता है। बारह राशियों की बारह कहानियां हैं जिन पर पूरे विस्तार के साथ बारह राशियों की बारह कहानियां हैं जिन पर पूरे विस्तार के साथ बारह फिल्में बनायी जा सकती थीं। निर्देशक ने बारह जिंदगियों से जुड़ी दास्तानों को एक ही फिल्म में पिरो दिया है। फिल्म तो लंबी बनी ही थी। लंबाई के ही डर से प्रत्येक कहानी को स्पर्श भर किया गया है। कुछ राशियों से जुड़ी प्रियंका के चरित्र, जीवन संघर्ष, स्वप्नों और संवेदना को गहराई और विस्तार से बुना जा सकता था। प्रियंका ने साबित किया है कि वह एक बहुआयामी और बहुमुखी प्रतिभा की धनी अदाकारा हैं। प्रियंका के जीवंत अभिनय के सामने हरमन बावेजा अशक्त नजर आते हैं। फिल्म में प्रियंका के अपोजिट सैफ अली खान होते या ऋतिक रोशन तो फिल्म में जान आ जाती। आशुतोष गोवारीकर को इस बात की बधाई देनी चाहिए कि इतनी लंबी फिल्म को कहानी, संपादन, बुनावट, दृश्यांकन आदि के विभिन्न स्तरों पर उन्होंने इतनी कुशलता से साधे रखा। आश्चर्य कि दर्शन फिल्म को बीच में छोड़ कर नहीं भागे।

कहानी के स्तर पर फिल्म में नयापन यह है कि हरमन बावेजा को दस दिन में शादी करनी है। उसके वैवाहिक विज्ञापन के जवाब में 176 लड़कियों ने आवेदन किया है इसिलए वह प्रत्येक राशि की एक लड़की से मिलना तय करता है। ये बारह मुलाकातें ही फिल्म की रोचकता को बनाए रखती हैं। फिल्म में राजेश विवेक की जासूसी वाला प्रसंग एकदम निरर्थक और उबाउ है। फिल्म का संगीत भी बहुत थका- थका और प्राचीन है। तो भी एक बार देखने लायक फिल्त तो है।
निर्देशक - आशुतोष गोवारीकर
कलाकार - हरमन बावेजा, प्रियंका चोपड़ा, दर्शन जरीवाला 'इनके कारण फिल्म गतिशील रहती है', अंजन श्रीवास्तव, राजेश विवेक।
गीत - जावेद अख्तर
संगीत - सोहेल खान

Saturday, September 19, 2009

वांटेड

फिल्म समीक्षा

सलमान का नया अवतार: वांटेड

धीरेन्द्र अस्थाना


बहुत दिनों के बाद सिनेमाघरों में दर्शकों का जुनून और भागीदारी देखने को मिली। सहारा वन मोशन पिक्चर्स और बोनी कपूर की संयुक्त फिल्म ‘वांटेड‘ आने वाले दिनों में और ज्यादा भीड़ बटोरेगी। खतरनाक खून खराबे के बीच निर्विकार भाव से घटती सलमान खान-आयशा टकिया की प्रेम कहानी बहुत दिलचस्प और ताजगी भरी है। रोमांस और एक्शन सलमान की प्रिय अभिव्यक्तियां हैं लेकिन ‘वांटेड‘ में ये दोनों अभिव्यक्तियां शिखर पर हैं। तीन घंटे लंबी फिल्म में एक पल भी ऐसा नहीं आता कि बोरियत का अहसास हो। पूरी तरह एक्शन पैक्ड फिल्म है। फिल्म के निर्देशक प्रभु देवा हैं इसलिए फिल्म में डांस के नये नये आयाम और स्टेप्स भी देखने का सुख जुड़ जाता है। फिल्म का संपादन बहुत स्तरीय और कसावट लिये हुए है। एक भी फ्रेम ढीला-ढाला या अप्रासंगिक नहीं है। इसके लिए संपादक दिलीप देव को बधाई देनी होगी कि इतनी लंबी फिल्म में भी उन्होंने कोई झोल नहीं रहने दिया है। फिल्म का गीत-संगीत भी दिलकश और कर्णप्रिय है। सलमान के खतरनाक स्टंट और फाइट दृश्यों पर दर्शक जिस तरह ताली और सीटी बजा रहे थे वह युवाओं में उनकी लोकप्रियता का प्रतीक है। फिल्म के अंतिम दृश्य में जब अपनी जलती हुई शर्ट उतार कर सलमान अपना दमकता चमकता गठीला जिस्म दिखाते हैं और गुंडों पर कहर बन कर टूटते हैं उस वक्त तो युवाओं का समूह कुर्सियों से खड़ा होकर नाचने लग जाता है।
फिल्म के खुशगवार डांस आइटम में गोविंदा, अनिल कपूर और प्रभु देवा भी डांस के जलवे दिखाते हैं। इससे फिल्म की स्टार वेल्यू बढ़ गयी है। फिल्म में विनोद खन्ना भी अपने सशक्त अंदाज में मौजूद हैं। फिल्म का रहस्य अंत तक बरकरार रहता है। पैसा लेकर किसी का भी बर्बरता पूर्वक मर्डर करने वाले सलमान अंत में देशभक्त पुलिस आॅफीसर निकलते हैं जो अंडरवल्र्ड के खतरनाक गुर्गों का सफाया करने के काम में लगे हैं। विनोद खन्ना उन्हीं के पिता हैं जो इंटरनेशनल डाॅन गनी भाई के हाथों मारे जाते हैं। जाहिर है, अब गनी भाई को सलमान तड़पा तड़पा कर मारते हैं। दक्षिण के प्रसिद्ध कलाकार प्रकाश राज ने माफिया डाॅन के रूप में यादगार और अलहदा किरदार निभाया है। गोविंद नामदेव और महेश मांजरेकर ने अपने पुलिसिया चरित्रों के साथ न्याय किया है। तनाव, मारधाड़, नाच-गाना, मौज-मजा, रोमांस और मस्ती का एक जीवंत गुलदस्ता जैसी है ‘वांटेड‘ जिसे शुद्ध मनोरंजन की दृष्टि से बनाया गया है। अपने उद्देश्य में फिल्म सफल है। लंबे समय बाद आयशा टकिया ने भी कुछ कर दिखाने का प्रयास किया है। फिल्म में कहीं कहीं हास्य के क्षण भी हैं, जो गुदगुदाते हैं और फिल्म में ‘रिलीफ‘ की तरह आते हैं।

निर्माता: सहारा वन मोशन पिक्चर्स - बोनी कपूर
निर्देशक: प्रभु देवा
कलाकार: सलमान खान, आयशा टकिया, महेश मांजरेकर,, प्रकाश राज, विनोद खन्ना, गोविंद नामदेव, असीम मर्चेन्ट, महक चहल
संगीतकार: साजिद-वाजिद

Saturday, September 12, 2009

बाबर

फिल्म समीक्षा

अंडरवर्ल्ड का नया अध्याय: बाबर

धीरेन्द्र अस्थाना

रामगोपाल वर्मा की फिल्म ‘सत्या‘ के बाद अंडरवर्ल्ड की सरजमीन पर फिल्में तो कई आयीं लेकिन वह कोई नया सिनेमाई अहसास नहीं दे पायीं। लंबे समय के बाद अपराध फिल्मों के नक्शे पर ‘बाबर‘ के रूप में एक नया अध्याय दर्ज हुआ है। ऐसी फिल्मों के लिए अब तक मुंबई को ही आदर्श माना जाता था। लेकिन पिछले कुछ समय से अपराध पर मुंबई का दबदबा कमजोर हुआ है। गैंगवार या जुर्म की काली दुनिया के रूप में अब उत्तर भारत पर फोकस किया जा रहा है। ‘बाबर‘ का इलाका भी कानपुर और आसपास है।

‘बाबर‘ का कथानक नया नहीं है लेकिन उसे प्रस्तुत करने का अंदाज ताजगी भरा है। फिल्म का शिल्प बहुत ताकतवर और बुनावट सधी हुई है। पूरी फिल्म एकदम अंत तक दर्शकों को बांधे रखने में सफल है। काफी समय बाद कोई इतनी तेज गति वाली फिल्म देखी है कि सांसों की आवा-जाही का भी ख्याल नहीं आता। फिल्म का शाश्वत संदेश है - जब तक अपराध के कारणों को नष्ट नहीं किया जाएगा तब तक नये नये माफिया सरगना पैदा होते रहेंगे। और कारणों को जड़ से खत्म नहीं किया जा सकता क्योंकि कारण सत्ता के गलियारों और गरीबी के नरक में बजबजा रहे हैं। असमानता से पैदा होता है अपराध। ‘बाबर‘ इसी विमर्श का अत्यंत जीवंत और विश्वसनीय पाठ पेश करती है।

अगर कोई सिनेमाई साजिश नहीं हुई और बाबर बने नवोदित एक्टर सोहम शाह को काम मिलता रहा तो वह लंबी सीढ़ियां चढ़ेगा। लड़के में दम है - लड़ने भिड़ने का भी और भावनाओं को प्रभावी तरीके व्यक्त करने का भी। फिल्म में वह तमाम मसाले हैं जो ऐसी फिल्मों के लिए जरूरी होते हैं। खून-खराबा, मारा-मारी, गाली-गलौज, नाच-गाना, राजनीति, कोर्ट-कचहरी और पुलिस। लेकिन इस सबका बेहद संतुलित कॉकटेल पेश किया है निर्देशक आशू त्रिखा ने। सोहम शाह के अलावा बाकी सब महारथी कलाकार हैं। ओम पुरी, मिथुन चक्रवर्ती, गोविंद नामदेव, टीनू आनंद, शक्ति कपूर, मुकेश तिवारी, सुशांत सिंह। सब मंजे हुए एक्टर हैं। इन सबके प्रभावशाली अभिनय ने भी फिल्म को एक लयात्मक गति देने का काम किया है। उर्वशी शर्मा का ‘आइटम डांस‘ अच्छा है। फिल्म में उसका ‘स्पेस‘ बहुत कम है। फिल्म का ‘मौला मौला‘ वाला गीत कर्णप्रिय और अर्थपूर्ण तो है ही फिल्म में घटती घटनाओं पर टिप्पणी करने की भी भूमिका निभाता है। फिल्म को देख लेना चाहिए, घाटा नहीं होगा।

निर्देशक: आशू त्रिखा
कलाकार: सोहम शाह, मिथुन चक्रवर्ती, ओम पुरी, गोविंद नामदेव, उर्वशी शर्मा, मुकेश तिवारी।
संगीतकार: आनंद राज आनंद

Saturday, September 5, 2009

थ्री

फिल्म समीक्षा

सफल नहीं हुआ ‘थ्री‘ का फंडा

धीरेन्द्र अस्थाना

इतनी खराब फिल्म भी नहीं है कि एक बार भी न देखी जा सके। दर्शक बटोरने के लिए विक्रम भट्ट ने ‘थ्री‘ का न्यूमरोलॉजिकल फंडा भी अपनाया था लेकिन टिकट खिड़की पर यह फंडा सफल नहीं हुआ। तीन पात्रों वाली फिल्म ‘थ्री‘ को अच्छी ओपनिंग नहीं मिल सकी। मल्टीप्लेक्स थियेटरों में किसी भी फिल्म का कोई शो तभी चलाया जाता है जब उसे देखने कम से कम छह दर्शक आएं। सिनेमेक्स, मीरा रोड में ऐन शो के वक्त एक युवा जोड़े के आ जाने से कोरम पूरा हुआ वरना ‘थ्री‘ का तीन बजे का पहला शो रद्द होने वाला था।
फिल्म में एक रहस्यमयी प्रेम कहानी कहने का अच्छा प्रयास किया गया है। फिल्म को बुना भी ढंग से गया है। कहीं कोई अश्लीलता भी नहीं है। फिल्म के संवाद सशक्त हैं जो प्रभावित करते हैं। फिल्म के तीनों पात्रों ने अपने अपने स्तर पर अच्छा अभिनय करने का प्रयत्न किया है। पूरी फिल्म में सस्पेंस भी कायम रहता है। लोकेशंस भी अच्छे हैं। गीत-संगीत भी ठीक-ठाक है। इस सबके बावजूद दर्शक फिल्म देखने नहीं पहुंचे तो इसका एक ही कारण हो सकता है कि फिल्म का सुनियोजित और व्यापक प्रचार नहीं किया गया। एक वजह यह भी रही कि इस बार एक साथ छह फिल्में रिलीज हुईं। दर्शक भ्रमित भी हुए और बंट भी गये।
आरंभ में ऐसा आभास होता है कि ‘थ्री‘ एक विवाहेतर रिश्तों पर बनी आम फिल्म है, जिसे कुछ नये अंदाज में पेश किया जा रहा है। बाद में पता चलता है कि यह प्यार के नाम पर ब्लैकमेलिंग की कहानी है जिसे आशीष चैधरी अंजाम दे रहा है। सबसे अंत में इस रहस्य से पर्दा उठता है कि नौशीन अली की करोड़ों रुपये की कोठी पर कब्जा करने के लिए पति अक्षय कपूर और तथाकथित प्रेमी आशीष चैधरी की संयुक्त साजिश है। मतलब एक स्त्री के साथ दो पुरुषों ने मिल कर ‘इमोशनल अत्याचार‘ किया है। कमीनेपन के इस क्रूर खेल में दोनों पुरुषों को अपने बौद्धिक कौशल से नौशीन परास्त कर देती है। पति नौशीन के हाथों मारा जाता है लेकिन जब आशीष अक्षय को दफना रहा होता है तब पुलिस के हाथों धर लिया जाता है। नौशीन पुलिस को फोन करके बता देती है कि आशीष उसे घायल कर के पति को मारने गया है। इस प्रकार प्यार में घायल औरत अपना इंतकाम ले लेती है और पुनः अपनी पैतृक कोठी में बच्चों को वायलिन सिखाने का काम शुरू कर देती है। इस प्रकार एक क्रूर दुनिया में वह अपना ‘स्पेस‘ बचा लेती है। दोनों पुरुष एक्टरों के मुकाबले नयी नौशीन ने ज्यादा परिपक्व, संवेदनशील और बेहतर अभिनय किया है। एक बार देखी जा सकती है यह फिल्म।
निर्माता: विक्रम भट्ट
निर्देशक: विशाल पंड्या
कलाकार: आशीष चैधरी, नौशीन अली, अक्षय कपूर
संगीत: चिरंतन भट्ट

Saturday, August 29, 2009

किसान

फिल्म समीक्षा

अच्छी नीयत से बनायी गयी ‘किसान‘

धीरेन्द्र अस्थाना


अचानक ऐसा लगा जैसे हम सातवें-आठवें दशक के समय में बैठ कर ‘मेरा गांव मेरा देश‘ या ‘उपकार‘ जैसी कोई फिल्म देख रहे हैं। ‘कमीने‘, ‘देव डी‘, ‘न्यूयार्क‘ जैसी प्रयोगधर्मी और यथार्थवादी फिल्मों के इस दौर में ‘किसान‘ जैसी पुरानी शैली और भावुकता भरी फिल्म देखना एक विरल अनुभव है। इसमें कोई शक नहीं कि ‘किसान‘ को सदिच्छा और अच्छी नीयत के साथ बनाया गया है। यह महानगरों के मल्टीप्लेक्स थियेटरों के लिए बनी हुई फिल्म नहीं है। लेकिन हिंदुस्तान तो छोटे शहरों-कस्बों में ही बसता है। वहां के सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों में ‘किसान‘ चल सकती है। निर्माता सोहेल खान की इस बात के लिए तारीफ करनी पड़ेगी कि इस उत्तर आधुनिक समय में उन्होंने गांव के किसानों के शोषण और उनकी जमीन हड़पने की साजिशों को स्पर्श करने का प्रयास किया। आज के ‘युवा केंद्रित दौर‘ में किसानों की दुर्दशा पर फिल्म बनाना बड़े जिगर का काम है।

संयोग से फिल्म में सोहेल का नाम भी जिगर ही है। वह जैकी श्रॉफ के छोटे बेटे के किरदार में है जो खांटी किसान है, पिता की तौहीन बर्दाश्त नहीं कर सकता और गुस्सैल स्वभाव का है। अरबाज खान का किरदार जैकी के बड़े बेटे अमन का है जो पढ़ लिख कर आधुनिक वकील बन गया है और शहर में जा बसा है। दीया मिर्जा अरबाज की पत्नी के रोल में हैं। नौहीद साइरसी सोहेल की पत्नी के रोल में है। पंजाब के एक गांव की इस सीधी सादी फिल्म में पारंपरिक रूप से कुछ अच्छे चरित्र हैं, तो कुछ बुरे। बुरे चरित्र शहर के उद्योगपति दिलीप ताहिल का साथ देते हैं। कुछ लालच और कुछ गलतफहमियों के चलते अरबाज खान भी दिलीप ताहिल के पाले में खड़ा नजर आता है। अरबाज की गैर जानकारी में दीया मिर्जा ‘दिलीप ताहिल विरुद्ध किसान‘ केस पर काम कर रही हैं। दीया को बुरे लोग जला देते हैं। जैकी के आदेश पर सोहेल खान और उसके साथी तमाम बुरे लोगों को मार डालते हैं। गुंडों के द्वारा किसानों की हत्या करवा के आत्महत्या प्रचारित करवा देने तथा उनकी जमीनों को हड़पने के आरोप में सीबीआई दिलीप ताहिल को गिरफ्तार कर लेती है। अरबाज खान की गलतफहमी दूर होती है। बिछड़ा हुआ नाराज बेटा अपने बाप और भाई से आ मिलता है। बुराई पर अच्छाई की विजय होती है। इस कहानी में बीते समय की फिल्मों जैसा थोड़ा रोना-धोना, थोड़ी बीमारी, थोड़ा इमोशनल ड्रामा और थोड़ी मारा-मारी का तड़का भी है।
जैकी सिख किसान के वेष में जीवंत और प्रभावी लगते हैं। सोहेल खान ने प्रतिबद्ध बेटे का किरदार शानदार ढंग से निभाया है। फिल्म में कुल सोलह गायकों ने अपनी आवाज दी है। भावुक दर्शक फिल्म देख सकते हैं।

निर्माता: सोहेल खान
निर्देशक: पुनीत सीरा
कलाकार: जैकी श्रॉफ, सोहेल खान, अरबाज खान, दीया मिर्जा, नौहीद सायरसी, दिलीप ताहिल
संगीतकार: डब्बू मलिक

Saturday, August 22, 2009

सिकंदर

फिल्म समीक्षा

सिकंदर: बचपन की आंख से आतंक

धीरेन्द्र अस्थाना

लीक से हटकर, अर्थपूर्ण सिनेमा बनाने वालों की जमात में आतंक एक प्रिय विषय है। निर्देशक पीयूष झा ने अपनी फिल्म ‘सिकंदर‘ में आतंकवाद की इबादत को बचपन की आंख से रेखांकित करने की कोशिश की है। बस एक यही बात इसे अन्य आतंकवाद आधारित फिल्मों से अलग करती है। बहुत जमाने के बाद ‘सिकंदर‘ के माध्यम से समकालीन और यथार्थवादी कश्मीर को देखने का मौका मिला। आतंकवाद और फौज के अनुशासन के बीच सहमा हुआ कश्मीर और उस कश्मीर में धीरे-धीरे बड़े होते बच्चे। आतंक की वर्णमाला सीखते हुए। आतंकवाद का निशाना बनते बच्चे, आतंकवाद के लिए इस्तेमाल होते बच्चे, आतंक को अपनाते बच्चे। यही ‘सिकंदर‘ फिल्म का बुनियादी कथ्य है जिसे बहुत सादगी और सहजता के साथ कहने का प्रयास किया गया है। पता नहीं क्यों दर्शक ऐसी फिल्में देखना पसंद नहीं करते। मीरा रोड के सिनेमैक्स में इस फिल्म के शाम साढ़े तीन बजे के पहले शो में कुल छह दर्शक मौजूद थे। सातवां यह समीक्षक। किसी गंभीर विषय से टकराने को जल्दी राजी नहीं होते हिंदी के दर्शक। आतंकवाद भी ‘न्यूयार्क‘ जैसे ग्लैमरस अंदाज में पेश किया जाए तो ही दर्शक सिनेमा हॉल में जाना पसंद करते हैं। जो भी हो धारा के विरुद्ध जा कर भी जिरह तो जारी रहेगी। रहनी भी चाहिए। काफिला बनते-बनते बनता है।
फिल्म के दो मुख्य किरदार परजान दस्तूर (सिकंदर) और आयशा कपूर (नसरीन) जैसे किशोर कलाकार हैं। फिल्म ‘कुछ कुछ होता है‘ का बच्चा परजान अब 18 वर्ष का किशोर है। फिल्म ‘ब्लैक‘ में रानी मुखर्जी के बचपन का रोल निभाने वाली आयशा अब किशोरी है। आने वाले समय में आयशा सिनेमा का अहम् हस्ताक्षर बनेगी ऐसी आहटें उसके ‘सिकंदर‘ के अभिनय से आ रही हैं। दोनों बच्चे एक ही स्कूल में, एक ही क्लास में पढ़ते हैं। एक दिन स्कूल जाते समय सुनसान पगडंडी पर परजान को एक पिस्तौल पड़ी मिलती है जिसे उस दिन तो वह छुपा देता है लेकिन अगले दिन उठा कर अपने बैग में रख लेता है। यह पिस्तौल कैसे अनायास और अनजाने में उसका पूरा जीवन ही बदल देती है इस बात को निर्देशक ने विभिन्न उपकथाओं और घटनाओं के जरिए उद्घाटित किया है। दहशतगर्द लोग कैसे अपने जुनून के रास्ते पर बच्चों को उतार देने में भी परहेज नहीं करते, यह भी ‘सिकंदर‘ का एक मुख्य कथ्य है। ‘सिकंदर‘ का माइनस पॉइंट यह है कि एक प्रभावी कथ्य के बावजूद यह उतना प्रभावित नहीं करती जितना कर सकती थी। शायद इसकी ‘मेकिंग‘ में कोई गंभीर कमी है। गीत-संगीत बेहतर है।
निर्माता: सुधीर मिश्रा
निर्देशक: पीयूष झा
कलाकार: आर. माधवन, परजान दस्तूर, आयशा कपूर, संजय सूरी, अरुणोदय सिंह
संगीत: शंकर-अहसान-लॉय, संदेश शांडिल्य

Saturday, August 8, 2009

अज्ञात

फिल्म समीक्षा

क्या लिखें इस ‘अज्ञात‘ पर?

धीरेन्द्र अस्थाना

अगर राम गोपाल वर्मा ने ‘कोहरा‘, ‘बीस साल बाद‘, ‘वह कौन थी‘ या ‘गुमनाम‘ जैसी किसी पुरानी फिल्म का रिमेक बना दिया होता तो भी दर्शकों को ज्यादा रोमांच दे सकते थे। फिल्म ‘भूत‘ के बाद उनका डर का कारोबार चल नहीं पा रहा है। बेहतर होगा कि वह ‘सत्या‘ और ‘सरकार राज‘ जैसी फिल्में ही बनाया करें। उनकी रोमांचक फिल्म ‘अज्ञात‘ का एकमात्र रोमांच श्रीलंका के घने और रहस्यमय जंगलों की यात्रा भर है। बाकी तो सब कुछ ज्ञात हो जाता है इस ‘अज्ञात‘ में। जिस फिल्म की कहानी भी अज्ञात हो उस पर भला क्या लिखा जा सकता है?
एक नकचढ़े एक्टर और प्रसिद्ध अभिनेत्री के साथ फिल्म की एक यूनिट जंगलों में शूटिंग के लिए जाती है। थोड़ी देर बाद यूनिट का पथ प्रदर्शक एक स्थानीय जंगलवासी किसी रहस्यमय शक्ति के हाथों मारा जाता है। फौरन अनुमान लग जाता है कि हीरो-हीरोईन के अलावा बाकी सब एक-एक करके मारे जाएंगे। ठीक यही होता है। कुछ शक्ति के हाथों मार दिये जाते हैं, कोई अपनी बेबसी से निराश होकर खुद मर जाता है। दो चरित्रों को उनकी तात्कालिक दुश्मनी ले डूबती है। अंत में बचती है रामू की प्रिय हीरोईन निशा कोठारी जो इस फिल्म में नये नाम प्रियंका के साथ मौजूद है। दूसरा बचता है दक्षिण का युवा हीरो नितिन रेड्डी जो जंचता है और जिसकी दक्षिण की ‘मार्केट वेल्यू‘ को मुट्ठी में लेने के लिए फिल्म को तमिल-तेलुगू में भी डब किया गया है। खबर है कि पांच करोड़ के छोटे बजट में बनी यह फिल्म अपना पैसा दक्षिण के बाजार से वसूलने में कामयाब भी हो गयी है। अब कुछ भी लिखते रहें हिंदी वाले! क्या फर्क पड़ता है? फिल्म के अंत में ‘अज्ञात-2‘ की घोषणा कर दी गयी है। जाहिर है जिंदा बची प्रियंका और नितिन रेड्डी को फिल्म के सीक्वेल में भी काम मिलना तय हो गया है।
नितिन में काफी संभावनाएं हैं। बॉलीवुड की भीड़ में खोने से बच गया तो जीवन में कोई करिश्मा भी हो सकता है। भाव व्यक्त करने आते हैं नितिन को। सिर्फ बदन दिखा कर कोई लड़की बॉलीवुड में नहीं टिक सकी है आज तक। यह तथ्य प्रियंका को समझ लेना चाहिए वह भी समय रहते और थोड़ा बहुत ध्यान अभिनय सीखने पर केंद्रित करना चाहिए। जंगलवासी सेतु के किरदार में जॉय फर्नांडिस के अलावा अन्य कोई कलाकार प्रभावित नहीं करता। सुरजोदीप घोष की सिनेमेटोग्राफी जरूर आकर्षक और दिलकश है। वह हमारी स्मृतियों में जंगल को जीवंत करने में सफल होते हैं। रामगोपाल वर्मा जैसा भाग्य बॉलीवुड में बहुत कम लोगों को नसीब है। उन्हें यह भाग्य व्यर्थ की फिल्मों में नहीं गंवाना चाहिए।

निर्देशक: राम गोपाल वर्मा
कलाकार: नितिन रेड्डी, प्रियंका कोठारी, गौतम रोडे, रसिका दुग्गल, जॉय फर्नांडिस।
संगीत: इमरान, बापी, टुटुल

Monday, August 3, 2009

लव आज कल

फिल्म समीक्षा

कल हो या आज मोहब्बत जिंदाबाद

धीरेन्द्र अस्थाना

निर्देशक इम्तियाज अली ने फिर साबित किया कि वह एक कल्पनाशील और बेहतर फिल्मकार हैं। ‘जब वी मेट‘ उनकी पहली हिट निर्देशित फिल्म थी जिसमें दो युवाओं के प्यार को उन्होंने बेहद दिलचस्प तथा जीवंत अंदाज में पेश किया था। अपनी नयी फिल्म ‘लव आज कल‘ में भी उन्होंने दो युवाओं की मोहब्बत को दो काल खंडों में पेश कर के प्रेम की नयी-पुरानी व्याख्या को भी अंजाम दिया है। एक सन् पैंसठ की दिल्ली है जिसमें ऋषी कपूर प्रेम करते हैं। एक सन् 2009 का लंदन है, जिसमें सैफ अली खान-दीपिका पादुकोन की फटाफट मोहब्बत है। इस मोहब्बत के बीच में विलेन बन कर खड़े हैं दोनों के करियर। दोनों को लगता है कि इश्क-प्यार बीते जमाने की बातें हैं। शादी करके एक दूसरे को झेलना पड़ेगा। इसलिए दोनों सहर्ष अलग होते हैं। दोस्तों को ब्रेकअप पार्टी देते हैं। दोस्त भ्रमित हैं। इस मौके पर बधाई दें या अफसोस प्रकट करें? गिफ्ट क्या दें? ‘ब्रेक अप पार्टी‘ की यह अवधारणा दिलचस्प और अनूठी है। यह ‘ब्रेक अप‘ प्रतिबद्धता से पलायन का दर्शन है। दिक्कत यह है कि, फिल्म की भाषा में कहें तो, आम जनता यानी मैंगो पीपुल को यह फिलॉस्फी थोड़ा जटिल और बोझिल लग सकती है। इस फिलाॅस्फी में प्रवेश करते ही फिल्म एक बौद्धिक विमर्श में बदल जाती है।
दीपिका और सैफ अपनी मर्जी से अलग होते हैं। अपने-अपने करियर के रास्ते पर जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं दोनों के मन में कुछ घटता है। कुछ ऐसा जिसकी उन्होंने न कल्पना की थी न इच्छा। प्रेम छलावा था, करियर सत्य। लेकिन सत्य के साथ उनका यह प्रयोग तो उन्हें नष्ट-भ्रष्ट कर गया। अलग होने की यात्रा तो एक कदम आगे दो कदम पीछे में बदल गयी। ऋषी कपूर का बोला जुमला ‘प्यार एक ही बार होता है‘ तो अंतिम सत्य निकला। कल हो या आज मोहब्बत जिंदाबाद। क्या दुनिया की किसी भी भाषा में कोई एक भी फिल्म बनी है या कहानी लिखी गयी है जो यह सिद्ध करती हो कि ‘मोहब्बत‘ नाम की भावना निरी बकवास है? नहीं। तो फिर ‘लव आज कल‘ मोहब्बत विरोधी कैसे हो सकती थी। पॉप-रॉक अपनी जगह है यार मोहब्बत अपनी जगह है। यही है ‘लव आज कल‘ जिसे देखा जाना चाहिए। ऋषी कपूर जब अपने अतीत में जाते हैं तो युवा सिख सैफ अली खान के वेष में ढल जाते हैं। यह भी एक नया अंदाज है नये-पुराने की तुलना का। अपने किरदार को जीवंत बनाने के लिए दीपिका ने जान लगा दी है। पंजाबी गीतकार मदन मद्दी का मशूहर गीत ‘आजा दिल जानिया‘ इस फिल्म में संगीतकार प्रीतम ने इस्तेमाल किया लेकिन उनका उल्लेख नहीं किया, यह गलत बात है।

निर्देशक: इम्तियाज अली
कलाकार: सैफ अली खान, दीपिका पादुकोन, ऋषी कपूर, नीतू सिंह।
संगीतकार: प्रीतम चक्रवर्ती

Saturday, July 25, 2009

लक

फिल्म समीक्षा

यह ‘लक‘ है लार्जर दैन लाइफ

धीरेन्द्र अस्थाना

पहले ही स्पष्ट कर दें कि यह फिल्म एक बहुत बड़ा रियलिटी शो है। जैसा अक्षय कुमार का टीवी शो ‘खतरों के खिलाड़ी‘ था या जैसा इन दिनों दिखाया जा रहा ‘इस जंगल से मुझे बचाओ‘ है। टीवी के रियलिटी शोज और फिल्म ‘लक‘ में सिर्फ एक ही फर्क है। ‘लक‘ में खतरों से खेल रहे लोगों पर करोड़ों का जुआ लगा हुआ है और यहां पराजित होने पर मौत ही एकमात्र विकल्प है। फिल्म की सबसे बड़ी खूबी इसकी पटकथा है जो बेहद कसी हुई है। फिल्म के निर्देशक सोहम शाह ने एक-एक दृश्य को इतनी कुशलता से फिल्माया है कि उत्सुकता बनी रहती है। यह शुद्ध रूप से एक मनोरंजक फिल्म है जो खतरनाक स्टंट दृश्यों से भरी पड़ी है। फिल्म देखने के लिए दिल या दिमाग की कोई जरूरत नहीं है। यह ऐसा ‘लक‘ है जो लार्जर दैन लाइफ है।
समझ नहीं आता कि जब आमिर खान ने अपने भतीजे इमरान खान के लिए एक खूबसूरत सी लव स्टोरी ‘जाने तू या जाने ना‘ बना कर रास्ता दिखा दिया था तो भी इस मासूम से चेहरे वाले संवदेनशील लड़के को बार-बार एक्शन और स्टंट की दुनिया में क्यों धकेला जा रहा है। एक्शन इमरान का रास्ता नहीं है। उसके लिए अच्छी अच्छी प्रेम कहानियों पर काम कीजिए। यह दुनिया संजय दत्त की है जिसका प्रमाण उन्होंने ‘लक‘ में भी दिया है। उनका मूसा भाई वाला रोल प्रभावित करता है। कमल हासन की बेटी श्रुति हासन का बहुत शोर मचाया गया था लेकिन फिल्म ‘लक‘ उनका बैडलक है। फिल्म में उन्हें कुछ कर दिखाने का मौका ही नहीं दिया गया है। श्रुति से ज्यादा प्रभावशाली चरित्र चित्राशी रावत का है और ‘चक दे इंडिया‘ की इस कोमल चैटाला ने ‘लक‘ में शॉर्टकट नामक अपने किरदार को यादगार ऊंचाई तक पहुंचा दिया है। समुद्र में शार्क मछली द्वारा उसका पांव चबाये जाने से ध्वस्त हुए सपनों की व्यथा उसने बेहद मार्मिकता से व्यक्त की है। अगर निजी जीवन में उसकी लंबाई आम लड़कियों जितनी भी होती तो प्रतिभा उसे कहां से कहां पहुंचा सकती थी। दिक्कत यह है कि उसके लिए लेखकों को खोज खोज कर विशेष किरदार रचने होंगे। मिथुन चक्रवर्ती और डैनी मंजे हुए, वरिष्ठ अभिनेता हैं लेकिन भोजपुरी फिल्मों के स्टार रवि किशन ने भी जता दिया है कि वह हिंदी फिल्मों में भी कमाल-धमाल कर सकते हैं। शब्बीर अहमद और अन्विता दत्त के गीतों को कुल ग्यारह गायकों ने अपनी आवाज दी है तो भी कोई गीत अवस्मिरणीय नहीं बन सका है। हां, फिल्म के संवाद मौजूं, हृदय स्पर्शी और कथानक को गति देने वाले हैं। एक टाइमपास फिल्म है।

निर्देशक: सोहम शाह
कलाकार: संजय दत्त, मिथुन चक्रवर्ती, डैनी डेनजोंग्पा, इमरान खान, रवि किशन, श्रुति हासन, चित्राशी रावत।
संगीत: सलीम-सुलेमान-हरि

Saturday, July 18, 2009

जश्न

फिल्म समीक्षा

प्रतिभा की जीत का ‘जश्न‘

धीरेन्द्र अस्थाना

महेश भट्ट कैंप की फिल्म ‘जश्न‘ इस बात का नायाब उदाहरण है कि अगर आपके पास एक साफ-सुथरी, भावनात्मक कहानी है और आपको कहानी कहने का अंदाज आता है तो एक बेहतरीन फिल्म आकार ले सकती है। अच्छी फिल्म के लिए भारी-भरकम बजट, विदेशी लोकेशंस और बड़ी-बड़ी स्टार कास्ट की कोई अनिवार्यता नहीं है। बहुत लंबे समय के बाद कोई फिल्म आयी है जिसने कम से कम तीन स्थलों पर मर्म को छूने का काम किया। जब भी भट्ट कैंप की कोई फिल्म आती है तब यह उम्मीद तो जगती ही है कि कोई अच्छी कहानी देखने को मिलेगा लेकिन इस बार तो बेहद मर्मस्पर्शी और संवेदनशील कहानी से गुजरने का मौका मिला। विषय नया नहीं है। एक गायक के संघर्ष पर दर्जनों फिल्में बनी हैं। लेकिन इस विषय को बुनने, उसे साधने, उसे फिल्माने और उसे बहुआयामी बनाने का कौशल अनूठा है। पता नहीं क्यों ज्यादा दर्शक फिल्म देखने नहीं पहुंचे। हो सकता है कि फिल्म की समीक्षाओं को पढ़ने या मित्रों के जरिए पता चलने पर अगले कुछ दिनों में ज्यादा दर्शक फिल्म देखने पहुंचें और ‘जश्न‘ बॉक्स ऑफिस पर भी ‘जश्न‘ मना सके। फिल्म की ‘रिपीट वेल्यू‘ भी है।
फिल्म का छोटा सा, सार्थक संदेश है - प्रतिभा की जीत तय है। घमंड या ताकत या पैसे की हार निश्चित है। प्रतिभा को दबाया जा सकता है, उसे मंजिल तक पहुंचने में बाधाग्रस्त किया जा सकता है लेकिन प्रतिभा का विस्फोट एक अटूट सच्चाई है। इस संदेश को निर्देशक हसनैन हैदराबादवाला और राकेश मिस्त्री ने केवल चार प्रतिभाशाली युवा कलाकारों के माध्यम से पेश कर दिया है। असल में यह अध्ययन सुमन, अंजना सुखानी और शहाना गोस्वामी की अभिनय प्रतिभा के विस्फोट की भी फिल्म है। एक विलेन की ‘बॉडी लैंग्वेज‘ कैसी होती है उसे पाकिस्तानी कलाकार हुमांयू सईद से सीखा जा सकता है। वह हमारे पारंपरिक खलनायकों की तरह ‘शोर‘ नहीं मचाते। अभिनय से ‘नकारात्मकता का आलोक‘ रचते हैं।
फिल्म का गीत-संगीत पक्ष भी कर्णप्रिय और प्रभावशाली है। एक सिंगर के जीवन और ‘स्ट्रगल‘ पर बनने वाली फिल्म का गीत-संगीत अनिवार्यतः बेहतरीन होना चाहिए जो कि है। फिल्म के संवाद फिल्म को गति भी देते हैं और उपकथाओं की स्पष्ट व्याख्या भी करते हैं। गीतों के बोल भी हृदयस्पर्शी हैं। अगर आप अच्छी फिल्मे पसंद करते हैं तो पहली फुर्सत में ही ‘जश्न‘ में शामिल हो आयें।

निर्माता: मुकेश भट्ट
निर्देशक: राकेश मिस्त्री, हसनैन हैदराबादवाला
कलाकार: अध्ययन सुमन, अंजना सुखानी, शहाना गोस्वामी, हुमायूं सईद
संगीत: तोशी शाबरी, शारिब शाबरी

Saturday, July 11, 2009

शॉर्टकट

फिल्म समीक्षा

कॉमेडी का ट्रेजिक ‘शॉर्टकट‘

धीरेन्द्र अस्थाना

कॉमेडी कह कर प्रचारित की गयी अनिल कपूर प्रोडक्शन की फिल्म ‘शॉर्टकट‘ के साथ ढेर सारी ट्रेजेडी जुड़ी हुई हैं। सबसे पहली यह कि इस फिल्म के हीरो अक्षय खन्ना हैं जो बॉलीवुड में संजीदा और अर्थपूर्ण अभिनय करने के लिए जाने जाते हैं। फिल्म ‘गांधी माई फादर‘ में वह अपने सशक्त अभिनय की मिसाल पेश कर चुके हैं। पूरी फिल्म में उन्होंने गंभीर अभिनय किया है। एक सफल निर्देशक बनने का सपना जीने वाले फिल्मकार के संघर्ष और तड़प को उन्होंने उम्दा तरीके से व्यक्त किया है। फिल्म की दूसरी ट्रेजेडी यह है कि एक गंभीर विषय पर हास्य फिल्म बनाने की गलती की गयी है। तीसरी ट्रेजेडी यह कि सिनेमा के परिदृश्य और जीवन पर बनायी गयी फिल्म में सारी की सारी घटनाएं एकदम अविश्वसनीय और अतार्किक हैं। फिल्म का एक सार्थक संदेश है कि ‘सिनेमा का कोई शॉर्टकट नहीं होता।‘ जबकि खुद निर्देशक नीरज वोरा ने अपनी फिल्म ‘शॉर्टकट‘ को ‘शॉर्टकट स्टाइल‘ में निपटा दिया है। दर्शक तो दर्शक खुद सिनेमा के लोग भी नहीं मानेंगे कि सिनेमा की दुनिया इस कदर फरेबी और नकली होती है जैसी ‘शॉर्टकट‘ में दर्शायी गयी है।

अनीस बज्मी ने फिल्म की कहानी अच्छी और सरल-साफ लिखी है। उस पर एक सीधी और सार्थक फिल्म बनायी जा सकती थी। एक गंभीर कहानी को कॉमेडी की अंधी गली में धकेलने की कोई जरूरत ही नहीं थी। दर्शक अब समझदार हैं। पढ़े-लिखे हैं। विश्व सिनेमा के भी जानकार हैं। वे अच्छी फिल्में पसंद करते हैं फिर भले ही फिल्म कॉमेडी हो, ट्रेजेडी हो, आतंकवाद पर हो, लव स्टोरी हो या एक्शन हो। सिर्फ एक ही शर्त है कि फिल्म को अच्छा होना चाहिए। सिर्फ कॉमेडी फिल्में ही चलती हैं यह एक बहुत बड़ा भ्रम है जिससे निर्माता-निर्देशकों को अपना पिंड छुड़ा लेना चाहिए। पिछले दिनों की हिट लेकिन गंभीर फिल्में ‘न्यूयाॅर्क‘, ‘गुलाल‘, ‘देव डी‘, ‘दिल्ली-6‘ इसका उदाहरण हैं।

पता नहीं क्यों चंकी पांडे को ज्यादा फिल्में नहीं मिलतीं? ‘शॉर्टकट‘ में एक बेवकूफ सुपर स्टार के सेक्रेट्री की भूमिका में उन्होंने जान डाल दी है। गरीब लोगों की एक चाल के मालिक की संवेदनशील भूमिका का निर्वाह सिद्धार्थ रांदेरिया ने विश्वसनीय ढंग से किया है। एक असफल और स्ट्रगलर ही नहीं, फिल्म अभिनय का एबीसीडी भी न जानने वाला अरशद वारसी अक्षय खन्ना की फिल्म स्क्रिप्ट चुरा कर और उसमें एक्टिंग करके सुपर स्टार बन जाता है, यह पूरा प्रसंग बनावटी और अतार्किक है। ऐसे ही कई प्रसंगों पर यह फिल्म खड़ी हुई है। अंत में हम भी यही कहना चाहेंगे कि सिनेमा का कोई शॉर्टकट नहीं होता।

निर्माता: अनिल कपूर
निर्देशक: नीरज वोरा
कलाकार: अक्षय खन्ना, अरशद वारसी, अमृता राव, चंकी पांडे, सिद्धार्थ रांदेरिया
गीत: जावेद अख्तर
संगीत: शंकर-अहसान-लॉय

Saturday, July 4, 2009

कंबख्त इश्क

फिल्म समीक्षा

कंबख्त इश्क से कहानी नदारद

धीरेन्द्र अस्थाना

बड़े बजट, बड़े सितारों और बड़े दावों से भरी ‘कंबख्त इश्क‘ में निर्माता-निर्देशक एक अदद छोटी कहानी भी डाल देते तो शायद इस फिल्म का मुकद्दर कुछ और हो जाता। अक्षय कुमार, करीना कपूर, सिल्वेस्टर स्टेलोन, आफताब शिवदासानी और अमृता अरोड़ा जैसे सितारों से सजी यह फिल्म पूरी दुनिया के कुल 2030 (दो हजार तीस) सिनेमाघरों में रिलीज की गयी जो किसी भी हिंदी फिल्म के लिए एक बड़ी उपलब्धि है। फिल्म का निर्माण बेहद भव्य और दिव्य पैमाने पर किया गया है। फिल्म से जुड़े प्रत्येक कलाकार ने अपना बेहतर देने का प्रयत्न किया है। लेकिन सिर्फ अभिनय क्या कर लेगा जब कहने के लिए कोई कहानी ही नहीं होगी। मजेदार बात यह है कि ‘कहानी‘ के साथ तीन लेखक जुड़े हुए हैं। पूरी फिल्म कुछ घटनाओं का ‘कोलाज‘ भर बन सकी है। इसी ‘कोलाज‘ से प्यार, इमोशन, ईगो, सेक्स, एक्शन और हास्य निचोड़ने की कोशिश की गयी है।
फिल्म को अच्छी ‘ओपनिंग‘ मिली है। मुंबई में भारी बारिश के बावजूद युवा दर्शकों की अच्छी खासी भीड़ फिल्म देखने पहुंची लेकिन आने वाले दिनों में यही संख्या बनी रहेगी, कहना मुश्किल है। फिल्म में कई स्थलों पर दर्शक हंस तो रहे थे लेकिन यह ‘सिचुएशनल हंसी‘ थी। एक ऑपरेशनके दौरान अक्षय कुमार के पेट में करीना कपूर की मंत्र वाली घड़ी छूट जाने से जुड़े हुए प्रसंग जरूर बेद दिलचस्प और मौलिक हैं। छोटी-मोटी मॉडलिंग करके अपनी डॉक्टरी की पढ़ाई की फीस अर्जित करने वाली करीना कपूर का अक्षय कुमार जैसे हॉलीवुड के स्टार स्टंटमैन से बेवजह चिढ़ना कहीं से भी तार्किक नहीं है। जबकि इसी चिढ़ को खींच कर पूरी फिल्म का ताना-बाना बुना गया है। फिर इसी चिढ़ को ‘अकारण‘ घोषित करके करीना को अहसास दिलाया गया है कि अक्षय का प्यार असली और करीना की चिढ़ नकली है। अक्षय-करीना के ‘लव ऐंड हेट‘ वाले इसी रिश्ते की रस्सी पर फिल्म के तमाम पात्र करतब दिखाते नजर आते हैं।
तो भी ‘कंबख्त इश्क‘ को कम से कम एक बार इन कारणों से देखा जा सकता है। अक्षय कुमार के एक्शन, इमोशन और कॉमेडी के लिए। करीना की खूबसूरती और बोल्ड दृश्यों के लिए। आफताब के बेहद सहज तथा जीवंत अभिनय के लिए। विदेशी लोकेशंस के लिए। कुछ अच्छे गानों और बेहतर संगीत के लिए। फिल्म में बरसते अक्षय-करीना के चुंबनों के लिए वह भी ‘लिप लॉक किसेस‘। सैफ और ट्विंकल आपने फिल्म देखी क्या?

निर्देशक: सब्बीर खान
निर्माता: साजिद नाडियाडवाला
कलाकार: अक्षय कुमार, करीना कपूर, आफताब शिवदासानी, सिल्वेस्टर स्टेलॉन, बोमन ईरानी, जावेद जाफरी।
संगीत: अनु मलिक
गीत: अन्विता दत्त गुप्ता

Saturday, June 27, 2009

‘न्यूयॉर्क‘

फिल्म समीक्षा
जिंदादिल और अर्थपूर्ण ‘न्यूयॉर्क‘
धीरेन्द्र अस्थाना
यशराज बैनर से बड़े दिनों के बाद कोई इतनी जिंदादिल, तर्कपूर्ण तथा अर्थपूर्ण फिल्म आई है जिसे कम से कम दो बार देखा जा सकता है। कमर्शियल सिनेमा को किस रचनात्मक अंदाज में एक विचार में बदला जा सकता है, इसका बेहद खूबसूरत उदाहरण कबीर खान निर्देशित ‘न्यूयॉर्क‘ है। न्यूयॉर्क जो सिर्फ शब्द नहीं रह जाता बल्कि एक प्रतीक बन जाता है। साहस का, जिंदादिली का, लगाव का, सभ्यता का, समानता का और हां जुल्म का भी प्रतीक। बॉलीवुड को खुश होना चाहिए कि काफी लंबे समय के बाद लोगों के जत्थे फिल्म देखने जा रहे हैं। विचार तभी परिवर्तन ला सकता है जब वह जन समूह द्वारा अपनाया जाए। ‘न्यूयॉर्क‘ यह काम कर सकती है। दो दिन पहले जॉन एब्राहम द्वारा कहा गया यह वाक्य एकदम दुरूस्त है कि ‘न्यूयॉर्क‘ पाकिस्तानी फिल्म ‘खुदा के लिए‘ से आगे की फिल्म है।
फिल्म की मूल कथा यह है कि दुनिया के सबसे ताकतवर देश अमेरिका में जब 11 सितंबर को एक आतंकवादी हमले के तहत वल्र्ड ट्रेड सेंटर की दो इमारतों को उड़ा दिया गया तो कैसे शक का कहर निरपराध लोगों पर टूट पड़ा। निर्दोष लोगों को आतंकवादी बनाने का काम सरकारी तंत्र कैसे करता है और आह भी नहीं भरता, यह प्रक्रिया भी पूरी वेदना के साथ फिल्म में दर्ज की गयी है। नील नितिन मुकेश की यह पहली फिल्म है जो उनकी अभिनय संभावना के विराट दरवाजे खोल सकती है। जॉन का जलवा भी इस फिल्म से बढ़ जाएगा। कैटरीना ने फिर सिद्ध किया कि वह सिर्फ सुंदर ही नहीं संवेदनशील अभिनेत्री भी हैं। इरफान खान ने मंजे हुए अभिनय की सीढ़ियों पर चार कदम और आगे बढ़ाए। दोस्त की जिंदगी में सेंध लगाने की दुविधा को नील नितिन ने बेहद प्रभावशाली ढंग से व्यक्त किया। आतंकवाद पर बनी फिल्मों में ‘न्यूयॉर्क‘ अपना एक अलग मुकाम रखेगी। आतंकवाद के कारणों पर फिल्म में जिस तटस्थता के साथ जिरह की गयी है वह अद्भुत और सृजनात्मक है। फिल्म इस दृश्य के साथ खत्म होती है कि एक आतंकवादी जो मुस्लिम भी है के बेटे को अमेरिकी समाज कितनी सहजता से न सिर्फ क्रिकेट की नेशनल चाइल्ड टीम का सदस्य बना लेता है बल्कि उसे सिर माथे पर भी बिठा लेता है। वह यह संदेश भी देती है कि अतीत में जो बुरा घटा है उससे चिपके मत रहो। प्रगति तथा खुशहाली की तरफ बढ़ते समय के साथ समरस हो जाओ। फिल्म में एक चूक भी हुई है। यह नहीं परिभाषित किया गया कि कैटरीना कैफ को पुलिस ने जानबूझ कर मारा या वह गलती से गोलियों की जद में आ गयी? अगर जानबूझ कर मारा तो क्यों? आतंकवादी की पत्नी को जान से मार देने का विधान तो पूरी दुनिया में कहीं नहीं है! कथा-पटकथा-संगीत सब अच्छा है।
निर्माता: आदित्य चोपड़ा
निर्देशक: कबीर खान
कलाकार: जॉन एब्राहम, कैटरीना कैफ, इरफान खान, नील नितिन मुकेश
संगीतकार: प्रीतम चक्रवर्ती, पंकज अवस्थी, जूलियस

Tuesday, May 19, 2009

फिल्म समीक्षा - 99

पड़ सकते हैं ‘99’ के फेर में

धीरेन्द्र अस्थाना

बहुत दिनों बाद मल्टीप्लेक्स थिएटरों में सिनेप्रेमियों का जमावड़ा दिखाई पड़ा। हालांकि फिल्म निर्माताओं व थिएटर मालिकों का विवाद अभी खत्म नहीं हुआ है। लगता है कि लड़ाई से छिटककर ‘निन्यानबे’ के निर्माताओं ने अपनी फिल्म रिलीज कर दी है। जो भी हो लेकिन इस हल्की-फुल्की मनोरंजक फिल्म को देखना दर्शकों ने पसंद किया। जो लोग सिनेमा को दो-ढाई घंटे का शुद्ध ‘टाइम पास’ मानते हैं और सिनेमा से किसी मकसद की उम्मीद नहीं रखते उन्हें यह फिल्म अच्छी लगेगी। बड़ी स्टार कास्ट और बड़ा बजट न होने के बावजूद फिल्म शुरू से अंत तक बांधे रखने में कामयाब हुई है। इन दिनों सिनेमा में दिल्ली का दोहन करने का प्रचलन बढ़ा है, लेकिन यह खुशदिल और खिलंदड़ी दिल्ली है जो दिल को भाती है। कुणाल खेमू, साइरस बरूचा और बोमन ईरानी को लेकर बनाई गई यह फिल्म छोटे अंतरालों के साथ कई उपकथाओं के माध्यम से कर्ज की कथा, लोन रिकवरी एजेंट, सफेदपोश अपराधियों, पढ़े-लिखे गुंडों, क्रिकेट का सट्टा, चोर बाजार, छोटी-मोटी महत्वाकांक्षाओं के बीच पनपते युवा प्रेम, संघर्ष से दरकते वैवाहिक संबंध वगैरह की बात करते हुए अंतत: एक सुखद मोड़ पर जाकर खत्म हो जाती है। दर्शक खुश-खुश बाहर आते हैं क्योंकि फिल्म का सुखांत बनावटी नहीं स्वाभाविक लगता है। फिल्म की सफलता का पूरा श्रेय इसकी पटकथा को ही जाता है जो बेहद कसी हुई है। कुणाल खेमू अलग-अलग फिल्मों में अलग-अलग किरदारों को पूरी जीवंतता के साथ निभा रहे हैं। वह यकीकन एक प्रतिभाशाली कलाकार हैं लेकिन उनमें स्टार वाले गुण अभी आने बाकी हैं। कर्ज देकर वसूलने के लिए साथ में गुंडा रखने वाले के रूप में युवा अभिनेता अमित मिस्त्री ने बेहतर अभिनय किया है। फिल्म के दोनों स्त्री चरित्र-सोहा अली खान और सिमोन सिंह के पास करने को कुछ विशेष नहीं था तो भी एक आत्मनिर्भर और स्वप्नजीवी युवा लड़की को सोहा ने प्रभावी ढंग से जिया है। विनोद खन्ना व महेश मांजरेकर फिल्म की शोभा बढ़ाते हैं। संगीत अच्छा और कुछ हटकर है। अगर आने वाले दिनों में भी नई फिल्में नहीं आईं तो यह फिल्म चलती भी रह सकती है।
कलाकार : कुणाल खेमू, सोहा अली खान, बोमन ईरानी, सिमोन सिंह, विनोद खन्ना, अमित मिस्त्री संगीत : समीर टंडन

Monday, February 9, 2009

फिल्म समीक्षा देव डी

देवदास की नयी व्याख्या है ‘देव डी‘

धीरेन्द्र अस्थाना

जब बहुत पहले खबर आयी थी कि शरत बाबू के अमर चरित्र देवदास पर युवा फिल्मकार अनुराग कश्यप भी फिल्म बना रहे हैं, तभी अनुमान हो गया था कि कुछ धारा के विरुद्ध होने वाला है। लीक से अलग हट कर चलने वाले प्रयोगधर्मी अनुराग ने ‘देव डी‘ में देवदास की एक नयी व्याख्या पेश की है। दिक्कत यह है कि मुख्य धारा या व्यावसायिक सिनेमा के फिल्मकारों ने कचरा सिनेमा बना-बना कर दर्शकों की चेतना इतनी कुंद कर दी है कि सिनेमा का बड़ा दर्शक वर्ग आज भी अच्छे सिनेमा से थोड़ा दूर-दूर ही रहता है। लेकिन खुशी की बात है कि अनुराग कश्यप जैसे जिद्दी लोग सिनेमा को नया अर्थ, नयी ऊर्जा और नयी सोच देने में जुटे हुए हैं। जाहिर है कि ‘देव डी‘ को बहुत बड़ा दर्शक वर्ग नहीं मिलेगा लेकिन जो भी व्यक्ति एक बार ‘देव डी‘ देखने जाएगा वह देवदास का नया अवतार देखने का अनुभव पा लेगा। यह शरत बाबू का नहीं अनुराग कश्यप का देवदास है जो दिल्ली के यथार्थ और अराजकता के बीच बरबाद होते-होते बच जाता है।
अनुराग ने शरतबाबू की कथा को आधुनिक स्पर्श देकर नये तेवर और कलेवर में रचा है। फिल्म की मूूल कहानी से अनुराग ने कोई छेड़छाड़ नहीं की है। पात्रों के नाम भी वहीं हैं - पारो, चंद्रमुखी, चुन्नी बाबू और देव। ये सब लोग दिल्ली में रहते हैं और दिल्ली वाली खुली तथा बेधक भाषा में बर्ताव करते हैं। यहां लिखे न जा सकने वाले लेकिन दिल्ली की गलियों में खुलेआम सुने जा सकने वाले संवादों के कारण ही संभवतः फिल्म को ‘ए‘ सर्टिफिकेट मिला है।
अनुराग ने ‘देव डी‘ में एक थीसिस यह दी है कि देव ‘नारसिसस‘ है यानी ऐसा शख्स जो संसार में किसी से प्यार नहीं करता, जो सिर्फ खुद से मोहब्बत करता है। और इसीलिए देव की दोनों स्त्रियों-पारो और चंद्रमुखी-से अनुराग ने यह संवाद कहलवाया भी है। लेकिन अपनी ही इस ‘थीसिस‘ की ‘एंटी थीसिस‘ पेश करते हुए वह देव को चंद्रमुखी का प्रेम स्वीकार करते दिखा देते हैं। यानी देवदास ‘नारसिसस‘ नहीं था। अनुराग का देव पारो के प्यार के गम में शराब पी कर खून की उल्टियां करता युवक नहीं है। वह इस रास्ते पर थोड़ी देर के लिए जाता दिखता है लेकिन सामाजिक यथार्थ के चाबुक खा-खाकर उसे ‘ज्ञान‘ मिल जाता है कि यह समय किसी एक प्यार में शहीद होने का हर्गिज नहीं है। इस एक पंक्ति के दर्शन को अनुराग ने अपने प्रयोगधर्मी अंदाज में परदे पर उतारा है। बासी विषयों और फार्मूलों से ऊब चुके दर्शकों के लिए ‘देव डी‘ एक नया आस्वाद लायी है। अभय देओल स्टार भले न बने हों लेकिन वह लगातार बेहतर अभिनय की सीढ़ियां चढ़ रहे हैं। फिल्म की दोनों नयी अभिनेत्रियों ने भी उम्मीद जगायी है।

निर्माता: रोनी स्क्रूवाला (यूटीवी मोशन पिक्चर्स)
निर्देशक: अनुराग कश्यप
कलाकार: अभय देओल, माही गिल, कलकी, परख मदान
संगीतकार: अमित त्रिवेदी
गायक: दस (आजकल दस से कम गायक नहीं होते)

Saturday, January 31, 2009

फ़िल्म विक्ट्री की समीक्षा

‘विक्ट्री‘ को मिली दुखद पराजय

धीरेन्द्र अस्थाना

बहुत मेहनत, लगन, संवेदनशीलता और समझदारी के साथ बनायी गयी फिल्म ‘विक्ट्री‘ को बाॅक्स आॅफिस पर बेहद खराब ‘ओपनिंग‘ मिली है। इस दुखद पराजय का संभवतः एकमात्र कारण यही हो सकता है कि दर्शकों ने ‘क्रिकेट का रिपीट शो‘ देखना मंजूर नहीं किया। क्रिकेट पर दर्शक ‘लगान‘ और ‘इकबाल‘ जैसी बेहतरीन फिल्में देख चुके हैं। इसी वजह से क्रिकेट पर आधारित ‘हैट्रिक‘ और ‘मीरा बाई नाॅट आउट‘ भी लाॅप हो गयी थीं। लेकिन यह उम्मीद किसी को नहीं थी कि दर्शक ‘विक्ट्री‘ को भी नकार देंगे। निर्देशक अजीत पाल मंगत ने ‘विक्ट्री‘ बनाते समय बहुत तैयारी की थी। सबसे पहले उन्होंने एक साफ सुथरी, समझ में आने लायक आसान सी कहानी चुनी। फिर उसे सधे ढंग से भावनात्मक स्तर पर फिल्माने का भी अच्छा प्रयास किया।
विजय शेखावत (हरमन बावेजा) जैसलमेर जैसे छोटे से राजस्थानी शहर का युवा खिलाड़ी है जो ‘क्रिकेटर चयन‘ में व्याप्त ‘गंदी राजनीति‘ के कारण हमेशा चुने जाने से रह जाता है। अंततः उसे मौका मिलता है और वह चैके-छक्के जड़ता हुआ शहर तथा प्रदेश की सीमा से निकल अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट स्टार बन जाता है। उसकी सफलता को भुनाने के लिए एक ईवेन्ट मैनेजमेंट कंपनी का डायरेक्टर गुलशन ग्रोवर विजय को पैसों का लालच दिखा विज्ञापनों के जगमग संसार में धकेल देता है। शराब और शबाब से घिरी रंगीन दुनिया विजय का क्रिकेट छीन लेती है। स्टार क्रिकेटर पिता-प्रेमिका-मित्रों को खोकर गुमनामी के अंधेरों में फिसल जाता है। अपनी गलतियों का प्रायश्चित कर, प्रेमिका (अमृता राव) की मदद से वह फिर उठ कर खड़ा होता है और देश का नाम रौशन करता है। जो लोग उसका घर जला देते हैं वे उसे फिर से सिर-आंखों पर बिठा लेते हैं। संदेश केवल एक पंक्ति का है - सफलता के नशे में अपना लक्ष्य मत भूलो। यह संदेश निर्देशक ने अच्छे ढंग से दिया है। यह पहली फिल्म है जिसमें कई देशों के लगभग चालीस क्रिकेटरों से फिल्म में वास्तविक अभिनय कराया गया है। अपने चरित्र पर हरमन बावेजा ने जबर्दस्त मेहनत की है। वह हीरो के बजाय सचमुच के क्रिकेटर नजर आते हैं। उन्होंने छह महीने तक बाकायदा क्रिकेेट खेलने का प्रशिक्षण भी लिया था। यह प्रशिक्षण फिल्म में साफ नजर आता भी है। एक क्रिकेटर के उल्लास, हर्ष, निराशा और उपलब्धियों का तेज लगातार उनके व्यक्तित्व से झरता है। इस फिल्म में वह अपनी पहली फिल्म ‘लव स्टोरी 2050‘ से बहुत आगे निकल आये हैं। हो सकता है कि आने वाले दिनों में फिल्म को दर्शक मिलने लगें। मूलतः यह फिल्म हरमन बावेजा और अनुपम खेर के पिता-पुत्र रिश्तों की धूप-छांव का ही बखान करती है। बाकी चरित्र, अभिनेत्री भी, कहानी को आगे बढ़ाने भर के काम आते हैं। फिल्म के इकलौते संगीतकार अनु मलिक के निर्देशन में कुल चैदह गायकों ने अपनी आवाज दी है। फिल्म को देखना तो चाहिए।

निर्देशक: अजीत पाल मंगत
कलाकार: हरमन बावेजा, अमृता राव, अनुपम खेर, गुलशन ग्रोवर, दिलीप ताहिल।
संगीतकार: अनु मलिक