Friday, August 2, 2013

बजाते रहो

फिल्म समीक्षा

मनोरंजन से भरपूर ‘बजाते रहो‘

धीरेन्द्र अस्थाना

हालांकि बॉलीवुड के नामचीन निर्माता-निर्देशक मानते नहीं हैं लेकिन एक बार फिर यह साबित हुआ कि फिल्म को हिट कराने के लिये न तो बड़ी कास्ट और न ही बड़े बजट की जरूरत है। अगर पास में एक साफ सुथरी या मनोरंजक या इमोशनल कहानी हो और उसका फिल्मांकन भी कायदे से किया जाये तो छोटे बजट की फिल्में भी बड़े पर्दे पर कमाल कर सकती हैं। ‘बजाते रहो‘ की कहानी कोई महान या अनूठी नहीं है। फिल्म भी ‘ग्रेट‘ की श्रेणी में नहीं आती। लेकिन एक साथ सुथरी, रोचक और मनोरंजक फिल्म जरूर है जो दर्शकों को इस दुख से नहीं भरती है कि वे एक खराब फिल्म देखकर निकले हैं। यह फिल्म देखने के बाद पैसे डूबने का गम नहीं सताता। यह अलग बात है कि फिल्म पैसे डूबने के बैकड्रॉप पर ही बनायी गयी है। परिवेश दिल्ली का है चरित्र और भाषा पंजाबी। छोटे बजट की पंजाबी तड़के वाली फिल्मों का नया लोकेशन अब दिल्ली हरियाणा ही हो गया है। हमारे आसपास की जानी पहचानी कहानी है। रवि किशन आम जनता के पैसों को दोगुना, तिगुना करने की स्कीम निकालकर 15 करोड़ जमा करता है और रकम खा जाता है। इस फ्रॉड के लिये वह अपने बैंक के ईमानदार मैनेजर को फंसा देता है। सदमें से मैनेजर की मौत हो जाती है और पब्लिक की एफआईआर पर अदालत यह रकम मैनेजर के परिवार को चुकाने का आदेश देती है। तुषार कपूर मैनेजर का बेटा और डॉली अहलूवालिया मैनेजर की पत्नी है। विनय पाठक और रणवीर शौरी उनके पारिवारिक मित्र हैं। ये सब मिलकर किस प्रकार रवि किशन के चंगुल से निवेशकों की रकम निकलवाते हैं और उसे मार्केट रेट वाले इंट्रेस्ट के साथ पब्लिक को लौटा देते हैं, इसी सीधी सादी कहानी को निर्देशक शशांत शाह ने कमाल की सूझ बूझ के साथ बनाया है। बाकायदा सीरियस फिल्म है फिर पता नहीं क्यों इसे कॉमेडी कहकर प्रचारित किया गया है। दो-तीन फिल्म पुरानी विशाखा सिंह समेत सभी लोगों ने अच्छा काम किया है। पर पता नहीं क्यों 15-20 फिल्म पुराने मंजे हुए अभिनेता तुषार कपूर थोड़े नर्वस नजर आते हैं जबकि उन्हें तो रिवेंज से भरा पूरा दिखना था। पौने दो घंटे की छोटी सी फिल्म है लेकिन मनोरंजन भरपूर करती है। पूरी फिल्म में ठेठ दिल्ली का ठाठ तो है ही। 

निर्देशक: शशांत शाह 
कलाकार: तुषार कपूर, विनय पाठक, रणवीर शौरी, रवि किशन, विशाखा सिंह, डॉली अहलूवालिया 
संगीत: जयदेव कुमार