Saturday, October 31, 2009

लंडन ड्रीम्स

फिल्म समीक्षा

लंदन जो एक ड्रीम है।

धीरेन्द्र अस्थाना

विषय पुराना हो तो भी उसे नये तथा आकर्षक अंदाज में कैसे बयान किया जाए, यह कला निर्देशक विपुल शाह को बखूबी आती है। अपनी नयी फिल्म ‘लंडन ड्रीम्स‘ में उन्होंने अपनी इस कला का बेहतरीन नमूना पेश किया है। दो दोस्तों की बचपन की मोहब्बत, उनकी प्रतिभाओं का टकराव, अभिमान की गांठ, पश्चाताप की आग और फिर मेल-मिलाप। इस पचासों बार कही गयी कहानी को विपुल शाह ने ‘लंडन ड्रीम्स‘ में थोड़ा अलग ढंग से कहा है। संगीत की पृष्ठभूमि पर प्रतिभाओं के टकराव तथा दोस्ती के द्वंद्व को विपुल ने भव्य और प्रभावशाली तरीके से रचा है। एक गंभीर यात्रा के बीच में रह-रह कर पड़ता पंजाब का तड़का फिल्म को रोचक बनाये रखता है। सलमान खान ने पंजाबी मुंडे के बिंदास तथा बेलौस चरित्र में मानो खुद को ही उतार दिया है। इसीलिए उनका किरदार जीवंत होने के साथ-साथ विश्वसनीय भी लगता है। ‘गजनी‘ के बाद असिन ने भी मौका गंवाया नहीं है। अपने किरदार के उतार-चढ़ाव को उन्होंने पूरी प्रतिभा और निष्ठा से निभाया है। अजय देवगन का चरित्र संजीदा है जो उनके मूल व्यक्तित्व से मेल भी खाता है। पता नहीं क्यों अजय देवगन कॉमेडी के बजाय गंभीर चरित्रों को ज्यादा सहज और प्रभावी ढंग से निभाते नजर आते हैं। संगीत के स्तर पर भी फिल्म प्रभावित करती है। संगीत की पृष्ठभूमि पर आधारित फिल्म का संगीत तो सबसे पहले प्राणवाण होना चाहिए, जो कि है। प्रसून जोशी के गीतों में न सिर्फ ताजगी है बल्कि वे सार्थक और अर्थपूर्ण भी हैं। बहुत दिनों के बाद मुख्यधारा की कोई फिल्म अपनी संपूर्णता में अच्छी बनी है। एक साफ-सुथरा मनोरंजन पसंद करने वालों को फिल्म पसंद आएगी। स्पष्ट कर दें कि ‘लंडन ड्रीम्स‘ अर्थपूर्ण सिनेमा वाली कतार के बाहर खड़ी फिल्म है। युवा दर्शकों को आकर्षित करने के कई मसाले फिल्म में मौजूद हैं। शायद इसीलिए युवाओं का बड़ा प्रतिशत यह फिल्म देख रहा है। ‘वांटेड‘ के बाद सलमान खान को एक बार फिर सफलता का स्वाद चखने को मिला है। पंजाब और लंदन का कोलाज विपुल शाह का ‘ट्रेड मार्क‘ बनता जा रहा है।

निर्देशक: विपुल शाह
कलाकार: अजय देवगन, सलमान खान, असिन, ओम पुरी
गीत: प्रसून जोशी
संगीत: शंकर-अहसान-लॉस

Saturday, October 10, 2009

एसिड फैक्ट्री

फिल्म समीक्षा

भव्य लेकिन निस्तेज ‘एसिड फैक्ट्री‘

धीरेन्द्र अस्थाना

निर्माता संजय गुप्ता की लंबे समय से मीडिया में छायी हुई फिल्म ‘एसिड फैक्ट्री‘ दर्शक जुटाने में कामयाब नहीं हो सकी। संजय गुप्ता की फिल्में बहुत खर्चीली, भव्य, चकाचैंध में डूबी और तेज गति की होती हैं। यह भी वैसी ही फिल्म है। इस कदर ‘एक्शन पेक्ड‘ की कहानी के बारे में सोचने की मोहलत भी न मिले। इस फिल्म से दीया मिर्जा भी स्टंट कर सकने वाली हीरोईनों में शुमार हो गयी हैं। लेकिन फिल्म के अंत में उनका विलेन का किरदार स्थापित हुआ है जो बतौर हीरोईन उन्हें नुकसान पहुंचा सकता है।
फिल्म में एक साधारण सी कहानी यह है कि फरदीन खान, मनोज बाजपेयी, दीनो मोरिया, आफताब शिवदासानी, डैनी डेनजोंग्पा और दीया मिर्जा एक फैक्ट्री में बेहोश पड़े हैं। सबसे पहले फरदीन खान को होश आता है फिर एक-एक कर बाकी सब को। ये लोग एक ‘एसिड फैक्ट्री‘ में बंद हैं। तमाम लोगों की याद्दाश्त चली गयी है। सब एक-दूसरे पर शक कर रहे हैं। बीच-बीच में एक फोन आता है जो इरफान खान का है। उस फोन से पता चलता है कि फैक्ट्री में बंद कुछ लोग इरफान खान के बंदे हैं और दो लोग बंधक हैं। उनमें से एक बंधक बिजनेसमैन सार्थक है जिसकी पत्नी से तीस मिलियन डाॅलर वसूल कर इरफान खान फैक्ट्री की तरफ आ रहा है। पुलिस उसके पीछे है। पुलिस के साथ इरफान खान की लोमहर्षक मुठभेड़ है जिसमें कई दर्जन कारों को तोड़ा फोड़ा गया है। इधर फैक्ट्री के भीतर एक घटनाक्रम के तहत सबको क्रमशः याद आता है कि वह कौन है और कैसे बेहोश हुआ था। सिर्फ फरदीन खान है जो पुलिस आॅफीसर है। वह इरफान खान का नेटवर्क तोड़ने के लिए उसके गैंग में शामिल हुआ था। लेकिन यह बात फैक्ट्री में बंद किसी भी अपराधी को पता नहीं। इस बीच पुलिस को झांसा देकर इरफान खान ‘एसिड फैक्ट्री‘ में आ पहुंचता है। वह घोषणा करता है कि हममें से कोई पुलिस का आदमी है। थोड़ी बहुत नाटकीयता के बाद खुलासा हो जाता है कि फरदीन खान ही पुलिस अधिकारी है। भयानक मारधाड़ चलती है। फरदीन एसिड सिलेंडरों को गोलियों से उड़ा कर बाहर भाग जाता है। दमघोंटू गैस के फैलने से अपराधी फिर बेहोश हो जाते हैं। तभी पुलिस आ जाती है और पिक्चर का ‘दी एंड‘ हो जाता है। सार्थक और उसकी पत्नी का पुनर्मिलन हो जाता है। दीया मिर्जा समेत बाकी सबको पुलिस पकड़ कर ले जाती है। फिल्म ‘सत्या‘ के बाद पहली बार मनोज वाजपेयी ने बहुत दमदार और यादगार अभिनय किया है। गीत-संगीत साधारण है तो सिनेमेटोग्राफी अद्भुत है।

निर्माता: संजय गुप्ता
निर्देशक: सुपर्ण वर्मा
कलाकार: फरदीन खान, इरफान खान, मनोज वाजपेयी, दीनो मोरिया, आफताब शिवदासानी, डैनी डेनजोंग्पा, दीया मिर्जा
संगीत: शमीर टंडन, रंजीत बारोट, मानसी, बप्पा लाहिरी

Saturday, October 3, 2009

डू नॉट डिस्टर्ब

फिल्म समीक्षा

डेविड धवन ने कुनबा जोड़ा

धीरेन्द्र अस्थाना

बड़ी पुरानी कहावत है - कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमति ने कुनबा जोड़ा। वशु भगनानी जैसे बड़े निर्माता की महंगी फिल्म ‘डू नॉट डिस्टर्ब‘ में निर्देशक डेविड धवन ने भी यही किया है। मुख्य धारा सिनेमा के कुछ लोग मानते हैं कि कॉमेडी एक ऐसा नुस्खा है जो बॉक्स ऑफिस पर कभी फ्लॉप नहीं होता है। बात कुछ हद तक सही भी है। इस भागमभाग, मारकाट, दुख-संताप और गले गले तक गम में डूबी दुनिया का कौन सा ऐसा नागरिक है जो यह कहेगा कि साहब, मैं हंसना नहीं चाहता। जन मानस की इसी कमजोरी को भांप कर कॉमेडी किंग डेविड धवन ने फिर एक माइंडलेस कॉमेडी बनायी है। अगर आपकी दिलचस्पी सिर्फ हंसने-हंसाने में है और सिनेमा का काम आप सिर्फ मनोरंजन करना मानते हैं तो फिल्म को देख आइए। प्रदर्शन के पहले दिन की रिपोर्ट कहती है कि गोविंदा-सुष्मिता-लारा-रितेश देशमुख अभिनीत इस फिल्म को देखने हजारों दर्शक पहुंचे।
यकीनन फिल्म में हंसने हंसाने की कई जबर्दस्त स्थितियां पैदा की गयी हैं। भंगिमाओं से भी, संवादों से भी और सिचुएशंस से भी। कहानी बड़ी साधारण सी है। सुष्मिता सेन एक करोड़पति बिजनेस वुमेन है। गोविंदा उसका पति है जिसे बार बार सुष्मिता यह अहसास दिलाती रहती है कि गोविंदा उसकी कंपनी का कर्मचारी है। लारा दत्ता गोविंदा की गर्लफ्रेंड है जबकि सोहेल खान लारा का सच्चा आशिक है।
सुष्मिता सेन को शक है कि गोविंदा का टांका कहीं और भिड़ा हुआ है। वह प्राइवेट डिटेक्टिव रणवीर शोरी को गोविंदा की जासूसी के लिए तैनात करती है। इधर गोविंदा एक गरीब लेकिन ऐशो आराम पसंद युवक रितेश देशमुख को खरीद कर उसे लारा दत्ता का नकली आशिक बना देता है ताकि प्राइवेट जासूस नाकाम रहे। इस स्थूल सी कहानी के इर्द-गिर्द कुछ उपकथाएं और स्थितियां निर्मित कर पूरी फिल्म बनायी गयी है। गोविंदा हंसाने में माहिर माने जाते हैं। माहिर हैं भी। लेकिन उन्हें अपना वजन कम करना चाहिए। वह काफी थुलथुल नजर आने लगे हैं। सुष्मिता सेन भी मोटी दिखती हैं। हालांकि अदाकारा वह अच्छी हैं। लारा दत्ता और रितेश देशमुख ने भी दर्शकों को हंसाने की भरपूर कोशिश की है। राजपाल यादव तो मूलतः हास्य कलाकार ही हैं। रणवीर शोरी को कॉमेडी नहीं करनी चाहिए। वह उनके बस की बात नहीं है। वह एक संजीदा कलाकार हैं। उन्हें के के मेनन की तरह गंभीर भूमिकाएं ही करनी चाहिए। कॉमेडी और गंभीर अभिनय के बीच का असमंजस उनकी बॉडी लैंग्वेज से साफ पता चलता है। फिल्म के दस गायकों ने मिल कर भी एक गाना ऐसा नहीं गाया जिसे गुनगुनाया जा सके। गीत-संगीत एकदम औसत है। हां, फिल्म की कुछ लोकेशंस आकर्षक हैं।

निर्माता: वशु भगनानी
निर्देशक: डेविड धवन
कलाकार: गोविंदा, सुष्मिता सेन, रितेश देशमुख, लारा दत्ता, सोहेल खान, राजपाल यादव
गीतकार: समीर