Friday, November 16, 2012

शीरी फरहाद की तो निकल पड़ी


फिल्म समीक्षा

अधेड़ समय में प्यार

‘शीरी फरहाद की तो निकल पड़ी‘

धीरेन्द्र अस्थाना


जैसा कि आम तौर पर होता है, लीक से हटकर बनी अच्छी फिल्में देखने में ज्यादा रुचि नहीं दिखाते दर्शक। ‘शीरी फरहाद की तो निकल पड़ी‘ के साथ भी यही ट्रेजडी घटित हुई। पहले दिन ज्यादा दर्शक नहीं आये। हालांकि निर्देशिका बेला सहगल ने विषय तो अच्छा चुना ही, उसे बुना भी बहुत बेहतर ढंग से। लेकिन फिल्म में न तो मारामारी थी, न ही कोई लार्जर दैन लाइफ फार्मूला था और न कोई आइटम डांस था। लुप्त होती पारसी कम्युनिटी के जीवन, संघर्ष और कल्चर वाले बैक ड्रॉप पर दो ऐसे साधारण लोगों की प्रेम कहानी रची गयी, जो एक अधेड़ समय में अकेले और उदास खड़े थे। क्या थकी उम्र में, जब कनपटियों पर के बालों को सफेद कर चुका होता है बुरा वक्त, सामने खड़े एक निश्छल प्रेम को गले नहीं लगा लेना चाहिए। यही इस फिल्म का संदेश भी है और सार्थकता भी। दरअसल इस फिल्म की असाधारणता इसकी साधरणता में ही छिपी है। फिल्मांकन, अहसास, गीत, संवाद, जीवन, रहन-सहन सब कुछ एकदम साधारण। एकदम हमारे आसपास के गली कूचों में टहलता हुआ। कलाकार भी हमारे आसपास के। बोमन ईरानी और फराह खान। एक मंझा हुआ अभिनेता। दूसरी मंझे हुए अभिनेताओं से उनका बेहतर अभिनय निकलवाने वाली निर्देशिका। बतौर एक्ट्रेस फराह की यह पहली फिल्म है। वह चाहें तो इस क्षेत्र में बनी रह सकती हैं। दोनों ने बहुत उम्दा काम किया है। अश्लील या फूहड़ हुए बिना एक खरा-खरा कॉमिक सिनेमा पेश करने की कोशिश की है दोनों ने, जो बहुत सहज और दिलचस्प लगता है। निर्देशिका ने ब्रा और पेंटी की दुकान में काम करने वाले एक 45 वर्षीय पारसी आदमी के अकेलेपन और व्यथा को भी आवाज दी है। फिल्म कई जगहों पर इमोशनल हो जाती है। पर फिल्माये एक खुशनुमा गाने में सहसा वह संताप भी चला आता है, जिससे फराह अपने अतीत में गुजरती रही हैं। मुख्यतः तो यह बोमन ईरानी और फराह खान की ही प्रेम कहानी है लेकिन सहायक चरित्रों ने भी फिल्म में समां बांधा है। खासकर बोमन की मां का किरदार निभाने वाली डेजी ईरानी तो पारसी समय और समाज की आत्मा बन गयी हैं। दर्शकों को अच्छी फिल्म बनाने वालों को उत्साहित करना चाहिए वरना सबके सब खराब सिनेमा बनाने वाले राजपथ पर मुड़ जायेंगे। कृपया देखें। 

निर्देशक: बेला सहगल
कलाकार: बोमन ईरानी, फराह खान, डेजी ईरानी
संगीत: जीत गांगुली
पटकथा एवं संवाद: संजय लीला भंसाली

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