Monday, December 26, 2011

डॉन टू

फिल्म समीक्षा

सिर्फ स्टाइलिश है:डॉन टू‘

धीरेन्द्र अस्थाना

निर्देशक फरहान अख्तर अपनी जिस संवेदनशीलता के लिए जाने जाते हैं, ’डॉन-टू‘ उससे एकदम अलग, तकनीक प्रधान फिल्म है। शाहरुख खान की फिल्म ‘रा डॉट वन‘ भी तकनीक प्रधान फिल्म थी, इसलिए उसने भी दर्शकों के दिल को नहीं छुआ था। ’डॉन टू‘ भी लगभग उसी कड़ी की फिल्म है, जो यह तो बता सकती है कि मारधाड़, विस्फोट, डकैती, जेल तोड़ना, सिक्योरिटी सिस्टम फेल कर देना, ऊंची बिल्डिंगों से कूदना आदि आदि के स्तर पर सिनेमा कितना आगे पहुंच गया है पर एक तार्किक, दमदार और भावप्रवण कहानी कहने से चूक जाती है। शाहरुख खान की जितनी भी यादगार और बेहतरीन फिल्में हैं, वे सब की सब अपनी मर्मस्पर्शी कहानियों के कारण उल्लेखनीय हैं। इसमें शक नहीं कि ’डॉन-टू‘ एक भव्य और महंगी फिल्म है, जिसकी विदेशी लोकेशन मन को बांधती हैं। इसमें भी शक नहीं कि इसमें शाहरुख खान का वह निराला अंदाज भी मौजूद है, जिसकी वजह से वह किंग खान हैं लेकिन एक उम्दा कथा-पटकथा के अभाव के चलते ’डॉन-टू‘ सिर्फ एक स्टाइलिश फिल्म बनकर रह गयी है। फिल्म के एक और खतरनाक डॉन बोमन ईरानी के आदेश के बावजूद जब प्रियंका चोपड़ा खुद गोली खा लेती है लेकिन शाहरुख खान पर गोली नहीं चला पाती, पूरी फिल्म में केवल यही एक दृश्य ऐसा है जो दर्शकों को भावना के स्तर पर स्पर्श करता है। प्रियंका चोपड़ा एक सीनियर पुलिस अधिकारी है, जो शाहरुख खान को जेल की सलाखों के पीछे देखने की तमन्ना में पूरी दुनिया में मारी-मारी घूम रही है। तो भी ऐन मौके पर वह कमजोर पड़ जाती है और खुद गोली खा लेती है। इससे जाहिर होता है कि शाहरुख खान को लेकर रागात्मकता का कोई बारीक सा तार प्रियंका के भीतर झनझना रहा है। बाकी तो पूरी फिल्म एक अंतरराष्ट्रीय बैंक की नोट छापने की मशीन हड़पने की कोशिशों पर केंद्रित है। नोटों की इन प्लेटों को अंत में शाहरुख खान हासिल करने में कामयाब भी हो जाता है और पुलिस के चंगुल से आजाद भी हो जाता है, इस मशहूर डायलॉग के साथ, ’डॉन को पकड़ना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है।‘ अंतिम सीन में शाहरुख जिस बाइक से आता है, उसकी नंबर प्लेट पर लिखा है- ’डॉन-3‘ यानी पिक्चर अभी बाकी है दोस्त।
निर्देशक: फरहान अख्तर
कलाकार: शाहरुख खान, प्रियंका चोपड़ा, लारा दत्ता, ओम पुरी, कुणाल कपूर, बोमन ईरानी
संगीत: शंकर-अहसान-लॉय

Monday, December 19, 2011

पप्पू कांट डांस साला

फिल्म समीक्षा

सपनों की फिसलन पर ‘पप्पू कांट डांस साला‘

धीरेन्द्र अस्थाना

बनारस, गोरखपुर, सतना, सीवान, भागलपुर, बेगूसराय या फिर गुड़गांव अथवा रोहतक जैसे छोटे शहरों से मुंबई आकर अपने सपनों को साकार करने का संघर्ष करने वाले युवक-युवतियों के जीवन पर पहले भी कई अच्छी-बुरी फिल्में बनी हैं। ‘पप्पू कांट डांस साला‘ इसी कड़ी की एक और फिल्म है। सौरभ शुक्ला एक काबिल डायरेक्टर एक्टर हैं इसलिए उम्मीद थी कि विषय पुराना होने के बावजूद वह फिल्म में कुछ नया करने की कोशिश करेंगे। यह कोशिश उन्होंने की भी है। बनारस से विनय पाठक मुंबई आता है और मेडिकल रिप्रजेंटेटिव की नौकरी पकड़ लेता है। कोल्हापुर से नेहा धूपिया आती है और एक कोरियाग्राफर रजत कपूर के डांस ग्रुप में शामिल हो जाती है। नेहा को एक बड़ी डांसर बनना है और बॉलीवुड में अपना निजी स्पेस बनाना है। विनय पाठक जहां एक छोटे शहर का सीधा-साधा, संस्कारवान और ईमानदार युवक है वहीं नेहा धूपिया बददिमाग, बिंदास और बोल्ड लड़की के किरदार में है जो अपनी चाहतों को पूरा करने के लिए शहर में जिद की तरह बनी हुई है। सपनों के शहर मुंबई में इन दोनों को सेल्स टैक्स वालों की सरकारी कॉलोनी में एक दूसरे के सामने किराए पर फ्लैट मिलता है। एक रात सरकारी छापा पड़ने के बाद नेहा का फ्लैट सील हो जाता है और वह जबरन विनय पाठक के फ्लैट में कब्जा जमा लेती है लेकिन किराए का आधा पैसा जबरन देकर। इसके बाद शुरू होता है दो विपरीत मूल्यों, सपनों और इच्छाओं का अनंत टकराव। यह टकराव ही इस फिल्म को दिलचस्प भी बनाता है और बाकी फिल्मों से थोड़ा अलग भी करता है। नेहा बात-बात में विनय को पप्पू कह कर उसका मजाक उड़ाती है वहीं विनय भी मौका पड़ने पर नेहा को नैतिकता का पाठ पढ़ाने से बाज नहीं आता। एक दिन नेहा तमक कर कहती है कि नैतिकता की इतनी बात करते हो तो मुंबई में क्या कर रहे हो? जाते क्यों नहीं अपने बनारस? बात विनय को लग जाती है और वह बनारस लौट जाता है। यहां से कहानी में एक नया मोड़ सौरभ ने यह दिया है कि मुंबई और नेहा को छोड़कर आने के बाद विनय पाठक इन दोनों में और ज्यादा रहने लगता है। इस बिंदु पर खड़े विनय को नसीरुद्दीन शाह बताता है कि विनय को नेहा से मोहब्बत हो गई है और उसकी मुक्ति नेहा की दुनिया में ही है। विनय नेहा के पास लौट आता है और एक-दूसरे को जमकर नापसंद करने वाले ये दो लोग एक साथ हो जाते हैं। फिल्म का गीत-संगीत और संवाद पक्ष प्रभावित करता है। फिल्म थोड़ी लंबी और बोझिल हो गई है जिससे बचा जा सकता था। जिन फिल्मों के लिए नेहा धूपिया को याद किया जाएगा उनमें एक फिल्म बिना शक ‘पप्पू कांट डांस साला‘ भी होगी। अगर इस फिल्म का कायदे से प्रचार किया गया होता तो बॉक्स ऑफिस पर यह फिल्म सफल हो सकती थी।

निर्देशक: सौरभ शुक्ला
कलाकार: विनय पाठक, नेहा धूपिया, रजत कपूर, संजय मिश्रा, नसीरुद्दीन शाह, सौरभ शुक्ला
संगीत: मल्हार पाटेकर

Tuesday, December 13, 2011

लेडीज वर्सेस रिकी बहल

फिल्म समीक्षा

साधारण है ‘लेडीज वर्सेस रिकी बहल’

धीरेन्द्र अस्थाना

निर्देशक वही, कलाकार वही और संगीतकार भी वही। फिर भी ‘लेडीज वर्सेस रिकी बहल’ वह करिश्मा नहीं कर सकी, जो यशराज बैनर की पिछले साल की हिट फिल्म ‘बैंड बाजा बारात’ ने किया था। केवल दिल्ली का परिवेश रखने और पंजाबी स्टाइल में डायलॉग बुलवा देने से कोई फिल्म दिलचस्प नहीं हो जाती। अच्छी फिल्म बनाने के लिए एक अच्छी कहानी का प्रभावशाली फिल्मांकन तो जरूरी है ही, चरित्रों का जीवंत और सहज होना भी अनिवार्य है। ‘लेडीज वर्सेस रिकी बहल’ की कहानी तो साधारण है ही, उसे फिल्माया भी किसी डॉक्यूमेंट्री की तरह गया है। अनुष्का शर्मा और रणवीर सिंह की जोड़ी ने ‘बैंड बाजा बारात’ में जो उम्मीद जगायी थी, उसे उन्होंने इस फिल्म में खुद ही तोड़ दिया। निर्देशक मनीष शर्मा इस बार इस जोड़ी से कुछ निकलवा नहीं पाये। निकलवाते भी कैसे? कहानी में कोई बात होती तब न, कोई करिश्मा किया जाता! रणवीर ंिसंह एक ठग हैं, जो लड़कियों को अपने जाल में फंसाकर उनके पैसे लूट लेता है। एक शहर की लड़की को बेवकूफ बनाकर वह दूसरे शहर की राह पकड़ लेता है। छोटे से जीवन में वह कुल 30 लड़कियों को ठग लेता है। प्रतिनिधि के रूप में कुल तीन लड़कियों को फिल्म में उसका शिकार दिखाया गया है। ये हैं मुंबई की दीपानिता शर्मा, लखनऊ की अदिति शर्मा ओैर दिल्ली की परिणति चोपड़ा। ठगे जाने के बाद तीनों एकजुट होती हैं और एक चतुर सेल्स गर्ल अनुष्का शर्मा को अपने साथ मिला गोवा पहुंचती हैं, जो रणवीर सिंह का नया ठिकाना है। नयी शिकार अनुष्का को ठगने की इस प्रक्रिया के दौरान रणवीर सिंह खुद शिकार बन जाता है। एक प्रसंग के दौरान वह जान जाता है कि उसे ठगा जा रहा है, लेकिन इस सच को जान लेने के बाद भी वह अपने पांव पीछे नहीं खींचता, क्योंकि तब तक उसे अनुष्का से सचमुच का प्यार हो जाता है। वह तीनों लड़कियों को उनका कुल एक करोड़ रुपया वापस लौटा देता है और अनुष्का से लाइफ का रियल पार्टनर बनने की गुजारिश करता है। हैप्पी एंड। ठगी का धंधा बड़ा हैरतअंगेज होता है। उसके लिए जबर्दस्त प्रतिभा चाहिए। रणवीर में इस प्रतिभा का अभाव दिखता है। अनुष्का इतनी जल्दी खुद को रिपीट करने लगेगी सोचा न था।

निर्देशक: मनीष शर्मा
कलाकार: रणवीर सिंह, अनुष्का शर्मा, परिणति, दीपानिता और अदिति।
संगीत: संगीतः सलीम सुलेमान

Monday, December 5, 2011

द डर्टी पिक्चर

फिल्म समीक्षा

बोल्ड एंड ब्यूटीफुल ‘द डर्टी पिक्चर’

धीरेन्द्र अस्थाना


कथा, पटकथा, संवाद और गीत के लिए 2011 के तमाम महत्वपूर्ण एवॉर्ड रजत अरोड़ा को मिलने वाले हैं। क्या संयोग है कि वर्ष की शुरुआत 7 जनवरी को रिलीज विद्या बालन की फिल्म ‘नो वन किल्ड जेसिका’ से हुई और लगभग अंत भी 2 दिसम्बर को रिलीज विद्या बालन की फिल्म ‘द डर्टी पिक्चर’ से हुआ। यकीनन इस वर्ष के कई एवॉर्ड की हकदार विद्या बालन भी हैं। इस फिल्म के माध्यम से विद्या बालन ने साबित कर दिया है कि वह एक प्रतिभाशाली, संवेदनशील और बहुआयामी अभिनेत्री हैं। आठवें दशक में साउथ की सुपरस्टार हीरोइन सिल्क स्मिता की रियल लाइफ पर आधारित इस चुनौतीपूर्ण किरदार को निभाने का साहस बॉलीवुड की कई मशहूर अभिनेत्रियां नहीं कर पायी थीं। ऐसे में विद्या बालन आगे आयीं और उन्होंने बता दिया कि वह ब्यूटीफुल तो हैं ही बोल्ड भी हैं। निर्माता एकता कपूर की यह विशेषता बनती जा रही है कि वह आरंभ तो किरदारों से करती हैं लेकिन अंततः परिवेश और समय को ही फिल्म का विमर्श और चरित्र बना देती हैं। यह फिल्म भी सिल्क स्मिता के बहाने तत्कालीन दक्षिण भारतीय सिनेमाई परिवेश और समय के साथ-साथ रोशनी के पीछे अंधकार के अस्तित्व को रेखांकित करती है। और चूंकि फिल्म हिन्दी में है, इसलिए यह पूरे हिन्दी सिनेमा वह वाला उदास और गर्दिश में डूबा चेहरा बन जाती है, जो जगमग उजालों के पीछे खड़ा थरथराता रहता है। निर्देशक मिलन लूथरिया ने सभी कलाकारों का श्रेष्ठ निकलवाने में कामयाबी पायी है लेकिन इंटरवल के बाद वह थोड़ा लड़खड़ा गये हैं। रियल लाइफ को ज्यादा से ज्यादा दर्शाने के मोह में उन्होंने फिल्म को बेवजह लंबा कर दिया है। इंटरवल के बाद वाले हिस्से को बड़ी सहजता से 15 से 20 मिनट छोटा किया जा सकता था। इससे फिल्म और कस जाती और ‘मेरा इश्क सूफियाना’ जैसे बेहतरीन गीत पर दर्शक हॉल से बाहर नहीं जाते। इसी गीत में विद्या बालन गजब की दिलकश और मोहक लगती हैं। बाकी फिल्म में तो उनका सेक्सी अवतार है। तुषार कपूर बहेतरीन काम कर गये हैं तो इमरान हाशमी ने भी बताया है कि वह केवल सीरियल किसर ही नहीं हैं, बल्कि अभिनय भी कर सकते हैं। फिल्म के अंत में सिल्क को लेकर अपने भीतर उमड़ते आवेग को इमरान ने खूबसूरत अभिव्यक्ति दी है। जब तक सिनेमा है, तब तक शायद ऐसी फिल्में बीच-बीच में बनती रहेंगी कि सिनेमा में हीरोइनों का किस कदर शोषण होता है। चमकदार सिनेमा के दारुण यथार्थ को मर्मांतक चीख की तरह अनुभव करने के लिए फिल्म जरूर देखनी चाहिए।

निर्देशक: मिलन लूथरिया
कलाकार: नसीरुद्दीन शाह, विद्या बालन, तुषार कपूर, इमरान हाशमी, अंजु महेन्द्रू
लेखक: रजत अरोड़ा
संगीत: विशाल-शेखर

Monday, November 28, 2011

देसी ब्वायज

फिल्म समीक्षा

जॉबलेस देसी ब्वायज

धीरेन्द्र अस्थाना

कॉमेडी को सफलता का माई-बाप समझने की झोंक में कैसे एक संजीदा और इमोशनल सब्जेक्ट का कचरा किया जा सकता है, यह जानने के लिए ‘देसी ब्वायज’ देखनी चाहिए। अच्छे गीत-संगीत और लंदन की भव्य लोकेशन से सजी बड़ी स्टार कास्ट वाली यह फिल्म काफी बेहतर बन सकती थी। अगर इंटरवल के बाद निर्देशक को यह धुन सवार नहीं होती कि फिल्म को कॉमिक ट्रीटमेंट देना चाहिए। कॉमेडी फिल्मों के सरताज निर्देशक डेविड धवन के बेटे रोहित धवन की यह पहली निर्देशित फिल्म है। विश्व भर के लोगों को प्रभावित करने वाला विषय उठाकर रोहित ने एक सार्थक कदम उठाया। इंटरवल तक उस विषय को समझदारी और संवेदना के साथ भी फिल्माया। लगा कि रोहित एक गंभीर और मर्मस्पर्शी फिल्म बनाकर बॉलीवुड में अपना एक अलग मुकाम बनाएंगे। लेकिन इंटरवल के बाद पता नहीं किसकी सलाह पर उन्होंने यू टर्न लिया और कॉमेडी की डगर पर चल पड़े। इस डगर पर पांव धरते ही वह जो फिसले तो फिल्म उनकी पकड़ से छूट गयी। नतीजा, अपनी संपूर्णता में फिल्म न इमोशनल रह पायंी और न ही कॉमेडी बन पायी। दुख की बात यह भी हुई कि दीपिका पादुकोण और चित्रांगदा सिंह जैसी प्रतिभाशाली अभिनेत्रियों से कोई काम ही नहीं लिया जा सका। अक्षय कुमार और जॉन अब्राहम का अभिनय फिल्म को कितनी दूर ले जाता जब कथानक ही खो गया। सन् 2009 में जो विश्व्यापी मंदी आयी थी उसकी चपेट में लंदन में रहने वाले ये दो दोस्त अक्षय और जॉन भी आ जाते हैं। सब तरफ से हारकर इन्हें ‘मेल एस्कॉर्ट्स’ (पुरुष वेश्या) के धंधे में उतरना पड़ता है। जिस कारण जॉन को अपनी प्रेमिका और अक्षय को अपने भांजे से जुदा होना पड़ता है। दुखी जॉन अपने पंद्रह साल पुराने दोस्त अक्षय को अपने घर से निकाल देता है। इसके बाद बेरोजगार अक्षय कॉलेज वापस लौटता है अपनी पढ़ाई पूरी करने और जॉन अपनी रुठी हुई प्रेमिका दीपिका को मनाने के करतबों में जुट जाता है। दोनों के पास पैसा कहां से आता है, यह एक रहस्य है। अंत में जॉन को दीपिका मिल जाती है और अक्षय को उसका भांजा वीर। लंदन में जॉबलेस हुए देसी ब्वायज फिर से दोस्त बन जाते हैं और ‘बा- रोजगार’ भी। जॉन का काम बेहतरीन है।

निर्देशक: रोहित धवन
कलाकार: अक्षय कुमार, जॉन अब्राहम, दीपिका पादुकोण, चित्रांगदा सिंह, ओमी वैद्य, संजय दत्त (मेहमान भूमिका)
संगीत: प्रीतम चक्रवर्ती

Monday, November 21, 2011

शकल पे मत जा

फिल्म समीक्षा

‘शकल पे मत जा‘

अकल भी कहां है!

धीरेन्द्र अस्थाना

शुभ द्वारा निर्देशित ‘शकल पे मत जा‘ माइंडलेस कॉमेडी नहीं माइंड घर पे रख कर बनायी गयी फिल्म है। बॉलीवुड में भी अजब गजब गोरखधंधा है। प्रतिभाशाली लोग या तो सिनेमा बना नहीं पाते, बना लेते हैं तो उन्हें रिलीज के लिए सिनेमा हॉल नहीं मिलते, एकाध सिनेमा हॉल मिल जाता है तो दर्शक फिल्म देखने नहीं आते। दूसरी तरफ कॉमेडी के नाम पर प्रोड्यूसर भी मिल जाता है, डिस्ट्रीब्ूयटर भी मिल जाता है और दर्शक भी झूमते-झामते फिल्म देखने पहुंच जाते हैं। ‘शकल पे मत जा‘ मानव श्रम और धन की बरबादी की उम्दा और कारुणिक मिसाल है। हालांकि निर्देशक ने जरूर यह मुगालता पाल लिया होगा कि वह युवाओं को संबोधित एक आधुनिक और मजाकिया फिल्म बनाने में कामयाब है लेकिन असल में यह हास्यप्रद नहीं हास्यास्पद और बचकानी फिल्म है जिसे देखते हुए लगातार रोना आता रहता है। नये लड़कों और थोड़े से पैसों को लेकर बनायी गयी यह फिल्म असल में कुछ गलतफहमियों के कारण पैदा हुई अराजकता पर फोकस करते हुए एक निकम्मी और कम अक्ल सुरक्षा व्यवस्था पर चोट करना चाहती है लेकिन चोट करने की अकल न होने के कारण एक बेतुकी और बोर नौटंकी में बदल जाती है। सौरभ शुक्ला और रघुवीर यादव जैसे प्रतिभावान लोग इन फिल्मों में काम करके खुद अपने ऊपर गोली दाग रहे हैं। क्या बॉलीवुड में काम की बहुत कमी है? फिल्म की कहानी कॉलेज के तीन लड़कों के प्रोजेक्ट से शुरू होती है। चौथा हीरो का 13 साल का भाई है। प्रोजेक्ट के तहत एक डॉक्यूमेंट्री बनानी है - आतंकवादी गतिविधियों पर केंद्रित। शूटिंग के दौरान दिल्ली एयरपोर्ट पर एक जहाज की लेंडिंग को शूट करते हुए चारों पुलिस द्वारा धर लिए जाते हैं। इन चारों की हास्यास्पद ढंग से की जा रही जांच में ही पिचहत्तर प्रतिशत फिल्म खप जाती है। बाकी पच्चीस प्रतिशत में बताया जाता है कि एयरपोर्ट पर असली आतंकवादी भी मौजूद थे जो हवाईजहाज उड़ाना चाहते थे। चारों लड़के तो केवल इसलिए फंस गये क्योंकि अपनी शूटिंग में उन्होंने एयरपोर्ट के अलावा राष्ट्रपति और संसद भवन भी शूट किया था और बम बनाने, हवाई जहाज उड़ाने तथा आरडीएक्स पर चर्चा भी की थी। आखिर में हीरो द्वारा असली बम को डिफ्यूज करने के शॉट पर फिल्म खत्म होती है और नेरेशन द्वारा फिल्म की कहानी समझायी जाती है। फिल्म देखने की कोई वजह नहीं है। दो गाने अच्छे हैं लेकिन उनका फिल्मांकन कमजोर है।

निर्देशक: शुभ
कलाकार: शुभ, प्रतीक कटारे, सौरभ शुक्ला, रघुवीर यादव, आमना शरीफ, जाकिर हुसैन, चित्रक, प्रदीप काबरा, हर्षल पारेख, राजकुमार कनौजिया
संगीत: सलीम-सुलेमान

Monday, November 14, 2011

रॉकस्टार

फिल्म समीक्षा

अजब-गजब सा ‘रॉकस्टार’

धीरेन्द्र अस्थाना

इम्तियाज अली की इस तीसरी फिल्म को एआर रहमान के अद्भुत संगीत और रणबीर कपूर के बहुआयामी अभिनय के लिए देखना चाहिए। बहुत कम समय में रणबीर कपूर अभिनय के नये-नये अंदाज दिखा रहे हैं। इस फिल्म में तो उन्होंने साबित कर दिया है कि वह एक चरित्र की कितनी सारी छायाओं को जी सकते हैं। दिल्ली के एक पंजाबी मुंडे जनार्दन जाखड़, उर्फ जेजे के, गायक बनने के लड़खड़ाते ख्वाब से शुरू हुआ उसका सफर यूरोप के रॉक स्टार जॉर्डन बनने के पायदान तक एक्टिंग के कई पन्ने पलटता है। इम्तियाज ने फिल्म को मजाकिया अंदाज में आरंभ किया था जिसका दर्शकों ने दिल खोलकर मजा भी लिया लेकिन इंटरवल के बाद फिल्म ने अचानक एक बोझिल और अराजक यू टर्न लिया। फिर तो फिल्म उनके हाथ से फिसलती ही चली गयी। पहली फिल्म के हिसाब से नरगिस फाखरी ने बेहतर काम करने की कोशिश की लेकिन उनका चरित्र इस कदर उलझा हुआ था कि वह खुद भी उसी में उलझ कर रह गयीं। रणबीर कपूर के साथ वह एक आवारा, अराजक, लंपट और बिंदास जीवन के कुछ क्षण बिताना चाहती हैं। बिताती भी हैं लेकिन एक अमीर एनआरआई के साथ ब्याह कर के विदेश (प्राग) भी चली जाती हैं। इधर दिल्ली में रणबीर अपने घर से धक्के देकर बाहर निकाल दिये जाने के बाद थोड़ा बहुत गा-बजाकर थोड़ा सा पहचाना चेहरा बन जाता है। नरगिस से मिलने की चाह में वह पीयूष मिश्रा की सारी शर्तें मान कर उनकी संगीत कंपनी के साथ सात देशों के टूर पर जाता है। जहां उसकी मुलाकात प्राग में नरगिस से हो जाती है। यहां नरगिस उलझ जाती है। वह अपना घर भी बचाए रखना चाहती है और रणबीर कपूर का जंगली और दीवाना आमंत्रण उसमें ऊर्जा भी भरता है। इस बीच रणबीर कपूर स्टार बनता चलता है लेकिन कभी अनुबंध तोड़कर, कभी मीडिया पर्सन से उलझकर, कभी किसी कंसर्ट में न पहुंच कर ठुकता-पिटता और जेल भी जाता रहता है। शरीर में खून न बनने की बीमारी के चलते नरगिस एक दिन दम तोड़ देती है और हमारा रॉक स्टार अपनी प्रेमिका की फेंटेसी में जीने लगता है। संगीत के बैकड्रॉप पर दो युवाओं की अजब-गजब प्रेम कहानी को इम्तियाज ने अपने अंदाज और मुहावरे में ढालने की पुरानी कोशिश की है लेकिन यह कोशिश उनके पहले प्रयोग ‘जब वी मेट’ जैसी कामयाब नहीं है। फिल्म में दिल्ली स्टाइल संवाद आकर्षित करते हैं। तमाम गाने पहले से ही हिट हो चुके हैं।

निर्देशक: इम्तियाज अली
कलाकार: रणबीर कपूर, नरगिस फाखरी, पीयूष मिश्रा, शेरनाज पटेल और शम्मी कपूर
गीत: इरशाद कामिल
संगीत: ए आर रहमान

Tuesday, November 8, 2011

लूट

फिल्म समीक्षा

लूट सके तो लूट

धीरेन्द्र अस्थाना

कमर्शियल सिनेमा की दुनिया में जिसे ‘पैसा वसूल’ कहते हैं ‘लूट’ उसी तरह की फिल्म है। दिमाग घर पर रखकर सिर्फ मजा लेने के लिए ‘लूट’ का रुख कर सकते हैं। निर्माता सुनील शेट्टी ने पता नहीं क्यों इस फिल्म का कायदे से प्रमोशन नहीं किया। यही वजह है कि ‘लूट‘ बॉक्स आफिस को नहीं लूट सकी। वरना तो आम दर्शकों को रिझाने के लिए इसमें तमाम वो मसाले मौजूद हैं जो किसी भी कमर्शियल फिल्म को कामयाब बनाते हैं। बड़े सितारे हैं, अद्भुत तो नहीं लेकिन एक ठीकठाक सी कहानी है, एक्शन है, थ्रिल है, डांस है और है एक नयी सी लोकेशन। पूरी फिल्म को थाइलैंड के नजदीक स्थित पटाया सिटी में शूट किया गया है जिसे देखना आंखों को अच्छा लगता है। पता नहीं अपने हिंदुस्तानी शहरों में साफ-सफाई क्यों नहीं रखी जाती? फिल्म की वन लाइन स्टोरी यह है कि मुंबई के चार लोकल गुंडे और टपोरी-सुनील शेट्टी, गोविंदा, जावेद जाफरी और महाअक्षय चक्रवर्ती (मिथुन दा के बेटे) एक लोकल डॉन के कहने पर पटाया में किसी अमीर आदमी का घर लूटने जाते हैं लेकिन लोकल संपर्क श्वेता भारद्वाज द्वारा किसी गलत पते पर भेज दिये जाने के कारण खुद फंस जाते हैं। वह गलती से पटाया के एक खतरनाक डॉन महेश मांजरेकर की तिजोरी साफ कर देते हैं। इसके बाद शुरू होता है एक से बढ़कर एक दुर्घटनाओं में उलझने का सिलसिला। खास न होने के बावजूद पूरी फिल्म शुरू से अंत तक बांधे रखती है और मजे को खंडित नहीं होने देती। हर एक्टर अपनी अलग-अलग छाप छोड़ता है। जावेद जाफरी का हास्य, सुनील शेट्टी का एक्शन, महाअक्षय का लड़कपन और सबसे ऊपर गोविंदा का दिलचस्प तमाशा तथा रोचक संवाद। रवि किशन ने भी अच्छा कॉमिक रोल किया है। राखी सावंत का आइटम नंबर फिल्म की यूएसपी बन सकता था लेकिन उसे फिल्म के समाप्त हो जाने के बाद दिखाने से वह नष्ट हो गया है। हिंदी-पंजाबी फिल्मों के हिट गायक मीका ने भी इस फिल्म में पटाया के लोकल गुंडे का किरदार निभाया है और क्या खूब निभाया है।

निर्देशक: रजनीश ठाकुर
कलाकार: गोविंदा, सुनील शेट्टी, जावेद जाफरी, महाअक्षय चक्रवर्ती, रवि किशन, महेश मांजरेकर किम शर्मा, प्रेम चोपड़ा
संगीत: श्रवण, शमीर, मीका

Saturday, October 29, 2011

रा.वन

फिल्म समीक्षा

फिल्म समीक्षा

दिल से नहीं तकनीक से ‘रा.वन‘

लगभग दो सौ करोड़ रुपए खर्च कर के बनायी गयी भव्य ‘रा.वन‘ अपनी लागत भले ही निकाल ले या उससे दो कदम आगे बढ़कर दो-चार गुना ज्यादा मुनाफा भी कमा ले लेकिन यह फिल्म न तो दर्शकों के दिल को छूती है और न ही शाहरुख खान की प्रतिभा में कोई इजाफा करती है। यह दिल से बनी हुई फिल्म नहीं है जिसके लिए शाहरुख खान पूरी दुनिया के दर्शकों के दिलों पर राज करते हैं। जो लोग शाहरुख खान को कुछ कुछ होता है, कभी हां कभी ना, कल हो ना हो, मोहब्बतें, देवदास, मैं हूं ना, वीर जारा, चक दे इंडिया और दिल से के लिए दिल दिए बैठे हैं वे ‘रा.वन‘ देखकर एक विराट उदासी से भर जाएंगे क्योंकि ‘रा.वन‘ शुद्ध रूप से एक साइंस फिक्शन है जिसमें तकनीक राज करती है। जिन दर्शकों का विज्ञान से राई-रत्ती का भी नाता नहीं है उनके लिए तो यह फिल्म एक अजीबो गरीब पहेली जैसी है। लगभग इंटरवल तक तो फिल्म पूरी तरह कम्प्यूटर की बारीकियों, उच्च तकनीक वाले वीडियो गेम, विज्ञान की गुत्थियों और बुराई के प्रतीक रा.वन तथा अच्छाई के प्रतीक जी.वन के निर्माण की प्रक्रिया में ही उलझी रहती है। बुराई का प्रतीक बना रा.वन शाहरुख खान द्वारा निर्मित गेम से बाहर आ जाता है और खुद अपनी मर्जी का मालिक बन बैठता है। उससे उलझने के दौरान शाहरुख खान मारा जाता है। पीछे छूट जाती है उसकी पत्नी करीना कपूर और उसका बेटा अरमान वर्मा। चूंकि अरमान ने गेम बीच में ही छोड़ दिया था इसलिए गेम से बाहर निकले रा.वन को अरमान की तलाश है ताकि वह उसे मार कर गेम पूरा कर सके। शाहरुख खान ने रा.वन के साथ-साथ अच्छाई के प्रतीक जी.वन का भी निर्माण किया था। अरमान इस जी.वन को गेम के भीतर से खोज निकालता है और उसे भी रा.वन की तरह गेम के बाहर वास्तविक दुनिया में ले आता है। यह जी.वन जो हू-ब-हू शाहरुख खान की कॉपी लगता है, अरमान और करीना की कदम कदम पर रक्षा करता है। फिर जैसा कि होना चाहिए अंतिम मुकाबले में जी.वन रा.वन को नष्ट कर देता है और स्वयं भी इस नश्वर दुनिया से विदा लेता है। फिल्म को नीरसता से बचाने के लिए फ्लैश बैक का इस्तेमाल किया गया है। फ्लैश बैक में शाहरुख खान का पारिवारिक जीवन दर्शाया गया है जिसमें करीना कपूर के साथ उसका रोमांस भी शामिल है। अगर यह हिस्सा नहीं रखा गया होता तो पता नहीं फिल्म का क्या बनता। इस संवेदनशील हिस्से ने शाहरुख खान की प्रतिष्ठा की लाज रख ली है। इसी हिस्से में शाहरुख और करीना का ‘छमक छल्लो‘ वाला महा पॉपुलर आइटम नंबर भी है। इस गाने और डांस से करीना अपने दर्शकों का दिल जीत लेती हैं। कुल मिलाकर एक बड़ी फिल्म है जो हमें एक नए अनुभव से गुजारती है।

निर्देशक: अनुभव सिन्हा
कलाकार: शाहरुख खान, करीना कपूर, अर्जुन रामपाल, अरमान वर्मा, सतीश शाह, शहाना गोस्वामी।
संगीत: विशाल-शेखर

Monday, October 17, 2011

माई फ्रेंड पिंटो

फिल्म समीक्षा

खुशी बांटता ‘माई फ्रेंड पिंटो’

धीरेन्द्र अस्थाना

आखिर प्रतिभाशाली युवा अभिनेता प्रतीक बब्बर के व्यक्तित्व को अभिव्यक्त करता हुआ एक चरित्र निर्देशक राघव डार ने खोज निकाला। राघव की फिल्म ‘माई फ्रेंड पिंटो’ में प्रतीक बब्बर का किरदार प्रतीक को एक नयी ऊंचाई और संभावना देगा। एक बार फिर सिद्ध हुआ कि अगर जरा भी अलग और फ्रेश सी कहानी हो तो बिना महंगे बजट और स्टार कास्ट के एक बेहतर फिल्म बनायी जा सकती है। ‘माई फ्रेंड पिंटो’ एक फन फिल्म है जो आपके ज्ञान या संवेदना में कोई इजाफा नहीं करती। लेकिन जितनी देर आप हॉल में हैं, पूरी तरह फिल्म में डूबे रहते हैं। पर्दे पर घटती घटनाओं का न सिर्फ मजा लेते रहते हैं बल्कि खुद को भी फिल्म का हिस्सा मानने लगते हैं। अपने रचना कर्म में दर्शकों को भी शामिल कर लेने का अच्छा कौशल राघव डार ने पेश किया है। यह एक रात की फिल्म है। प्रतीक अपने दोस्त से मिलने माया नगरी मुंबई आता है जहां शहर में विभिन्न जगहों पर घट रही अजीबो गरीब घटनाएं उससे टकराती हैं। इस एक रात में वह अपने दोस्त अर्जुन माथुर की नकचढ़ी और महत्वाकांक्षी बीबी से टकराता है। डॉन मकरंद देशपांडे से टकराता है। डांसर बनने मुंबई आयी कलकी कोचलिन से टकराता है। कुछ और भी जरूरी-गैर जरूरी चरित्र उसके जीवन में उस रात उतरते हैं। वह सबको खुश रखने का प्रयास करता है। मुंबई में वह खुद को बहुत ‘मिसफिट’ पाता है लेकिन अपनी मासूमियत से सबका दिल लूट लेता है, सबकी मदद करता है। एक घटना प्रधान फिल्म है जो बेहद मनोरंजक तथा दिलचस्प भी है। इंटरवल तक फिल्म को ले कर भ्रम बना रहता है कि यह क्या कहना चाहती है लेकिन इंटरवल के बाद फिल्म न सिर्फ गति पकड़ती है बल्कि एक शेप भी लेती जाती है। कलकी कोचलिन और प्रतीक बब्बर में भले ही ग्लैमर न हो लेकिन ये दोनों भविष्य की बड़ी उम्मीद हैं। मकरंद देशपांडे और राज जुत्शी की कॉमेडी कहीं कहीं लाउड हो गयी है लेकिन बोझिल नहीं लगती। प्रत्येक चरित्र को उसकी जरूरत के मुताबिक ही स्पेस दिया गया है। प्रतीक और कलकी का बादलों में डांस करने का एक फंतासी दृश्य लुभावना है तो फिल्म के गीतों में ताजगी तथा युवापन। युवा दर्शकों के लिए एक खुशनुमा और जिंदादिल फिल्म-लीक से हट कर।

निर्देशक: राघव डार
कलाकार: प्रतीक बब्बर, कलकी कोचलिन, दिव्या दत्ता, मकरंद देशपांडे, राज जुत्शी, अर्जुन माथुर
संगीत: अजय गोगावले, अतुल गोगावले, समीर टंडन, कविता सेठ

Saturday, October 8, 2011

रास्कल्स

फिल्म समीक्षा

‘रास्कल्स‘ देखो और भूल जाओ

धीरेन्द्र अस्थाना

संजय दत्त के होम प्रोडक्शन की पहली फिल्म थी इसलिए उन्होंने ऐसा कोई रिस्क लेना उचित नहीं समझा कि मामला घर फूंक तमाशा जैसा बन जाए। ‘रास्कल्स‘ का निर्देशन उन्होंने डेविड धवन को सौंपा जो ‘माइन्डलेस कॉमेडी‘ के उस्ताद हैं। डेविड धवन को सिनेमा की सार्थकता वगैरह में कोई दिलचस्पी नहीं है। वह चाहते हैं कि दर्शक उनकी फिल्म देखने आए। सिनेमा हॉल में फिल्म देखने के बाद खुश खुश घर जाए और मस्त रहे। ‘रास्कल्स‘ उनके इस उद्देश्य को पूरा करती है। फिल्म को देखने जाते समय दिमाग घर छोड़ जाएं, उसकी ‘रास्कल्स‘ में कोई जरूरत नहीं है। कौन, कहां क्यों है, क्या कर रहा है, क्यों कर रहा है, कैसे कर पा रहा है इस सब झमेले में नहीं पड़ना है। केवल अधनंगे जिस्मों को देख आंखें सेंकनी हैं, मजेदार संवाद सुनने हैं, अदभुत विदेशी लोकेशन्स देखनी हैं, कुछ मजेदार घटनाओं के कारण घटता हास्य एंजॉय करना है और इस यथार्थ का लुत्फ उठाना है कि संजय दत्त, अजय देवगन और कंगना रानावत जैसे प्रतिभाशाली कलाकार जो फैशन, वन्स अपऑन ए टाइम इन मुंबई, मुन्ना भाई एमबीबीएस, अपहरण, वास्तव तथा गंगाजल के कारण जाने जाते हैं, बाजार के सामने कितने लाचार नजर आते हैं! कंगना ने जिस कदर देह प्रदर्शन किया है उसे देख शायद अब कोई उन्हें फिर से इस तरह देखने की इच्छा में नहीं तड़पेगा। कहानी पर कोई बात अब तक इसलिए नहीं की गयी है क्योंकि इस फिल्म में कोई कहानी है ही नहीं। केवल कुछ घटनाओं को इकट्ठा कर उनका कोलाज जैसा बनाया गया है। अजय देवगन और संजय दत्त मुंबई के ठग टाइप के चरित्र हैं जो पूरी दुनिया में लोगों को ठगते हुए घूमते हैं और आपस में रंजिश भी रखते हैं। दोनों की जिंदगी में कंगना रानावत आती है। थोड़ी कॉमेडी और सेक्स कंगना को पटाने की प्रक्रिया में दिखाया जाता है। अर्जुन रामपाल का चरित्र डाल कर फिल्म को थ्रिलर का स्पर्श देने की भी कोशिश की गयी है। हास्य जुटाने के लिए एक टुकड़ा दृश्य में सतीश कौशिक को भी लपेटा गया है और जिस्मानी नुमाईश सजाने के लिए कंगना काफी नहीं थी तो लीसा हेडन को भी टपकाया गया है। आप बोर नहीं होंगे। हंसेंगे, मजा लेंगे और घर लौट आएंगे। कुछ लोग सिनेमा का यही मकसद समझते हैं। उनको यह फिल्म दशहरा उत्सव का गिफ्ट है।

निर्देशक: डेविड धवन
कलाकार: संजय दत्त, अजय देवगन, कंगना रानावत, सतीश कौशिक, अर्जुन रामपाल, लीसा हेडन
संगीत: विशाल-शेखर
गीत: इरशाद कामिल-अन्विता दत्त

Tuesday, October 4, 2011

फोर्स

फिल्म समीक्षा

जॉन की ‘फोर्स‘ में जान है

धीरेन्द्र अस्थाना

जिस तरह से सिनेमा हॉल भरा हुआ था उसे देख लगता है, कि आज की युवा पीढ़ी भी पिछली पीढ़ी की तरह एक्शन फिल्में देखने को तरजीह देती है। शायद इसीलिए इस वर्ष की तीनों एक्शन फिल्में ‘सिंघम’, ‘बॉडीगार्ड’ और ‘फोर्स’ बॉक्स ऑफिस पर भीड़ खींचने में सफल रहीं। जबकि तीनों फिल्मों के हीरो अलग अलग हैं - अजय देवगन, सलमान खान और जॉन अब्राहम। फोर्स में निशिकांत कामत ने मारधाड़ और रोमांस के अलावा एक बारीक सा कथा तत्व यह भी रखा है कि पुलिस फोर्स के लोग भी आम लोगों की तरह परिवार, इमोशंस और रोमांस को जीते हैं, जीना चाहते हैं। उनका प्यार उन्हें कमजोर भी बनाता है लेकिन मृत्यु के भय से वह जीने की चाहत नहीं छोड़ देते हैं। फिल्म को निशिकांत कामत ने कहीं भी ढीला नहीं छोड़ा है। कहीं एक्शन, तो कहीं संवाद तो कहीं अभिनय के जरिये पूरी फिल्म लगातार देखे जाते जाने की अनिवार्यता में तनी रहती है। यूं ‘फोर्स‘ भी पूरी तरह मसाला फिल्म है। एक तरफ ‘ड्रग्स’ का धंधा करने वाले गिरोह और उनके खूंखार गुंडे, दूसरी तरफ पुलिस के जांबाज अधिकारी और दोनों के बीच चल रही खतरनाक जंग। इस जंग के समानांतर चलती जॉन अब्राहम और जेनेलिया डिसूजा की खामोश लव स्टोरी, जिसे जेनेलिया अपने चुलबुलेपन से रसीला बनाये रखने की भरपूर कोशिश करती है। फिल्म का अंत तो परंपरा के मुताबिक गुंडों के संपूर्ण सफाये के साथ ही होता है, लेकिन पुलिस फोर्स के प्रमुख लोग भी इस जंग में शहीद होते हैं। यहां तक कि जॉन की प्रेमिका जेनेलिया डिसूजा भी। जॉन की बाहों में मरते हुए जब वह कहती है, ‘तुम्हारी बांहों में चैन से मरने का अंतिम सपना तो पूरा हो गया, लेकिन बाकी तमाम सपने रह गये’ तो फिल्म एक कारुणिक अध्याय का पन्ना पलट देती है। विद्युत जामवाल के रूप में हिंदी सिनेमा को एक नया, ओजस्वी खलनायक मिला है जो खतरनाक होने के साथ साथ कूल भी है। लेकिन जॉन अब्राहम के अपोजिट गुड़िया जैसी जेनेलिया की जोड़ी जम नहीं पायी। अपनी तरफ से जेनेलिया ने अभिनय में कोई कसर नहीं छोड़ी, मगर इसका क्या करें कि लंबे चौड़े डील डौल वाले जॉन के सामने वह बच्ची जैसी नजर आती रही। गीत जावेद अख्तर के हैं। जाहिर है कि वे अच्छे हैं। कुछ संवाद भी ध्यान खींचते हैं। मार धाड़ पसंद करने वाले दर्शक इसे भी देख लें। फिल्म निराश नहीं करेगी।

निर्देशक: निशिकांत कामत
कलाकार: जॉन अब्राहम, जेनेलिया डिसूजा, विद्युत जामवाल, राज बब्बर
गीत: जावेद अख्तर
संगीत: हैरिस जयराज/ललित पंडित

Monday, September 26, 2011

मौसम

फिल्म समीक्षा

संवेदनशील लेकिन बोझिल ’मौसम‘

धीरेन्द्र अस्थाना

पंकज कपूर अभिनय की दुनिया का एक बड़ा नाम हैं। सिर्फ एक्टर ही नहीं हैं बल्कि रंगकर्म के प्रख्यात अध्येता भी हैं। इसलिए समझ नहीं आया कि क्यों और किस मोह के चलते उन्होंने तीन घंटे लंबी फिल्म बना दी। ‘दो घंटे का सिनेमा’ वाला दौर आये वॉलीवुड में जमाना बीत गया है तो फिर एक संवेदनशील और नाजुक सी प्रेम कहानी कोई तीन घंटे में फैली क्यों देखना चाहेगा। नतीजा, एक खूबसूरत और दिलचस्प फिल्म को दर्शक बीच में ही छोड़ कर जा रहे थे। दंगों के बैकड्रॉप पर पहले भी प्रेम कहानियां रची गयी हैं। ‘मौसम‘ भी उसी कतार की फिल्म है लेकिन एक ही फिल्म में बहुत कुछ नहीं सब कुछ दिखा देने की चाहत में पंकज ने फिल्म को बोझिल बना दिया है। वरना तो शाहिद कपूर और सोनम कपूर का अपना अपना विशेष युवा दर्शक वर्ग बन गया है। ‘मौसम‘ में शाहिद और सोनम ने डूब कर अभिनय किया है। और अपने-अपने चरित्रों को विश्वसनीयता तथा गहराई के साथ जिया है लेकिन दोनों के मिलकर बिछुड़ जाने के बाद फिर मिलने में इतनी देर लगा दी गयी है कि दर्शक का धैर्य जवाब दे जाता है। मिलन से पहले एक प्रसंग तो ऐसा आता है जब दर्शक मान बैठते हैं कि यह एक दुखांत फिल्म है, कि शाहिद ने सोनम को खो दिया है। लेकिन कुछ ही देर बाद पंकज इस थीसिस की एंटी थीसिस रचते नजर आते हैं और गुजरात दंगों की शिकार बनी सोनम अचानक शाहिद द्वारा बचा ली जाती है। दोनों के जीवन में प्यार का ‘मौसम’ लौट आता है। बड़ी सहजता से इस फिल्म को दो घंटे का बनाया जा सकता है। एक घंटे का संपादन इस फिल्म को ज्यादा सहज, गतिशील और कविता जैसा लयात्मक बना सकता था। पर पंकज की चेतना पर पता नहीं क्यों दंगे ज्यादा हावी थे। कश्मीर के दंगे, बाबरी मस्जिद का ध्वंस, मुंबई बम विस्फोट, अमेरिका में ट्विन टावर संहार, गुजरात के दंगे। इतने मार तमाम दंगों के साथ-साथ कारगिल युद्ध। इसके बावजूद पंकज बड़े पर्दे पर एक लंबी ही सही प्रेम कविता रचने में कामयाब हो गये हैं। दुख इसी बात का है कि एक बेहतरीन फिल्म को ‘प्रतिबद्ध दर्शकों’ का संग साथ ही मिल सकेगा। बॉलीवुड में चल रही समकालीन अश्लील हवाओं के विरुद्ध एक रचनात्मक मौसम संभव करने वाली इस फिल्म को देखना एक कर्तव्य बन जाता है। फिल्म के गाने पहले ही हिट हो चुके हैं।

निर्देशक: पंकज कपूर
कलाकार: शाहिद कपूर, सोनम कपूर, अनुपम खेर, अदिति शर्मा, सुप्रिया पाठक
संगीत: प्रीतम चक्रवर्ती

Saturday, September 10, 2011

मेरे ब्रदर की दुल्हन

फिल्म समीक्षा

बड़ी मसालेदार ‘मेरे ब्रदर की दुल्हन’

धीरेन्द्र अस्थाना

यह जो कन्फ्यूज्ड सी, आज में जीने वाली, बहुत कमा कर उससे भी ज्यादा खर्च कर देने वाली भारत की युवा पीढ़ी है वह सिनेमा की ‘टार्गेट ऑडियंस’ है। इस पीढ़ी की जेब से पैसा निकालना है तो विषय भी ऐसे तलाशने होंगे जो इस पीढ़ी के मिजाज से मेल खाएं। यशराज बैनर की नयी फिल्म ‘मेरे ब्रदर की दुल्हन’ में ऐसा ही एक ‘फनी’ विषय उठाया गया है जो यंग जनरेशन को लुभा सके। अपनी इस कोशिश में फिल्म के निर्देशक अली अब्बास जफर कामयाब भी हुए हैं। फिल्म का एक गाना ‘कैसा ये इस्क है, अजब सा रिस्क है’ पहले से ही सुपरहिट हो गया है और गली कूचों में गूंज रहा है। संगीत निर्देशक सोहेल सेन ने इरशाद कामिल के गीतों को कर्णप्रिय और पॉपुलर दोनों बना दिया है। फिल्म की यूएसपी इसका गीत-संगीत ही है। परीक्षित साहनी के दो बेटे हैं, लव (अली जफर) व कुश (इमरान खान)। लव लंदन में रहता है और अपनी गर्लफ्रेंड से उसका ब्रेकअप हो गया है। वह अपने छोटे भाई इमरान खान को अपने लिए लड़की तलाशने की जिम्मेदारी सौंपता है। लड़की तलाशने के कुछ कॉमिक दृश्यों से फिल्म में हास्य जुटाया गया है। अंत में कंवलजीत सिंह के परिवार में मामला बनता दिखता है और इमरान खान उनके घर पहुंच जाता है। उनकी बेटी तो कैटरीना कैफ है, जिससे आगरा के एक स्टूडेंट कैंप में इमरान पांच साल पहले टकरा चुका था। तब दोनों ने एक दूसरे की मौजूदगी में फील गुड जैसा कुछ पाया था। अब कैटरीना के साथ मस्ती करते, शॉपिंग करते और धमाल मचाते हुए इमरान उसके और करीब आ जाता है। आखिर मां-बाप और भाई से बात करा कर इमरान कैटरीना को ‘भाईसाहब’ के लिए पसंद कर लेता है। भाई लंदन से दिल्ली के लिए निकल पड़ता है। उधर, कैटरीना और इमरान के बीच पनपी अंडरस्टैंडिंग और मस्ती प्यार में बदल गयी है इसका अहसास दोनों को तब होता है, जब कैटरीना की मंगनी इमरान के भाई से हो जाती है। यहां पहुंच कर मजेदार सी फिल्म एक इमोशनल मोड़ पर घूम जाती है। मंगनी कैसे टूटे और कैट-इमरान की जोड़ी कैसे बने, इसके लिए एक मसाला ढूंढ़ा गया है। फिल्म बांधे रखती है। यशराज बैनर की फिल्म है, इसलिए शालीनता और पारिवारिकता का ख्याल रखा गया है। एक हल्की-फुल्की टाइमपास फिल्म है जो मनोरंजक भी है।

निर्देशक: अली अब्बास जफर
कलाकार: इमरान खान, कैटरीना कैफ, अली जफर, कंवल जीत सिंह, परीक्षित साहनी, तारा डिसूजा
गीत: इरशाद कामिल
संगीत: सोहेल सेन

Thursday, September 1, 2011

बॉडीगार्ड

फिल्म समीक्षा

‘बॉडीगार्ड’ की अजब प्रेम कहानी

धीरेन्द्र अस्थाना

ईद पर रिलीज हुई सलमान खान की यह तीसरी फिल्म है जो सुपर हिट होगी। बहुत दिनों के बाद पचासों दर्शकों को टिकट न मिलने के कारण निराश लौटते देखा। इससे पहले वर्ष 2010 में ‘दबंग’ और वर्ष 2009 में ‘वांटेड’ ईद पर ही रिलीज हुई थीं। दोनों सुपर हिट थीं और दोनों मुख्य धारा की फार्मूला फिल्में थीं। ‘बॉडीगार्ड’ भी कमर्शियल और फार्मूला फिल्म ही है। फर्क सिर्फ इतना है कि ‘बॉडीगार्ड’ केवल सलमान की फिल्म नहीं है बल्कि यह करीना कपूर की भी फिल्म है। अगर कहा जाए कि यह सलमान खान के माध्यम से करीना कपूर की फिल्म है तो भी कुछ ज्यादा गलत नहीं होगा। यह भी कह सकते हैं कि यह एक गजब ‘बॉडीगार्ड’ की अजब प्रेम कहानी है जिसमें जरा सी कॉमेडी और ज्यादा सा एक्शन डालकर रोचक बना दिया गया है। यहां भी एक्शन दृश्यों में सलमान की शर्ट उतरने पर हॉल में गूंजता दर्शकों का शोर है। सीटियां हैं। तालियां हैं। यह जादू टूटने वाला नहीं है क्योंकि आम दर्शक सलमान के भीतर खुद को प्रत्योरोपित कर देते हैं। दो सवा दो घंटे के लिए दर्शक एक ऐसी फेंटेसी जी लेते हैं जो वास्तविक जीवन में संभव नहीं है। सलमान को दर्शकों की यह कमजोरी पता है इसीलिए वह ऐसी फिल्मों में काम करने को ही तरजीह देते हैं। ‘गुजारिश’ जैसी ‘क्लासिक’ फिल्म उन्हें नहीं भाती। राज बब्बर अपनी बेटी करीना कपूर के लिए सलमान खान को ‘बॉडीगार्ड’ नियुक्त करते हैं लेकिन सलमान के हैरत अंगेज कारनामे और वफादारी को देख करीना को सलमान से प्यार हो जाता है। वह सलमान को छाया नामक नकली नाम से फोन करती है। सलमान छाया को देखे बिना भी उसके प्यार में पड़ जाता है। इधर राज बब्बर एक गलत सूचना के आधार पर विश्वासघाती सलमान को मार देना चाहते हैं। करीना पिता को बताती है कि सलमान ने तो उसकी जान बचायी है। सलमान उसे भगाकर नहीं ले जा रहा था। उसका प्यार तो छाया है जो रेलवे स्टेशन पर उसका इंतजार कर रही है। राज बब्बर सलमान को जाने देते हैं लेकिन सच्चाई जानने के लिए अपना ‘गनर’ भी पीछे भेज देते हैं। स्टेशन पर सलमान को करीना की ‘बेस्ट फ्रेंड’ माया मिलती है जो सलमान से छाया बन कर मिलती है। दोनों रियासत से दूर चले जाते हैं। लेकिन यह तो एक कमर्शियल फिल्म है। इसका अंत दुखद कैसे हो सकता है? किस फार्मूले के चलते सलमान और करीना मिल जाते हैं यह जानने के लिए फिल्म देख लें। फिल्म के शीषर्क गीत में कैटरीना ने फिर अपने जलवे दिखाए हैं।

निर्देशक: सिद्दीकि
कलाकार: सलमान खान, करीना कपूर, राजबब्बर, महेश मांजरेकर, कैटरीना कैफ, असरानी, आदित्य पंचोली
संगीत: हिमेश रेशमिया, प्रीतम

Saturday, August 20, 2011

चतुर सिंह टू स्टार

फिल्म समीक्षा

बचकानी ’चतुर सिंह टू स्टार‘

धीरेन्द्र अस्थाना

बनी तो बीसियों होंगी लेकिन इस लेखक को याद नहीं आता कि उसने अपनी कुल जिंदगी में कोई इतनी बचकानी फिल्म कभी देखी होगी। ऐसा भी लगता है कि शायद यह फिल्म बहुत पुरानी है जो अब जाकर रिलीज हो पायी है। वरना तो संजय दत्त के खाते में एक से एक बेहतरीन फिल्में दर्ज हैं। एक्शन भी, कॉमेडी भी, संजीदा भी। आश्चर्य है कि कॉमेडी के नाम पर क्या क्या बनाया जा रहा है और पैसे को पानी में डाला जा रहा है। निर्देशक अजय चंडोक को फिल्म में काम करने के लिए संजय दत्त, अनुपम खेर, सतीश कौशिक, मुरली शर्मा, अमीषा पटेल, गुलशन ग्रोवर जैसे मंजे हुए कलाकार मिले थे, लेकिन वह एक भी कलाकार से अच्छा काम नहीं करवा सके। कॉमेडी के नाम पर विदूषकों की टोली बना डाली उन्होंने। यह टोली अपनी बचकानी हरकतों से एक वाहियात सी कहानी को फॉलो करती हुई एक बेतुके और फूहड़ से अंत पर पहुंचती है। न फिल्म के संवाद दिल को गुदगुदाते हैं और न ही नाच गाने प्रभावित करते हैं। अमीषा पटेल से निर्देशक ने दिल खोल कर देह प्रदर्शन करवाया है। लेकिन इंटरनेट और एक से एक खतरनाक वेबसाइटों के जमाने में अमीषा पटेल का देह प्रदर्शन देखने तो दर्शक सिनेमा हॉल में जाने से रहे। दर्शकों को बांधे रखने वाली कोई एक बात तो फिल्म में होती। शायद इसीलिए जो भी 8-10 दर्शक फिल्म देखने आए थे वे बार-बार उठ कर बाहर जा रहे थे। निर्देशक ने इतना भी नहीं सोचा कि पूरे के पूरे पुलिस महकमे को जोकरों जैसा चित्रित करके वह कोई तीर नहीं मार रहे हैं। संजय दत्त एक जासूस है जो जासूसी कम जोकरी ज्यादा करता है। एक र्मडर मिस्ट्री सुलझाने साउथ अफ्रीका जाता है। इस र्मडर के पीछे बेशकीमती हीरों की चोरी की कहानी है। जिस गैंगस्टर पर शक है उसकी याद्दाश्त चली गयी है, इसलिए वह भी जोकर बन गया है। उसे पीट पीटकर उसकी याद्दाश्त वापस लायी जाती है। फिर उसका पीछा करके हीरे हड़प लिए जाते हैं। मर्डर मिस्ट्री सॉल्व हो जाती है, क्योंकि जिसका मर्डर हुआ है उसकी पत्नी साउथ अफ्रीका में प्रकट होकर बताती है कि मर्डर उसने किया है। क्या क्या सोचते और बनाते हैं लोग।

निर्देशक: अजय चंडोक
कलाकार: संजय दत्त, अमीषा पटेल, अनुपम खेर, सतीश कौशिक, गुलशन ग्रोवर
संगीत: साजिद-वाजिद
गीत: जलीस शेरवानी

Tuesday, August 16, 2011

आरक्षण

विमर्श

बेमतलब है ‘आरक्षण’ पर बवाल

धीरेन्द्र अस्थाना


याद नहीं आता कि इससे पहले कोई फिल्म पुलिस के पहरे में देखी थी। पुलिस सिनेमा हॉल के भीतर भी थी और बाहर भी। फिल्म देखकर हॉल से बाहर निकलने के काफी देर बाद तक भी समझ नहीं आया कि प्रकाश झा की नयी फिल्म ‘आरक्षण’ में ऐसा क्या आपत्तिजनक है, जिस पर कुछ लोग बवाल मचा रहे हैं। प्रकाश झा अर्थपूर्ण सिनेमा बनाते आये हैं। फर्क सिर्फ इतना आया है कि अब वह बड़ी स्टार कास्ट को लेकर बड़े बजट की फिल्म बनाते हैं। इसका एक लाभ यह हुआ कि अब उनके संदेशपरक सिनेमा को पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा दर्शक मिल जाते हैं, लेकिन केवल नाम को लेकर जो हंगामा मचाया गया उससे दर्शक डर गये और इस कारण इस सार्थक फिल्म को देखने उस मात्रा में नहीं आये, जिसका अनुमान लगाया गया था। पंजाब, आंध्र और यूपी में फिल्म पर प्रतिबंध है। तीन प्रदेशों के दर्शक एक विचारोत्तेजक और संवेदनशील फिल्म को अकारण नहीं देख पाएंगे, जबकि इस फिल्म में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिससे किसी की भावनाएं आहत होती हों। फिल्म अमिताभ बच्चन के माध्यम से यह संदेश देती है कि शिक्षा का हक सभी को है। अमिताभ आरक्षण को समय की मांग मानते हैं और अपने विचारों के समर्थन में अपनी नौकरी, अपना घर गंवाकर भी खड़े रहते हैं। मिथिलेश सिंह यानी मनोज वाजपेयी के माध्यम से फिल्म यह संदेश देती है कि उनके जैसे धनलोलुप लोग किस तरह ऊंची शिक्षा का लाभ एक मलाईदार तबके तक सीमित रखान चाहते हैं कि कैसे देश में कोचिंग क्लासेज के जरिये शिक्षा का व्यापारीकरण कर दिया गया है। फिल्म सैफ अली खान के माध्यम से संदेश देती है कि कैसे एक जाति विशेष में जन्म लेने के कारण उसे कदम-कदम पर अनाचार का दंश झेलना पड़ता है। फिल्म कहीं से भी आरक्षण के पक्ष या विपक्ष में नहीं है। देश में मौजूद एक ज्वलंत मुद्दे पर विमर्श करने वाली फिल्म को नाहक ही राजनीति का शिकार बनाया जा रहा है। अगर कुछ गलत होता तो भला सेंसर बोर्ड फिल्म को हरी झंडी क्यों देता? फिल्म के सभी कलाकारों से प्रकाश झा ने बेहतर काम लिया है। दुख है कि अश्लील फिल्मों का कोई विरोध नहीं होता मगर गंभीर विमर्श को खारिज किया जाता है। एक नाजुक मुद्दे पर पूरी फिल्म एक सार्थक और साझा सहमति बनाना चाहती है लेकिन साझा सहमति चाहता कौन है।

Saturday, July 23, 2011

सिंघम

फिल्म समीक्षा
गुंडा राज के विरुद्ध ‘सिंघम‘
धीरेन्द्र अस्थाना

निर्देशक रोहित शेट्टी की नयी फिल्म ‘सिंघम‘ एक ‘एक्शन पैक्ड‘ ड्रामा है जो दर्शकों को शुरू से अंत तक न सिर्फ बांधे रखता है बल्कि कई दृश्यों में दर्शक सीट पर उछल उछल कर तालियां भी बजाते हैं। जब दर्शक खुद को फिल्म के साथ पूरी तरह जोड़ लें तो इसका मतलब है कि फिल्म कामयाब है। ‘वांटेड‘ और ‘दबंग‘ के बाद ‘सिंघम‘ भी इस दौर की फिल्मों में अपने एक्शन के लिए याद की जाएगी। अजय देवगन पूरी फिल्म में उसी तरह छाये हुए हैं जैसे ‘दबंग‘ में सलमान खान छाए हुए थे। मगर ‘सिंघम‘ तो ‘दबंग‘ से भी दो कदम इसलिए आगे है क्योंकि यह पुलिस विभाग का एक नया विमर्श बनती नजर आती है। नेता और माफिया के सामने पुलिस की मजबूरी, पुलिस का अपना द्वंद्व और सिस्टम के सामने समर्पण की मजबूरी पहले भी कई फिल्मों का कथ्य बना है। पर ‘सिंघम‘ उन सबसे आगे बढ़ कर एक नया पाठ यह पेश करती है कि जिस तरह जनता एकजुट हो कर कोई भी सत्ता बदल सकती है उसी तरह यदि पुलिस भी एकजुट हो जाए तो गुंडों और सत्ता का गठजोड़ उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। ‘सिंघम‘ सत्ता के खिलाफ पुलिस विद्रोह का नहीं गुंडा राज के विरुद्ध निर्णायक युद्ध का विमर्श बनती है। वह भी कानून के दायरे में रह कर। रोहित शेट्टी ने अपना कॉमेडी वाला पुट ‘सिंघम‘ में भी कई जगह बनाये रखा है। अभिनेता प्रकाश राज ने विलक्षण अभिनय किया है या कहें कि रोहित उनका श्रेष्ठतम निकलवाने में सफल हुए हैं। पूरी फिल्म अजय देवगन और प्रकाश राज के बीच ही घटती है। अजय देवगन ने सिद्ध किया है कि बतौर सोलो एक्टर भी वह फिल्म को हिट करवा सकते हैं। फिल्म के संवाद दमदार और लोकप्रियता का असर लिए हुए हैं। चाहे गांव की आम जनता हो या शहर का पुलिस विभाग, ‘सिंघम‘ समूह की ताकत को रेखांकित करती है। फिल्म की अभिनेत्री काजल अग्रवाल बस ठीक ठाक हैं लेकिन सचिन खेडेकर जैसे गंभीर अभिनेता ने उम्दा कॉमेडी की है। कॉमेडी का शालीन तड़का फिल्म को रिलीफ देता है। ‘बदमाश दिल‘ और ‘सिंघम सिंघम‘ वाले गीत प्रभावित करते हैं। बेहतरीन एक्शन फिल्म है। देख लेनी चाहिए।

निर्देशक: रोहित शेट्टी
कलाकार: अजय देवगन, काजल अग्रवाल, प्रकाश राज, सचिन खेडेकर, गोविंद नामदेव
गीत: स्वानंद किरकिरे
संगीत: अजय एवं अतुल गोगावाले

Saturday, July 9, 2011

murder 2

दहशत और रोमांच की पटकथा ’र्मडर-2‘

धीरेन्द्र अस्थाना

निर्देशक : मोहित सूरी कलाकार : इमरान हाशमी, जैकलीन फर्नाडिज, प्रशांत नारायण, सुधांशु पांडेय। संगीत : हषिर्त सक्सेना, संगीत हल्दीपुर सिनेमेटोग्राफी : रवि वालिया (यह फिल्म का बेहतरीन पक्ष है।)

हालांकि ‘र्मडर-2’ को एक सेक्सी फिल्म के तौर पर प्रचारित किया गया है, लेकिन सेक्स इसमें सिर्फ छौंक या तड़के की तरह है। इसे एक र्मडर मिस्ट्री या साइको किलर की अजीब दास्तान जैसा कुछ कह सकते हैं। इस बार भट्ट कैंप दहशत और रोमांच की एक कामयाब पटकथा लिखने में सफल रहा है। पूरी फिल्म में थर्रा देने वाले कई दृश्य हैं। स्त्री-पुरुष संबंधों के जटिल मनोविज्ञान की मुश्किल सी कहानी को बड़ी रोचकता से मोहित सूरी ने एक समानांतर कथा के रूप में पेश किया है। इस कथा के दो पात्र हैं, इमरान हाशमी और जैकलीन फर्नाडिज। दोनों के बीच देह का आदान प्रदान है, लेकिन इमरान इसे प्यार नहीं औरत की आदत बताता है, जबकि जैकलीन इस रिश्ते को प्यार मानना चाहती है। इमरान पुलिस की नौकरी छोड़कर भाई गिरी करता है तो जैकलीन एक सस्ती सी मॉडल है। दोनों गोवा में रहते हैं। गोवा में लड़कियां सप्लाई करने वाले एक सरगना की कई लड़कियां रहस्यमय ढंग से गायब हो रही हैं। इस केस को सुलझाने के लिए सरगना इमरान हाशमी की सेवाएं लेता है। दूसरी कथा यहां से शुरू होती है। धीरज पंडित नाम का एक किन्नर है जो लड़कियों को ग्राहक बनकर अपने बंगले में बुलाता है। उजाड़, सुनसान बंगले में वह लड़कियों को धंधा करने के जुर्म में तड़पा तड़पाकर मारता है, फिर उनके टुकड़े-टुकड़े करके बंगले के पास बने एक कुएं में फेंक देता है। नोएडा में हुए निठारी कांड की याद आती है। भट्ट कैंप ने माना भी है कि फिल्म की प्रेरणा उन्हें नोएडा स्थित निठारी कांड से मिली है। हां दोनों में फर्क भी बहुत है। फिल्म का हत्यारा सेक्स नहीं करता, वह लड़कियों को सेक्स करने की सजा देता है। बहुत जटिल कथानक है फिल्म का, जिसे मोहित सूरी के निर्देशन ने बेहद कुशलता से साधा है। फिल्म का गीत-संगीत बेहतर भी है और कथा की व्याख्या भी करता है। इमरान हाशमी ‘सीरियल किसर’ की इमेज में बंध गए हैं। जैकलीन को थोड़ा सा ही ‘स्पेस’ मिला है। जिसमें वह प्रभावित करती हैं। इस वर्ष की दूसरी छमाही की तीसरी हिट फिल्म है ‘र्मडर-2’ पहली दो हैं ‘देहली बैली’ और बुड्ढा होगा तेरा बाप’। धीरेन्द्र अस्थाना

Saturday, July 2, 2011

बुड्ढा होगा तेरा बाप

फिल्म समीक्षा

बाप रे बाप: बुड्ढा होगा तेरा बाप

धीरेन्द्र अस्थाना

अड़सठ बरस की उम्र में अगर कोई युवाओं से कहीं बेहतर डांस कर सकता है, मारधाड़ मचा सकता है, रुला सकता है, हंसा सकता है तो वह सचमुच कोई बाप ही होगा। बिला शक यह बाप अमिताभ बच्चन हैं जिनके अभिनय से सजी नयी फिल्म ‘बुड्ढा होगा तेरा बाप‘ कमाल की एंटरटेनिंग फिल्म है। सही मायने में मसाला यानी मुख्यधारा की फिल्म है। जिसमें रोमांस है, एक्शन है, कॉमेडी है, डायलॉग है, नाच गाने हैं और है गति। सोनू सूद पूरी फिल्म में बिग बी के सामने नर्वस नजर आये हैं जबकि रवीना टंडन की बेटी का रोल निभाने वाली नयी लड़की चार्मी ने बिग बी के सामने बड़ा लाइव अभिनय किया है। पूरी फिल्म अमिताभ बच्चन की फिल्म है लेकिन उसमें सोनू सूद, सोनल चौहान, चार्मी और हेमा मालिनी को भी पर्याप्त स्पेस मिला है। ‘गो मीरा‘ वाले आइटम सांग में बिग बी की पुरानी फिल्मों के कई हिट गीतों के टुकड़े डाल कर नयी पीढ़ी को उनके जादू से परिचित कराने की अच्छी कोशिश की गयी है। फिल्म के संवादों में दम है और पटकथा कसी हुई है। पुरी जगन्नाथ ने पूरी फिल्म को बेहतरीन ढंग से फिल्माया है और दर्शकों को एक पल के लिए भी बोर होने का मौका नहीं दिया है। सोनू सूद मुंबई के एसीपी हैं जो शहर का माफिया राज खत्म करने पर आमादा हैं लेकिन लंबा समय पेरिस में बिता कर बिग बी फिर से मुंबई लौटे हैं। वह शहर के पूर्व माफिया किंग रह चुके हैं और कदम कदम पर सोनू सूद को गुंडों से बचाते हैं। सोनू सूद को नहीं पता कि अमिताभ बच्चन उसके पिता हैं क्योंकि अमिताभ की पत्नी हेमा मालिनी ने यह बात कभी अपने बेटे सोनू को नहीं बताई कि उसका पिता कौन है? इस जानकारी को उजागर किए बिना अमिताभ का वापस पेरिस लौटने का फैसला दर्शकों को भावुक कर देता है। फिल्म मंे जगह जगह पर कॉमेडी का भी तड़का है लेकिन शालीन कॉमेडी का, जो भली लगती है। फिल्म को अवश्य देखना चाहिए। आखिर बाप की फिल्म है न !

निर्देशक: पुरी जगन्नाथ
कलाकार: अमिताभ बच्चन, हेमा मालिनी, सोनू सूद, सोनल चौहान, रवीना टंडन, चार्मी और प्रकाश राज
संगीत: विशाल-शेखर

Saturday, June 25, 2011

बिन भेजे की डबल धमाल

धीरेन्द्र अस्थाना

जिसे माइंडलेस कॉमेडी कहते हैं उसकी सवरेत्तम मिसाल है ‘डबल धमाल’। इन्द्र कुमार की मूल फिल्म ‘धमाल’ का यह सीक्वेल पहले जितना कमाल का तो नहीं है लेकिन हंसने हंसाने, मौज, मजा, नाच, गाना, मस्ती का तगड़ा इंतजाम किया गया है ‘डबल धमाल’ में। इन्द्र कुमार ने फिल्म में कहीं भी झोल नहीं आने दिया है। ढाई घंटे की फिल्म बांधे रखती है यह इसका सबसे बड़ा कमाल है। मुन्नी और शीला के बाद अब जलेबी की बारी है। मल्लिका शेरावत का आइटम सांग जलेबी बाई पूरी तरह पैसा वसूल है जिसे अगली बेंच के दर्शक झूम कर देखेंगे। अगर आप शुद्ध मनोरंजन के हिमायती हैं तो फिल्म देखने जरूर जाएं लेकिन अपना दिमाग घर छोड़ दें क्योकि इस फिल्म की कुछ कहानी यह है कि अरशद वारसी, जावेद जाफरी, रितेश देशमुख और आशीष चौधरी की चौकड़ी पाती है कि संजय दत्त तो बहुत पैसे वाला है, जबकि उसने भी उन लोगों की तरह अपना सारा पैसा डोनेट कर दिया था। सच का पता लगाने चारों पहले उसके दफ्तर फिर उसके घर में सेंध लगाते हैं और संजय को ब्लैकमेल कर उसकी कंपनी के पार्टनर बनने में सफल हो जाते हैं। इन चारों को बेवकूफ बना कर संजय इनके जरिए बाटा भाई (सतीश कौशिक)का 250 करोड़ अपनी फर्जी तेल कंपनी में लगवाता है और पैसा लेकर कंगना रानावत तथा मल्लिका शेरावत के साथ मकाऊ के लिए उड़ जाता है। ये चारों संजय को फाइनेंशियली और इमोशनली बर्बाद कर देने की शपथ लेकर मकाऊ पहुंचते हैं। चारों भेस बदल कर संजय के कैसीनो और जीवन में सेंध लगाते हैं और फिश टैंक में रखा एक हजार करोड़ रुपया लेकर चंपत होने की फिराक में धर लिए जाते हैं। बाद में पर्दाफाश होता है कि संजय दत्त को चारों की योजना का पहले से पता था और वह इनको बेवकूफ बना रहा था। यह है डबल धमाल। फिल्म में सिचुएशन से हास्य पैदा किया गया है। सभी पात्रों ने अभिनय से फिल्म को ज्यादा कॉमिक बनाने का प्रयत्न किया है। बॉलीवुड में असुरक्षा का आलम यह है कि कंगना रानावत जैसी प्रतिभाशाली हीरोईन को बहन के रोल में उतरना पड़ा। यह भी लगता है कि आइटम डांस फिर से फिल्मों का अनिवार्य हिस्सा बनता जा रहा है। फिल्म की यूएसजी उसका गीत संगीत और आइटम डांस ही है।
निर्देशक : इन्द्र कुमार कलाकार : सं जय दत्त, अरशद वारसी, जावेद जाफरी, रितेश देशमुख, आशीष चौधरी, सतीश कौशिक, कंगना रानावत, मल्लिका शेरावत। संगीत : आनंद राज आनंद

Saturday, June 18, 2011

भेजा फ्राई

भेजा फ्राई से भेजा गायब
धीरेन्द्र अस्थाना

जिन दर्शकों ने कुछ वर्ष पहले सागर बेल्लारी द्वारा निर्देशित फिल्म ‘भेजा फ्राई’ देखी होगी, भेजा फ्राई-टू देखकर उनका भेजा तड़क जाएगा। पहली बात तो यह कि यह फिल्म ‘भेजा फ्राई’का सीक्वेंस नहीं है इसलिए इसका नाम ‘भेजा फ्राई-टू’ ही गलत है। पिछली फिल्म की अपार लोकप्रियता का लाभ उठाने के लिए नाम दोहराया गया है। शुरू के दिनों में दर्शक नाम के झांसे में आ भी सकते हैं। दूसरी बात यह कि ‘भेजा फ्राई’ में एक छोटी सी, प्यारी सी ऐसी कहानी थी जिसे लिखने में दिमाग का इस्तेमाल हुआ था। लेकिन ‘भेजा फ्राई-टू’ से भेजा ही गायब है। यह एक ऐसी कॉमेडी फिल्म हैजिस पर निरंतर रोते रहने का मन करता है। पता नहीं क्या सोचकर सागर बेल्लारी की टीम ने इस फिल्म पर काम किया। केके मेनन अतीत में बेहद शानदार फिल्में कर चुके हैं। कॉमेडी उनका क्षेत्र नहीं है क्योकि एक स्वाभाविक संजीदगी उनके व्यक्तित्व का स्थायी भाव है। कह सकते हैं कि कॉमेडी उनकी बॉडी लैंग्वेज के साथ छत्तीस का रिश्ता रखती है। विनय पाठक अपने फॉर्म में थे और पूरी फिल्म का केन्द्र बिंदु भी वही हैं लेकिन अकेला आदमी दर्शकों को कितनी देर तक उलझाये रख सकता है वह भी एक ऐसी फिल्म में जिसमे कथा के नाम भर लगभग शून्य हों। रियल लाइफ में कौन बिजनेस टायकून किसी इनकम टैक्स इंस्पेक्टर से इतना डरता है जितना केके को विनय पाठक से डरता दिखाया गया है। रियलिटी शो ‘आओ गेस करें’
में विनर बन कर विनय पाठक एक क्रूज पर पहुंचते हैं जहां केके ऐंड पार्टी का जश्न हो रहा है। विनय पाठक चूंकि पेशे से इनकम टैक्स इंस्पेक्टर हैं इसलिए केके उन्हें क्रूज से धक्का देने के प्रयत्न में खुद समुद्र में गिर जाते हैं। बाद में केके का सिक्युरिटी पर्सन विनय को भी समुद्र में फेंक देता है। दोनों एक निर्जन टापू पर साथ साथ हैं जहां संवादों के जरिए दर्शकों को हंसाने का प्रयत्न किया जाता है। टापू पर उन्हें अमोल गुप्ते का घर मिल जाता है। जो एकाकी जीवन जी रहा है। यहां भी कुछ बेतुकी घटनाओं के जरिए हास्य पैदा करने की कोशिश की गयी है जो बोर करती है। एक लम्बे, बोझिल घटनाक्रम के बाद अमोल के घरमेंबम फटता है और सब बेहोश हो जाते हैं। होश में आने पर पहले केके अपने लोगों के साथ और बाद में विनय पाठक अपने सहयोगी इंस्पेक्टर सुरेश मेनन के साथ टापू से विदा लेते हैं और मिनीषा लांबा? वह इस पिक्चर में क्यो थीं, वह खुद उन्हें ही समझ नहीं आया होगा।
निर्देशक : सागर बेल्लारी कलाकार : विनय पाठक, केके मेनन, अमोल गुप्ते, सुरेश मेनन, मिनीषा लांबा, वीरेन्द्र सक्सेना संगीत : इश्क बेक्टर, स्नेहा खान वालकर, सागर देसाई संवाद : शरद करारिया

Saturday, June 11, 2011

’शैतान‘

फिल्म समीक्षा

’शैतान‘ यानी खोई हुई दिशाएं

धीरेन्द्र अस्थाना
अनुराग कश्यप प्रोडक्शन की फिल्म ‘शैतान’ का निर्देशन भले ही बिजोय नंबियार ने किया है लेकिन यह एकदम अनुराग छाप फिल्म है। समय, समाज, कहानी, चरित्र एकदम यथार्थवादी लेकिन कहने का अंदाज फंतासी में लिपटा हुआ। बिल्कुल ‘जादुई यथार्थवाद’ जैसा। इसीलिए थोड़ा पेचीदा, थोड़ा अजीबो गरीब लेकिन अपने भीतर एक ऐंद्रजालिक उपस्थिति लिए हुए। मौजूदा उत्तर आधुनिक समय की जमीन पर खड़ी फिल्म ‘शैतान’ उन युवाओं की नीच ट्रेजेडी का बखान करती है जिनकी दिशाएं खो गयी हैं। राजीव खंडेलवाल और कलकी कोचलिन के अलावा बाकी नये लोगों को लेकर कम बजट में बनायी गयी ‘शैतान’ सिनेमा में रचनात्मकता को संभव करती है। यह नया सिनेमा है जो मनोरंजन के साथ-साथ दर्शकों की चेतना को संपन्न और सक्रिय करने की जिम्मेदारी भी उठाना चाहता है। कम से कम सार्थक सिनेमा के पैरोकारों को इस किस्म के सिनेमा का स्वागत करना ही चाहिए। इस फिल्म में राजीव खंडेलवाल एक ऐसे गुस्सैल पुलिस ऑफीसर के रोल में है जो कुछ भी गलत बर्दाश्त नहीं कर पाता। एक भ्रष्ट नेता को पहले माले से नीचे फेंक देने के जुर्म में वह सस्पेंड चल रहा है। एक कलकी कोचलिन है जिसकी मां ने तब आत्महत्या कर ली थी जब कलकी छोटी थी। पिता की नयी पत्नी के सामने वह खुद को कंफर्ट फील नहीं करती और फ्रस्ट्रेट रहती है। एक पार्टी में उसे गुलशन उर्फ केसी मिलता है जिससे आकर्षित हो कर वह उसके बाकी दोस्तों से मिलती है। इस प्रकार कुल पांच युवक- युवतियों का गैंग तैयार होता है जो मौज मस्ती को जीने का मंत्र मानता है। सब के सब बिगड़े दिल शहजादे टाइप के हैं। एक रात इनकी तेज गाड़ी के नीचे दो लोग आकर कुचल जाते हैं। ये लोग छुप जाते हैं लेकिन एक पुलिस वाला इन्हें खोज लेता है। वह केस दबाने के लिए इनसे पच्चीस लाख रुपये मांगता है। कलकी का बाप चूंकि सबसे ज्यादा अमीर है इसलिए ये लोग कलकी के अपहरण का ड्रामा करते हैं और उसके पिता से पचास लाख मांगते हैं। बाप पैसे देने के बजाय पुलिस में चला जाता है और होम मिनिस्ट्री की सोर्स ले आता है। कमिश्नर दबाव में आ जाता है और इस केस को हल करने के लिए सस्पेंड हो चुके राजीव खंडेलवाल को काम पर लगाता है। लड़के एक से दूसरे ट्रैप में उलझते जाते हैं और अंततः उनकी दिशाएं खो जाती हैं। मोटे तौर पर युवा फ्रस्ट्रेशन, फन, फिलॉसफी और अराजकता को इस फिल्म में इस स्लोगन से परिभाषित किया गया है- अपने भीतर के शैतान से सामना कीजिए। फिल्म को देखना चाहिए। एक्सपेरीमेंट को सपोर्ट करें।


निर्देशकः बिजोय नंबियार
कलाकारः राजीव खंडेलवाल, कलकी कोचलिन, शिव पंडित, रजित कपूर, गुलशन, कीर्ति
संगीतः प्रशांत पिल्लई, अमर मोहिले, रंजीत बारोट
संवादः अभिजीत देशपांडे

Saturday, May 28, 2011

फिल्म समीक्षा

उम्दा अभिनय साधारण किस्सा

कुछ लव जैसा

धीरेन्द्र अस्थाना

बहुत दिनों के बाद शेफाली शाह को बड़े पर्दे पर काम करते देखना अच्छा लगता है। पूरी फिल्म की कहानी शेफाली को कें्रद में रख कर ही बुनी गयी है इसलिए यह स्वभावतः स्त्री केंद्रित फिल्म हो गयी है। अगर फिल्म की कहानी पर ज्यादा मेहनत की गयी होती और उसे कोई नया कोण या आयाम दिया जाता तो ‘कुछ लव जैसा‘ ऑफबीट फिल्मों में शुमार हो सकती थी। शेफाली शाह और राहुल बोस के उम्दा अभिनय से सजी इस फिल्म को बस इन दोनों के अभिनय के कारण ही देखा जा सकता है। कहानी जैसी भी है लेकिन इतनी कसी हुई है कि शुरु से अंत तक बांधे रखती है। बरनाली शुक्ला का निर्देशन सशक्त और गतिवान है। उसमें कहीं भी झोल नहीं है। संवाद बेहद दो टूक, संक्षिप्त मगर सार्थक हैं। गीत पात्रों के भीतर चल रही कशमकश को प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति देने में सफल भी हैं और सुनने में भी अच्छे लगते हैं। तो फिर ऐसा क्या है कि इतने सारे सकारात्मक कारणों के बावजूद फिल्म औसत से उपर नहीं जा पाती? एक मात्र वजह है फिल्म की कहानी में नयापन न होना और उपकथाओं का अतार्किक होना। उच्च मध्यवर्ग की असंतुष्ट पत्नियों के त्रास और एकाकी छूट रहे जीवन के व्यर्थता बोध से साहित्य और सिनेमा अटा पड़ा है। पहले प्रेम फिर विवाह और अंततः अलगाव।
रोजमर्रा के कामकाजी तनाव के चलते पति-पत्नी के बीच का अनुराग सूखते जाना और रिश्तों में एक धूमिल सी उदासी का पसरना। इस उदासी को उतार कर जीवन में फिर से उतर कर अपने होने का अर्थ तलाशना। यहां तक तो ठीक है लेकिन पूरा दिन एक अनजाने क्रिमिनल के साथ यहां वहां और एक होटल के कमरे में बिता देना रियल लाइफ में संभव ही नहीं है। एक आदमी की पत्नी पूरा दिन घर से गायब है। उसका फोन नॉट रीचेबल है और पति आराम से ऑफिस में बैठा है। लड़की के मां बाप भी चैन से हैं। लड़की के बच्चों को भी ममा की खास चिंता नहीं है। पूरा दिन बाहर बिता कर औरत घर लौटी है और जिंदगी सामान्य है। घर में उसके जन्मदिन की पार्टी आयोजित है मगर औरत दिन भर क्रिमिनल के साथ बिताए कुछ क्षणों को कुछ लव जैसा फील कर रही है। रागात्मक संबंधों की दुनिया में इस तरह के विचार तार्किक नहीं लगते। तो भी इतना जरुर है कि शेफाली ने एक उद्विग्न, बैचेन, चिंतित और दुविधाग्रस्त स्त्री के किरदार में जान डाल दी है। राहुल बोस का अभिनय हमेशा की तरह कूल और सधा हुआ है। असल में इस फिल्म में अभिनय ही इसकी ‘यूएसपी‘ है। शेफाली को फिल्मों में बने रहना चाहिए।

निर्देशकः बरनाली शुक्ला
कलाकारः राहुल बोस, शेफाली शाह, सुमीत राघवन, ओम पुरी, नीतू चंद्रा।
संगीतः प्रीतम चक्रवर्ती
गीतः इरशाद कामिल

Saturday, May 21, 2011

pyar ka panchnama

फिल्म समीक्षा
युवाओं के प्यार का पंचनामा
धीरेन्द्र अस्थाना

ऐसा नहीं है कि आज की युवा पीढ़ी केवल खाने पीने और मौज मजा करने मंे ही यकीन करती है। बदलते हुए सिनेमा के इस नये दौर में ऐसे युवा भी दस्तक दे रहे हैं जो अपनी पीढ़ी के संघर्ष, विफलता, स्वप्न,प्यार,अविश्वास और असुरक्षा को विमर्ष का विषय बना रहे हैं। ’प्यार का पंचनामा‘ ऐसी ही फिल्म है जो पूरी तरह युवाओं के बारे में बनायी गयी है। फिल्म का नाम जरुर पुराना लगता है लेकिन फिल्म का विषय एकदम आधुनिक है। आज से पच्चीस तीस साल पहले स्त्री-पुरुष की जो रिलेशनशिप होती थी आज वह पूरी तरह बदल गयी है। स्त्रियों की दुनिया में कई बुनियादी बदलाव आ गये हैं। लड़कियां उच्च शिक्षा प्राप्त हैं, आत्मनिर्भर हैं, अपने जीवन के निर्णय खुद ले रही हैं। अब वे अपना एक ‘स्पेस‘ चाहती हैं। अपनी आजादी उन्हें सबसे ज्यादा प्रिय है। अब अपनी प्रॉब्लम्स पर वे बहस करती हैं। लड़ती-झगड़ती हैं। रिश्ते दिल से नहीं दिमाग से तय करती हैं। और लड़कियों का यह नया वजूद ही लड़कांे की नयी समस्या है। मोटे तौर पर इस फिल्म की यही कहानी है जिसे दिल्ली में घटित होता दिखाया गया है-दिल्ली के भदेसपन और उद्दंड चरित्र के साथ। दिल्ली की मस्ती और अराजकता के मनोभावों के बीच। और हां दिल्ली की गालियों सहित। तीन दोस्तों की कहानी है। एक साथ रहते हैं। अपने अपने काम पर जाते हैं और फ्रस्ट्रेट रहते हैं। तीनों की जिंदगियों में लड़कियां आती हैं तो लगता है कि जीवन को एक अर्थ मिल गया है। एक लंबा भांय भांय करता खालीपन भर रहा है। लेकिन गजब कि लड़कियां उनके जीवन में खुशबू की तरह नही उतरतीं। वे आती हैं तूफान की तरह और लड़कों के जीवन का हर सुंदर पल उड़ा ले जाना चाहती हैं। प्यार का स्वर्ग पाने की चाह लड़कों को प्यार का नरक पकड़ा देेती है। उन्हंे लगता है कि प्यार पाने के चक्कर में वह दुम हिलाने वाले कुत्ते हो कर रह गये हैं। लड़कियों के ‘स्पेस‘ ने उनका अपना ‘स्पेस‘ हड़प लिया है। तीनों अपने अपने तरीके से उन लड़कियों से अपना पिंड छुडाते हैं और फिर से अपने पुराने घर में एक साथ लौट आते हैं। इस सबके बीच में पीना-पिलाना, सेक्स करना, डांस-मस्ती-नशाखोरी भी चलती है। बेबाक गालियां भी और रोना उदास होना भी चलता रहता है। नये होने के बावजूद निर्देशक की कहानी पर गहरी पकड़ बनी रहती है। फिल्म का ‘कुत्ता‘ वाला गाना आज के मिजाज को सटीक अभिव्यक्ति देता है। सारे कलाकार नये ही हैं लेकिन उन्होंने जम कर अभिनय किया है। नये जमाने की फिल्म है। नये-पुराने दोनों वर्ग के दर्शकों को फिल्म का आस्वाद लेना चाहिए।

निर्देशकः लव रंजन
कलाकारः कार्तिकेय तिवारी, रेयो, दिवयेंदु शर्मा, ईशिता, नुसरत, सोनाली।
गीतः लव रंजन
संगीतः हितेश, क्लिंटन, लव
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pyar ka panchnama

फिल्म समीक्षा
युवाओं के प्यार का पंचनामा
धीरेन्द्र अस्थाना

ऐसा नहीं है कि आज की युवा पीढ़ी केवल खाने पीने और मौज मजा करने मंे ही यकीन करती है। बदलते हुए सिनेमा के इस नये दौर में ऐसे युवा भी दस्तक दे रहे हैं जो अपनी पीढ़ी के संघर्ष, विफलता, स्वप्न,प्यार,अविश्वास और असुरक्षा को विमर्ष का विषय बना रहे हैं। ’प्यार का पंचनामा‘ ऐसी ही फिल्म है जो पूरी तरह युवाओं के बारे में बनायी गयी है। फिल्म का नाम जरुर पुराना लगता है लेकिन फिल्म का विषय एकदम आधुनिक है। आज से पच्चीस तीस साल पहले स्त्री-पुरुष की जो रिलेशनशिप होती थी आज वह पूरी तरह बदल गयी है। स्त्रियों की दुनिया में कई बुनियादी बदलाव आ गये हैं। लड़कियां उच्च शिक्षा प्राप्त हैं, आत्मनिर्भर हैं, अपने जीवन के निर्णय खुद ले रही हैं। अब वे अपना एक ‘स्पेस‘ चाहती हैं। अपनी आजादी उन्हें सबसे ज्यादा प्रिय है। अब अपनी प्रॉब्लम्स पर वे बहस करती हैं। लड़ती-झगड़ती हैं। रिश्ते दिल से नहीं दिमाग से तय करती हैं। और लड़कियों का यह नया वजूद ही लड़कांे की नयी समस्या है। मोटे तौर पर इस फिल्म की यही कहानी है जिसे दिल्ली में घटित होता दिखाया गया है-दिल्ली के भदेसपन और उद्दंड चरित्र के साथ। दिल्ली की मस्ती और अराजकता के मनोभावों के बीच। और हां दिल्ली की गालियों सहित। तीन दोस्तों की कहानी है। एक साथ रहते हैं। अपने अपने काम पर जाते हैं और फ्रस्ट्रेट रहते हैं। तीनों की जिंदगियों में लड़कियां आती हैं तो लगता है कि जीवन को एक अर्थ मिल गया है। एक लंबा भांय भांय करता खालीपन भर रहा है। लेकिन गजब कि लड़कियां उनके जीवन में खुशबू की तरह नही उतरतीं। वे आती हैं तूफान की तरह और लड़कों के जीवन का हर सुंदर पल उड़ा ले जाना चाहती हैं। प्यार का स्वर्ग पाने की चाह लड़कों को प्यार का नरक पकड़ा देेती है। उन्हंे लगता है कि प्यार पाने के चक्कर में वह दुम हिलाने वाले कुत्ते हो कर रह गये हैं। लड़कियों के ‘स्पेस‘ ने उनका अपना ‘स्पेस‘ हड़प लिया है। तीनों अपने अपने तरीके से उन लड़कियों से अपना पिंड छुडाते हैं और फिर से अपने पुराने घर में एक साथ लौट आते हैं। इस सबके बीच में पीना-पिलाना, सेक्स करना, डांस-मस्ती-नशाखोरी भी चलती है। बेबाक गालियां भी और रोना उदास होना भी चलता रहता है। नये होने के बावजूद निर्देशक की कहानी पर गहरी पकड़ बनी रहती है। फिल्म का ‘कुत्ता‘ वाला गाना आज के मिजाज को सटीक अभिव्यक्ति देता है। सारे कलाकार नये ही हैं लेकिन उन्होंने जम कर अभिनय किया है। नये जमाने की फिल्म है। नये-पुराने दोनों वर्ग के दर्शकों को फिल्म का आस्वाद लेना चाहिए।

निर्देशकः लव रंजन
कलाकारः कार्तिकेय तिवारी, रेयो, दिवयेंदु शर्मा, ईशिता, नुसरत, सोनाली।
गीतः लव रंजन
संगीतः हितेश, क्लिंटन, लव
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Saturday, May 14, 2011

रागिनी एमएमएस

फिल्म समीक्षा

सेक्स और डर की जुगलबंदी: रागिनी एमएमएस

धीरेन्द्र अस्थाना

डर बेच कर घर भरने के मामले में एकता कपूर रामगोपाल वर्मा और विक्रम भट्ट दोनों से आगे निकल गयी हैं। डर के निर्माण और डर के कारोबार दोनों को उनकी नयी फिल्म ‘रागिनी एमएमएस‘ ने बेहद कुशलता से साधा है। विक्रम भट्ट की हालिया फिल्म ‘हॉन्टेड‘ जहां डर की इमोशनल पटकथा थी, जिसके धागे डर की पारंपरिक फिल्मों और अनुभव से जुड़े हुए थे। वहीं ‘रागिनी एमएमएस‘ एक यथार्थवादी फिल्म है जो आज के उत्तर आधुनिक समय में खड़ी है। यंग जेनरेशन के कल्चर और अंदाज पर फोकस करने वाली एकता कपूर की यह फिल्म सेक्स के साथ डर की जुगलबंदी पेश करती है और तकनीक, छायांकन तथा संगीत के दम पर दर्शकों को डराने में कामयाब हो जाती है। यहां डर सचमुच एक डरावने अहसास में तब्दील हो जाता है। यूं ‘रागिनी एमएमएस‘ एक धोखेबाज फिल्म भी है। छोटे शहरों के जो दर्शक इसे एक सेक्सी फिल्म समझकर सिनेमाघरों पर टूटेंगे वे खुद को एक डरावने मायालोक में खड़ा पाएंगे। लेकिन डर का यह साक्षात्कार उन्हें फिल्म की मेकिंग के स्तर पर सुखद लगेगा। बिना स्टार कास्ट और बिना भव्य विदेशी लोकेशंस के बेहद कम बजट में बनी यह फिल्म कमाई का कीर्तिमान इस स्तर पर बनाएगी कि लागत से दस-बीस गुना ज्यादा कैसे आता है। फिल्म का हीरो राजकुमार अपनी गर्लफ्रेंड कैनाज मोतीवाला के साथ माथेरान के एक सुनसान घर में मौज-मजा करने पहुंचता है, जहां हिडेन कैमरे मौजूद हैं। एक्टर बनने की मंशा में वह गर्लफ्रेंड का सेक्सी एमएमएस बनवाने पर भी राजी हो जाता है। लेकिन उस घर में एक आत्मा का निवास है जिसे उसके घर वालों ने चुड़ैल कह कहकर मार मार डाला था। यह आत्मा अपने घर में किसी को गलत काम नहीं करने देती। लड़का चूंकि प्यार के नाम पर सेक्स क्लिप बनाना चाहता है अतः आत्मा का शिकार बनता है। लड़की चूंकि घर से झूठ बोलकर मस्ती करने आयी है इसलिए आत्मा उसे भी शारीरिक दंड देती है। बस इतनी सी कथा है जिसे खूबसूरती से बुना गया है। इंटरवल से पहले फिल्म जितनी कसी हुई है इंटरवल के बाद थोड़ी खिंच गयी है। नंगे संवादों के चलते भी चर्चित होगी।

प्रोडयूसर: एकता कपूर, शोभा कपूर
निर्देशक: पवन कृपलानी
कलाकार: राजकुमार यादव, कैनाज मोतीवाला
संगीत: शमीर टंडन, फैजान हुसैन, बप्पी लाहिरी

Saturday, May 7, 2011

हॉन्टेड

फिल्म समीक्षा

डर की इमोशनल पटकथा: हॉन्टेड

धीरेन्द्र अस्थाना

छोटे बजट और नये चेहरों के साथ एक बेहतर फिल्म बनाने के लिए प्रसिद्ध विक्रम भट्ट इस बार ‘हॉन्टेड‘ लेकर आये हैं। यह डर की इमोशनल पटकथा है। यानी डर के अदृश्य द्वार के पार एक प्यार है जिसे ईविल (दुष्टता) के शिकंजे से मुक्ति दिलानी है। यह प्यार है नयी अभिनेत्री टीया बाजपेयी जो पिछले 80 साल से एक बंगले में चीख-तड़प रही है। उसकी आत्मा उसके रेपिस्ट प्रोफेसर की बुरी आत्मा के कब्जे में है जिसे टीया ने मार डाला था। टीया की अच्छी आत्मा को मुक्ति दिलाने के लिए नये नाम महाअक्षय के साथ मिथुन चक्रवर्ती के साहबजादे मिमोह उपस्थित हैं, न सिर्फ नये नाम बल्कि नये लुक के भी साथ। एक फकीर की सलाह पर महाअक्षय 80 साल पीछे के समय में लौटते हैं और सन् 1936 में जी रही टीया की जिंदगी में उतरते हैं। अब रेपिस्ट प्रोफेसर और टीया वाली पटकथा में महाअक्षय भी हैं जो टीया का प्रेम जीत चुके हैं। टीया को शैतानी साये से मुक्ति दिलाने के बाद महाअक्षय वापस उन्नीस सौ ग्यारह के समय में लौट आते हैं। अब उनके पैतृक बंगले से टीया की चीखें आनी बंद हो गयी हैं। एक अच्छी फैंटेसी रची है विक्रम ने जिसमें डर, प्यार और संस्पेंस का संतुलित कोलाज बनाया है। कुछ डर का माया लोक, कुछ थ्री डी फॉर्मेट का आकर्षण, ‘हॉन्टेड‘ को छोटे और मझोले शहरों में अच्छी ओपनिंग मिलने की खबर है। मुंबई में दर्शकों की संख्या ठीक-ठाक रही। अगर इसे हिट फिल्म नहीं कहेंगे तो फ्लॉप फिल्म भी नहीं कही जाएगी। केवल कहानी के दम पर खड़ी हुई फिल्म अपनी लागत से ज्यादा वसूल लेती है तो उसे सफल ही कहा जाएगा। शैतान से मुक्ति चाहने की तंत्र-मंत्र की प्रक्रिया के चलते फिल्म थोड़ी बोझिल और नाटकीय जरूर हो गयी है, लेकिन बांधे रखती है। चिरंतन भट्ट का संगीत फिल्म की कथा के अनुरूप है। फिल्म के दो गीत भावप्रवण और मर्म स्पर्शी हैं। सेट लगाकर और कैमरे के जरिए 1936 के समय को रिक्रिएट करना कामयाब रहा है। यूं तो पूरी फिल्म की सिनेमेटोग्राफी ही उम्दा है। हालांकि डरावनी फिल्में देख-देख कर दर्शक डरना छोड़ चुके हैं फिर भी विक्रम भट्ट की विशेषता है कि इस फिल्म में उन्होंने डर का एक विश्वसनीय मंजर रचने की सफल कोशिश की है। महाअक्षय और टीया दोनों का अभिनय सामान्य से अच्छा है लेकिन दोनों को और मेहनत करनी होगी। भावों की अभिव्यक्ति में महाअक्षय को कुछ और विविधता लानी होगी। फिल्म देखी जा सकती है।

निर्देशक: विक्रम भट्ट
कलाकार: महाअक्षय, टीया बाजपेयी, अचिंत कौर, आरिफ जकरिया, मोहन कपूर
गीत: शकील आजमी, जुनैद वसी
संगीत: चिरंतन भट्ट

Saturday, April 30, 2011

शोर इन द सिटी

फिल्म समीक्षा

तपती हुई सड़क पर: शोर

धीरेन्द्र अस्थाना

एकता कपूर की कम्पनी से निकली नयी फिल्म ‘शोर इन द सिटी‘ आधुनिक ताने-बाने में बनी एक यथार्थवादी फिल्म है। सपनों की महानगरी मुंबई में जिंदगी की तपती हुई सड़क पर अपने-अपने दम पर अपने-अपने तरीके से संघर्ष कर रहे कुछ युवाओं की जद्दोजहद को फिल्म बेहद सधे हुए ढंग से व्यक्त करती है। फिल्म में तीन कहानियां समानांतर चलती हैं और अच्छी बात यह है कि तीनों ही अपनी परिणति को प्राप्त होती हैं। पूरी फिल्म में कुछ भी छूट गया सा या आधा अधूरा नहीं लगता। हम जिस मध्यवर्गीय समाज में अपने कुछ सपनों और अरमानों के साथ जीते रह कर लड़ते-टूटते रहते हैं इसकी प्रभावशाली तथा मार्मिक प्रस्तुति बन गयी है यह फिल्म। बड़े पर्दे पर छोटी मगर सशक्त कविता जैसा मंचन। करोड़ों रुपये फूंककर, मेन स्ट्रीम सिनेमा के नाम पर, घटिया फिल्में बनाने वाले इस फिल्म से काफी कुछ सीख सकते हैं। कथा-पटकथा-गीत-संगीत सिनेमेटोग्राफी-संपादन और सबसे अंत में अभिनय तथा निर्देशन हर मोर्चे पर ‘शोर इन द सिटी‘ एक नायाब अनुभव बन कर उभरती है। अब तक तुषार कपूर की कॉमेडी पसंद करने वाले उसे एक नये, थोड़ा हटकर रूप में देखेंगे और तुषार का यह रूप ज्यादा जीवंत, ज्यादा मौलिक, ज्यादा सहज और ज्यादा आकर्षक लगता है। फिल्म के सभी कलाकारों- तुषार कपूर, प्रीति देसाई, सेंढिल राममूर्ति, पिताबोश, निखिल द्विवेदी, संदीप किशन और राधिका आप्टे ने जमकर मेहनत की है और अपने संघर्षशील किरदारों में जान डाल दी है। छोटी-छोटी उपकथाएं मूल कहानी को गति भी देती हैं और समाज के विभिन्न क्षेत्रों में फैले अनाचार को भी रेखांकित करती हैं। पूरी फिल्म अपनी मूल प्रकृति में गंभीर है लेकिन कॉमेडी का शालीन इस्तेमाल फिल्म को हल्का फुल्का भी बनाये रखता है। निर्देशन और सिनेमेटोग्राफी का सबसे बड़ा कमाल यह है कि हम अपनी देखी हुई मुंबई को नये सिरे से, नये अनुभव के साथ पकड़ पाते हैं। युवाओं पर केंद्रित फिल्म है। इसलिए इसे बनाने का अंदाज और इसका गीत-संगीत पूरी तरह युवापन लिए हुए है। प्यार, बेरोजगारी, चोरी-चकारी, क्रिकेट, लोकल की भीड़, हफ्ता वसूली, मारामारी, दो नंबर का धंधा, तीज त्योहार, झोपड़पट्टी, पांच सितारा पार्टियां, बियरबार, पुलिस इतने बड़े कथ्य का कैनवास लेकर चलने वाली इस फिल्म को अनिवार्यतः देखा जाना चाहिए। भले ही इसे समझने के लिए दिमाग पर कुछ अतिरिक्त जोर क्यों न डालना पड़े।

प्रोड्यूसर: एकता कपूर, शोभा कपूर
निर्देशक: राज निदिमोरू, कृष्णा डीके
कलाकार: तुषार कपूर, प्रीति देसाई, सेंढिल राममूर्ति, पिताबोश, निखिल द्विवेदी, राधिका आप्टे
गीत: समीर, प्रिया पांचाल
संगीत: सचिन, जिगर, हरप्रीत

Saturday, April 23, 2011

दम मारो दम

फिल्म समीक्षा

बेहतर से थोड़ा कम: दम मारो दम

धीरेन्द्र अस्थाना

आज कल एक फिल्म के भीतर तीन चार कहानियां कहने का जो चलन है उसी की एक मिसाल ‘दम मारो दम‘ भी है। साल में तीन सौ पैंसठ दिन छुट्टी पर रहने वाले गोवा के ड्रग माफिया पर आधारित रोहन सिप्पी की यह फिल्म स्टाइलिश तो है, लेकिन अंत तक आते-आते कहानी के स्तर पर बिखर जाती है। फिल्म के अंत में अभिषेक बच्चन का मर्डर दिखाने की जरा भी जरूरत नहीं थी। अभिषेक का मरना फिल्म के उद्देश्य और संदेश को कमजोर करता है। ड्रग माफिया के लौह शिकंजे को ध्वस्त कर देने वाले एक जांबाज पुलिस ऑफिसर की मौत बुराई पर अच्छाई की विजय वाले फंडे को शिथिल कर देती है। पूरी तरह कमर्शियल फिल्म है और अभिषेक बच्चन समेत सभी कलाकारों ने अपना बेहतर देने का प्रयत्न भी किया है, लेकिन कहानी में कोई नयापन न होने के कारण बांध नहीं पाती। वरिष्ठ अदाकार देव आनंद की फिल्म ‘हरे रामा हरे कृष्णा‘ के अमर गाने ‘दम मारो दम‘ का रीमिक्स प्रभावित नहीं करता। हां उसकी फिल्मिंग बेहद उम्दा और प्रभावशाली बन पड़ी है। इस गाने पर दीपिका पादुकोन का डांस मदमस्त है। ड्रग माफिया की कहानी पर दर्शक बीसियों फिल्में देख चुके हैं। कथ्य के स्तर पर कोई नया आयाम या अर्थ देकर फिल्म को नया अंदाज दिया जाता तो कुछ कमाल हो सकता था। अपनी ऊंची-ऊंची महत्वाकांक्षाओं के कारण अपने हंसते खेलते जीवन को नर्क बना लेने वाली युवती के रोल को बिपाशा बसु ने तार्किक और संवेदनशील परिणति दी है। टीन एज युवा को ड्रग सौदागरों द्वारा कैसे फंसा लिया जाता है, इस मार्मिक कथा को प्रतीक बब्बर ने अपने निर्दोष अभिनय से अच्छी अभिव्यक्ति दी है। युवा संगीतकार के रोल में साउथ के सितारे राणा दग्गू बत्ती भी जंचते हैं। अभिषेक बच्चन का अभिनय तो फिल्म की जान है ही। गोविन्द नामदेव ने अभिनय का सहज पाठ पेश किया है। गीत-संगीत फिल्म का एक मजबूत पक्ष है। फोटोग्राफी लाइव तथा आकर्षक है। संवादों में दम है। ‘दम मारो दम‘ में कुछ बेदम है तो वह है पटकथा। प्रतीक, राणा, बिपाशा, अभिषेक सबकी अलग अलग कहानियां मिलकर कोई एक केंद्रीय विमर्श नहीं बन सकीं। बन जातीं तो यह कोई अलग और बेहतरीन फिल्म होती। कुल मिलाकर देखने लायक फिल्म तो है ही। अपने ट्रीटमेंट में एक ‘युवापन‘ लिए हुए है। रमेश सिप्पी के कैंप से निकली है इसलिए ‘भव्य‘ तो है ही।

निर्देशक: रोहन सिप्पी
कलाकार: अभिषेक बच्चन, बिपाशा बसु, राणा दग्गू बत्ती, प्रतीक बब्बर, गोविन्द नामदेव
संगीत: प्रीतम चक्रवर्ती
गीत: जयदीप साहनी

Saturday, April 16, 2011

तीन थे भाई

फिल्म समीक्षा

गहरी है खाई: तीन थे भाई

धीरेन्द्र अस्थाना

यह अंदाजा नहीं था कि जिन लोगों पर हम भरोसा करते हैं वे लोग भी हमे गच्चा दे सकते हैं। फिल्म पर बतौर प्रोड्यूसर राकेश ओमप्रकाश मेहरा का नाम था इसलिए सोचा कि यकीनन लीक से हटकर बनी होगी। फिल्म के शुरुआती आधे घंटे तक लगता रहा कि कहीं यह फिल्म बच्चों के लिए तो नहीं बनायी गयी है, लेकिन बाद में समझ आया कि यह तो निहायत बचकानी फिल्म है। कॉमेडी के नाम पर ‘हास्य व्यंग्य‘ जैसी ताकतवर विधा का कचरा कर दिया है लेखकों ने। ‘तीन थे भाई‘ के तीन पक्ष हैं। पहला कथा पक्ष जो निहायत ही लचर और बेसिर-पैर है, दूसरा अभिनय पक्ष जो दुखद है। तीसरा गीत संगीत पक्ष जो थोड़ा बहुत सुकून देता है। लीक से हटकर फिल्म बनाने के चक्कर में निर्देशक फिल्म की पूरी कास्ट के साथ एक गहरी खाई में जा गिरा है। मूल कहानी से छिटककर जब तीनों भाई क्रमशः अपने अतीत में जाते हैं उस समय के कुछ टुकड़े संवेदनशील और जीवंत लगते हैं, लेकिन दिक्कत यह है कि दर्शक किसी फिल्म को टुकड़ों में नहीं समग्रता में देखने जाते हैं। कुल मिलाकर ‘तीन थे भाई‘ एक असफल फिल्म है जो खराब फिल्म के अच्छे उदाहरण के रूप में याद की जाएगी। ओम पुरी, श्रेयस तलपदे और दीपक डोबरियाल तीन सगे भाई हैं जिनमें आपस में जरा भी नहीं बनती। असल में तो तीनों एक दूसरे को नफरत की हद तक नापसंद करते हैं। तीनों अपने दादा की मनमानी और सख्ती के चलते गांव से पलायन करते हैं और शहर में एक निम्न मध्य वर्गीय जीवन उच्च वर्गीय सपनों के साथ बिता रहे होते हैं। तभी उन्हें पता चलता है कि हिमाचल प्रदेश के एक कस्बे में उनके दादा ने एक प्रोपर्टी छोड़ी है जिसके वारिस वे तीनों हैं। पर एक कठोर शर्त है कि तीनों को प्रत्येक वर्ष उस पहाड़ी पर पहुंचकर एक रात बितानी पड़ेगी। शर्त पूरी होने पर प्रोपर्टी बेच कर जो पैसा मिलेगा वो तीनों में बंट जाएगा। इस कहानी को अगर थोड़ी संजीदगी से फिल्मा दिया जाता तो एक ठीक-ठाक फिल्म बन सकती थी। लेकिन फिल्म में कॉमेडी का पूरा ढाई सौ ग्राम का पैकेट उंड़ेल कर फिल्म को कड़वा बना दिया गया है। नये अभिनेता दीपक डोबरियाल ने एक बार फिर अच्छा काम किया है। ओम पुरी पर दर्शकों को अभिमान है। उन्हें कैसी भी फिल्म साइन करके दर्शकों को दुख नहीं देना चाहिए।

निर्देशक: मृगदीप सिंह लांबा
कलाकार: ओम पुरी, श्रेयस तलपदे, दीपक डोबरियाल, रागिनी खन्ना, योगराज सिंह
गीत: गुलजार
संगीत: दलेर मेहंदी, रणजीत बारोट आदि

Saturday, April 9, 2011

थैंक यू

फिल्म समीक्षा

बेवफाई के साइड इफेक्ट: थैंक यू

धीरेन्द्र अस्थाना


इस बार निर्देशक अनीस बज्मी ने अपने कॉमेडी के ताने-बाने को थोड़ा सा भावनात्मक स्पर्श देने की कोशिश की है। असल में मुख्य धारा सिनेमा के ज्यादातर निर्देशक कॉमेडी में ही अपनी मुक्ति ढूंढ़ते हैं। वह भी ‘मांइडलेस कॉमेडी‘ में। लेकिन बिना कहानी वाला सिचुएशनल हास्य कितना गढ़ा जाएगा सो नया कुछ करने के नुस्खे तलाशे जाते हैं। ‘थैक्यू‘ का नुस्खा है हंसी-मजाक में भावना का तड़का। निर्देशक ने फिल्म में एक मोटी सी कहानी भी रखी है। वह कहानी है तीन दोस्तों द्वारा अपनी-अपनी पत्नी को धोखे में रखकर नयी-नयी लड़कियों से फ्लर्ट करने की। एक लाइन में कहें तो इस बार अनीस बज्मी ने प्यार के नहीं बेवफाई के साइड इफेक्ट दिखाने का प्रयास किया है। अक्षय कुमार फिल्म के प्रमुख हीरो हैं, लेकिन इरफान खान अपने अभिनय और संवाद अदायगी के चलते सब पर भारी पड़े हैं। इरफान गजब के एक्टर हैं। उन्हें परकाया प्रवेश में महारत हासिल है। वह करेक्टर के भीतर सहजता से घुस जाते हैं और इरफान खान भी बने रहते हैं। सिनेमा में जो नयी पीढ़ी सक्रिय है उससे तुरंत पहले वाले बैच के इरफान खान एक्टिंग के स्कूल बनते जा रहे हैं। इरफान, बॉबी और सुनील शेट्टी तीन दोस्त हैं, जो गाहे बगाहे अपनी पत्नियों से छुपकर दूसरी लड़कियों से इश्क का छीन झपट्टा करते रहते हैं। जब जब वह एक्सपोज होने वाले होते हैं, एक -दूसरे की मदद से खुद को बचा ले जाते हैं। अक्षय कुमार एक प्राइवेट जासूस हैं, जो पतियों की बेवफाई की पोल खोलने का धंधा करते हैं। सोनम कपूर बॉबी देओल की पत्नी हैं जो बॉबी का पर्दाफाश करने के लिए सेलीना जेटली की सलाह पर अक्षय कुमार की मदद लेती हैं। पोल खोलने के इस क्रम में प्यार के घात-प्रतिघात, दोस्ती की ‘थीसिस-एंटी थीसिस‘ और बेवफाई के साइड इफेक्ट भी रेखांकित होते चलते हैं। बीच में एक विदूषक किस्म का डॉन भी आता है। बॉबी सोनम को डाइवोर्स दे देता है। लेकिन अक्षय कुमार दोनों की फिर से शादी करवा देता है। अंत में पता चलता है कि टूटे हुए दिलों को जोड़ने का काम करने वाला अक्षय अपने दिलफेंक स्वभाव के चलते अपनी बहुत प्यारी पत्नी को खो चुका है। पत्नी की मेहमान भूमिका में विद्या बालन हैं। फिर एक छोटा सा भाषण है कि लोगों को अपनी अपनी पत्नियों को क्यों एक निश्छल प्यार करना चाहिए। यही इस फिल्म का संदेश भी माना जा सकता है। फिल्म के तीन गाने अच्छे हैं जिनमे से ‘रजिया फंस गयी..‘ पहले ही हिट हो चुका है। टाइम पास फिल्म है। एक ऊबी हुई दोपहर से बचने के लिए थियेटर जा सकते हैं।
निर्देशक: अनीस बज्मी
कलाकार: अक्षय कुमार, बॉबी देओल, इरफान खान, सुनील शेट्टी, सोनम कपूर, सेलीना जेटली, रिमी सेन, विद्या बालन, मल्लिका शेरावत
संगीत: प्रीतम चक्रवर्ती

Saturday, February 26, 2011

तनु वेड्स मनु

फिल्म समीक्षा

मजेदार मसालेदार ’तनु वेड्स मनु‘

धीरेन्द्र अस्थाना

कानपुर की चटपटी चुलबुली तनु और लंदन पलट शांत- शर्मीला मनु। इन दोनों के रोमांस में कॉमेडी का तड़का लगाकर ठेठ यूपी स्टाइल में एक मजेदार मसालेदार फिल्म बनाने की कोशिश की गयी है। जो अर्थपूर्ण फिल्में देखने के शौकीन हैं यह उनके मिजाज की फिल्म नहीं है। लेकिन जो हल्की-फुल्की, थोड़ी सी रोमांटिक, थोड़ी सी मजाकिया, जानदार संवादों वाली नाटकीय फिल्मों को देखने के आदी हैं, उन्हें यह फिल्म मनोरंजन के अच्छे अवसर प्रदान करती है। फिल्म की सिनेमेटोग्राफी बहुत यथार्थवादी और ‘लाइव’ है। फिल्म कानपुर, कपूरथला और दिल्ली में फिल्मायी गयी है। और यहां की अराजक, लापरवाह और निरंकुश जीवनशैली को छायांकन के जरिये दर्शाने में सफल हुई है। निर्देशक शुरू से अंत तक दर्शकों को बांधे रखने में सफल रहा है। लेकिन फिल्म का ‘अंत’ वह संभाल नहीं पाया है। तनु से शादी करने के लिए माधवन और जिमी शेरगिल दोनों का बारात लेकर आ जाना दर्शकों को एक ‘शॉक’ जरूर देता है, लेकिन पहले मरने मारने पर उतारू जिमी का बाद में एक डायलॉग बोलकर पलायन कर जाना अटपटा और नाटकीय हो गया है। जब जिमी को पहली बार पता चलता है कि जिस लड़की से वह शादी करने वाला है उसी लड़की से माधवन प्रेम करता है, ठीक उसी समय वह दोनों के बीच से हट जाता तो यह एक स्वाभाविक अंत होता और शालीन भी। लेकिन प्रेम कहानी का ऐसा अंत सैकड़ों लव स्टोरीज में दिखाया जा चुका है, इसलिए कुछ नया करने के चक्कर में थोड़ा सा ‘कन्फ्यूजिया’ गया है। सिगरेट और शराब पीने वाली, प्रेमी के नाम का ‘टेटू’ छाती पर गुदवाने वाली, अशोभन गालियां बकने वाली एक बेलौस, बिंदास और अपनी मर्जी का जीवन जीने वाली लड़की का किरदार निभाकर कंगना राणावत ने साबित किया है कि वह क्यों बिना किसी गॉड फादर के इंडस्ट्री में न सिर्फ जमी हुई है, बल्कि लगातार आगे भी बढ़ रही है। उसके अभिनय में एक आंच है, जिसकी तपिश निरंतर बढ़ती जा रही है। वह हिंदी फिल्मों का झोंका नहीं, स्थायी भाव बनने की दिशा में अग्रसर है। माधवन के अभिनय में एक सौम्य किस्म की गरिमा है, जो संजीव कुमार जैसी ऊंचाई की याद दिलाती है। संजीव कुमार एक बहुआयामी अभिनेता थे, जबकि माधवन ने उनके गरिमा वाले, शांत-सौम्य पहलू को पकड़ा है। यह फिल्म तीन कारणों से याद की जा सकती है। पहली इसकी सिनेमेटोग्राफी। दूसरा इसका गीत-संगीत पक्ष। और तीसरा इसके किरदारों का जीवंत और विश्वसनीय अभिनय। माधवन के दोस्त पप्पी के रोल में दीपक डोबरियाल ने भी शानदार काम किया है। भोजपुरी के स्टार हीरो रवि किशन का किरदार इसमें ‘फिलर’ जैसा है। उन्हें ऐसे रोल करने से इनकार करना चाहिए। जो भी हो एक स्वस्थ मनोरंजन के लिए फिल्म देखी जा सकती है।

निर्देशक: आनंद एल. राय
कलाकार: माधवन, कंगना राणावत, जिमी शेरगिल, रवि किशन, दीपक डोबरियाल, राजेन्द्र गुप्ता
गीत: राज शेखर
संगीत: क्रिस्ना
छायांकन: चिरंतन दास

Saturday, February 19, 2011

7 खून माफ

फिल्म समीक्षा

प्रयोगधर्मी लेकिन जटिल ‘7 खून माफ’

धीरेन्द्र अस्थाना

यूं तो विशाल भारद्वाज की फिल्में आम तौर पर प्रयोगधर्मी ही होती हैं, लेकिन वे मनोरंजक और स्पष्ट भी होती हैं। मगर इस बार उनकी फिल्म संरचना के स्तर पर बेहद जटिल हो गयी है। सिनेमा का जो बड़ा आम दर्शक वर्ग है और जिसे बॉक्स ऑफिस का माई-बाप कहा जाता है, उसे यह फिल्म शायद पसंद नहीं आयेगी। इस फिल्म को समझना और फिर पचाना बहुत आसान नहीं है। यह हिंदी के किसी अमूर्त और कठिन लेखक की दुर्बोध कहानी जैसी हो गयी है। अगर फिल्म का संदेश यह है कि पुरुषों की सामंतवादी सोच के विरुद्ध यह प्रियंका चोपड़ा का खूनी इंतकाम है तो यह संदेश ठीक से घटित नहीं होता। कारण कि कभी कभी प्रियंका कत्ल में मजा लेती दिखती है जो हिंसक प्रतिशोध का नहीं बीमार मानसिकता का प्रतीक बनता नजर आता है। पूरी फिल्म में प्रियंका छह पतियों का खून करती है। वास्तविक जीवन में ऐसा नहीं होता कि कोई छह छह खून करने के बाद भी पुलिस के हत्थे न चढ़े। मान लेते हैं कि यह फिल्म है। और इसमें ‘क्रियेटिव लिबर्टी’ लेने की गुंजाइश है, लेकिन खून जैसे सबसे बड़े जुर्म के पीछे कुछ भारी और विश्वसनीय कारण तो होने ही चाहिए थे। प्रियंका के रूसी पति का दोष तो सिर्फ इतना होता है कि वह ‘चीटर’ है। ‘चीटिंग’ की सजा ‘र्मडर’ नहीं हो सकती। एक बात और समझ नहीं आयी। अगर प्रियंका ने अपने छह पतियों का खून इसलिए किया चूंकि वह उनके दमन, अत्याचार, धोखेबाजी और जालसाजी से परेशान थी तो सातवां खून वह खुद अपना क्यों करती है? हिंसा का जवाब प्रति हिंसा से देने वाला कभी अपराधबोध से पीड़ित नहीं होता। प्रियंका क्यों होती है? जटिल होने के कारण एक ज्वलंत विमर्श अमूर्तन की खाई में फिसल गया है। इसमें शक नहीं कि इस फिल्म के लिए प्रियंका चोपड़ा को ढेर सारे अवार्ड मिलने वाले हैं। उसने अपने अब तक के करियर का सर्वाधिक विलक्षण अभिनय किया है। प्रियंका के बाद सबसे ज्यादा प्रभाव छोड़ा है उसके पहले पति नील नितिन मुकेश ने। एक नाजुक मिजाज शायर बिस्तर पर कितना बर्बर हो जाता है, यह चरित्र इरफान खान ने बहुत ऊंचाई पर ले जाकर निभाया है। प्रियंका और इरफान के रिश्तों में पसरी हिंसा से दर्शक सहम जाते हैं। नसीरुद्दीन शाह और अन्नू कपूर तो मंजे हुए एक्टर हैं लेकिन गायिका होने के बावजूद ऊषा उथुप ने बेहद सहज और जीवंत रोल किया है। वह फिल्म में प्रियंका की वफादार ‘मेड’ बनी हैं। फिल्म का संगीत भी विशाल भारद्वाज का है, जो बेहद प्रभावशाली है। फिल्म का ‘डार्लिंग डार्लिंग’ वाला गाना तो बहुत पहले से ही पॉपुलर हो चुका है। प्रतिभाशाली जॉन अब्राहम का ‘स्पेस’ सबसे कम है। उन्हें कुछ करने का मौका ही नहीं मिला। एक्सपेरिमेंटल फिल्में पसंद करने वाले दर्शक इसे अवश्य ही देख लें।

निर्देशक: विशाल भारद्वाज
कलाकार: प्रियंका चोपड़ा, जॉन अब्राहम, नील नितिन मुकेश, नसीरुद्दीन शाह, अन्नू कपूर।
संगीत: विशाल भारद्वाज

Saturday, February 12, 2011

पटियाला हाउस

फिल्म समीक्षा

संवेदनशील और जीवंत ‘पटियाला हाउस’

धीरेन्द्र अस्थाना

निखिल आडवाणी की ‘पटियाला हाउस’ में अक्षय कुमार को संवेदनशील और मर्मस्पर्शी अभिनय करते देखना उन सबको अच्छा लगेगा जो मानते हैं कि अक्षय एक बेहतर एक्टर हैं। ‘सिंह इज किंग’ की अपार सफलता के बाद से वह लगातार एक अच्छी फिल्म की प्रतीक्षा में हैं। उनकी प्रतीक्षा ‘पटियाला हाउस’ पर आकर पूरी हुई है। बॉक्स ऑफिस पर ‘पटियाला हाउस’ का क्या बनेगा यह तो आने वाला समय बताएगा लेकिन कहानी, निर्देशन, गीत-संगीत, भावना प्रधान अभिनय, संपादन और छायांकन के स्तर पर ‘पटियाला हाउस’ एक उम्दा फिल्म है। क्रिकेट के बैकड्रॉप पर बनी यह फिल्म मूलतः पिता-पुत्र के टकराव को तो बयान करती ही है, तानाशाह मानसिकता के विरुद्ध लोकतांत्रिक इच्छाओं को भी रेखांकित करती है। फूहड़ मजाक और माइंडलेस कॉमेडी से बहुत दूर एक संवेदनशील और जीवंत ‘पटियाला हाउस’ ही असल में अक्षय कुमार का सही घर है। ऐसे ही घर दर्शकों के दिलों में उन्हें स्थायी बसेरा दिला सकते हैं। फिल्म की मुख्य कहानी यह है कि ऋषी कपूर अपने लंबे चौड़े कुनबे के साथ लंदन के साउथ हॉल में रहते हैं। अपने अकेले के दम पर लंदन में वह एक मिनी पंजाब खड़ा करते हैं और अंग्रेजों से नफरत करते हैं। अंग्रेजों का हिंदुस्तानियों के प्रति नस्लवादी रवैया उन्हें इस बात की इजाजत नहीं देता कि उनका अपना बेटा अक्षय कुमार ब्रिटिश टीम की तरफ से खेले। असल में अंग्रेजों से लड़ते-भिड़ते वह खुद तानाशाह बन जाते हैं। ‘पटियाला हाउस’ में सांस लेता लंबा चौड़ा परिवार एक तरह से कामनाओं का मकबरा बन जाता है। सत्रह साल क्रिकेट से दूर रहने के बाद अंततः अक्षय कुमार अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध जाकर इंग्लैंड की टीम में क्रिकेट खेलते हैं और इंग्लैंड को लगातार जीत दिलाकर खुद का होना सिद्ध करते हैं। ऋषी कपूर को पहले क्रोध आता है लेकिन बाद में कुछ इमोशनल ड्रामे के बाद उन्हें अपनी गलती का एहसास होता है। वह अपनी जिद और एकाधिकारवादी सोच में नहीं अपने बेटे की खुशी और जीत में सार्थकता तलाशते हैं। एक स्पंदनहीन, इच्छा रहित, लगभग गुलाम पटियाला हाउस अपने-अपने सपनों के द्वार पर दस्तक देता नजर आता है। ऋषी कपूर, डिंपल और अक्षय कुमार तो मंजे हुए अभिनेता हैं लेकिन अनुष्का शर्मा ने एक बार फिर पंजाबी कुड़ी के किरदार में जान डाल दी है। उन्होंने रोचक और ‘रीयल’ अभिनय किया है। शंकर-अहसान-लॉय का संगीत दिल को भाता है।

निर्देशक: निखिल आडवाणी
कलाकार: अक्षय कुमार, अनुष्का शर्मा, ऋषी कपूर, डिंपल कपाड़िया, हार्ड कौर
संगीत: शंकर-अहसान- लॉय

Saturday, February 5, 2011

ये साली जिंदगी

फिल्म समीक्षा

जोरदार है ‘ये साली जिंदगी’

धीरेन्द्र अस्थाना


जिन फिल्मों को ‘कंटेंट इज किंग’ कहकर परिभाषित किया जाता है वैसी फिल्म तो है ही ‘ये साली जिंदगी’। एक कदम आगे बढ़कर अभिनय के स्तर पर भी लाजवाब और बेमिसाल है सुधीर मिश्रा की यह फिल्म। इरफान खान कमाल के एक्टर हैं लेकिन इस फिल्म में जीवंतता, सहजता और सशक्तता की नयी ऊंचाई पर खड़े मिले हैं वह। एक खुरदुरी और उतार चढ़ाव से लबरेज जिंदगी का हतप्रभ आशिक वाला किरदार निभा कर उन्होंने प्रतिभा के अपने प्रमाण को रेखांकित किया है। नये अभिनेता अरुणोदय सिंह ने अपने अभिनय की विराट रेंज से चकित किया लेकिन डर है कि कहीं उन्हें अब लगातार गैंगस्टर का रोल न मिलने लगे। चित्रांगदा सिंह तो पहले भी अपने अभिनय के जौहर दिखा चुकी हैं लेकिन नयी लड़की अदिति राव हैदरी ने अपने बोल्ड और बिंदास रोल से युवा ब्रिगेड में पहली पंक्ति में अपना स्थान सुनिश्चित कर लिया है। सौरभ शुक्ला, सुशांत सिंह, यशपाल शर्मा और विपिन शर्मा ने भी अपना होना दर्ज किया है। सबसे ज्यादा प्रभावित करता है फिल्म का शीषर्क गीत, जो फिल्म की व्याख्या भी करता है। कथ्य के स्तर पर ‘ये साली जिंदगी’ खट्टे-मीठे- खुरदरे अनुभवों का जोरदार कोलाज है जो दिल्ली की गलियों में दिल्ली की भाषा में, धूम-धड़ाम ढंग से घटता है। दरअसल, मुंबई का बहुत दोहन हो चुका इसलिए दिल्ली अब सिनेमा की नयी मंडी है। जैसा कि आजकल के नये सिनेमा का ट्रेंड है, इस फिल्म में भी कोई एक सीधी सादी कहानी नहीं है। इसमें इरफान खान और चित्रांगदा सिंह, अरुणोदय सिंह और अदिति राव हैदरी, चित्रांगदा सिंह और विपुल गुप्ता, सौरभ शुक्ला और इरफान खान, यशपाल शर्मा और प्रशांत नारायण, सुशांत सिंह और अन्य की समानांतर जिंदगियां टुकड़ों में घटित होती रहती हैं और एक दिलचस्प कोलाज बनाती हैं। एक पंक्ति में कहना हो तो यह स्टाइल, कंटेंट और एक्टिंग की फिल्म है। भविष्य के एक्टर जिन फिल्मों से एक्टिंग का पाठ सीख सकेंगे उनमें यकीनन ‘ये साली जिंदगी’ और विशेष कर इसमें इरफान खान का अभिनय शुमार किया जाएगा। सुधीर मिश्रा ने एक बार फिर साबित किया है कि अच्छे सिनेमा को सुपर स्टारों की नहीं बेहतरीन कंटेंट की जरूरत है। फिल्म का संगीत निशात खान ने दिया है जो अंतरराष्ट्रीय ख्याति के संगीतकार हैं। फिल्म के संवाद फिल्म का ‘ट्रेड मार्क’ बन सकते हैं। दिल्ली और हरियाणवी भाषा में बोली गयी गालियां एक नये, मजेदार अनुभव से गुजारती हैं। दिल्ली का चांदनी चौक, करौल बाग, छतरपुर और हरियाणा बॉर्डर वाला एरिया कैमरे की आंख से भव्य और दिव्य लगता है। एक आवश्यक रूप से देखने लायक फिल्म।

निर्माता: प्रकाश झा
निर्देशक: सुधीर मिश्रा
कलाकार: अरुणोदय सिंह, अदिति राव हैदरी, इरफान खान, चित्रांगदा सिंह, सौरभ शुक्ला, सुशांत सिंह
संगीत: निशात खान
गीत: स्वानंद किरकिरे, मानवेंद्र

Saturday, January 29, 2011

दिल तो बच्चा है जी

फिल्म समीक्षा

‘दिल तो बच्चा है जी’ थोड़ा सच्चा है जी

धीरेन्द्र अस्थाना

मधुर भंडारकर ऐसा सिनेमा बनाने के कारण चर्चित हुए हैं जो अर्थपूर्ण तथा यथार्थवादी भी है और बाजार में भी टिकता है। ‘ट्रैफिक सिग्नल‘, ‘कॉरपोरेट‘, पेज थ्री‘, ‘फैशन‘ उनकी व्यावसायिक रूप से सफल गंभीर फिल्में हैं। इस बार उन्होंने एक कॉमेडी फिल्म बनाने की ठानी थी। लेकिन हुआ यह कि जैसे एक साहित्यकार गुलशन नंदा या प्रेम वाजपेयी की तरह के उपन्यास नहीं लिख सकता वैसे ही मधुर भंडारकर भी वैसी कॉमेडी नहीं बना सके जो हिट होती है। उन्होंने कॉमेडी के भेष में एक गंभीर फिल्म बना दी है और यह इस रूप में अच्छा ही हुआ कि अब ‘मीनिंगफुल सिनेमा’ के दर्शकों को ‘एक संजीदा निर्देशक की विदाई का खतरा’ नहीं रहा। ‘दिल तो बच्चा है जी’ एक कमाल की सच्ची और अच्छी फिल्म है। फिल्म की कहानी में ताजगी है। कहानी के तीन आयाम हैं। तीन दिल तन्हा हैं। एक को सच्चे प्रेम की तलाश है, यानी ओमी वैद्य। दूसरे को तलाक के बाद फिर से घर बसाना है, यानी अजय देवगन। तीसरा दैनिक लड़कीबाजी से थककर ‘जेनुइन लव’ की खोज में एक जगह रुकता है, यानी इमरान हाशमी। तीनों दिल बेआवाज टूट जाते हैं। फिल्म को कॉमेडी का टच देने के लिए तीनों ‘बच्चे दिल’ फिर से रोमांस के भंवर में प्रवेश करते दिखाए गए हैं। लेकिन फिल्म का मूल स्वर यही उभर कर आता है कि आज की व्यापारिक और गलाकाट दुनिया में सब एक दूसरे का इस्तेमाल भर कर रहे हैं। प्यार एक छलावा है। इमोशन एक अत्याचार है। रिश्ता एक समझौता है। अजय देवगन एक बैंक के लोन मैनेजर हैं जो अपनी पत्नी से तलाक के बाद अपने मां-बाप (स्वर्गीय) के बड़े से बंगले में रहने आते हैं। एकांत से बचने के लिए वह ओमी वैद्य और इमरान हाशमी को बतौर पेइंग गेस्ट रख लेते हैं। कालांतर में तीनों दोस्त बन जाते हैं और अपनी अपनी प्रेम कहानियों में डूबते-उतराते हैं। इन तीनों दिलों की धड़कन बनी हैं श्रुति हसन, श्रद्धा दास और शहजहान पद्मसी। फिल्म के सभी कलाकारों ने बेहतर अभिनय किया है। इस फिल्म में भी ओमी वैद्य की धड़कन बनी श्रद्धा दास के चरित्र के माध्यम से मधुर भंडारकर ने ग्लैमर र्वल्ड के पीछे का संघर्ष और अंधेरा दिखा ही दिया है। ओमी वैद्य का चरित्र फिल्म की गंभीरता में ‘कॉमिक रिलीफ’ की तरह है। उनकी ‘हिंग्लिश पोयेट्री’ दिलचस्प है और सच्चे प्रेम को लेकर उनकी तड़प भली-भली सी लगती है। अपने दिल फेंक चरित्र की निरर्थकता के अहसास को इमरान हाशमी ने सशक्त अभिव्यक्ति दी है। 48 साल के किरदार अजय देवगन जिस तरह अपने से 17 साल छोटी युवती के प्रेम में पड़ते हैं और टूटते हैं, वह इमोशन जीवंत रूप में घटित हुआ है। अभिनय, निर्देशन, कथा और गीत-संगीत के स्तर पर ‘दिल तो बच्चा है जी’ एक साफ सुथरी और उम्दा फिल्म है। सिनेमा के आम दर्शक शायद इसमें ज्यादा दिलचस्पी नहीं ले पाएंगे।
निर्देशक: मधुर भंडारकर
कलाकार: अजय देवगन, इमरान हाशमी, ओमी वैद्य, श्रद्धादास, श्रुति हसन, शहजहान पद्मसी
संगीत: प्रीतम चक्रवर्ती

Saturday, January 22, 2011

धोबीघाट

फिल्म समीक्षा

मुंबई दर मुंबई वाया ‘धोबीघाट’

धीरेन्द्र अस्थाना

मुंबई अनंत कथाओं, घटनाओं और चरित्रों का शहर है। एक आम कहावत है कि इस शहर में आदमी की पूरी जिंदगी लग जाती है तो भी यह शहर अनजाना-अनपहचाना सा बना रहता है। निर्देशिका किरण राव ने अपनी पहली फिल्म ‘धोबीघाट’ में इसी मुंबई को चार समानांतर कहानियों के जरिये खोलने-बताने की कोशिश की है। धोबीघाट से फिल्म का इतना भर नाता है कि फिल्म का युवा नायक प्रतीक बब्बर कपड़े धोने का काम करता है और एक्टर बनने का सपना संजोये हुए है। आमिर खान एक पेंटर हैं। मोनिका डोगरा विदेश से मुंबई आयी है फोटोग्राफी करने और शहर को जानने-समझने। पहले वह कुछ क्षण के लिए आमिर खान के जीवन में उतरती है फिर प्रतीक बब्बर के। अंत में दोनों ही उसके जीवन से ‘छूट’ जाते हैं। फिल्म में आमिर, प्रतीक और मोनिका के अलावा चौथी कहानी कृति मल्होत्रा की है जो तीन कैसेट्स के जरिये पर्दे पर घटित होती है। ये कैसेट्स आमिर खान को उस घर में मिलते हैं, जिस घर को उसने किराये पर लिया है। असल में ‘धोबीघाट’ एक वैचारिक और बारीक संवेदना वाली फिल्म है। सिनेमा के आम दर्शकों या बाजार के लिए इसे बनाया भी नहीं गया है। वह तो आमिर खान प्रोडक्शन की फिल्म है इसलिए पहले दिन काफी संख्या में इसे दर्शक मिल भी गए। वरना, जैसा कि खुद किरण राव ने एक साक्षात्कार में कहा था कि यह अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों की फिल्म है। आमिर तो खैर एक मंजे हुए कलाकार हैं इसलिए उनके बारे में क्या कहना? हां, प्रतीक बब्बर ने कमाल की एक्टिंग की है। यह सही मायने में प्रतीक की लांचिंग की पहली फिल्म है और अपनी इस फिल्म से वह भविष्य की उम्मीद बन गये हैं। मोनिका डोगरा का अभिनय भी जीवंत और सहज है। चार कहानियों वाली इस यथार्थवादी फिल्म को बड़ी सहजता से सवा दो घंटे में लाया जा सकता था। पता नहीं क्यों किरण राव ने इसे पिच्चानबे मिनट में समेट दिया। इस फिल्म से दर्शक मनोरंजन की उम्मीद न करें। इसे पेंटिंग की तरह ‘फील’ करने और कविता की तरह आत्मसात करने के लिए बनाया गया है। अपनी पहली ही फिल्म को ‘विमर्श’ की तरह पेश करके किरण राव ने साहस का परिचय दिया है। अंत में यह कि फोटोग्राफर की आंख से देखी गयी मुंबई वाली इस फिल्म की फोटोग्राफी में जान है।

निर्देशक: किरण राव
कलाकार: आमिर खान, प्रतीक बब्बर, मोनिका डोगरा, कृति मल्होत्रा
संगीत: गुस्ताव सांता ओलाला

Saturday, January 15, 2011

यमला पगला दीवाना

फिल्म समीक्षा

मसालेदार ‘यमला पगला दीवाना’

धीरेन्द्र अस्थाना

समीर कर्णिक द्वारा निर्देशित ‘यमला पगला दीवाना’ कोई वैचारिक या कालजयी फिल्म नहीं है। यह एक मसालेदार आम मुंबइया फिल्म है जो अपने मकसद में काफी हद तक कामयाब हुई है। मकसद है बिना अश्लील हुए दर्शकों का साफ सुथरा मनोरंजन करना। इस मकसद के लिए फिल्म में नाच-गाना-हंसी-मजाक-मारधाड़- इमोशन-प्यार यानी तमाम मसाले डाले गये हैं और मूल स्वर ‘लाउड कॉमेडी’ का रखा गया है। शुद्ध रूप से ‘माइंडलेस कॉमेडी’ ऐसी ही फिल्मों को कहते हैं। इससे पहले फिल्म ‘अपने’ में पूरी देओल तिकड़ी (धम्रेन्द्र, सनी, बॉबी) अपने अभिनय के जलवे दिखा चुकी है। लेकिन ‘अपने’ एक संवेदनशील और भावप्रधान फिल्म थी। जबकि ‘यमला पगला दीवाना’ में यह तिकड़ी पहली बार कॉमेडी कर रही है। कहानी बहुत पुरानी और दर्जनों बार दोहरायी जा चुकी है। इसलिए फिल्म के आरंभ में ‘परिवार के बिछुड़ने और अंत में मिल जाने’ वाली कई फिल्मों के टुकड़े दिखाकर हल्के-फुल्के ढंग से स्वीकार लिया गया है कि यह भी वैसी ही फिल्म है, लेकिन नए अंदाज में। सनी देओल अपनी मां और विदेशी पत्नी के साथ कनाडा में रहता है। एक प्रसंग से उद्घाटित होता है कि उसका पिता धर्मेन्द्र और भाई बॉबी देओल बनारस में कहीं हैं। मां के आग्रह पर वह उन दोनों को खोजने बनारस आता है। बनारस आते ही वह बॉबी देओल के हाथों ठगा जाता है। दरअसल बनारस में रहकर धर्मेन्द्र और बॉबी लोगों को ठगने का ही धंधा करते हैं। सनी समझ जाता है कि वह सही जगह पहुंचा है। वह चुपचाप बॉबी के और उसके कारण धर्मेन्द्र के करीब होता जाता है। दो-तीन गंभीर संकटों से दोनों बाप-बेटों को सनी बाहर निकालता है। इसी दौरान बॉबी को साहिबा (कुलराज रंधावा) से प्यार हो जाता है। लेकिन साहिबा के भाई बॉबी को पीटकर साहिबा को अपने साथ पटियाला ले जाते हैं। बॉबी को उसका प्यार वापस दिलाने के लिए सनी बॉबी के साथ पटियाला जाता है। इस प्रकार फिल्म पंजाब और उसके कल्चर में एंट्री लेती है। बीच-बीच में कई उप प्रसंगों के जरिए हास्य के क्षण जुटाए जाते रहते हैं। साहिबा के भाई बॉबी के बजाय सनी से शादी को तैयार होते हैं तो उसके जरिए कॉमेडी का एक नया रंग उभरता है। दोनों की शादी के विज्ञापन को देख कनाडा से सनी की पत्नी भी पटियाला पहुंच जाती है। अंत में फिल्म का सुखद अंत होता है। सबकी गलत फहमियां दूर होती हैं। बॉबी-कुलराज की शादी होती है और बिछुड़ा परिवार समृद्ध होकर कनाडा लौटता है। फिल्म की सबसे बड़ी खामी यह है कि यह जरूरत से ज्यादा लंबी हो गयी है। कम से कम बीस मिनट का संपादन इसे चुस्त कर सकता था। मनोरंजन प्रेमी दर्शकों के लिए टाइम पास है।

निर्देशक: समीर कर्णिक
कलाकार: धर्मेन्द्र, सनी देओल, बॉबी देओल, कुलराज रंधावा, नफीसा अली, अनुपम खेर, जॉनी लीवर
संगीत: प्यारेलाल, संदेश शांडिल्य, अनु मलिक आदि।

Saturday, January 8, 2011

नो वन किल्ड जेसिका

फिल्म समीक्षा

नो वन किल्ड जेसिका

तंत्र का तमाशा बनाम तमाशे का तंत्र

धीरेन्द्र अस्थाना



दिल्ली के एक बहुचर्चित मर्डर केस पर आधारित इस ‘कल्पना प्रधान’ फिल्म की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसे बेहद सधे हाथों और संवेदनशील ढंग से बुना गया है। फिल्म में घोषणा की गयी है कि यह सत्य घटना पर आधारित काल्पनिक फिल्म है। पर इससे क्या? आम जनता तक अपना संदेश पहुंचाने के मकसद में निर्देशक कामयाब हुआ है। काश, इतनी बेहतरीन और सामाजिक यथार्थ से जुड़ी फिल्में किसी रोज व्यापक दर्शक समूह से भी जुड़ सकें। ‘दबंग‘ देखने के आदी दर्शक जिस दिन ‘जेसिका’ को अपना व्यापक समर्थन देने लगेंगे, तंत्र की ताकत धरी रह जाएगी। एक साफ सुथरी, मर्मस्पर्शी और वैचारिक फिल्म है ‘नो वन किल्ड जेसिका।‘ सत्ता के केन्द्र दिल्ली में कैसे तंत्र और धन की सांठ-गांठ के सामने आम जीवन असहाय और निहत्था है, इसका ज्वलंत विमर्श पेश करती है फिल्म। एक पैग दारू के लिए सपना देखती एक युवा जिंदगी कुचल दी जाती है। तीन सौ लोगों की पार्टी में तमाम लोग मर्डर से पहले ही घर चले जाते हैं। बचे हुए कुल सात गवाह खरीद लिए जाते हैं। उन्हें एक करोड़ रुपये या एक गोली के बीच चुनाव करना है। जाहिर है बेदिल दिल्ली में लोग रुपये को चुनते हैं। केस दाखिल दफ्तर हो जाता है। फैसला है ‘नो वन किल्ड जेसिका।’ यहां तक की फिल्म विद्या बालन और केस की है। यह मध्यांतर है। और अब इसी पथरीली दिल्ली का दूसरा चेहरा उभरता है। अब शुरू होती है रानी मुखर्जी की फिल्म। रानी एक बिंदास टीवी पत्रकार है। वह अपनी खोजी रिपोर्टों से दफन हो चुके किस्से को पुनर्जीवित करती है। जेसिका के मुद्दे पर दिल्ली में जन जागरण आरंभ होता है, जिसमें रानी की महती भूमिका है। दिल्ली के नेतृत्व में पूरा देश जेसिका के हक में खड़ा होता है और अंततः न्याय होता है। लेकिन यह फिल्म है। वास्तविक जिंदगी में दबंगई ही जीतती है आम तौर पर। तंत्र के सामने आम आदमी का तमाशा ही बनता है अक्सर। रानी और विद्या दोनों ने अपने अभिनय से फिल्म में जान डाल दी है। एक ने आहत और टूटी हुई लड़की का तो दूसरी ने दबंग पत्रकार का किरदार विश्वसनीयता के साथ निभाया है। अब रानी को ऐसे ही अर्थ पूर्ण चरित्र निभाने चाहिए। फिल्म का गीत-संगीत भी उसकी एक बड़ी ताकत है। ‘दिल्ली दिल्ली’ वाला शीर्षक गीत जमता है। ऐसी फिल्मों को अनिवार्यतः देखकर निर्देशक की हौसला आफजाई करनी चाहिए।

निर्देशक: राजकुमार गुप्ता
कलाकार: रानी मुखर्जी, विद्या बालन, श्रीश शर्मा, मोहम्मद जीशान, मायरा
संगीत: अमित त्रिवेदी