Saturday, October 23, 2010

रक्त चरित्र

फिल्म समीक्षा

माफिया स्टाइल में क्रांति: रक्त चरित्र

धीरेन्द्र अस्थाना

बहुत दिनों के बाद राम गोपाल वर्मा ने ऐसी फिल्म बनायी है जो उनके सिनेमाई करियर को समृद्ध करती है। समझ नहीं आता कि जब राम गोपाल ‘सत्या‘, ‘सरकार‘ और ‘रक्त चरित्र‘ जैसी फिल्में बना सकते हैं तो वह बीच-बीच में कुछ निरर्थक और उबाऊ फिल्में क्यों बना देते हैं। अंडरवर्ल्ड रामू का चहेता विषय है। ’रक्त चरित्र‘ को भी उन्होंने हालांकि माफिया स्टाइल में ही बनाया है लेकिन इस बार विषय ’नक्सली हिंसा: कारण और निवारण‘ के इर्द-गिर्द घूमता है। यह संभवतः हिन्दी की पहली फिल्म है जो न सिर्फ दो भागों में एक साथ बनी है बल्कि दूसरे भाग के रिलीज होने की तारीख भी पहले भाग के अंत में करती है। घोषणा के अनुसार ’रक्त चरित्र-दो‘ लगभग एक महीने बाद यानी 19 नवंबर को रिलीज होगी। आंध्र प्रदेश के सुदूर इलाकों में राज सत्ता और धन शक्ति के नापाक, निरंकुश तथा खतरनाक गठजोड़ गरीब जनता पर कैसे जुल्म ढा रहे हैं, इसी की पृष्ठभूमि पर रामू हिंसा के विरुद्ध प्रतिहिंसा का पाठ रचते हैं। लेकिन इस प्रतिहिंसा को न तो तार्किक ठहराया जा सकता है न ही महिमा मंडित किया जा सकता है। इसलिए लोकतांत्रिक भाषा और रास्ते का इस्तेमाल करते हुए अपने क्रांतिकारी आख्यान में रामू सिस्टम बदलने के लिए सिस्टम का अंग बनने पर जोर देते हैं। रामू की विशेषता है कि जब वह अपनी शैली का सिनेमा बनाते हैं तो उनके कलाकार परिस्थितियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। वह कहानी की सतह से उठते हुए नजर आते हैं। ’रक्त चरित्र‘ में भी विवेक ओबेराय, सुशांत सिंह तथा अभिमन्यु सिंह हिंसा और प्रतिहिंसा के हरकारे बन कर ही उभरते हैं। इतनी ज्यादा और वैविध्यपूर्ण हिंसा भी लंबे समय बाद पर्दे पर उतरी है। शीषर्क गीत में फिल्म को नये समय की महाभारत कहा गया है। प्रकाश झा की ’राजनीति‘ को भी नये दौर की महाभारत से जोड़ा गया था। लेकिन मूलतः दोनों ही फिल्मों की व्याख्या देश के मौजूदा राजनैतिक परिदृश्य की तह में जाकर ही की जा सकती है। फिल्म का गीत संगीत फिल्म को गति देने के साथ-साथ उसकी कथा का बखान भी करता चलता है। सबसे बड़ी बात, पूरी फिल्म शुरू से अंत तक बांधे रखती है। फिल्म में शत्रुघ्न सिन्हा शिवाजी नामक दक्षिण के सुपर स्टार और राजनेता के किरदार में अच्छे लगे हैं। उनका संवाद ’वाक इज ओवर‘ लोकप्रिय हो सकता है। इस फिल्म से विवेक ओबेराय का सिनेभाई पुनर्जन्म हुआ है। यकीनन देखने लायक फिल्म है।

निर्देशक: राम गोपाल वर्मा
कलाकार: शत्रुघ्न सिन्हा, विवेक ओबेराय, सुशांत सिंह, अभिमन्यु सिंह, राजेंद्र गुप्ता, आशीष विद्यार्थी, प्रियामणि
संगीत: सुखविंदर सिंह/बापी टुटुल

Saturday, October 16, 2010

आक्रोश

फिल्म समीक्षा

बाहुबलियों का जंगलराज: आक्रोश

धीरेन्द्र अस्थाना

जब कभी प्रियदर्शन के भीतर का सरोकारों वाला निर्देशक जागता है तो दर्शकों को एक गंभीर और सामाजिक मंतव्यों से जुड़ी फिल्म देखने को मिलती है। वह सिर्फ कॉमेडी के ही सरताज नहीं विचारों के भी हरकारे हैं। उनकी नयी फिल्म ’आक्रोश‘ महानगरों के खुशगवार हालात से दूर उन बीहड़ इलाकों की टोह लेती है जहां आज भी बाहुबलियों का जंगलराज कायम है और जहां ताकत, वैभव तथा उच्चकुलीय अभियान के सामने सामान्य जन निहत्था और निरुपाय छोड़ दिया गया है। बैक ड्राप के रूप में प्रियदर्शन ने ’आक्रोश‘ में ऑनर किलिंग‘ का ताना-बाना खड़ा किया है, लेकिन असल में उनकी मूल चिंता उस साधारण, वंचित, दलित और सर्वहारा मनुष्य के साथ सलंग्न है जो जिंदगी के हर नये पल में नया सर्वनाश झेल रहा है। पंजाब या राजस्थान या उत्तर प्रदेश तो सिर्फ प्रतीक हैं। यह बनैला दमनचक्र व्यापक स्तर पर देश के प्रत्येक सुदूर इलाके में जारी है। वहां जहां सुरक्षा, सुविधा और सुखों की रोशनी आज भी नहीं पहुंची है। हिंसा के एक बेशर्म नंग नाच की पृष्ठभूमि पर प्रियदर्शन कर्तव्य पारायणता का बेबस पाठ भी तैयार करते है। तीन युवकों के गायब हो जाने के एक रहस्यमय केस की जांच करने के लिए सीबीआई अधिकारी अक्षय खन्ना पंजाब के एक गांव पहुंचते हैं। वहां उनकी मदद के लिए अजय देवगन हैं। दोनों मिलकर जब इस केस की गुत्थियां हल करते हैं, तब पता चलता है कि इलाके के चप्पे-चप्पे में बाहुबलियों की कितनी खतरनाक दहशत तारी है। आम आदमी की बेबसी का कितना दारुण दुखांत वहां कितनी आसानी से लिख दिया जाता है। यह चूंकि फिल्म है इसलिए ताकत का जंगली अंधेरा अंतिम सत्य के तौर पर स्थापित नहीं किया जा सकता था। इसीलिए अंत में तमाम बाहुबलियों के विरुद्ध न्याय की जीत होती दिखाई गयी है जबकि हकीकत दरअसल वहीं तक है जहां तक दमन का दावानल फैला हुआ है। एक अत्यंत यथार्थवादी फिल्म के जरिए आजाद हिंदुस्तान के भीतरी इलाकों में पसरा गुलाम जीवन दर्शाने के लिए प्रियदर्शन बधाई के पात्र हैं। फिल्म तीन प्रमुख पात्रों के इर्द-गिर्द घूमती है- अजय देवगन, अक्षय खन्ना, परेश रावल। तीनों का काम उम्दा है। राहत देने के लिए समीरा रेड्डी का आइटम सांग है जो पहले ही मशहूर हो चुका है। फिल्म में बिपाशा बसु के लिए कायदे का ’स्पेस‘ नहीं रखा गया है। वह नहीं भी होतीं तो चलता। हाशिए पर जीती औरत के रोल में रीमा सेन ने बेहतरीन काम किया है। एक सार्थक फिल्म।

निर्देशक: प्रियदर्शन
कलाकार: अजय देवगन, अक्षय खन्ना, परेश रावल, बिपाशा बसु, रीमा सेन, समीरा रेड्डी
संगीत: प्रीतम चक्रवर्ती

Saturday, October 9, 2010

क्रुक

फिल्म समीक्षा

नस्लवाद से लड़ती ‘क्रुक‘

धीरेन्द्र अस्थाना

जैसी कि भट्ट कैंप की फिल्में होती हैं, ‘क्रुक‘ भी उसी तरह की फिल्म है। छोटा बजट, नयी हीरोईन और घर का एक्टर इमरान हाशमी। मनोरंजन के साथ साथ कोई संदेश देने का प्रयास। कभी इस कैंप की फिल्म हिट हो जाती है कभी नहीं होती। लेकिन प्रत्येक फिल्म अपनी लागत जरूर निकाल ले जाती है। छोटा ही सही लेकिन इमरान हाशमी का भी अपना एक दर्शक वर्ग बन गया है इसलिए उनकी सोलो फिल्म भी ठीक ठाक व्यवसाय कर लेती है। यह फिल्म भी थोड़ा बहुत व्यवसाय कर लेगी। पहले दिन ‘क्रुक‘ को देखने आये दर्शकों की संख्या संतोषजनक कही जा सकती है। अपने मंतव्य के कारण ‘क्रुक‘ थोड़ी गंभीर फिल्म है हालांकि निर्देशक मोहित सूरी ने रोमांस, एक्शन, कॉमेडी के तत्व डाल कर इसे मनोरंजक बनाने की कोशिश की है। फिल्म नस्लवाद से टकराने और उसका एक समाधान तलाशने का प्रयास करती है। इमरान हाशमी नकली नाम और पासपोर्ट के जरिए ऑस्ट्रेलिया जाता है ताकि वहां जा कर वह एक नयी और बेहतर जिंदगी जी सके। मुंबई में उसे कोई काम नहीं देता क्योंकि उसका पिता एक गैंगस्टर था जो जाली एनकाउंटर में मार दिया जाता है। मुंबई में अतीत इमरान के आगे आगे चलता है इसलिए वह एक पुलिस अधिकारी अंकल की मदद से ऑस्ट्रेलिया रवाना होता है।
ऑस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों और व्यक्तियों के साथ जो नस्लभेदी वारदात घट रही हैं उन्हीं में से एक के साथ, न चाहते हुए भी, इमरान हाशमी उलझ जाता है। थोड़ी बहुत मारा मारी, प्रदर्शन, भाषण आदि के बाद फिल्म इस सकारात्मक नोट पर खत्म होती है कि भारत और ऑस्ट्रेलिया के लोग मिल कर ही नस्लवाद का खात्मा कर सकते हैं। एक दूसरे से नफरत करने और झगड़ने की नीति दोनों को हिंसा-प्रतिहंसा की एक अंधी गली में ले जाकर छोड़ देगी। देखा जाए तो इस फिल्म के माध्यम से भट्ट कैंप ने एक अंतरराष्ट्रीय समस्या को सिनेमाई पाठ में ढालने का प्रयत्न किया है लेकिन फिल्म को फिल्मी फार्मूलोें के बंधे बंधाये ढांचे में रख देने से उसका प्रभाव कमजोर हो जाता है। प्रीतम ने हूबहू वही संगीत दिया है जैसा इमरान की फिल्मों के गीतों में दिया जाता है। नेहा शर्मा का अभिनय कोई जादू नहीं जगाता जबकि उसके किरदार में एक तपिश एक तड़प मौजूद थी। इमरान हाशमी अपनी सीरियल किसर की छवि से मुक्त हो रहे हैं यह उनकी अभिनय यात्रा के लिए एक सुखद संकेत है। फिल्म देखी जा सकती है।

निर्माता: मुकेश भट्ट
निर्देशक: मोहित सूरी
कलाकार: इमरान हाशमी, नेहा शर्मा, अर्जन बाजवा, गुलशन ग्रोवर
संगीत: प्रीतम