Sunday, October 19, 2014

सोनाली केबल


फिल्म समीक्षा

केबल वॉर के दिनों में सोनाली केबल

धीरेन्द्र अस्थाना

हांलाकि ज्यादा दर्शक फिल्म देखने नहीं आये लेकिन फिल्म ठीक ठाक थी। कहानी का विषय भी नया था और युवा कलाकार रिया चक्रवर्ती तथा अली फजल ने काम भी बेहतर किया है। फिल्म दर्शकों को उन दिनों में ले जाती है जब मुंबई में केबल वॉर शुरू हो गयी थी। बड़ी बड़ी कंपनी वाले केबल व्यवसाय पर कब्जा करने के लिए सड़कों पर उतर आये थे। उन्होंने छोटे केबल व्यापारियों को या तो खरीद कर उनका इलाका हथिया लिया था या फिर बाहुबल के दम पर उन्हें उनके इलाकों से खदेड़ दिया था। अब मुंबई में वह स्थिति नहीं है। केबल व्यवसाय में शांतिपूर्ण सह अस्तित्व की स्थिति है। लेकिन सोनाली केबल उन्हीं पुराने जंग के दिनों में लौटती है। रिया चक्रवर्ती मुंबई के  कोलाबा वाले इलाके में अपना खुद का सोनाली केबल सेंटर चलाती है। इलाके के तीन हजार घरों में सोनाली का केबल चलता है। उसके साथ पांच छह लड़के भी काम करते हैं। हालांकि वह सब की बॉस है लेकिन उनके बीच दोस्ती का रिश्ता है। सोनाली उन तीन हजार घरों को अपना कस्टमर नहीं अपना घर मानती है क्योंकि उन घरों के भीतर से उसे मां वाली खुशबू आती है। यह खुशबू उसके अपने घर में नहीं है क्योंकि उसकी मां उसे बचपन में ही छोड़ कर चली गयी थी। सोनाली के बाप ने ही उसे पाल पोस कर बड़ा किया है। सोनाली का बाप वड़ापाव का ठेला लगाता है। बाप के रोल में मशहूर गीतकार स्वानंद किरकिरे उतरे हैं और क्या खूब किरदार निभाया है उन्होंने। एकदम महेश मांजरेकर की तरह मंजे हुए एक्टर लगते हैं। इन्ही दिनों इलाके की विधायक स्मिता जयकर का बेटा अली फजल अमेरिका से एमबीए करके अपने घर लौटता है। वह और सोनाली स्कूल में साथ पढ़े हैं। दोनों का अठारह बरस का साथ है। अली के लौटने से सोनाली के एकाकी जीवन में नये रंग खिलने लगते हैं मगर स्मिता को अपने बेटे का सोनाली से घुलना मिलना जरा भी पसंद नहीं है। निर्देशक ने मां और बेटे की प्रेमिका के बीच उपजे तनाव को खूबसूरती से उभारा है। सोनाली केबल में स्मिता का साठ प्रतिशत हिस्सा है। स्मिता चाहती है कि सोनाली केबल की बागडोर उसका बेटा संभाल ले और सोनाली को इस धंधे से हटा दे। तभी शहर में एक बड़ी कंपनी शाइनिंग प्रवेश करती है। वह पानी भी बेचती है और खाखरा भी। इसके चेयरमैन अनुपम खेर हैं जो डेेढ़ लाख रूपये वाली शराब पीते हैं और उसके साथ खाखरा खाते हैं। वह अपने पॉश दफ्तर में भी पायजामा पहन कर आते हैं। यह गुजराती व्यापारी अनुपम अब पूरी मुंबई पर राज करना चाहते हैं। उनका मंसूबा है कि मुंबई के लगभग नहीं हर घर में उनका केबल चले। उनके बाहुबली मंसूबों से सोनोली कैसे टकराती है और कैसे उन्हें ध्वस्त करती है इस दिलचस्प और दिमागी जंग को देखने के लिए फिल्म को एक बार देखना तो बनता है। हालांकि इंटरवल के बाद फिल्म बिखर गयी है लेकिन दर्शक एक पल के लिए भी बोर नहीं होते। फिल्म के गानों की अलग से कोई सत्ता नहीं है। वह केवल कहानी और स्थिति को परिभाषित करते हैं। एकदम हमारे आस पास के किसी गली मोहल्ले की सच्ची कहानी जैसी है फिल्म। 
निर्देशक : चारूदत्त आचार्य
कलाकारः, रिया चक्रवर्ती, अली फजल, अनुपम खेर, स्मिता जयकर, स्वानंद किरकिरे
संगीत : अंकित तिवारी




इक्कीस तोपों की सलामी

फिल्म समीक्षा

आम आदमी की जंगः इक्कीस तोपों की सलामी 

धीरेन्द्र अस्थाना

आम तौर पर मुख्य धारा के सिनेमा को केवल मनोरंजन का माध्यम माना जाता है। अविश्वसनीय लगने वाले सीन या धटनाओं को सिनेमाई लिबर्टी या लार्जर देन लाइफ का हवाला देकर जस्टीफाइ कर लिया जाता है। लेकिन कुछ लोग हैं जो मनोरंजन के इस व्यापक माध्यम में सेंध लगा कर कोई न कोई संदेश देने का मौका तलाश ही लेते हैं। असल में इन थोड़े से लोगों के कारण ही थोड़ा सा मुख्य धारा का सिनेमा सार्थकता के हाशिये पर खड़ा टिमटिमाता रहता है। इक्कीस तोपों की सलामी एक कच्ची, कमजोर लेकिन सार्थक फिल्म हैं। यह सत्ता की शक्ति संपन्नता और भ्रष्टाचार की नदी को ठेंगा दिखाते हुए एक आम आदमी की इमानदारी को परिभाषित करती है। इस क्रम में जब आम आदमी हार जाता है तो फिल्म आम आदमी की जंग को अन्य तरीकों से अंजाम देती है। अनुपम खेर महानगर पालिका में जमादार है और मच्छर ग्रस्त कॉलोनियों में मच्छर धुआं उडाने का काम करता है। अपनी सत्ताइस साल की नौकरी में उसने एक भी छुट्टी नहीं ली और न ही उसके उपर भ्रष्टाचार का एक भी आरोप है। अपनी इस अडिग इमानदारी के कारण उसका अपने दोनों बेटों के साथ भी टकराव और टशन है। बड़ा बेटा नगरपालिका में है और रिश्वत लेने को बुरा नहीं मानता। छोटा बेटा भ्रष्टाचारी मुख्य मंत्री की सिपहसालार टीम का गुर्गा है और पिता को मूर्ख तथा निकम्मा मानता है। मुख्य मंत्री राजेश शर्मा एक नंबर का लम्पट और अय्याश है। वह फिल्मों की सी ग्रेड नाइका नेहा धूपिया के प्रेम पाश में बंधा हुआ है। राजेश शर्मा ने मुख्य मंत्री के रूप में बेहद शानदार और जीवंत अभिनय किया है जबकि नेहा धूपिया अपने करियर के सबसे खराब और नकली रोल में है। हालांकि उन्हें एक ऐसा दमदार चरित्र दिया गया था कि वह फिल्म में अपना सिक्का जमा सकती थी। फिल्म का शुरू का आधा हिस्सा उटपटांग और नकली है। लेकिन रिटायरमेंट के अंतिम दिन जब अनुपम खेर को भ्रष्टाचार के आरोप में निलंबित कर दिया जाता है और सदमे से अनुपम खेर का देहांत हो जाता है उसके बाद फिल्म एक सार्थक और संदेशपरक डगर पर चल पड़ती है। दोनों बेटे पिता को इक्कीस तोपों की सलामी दिलाने की पिता कि अंतिम इच्छा को पूरा करने की प्रक्रिया में जुट जाते हैं। दोनों की लड़ाई में बड़े की पत्नी और छोटे की प्रेमिका भी उनके साथ आ खड़ी होती हैं। चूंकि छोटे की प्रेमिका अदिती शर्मा मुख्य मंत्री की पर्सनल सचिव है इसलिए दोनों बेटों की योजना आसानी से साकार हो जाती है। वे हार्ट अटेक से मरे मुख्य मंत्री की लाश को भाइंदर, मुंबई की खाड़ी में फेंकने और उसकी जगह अपने पिता को इक्कीस तोपों की सलामी दिलाने में कामयाब हो जाते हैं। फिल्म के कई सीन नकली हैं लेकिन सार्थक संदेश के कारण उन्हें माफ किया जा सकता है। संगीत लुभावना है। फिल्म को एक बार देखा जा सकता है। यह कलाकारों की नहीं कहानी की फिल्म है।
निर्देशक : रवीन्द्र गौतम
कलाकारः, अनुपम खेर, नेहा धूपिया, दिव्येंदू शर्मा मनू रिषी चढ्ढा, अदिती शर्मा
संगीत : राम संपत




Friday, October 10, 2014

बैंग बैंग


फिल्म समीक्षा

एक्शन और रोमांस की बैंग बैंग

धीरेन्द्र अस्थाना

इस फिल्म को रितिक रोशन के हैरतअंगेज एक्शन सीन, खतरनाक फाईट और दिलकश डांस के लिए भी देखा जा सकता है तथा कैटरीना कैफ की कयामत ढाती खुबसूरती के लिए भी। एक्शनसीन एकदम हॉलीवुड के अंदाज और तकनीक के साथ अंजाम दिये गये हैं। फिल्म की कहानी में कोई नयापन नहीं है, न ही कोई संदेश। लेकिन एक एक्शन पैक्ड सुंदर अनुभव से गुजरने के लिए फिल्म को देखना बनता है। पता नहीं क्यों निर्देशकों को यह बात समझ में नहीं आती कि लार्जर देन लाईफ का मतलब तथ्यों से छेड़छाड़ करना या उन्हें एकदम नकार देना नहीं होता। अब देहरादून जैसे घाटी के शहर की राजपुर रोड जैसी राजसी और व्यस्त सड़क को बर्फ से ढकी हुयी और सुनसान क्यों दिखा दिया? क्या पिक्चर को देहरादून वाले नहीं देखेंगे? बहरहाल, एक इंटरनेशनल और खतरनाक डॉन डैनी लंदन की जेल में बंद है। एक भारतीय सैन्य अधिकारी जिमी शेरगिल उससे मिलने जेल पहुंचता है और उसे बताता है कि दिल्ली की तिहाड़ जेल पहुंचने का इंतजार करो क्यों कि जल्दी ही एक ऐसी संधि होने जा रही है जिसके तहत किसी भी देश के अपराधी को उसके मूल देश को तत्काल सौंप दिया जाएगा। लेकिन बातचीत के दौरान ही डैनी के लोग जेल पर हमला करते हैं और डैनी को छुड़ा ले जाते हैं। जाते जाते डैनी जिमी को गोली मार कर आग में जिंदा जला देता है। फिल्म के अंत में पता चलता है कि रितिक रोश नही जिमी का बड़ा भाई था जो डैनी का साम्राज्य ध्वस्त करता है और डैनी को आग में जला कर मार डालता है। असल में लंदन की जेल से आजाद होने के बाद डैनी अपने दांये हाथ जावेद जाफरी के जरिए दुनिया के बेशकीमती हीरे कोहेनूर की चोरी करने वाले व्यक्ति को भारी इनाम का लालच एक विज्ञापन के जरिए दिलवाता है। यह हीरा रितिक रोशन चुरा लेता है। इसी हीरे को रितिक से वसूल करने के लिए पूरी फिल्म खड़ी की गयी है। हवा, जमीन तथा पानी में खतरनाक स्टंट सीन करवाए गये हैं। कई एक्शन सीन में कैटरीना ने भी अच्छा काम कर अपना होना साबित किया है। फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि दर्शकों को आरंभ में ही इस बात का एहसास हो जाता है कि रितिक जैसा फिल्म का सुपर हिरो एक डॉन के लिए हीरा चुराने का काम क्यों करेगा?  और जब इस रहस्य पर से पर्दा उठता है कि हीरा तो चोरी हुआ ही नहीं। वह तो लंदन पुलिस का एक प्लान था जिसमें भारतीय सेना का बड़ा अधिकारी रितिक रोशन खुफिया तौर पर शामिल था। यह सब तो डॉन को समाप्त करने की रणनीति थी। डैनी का आतंक राज समाप्त होता है। कैटरीना बेहोश रितिक के उसके घर राजपुर रोड देहरादून ले जाती है जहां रितिक अपने मां बाप से मिलता है। मां बाप को यह गम है कि उनके दोनों बेटे जिमी और रितिक एक मिशन में मारे जा चुके हैं। घर में खुशियां लौटती हैं। यही है इस फिल्म का बैंग बैंग। 
निर्देशक : सि़द्धार्थ आनंद
कलाकारः, रितिक रोशन, कैटरीना कैफ, डैनी।                                                              
संगीत : विशाल- शेखर




देसी कट्टे


फिल्म समीक्षा

दिल, दोस्ती और जुनून के देसी कट्टे 

धीरेन्द्र अस्थाना

अभावग्रस्त बचपन जीते दो दोस्त। नौ दस की उम्र से ही देसी कट्टे हाथ में थामे स्कूली बच्चों के टिफिन से उनका भोजन थाम नौ दो ग्यारह होते दोस्त। जुर्म की दुनिया के बेताज बादशाह बनने का सपना आंखों मे लिए भागते भागते बड़े हो जाने वाल दोस्त। कथा कहने का पुराना ढर्रा। अपराध जगत के बादशाह आशुतोष राणा के सबसे बड़े और खतरनाक सिपहसालार की हत्या कर उसकी जगह स्थापित होन वाले दोस्त - पाली और ज्ञानी। मतलब अखिल कपूर और जय भानुशाली। कहानी का लोकेल कानपुर। गुंडई, मारामारी, नाचगाना, आईटम सब कुछ कस्बाई अंदाज में। पचासों बार बनी एक और क्राईम फिल्म। लेकिन औरों से जुदा इसलिए कि बैकड्रॉप खेल का। अगर फिल्म बहुत धीमी न होती तो अच्छी की श्रेणी में जा सकती थी। मगर एक्शन, रोमांस, ड्रामा सबकुछ इतना सुस्त और उनींदा कि आदमी बोर हो जाए। दोनों दोस्तों की जिंदगी में सुनील शेट्टी का आगमन होता है जो सेना का रिटायर मेजर है। वह उन्हें समझाता है कि अपने हुनर का उपयोग देश के लिए करो। अच्छे शूटर हो तो देश के लिए शूटिंग में मेडल जीत कर लाओ। वह उन्हें निशाना लगाने की सख्त ट्र्रेनिंग देता है। अब उन्हें नेशनल चैंपियनशिप में भाग लेना है लेकिन तभी दोनों दोस्तों के जीवन में आशुतोष राणा फिर से मौजूद हो जाता है, उन्हें अपने साथ जुड़ने का आग्रह करता हुआ। यह है मध्यांतर। दो दोस्तों की राहें अलग अलग हो जाती हैं। एक फिर से जुर्म की दुनियां में उतर जाता है। दूसरा खेल में अपना करियर बनाने चल पड़ता है। अपराधी है अखिल कपूर जिसके चेहरे पर किसी भी तरह के भाव उभरते ही नहीं हैं। प्लेयर है जय भानुशाली जिससे आगे चल कर कुछ उम्मीदें की जा सकती हैं। साशा आगा और टिया बाजपेयी को ज्यादा कुछ करने का मौका ही नहीं मिला। जितना मिला उसमें भी वह किसी छोटे कस्बे के आर्टिस्ट की तरह रह गयी। सुनील शेट्टी, अखिलेन्द्र मिश्रा, आशुतोष राणा और मुरली शर्मा जैसे सीनियर फिल्म में छाये रहे। अपने काम से भी, अपने अंदाज से भी। इस फिल्म से गायक कैलाश खेर संगीतकार बने। उनका संगीत कहानी को गति भी देता रहा और परिभाषित भी करता रहा। कहानी में तनाव तब पैदा होता है जब शूटिंग के नेशनल चैंपियन जय भानुशाली को विश्व चैंपियनशीप में भाग लेने की अनुमति नहीं मिल पाती क्योंकि उसका आपराधिक रिकॉर्ड है। जय और सुनील दोनों टूट जाते हैं। किस कारण जय को अनुमति मिलती है और किस तरह वह विश्व प्रतियोगिता में गोल्ड मेडल लेने में कामयाब होता है और क्यों उसकी कामयाबी को अंजाम देते हुए उसका दोस्त अखिल कपूर मारा जाता है, यह सब जानने के लिए तो फिल्म को एक बार देखना बनता है। हॉकी, क्रिकेट, दौड़, बॉक्सिंग के बाद शूटिंग के खेल पर रोचक फिल्म है।

निर्देशक : आनंद कुमार
कलाकारः, सुनील शेट्टी, अखिल कपूर, जय भानुशाली, साशा आगा, टिया बाजपेयी, आशुतोष राणा, अखिलेन्द्र मिश्रा।
संगीत : कैलाश खेर





दावते इश्क


फिल्म समीक्षा

मजेदार जायकेदार दावते इश्क 

धीरेन्द्र अस्थाना

काफी दिनों के बाद एक साफ सुथरी और दिलचस्प फिल्म देखने को मिली। न सिर्फ मनोरंजक बल्कि अच्छी तरह से बुनी गयी कहानी वाली तार्किक फिल्म है दावते इश्क। कहानी भी एकदम हमारे आस पास के वास्तविक जीवन से उठाई गयी। फिल्म में मुख्यतह तीन किरदार हैं। आदित्य राय कपूर, परिणिती चोपड़ा, अनुपम खेर। तीनों का काम जीवंत और जानदार है। वैसे तो आदित्य ने अपने बारे में प्रचारित इस राय को कि वह एक बड़े प्रोड्यूसर का भाई है इसलिए उसे फिल्में मिलतीं हैं, अपनी फिल्म आशिकी टू से ही ध्वस्त कर दिया था। आशिकी टू में उनके मार्मिक और कुंठित किरदार ने दर्शकों का दिल लूट लिया था। दावते इश्क में उन्होंने अपने अभिनय का एक नया ही आयाम पेश कर एक बार फिर लोगों का दिल लुभा लिया। चुलबुला, खिलंदड़ा , बेपरवाह शेफ जिसके बनाए कबाब खाने के लिए पूरी दुनियां से लोग आते हैं। परिणिती ने भी फिर साबित किया कि बॉलीवुड में वह देर तक टिकने वाली है। उंचे ख्वाब देखने वाली एक निम्न मध्य वर्गीय लड़की जो एक जूतों की दुकान में सेल्स गर्ल है। वह अपना खुद का शू स्टोर खोल कर खुद के डिजाइन किये जूते बेचना चाहती है और इसके लिए अमेरिका जा कर पढ़ना चाहती है। मगर उसका क्लर्क पिता अनुपम खेर जल्दी से जल्दी उसकी शादी कर उसे ठिकाने लगाना चाहता है और इस चिंता में घुलता रहता है। वह कई लड़कों के सामने अपनी बेटी का रिश्ता रखता है लेकिन बार बार बात दहेज पर आ कर टूट जाती है। परिणिती एक प्लान बनाती है जिसमें वह अपने पिता को भी शामिल कर लेती है। प्लान यह है कि दोनों रूप और पहचान बदल कर लखनऊ जाएंगे। वहां के आलिशान होटल में ठहरेंगे। शादी की वेब साइट पर जो लखनऊ के अमीर लड़के दिखेंगे उनको परिणिती के साथ विवाह करने के इंटरव्यू पर बुलाएंगे। सबसे अमीर लड़के के साथ गुपचुप विवाह करने के बाद परिणिती उसका सारा पैसा ले कर चंपत हो जाएगी। इसी क्रम में हैदरी के कबाब नाम वाले शहर के शानदार होटल के मालिक आदित्य से उनका सामना होता है। आदित्य की शर्त है कि शादी से पहले एक दूसरे को समझने के लिए दोनों तीन दिन एक साथ घूमेंगें फिरेंगें। पर होता यह है कि इन तीन दिनों में दोनों को एक दूसरे से सचमुच का प्यार हो जाता है। इसे जस्टीफाई करने के लिए निर्देशक ने कई रोचक सीन डाले हैं। ़ मगर अपने प्यार को दरकिनार कर परिणिती प्लान के मुताबिक  आदित्य का अस्सी लाख रूपया हथिया कर पिता के साथ हैदराबाद लौट जाती है। हैदराबाद में हर मोड़ पर परिणिती को लगता है कि आदित्य उसे धोखेबाज कह कर बुला रहा है। उसका मन पलट जाता है। वह पिता के साथ पैसे वापस करने लखनऊ की ट्रेन पकड़ने स्टेशन पहुंच जाती है जहां उससे आदित्य टकरा जाता है। आदित्य उसे खोजते हुए हैदराबाद आया है। परिणिती बताती है कि उसने दहेजखोर लड़कों से तंग आ कर ऐसा प्लान बनाया लेकिन आदित्य के प्यार ने उसे ऐसा करने से रोक दिया। वह आदित्य का पैसा लौटाने के लिए ही फिर से आदित्य के घर जा रही थी। दोनों गले मिल जाते हैं। अवश्य देखें, निराश नहीं होंगे। दिल ने दस्तरखान बिछाया दावते इश्क है।

निर्देशक : हबीब फैजल
कलाकारः आदित्य राय कपूर, परिणिती चोपड़ा, अनुपम खेर
संगीत : साजिद वाजिद





फाइंडिंग फेनी

फिल्म समीक्षा

जटिल प्यार की फाइंडिंग फेनी

धीरेन्द्र अस्थाना

कला सिनेमा के दायरे में बनने वाली फिल्मों जैसी है फाइंडिग फेनी। बेजोड़ एक्टरों की कुछ अलग किस्म का अनुभव दिलाने वाली लेकिन ठीक ठाक सी फिल्म। ऐसी नहीं कि उसे यादगार फिल्मों की श्रेणी में रखा जा सके। आम दर्शक सोच समझ कर फिल्म देखने जाएं क्योंकि इस फिल्म को बनाते समय दर्शकों की तरफ पीठ कर ली गयी थी। दरअसल यह फिल्म एक अनकहे प्यार की तलाश करने वाली यात्रा फिल्म है जिसकी संरचना बहुत जटिल और अभिव्यक्ति बेहद गूढ़ है। फिल्म इतनी स्लो है की बौद्विक दर्शक भी बोर होने के कगार पर जा खड़े होते हैं।फिल्म की एक मात्र उपलब्धि इसके कलाकार और उनका काम है। नसीरूद्दीन शाह, डिंपल कपाडिया, पंकज कपूर, दीपिका पादुकोन, अर्जुन कपूर। एक सीन की एंट्री में रणवीर सिंह भी। इतने मंजे हुए कलाकारों का काम एक बार तो देखना बनता है। अभिनय के मोर्चे पर ही फिल्म को सफल भी कहा जा सकता है। ये सब लोग गोवा के एक छोटे से, गुमनाम से, उंधते रहते गांव में बड़ा नीरस और एकाकी जीवन बिता रहे हैं। नसीर एक अवकाश प्राप्त पोष्टमास्टर है। पंकज कपूर एक सनकी किस्म का पेंटर है जिसे लगता है कि उसका काम विश्व स्तर का है। दीपिका और डिंपल सास बहु हैं। अर्जुन कपूर दीपिका का दोस्त है जो दीपिका के शादी कर लेने के कारण रूठ कर मुंबई चला गया था और पूरे छह साल बाद लौटा है। दीपिका शादी करने के कुछ ही मिनट बाद विधवा हो गयी थी क्यों कि पैसे बचाने के लिए डिंपल ने केक में शक्कर के कंचे लगाने के बजाए प्लास्टिक के कंचे लगा दिए थे। इस केक को खा कर डिंपल का लड़का गला रूंधने से मर जाता है। एक सुबह इस गांव में तब हलचल मच जाती है जब नसीर को अपने दरवाजे पर एक खत मिलता है। यह खत नसीर ने अपनी गर्लफ्रेंड फेनी को लिखा था जिसमें उसे विवाह के लिए प्रपोज़ किया था। पूरे छियालीस साल बाद यह खत बंद का बंद वापस आ गया है। यानी नसीर का प्रणय निवेदन फेनी तक पहुंचा ही नहीं। और नसीर ने पूरी उम्र कुंवारा रह कर फेनी की याद में गुजार दी। नसीर अपनी यह मर्मातंक त्रासदी दीपिका से शेयर करता है और दीपिका के अनुरोध पर सब लोग पंकज कपूर की खटारा कार में बैठ कर फेनी को खोजने गोवा की यात्रा पर निकल पड़ते हैं। इस यात्रा में होने वाले खट्टे मीठे दुखद अनुभवों पर ही पूरी फिल्म की पटकथा खड़ी की गयी है। फिल्म में कहीं कहीं कॉमेडी का दामन भी थामा गया है जिसके चलते फिल्म की गंभीरता को गहरा आधात पहुंचा है। इस यात्रा में एक दूसरे के रहस्य और अंतरमन भी उजागर होते चलते हैं। अंत में वापस अपने गांव लौट कर डिंपल और नसीर तथा अर्जुन और दीपिका शादी कर लेेेते हैं। जिस फेनी की खोज में ये लोग निकले थे वह एक शोक यात्रा में इन्हें एक ताबूत में चिरनिद्रा में लीन मिल जाती है। हो सकता है कि फिल्म कोई नेशनल अवार्ड मिल जाए। 
निर्देशक : होमी अदजानिया
कलाकारः नसीरूद्दीन शाह, पंकज कपूर, डिंपल कपाडिया, दीपिका पादुकोन, अर्जुन कपूर, रणवीर सिंह
संगीत : सचिन-जिगर