Saturday, April 30, 2011

शोर इन द सिटी

फिल्म समीक्षा

तपती हुई सड़क पर: शोर

धीरेन्द्र अस्थाना

एकता कपूर की कम्पनी से निकली नयी फिल्म ‘शोर इन द सिटी‘ आधुनिक ताने-बाने में बनी एक यथार्थवादी फिल्म है। सपनों की महानगरी मुंबई में जिंदगी की तपती हुई सड़क पर अपने-अपने दम पर अपने-अपने तरीके से संघर्ष कर रहे कुछ युवाओं की जद्दोजहद को फिल्म बेहद सधे हुए ढंग से व्यक्त करती है। फिल्म में तीन कहानियां समानांतर चलती हैं और अच्छी बात यह है कि तीनों ही अपनी परिणति को प्राप्त होती हैं। पूरी फिल्म में कुछ भी छूट गया सा या आधा अधूरा नहीं लगता। हम जिस मध्यवर्गीय समाज में अपने कुछ सपनों और अरमानों के साथ जीते रह कर लड़ते-टूटते रहते हैं इसकी प्रभावशाली तथा मार्मिक प्रस्तुति बन गयी है यह फिल्म। बड़े पर्दे पर छोटी मगर सशक्त कविता जैसा मंचन। करोड़ों रुपये फूंककर, मेन स्ट्रीम सिनेमा के नाम पर, घटिया फिल्में बनाने वाले इस फिल्म से काफी कुछ सीख सकते हैं। कथा-पटकथा-गीत-संगीत सिनेमेटोग्राफी-संपादन और सबसे अंत में अभिनय तथा निर्देशन हर मोर्चे पर ‘शोर इन द सिटी‘ एक नायाब अनुभव बन कर उभरती है। अब तक तुषार कपूर की कॉमेडी पसंद करने वाले उसे एक नये, थोड़ा हटकर रूप में देखेंगे और तुषार का यह रूप ज्यादा जीवंत, ज्यादा मौलिक, ज्यादा सहज और ज्यादा आकर्षक लगता है। फिल्म के सभी कलाकारों- तुषार कपूर, प्रीति देसाई, सेंढिल राममूर्ति, पिताबोश, निखिल द्विवेदी, संदीप किशन और राधिका आप्टे ने जमकर मेहनत की है और अपने संघर्षशील किरदारों में जान डाल दी है। छोटी-छोटी उपकथाएं मूल कहानी को गति भी देती हैं और समाज के विभिन्न क्षेत्रों में फैले अनाचार को भी रेखांकित करती हैं। पूरी फिल्म अपनी मूल प्रकृति में गंभीर है लेकिन कॉमेडी का शालीन इस्तेमाल फिल्म को हल्का फुल्का भी बनाये रखता है। निर्देशन और सिनेमेटोग्राफी का सबसे बड़ा कमाल यह है कि हम अपनी देखी हुई मुंबई को नये सिरे से, नये अनुभव के साथ पकड़ पाते हैं। युवाओं पर केंद्रित फिल्म है। इसलिए इसे बनाने का अंदाज और इसका गीत-संगीत पूरी तरह युवापन लिए हुए है। प्यार, बेरोजगारी, चोरी-चकारी, क्रिकेट, लोकल की भीड़, हफ्ता वसूली, मारामारी, दो नंबर का धंधा, तीज त्योहार, झोपड़पट्टी, पांच सितारा पार्टियां, बियरबार, पुलिस इतने बड़े कथ्य का कैनवास लेकर चलने वाली इस फिल्म को अनिवार्यतः देखा जाना चाहिए। भले ही इसे समझने के लिए दिमाग पर कुछ अतिरिक्त जोर क्यों न डालना पड़े।

प्रोड्यूसर: एकता कपूर, शोभा कपूर
निर्देशक: राज निदिमोरू, कृष्णा डीके
कलाकार: तुषार कपूर, प्रीति देसाई, सेंढिल राममूर्ति, पिताबोश, निखिल द्विवेदी, राधिका आप्टे
गीत: समीर, प्रिया पांचाल
संगीत: सचिन, जिगर, हरप्रीत

Saturday, April 23, 2011

दम मारो दम

फिल्म समीक्षा

बेहतर से थोड़ा कम: दम मारो दम

धीरेन्द्र अस्थाना

आज कल एक फिल्म के भीतर तीन चार कहानियां कहने का जो चलन है उसी की एक मिसाल ‘दम मारो दम‘ भी है। साल में तीन सौ पैंसठ दिन छुट्टी पर रहने वाले गोवा के ड्रग माफिया पर आधारित रोहन सिप्पी की यह फिल्म स्टाइलिश तो है, लेकिन अंत तक आते-आते कहानी के स्तर पर बिखर जाती है। फिल्म के अंत में अभिषेक बच्चन का मर्डर दिखाने की जरा भी जरूरत नहीं थी। अभिषेक का मरना फिल्म के उद्देश्य और संदेश को कमजोर करता है। ड्रग माफिया के लौह शिकंजे को ध्वस्त कर देने वाले एक जांबाज पुलिस ऑफिसर की मौत बुराई पर अच्छाई की विजय वाले फंडे को शिथिल कर देती है। पूरी तरह कमर्शियल फिल्म है और अभिषेक बच्चन समेत सभी कलाकारों ने अपना बेहतर देने का प्रयत्न भी किया है, लेकिन कहानी में कोई नयापन न होने के कारण बांध नहीं पाती। वरिष्ठ अदाकार देव आनंद की फिल्म ‘हरे रामा हरे कृष्णा‘ के अमर गाने ‘दम मारो दम‘ का रीमिक्स प्रभावित नहीं करता। हां उसकी फिल्मिंग बेहद उम्दा और प्रभावशाली बन पड़ी है। इस गाने पर दीपिका पादुकोन का डांस मदमस्त है। ड्रग माफिया की कहानी पर दर्शक बीसियों फिल्में देख चुके हैं। कथ्य के स्तर पर कोई नया आयाम या अर्थ देकर फिल्म को नया अंदाज दिया जाता तो कुछ कमाल हो सकता था। अपनी ऊंची-ऊंची महत्वाकांक्षाओं के कारण अपने हंसते खेलते जीवन को नर्क बना लेने वाली युवती के रोल को बिपाशा बसु ने तार्किक और संवेदनशील परिणति दी है। टीन एज युवा को ड्रग सौदागरों द्वारा कैसे फंसा लिया जाता है, इस मार्मिक कथा को प्रतीक बब्बर ने अपने निर्दोष अभिनय से अच्छी अभिव्यक्ति दी है। युवा संगीतकार के रोल में साउथ के सितारे राणा दग्गू बत्ती भी जंचते हैं। अभिषेक बच्चन का अभिनय तो फिल्म की जान है ही। गोविन्द नामदेव ने अभिनय का सहज पाठ पेश किया है। गीत-संगीत फिल्म का एक मजबूत पक्ष है। फोटोग्राफी लाइव तथा आकर्षक है। संवादों में दम है। ‘दम मारो दम‘ में कुछ बेदम है तो वह है पटकथा। प्रतीक, राणा, बिपाशा, अभिषेक सबकी अलग अलग कहानियां मिलकर कोई एक केंद्रीय विमर्श नहीं बन सकीं। बन जातीं तो यह कोई अलग और बेहतरीन फिल्म होती। कुल मिलाकर देखने लायक फिल्म तो है ही। अपने ट्रीटमेंट में एक ‘युवापन‘ लिए हुए है। रमेश सिप्पी के कैंप से निकली है इसलिए ‘भव्य‘ तो है ही।

निर्देशक: रोहन सिप्पी
कलाकार: अभिषेक बच्चन, बिपाशा बसु, राणा दग्गू बत्ती, प्रतीक बब्बर, गोविन्द नामदेव
संगीत: प्रीतम चक्रवर्ती
गीत: जयदीप साहनी

Saturday, April 16, 2011

तीन थे भाई

फिल्म समीक्षा

गहरी है खाई: तीन थे भाई

धीरेन्द्र अस्थाना

यह अंदाजा नहीं था कि जिन लोगों पर हम भरोसा करते हैं वे लोग भी हमे गच्चा दे सकते हैं। फिल्म पर बतौर प्रोड्यूसर राकेश ओमप्रकाश मेहरा का नाम था इसलिए सोचा कि यकीनन लीक से हटकर बनी होगी। फिल्म के शुरुआती आधे घंटे तक लगता रहा कि कहीं यह फिल्म बच्चों के लिए तो नहीं बनायी गयी है, लेकिन बाद में समझ आया कि यह तो निहायत बचकानी फिल्म है। कॉमेडी के नाम पर ‘हास्य व्यंग्य‘ जैसी ताकतवर विधा का कचरा कर दिया है लेखकों ने। ‘तीन थे भाई‘ के तीन पक्ष हैं। पहला कथा पक्ष जो निहायत ही लचर और बेसिर-पैर है, दूसरा अभिनय पक्ष जो दुखद है। तीसरा गीत संगीत पक्ष जो थोड़ा बहुत सुकून देता है। लीक से हटकर फिल्म बनाने के चक्कर में निर्देशक फिल्म की पूरी कास्ट के साथ एक गहरी खाई में जा गिरा है। मूल कहानी से छिटककर जब तीनों भाई क्रमशः अपने अतीत में जाते हैं उस समय के कुछ टुकड़े संवेदनशील और जीवंत लगते हैं, लेकिन दिक्कत यह है कि दर्शक किसी फिल्म को टुकड़ों में नहीं समग्रता में देखने जाते हैं। कुल मिलाकर ‘तीन थे भाई‘ एक असफल फिल्म है जो खराब फिल्म के अच्छे उदाहरण के रूप में याद की जाएगी। ओम पुरी, श्रेयस तलपदे और दीपक डोबरियाल तीन सगे भाई हैं जिनमें आपस में जरा भी नहीं बनती। असल में तो तीनों एक दूसरे को नफरत की हद तक नापसंद करते हैं। तीनों अपने दादा की मनमानी और सख्ती के चलते गांव से पलायन करते हैं और शहर में एक निम्न मध्य वर्गीय जीवन उच्च वर्गीय सपनों के साथ बिता रहे होते हैं। तभी उन्हें पता चलता है कि हिमाचल प्रदेश के एक कस्बे में उनके दादा ने एक प्रोपर्टी छोड़ी है जिसके वारिस वे तीनों हैं। पर एक कठोर शर्त है कि तीनों को प्रत्येक वर्ष उस पहाड़ी पर पहुंचकर एक रात बितानी पड़ेगी। शर्त पूरी होने पर प्रोपर्टी बेच कर जो पैसा मिलेगा वो तीनों में बंट जाएगा। इस कहानी को अगर थोड़ी संजीदगी से फिल्मा दिया जाता तो एक ठीक-ठाक फिल्म बन सकती थी। लेकिन फिल्म में कॉमेडी का पूरा ढाई सौ ग्राम का पैकेट उंड़ेल कर फिल्म को कड़वा बना दिया गया है। नये अभिनेता दीपक डोबरियाल ने एक बार फिर अच्छा काम किया है। ओम पुरी पर दर्शकों को अभिमान है। उन्हें कैसी भी फिल्म साइन करके दर्शकों को दुख नहीं देना चाहिए।

निर्देशक: मृगदीप सिंह लांबा
कलाकार: ओम पुरी, श्रेयस तलपदे, दीपक डोबरियाल, रागिनी खन्ना, योगराज सिंह
गीत: गुलजार
संगीत: दलेर मेहंदी, रणजीत बारोट आदि

Saturday, April 9, 2011

थैंक यू

फिल्म समीक्षा

बेवफाई के साइड इफेक्ट: थैंक यू

धीरेन्द्र अस्थाना


इस बार निर्देशक अनीस बज्मी ने अपने कॉमेडी के ताने-बाने को थोड़ा सा भावनात्मक स्पर्श देने की कोशिश की है। असल में मुख्य धारा सिनेमा के ज्यादातर निर्देशक कॉमेडी में ही अपनी मुक्ति ढूंढ़ते हैं। वह भी ‘मांइडलेस कॉमेडी‘ में। लेकिन बिना कहानी वाला सिचुएशनल हास्य कितना गढ़ा जाएगा सो नया कुछ करने के नुस्खे तलाशे जाते हैं। ‘थैक्यू‘ का नुस्खा है हंसी-मजाक में भावना का तड़का। निर्देशक ने फिल्म में एक मोटी सी कहानी भी रखी है। वह कहानी है तीन दोस्तों द्वारा अपनी-अपनी पत्नी को धोखे में रखकर नयी-नयी लड़कियों से फ्लर्ट करने की। एक लाइन में कहें तो इस बार अनीस बज्मी ने प्यार के नहीं बेवफाई के साइड इफेक्ट दिखाने का प्रयास किया है। अक्षय कुमार फिल्म के प्रमुख हीरो हैं, लेकिन इरफान खान अपने अभिनय और संवाद अदायगी के चलते सब पर भारी पड़े हैं। इरफान गजब के एक्टर हैं। उन्हें परकाया प्रवेश में महारत हासिल है। वह करेक्टर के भीतर सहजता से घुस जाते हैं और इरफान खान भी बने रहते हैं। सिनेमा में जो नयी पीढ़ी सक्रिय है उससे तुरंत पहले वाले बैच के इरफान खान एक्टिंग के स्कूल बनते जा रहे हैं। इरफान, बॉबी और सुनील शेट्टी तीन दोस्त हैं, जो गाहे बगाहे अपनी पत्नियों से छुपकर दूसरी लड़कियों से इश्क का छीन झपट्टा करते रहते हैं। जब जब वह एक्सपोज होने वाले होते हैं, एक -दूसरे की मदद से खुद को बचा ले जाते हैं। अक्षय कुमार एक प्राइवेट जासूस हैं, जो पतियों की बेवफाई की पोल खोलने का धंधा करते हैं। सोनम कपूर बॉबी देओल की पत्नी हैं जो बॉबी का पर्दाफाश करने के लिए सेलीना जेटली की सलाह पर अक्षय कुमार की मदद लेती हैं। पोल खोलने के इस क्रम में प्यार के घात-प्रतिघात, दोस्ती की ‘थीसिस-एंटी थीसिस‘ और बेवफाई के साइड इफेक्ट भी रेखांकित होते चलते हैं। बीच में एक विदूषक किस्म का डॉन भी आता है। बॉबी सोनम को डाइवोर्स दे देता है। लेकिन अक्षय कुमार दोनों की फिर से शादी करवा देता है। अंत में पता चलता है कि टूटे हुए दिलों को जोड़ने का काम करने वाला अक्षय अपने दिलफेंक स्वभाव के चलते अपनी बहुत प्यारी पत्नी को खो चुका है। पत्नी की मेहमान भूमिका में विद्या बालन हैं। फिर एक छोटा सा भाषण है कि लोगों को अपनी अपनी पत्नियों को क्यों एक निश्छल प्यार करना चाहिए। यही इस फिल्म का संदेश भी माना जा सकता है। फिल्म के तीन गाने अच्छे हैं जिनमे से ‘रजिया फंस गयी..‘ पहले ही हिट हो चुका है। टाइम पास फिल्म है। एक ऊबी हुई दोपहर से बचने के लिए थियेटर जा सकते हैं।
निर्देशक: अनीस बज्मी
कलाकार: अक्षय कुमार, बॉबी देओल, इरफान खान, सुनील शेट्टी, सोनम कपूर, सेलीना जेटली, रिमी सेन, विद्या बालन, मल्लिका शेरावत
संगीत: प्रीतम चक्रवर्ती