Tuesday, April 29, 2014

रिवॉल्वर रानी

फिल्म समीक्षा

शानदार जानदार रिवॉल्वर रानी 

धीरेन्द्र अस्थाना

यह सोचते हुए फिल्म देखने गया था कि कंगना रनौत ने इस तरह की फिल्म क्यों की होगी? आज के समय में डाकुओं पर बनी फिल्म में क्या और कितना करने को होगा जबकि इस विषय पर हम ‘शोले‘ जैसी नायाब फिल्म देख चुके हैं। हाल फिलहाल ही ‘क्वीन‘ में कंगना अपने अभिनय का जलवा दिखा चुकी हैं फिर यह सी ग्रेड टाइप फिल्म क्या सोच कर साइन की होगी? लेकिन ‘रिवॉल्वर रानी‘ में तो कंगना ने करिश्मा ही कर दिया। मूलतः पूरी फिल्म कंगना की ही है लेकिन तीन अन्य कलाकारों जाकिर हुसैन, पीयूष मिश्रा और वीर दास के होने से फिल्म को एक गति और कुछ नये आयाम तथा विस्तार मिल गये हैं। इंटरवल तक फिल्म में गति, एक्शन और कंगना की ढांय ढांय है लेकिन इंटरवल के बाद कहानी इमोशनल ट्रैक पर पहुंच जाती है। डकैत कंगना के अपने कुछ भावनात्मक उसूल हैं जिनमें वह वह किसी को भी सेंध नहीं लगाने देती। अपने मामा पीयूष मिश्रा को भी नहीं जो उसकी मां भी हैं और पिता भी। डकैत कंगना के जीवन की पटकथा लिखने वाले उसके मामा पीयूष मिश्रा ही हैं। दूसरा है वीर दास जिसने बदसूरत, बदजबान और बीहड़ कंगना के भीतर खोजा है एक सुंदर, विनम्र और कोमल स्त्री को, जिसे वह प्यार करने लगा है। कंगना जैसी खूंखार डकैत इस प्यार के सामने समर्पण कर देती है और वीर दास उसके जीवन में बतौर प्रेमी उपस्थित हो जाता है। मगर कंगना प्रेम भी काफी आक्रामक ढंग से और अपनी ही शर्तों पर करती है। कंगना के जीवन का तीसरा कोण है भानु भइया यानी जाकिर हुसैन। यह कंगना का राजनैतिक प्रतिद्वंद्वी है। कंगना राजनीति में भी शामिल है। वह पांच साल तक क्षेत्र की विधायक रहने के बाद नये चुनाव में भानु भइया से हार गयी है। अपने राजनैतिक रूप से बलशाली समय में वह भानु भइया के बड़े भाई को मरवा चुकी है। इस बात को भानु भइया का गुस्सैल परिवार पचा नहीं पा रहा है और उसके अंत के षड्यंत्र रचता रहता है। इंटरवल के बाद कहानी नया मोड़ लेती है। कंगना गर्भवती है जबकि वह बांझ औरत के रूप में प्रचारित थी। यह बच्चा वीर दास का है क्योंकि मूल पति को तो कंगना बहुत पहले मार चुकी थी, उसी बेवफाई के चलते। खोट पति में ही था मगर बांझ के रूप में प्रचारित हुई कंगना। अब उसे मां बन कर इस झूठ को रद्द करना है। यही नहीं अब उसे ‘हाउस वाइफ‘ बन कर बाकी का जीवन जीना है। मामा और पति को यह मंजूर नहीं क्योंकि पति (वीर दास) को तो बॉलीवुड का एक्टर बनना है और मामा को दबंग राजनेता। मामा दुश्मन कैंप से मिल जाता है और कंगना को मरवाने की इजाजत दे देता है। वीर दास इमोशनल ब्लैकमेल कर दस करोड़ रूपये के साथ कंगना के साथ इटली के लिए निकल पड़ता है। रात बिताने के लिए जिस गेस्ट हाउस में दोनों रुकते हैं वहां दुश्मन का सशस्त्र हमला हो जाता है। हमले में कंगना घायल होती है लेकिन वह पूरी दुश्मन फौज को खदेड़ देती है। फिर वह वीर दास से कहती है - चलो। मगर वीर दास कंगना को तीन गोली मार रुपयों से भरा ब्रीफकेस ले भाग जाता है। दरअसल सबके सब कंगना का इस्तेमाल कर रहे थे। फिल्म इस ‘नोट‘ पर खत्म होती है कि घायल कंगना को बागी कैंप के लोग उठा ले जाते हैं। वहां कंगना की एक आंख खुल जाती है और फिल्म समाप्त हो जाती है। यह अंत फिल्म के सीक्वेल बनने का भी संकेत है। दिलचस्प फिल्म है। देखी जा सकती है। गीत-संगीत लीक से हट कर है। 
निर्देशक - साईं कबीर
कलाकार - कंगना रनौत, वीर दास, पीयूष मिश्रा, जाकिर हुसैन
संगीत - संजीव श्रीवास्तव

Tuesday, April 22, 2014

टू स्टेट्स

फिल्म समीक्षा

खूबसूरत और संवेदनशील ‘टू स्टेट्स‘ 

धीरेन्द्र अस्थाना

पहले ‘हाइवे और अब ‘टू स्टेट्स‘। आलिया भट्ट की गाड़ी तो निकल पड़ी। महेश भट्ट की बेटा का हाव भाव बड़ा स्टाइलिश और मनभावन है। सबसे हटकर एकदम मौलिक। दो फिल्मों में अलग अलग किरदार सहज, जीवंत और असरदार तरीके से निभा कर आलिया ने खुद को साबित कर दिया है। अर्जुन कपूर भी सहज और संवेदनशील अभिनय करते नजर आए हैं। फिल्म का विषय नया नहीं है लेकिन जिस अंदाज में उसे साधा गया है वह आकर्षित करता है। दो जवान दिलों की मोहब्बत और फिर आपस में विवाह - यह स्थिति दोनों के माता-पिता को बर्दाश्त नहीं है। इस विषय को अलग अलग कोण और अलग अलग उप कथाओं के जरिए कई फिल्मों में दिखाया गया है। इस फिल्म को सुखांत मोड़ लड़के के पिता के हस्तक्षेप से दिलवाया गया है। फिल्म में प्रेम के द्वंद्व से ज्यादा मर्मस्पर्शी पिता-पुत्र के बीच पसरा तनाव और क्रोध है जो पिघलता है तो जिंदगी के समीकरण सुलझने लगते हैं। अर्जुन कपूर के पिता के रूप में रोनित रॉय और मां के रोल में अमृता सिंह ने अच्छा और दिलचस्प काम किया है। एक गुस्सैल, बेकार और कुंठित पति व पिता के किरदार में रोनित रॉय ने यादगार जान डाल दी है। पिता-पुत्र में संवाद तक नहीं है। लेकिन यही पिता बिन बताए लड़की के मां-बाप से मिलने चेन्नई चले जाते हैं और अपनी पत्नी के खराब बर्ताव के लिए माफी मांग कर लड़की के मां-बाप का दिल जीत लेते हैं। पिता के इस आचरण से अर्जुन स्तब्ध रह जाता है। वह तो अपने पिता से नफरत करता था। तो फिर यह उसके पिता ने क्या किया? जवाब भी पिता देता है - ‘मैं बुढ़ापे में अपने बेटे को खोना नहीं चाहता था।‘ संवाद सुनते और दृश्य देखते हुए दिल में हाहाकार जैसा तो कुछ होता है। आलिया तमिल लड़की है। अर्जुन पंजाबी मुंडा है। दोनों अहमदाबाद के आईआईएम इंस्टीट्यूट में टकराते हैं। दोनों में दोस्ती होती है फिर दोनों बड़े आराम से सेक्स भी कर लेते हैं। अब दोनों को शादी करनी है क्योंकि इंस्टीट्यूट से निकल कर दोनों नौकरी पा चुके हैं। लेकिन दोनों के ही परिवारों को यह रिश्ता मंजूर नहीं है। दोनों पक्ष अपने अपने कल्चर और कम्युनिटी की दुहाई देते हैं। अर्जुन और आलिया अपने परिवारों को कई बार मिलाने का प्रयास करते हैं लेकिन इस बार मामला उलझ जाता है। आखिर तंग आकर आलिया इस रिश्ते से हटने की घोषणा करती है। अर्जुन भीतर ही भीतर टूट जाता है। उसकी टूटन को उसका पिता ‘फील‘ करता है और अगले दिन बिना किसी को बताए आलिया के मां-बाप के घर के लिए निकल पड़ता है। अर्जुन के पिता के इस हस्तक्षेप के बाद राहें आसान हो जाती हैं। दोनों का परिवार की सहमति से विवाह हो जाता है। यही वे दोनों चाहते भी थे। फिल्म का संदेश यह है कि जब मां-बाप अपने हिस्से का जीवन अपनी मर्जी से जी चुके हैं तो फिर अपनी संतानों की राह को कठिन क्यों करना चाहते हैं? अच्छी फिल्म है। देख लेनी चाहिए। गीत संगीत में भी जान है। 
निर्देशक: अभिषेक वर्मन
कलाकार: अर्जुन कपूर, आलिया भट्ट, रोनित राय, अमृता सिंह, रेवती
संगीत: शंकर-अहसान-लॉय

Tuesday, April 15, 2014

भूतनाथ रिटर्न

फिल्म समीक्षा


भूतनाथ रिटर्न: आधा ज्ञान आधा मनोरंजन 

धीरेन्द्र अस्थाना

बिग बी का नया करिश्मा है भूतनाथ रिटर्न। निर्देशक नीतेश तिवारी ने भूतों पर बनीं या बन रही फिल्मों को एक नया ही आयाम दे दिया है। यह डराने वाले भूत की फिल्म नहीं है। यह एक अच्छे भूत की कहानी है जिसे पृथ्वी पर दोबारा भेजा जाता है ताकि वह कुछ बच्चों को डराने के अपने काम को अंजाम दे सके और फिर से मनुष्य जन्म पाने की अपनी इच्छा की प्रतीक्षा को थोड़ा छोटा कर सके। यह भूतनाथ ही अमिताभ बच्चन बने हैं जिनका धरती पर अखरोट नामक बच्चे से सामना होता है। अखरोट का किरदार पार्थ भालेराव नामक किरदार ने निभाया है। फिल्म का केंद्रीय किरदार भले ही बिग बी हैं लेकिन पार्थ ने अपने करिश्माई अभिनय से चौंका दिया है। इस लड़के को भविष्य का परेश रावल कहा जा सकता है। भविष्य की स्मिता पाटील भी इस फिल्म में है और वह पार्थ की मां बनी उषा जाधव। बोमन ईरानी भी इस फिल्म की यूएसपी हैं लेकिन विलन के रूप में। वह एक बाहुबली राजनेेेेता के किरदार में हैं। पार्थ का पिता गुजर चुका है। मां बेटा बहुत गरीब हैं लेकिन पार्थ को इमानदारी से जीविका कमानी है। पार्थ भूतनाथ को एक आइडिया देता है। शहर में कुछ रिहायशी ईमारतें हैं जो आधी बनने के बाद बंद पड़ गयी हैं। उन ईमारतों में भूत का निवास है । इन अधबनी ईमारतों के कारण बिल्डर करोड़ों की चपेट में हैं। अगर भूतनाथ इन ईमारतों को भूत से छुडवा दे ंतो बिल्डर खुश हो कर पार्थ को लाखों रूपये दे सकते हैं। आइडिये में जान है। भूतनाथ तीन बिल्डिंगों को भूत मुक्त करवा देते हैं और पार्थ की जिदंगी चमकने लगती है। यह इंटरवल तक की कहानी है जो बहुत ही रोचक ढंग से दर्शकों का मनोरंजन करती है। लेकिन पता नहीं क्यों इंटरवल के बाद यह फिल्म लोगों को वोट डालने के लिए जागरूक करने वाली विज्ञापन फिल्म में बदल जाती है। हालांकि यह मंशा गलत नहीं है। चुनाव के दिनों में ही इस फिल्म को रिलीज भी किया गया है इसलिए ऐसा लगता है कि कहीं यह प्रायोजित फिल्म तो नहीं है। चुनाव में वोट की अहमियत के प्रति जनता को सचेत करने वाली यह इंटरवल के बाद की फिल्म लंबे लंबे भाषणों के कारण कहीं कहीं झुंझलाहट भी पैदा करने लग जाती है। बोमन ईरानी के खिलाफ भूतनाथ चुनाव लड़ जाते हैं क्योंकि किसी रूल बुक में नहीं लिखा कि मरा हुआ आदमी चुनाव नहीं लड़ सकता। एक भूत का चुनाव लड़ना नयी परिकल्पना है लेकिन इस परिकल्पना से जुड़ी अनेक उपकथाएं बोझिल हो गयी हैं। यह देखना भी मजेदार लगता है कि भूत वर्ल्ड में भी दुनिया की ही तरह दुनियावी कार्य व्यापार चलता है।  फिल्म का चुनाव से संबंधित गीत ताली तो बनती है सुपर हिट और दिलचस्प है। फिल्म की लोकेशन मुंबई की धारावी है जो अपने आप में एक फिल्म है।

निर्देशकः नितेश तिवारी
कलाकारः अमिताभ बच्चन, बोमन ईरानी, पार्थ भालेराव, उषा जाधव

संगीतः मीत ब्रदर्स , अंजान, राम संपत

Saturday, April 12, 2014

मैं तेरा हीरो


फिल्म समीक्षा


पैसा वसूल मैं तेरा हीरो

धीरेन्द्र अस्थाना

यह डेविड धवन की फिल्म है। इससे आप यह उम्मीद तो नहीं ही कर सकते कि यह किसी सामाजिक बदलाव की बात करेगी। यह कोई संदेश भी नहीं देती है। संदेश देने को डेविड धवन फिल्म का मकसद नहीं मानते। वह केवल मनोरंजन में यकीन रखते हैं। इसीलिए उनकी यह फिल्म पूरी तरह मनोरंजक और पैसा वसूल फिल्म है। फिल्म का आरंभ तो थोड़ी गंभीरता से होता है लेकिन इंटरवल के बाद वह सौ फीसदी कॉमेडी में बदल जाती है। फिल्म के नायक, खलनायक, नायिकाएं और सहायक सब के सब कॉमेडी के अवतार में दाखिल हो जाते हैं। फिल्म की कहानी एक प्रेम त्रिकोण है लेकिन इस बार एक लड़का दो लड़कियों में इनवॉल्व नहीं है। दो लड़कियां एक लडके पर मर मिटी हैं। लड़का है वरूण धवन और लड़कियां हैं इलियाना डिक्रूज तथा नरगिस फाखरी। वरूण बंगलूर के एक कॉलेज में पढ़ने आता है। आते ही वह इलियाना से टकरा जाता है और उसे दिल दे बैठता है। इलियाना से अरूणोदय सिंह को प्यार है। वह एक गुंडा किस्म का पुलिस वाला है। उसके आतंक के कारण पूरा कॉलेज इलियाना को भाभी कह कर बुलाता है। वरूण इस आतंक में सेंध लगाता है और इलियाना में भी हिम्मत भरता है। वह अरूणोदय के गुंडों को भी धूल चटाता है। अरूणोदय द्वारा किया गया एक शूट केस वह मीडिया को बुला कर एक्सपोज करवा देता है। अरूणोदय सस्पेंड हो जाता है और इसी बीच इलियाना को किडनैप कर लिया जाता है। अरूणोदय के जरिए वरूण को पता चलता है कि इलियाना का अपहरण अनुपम खेर ने करवाया है जो थाईलैंड का खतरनाक माफिया है। अपहरण की वजह यह है कि अनुपम की बेटी नरगिस वरूण को दिल दे बैठी है। अब अनुपम को बेटी की शादी वरूण से करानी है। यहां इंटरवल होता है और फिल्म डेविड धवन स्टाइल में कॉमेडी की पटरी पर उतर जाती है। अब सारे पात्र विदूषक हैं। उनका एक मात्र मकसद दर्शकों को हंसाना है। अब सारे पात्र किसी न किसी घटना के चलते अनुपम खेर के महल में हैं। फिल्म में फन है, मस्ती है, नाच गाना है, मारामारी है और इस कदर हास्य है कि दर्शक रह रह कर हंसते रहते हैं। फिल्म के ज्यादातर गाने पहले ही हिट हो चुके हैं।  प्रसिद्ध निर्माता निर्देशकों के नयी जेनरेशन के ज्यादातर बेटे बतौर हीरो फ्लॉप हो चुके हैं। लेकिन डेविड धवन के बेटे वरूण लगता है कि अपना एक मुकाम बना लेंगे। वरूण ने अच्छा काम किया है और दर्शकों को प्रभावित करने में सफल रहे हैं। इलियाना ने वरूण का अच्छा साथ दिया है। वरूण के साथ इलियाना की केमेस्ट्री जमती है। लेकिन नरगिस नेचुरल ऐक्टिंग कर पाने में असफल रही हैैं। राजपाल यादव एक सूत्रधार की तरह पूरी फिल्म को साधे रखने में कामयाब हुए हैं। एक नाटकीय घटनाक्रम के बाद फिल्म में वरूण-इलियाना और अरूणोदय-नरगिस का मिलन हो जाता है। फिल्म एक सुखद मोड़ पर पहुंच कर समाप्त हो जाती है। अनुपम खेर की एंट्री इंटरवल के बाद होती है और उसके बाद तो वह पूरी फिल्म में छाए रहते हैं। दिमाग घर पर रख कर जाइये और फिल्म का मजा लीजिए। 


निर्देशकः डेविड धवन
कलाकारः वरूण धवन,इलियाना,नरगिस,अनुपम खेर,अरूणोदय सिंह, राजपाल यादव, सौरभ शुक्ला।
संगीतः साजिद-वाजिद 


ओ तेरी

फिल्म समीक्षा

हत्तेरे की  ओ तेरी 

धीरेन्द्र अस्थाना

एक गंभीर विषय को कॉमेडी का चोला पहना कर किस तरह नष्ट किया जा सकता है यह जानने के लिए ओ तेरी देखिए। यह जानने के लिए भी ओ तेरी देखी जा सकती है कि सलमान खान जैसे पॉपुलर और सुपर स्टार को कितने अपरिपक्व ढंग से इस्तेमाल किया गया है। जब फिल्म खत्म होने के बाद दर्शक ( गिनती के आठ दस) हॉल छोड़ रहे थे तब सलमान का कैम्यो डांस पर्दे पर आया। एक तरह से सलमान को पूरी तरह से वेस्ट ही कर दिया गया। यूं तो पूरी फिल्म ही वेस्ट कर दी गयी है क्योंकि निर्देशक फिल्म के विषय को साध ही नहीं पाया । सत्ता और मिडीया की सांठ गांठ जैसे गंभीर और सार्थक विषय को कुशलता और संवेदनशीलता के साथ निर्देशित किया जाता तो फिल्म कहीं की कहीं जा सकती थी । लेकिन निर्देशक शायद कन्फ्यूज था कि फिल्म को हैंडल कैसे करे? राजनैतिक षड्यंत्रों का पर्दाफाश हास्य का मुखौटा लगा कर थोड़े ही किया जाता है। एक तरफ आप दिखाना यह चाहते हैं कि जिस मिडिया पर लोग आंख बंद कर भरोसा करते हैं वह अगर सत्ता के हाथों बिक जाए तो कैसा विनाश हो सकता है। दूसरी तरफ आप पत्रकारों को विदूषक बना कर पेश कर देते हैं।ं फिल्म के दोनों हीरो पुलकित सम्राट और बिलाल अमरोही स्ट्रगलर टीवी पत्रकार हैं और बार बार असफल होने के बावजूद ऐसी किसी स्टोरी की तलाश में हैं जा उन्हें रातों रात स्टार बना दें। इस तलाश में उनका सामना सत्ता पक्ष के नेता अनुपम खेर, विपक्ष के नेता विजय राज, मीडिया क्वीन सारा जेन डायस और कुछ भ्रष्ट ठेकेदारों की टीम से होता है। ये सब लोग अपने स्वार्थों के कारण एकजुट हैं और देश की जनता के मेहनत के पैसों की डकैती कर रहे हैं। दोनो हीरो हर षडयंत्र का स्टिंग ऑपरेशन करते हैं मगर पता नहीं कैसे हर बार उनके टेप गायब करा दिये जाते हैं। अंत में ये सब भ्रष्टाचारी मिल कर इन दोनों को मार डालने पर उतारू हो जाते हैं। लेकिन मोबाइल फोन और घटनास्थल के बाहर खड़ी ओबी वैन के जरिए भ्रष्ट गठजोड की धमकियों और घातक स्वीकारोक्तियों का लाइव प्रसारण पूरे देश में दिखाई देने लगता है और इसे देख पुलिस घटना स्थल को घेर लेती है। सारे षड्यंत्रकारी गिरफ्तार कर लिए जाते है। दोनों हीरो प्रसिद्ध हो जाते हैं जो उनकी ख्वाहिश थी। फिल्म में कुछ अच्छे डांस हैं जिनकी सिचुवेशन गलत है। जो लोग हर विषय और घटना में कॉमेडी खोजने के शौकीन हैं उन्हें यह फिल्म पसंद आ सकती है। बहुत लंबे समय के बाद ग्लैमरस रूप में मंदिरा बेदी को देखना अच्छा लगा। 


निर्देशकः उमेश बिष्ट
कलाकारः पुलकित सम्राट, बिलाल अमरोही, सारा जेन डायस, अनुपम खेर, मंदिरा बेदी,विजय राज
संगीतः हार्ड कौर, जीजे सिंह

’बेकार ’’ साधारण ’’’ अच्छी ’’’’ बहुत अच्छी ’’’’’ अद्वितीय

रागिनी एमएमएस-2

फिल्म समीक्षा

रागिनी एमएमएस-2

इस डर को देख रोना आया

धीरेन्द्र अस्थाना

जब मई 2011 में एकता कपूर की रागिनी एमएमएस आई थी तो हमने लिखा था कि डर के दूसरे कारोबारियों रामगोपाल वर्मा और विक्रम भट्ट से एकता कपूर आगे निकल गयी हैं। सचमुच रागिनी एमएमएस उत्तर आधुनिक समय में खड़ी एक डरावने एहसास वाली बेहतरीन फिल्म थी जिसमें सेक्स और डर की जुगलबंदी को कुशल हाथों से साधा गया था। उस फिल्म के निर्देशक थे पवन कृपलानी जो डराने में भी कामयाब हुए थे और डर का कारोबार भी सफलता पूर्वक कर सके थे। लेकिन उस फिल्म का यह सीक्वेल एक दुर्घटना जैसा है। फिल्म को बेहद ही अकुशल और अपरिपक्व ढंग से बनाया गया है। पता नहीं एकता कपूर ने ऐसा होने कैसे दिया। वह तो बड़ी चौकन्नी और परफेक्शनिस्ट निर्माता हैं। सोच और तकनीक अब बहुत आगे चली गयी है। अब अचानक बजे तेज संगीत और अपने आप बंद होते खुलते दरवाजों से डर नहीं हास्य पैदा होता है। डर पैदा करने वाली जो घटनाएं फिल्म में घटती हैं उन्हंे देख रोने का मन करता है। उस पर दूसरी टेªजेडी यह कि फिल्म को बेवजह कहीं कहीं कॉमेडी टच देने का प्रयास किया गया है। अपने आप में यह परिकल्पना ही बचकानी है कि सीक्वेल में मूल फिल्म की घटना पर फिल्म बनायी जा रही है। ठीक उसी लोकेशन पर जहां रागिनी एमएमएस फिल्म घटी थी। नयी फिल्म का एक मात्र आकर्षण पूर्व पोर्न स्टार सनी लियोन बन सकती थीं लेकिन उन्हें बुरी तरह नष्ट कर दिया गया है। यहां भी उनकी पोर्न स्टार वाली छवि को ही बार बार रेखांकित किया जाता है।  सनी के भीतर एक सच्चा कलाकार मौजूद है जिसे कोई संजीदा निर्देशक ही तराश सकता है। शूटिंग के दौरान रागिनी के भीतर चुडै़ल सनी के जिस्म में प्रवेश कर जाती है और अब सनी एक चुड़ैल है जिसका मकसद सबको मार डालना है।  साहिल प्रेम फिल्म को हीरो है जो फिल्म के भीतर बनने वाली फिल्म को लेखक भी है। साहिल ने अपने रोल को संजीदा और प्रभावी ढंग से अंजाम दिया है। वही इस तथ्य की खोज करता है कि रागिनी की काया में बैठी चुड़ैल अब सनी के शरीर में उतर चुकी है। फिल्म की यूनिट के लोगों को चुड़ैल से बचाने के लिए वह लगातार सनी का पीछा करता है। और सनी एक एक कर फिल्म के डायरेक्टर प्रवीण डबास, एक्टर करण मेहरा और अभिनेत्री संध्या मृदुल को मार डालती है। इस बीच मशहूर मनोविज्ञानी डॉक्टर दिव्या दत्ता भी शूटिंग लोकेशन पर पहुंच गयी है। वह डॉक्टर है लेकिन उसके पास किसी बाबा का दिया हुआ एक मंत्र है जिसके पाठ से शरीर में बसी बुरी आत्मा को बाहर निकाला जा सकता है। वह मंत्र पढ़ती है और उत्पात मचाती चुड़ैल सनी का जिस्म छोड़ गायब हो जाती है। शायद एकता कपूर बैनर की यह पहली फ्लॉप फिल्म बनेगी जिसने न तो डराया और न ही कारोबार किया।

निर्देशकः भूषण पटेल
कलाकारः सनी लियोन, साहिल प्रेम, दिव्या दत्ता, प्रवीण डबास, करण मेहरा, संध्या मृदुल
संगीतः यो यो हनी सिह, चिरंतन भट्ट, मीत ब्रदर्स

’बेकार ’’ साधारण ’’’ अच्छी ’’’’ बहुत अच्छी ’’’’’ अद्वितीय

बेवकूफियां

फिल्म समीक्षा

बिना बात की बेवकूफियां

धीरेन्द्र अस्थाना

आज से पेैंतीस चालीस साल पहले जो फिल्में बन रही थीं उनमें इस तरह के प्रंश्न नहीं पूछे जाते थे जो अतार्किक हों। मसलन फिल्म का हीरो गरीब और बेरोजगार है तो वह बड़े से बंगले में रह कर महंगे कपड़े कैसे पहनता है? एक धनवान लड़की एक गरीब लड़के से पहले प्यार कर लेती है फिर उसे छोड़ कर किसी अमीर आदमी का दामन क्यूं थाम लेती है। या फिर अमीर लड़की की दुनियां में गरीब लड़के का प्रवेश मुमकिन ही कैसे हुआ? उन दिनों सिनेमा के उलट हिंदी साहित्य में जो कहानियां लिखी जा रहीं थी उनका मुख्य विषय था मोहब्बत में सेंध लगाती आर्थिक असमानता। यानी माया के हाथों मोहब्बत का परास्त हो जाना। समय बदला। यह विषय थोड़े रोमांटिक तरीके से सिनेमा में भी आया। फिर और समय बदला और सिनेमा ज्यादा यथार्थवादी हुआ। उसके सरोकार बदले और वह सामाजिक विषमताओं तथा बदलाव की बातें करने लगा। लेकिन निर्देशिका नुपुर अस्थाना ने नये समय की फिल्म बेवकूफियां में जो विषय उठाया है वह पैंतीस चालीस साल पुराना ही है। बेशक पुराने विषय को उन्होंने नया लुक और नया ट्रीटमेंट दिया है। मगर इस विषय को बड़े पर्दे पर इतनी बार देखा जा चुका है कि फिल्म का आकर्षण जाता रहता है। निर्देशिका ने अगर नयी पीढ़ी की रिलेशनशिप का बारीकी से अध्ययन किया होता तो बेवकूफियां संभवतः अलग किस्म की फिल्म हो जाती। आज के समय में अगर दो लोग एक दूसरे को डूब कर प्यार करते हैं और दोनों ही कामकाजी हैं तो एक की नौकरी जाने पर दोनों के बीच दरार नहीं पड़ जाती है। आज का पुरूष बेरोजगार होने पर बड़ी सहजता से किचन और घर संभाल लेता है। वह अपने ईगो का हवाई जहाज नहीं बना लेता (डायलॉग फिल्म का है)। फिल्म की पटकथा भी पुरानी लगती है। फिल्म में जो समय दिखाया गया है वह तब का है जब पूरी दुनिया में आर्थिक मंदी का कहर आया हुआ था और पूरे विश्व में बड़े पैमाने पर लोगों की नौकरियां जा रही थीं। फिल्म का हीरो आयुष्मान खुराना भी एक एयरवेज कंपनी से निकाला जाता है। जबकि उसकी प्रेमिका सोनम कपूर लगातार तरक्की की सीढ़ियां चढ़ रही है। सोनम उसकी कार की किश्त, क्रेडिट कार्ड के बिल वगैरह सब भर रही है। इसी के साथ बढ़ रहा है आयुष्मान का फ्रस्ट्रेशन । दोनों में तकरार बढ़ती है और बात ब्रेकअप तक पहुंच जाती है। सोनम अपना तबादला दुबई ले लेती है जबकि आयुष्मान थक हार कर एक रेस्त्रंा मे मैनेजर हो जाता है । इस ब्रेकअप को कितनी कुशलता और दिलचस्प अंदाज में सोनम के पापा रिषी कपूर पैचअप में बदलते हैं यह जानने के लिए फिल्म देख लेने में कोई हर्ज नहीं है।  एक ठीक ठाक फिल्म है लेकिन वह आपके ज्ञान या संवेदना में कुछ जोड़ नहीं पाएगी। आयुष्मान, सोनम और रिषी का अभिनय कमाल का है और फिल्म के संवाद भी जानदार हैं। अगर फिल्म की कथा पटकथा थकी हुई न होती तो यह इस वर्ष की एक उल्लेखनीय फिल्म बन सकती थी।

निर्देशकः नुपुर अस्थाना
कलाकारः आयुष्मान खुराना, सोनम कपूर, रिषी कपूर
संगीतः रघु दीक्षित

गुलाब गैंग

फिल्म समीक्षा

सपने को सच करता गुलाब गैंग 

धीरेन्द्र अस्थाना 

गंाव की छोटी बच्ची बर्तन भांडे न मांजे बल्कि स्कूल पढ़ने जाए। पत्नी को सम्मानजनक दर्जा मिले। कोई भी दुष्ट व्यक्ति स्त्री को मारे पीटे नहीं, उसके साथ बलात्कार न करे। राशन पानी पर जनता का हक हो न कि जमाखोरों और लुटेरों का। गांव में बिजली हो, पानी हो, स्कूल हो। कितने छोटे छोटे लेकिन अनिवार्य सपने हैं यह। लेकिन इन सपनों में भी टुच्ची राजनीति सेंध लगा देती है और अपने स्वार्थ की रोटियां सेंकती है। सपने तड़पते रह जाते हैं। तो सपनों को हकीकत में कैसे बदलें वंचित और असहाय लोग। यह भी एक सपना है और इस सपने को सच में तब्दील करने के लिए सामने आता है गुलाब गैंग। सहारा मूवीज स्टूडियोज और अनुभव सिन्हां की इस सेल्यूलाइड कृति से माधुरी दीक्षित और जूही चावला एक नये अवतार में लौटी है बड़े पर्दे पर। फिल्म के निर्देशक-कथाकार-संगीतकार सौमिक सेन ने विश्व महिला दिवस के अवसर पर एक एैसी संदेश परक और सार्थक फिल्म की सौगात दर्शकों को दी है जिसमें पहली बार हीरो भी हीरोइन है और विलेन भी हीरोइन। समाज द्वारा सताई गयी स्त्रियों का एक संगठन खड़ा किया है माधुरी दीक्षित ने। इस संगठन की औरतें गुलाबी साड़ी पहनती हैं इसलिए इस संगठन का नाम पड़ गया है गुलाब गैंग। यह गैग गांव में होने वाल प्रत्येक अत्याचार और अनाचार के विरूद्ध अपनी आवाज उठाता है। जब बात से बात नहीं बनती तो यह गैंग लात जमाता है। इस गैंग की औरतें सिर्फ हैंडमेड साड़ियां और घरेलू मसाले बना कर व्यापार ही नहीं करतीं बल्कि वक्त आने पर लाठियां भी भांजती हैं और हंसिये से भी काटती हैं।माधुरी दीक्षित का नारा भी है-” हंसिये को हथियार बनाऔ।” माधुरी की लोकप्रियता शहर की नेता और सरकार का प्रतिनिधित्व करने वाली जूही चावला तक पहुंचती है। जूही  दोस्ती का पैगाम भेजती है माधुरी को कि हमारे साथ आ जाओ और हमारी पार्टी से चुनाव लड़ो। चुनाव लड़ने को हां कहने वाली माधुरी जूही के अपोजिट चुनाव में उतरती है। और फिर शुरू होता है राजनीति का घिनौना खेल। वोट खरीद लिए जाते हैं। गुलाब गैंग के कार्यकर्ता मार दिए जाते हैैं। जूही चुनाव जीत जाती है। अब वह गैंग को ध्वस्त करने के लिए माधुरी के अड्डे पर पहुंचती है। वहां घमासान होता है। माधुरी जूही का हाथ काट देती है और गिरफ्तार होती है। फिर मुकदमा चलता है और एक विदेशी रिपोर्टर का स्टिंग ऑपरेशन इस बात का सबूत बनता है कि आक्रमण, षड्यंत्र और तस्करी का केंद्र जूही चावला है। जूही को सजा मिलती है। सजा माधुरी को भी मिलती है लेकिन वह जेल में महिला कैदियों को पढ़ाने के काम में लग जाती है। अभिनय के बारे में क्या कहा जाए? दो स्त्री महारथियों का टकराव और रंजिश देखने लायक है। जब कोई खतरनाक घटना घटने को होती है तो जूही टिफिन में से लौंग निकाल कर खाती है और माधुरी पीने के लिए पानी मांगती है। कुछ एडल्ट गालियां दो बड़ी अभिनेत्रियों के मुंह से सुनने का अतिरिक्त आनंद भी दर्शक उठा सकते हैं। टाइम पास नहीं गंभीर फिल्म है। गंभीरता से देखने जाएं।


निर्देशकः सौमिक सेन
कलाकारः माधुरी दीक्षित, जूही चावला, दिव्या जगदाले
संगीतः सौमिक सेन 

शादी के साइड इफेक्ट्स

फिल्म समीक्षा

शादी के साइड इफेक्ट्सः कुछ खट्टे कुछ मीठे ’’’

धीरेन्द्र अस्थाना

फरहान अख्तर अब अपने अकेले के कंधे पर पूरी फिल्म निभा ले जाने में माहिर हो गये हैं। भाग मिल्खा भाग के बाद यह उनकी दूसरी सोलो फिल्म है जो हिट है। अब उनके अपने दर्शक बन रहे हैं। उनके अपोजिट विद्या बालन जैसी बड़ी स्टार है लेकिन पूरी फिल्म में अपने हाव भाव, अपने आचरण, अपने सुख दुख और अपने फ्रस्टेªशन के साथ केवल फरहान अख्तर छाये हुए हैं। विद्या बालन ठीक ठाक ढंग से मोटी हो गयी हैं। हालांकि फिल्म में इस मोटे पन की तार्किक परिस्थिति दर्शायी गयी है मगर लंबे समय तक विद्या बालन जैसी प्रतिभाशाली अभिनेत्री को पर्दे पर केंद्रीय भूमिका में बने रहना है तो अपने बढते वजन पर ध्यान देना ही होगा। फरहान के रुम पार्टनर बने वीर दास कमाल के अभिनेता हैं। उन्होंने आज की पीढ़ी के बेफिक्र और आत्मकेंद्रित युवा के किरदार को प्रातिनिधिक मिसाल बना दिया है। रुमपार्टनर इसलिए क्यों कि रिश्तेदार राम कपूर की सलाह पर फरहान अपना खुद का घर परिवार होने के बावजूद वीरदास के साथ बतौर पेईंग गेस्ट भी रहते हैं। राम कपूर चूंकि पैसे वाले हैं इसलिए वह इस प्रयोग को लग्जरी होटल में रह कर करते हैं। प्रयोग यह कि काम का बहाना बना कर पंद्रह दिन में एक बार तीन दिन के लिए घर से बाहर रहो ताकि पत्नी आपको मिस करे। इस प्रयोग से वैवाहिक जीवन में खटास नहीं आने पाती। लेकिन फरहान अख्तर जब यह प्रयोग करता है तो खाली और एकाकी विद्या बालन किसी शेखर नाम के पड़ोसी की दोस्ती में उलझ जाती है। इससे फरहान की दुश्वारियां और ज्यादा बढ़ जाती हैं। फिल्म इंटरवल तक अत्यंत दिलचस्प, हास्यप्रद और संवेदनशील है। सुगठित भी। लेकिन इंटरवल के बाद एकाएक निर्देशक की पकड़ फिल्म पर से छूट जाती है और फिल्म लड़खड़ाने लगती है। शादी की खटपट के बीच जो संवाद मौजूद हैं उनमें से कुछ तो अत्यंत ही मौलिक हैं। ऐसे संवादों को आज तक किसी हिंदी फिल्म में नहीं सुना गया। मसलन ́मिली (बेटी) को तौलिये की गलत साइड से मत पोछो। तुम बिस्तर से जमीन पर थोड़ा धीरे से नहीं गिर सकते थे। मिली जाग जाती तो।́ वगैरह वगैरह। पूरी फिल्म में दर्शक बार बार हंसते रहते हैं। खास कर वे दर्शक जो भविष्य के पति पत्नी हैं। शादी शुदा जिंदगी को सुखमय बनाने के लिए फरहान तमाम तरह की तरकीबें आजमाता है लेकिन एक भी तरकीब कामयाब नहीं होती। दरअसल सुखी दांपत्य कोई तरकीब या रणनीति नहीं है। सुखी वैवाहिक जीवन के सूत्र आपसी समझदारी, आपसी विश्वास और एक दूसरे की देखभाल से जुड़े हैं। इसे ही फिल्म का संदेश समझा जा सकता है और सार्थकता भी। ठीकठाक, मनोरंजक और पैसा वसूल फिल्म है जिसे एक बार देख लेना चाहिए। फिल्म के गानों का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। वह केवल फिल्म की परिस्थितियों को परिभाषित करने का काम करते हैं। संवाद फिल्म की यूएसपी हैं। 


निर्देशकः साकेेेत चौधरी
कलाकारः फरहान अख्तर ् विद्या बालन, राम कपूर, वीर दास
संगीतः प्रीतम चक्रवर्ती

’बेकार ’’ साधारण ’’’ अच्छी ’’’’ बहुत अच्छी ’’’’’ अद्वितीय

हाईवे

फिल्म समीक्षा

हाईवेः जिंदगी की सड़क पर निहत्थे और अकेले ’’’’

धीरेन्द्र अस्थाना

इंटरवल तक फिल्म में कुछ भी स्थापित और परिभाषित नहीं था। न कहानी, न चरित्र, न ही मंतव्य। एकाएक डर सा लगा कि क्या निर्देशक इम्तियाज अली इतनी जल्दी खत्म हो गये? लेकिन इंटरवल के तुरंत बाद इम्तियाज लौटे। प्रतिभा, सरोकार और फिल्म निर्माण के एक ज्यादा सशक्त अंदाज में। लेकिन ध्यान रहे, हाईवे इम्तियाज की पिछली फिल्मों से एकदम अलग हट कर है। यह फिल्म अपने देखे जाने के दौरान अतिरिक्त धैर्य और समझदारी की मांग करती है। यह पारंपरिक फिल्म नहीं है। यह सपने के भीतर रहता एक सपना है।  यह फंतासी के भीतर ठिठकी हुई एक और फंतासी है।यह जिंदगी की सड़क पर निहत्थे और अकेले छूट जाने की व्यथा कथा है। यह बीहड़ सामाजिक यथार्थ की आंखों में उंगली डाल कर निकाला गया विमर्श है जो स्थापित करता है कि हाईवे, जंगल, पहाड़ और वीरान खंडहरों या सुनसान ढाबों में नहीं महल सरीखे आलीशान घरों के भीतर स्त्री असुरक्षित है। स्त्री को डकैत या अपहरणकर्ता से नहीं अपने परिजनों से खतरा है। फिल्म के अंत में आलिया भट्ट कहती भी है-“अपहरण के दौरान मैं आजाद थी लेकिन घर के भीतर आ कर जेल में बंद हो गयी हूं।“ रिश्तों के नाजुक रेशों को फिल्म धीरे धीर खोलती है। आलिया को अपने मंगेतर के संग साथ में वह सुरक्षा नहीं मिलती जो वह अपने अपहरणकर्ता रणदीप हुडा के सानिध्य में पाती है। पुलिस से बचने के लिए रणदीप को मजबूरी में आलिया को किडनेप कर अपने ट्रक में भागना पड़ता है। वह फिरौती वाला किडनेपर नहीं है। वह ऐसे गिरोह का सदस्य है जो पैसे लेकर जमीन दबाने छुड़ाने का धंधा करते हैं। अपने अड्डे पर पहुंचकर अपने बॉस के जरिए उसे पता चलता है कि वह दिल्ली के सबसे बड़े रईस की बिटिया को उठा लाया है। गिरोह डर जाता है। उसे लगता है कि उसका अंत निकट है। सरगना रणदीप को फटकारता है। सरगना को इतना डरा हुआ देख बद दिमाग और गर्म मिजाज रणदीप आलिया को लेकर भाग निकलता है। साथ में दो तीन साथी भी हैं। ये लोग छुपते छुपाते पांच राज्यों से गुजरते हैं। इसी स्थूल कहानी के भीतर आलिया और रणदीप के जीवन का विद्रूप अतीत अपने कपड़े उतारता है। यहां तथाकथित निर्ममता के भीतर मानवीय उष्मा अपनी आंख चुपके से खोलती है। यहां एक क्रूर गंुड़ा आलिया जैसी युवा लडकी के सामने जार जार रोता है और अपने भीतर जाग गयी जिंदगी और स्नेह की चाह से डर डर जाता है। यहां आलिया को अपने अपहरणकर्ता से प्यार हो गया है । यह प्यार घर बसाने, शादी करने या बच्चे पालने जैसी छोटी कामनाओं से भरा हुआ नहीं है। यह आजाद रहने और आजाद रखने की गहरी इच्छा से लबरेज है। अंत में खोजी पुलिस के हाथों रणदीप मारा जाता है लेकिन घर लौटी आलिया फिर से निकल पड़ती है-पहाड़ों पर अपना स्पेस तलाशने और अपने अस्तित्व को आकार देने। गंभीर सिने प्रेमियों के लिए एक अनिवार्य फिल्म। रणदीप और आलिया का अभिनय अविस्मरणीय। रहमान का संगीत कर्णप्रिय। प्रकृति के नजारे दुर्लभ।

निर्देशकः इम्तियाज अली
कलाकारः रणदीप हुडा, आलिया भट्ट,
संगीतः ए ़आर ़ रहमान

हंसी तो फंसी

फिल्म समीक्षा

अजब प्यार की गजब कहानी: हंसी तो फंसी ’’’

धीरेन्द्र अस्थाना

निर्माताओं में करण जौहर और अनुराग कश्यप का नाम हो तो फिल्म खराब होने का तो सवाल ही नहीं है। करण के कारण फिल्म में इमोशन और मनोरंजन है तो अनुराग के कारण फिल्म आरंभ में थोड़ी जटिल  हो गयी है। यह निर्देशक का कमाल है कि उन्होंने फिल्म को पूरी तरह जटिल होने से पहले ही बचा लिया और उसे आम दर्शक के लिए भी सहज बनाये रखा। मगर इतनी उम्दा फिल्म का शीर्षक बहुत खराब है और यह फिल्म की कहानी से भी मेल नहीं खाता। शायद युवा दर्शकों को पकड़ने के लिए यह नाम रखा गया हो लेकिन निर्माता यह भूल रहे हैं कि युवा दर्शक उतने कोरे भी नहीं हैं जितना सिनेमा बनाने वाले उन्हें समझते हैं।बहरहाल सि़़द्धार्थ मलहोत्रा और परिणीति चोपड़ा की यह बेहतरीन फिल्म देखते समय रणबीर कपूर और प्रियंका चोपड़ा की फिल्म बरफी की याद अनायास ही आती रहती है। परिणीति ने भी बहन प्रियंका की तरह एक जटिल चरित्र को मूर्त करने में कामयाबी पायी है। निर्देशक ने फिल्म के सभी किरदारों को बेहद खूबसूरती से स्थापित भी किया है और परिभाषित भी किया है। सिद्धार्थ ने भी अपने चरित्र को सहजता और आत्मविश्वास के साथ साकार किया है। और परिणीति ने तो इस फिल्म से बता दिया है कि वह भी अपनी बहन प्रियंका की तरह बहुत आगे जाने वाली है। दर्शक इस फिल्म को अवश्य देखें लेकिन उनसे फिल्म को समझने कि लिए थोड़ा दिमाग लगाने की भी गुजारिश है।
 सिद्धार्थ एक पुलिस अधिकारी का बेटा है। वह एक विवाह समारोह में साड़ी किंग मनोज जोशी की बेटी अदा शर्मा से मिलता है और उसे दिल दे बैठता है। सात साल बाद दोनों शादी के बंधन में बंधने वाले हैं कि तभी एक नाटकीय घटना क्रम के चलते सिद्धार्थ के जीवन में अदा की छोटी बहन परिणीति आ जाती है। परिणीति एक विद्रोही, आजाद खयाल, सनकी किस्म की प्रतिभाशाली लड़की है जो चीन में अपना कोई प्रोजेक्ट पूरा करने के लिए घर से पैसे चुरा कर भागी लडकी के लांछन को जी रही है। वह एंटी डिप्रेशन की गोलियां खाती रहती है जबकि घर वाले उसे ड्रग एडिक्ट और चोर घोषित कर उपेक्षित कर चुके है। खास कर उसके काका, पिता का बड़ा भाई, और बहनें। इस बार वह फिर से चोरी करने आयी है क्योंकि उसे चीन में दस करोड़ का कर्ज अदा करना है। सिद्धार्थ उससे सहानुभूतिवश जुड़ता है लेकिन उसकी मासूमियत और प्रतिभा के कारण उससे प्यार करने लगता है। वह उसे चोरी करने के बजाय घर वालों से माफी मांगने और पिता से पैसे मांगने की सलाह देता है। इसके बाद क्या होता है यह आप फिल्म में ही देखें। हम सिर्फ इतना बता देते हैं कि शादी वाले दिन फेरों के वक्त सिद्धार्थ अदा को छोड़ देेता है और परिणीति की खोज में दौड़ पड़ता है जो वापस चीन जा रही है। दोनों के मिल जाने से फिल्म का सुखद अंत हो जाता है। फिल्म का गीत संगीत भी बेहतर है। नये मिजाज की फिल्म है, देख लें।

निर्देशक: विनिल मैथ्यू
कलाकार: सिद्धार्थ मलहोत्रा, परिणीति चोपड़ा, अदा शर्मा, शरत सक्सेना, मनोज जोशी
संगीत: विशाल/शेखर