Monday, March 25, 2013

रंगरेज


फिल्म समीक्षा 

क्या रंगते हैं ये ‘रंगरेज‘

धीरेन्द्र अस्थाना

रॉकस्टार, कहानी, बरफी, गैंग्स ऑफ वासेपुर, विकी डोनर जैसी फिल्मों के सुखद समय में ‘रंगरेज‘ जैसी धीमी, ढीली और अतार्किक फिल्म कैसे बन सकती है। और वह भी तब जब उसके साथ प्रियदर्शन जैसे स्टार डायरेक्टर का नाम जुड़ा हो। फिल्म की मेकिंग भी ऐसी जैसे किसी छोटे शहर के संघर्षरत थियेटरकर्मियों का नाटक देख रहे हों। कहानी का विषय अच्छा चुना था लेकिन उसका निर्वाह नहीं हो सका। जब हम प्रियदर्शन की फिल्म देखने जाते हैं तो साथ में ढेर सारी उम्मीदें भी ले जाते हैं लेकिन ‘रंगरेज‘ ये उम्मीदें पूरी नहीं करती। फिल्म के हीरो जैकी भगनानी के पिता वशु भगनानी के लिए जितना आसान एक बड़े डायरेक्टर को ‘साइन‘ करना है उससे कहीं ज्यादा आसान एक अच्छा लेखन चुनना था। बहुत सारे निर्माताओं ने अपनी संतानों को लांच करने के लिए अच्छे निर्देशक, अच्छी पटकथा, अच्छे संवाद लेखक और अच्छे सहयोगी कलाकारों को साथ लेकर फिल्में बनायी हैं और इसमें वह कामयाब भी हुए हैं। मगर ‘रंगरेज‘ में राजपाल यादव को छोड़ कर बाकी कलाकार औसत ही हैं। फिल्म इस मायने में थोड़ा अलग है कि हीरो जैकी भगनानी है लेकिन प्रेम कहानी उसके दोस्त की है। निम्न मध्य वर्गीय परिवारों के तीन, चाल में रहने वाले दोस्तों के सामान्य, संघर्षरत समय में तब एक मोड़ आता है जब जैकी के बचपन का एक दोस्त उससे मिलने मुंबई पहुंचता है। दो-चार दिन साथ गुजारने के बाद वह लड़का पानी में कूद कर आत्महत्या करने का प्रयास करता है। उसे बचाये जाने के बाद पता चलता है कि मामला लव स्टोरी का है। फिर क्या है! जैकी और उसके दोस्तों को एक मिशन मिल जाता है -युवा प्रेमियों को मिलाने का। दोस्ती की खातिर उतर पड़ते हैं मैदाने जंग में। इस जंग में प्रेमी-प्रेमिका तो मिल जाते हैं लेकिन जैकी और उसके दोस्त काफी घायल होते हैं। एक दोस्त को तो अपना पांव भी कटवाना पड़ता है। जैकी के घर पर गुंडे हमला करते हैं। उसकी दादी मारी जाती है। एक दोस्त कान पर चोट लगने से बहरा हो जाता है। इस सबसे बेखबर प्रेमी-प्रेमिका गोवा के एक रिसोर्ट में ऐश करते रहते हैं। कुछ दिनों में सेक्स का बुखार उतर जाता है और दोनों लड़-झगड़कर अपने-अपने प्रभावशाली परिवारों में वापस लौट जाते हैं। जैकी और उसके दोस्त इस पटाक्षेप (द ऐंड) से आहत हो जाते हैं और उन्हें बदला सिखाने के लिए फिर से उनका अपहरण कर लेते हैं। दोनों को खूब खरी-खोटी सुनाने के बाद तीनों वापस लौट जाते हैं। दो साल बाद फिर कुछ दोस्त लड़का-लड़की को भगा ले जाने के लिए पुलिस के पास मदद मांगने आते हैं। इस बार जैकी पूछता है जेनुईन प्रेम है या मामला केवल एक कमरे में रात बिताने का है? फिल्म समाप्त। इनमें रंगरेजी क्या हुई?

निर्देशक: प्रियदर्शन
कलाकार: जैकी भगनानी, प्रिया आनंद, राजपाल यादव
संगीत: साजिद-वाजिद, सुंदर बाबू

Tuesday, March 19, 2013

जॉली एलएलबी


फिल्म समीक्षा

यथार्थ की जमीन पर ‘जॉली एलएलबी‘

धीरेन्द्र अस्थाना

कई तरह के संघर्षांे से गुजरने के बाद निर्देशक सुभाष कपूर को अपनी मर्जी के हिसाब से फिल्म बनाने को मिली तो उन्होंने मौके को हाथ से नहीं जाने दिया। अब तक दर्शक बड़े पर्दे पर सिनेमाई कोर्ट कचहरी को देखते आये हैं लेकिन सुभाष कपूर की फिल्म ‘जॉली एलएलबी‘ लगभग यथार्थ की जमीन पर खड़ी की गयी है। हिंदुस्तानी कोर्ट कचहरी की भीतरी और बाहरी वास्तविक तस्वीर फिल्म में देखने को मिलती है। पेड़ों के नीचे बैठे हुए वकील, मुवक्किलों के पीछे पड़ते स्ट्रगलर वकील, कोर्ट रूम में एसी का न होना, स्थापित वकीलों का रौब रुतबा और छोटे वकीलों की लाचारगी, कोर्ट रूम में आरोपी के खड़े होने के लिए कठघरे तक का न होना आदि आदि कई ऐसे छोटे छोटे दृश्य हैं जिनके माध्यम से निर्देशक ने कानूनी सिस्टम का वास्तविक चेहरा पकड़ने का प्रयास किया है। फिल्म की कहानी भी लार्जर दैन लाइफ नहीं बल्कि रीयल लाइफ की घटनाओं से प्रेरित है। एक बड़े घराने की अय्याश औलाद द्वारा हिट ऐंड रन केस को कहानी का बेस बनाया गया है। लड़का शराब के नशे में तेज स्पीड गाड़ी को फुटपाथ पर चढ़ा कर भाग जाता है। हादसे में पांच लोग मारे जाते हैं लेकिन बड़े वकील की दलीलें और दौलत का अंबार केस को खारिज करवा देता है। अरशद वारसी एक स्ट्रगलर वकील है जिसके पास कोई काम नहीं है। वह अपने शहर मेरठ को छोड़ भाग्य आजमाने दिल्ली आता है रातों रात मशहूर होने के लिए। वह ‘हिट ऐंड रन‘ केस को फिर से खुलवाने के लिए एक जनहित याचिका दायर करता है। उसके इस साहस से बड़ा वकील बोमन ईरानी हैरान है। हैरान है बड़ा घराना भी और पैसे से बिके हुए लोग भी जिन्होंने सिस्टम में सेंध लगा कर उसे जर्जर और अविश्वसनीय बनाया हुआ है। इस केस के खुलने के दौरान पैसों के लालच से लेकर अरशद की मारपीट तक तमाम हथकंडे अपनाये जाते हैं मगर अरशद अपने कदम वापस नहीं लेता। फिर किस तरह वह नये नये सबूत इकट्ठे करता है और गवाह जुटाता है यह सब काफी दिलचस्प ढंग से बुना गया है। पूरी फिल्म अरशद वारसी, बोमन ईरानी और सौरभ शुक्ला (जज के किरदार में) के कंधों पर खड़ी हुई है। वैसे भी पूरी फिल्म एक कोर्ट रूम ड्रामा है इसलिए इसमें अमृता राव नहीं भी होतीं तो कोई फर्क नहीं पड़ता। फिल्म का सबसे कमजोर पक्ष उसके दो गाने हैं जो न तो फिल्म को आगे बढ़ाते हैं न उसमें दिलचस्पी जगाते हैं। नॉनसेंस फिल्मों की भीड़ में एक ठीक ठाक समझदार सी फिल्म है जिसमें आम आदमी को जीतता हुआ दिखाया गया है।

निर्देशक: सुभाष कपूर
कलाकार: अरशद वारसी, अमृता राव, बोमन ईरानी, सौरभ शुक्ला, हर्ष छाया, मोहन अगाशे
संगीत: कृस्ना

Monday, March 11, 2013

साहेब, बीवी और गैंगस्टर रिटर्न्स


फिल्म समीक्षा

इश्क के उजाड़ में ‘साहेब, बीवी और गैंगस्टर रिटर्न्स‘ 

धीरेन्द्र अस्थाना

सिनेमा में इधर एक नयी पीढ़ी आ गयी है जो कमर्शियल स्तर पर मीनिंगफुल सिनेमा बनाने की जद्दोजहद में जुटी है। फिल्म समीक्षक विनोद भारद्वाज ने ऐसा सिनेमा बनाने वालों को ‘लोकप्रिय आर्ट फिल्मकार‘ कहकर वर्गीकृत किया है। अनुराग कश्यप और तिग्मांशु धूलिया ऐसे ही फिल्मकार हैं। तिग्मांशु की नयी फिल्म ‘साहेब, बीवी और गैंगस्टर रिटर्न्स‘ भी कमर्शियल चोले में कला फिल्म सरीखी ही है। फिल्म को बाजार में भी सफलता दिलाने की मंशा के चलते ही इन फिल्मकारों ने यह नया रास्ता खोजा है और इसमें कोई हर्ज भी नहीं है। आखिर ‘दबंग‘ ही क्यों चले। ‘देव डी‘, ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर‘ या फिर ‘साहेब, बीवी और गैंगस्टर रिटर्न्स‘ क्यों न चलें? और चलीं। दर्शकों का एक बड़ा वर्ग तिग्मांशु धूलिया की इस फिल्म को देखने थियेटर पहुंचा। इरफान खान तो एक सधे हुए सहज अभिनेता हैं और उन्होंने अपनी प्रतिमा तथा योग्यता के अनुरूप ही अपने काम से फिल्म को एक ऊंचाई बख्शी है लेकिन सोहा अली खान और जिमी शेरगिल ने अपने राजसी अभिनय से दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया। माही गिल भी पीछे नहीं रहीं हैं। कभी उजाड़ किरदारों की मलिका रहीं मीना कुमारी की बरबस ही माही ने याद दिला दी। दरअसल पूरी फिल्म ही राजे रजवाड़ों के बीते हुए समय के बैक ड्रॉप पर इश्क का एक ऐसा उजाड़ है जिसमें फिल्म के चारों प्रमुख किरदार अपना जख्म लिए दर-दर भटक रहे हैं। फिल्म के संवाद न सिर्फ चुटीले हैं बल्कि चेतना से चिपक भी जाते हैं। पटकथा में कोई झोल नहीं है। दृश्यों में दोहराव नहीं है। संपादन कसा हुआ है। पूरी फिल्म शुरू से अंत तक दिलचस्प और चुस्त दुरुस्त है। फिल्में आम तौर पर त्रिकोण वाली होती हैं लेकिन यहां प्यार का चौकोण है। माही जिमी से, जिमी सोहा से सोहा इरफान से और इरफान अपने भीतर की प्रति हिंसा से इश्क करता है। दिलचस्प बात यह है कि इन सभी का इश्क एक ऐसा बीहड़ है जिसके कूल किनारे स्पष्ट नहीं हैं। किसी के पास अपने प्यार के लिए कोई बंदरगाह नहीं है। इसीलिए पूरी फिल्म उत्सव नहीं प्यार का मर्सिया बन जाती है। इस फिल्म की एक चमत्कारी प्रतीति यही है कि यहां इश्क अपनी परिणति में गुलो गुलजार नहीं, रुदन का बियाबान हो गया है। फिल्म के बीच बीच में राजनीति के, खून खराबे क,े आइटम डांस के, सेक्स के, मजाकिया पलों के छोटे छोटे दौर चलते रहते हैं जो एक गंभीर फिल्म में रोचकता बनाए रखने वाले ‘फिलर्स‘ का काम करते हैं। मुग्धा गोड्से पर फिल्माया आइटम नंबर ‘मीडिया से कह दूं खुले आम‘ एक नया अंदाज लिए हुए है और अश्लील भी नहीं है। अच्छी बात है कि ये फिल्में तथाकथित मुख्य धारा के सिनेमा में अपना ‘स्पेस‘ बनाने में कामयाब हो रही हैं।

निर्देशक: तिग्मांशु धूलिया
कलाकार: इरफान खान, जिमी शेरगिल, माही गिल, सोहा अली खान, राज बब्बर, प्रवेश राणा
संगीत: संदीप चौटा

Monday, March 4, 2013

आई मी और मैं


फिल्म समीक्षा

रिश्तों के नये समय में ‘आई मी और मैं‘

धीरेन्द्र अस्थाना

यह रिश्तों का एक नया समय है - लंपट, प्रतिबद्धता से खाली, अराजक और जिम्मेदारियों से मुक्त। इस आवारा समय में प्यार को खोजना, रिश्तों की गर्माहट में वापस लौटना और मूल्यों को फिर से परिभाषित और स्थापित करना, यही इस फिल्म का बुनियादी स्वर है जिसे निर्देशक कपिल शर्मा ने कायदे से मुखर किया है। बीच बीच में जॉन अब्राहम ऐसी फिल्में करते रहते हैं जो यह जताती हैं कि जॉन केवल एक्शन हीरो नहीं हैं बल्कि वह संवेदनशील अभिनेता भी हैं। उनकी नयी फिल्म ‘आई मी और मै‘ ऐसी ही फिल्म है जो रिलेशनशिप के बीच सार्थकता और संवेदना की तलाश करना चाहती है। करियर बनाने की होड़, गलाकाट प्रतियोगिता और खुद को साबित करने के इस खतरनाक और मारक समय में इतना अवकाश ही कहां है कि एक दो पल ठिठक कर उस रिश्ते के बारे में सोचा जाए जो बीच राह में पता नहीं कहां पीछे छूट गया। मैं मैं और मैं के स्वार्थी शोर में दूसरे के विनम्र स्वीकार की सहज और सुरुचिपूर्ण समझ ही विकसित नहीं हुई है। नतीजा यह कि चारों तरफ एक कठोर एकालाप है जिसकी चोट से मर्म चटख रहे हैं और संबंधों में दरारें पड़ रही हैं। यह एक बेहद नाजुक विषय है जिसे निर्देशक ने जॉन अब्राहम, चित्रांगदा सिंह और प्राची देसाई के त्रिकोण के माध्यम से बुनने का प्रयत्न किया है। इस प्रयत्न में वह सफल भी हुए हैं लेकिन नहीं मालूम कि मारधाड़ और कॉमेडी की मुख्य धारा वाले इस समय में यह फिल्म कितने दर्शक स्वीकार कर पायेंगे। जॉन अब्राहम एक प्रमुख म्यूजिक कंपनी में प्रोड्यूसर है। वह चित्रांगदा सिंह के साथ उसी के फ्लैट में ‘लिव इन रिलेशन शिप‘ में रहता है। रिश्तों में खटास आनी शुरू होती है क्योंकि जॉन बेहद आत्मकेंद्रित और आत्ममुग्ध है। चित्रांगदा उसे अपने फ्लैट से निकाल देती है। किराये के नये घर में बतौर पड़ोसन जॉन की जिंदगी में एक चुलबुली लड़की प्राची देसाई का प्रवेश होता है। उधर जॉन का अपनी कंपनी में नयी क्रिएटिव डायरेक्टर के साथ टकराव और तनाव बढ़ रहा है इधर प्राची देसाई पड़ोसन से कुछ ज्यादा हो गयी है। जॉन कंपनी छोड़ देता है और प्राची उसे लेकर पेरिस बस जाना चाहती है। इस बीच पता चलता है कि चित्रांगदा सिंह प्रेग्नेंट है। जॉन अपनी मां की सलाह मान कर चित्रांगदा के पास लौटता है। पर अब चित्रांगदा शादी नहीं करना चाहती। दोनों के बीच समझ बनती है कि दोनों बारी बारी से बेबी गर्ल का पालन पोषण करेंगे। यही है रिश्तों का नया समय। तीनों प्रमुख कलाकारों ने उम्दा काम किया है। फिल्म का ‘दरारें‘ वाला गीत कर्णप्रिय है।

निर्देशक: कपिल शर्मा
कलाकार: जॉन अब्राहम, चित्रांगदा सिंह, प्राची देसाई, जरीना वहाब, मिनी माथुर, राईमा सेन
संगीत: सचिन, जिगर, फलक, राघव, गौरव