Saturday, June 27, 2009

‘न्यूयॉर्क‘

फिल्म समीक्षा
जिंदादिल और अर्थपूर्ण ‘न्यूयॉर्क‘
धीरेन्द्र अस्थाना
यशराज बैनर से बड़े दिनों के बाद कोई इतनी जिंदादिल, तर्कपूर्ण तथा अर्थपूर्ण फिल्म आई है जिसे कम से कम दो बार देखा जा सकता है। कमर्शियल सिनेमा को किस रचनात्मक अंदाज में एक विचार में बदला जा सकता है, इसका बेहद खूबसूरत उदाहरण कबीर खान निर्देशित ‘न्यूयॉर्क‘ है। न्यूयॉर्क जो सिर्फ शब्द नहीं रह जाता बल्कि एक प्रतीक बन जाता है। साहस का, जिंदादिली का, लगाव का, सभ्यता का, समानता का और हां जुल्म का भी प्रतीक। बॉलीवुड को खुश होना चाहिए कि काफी लंबे समय के बाद लोगों के जत्थे फिल्म देखने जा रहे हैं। विचार तभी परिवर्तन ला सकता है जब वह जन समूह द्वारा अपनाया जाए। ‘न्यूयॉर्क‘ यह काम कर सकती है। दो दिन पहले जॉन एब्राहम द्वारा कहा गया यह वाक्य एकदम दुरूस्त है कि ‘न्यूयॉर्क‘ पाकिस्तानी फिल्म ‘खुदा के लिए‘ से आगे की फिल्म है।
फिल्म की मूल कथा यह है कि दुनिया के सबसे ताकतवर देश अमेरिका में जब 11 सितंबर को एक आतंकवादी हमले के तहत वल्र्ड ट्रेड सेंटर की दो इमारतों को उड़ा दिया गया तो कैसे शक का कहर निरपराध लोगों पर टूट पड़ा। निर्दोष लोगों को आतंकवादी बनाने का काम सरकारी तंत्र कैसे करता है और आह भी नहीं भरता, यह प्रक्रिया भी पूरी वेदना के साथ फिल्म में दर्ज की गयी है। नील नितिन मुकेश की यह पहली फिल्म है जो उनकी अभिनय संभावना के विराट दरवाजे खोल सकती है। जॉन का जलवा भी इस फिल्म से बढ़ जाएगा। कैटरीना ने फिर सिद्ध किया कि वह सिर्फ सुंदर ही नहीं संवेदनशील अभिनेत्री भी हैं। इरफान खान ने मंजे हुए अभिनय की सीढ़ियों पर चार कदम और आगे बढ़ाए। दोस्त की जिंदगी में सेंध लगाने की दुविधा को नील नितिन ने बेहद प्रभावशाली ढंग से व्यक्त किया। आतंकवाद पर बनी फिल्मों में ‘न्यूयॉर्क‘ अपना एक अलग मुकाम रखेगी। आतंकवाद के कारणों पर फिल्म में जिस तटस्थता के साथ जिरह की गयी है वह अद्भुत और सृजनात्मक है। फिल्म इस दृश्य के साथ खत्म होती है कि एक आतंकवादी जो मुस्लिम भी है के बेटे को अमेरिकी समाज कितनी सहजता से न सिर्फ क्रिकेट की नेशनल चाइल्ड टीम का सदस्य बना लेता है बल्कि उसे सिर माथे पर भी बिठा लेता है। वह यह संदेश भी देती है कि अतीत में जो बुरा घटा है उससे चिपके मत रहो। प्रगति तथा खुशहाली की तरफ बढ़ते समय के साथ समरस हो जाओ। फिल्म में एक चूक भी हुई है। यह नहीं परिभाषित किया गया कि कैटरीना कैफ को पुलिस ने जानबूझ कर मारा या वह गलती से गोलियों की जद में आ गयी? अगर जानबूझ कर मारा तो क्यों? आतंकवादी की पत्नी को जान से मार देने का विधान तो पूरी दुनिया में कहीं नहीं है! कथा-पटकथा-संगीत सब अच्छा है।
निर्माता: आदित्य चोपड़ा
निर्देशक: कबीर खान
कलाकार: जॉन एब्राहम, कैटरीना कैफ, इरफान खान, नील नितिन मुकेश
संगीतकार: प्रीतम चक्रवर्ती, पंकज अवस्थी, जूलियस

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