Tuesday, February 9, 2010

सिनेमा में भी एक प्रेम रहता है

सिनेमा में भी एक प्रेम ‘रहता‘ है

धीरेन्द्र अस्थाना

वैज्ञानिक और तकनीकी तरक्की के साथ जिंदगी में दबे पांव दाखिल हुए ग्लोबलाइजेशन ने लाइफ स्टाइल के अलावा विचार और संवेदना को भी गहरे स्तर पर प्रभावित किया है। व्यापक जन समुदाय तक पहुंच रखने वाला विराट माध्यम सिनेमा इससे कैसे अप्रभावित रहता? सिनेमा के पास चार-पांच शाश्वत विषय हैं जिनमें ढाई अक्षर का ‘प्रेम‘ सर्वोपरि है। समय बदला, समाज बदला, विचार बदले, सरोकार बदला तो सिनेमा में प्रेम के साथ होने वाला सुलूक और अंदाज भी बदला। राजेन्द्र कुमार-राज कूपर-वैजयंती माला की ‘संगम‘, राजेश खन्ना-शर्मीला टैगोर की ‘अमर प्रेम‘, अमिताभ बच्चन-रेखा की ‘सिलसिला‘, संजीव कुमार-शर्मीला टैगोर की ‘मौसम‘, कमल हासन-श्रीदेवी की ‘सदमा‘ तथा ऋषी कपूर-डिंपल कपाड़िया की ‘बॉबी‘ जैसी प्रेम कहानियां बीते जमाने की मील का पत्थर भर रह गयीं क्योंकि इस बीच सिनेमा का बड़ा दर्शक वर्ग यानी ‘टार्गेट ओडियंस‘ युवा हो गया था। शॉपिंग मॉल्स , कॉरपोरेट कल्चर, मल्टीप्लेक्स, कॉल सेंटर, मोबाइल फोन, इंटरनेट, पब, डांस बार वगैरह वगैरह के आक्रामक लेकिन मखमली अंधेरों में जवान हुई, संख्या की दृष्टि से निर्णायक बन चुकी युवा पीढ़ी सबके निशाने पर आ गयी थी। ‘पल-पल दिल के पास तुम रहती हो‘ जैसे गाने इस पीढ़ी को ‘बोरिंग‘ और हास्यास्पद लग रहे थे और इस लगने में ‘लड़का-लड़की‘ दोनों शामिल थे। मोटर बाइक्स की तूफानी रफ्तार को पसंद करने वाली यह पीढ़ी प्यार में भी रफ्तार और छीन झपट की कायल थी। इसीलिए जब शाहरुख खान को प्यार के लिए विलेन बनने पर राजी करने वाली फिल्म ‘बाजीगर‘ आयी तो युवा दर्शक उस पर टूट पड़ा। यह फिल्म युवाओं के लगभग हिंसक प्रेम को आईना ही नहीं दिखाती थी, उसका समर्थन भी करती थी। फिल्म के सुपर डुपर हिट होने से बॉलीवुड निर्माताओं के दिमाग ठनक गये। वह मान गये कि सिनेमा में जो प्रेम रहता है उसके साथ नये बर्ताव का समय आ पहुंचा है। इस बीच दो परिवर्तन समानांतर हुए। कॉल सेंटरों में मर-खप रही युवा पीढ़ी में प्यार की एक नयी परिभाषा और अभिलाषा ने जन्म लिया। दिन में मिलो, रात में मौज-मस्ती करो, सुबह भूल जाओ। दो-चार बार डेटिंग करो। चार छह रातें बिस्तर पर गुजारो। मन मिले तो साथ रहो। न मिले तो अपना-अपना रास्ता नापो। प्रेम के इस दर्शन को नयी पीढ़ी ने नाम दिया ‘वन नाइट स्टैंड‘ और ‘लिव इन रिलेशनशिप‘। सिनेमा चूंकि बड़े दर्शक समूह का माध्यम है इसलिए वह प्यार के इस दर्शन का तो ताबड़तोड़ प्रदर्शन नहीं कर सका लेकिन उसने प्यार की नयी जमीन पर खड़े होना शुरू कर दिया। पिछले वर्ष 31 जुलाई को रिलीज सैफ अली खान-दीपिका पादुकोन स्टारर हिट फिल्म ‘लव आज कल‘ में तो बाकायदा आज के और बीते समय के प्यार का रोचक लेकिन तुलनात्मक अध्ययन पेश किया गया। इम्तियाज अली द्वारा निर्देशित इस फिल्म में दो युवाओं के प्यार को दो कालखंडों में पेश करके प्रेम की नयी-पुरानी व्याख्या को अंजाम दिया गया। एक सन् पैंसठ की दिल्ली है जिमसें ऋषी कपूर प्रेम करते हैं। एक सन् 2009 का लंदन है जिसमें सैफ-दीपिका का फटाफट प्यार है। इस मोहब्बत के बीच में विलेन बन कर खड़े हैं दोनों के करियर। दोनों सहर्ष अलग होते हैं। दोस्तों को ब्रेकअप पार्टी देते हैं। दोस्त भ्रमित हैं। इस मौके पर बधाई दें या अफसोस प्रकट करें। गिफ्ट क्या दें? ब्रेकअप पार्टी की यह अवधारणा दिलचस्प और अनूठी है। यह ब्रेकअप प्रतिबद्धता से पलायन का दर्शन है। नो डिमांड, नो कमिटमेंट। फिल्म में ऋषी कपूर का जुमला ‘प्यार एक ही बार होता है‘ अंतिम सत्य निकला। लेकिन यह फिल्म का अंतिम सत्य है, समाज का नहीं। ‘लार्जर दैन लाइफ‘ वाले फार्मूले पर टिकी फिल्म इंडस्ट्री में प्यार, प्रेम, इश्क, मोहब्बत को परिभाषित करने का नया जुनून, नयी जिद और नया उन्माद शिखरों पर जा बैठा।
प्रयोगधर्मी फिल्मकार अनुराग कश्यप की फिल्म ‘देव डी‘ ने तो प्यार की रोमानी छवि को ही तहस नहस कर दिया। उन्होंने ‘देवदास‘ की प्रचलित प्रतिमा का विध्वंस कर डाला। अनुराग ने ‘देव डी‘ में एक थीसिस यह दी कि देव ‘नारसिसस‘ है यानी ऐसा शख्स जो संसार में किसी से प्यार नहीं करता। वह सिर्फ खुद से मोहब्बत करता है। यह देवदास पारो के गम में शराब पी कर खून की उल्टियां करने वाला युवक नहीं है। यह एक नया देवदास है जो प्यार में शहीद होने को राजी नहीं है। यह फिल्म चल निकली तो निर्माताओं को लगा कि प्यार की नयी व्याख्या स्वीकार्य है। अब तो वह सिनेमा में रहने वाले पुराने प्रेम की तरफ से पूरी तरह पीठ फेर चुके हैं।
सिनेमा में प्यार की कुछ अलग तस्वीर पेश करने वाली हालिया फिल्मों में हम शाहरुख खान-अनुष्का शर्मा की ‘रब ने बना दी जोड़ी‘ करण जौहर निर्मित ‘दोस्ताना‘, अब्बास टायरवाला निर्देशित इमरान खान-जेनेलिया डिसूजा अभिनीत ‘जाने तू या जाने ना‘, तनूजा चंद्रा की ‘होप ऐंड ए लिटिल शुगर‘, फराह खान निर्देशित ‘ओम शांति ओम‘, संजय लीला भंसाली की ‘सांवरिया‘, आर बालकी की अमिताभ-तब्बू अभिनीत ‘चीनी कम‘, अनुराग बसु निर्देशित ‘मैट्रो‘ और राम गोपाल वर्मा की अमिताभ बच्चन अभिनीत ‘निःशब्द‘ का जिक्र कर सकते हैं। ये सभी फिल्में सिनेमा में बरसों से चले आ रहे प्यार के पुराने फलसफे को नकार कर नया मिजाज, नया मौसम और नया संस्कार रचने के संघर्ष में मुब्तिला हैं।
लेकिन...। और यह लेकिन एक विराट तथा बुनियादी शंका है कि क्या ‘प्यार‘ जैसा दुर्लभ, कीमती और असाधारण अहसास तमाम तकनीकी क्रांतियों के बावजूद अपनी मूल स्थापनाओं को अपदस्थ कर पाया है। शायद नहीं । साहित्य में तो वर्षों पहले कथाकार ममता कालिया ने घोषणा कर दी थी -‘प्यार शब्द घिसते घिसते चपटा हो गया है। हमारी समझ में अब सिर्फ सहवास आता है।‘ लेकिन सामाजिक जीवन में ऐसा हुआ क्या? शायद नहीं हुआ। इसकी तस्दीक करती है अभी अभी रिलीज हुई विशाल भारद्वाज निर्मित अभिषेक चैबे की फिल्म ‘इश्किया‘। इस फिल्म में मामा (नसीरुद्दीन शाह) और भांजा (अरशद वारसी) एक ही लड़की (विद्या बालन) से सच्चा इश्क कर बैठते हैं। इश्क के इस संग्राम में भांजे की जीत होती है और मामा हार जाता है। युवा धड़कनों का यह प्यार ही अप्रतिम और अजेय है। इस प्यार को कोई प्रयोग पराजित नहीं कर सकता। इसलिए सिनेमा हो या जीवन, मोहब्बत जिंदाबाद ही प्यार का इकलौता सच और विमर्श है।

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