Saturday, December 4, 2010

रक्तचरित्र-दो

फिल्म समीक्षा

राजनीति का वर्गचरित्र: रक्तचरित्र-दो

धीरेन्द्र अस्थाना

अपनी पिछली फिल्म ‘रक्तचरित्र‘ में रामगोपाल वर्मा ने हिंसा का एक वैचारिक पाठ पेश करने की कोशिश की थी। इस पाठ का निहितार्थ यह था कि दलित और वंचित, सर्वहारा किस्म की जनता पर अत्याचार हद से ज्यादा बढ़ जाता है तो वह निरंकुश राजसत्ता के विरुद्ध हथियार उठाने से भी नहीं चूकती। एक प्रकार से रामू का यह सिनेमाई पाठ अतिवादी वाम राजनीति की सीमाओं को स्पर्श करता नजर आता था। इस पाठ के भीतर से रामू एक नया अध्याय लोकतांत्रिक राजनीति का निकाल कर लाये थे जिसका प्रतिनिधित्व उन्होंने विवेक ओबेराय से करवाया था - उसे राजनीति में उतार कर। दुश्मनों को मिटा कर, राजनीति के विशाल बरगद की छांव में विवेक ओबेराय सत्ता सुख में सराबोर है। यह थी ‘रक्त चरित्र‘ की पटकथा।
’रक्तचरित्र-दो‘ में आरम्भ के लगभग बीस मिनट तक पहले भाग का ट्रेलर दिखाने के बाद फिल्म का अगला भाग शुरू होता है, सूर्या की एंट्री से। अपने पिता की हत्या का बदला लेने के लिए विवेक के हाथों सूर्या के खानदान का विनाश हुआ था। नये भाग में वैचारिक सरसराहट दूर-दूर तक नहीं है। यहां सत्ता के विरुद्ध दबी कुचली जनता का प्रतिशोध सिरे से नदारद है। यहां सिर्फ और सिर्फ एक अंधा बदला और उसे व्याख्यायित करने वाली एक हिंसक पटकथा है। इस पटकथा के नायक सूर्या हैं, खलनायक होने के बावजूद। और इस बार खलनायक के रोल में हैं विवेक ओबेराय, जो पहले पार्ट में नायक थे। पिछली बार राजनीति ने अपने हित में विवेक ओबेराय के क्रोध को भुनाया था। इस बार राजनीति सूर्या के क्रोध का इस्तेमाल करती है। राजनीति और हिंसक प्रतिरोध की यह दुरभिसंधि (गठजोड़) ही सत्ता का वर्ग चरित्र है। इस बार विवेक ओबेराय मारा जाता है और सूर्या जेल से छूटने की प्रतीक्षा में है। कोई आश्चर्य नहीं कि ’रक्तचरित्र-तीन‘ भी बने जिसमें विवेक ओबेराय का बेटा (जो दिखा दिया गया है) सूर्या का वध करता नजर आए। हिंसा-प्रतिहिंसा और और हिंसा। हिंसा की बहती धारा में गले-गले तक डूबे हिन्दी के व्यावसायिक सिनेमा का यह समकालीन और उत्तर आधुनिक आख्यान है। अगर भयावह खून खराबा, वीभत्स हत्याएं, बनैली राजनीति का नसें चटखाता शोर आपको लुभाता है तो तत्काल यह फिल्म देख आइए। एक अंधे गुस्से में छटपटाते युवक के हाहाकार को सूर्या ने ओजस्वी अभिव्यक्ति दी है। पहले पार्ट के मुकाबले इस बार शत्रुघ्न सिन्हा ज्यादा परिपक्व राजनेता के किरदार में हैं और प्रभावित भी करते हैं। फिल्म का गीत संगीत चूंकि कथा और घटनाओं को परिभाषित करने के लिए इस्तेमाल हुआ है इसलिए अच्छा तो लगता है लेकिन याद रहने वाला नहीं है। निर्देशन कसा हुआ है।

निर्देशक: राम गोपाल वर्मा
कलाकार: शत्रुध्न सिन्हा, विवेक ओबेराय, सूर्या, प्रियमणि, अनुपम श्याम, जरीना वहाब
संगीत: धरम संदीप, कोहिनूर मुखर्जी, अमर देसाई, सुखविंदर सिंह

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