Monday, May 19, 2014

हवा हवाई

फिल्म समीक्षा

खुली आंखों का सपना: हवा हवाई

धीरेन्द्र अस्थाना

दूसरों का मालूम नहीं मैंने मकरंद देशपांडे को जीवन में पहली बार बिना दाढ़ी और बिना लंबे बालों के देखा। मुश्किल से कुल मिला कर दो मिनट का रोल और दिल जीत लिया दर्शकों का। फिल्म के मेन हीरो चाइल्ड आर्टिस्ट पार्थो गुप्ते के पिता के रोल में हैं मकरंद और एक गाने के जरिए संदेश देते हैं कि अंगारों पर चलना ही है जीवन का मंत्र। वह एक कपास उगाने वाले किसान हैं जिनकी फसल को पाला मार जाता है। वह हार्ट अटैक से मर जाते हैं। लेकिन यह घटना फ्लैश बैक में खुलती है। चाइल्ड हीरो पार्थो गुप्ते निर्देशक अमोल गुप्ते का बेटा है और उसने साबित कर दिया है कि साधारण शक्ल सूरत के बावजूद वह बहुत दूर जाने वाला है। ये बॉलीवुड में कैसे कैसे कमाल के लोग बसे हुए हैं तो फिर घटिया लोगों की लॉटरी क्यों निकल आती है? फिल्म के पांच चाइल्ड आर्टिस्ट ने जो काम किया है उसकी सीडी बना कर कई स्टार पुत्रों को दिन में पांच बार देखनी चाहिए। इस बार अमोल गुप्ते ने कोई रिस्क नहीं लिया। कहानी भी खुद लिखी, निर्देशन भी खुद किया और प्रोड्यूस भी खुद ही कर दी। और उनका यह निर्णय अच्छा ही हुआ। उनके काम का क्रेडिट कोई और तो नहीं ले गया। बहुत गजब फिल्म है ‘हवा हवाई‘। खुली आंखों से देखे हुए सपने का नतीजा है यह कृति जिसे किसी स्टार की दरकार नहीं थी। फिल्म के मूल किरदार पांच बच्चे तलछट से उठते हुए नायक हैं। पिता के मरने के बाद पार्थो को एक चाय की दुकान पर नौकरी करनी पड़ती है। इस दुकान के बाहर शाम 7 बजे के बाद अमीर घरों के बच्चे स्केटिंग सीखने आते हैं। नौकरी के पहले दिन पार्थो इस ट्रेनिंग को कौतुहल से देखता है। वह एक सपने को अपने भीतर जगह देता है कि वह भी स्केटिंग का चैंपियन बने। उसके चार दोस्त भंगार से सामान बटोर कर उसे स्केट बना कर देते हैं। इन दोस्तों में एक कचरा बीनता है, एक जरदोरी का काम करता है, एक कार गैराज में है और एक फूल बेचता है। तलछट का जीवन। वहां से चैंपियन बनने की छलांग। इस सपने को पालता पोसता है कोच साकिब सलीम। इसके बाद तमाम बाधाएं हैं जिन्हें पार करते हुए साकिब सलीम और पार्थो गुप्ते का सपना पूरा होता है और महाराष्ट्र स्टेट स्केट चैंपियनशिप प्रतियोगिता में पार्थो विजेता घोषित होता है। ‘चक दे इंडिया‘ और ‘भाग मिल्खा भाग‘ के बाद खेल और उसके संघर्ष पर बनी एक और अनूठी फिल्म। लेकिन यह इस मायने में अलग कि इसका कैनवास उन दो फिल्मों से छोटा जरूर है मगर जज्बा और जुनून लगभग वही है। यह तलछट से छलांग लगाने की फिल्म है। एक अनिवार्य रूप से देखी जाने वाली फिल्म।
निर्देशक: अमोल गुप्ते
कलाकार: पार्थो गुप्ते, साकिब सलीम, प्रज्ञा यादव, मकरंद देशपांडे, नेहा जोशी, दिव्या जगदाले
संगीत: हितेश सोनिक

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