Saturday, June 23, 2012

डेंजरस गैंग्स ऑफ वासेपुर


फिल्म समीक्षा

डेंजरस गैंग्स ऑफ वासेपुर

धीरेन्द्र अस्थाना

यह अनुराग कश्यप की फिल्म है। इसे एक और गैंगस्टर फिल्म कहकर उड़ाया नहीं जा सकता। यह एक तेज गति वाली, घटनाओं से लबरेज, डेंजरस लेकिन कूल-कूल लहजे में बयान की गयी विराट कथा है। इसे इतने शानदार और सहज-सरल ढंग से बुना गया है कि कहीं कुछ उलझा नजर नहीं आता। यह अनुराग कश्यप की ‘नो स्मोकिंग’ फिल्म के एकदम उलट, पारदर्शी और स्पीडी फिल्म है। ‘नो स्मोकिंग’ एक प्रतीकात्मक और बौद्धिक फिल्म थी तो ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ कॉमन मैन की फिल्म है, जिसे कॉमन मैन के स्तर पर उतरकर बनाया भी गया है। इसका काल बहुत लंबा है। गुलाम भारत से आज तक के समय में आता हुआ। पीढ़ी दर पीढ़ी रंजिश की आंच में सुलगता-पकता वासेपुर और वासेपुर के गली कूचों में आबाद-बरबाद होती जवानियां। इस फिल्म की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि पात्रों का लगभग एक बड़ा सा मेला जुटाने के बावजूद अनुराग ने किसी भी किरदार को ‘खोने’ नहीं दिया है। उन्होंने छोटे से छोटे चरित्र को न केवल पूरा ‘स्पेस’ दिया है बल्कि प्रत्येक पात्र को परिभाषित भी किया है। इस फिल्म में एक भी घटना अतार्किक और फालतू नहीं है, इसीलिए लंबी होने के बावजूद फिल्म बांधे रखती है। सरदार खान के रूप में मनोज बाजपेयी को तो मानो पुनर्जन्म ही मिल गया है। फिल्म ‘सत्या’ के बाद शायद अब जाकर मनोज की प्रतिभा का विस्फोट हुआ है। उनके विलक्षण अभिनय के लिए यह फिल्म सिनेमा के इतिहास में दर्ज हो सकती है। तिग्मांशु धूलिया एक बेहतरीन निर्देशक हैं लेकिन इस फिल्म में अपने उम्दा और प्रभावी अभिनय से चौंका देते हैं। इसी तरह पीयूष मिश्रा मूलतः गीतकार हैं लेकिन वह भी कमाल की एक्टिंग करते हैं। फिल्म में हालांकि पारंपरिक रूप से कोई हीरोईन नहीं है लेकिन फिल्म में जो दो लड़कियां मनोज की पत्नियां बनी हैं, उन्होंने अपने अभिनय से आश्वस्त किया है। गुंडागर्दी, रंगदारी, रंजिश, मारामारी का परिवेश है तो गालियां स्वभावतः बेहद और बेधड़क हैं। एक दोस्त ने पूछा है-इस फिल्म का मकसद क्या है? जवाब फिल्म की तरह सहज है-जिंदगी की जंग में जिंदा रहने से बड़ा मकसद क्या होता है? फिल्म का दूसरा भाग अभी आना बाकी है। रंजिश जारी है। फिल्म का गीत-संगीत उसकी जान है। अवश्य देखें। 

निर्देशक: अनुराग कश्यप
कलाकार: मनोज बाजपेयी, जलालुद्दीन, पीयूष मिश्रा, ऋचा चड्ढा, हुमा कुरैशी, रीमा सेन, तिग्मांशु धूलिया, यशपाल वर्मा
संगीत: स्नेहा खानवलकर

Saturday, June 16, 2012

फेरारी की सवारी


फिल्म समीक्षा

सपने करें ‘फेरारी की सवारी’

धीरेन्द्र अस्थाना

विधु विनोद चोपड़ा भी बाजार में बैठे हुए फिल्मकार हैं लेकिन जब हिंदी के बाजार में ‘एकलव्य’ जैसी फिल्म पिट जाती है तो वह ‘राउडी राठौर’ नहीं बनाते। वह ‘मुन्ना भाई एमबीबीएस’ और ‘थ्री ईडियट्स’ बनाते हैं, जो बाजार को भी साध लेती हैं और अच्छे सिनेमा का दायरा भी बड़ा करती हैं। विधु मानते हैं कि फिल्मकार एक रचनात्मक व्यक्ति होता है और जैसे एक साहित्यकार या पत्रकार की अपने समय और समाज के प्रति जिम्मेदारी होती है, ठीक वैसे ही फिल्मकार की भी होती है। ‘फेरारी की सवारी’ बनाकर विधु ने एक बार फिर अपने दायित्व को अंजाम दिया है। पैसा तो देर-सबेर यह फिल्म भी कमा ही लेगी। फिलहाल तो अर्थपूर्ण सिनेमा की गैलरी में ‘फेरारी’ ने अपनी ‘जगह’ कमाई है। पूरी फिल्म क्रिकेट के बहाने मुसीबतों पर संघर्ष की, अवसाद पर उल्लास की, अंधेरों पर रोशनी की और राजनीति पर ईमानदारी की जीत का आख्यान है। यह गली-कूचों के कॉमन मैन द्वारा देखे जा रहे विराट सपनों के पूरा हो सकने की सच्चाई का रेखांकन भी है। कॉमेडी के ताने-बाने में बनायी गयी यह फिल्म हमारे समय और समाज के सबसे खतरनाक हालात का गंभीर विमर्श है। विधु बड़े सितारों को लेकर भी फिल्म बनाते हैं लेकिन इस फिल्म से उन्होंने साबित कर दिया है कि सफलता और सार्थकता की कसौटी केवल और केवल एक अच्छी कहानी ही होती है। निर्माताओं को यह क्यों समझ नहीं आता है कि वह केवल अच्छी फिल्में बनाएं। दर्शकों को एक दिन अच्छे सिनेमा की लत लग जाएगी। दादर की एक गली में क्रिकेट खेलने वाले एक बच्चे की कहानी के माध्यम से निर्देशक ने क्रिकेट जैसे ग्लैमरस खेल के पीछे चलती घिनौनी राजनीति को भी बख्शा नहीं है। फिल्म थोड़ी लंबी हो गयी लेकिन कहानी की रोचकता में झोल नहीं आने देती। बिना हीरोईन वाली ‘फेरारी की सवारी’ में विद्या बालन ने अपने लावणी डांस से एक अजब ही जादू बिखेरा है। एक गरीब बच्चे के जज्बाती सपनों को पंख देने के लिए अपनी जान लड़ा देने वाले पिता के किरदार को शरमन जोशी ने जबर्दस्त ऊंचाई दी है। इस फिल्म से बालीवुड में उनकी गाड़ी तो निकल पड़ी है। फिल्म की सबसे बड़ी खूबी यह है कि इसका एक भी किरदार नकली नहीं लगता। शायद इस तरह की मौलिक कहानियां रचने में तीन-चार साल का वक्त लगना जायज है। कोई बात नहीं। लगे रहो विधु विनोद चोपड़ा। 

निर्माता: विधु विनोद चोपड़ा
निर्देशक: राजेश मापुस्कर
कलाकार: शरमन जोशी, बोमन ईरानी, ऋत्विक सहोरे, (चाइल्ड आर्टिस्ट)
संगीत: प्रीतम चक्रवर्ती

Saturday, June 2, 2012

राउडी राठौर


फिल्म समीक्षा 

कमाई की ख्वाहिश में ’राउडी राठौर‘

धीरेन्द्र अस्थाना

अफसोस कि कमाई भी वैसी नहीं होगी जैसी ’दबंग‘ या ’सिंघम‘ या ’वांटेड‘ या फिर ’गजनी‘ की हुई थी। बाजार की बिसात पर ’गुजारिश‘, ’ब्लैक‘ और सांवरिया‘ जैसी कालजयी फिल्में बनाने वाला एक और ’सिने योद्धा‘ पराजित हुआ। जो सिनेमा की आस हैं, जो भविष्य के सिनेमाई पाठ हैं, जो सिनेमा के शूरवीर हैं, उनमें से एक चमकते हुए नक्षत्र को आखिरकार बाजार ने लील ही तो लिया। सार्थक और बाजारू सिनेमा के रणक्षेत्र में संजयलीला भंसाली जैसा गर्वीला फिल्मकार न सिर्फ पराजित हुआ बल्कि बाजारू सिनेमा के पैरोकार के रूप में खुद को जस्टिफाई करता भी दिखा। ’गुजारिश‘ गुजर बसर के लिए नहीं थी। ’राउडी राठौर‘ गुजारे भत्ते के लिए मानी जा सकती है क्योंकि धुआंधार कमाई तो यह भी नहीं करने वाली है। एक्शन केंद्रित मसाला फिल्म है, जो सलमान खान की हिट फिल्मों के पास भी नहीं फटकती। असल में बाजारू फिल्में बनाना भी सबके बस की बात नहीं है। एक्शन हो, कॉमेडी हो या इमोशन, मूल बात है कि आपके पास कहने के लिए कोई ठीकठाक विश्वसनीय कहानी है या नहीं। ’राउठी राठौर‘ की समस्या यह है कि यहां मारधाड़ तो बड़ी भारी है लेकिन कहानी एकदम कमजोर और ओवर एक्सपोज्ड है। गांव पर गुंडे का एक छत्र दमन, हीरो का अवतार की शक्ल में प्रकट होना और अपने पराक्रम से सब कुछ दुरुस्त कर देना। इसी के बीच में नाच-गाना-आइटम और थोड़ा सा इमोशन। बाजार के नये पैरोकार संजयलीला भंसाली जरा आत्ममंथन करें कि ’राउडी राठौर‘ और ’सिंघम‘ या ’दबंग‘ या ’गजनी‘ में क्या-क्या मूलभूत फर्क है। कमर्शियल फिल्म बनाने के इरादे भर से काम नहीं चलेगा। कमर्शियल फिल्म बनाने की कला भी सीखनी पड़ेगी। राउडी तक आते-आते सोनाक्षी सिन्हा काफी बिंदास हो गयी हैं लेकिन ’दबंग‘ के थप्पड़ वाला जैसा एक भी डायलॉग यहां उन्हें नसीब नहीं हुआ। जैसा कि कमर्शियल एक्शन फिल्मों में होता है। सोनाक्षी सिन्हा भी एक ’फिलर‘ की तरह इस्तेमाल हुई हैं। उनका अपना न कोई वजूद है, न करिश्मा। पूरी फिल्म अक्षय कुमार की है, जो डबल रोल वाली पुरानी कहानी के जरिए फिल्म को पार लगाने का प्रयत्न करते नजर आते हैं। फिल्म के तथाकथित गुंडे किरदार जरूर दिलचस्प बन पड़े है। एक-दो गाने पहले ही हिट हो चुके हैं। 

निर्माता :  संजय लीला भंसाली
निर्देशन : प्रभु देवा
कलाकार : अक्षय कुमार, सोनाक्षी सिन्हा
संगीत : साजिद-वाजिद

Saturday, May 5, 2012

जन्नत-दो


फिल्म समीक्षा 

‘जन्नत-दो’ में बड़ा अंधेरा

धीरेन्द्र अस्थाना

स्त्री पुरुष संबंधों की पेचीदगी, प्यार, नफरत और स्वर्ग-नरक पर तो बहुत सारी फिल्में बनी हैं और आगे भी बनती रहेंगी। लेकिन भट्ट कैंप की हिट फिल्म ‘जन्नत’ की सीक्वेल ‘जन्नत-दो’ ने रिश्तों की जो राह पकड़ी है, वह हिंदी सिनेमा में शायद एक नयी इबारत है। परिवेश दिल्ली का है, चरित्र और लैंग्वेज दिल्ली-यूपी के हैं। हथियारों के निर्माता पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट बहुल इलाके से हैं। इन हथियारों की गैर कानूनी डिमांड और सप्लाई के तंत्र में इमरान हाशमी एक छोटा सा मोहरा है जो दिल्ली की सड़कों का मुंबइया टपोरी जैसा है। घर से बगावत करके दिल्ली आयी एक डॉक्टरनी जाह्नवी (ईशा गुप्ता) से इमरान हाशमी को मोहब्बत हो गयी। इस मोहब्बत को अर्थ और भाषा देने वाले जो गाने ‘जन्नत-दो’ में फिल्माये गये हैं, वे जन्नत की जान हैं। फिल्म की दूसरी यूएसपी उसके संवाद हैं, जिनके जरिए संजय मासूम ने न सिर्फ एक संस्कृति और माहौल को खड़ा किया है, बल्कि अलग-अलग चरित्रों को अलग-अलग परिभाषित भी किया है। लेकिन फिल्म की सबसे बड़ी और नयी विशेषता कुछ और है। यह है एसीपी प्रताप रघुवंशी (रणदीप हूडा) और सोनू दिल्ली उर्फ कुत्ती कमीनी चीज (इमरान हाशमी) के आपसी रिश्तों का द्वंद्व, पेंच और कमीनापन। इस कमीनेपन में भी लेकिन मोहब्बत की एक सतत मौजूद ऊष्मा है, जिससे इन दोनों मुख्य पात्रों की यात्रा को गति और गर्माहट मिलती है। रणदीप हूडा येन केन प्रकारेण इमरान हाशमी को अपने खबरी के तौर पर इस्तेमाल करता है। मगर यह भी ध्यान रखता है कि उस पर कोई आंच न आने पाये। कह सकते हैं कि हिंदी सिनेमा में पहली बार एक पुलिस अधिकारी और उसके खबरी के आपसी मानवीय रिश्तों की आंच पर कोई कथानक पकाया गया है। फिल्म में कई एंटी क्लाइमेक्स भी हैं जो उत्सुकता बनाये रखते हैं। रोचकता के बावजूद फिल्म लंबी हो गयी है। संपादन से थोड़ी और कसावट लाते तो बेहतर होता। ईशा गुप्ता के मन में इमरान हाशमी की इच्छा से उसकी एक बुरी छवि स्थापित की गयी है ताकि वह यादों के बोझ से मर न जाए। फिल्म का यह अंत दुखद लेकिन रचनात्मक है जो आशिक के प्रेम की गहराई को एक नयी ऊंचाई देता है। इस फिल्म को अंडरवर्ल्ड की एक और कहानी वाले नजरिये से न देखें। यह रिश्तों के एक नये अध्याय की पड़ताल और परिभाषा है। मुख्य पात्रों के अलावा बल्ली का चरित्र सहज और प्रभावी लगता है। ईशा गुप्ता को अभी बहुत सीखना है।

प्रोड्यूसर: महेश भट्ट
कलाकार: इमरान हाशमी, रणदीप हूडा, ईशा गुप्ता, आरिफ जकरिया, मनीष चौधरी
गीत: संजय मासूम, मयूर पुरी, सईद कादरी
संगीत: प्रीतम चक्रवर्ती

Saturday, April 28, 2012

तेज


फिल्म समीक्षा

सपनों के शोक गीत सी ‘तेज’

धीरेन्द्र अस्थाना

प्रियदर्शन की नयी एक्शन थ्रिलर फिल्म ‘तेज’ एक ऐसी सुपर फास्ट ट्रेन की तरह है, जिस पर सपनों के शोक गीत लदे हैं। बड़े बजट की मल्टीस्टारर फिल्म होने के बावजूद प्रियदर्शन ने इसे कहीं-कहीं इमोशनल टच देने की अपनी पुरानी अदा का भी निर्वाह किया है। मल्लिका शेरावत का आइटम नंबर ‘लैला’ वह जादू नहीं जगाता जो इस दौर के कुछ चर्चित आइटम नंबर जगाते आये हैं। इस गाने को हटा कर फिल्म की लंबाई कुछ कम की जा सकती थी। हालांकि फिल्म की पटकथा बेहद कसी हुई और निर्देशन बहुत चुस्त व चौकस है। फिल्म शुरू होने के साथ ही दर्शकों को अपनी पकड़ में ले लेती है। फिर अंत तक उत्सुकता और गति बनी रहती है। फिल्म के सारे ही कलाकार मंजे हुए हैं और लगभग सभी ने अपने-अपने किरदारों को जीवंतता और विश्वसनीयता देने की सफल कोशिश की है। कंगना रानावत हालांकि फिल्म की मुख्य हीरोइन हैं, मगर अपने एक्शन चरित्र को बेहद खूबसूरत और रोमांचक ढंग से निभाने के कारण समीरा रेड्डी दर्शकों को ज्यादा प्रभावित करती हैं। स्पीडी बाइक चलाने का समीरा का खतरनाक अंदाज रोमांच को एक नयी ऊंचाई प्रदान करता है। जायेद खान, अनिल कपूर, अजय देवगन और बोमन ईरानी ने अपने-अपने हिस्से के तनाव को सघनता से रचा है। बिना लीगल वर्क परमिट और वीजा न होने की स्थिति में लंदन में जीवन कितना डरावना हो जाता है। इस छोटे से कथ्य पर प्रियदर्शन ने एक बड़ा सा लार्जर दैन लाइफ ड्रामा खड़ा कर दिया है। अपने साथ हुई नाइंसाफी से नाराज अजय देवगन कैसे एक ट्रेन में बम रख कर लंदन की सरकार से एक बड़ी धनराशि की मांग करता है। इस प्रक्रिया में ही फिल्म की पूरी कहानी और एक्शन साथ-साथ घटित होते हैं। सपनों के देश लंदन में कैसे एक परदेसी के सपनों को पलीता लगता है। इसे व्यक्त करने वाले कुछ मार्मिक संवाद निर्देशक ने अजय देवगन से भी बुलवाये हैं और उनकी पत्नी बनी कंगना रानावत से भी। साउथ के बड़े एक्टर मोहन लाल को छोटा सा चरित्र दिया गया है जो अखरता है। एक बड़े एक्टर को इस तरह ‘वेस्ट’ नहीं करना चाहिए। शुद्ध टाइम पास फिल्म है जो उम्दा ढंग से बनायी गयी है। एक बार देखी जा सकती है। गीत- संगीत प्रभावशाली है।

निर्देशक: प्रियदर्शन
कलाकार: अनिल कपूर, अजय देवगन, जायेद खान, बोमन ईरानी, मोहन लाल, कंगना रानावत, समीरा रेड्डी
संगीत: साजिद-वाजिद

Monday, April 23, 2012

विकी डोनर


फिल्म समीक्षा

जीवन से लबरेज ‘विकी डोनर’

धीरेन्द्र अस्थाना

यह तो अजब-गजब कमाल हो गया। सोचा था, गुमनाम कलाकारों की चालू सी कॉमेडी फिल्म होगी जिसे पूरे एक सौ बाइस मिनट झेलना होगा। लेकिन यह तो ‘तनु वेड्स मनु’ या ‘तेरे बिन लादेन’ या ‘बैंड बाजा बारात’ की तर्ज पर छोटी दुकान का ऊंचा पकवान निकली। अगर इसे इस वर्ष की अब तक की सबसे बेमिसाल फिल्म कहा जाए तो भी ज्यादा नहीं होगा। शूजीत सरकार के निर्देशन ने इस छोटे बजट वाली नये कलाकारों की फिल्म को लगभग सिनेमाई पाठ में ही बदल दिया। एक बंगाली निर्देशक ने पंजाबी भाषा, बोली, खान-पान, रहन-सहन, संस्कृति, रोजगार, परिवेश यानी समूचा लाइफ स्टाइल ही जिस जिंदादिल, वास्तविक और रोचक अंदाज में पेश किया है उसके सामने बड़े-बड़े पंजाबी फिल्मी घराने बहुत कम लगते हैं। ‘स्पर्म डोनेशन’ जैसे अछूते विषय पर बनने वाली यह शायद हिंदी की पहली फिल्म भी है। निःसंतान माता-पिता की जिंदगी में औलाद का चिराग रोशन करने जैसी गंभीर कहानी को निर्देशक ने इतने हल्के-फुल्के, गुदगुदाते अंदाज में पेश किया है कि पूरी फिल्म एक प्यारा सा, सुख देने वाला अनुभव ही बन जाती है। इंटरवल तक तो अगल-बगल, आगे- पीछे की सभी कुर्सियों से युवा लड़के लड़कियों की बेलौस खिलखिलाहट ही सुनाई पड़ती रहती है। जिंदगी से लबरेज और मस्ती से लबालब फिल्म है ‘विकी डोनर।’ पैसे कमाने के लिए स्पर्म डोनेट करने का धंधा करने वाला एक नासमझ, बेकार युवक कैसे एक बड़े संसार को बेहिसाब खुशियां सौंपने का माध्यम बन जाता है, इसे निर्देशक ने 53 बच्चों और उनके मां-बाप को एक साथ एक दृश्य में उतार कर साकार किया है। ये सभी बच्चे विकी के स्पर्म से जन्मे हैं। त्रासदी यह है कि खुद इसी विकी की पत्नी मां नहीं बन पाती है। इसके बाद का रोचक हिस्सा जानने के लिए स्वयं यह फिल्म देखें। जहां तक अभिनय का मामला है तो डॉ. चड्ढा बने अन्नू कपूर की अपने जीवन की सबसे महत्वपूर्ण फिल्म यह बन गयी। दोनों युवा सितारों आयुष्मान खुराना और यमी गौतम ने संकेत दे दिया है कि वे बहुत दूर जाने वाले हैं। कहानी, निर्देशन, संगीत, संवाद, अभिनय हर स्तर पर ‘विकी डोनर’ एक जानदार-शानदार फिल्म है।

निर्देशक: शूजीत सरकार
कलाकार: आयुष्मान खुराना, यमी गौतम, अन्नू कपूर
संगीत: विश्वदीप चटर्जी

राष्ट्रीय सहारा 22 अप्रैल 2012

Monday, April 16, 2012

बिट्टू बॉस

फिल्म समीक्षा

कहानी बिखर गयी ‘बिट्टू बॉस’

धीरेन्द्र अस्थाना

पंजाबी तड़का मार के, एक साधारण से शहर के, साधारण से युवक की मजेदार सी लव स्टोरी बनाने की कोशिश की थी निर्देशक सुपवित्र बाबुल ने। लेकिन इंटरवल के बाद फिल्म को अंजाम तक पहुंचाने में कन्फ्यूजन इस कदर बढ़ा कि कहानी बिखर ही तो गयी ‘बिट्टू बॉस’ की। अनुष्का शर्मा और रणवीर सिंह की हिट फिल्म ‘बैंड बाजा बारात’ की तर्ज पर बनायी गयी ‘बिट्टू बॉस’ भी सफल हो सकती थी अगर कहानी को कायदे से साध लिया जाता। बॉलीवुड के बहुत बड़े प्रोड्यूसर कुमार मंगत पाठक की फिल्म थी इसलिए नयी कास्ट होने के बावजूद इतने सारे थियेटर भी मिल गये वरना फिल्म को थियेटरों के लाले पड़ जाते। इसे कहते हैं एक बड़ा और सुनहरा मौका चूक जाना। पुलकित सम्राट और अमिता पाठक (प्रोड्यूसर की बेटी) ने भी अगर अनुष्का-रणवीर जैसा जानदार शानदार अभिनय कर दिखाया होता तो इन दोनों का भविष्य इनके लिए कोई दूसरी स्वर्णिम इबारत लिख रहा होता। फिलहाल तो यही लगता है कि रील लाइफ का स्ट्रगलर वीडियो शूटर बिट्टू (पुलकित सम्राट) रीयल लाइफ में स्ट्रगल से जल्दी पीछा नहीं छुड़ा सकेगा। अमिता पाठक को नयी फिल्म पकड़ने से पहले अभिनय के कई पाठ संजीदगी से पढ़ने होंगे। दोनों ही युवाओं को अपनी बॉडी लैंग्वेज पर मेहनत करनी होगी। असल में अभिनय से भी ज्यादा दोष कहानी का है। शादी ब्याह का स्टार फोटोग्राफर प्रेमिका की नजरों में बड़ा और सफल आदमी बनने के लिए जिस गंदी यात्रा पर निकलता है वह तार्किक नहीं है। ब्लू फिल्म बनाने के धंधे में उतरना उसके जमीर को रास नहीं आता, यह तार्किक था। पर अचानक जिस तरह वह एक ब्लू फिल्म रैकेट का पर्दाफाश कर ऊंचाई के रास्ते पर एक आदर्श छलांग लगाता है वह पूरी तरह अवास्तविक लगता है। इस मोड़ पर पहुंच कर एक सीधी सादी सी मध्यमवर्गीय प्रेम कहानी मामूली सी कॉमेडी में बदल जाती है। पुलकित और अमिता के बीच न तो प्रेम की गहराई ही स्थापित हो पाती है और न ही दोनों के बीच के तनाव की ही व्याख्या हो पाती है। पुलकित के सहयोगी के रूप में जिस नामालूम से टैक्सी ड्राइवर को फिल्म में जगह दी गयी है उसने अपने लाजवाब अभिनय से कमाल रच दिया है - शक्ल से ऐसा नहीं लगता न (यह उस मामूली से लड़के का तकिया कलाम है)। फिल्म की उपलब्धि यही लड़का है। फिल्म के आरंभ में कुछ अभद्र और अश्लील संवाद हैं जिनकी बिल्कुल भी जरूरत नहीं थी। सेंसर को क्या होता जा रहा है?

निर्देशक: सुपवित्र बाबुल
कलाकार: पुलकित सम्राट, अमिता पाठक
संगीत: राघव सच्चर