Saturday, April 12, 2014

हाईवे

फिल्म समीक्षा

हाईवेः जिंदगी की सड़क पर निहत्थे और अकेले ’’’’

धीरेन्द्र अस्थाना

इंटरवल तक फिल्म में कुछ भी स्थापित और परिभाषित नहीं था। न कहानी, न चरित्र, न ही मंतव्य। एकाएक डर सा लगा कि क्या निर्देशक इम्तियाज अली इतनी जल्दी खत्म हो गये? लेकिन इंटरवल के तुरंत बाद इम्तियाज लौटे। प्रतिभा, सरोकार और फिल्म निर्माण के एक ज्यादा सशक्त अंदाज में। लेकिन ध्यान रहे, हाईवे इम्तियाज की पिछली फिल्मों से एकदम अलग हट कर है। यह फिल्म अपने देखे जाने के दौरान अतिरिक्त धैर्य और समझदारी की मांग करती है। यह पारंपरिक फिल्म नहीं है। यह सपने के भीतर रहता एक सपना है।  यह फंतासी के भीतर ठिठकी हुई एक और फंतासी है।यह जिंदगी की सड़क पर निहत्थे और अकेले छूट जाने की व्यथा कथा है। यह बीहड़ सामाजिक यथार्थ की आंखों में उंगली डाल कर निकाला गया विमर्श है जो स्थापित करता है कि हाईवे, जंगल, पहाड़ और वीरान खंडहरों या सुनसान ढाबों में नहीं महल सरीखे आलीशान घरों के भीतर स्त्री असुरक्षित है। स्त्री को डकैत या अपहरणकर्ता से नहीं अपने परिजनों से खतरा है। फिल्म के अंत में आलिया भट्ट कहती भी है-“अपहरण के दौरान मैं आजाद थी लेकिन घर के भीतर आ कर जेल में बंद हो गयी हूं।“ रिश्तों के नाजुक रेशों को फिल्म धीरे धीर खोलती है। आलिया को अपने मंगेतर के संग साथ में वह सुरक्षा नहीं मिलती जो वह अपने अपहरणकर्ता रणदीप हुडा के सानिध्य में पाती है। पुलिस से बचने के लिए रणदीप को मजबूरी में आलिया को किडनेप कर अपने ट्रक में भागना पड़ता है। वह फिरौती वाला किडनेपर नहीं है। वह ऐसे गिरोह का सदस्य है जो पैसे लेकर जमीन दबाने छुड़ाने का धंधा करते हैं। अपने अड्डे पर पहुंचकर अपने बॉस के जरिए उसे पता चलता है कि वह दिल्ली के सबसे बड़े रईस की बिटिया को उठा लाया है। गिरोह डर जाता है। उसे लगता है कि उसका अंत निकट है। सरगना रणदीप को फटकारता है। सरगना को इतना डरा हुआ देख बद दिमाग और गर्म मिजाज रणदीप आलिया को लेकर भाग निकलता है। साथ में दो तीन साथी भी हैं। ये लोग छुपते छुपाते पांच राज्यों से गुजरते हैं। इसी स्थूल कहानी के भीतर आलिया और रणदीप के जीवन का विद्रूप अतीत अपने कपड़े उतारता है। यहां तथाकथित निर्ममता के भीतर मानवीय उष्मा अपनी आंख चुपके से खोलती है। यहां एक क्रूर गंुड़ा आलिया जैसी युवा लडकी के सामने जार जार रोता है और अपने भीतर जाग गयी जिंदगी और स्नेह की चाह से डर डर जाता है। यहां आलिया को अपने अपहरणकर्ता से प्यार हो गया है । यह प्यार घर बसाने, शादी करने या बच्चे पालने जैसी छोटी कामनाओं से भरा हुआ नहीं है। यह आजाद रहने और आजाद रखने की गहरी इच्छा से लबरेज है। अंत में खोजी पुलिस के हाथों रणदीप मारा जाता है लेकिन घर लौटी आलिया फिर से निकल पड़ती है-पहाड़ों पर अपना स्पेस तलाशने और अपने अस्तित्व को आकार देने। गंभीर सिने प्रेमियों के लिए एक अनिवार्य फिल्म। रणदीप और आलिया का अभिनय अविस्मरणीय। रहमान का संगीत कर्णप्रिय। प्रकृति के नजारे दुर्लभ।

निर्देशकः इम्तियाज अली
कलाकारः रणदीप हुडा, आलिया भट्ट,
संगीतः ए ़आर ़ रहमान

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