फिल्म समीक्षा
बारह कहानियों की एक राशि
धीरेन्द्र अस्थाना
आशुतोष गोवारीकर आम तौर पर लंबी फिल्में ही बनाते हैं लेकिन 'व्हाट्स योर राशि' बना कर तो उन्होंने अपना ही रिकॉर्ड तोड़ दिया है। दो घंटे का सिनेमा वाले आज के समय में पौने चार घंटे की फिल्म ... 'मेरा नाम जोकर' की याद आ गयी जो चार घंटे और दो इंटरवल वाली फिल्म थी। फिल्म की एक मात्र विषता प्रियंका चोपड़ा हैं जिन्होंने बारह राशि के बारह विभिन्न किरदारों को अंजाम देने के मामले में यह विश्व रिकॉर्ड है। इससे पहले संख्या और गुणवत्ता के संदर्भ में सिर्फ संजीव कुमार को याद किया जाता है जिन्होंने फिल्म 'नया दिन नयी रात' में नौ चरि़त्र निभाये थे।
प्रियंका के कम से कम दो चरित्र ऑफ बीट हैं। एक सबसे पहला, लगभग गंवई लड़की का। दूसरा एक नाबालिग किशोरी का जो पढ़ना चाहती है लेकिन जिसका पिता पंद्रह साल की छोटी सी उम्र में ही उसका ब्याह रचा देना चाहता है। बारह राशियों की बारह कहानियां हैं जिन पर पूरे विस्तार के साथ बारह राशियों की बारह कहानियां हैं जिन पर पूरे विस्तार के साथ बारह फिल्में बनायी जा सकती थीं। निर्देशक ने बारह जिंदगियों से जुड़ी दास्तानों को एक ही फिल्म में पिरो दिया है। फिल्म तो लंबी बनी ही थी। लंबाई के ही डर से प्रत्येक कहानी को स्पर्श भर किया गया है। कुछ राशियों से जुड़ी प्रियंका के चरित्र, जीवन संघर्ष, स्वप्नों और संवेदना को गहराई और विस्तार से बुना जा सकता था। प्रियंका ने साबित किया है कि वह एक बहुआयामी और बहुमुखी प्रतिभा की धनी अदाकारा हैं। प्रियंका के जीवंत अभिनय के सामने हरमन बावेजा अशक्त नजर आते हैं। फिल्म में प्रियंका के अपोजिट सैफ अली खान होते या ऋतिक रोशन तो फिल्म में जान आ जाती। आशुतोष गोवारीकर को इस बात की बधाई देनी चाहिए कि इतनी लंबी फिल्म को कहानी, संपादन, बुनावट, दृश्यांकन आदि के विभिन्न स्तरों पर उन्होंने इतनी कुशलता से साधे रखा। आश्चर्य कि दर्शन फिल्म को बीच में छोड़ कर नहीं भागे।
कहानी के स्तर पर फिल्म में नयापन यह है कि हरमन बावेजा को दस दिन में शादी करनी है। उसके वैवाहिक विज्ञापन के जवाब में 176 लड़कियों ने आवेदन किया है इसिलए वह प्रत्येक राशि की एक लड़की से मिलना तय करता है। ये बारह मुलाकातें ही फिल्म की रोचकता को बनाए रखती हैं। फिल्म में राजेश विवेक की जासूसी वाला प्रसंग एकदम निरर्थक और उबाउ है। फिल्म का संगीत भी बहुत थका- थका और प्राचीन है। तो भी एक बार देखने लायक फिल्त तो है।
निर्देशक - आशुतोष गोवारीकर
कलाकार - हरमन बावेजा, प्रियंका चोपड़ा, दर्शन जरीवाला 'इनके कारण फिल्म गतिशील रहती है', अंजन श्रीवास्तव, राजेश विवेक।
गीत - जावेद अख्तर
संगीत - सोहेल खान
Saturday, September 26, 2009
Saturday, September 19, 2009
वांटेड
फिल्म समीक्षा
सलमान का नया अवतार: वांटेड
धीरेन्द्र अस्थाना
बहुत दिनों के बाद सिनेमाघरों में दर्शकों का जुनून और भागीदारी देखने को मिली। सहारा वन मोशन पिक्चर्स और बोनी कपूर की संयुक्त फिल्म ‘वांटेड‘ आने वाले दिनों में और ज्यादा भीड़ बटोरेगी। खतरनाक खून खराबे के बीच निर्विकार भाव से घटती सलमान खान-आयशा टकिया की प्रेम कहानी बहुत दिलचस्प और ताजगी भरी है। रोमांस और एक्शन सलमान की प्रिय अभिव्यक्तियां हैं लेकिन ‘वांटेड‘ में ये दोनों अभिव्यक्तियां शिखर पर हैं। तीन घंटे लंबी फिल्म में एक पल भी ऐसा नहीं आता कि बोरियत का अहसास हो। पूरी तरह एक्शन पैक्ड फिल्म है। फिल्म के निर्देशक प्रभु देवा हैं इसलिए फिल्म में डांस के नये नये आयाम और स्टेप्स भी देखने का सुख जुड़ जाता है। फिल्म का संपादन बहुत स्तरीय और कसावट लिये हुए है। एक भी फ्रेम ढीला-ढाला या अप्रासंगिक नहीं है। इसके लिए संपादक दिलीप देव को बधाई देनी होगी कि इतनी लंबी फिल्म में भी उन्होंने कोई झोल नहीं रहने दिया है। फिल्म का गीत-संगीत भी दिलकश और कर्णप्रिय है। सलमान के खतरनाक स्टंट और फाइट दृश्यों पर दर्शक जिस तरह ताली और सीटी बजा रहे थे वह युवाओं में उनकी लोकप्रियता का प्रतीक है। फिल्म के अंतिम दृश्य में जब अपनी जलती हुई शर्ट उतार कर सलमान अपना दमकता चमकता गठीला जिस्म दिखाते हैं और गुंडों पर कहर बन कर टूटते हैं उस वक्त तो युवाओं का समूह कुर्सियों से खड़ा होकर नाचने लग जाता है।
फिल्म के खुशगवार डांस आइटम में गोविंदा, अनिल कपूर और प्रभु देवा भी डांस के जलवे दिखाते हैं। इससे फिल्म की स्टार वेल्यू बढ़ गयी है। फिल्म में विनोद खन्ना भी अपने सशक्त अंदाज में मौजूद हैं। फिल्म का रहस्य अंत तक बरकरार रहता है। पैसा लेकर किसी का भी बर्बरता पूर्वक मर्डर करने वाले सलमान अंत में देशभक्त पुलिस आॅफीसर निकलते हैं जो अंडरवल्र्ड के खतरनाक गुर्गों का सफाया करने के काम में लगे हैं। विनोद खन्ना उन्हीं के पिता हैं जो इंटरनेशनल डाॅन गनी भाई के हाथों मारे जाते हैं। जाहिर है, अब गनी भाई को सलमान तड़पा तड़पा कर मारते हैं। दक्षिण के प्रसिद्ध कलाकार प्रकाश राज ने माफिया डाॅन के रूप में यादगार और अलहदा किरदार निभाया है। गोविंद नामदेव और महेश मांजरेकर ने अपने पुलिसिया चरित्रों के साथ न्याय किया है। तनाव, मारधाड़, नाच-गाना, मौज-मजा, रोमांस और मस्ती का एक जीवंत गुलदस्ता जैसी है ‘वांटेड‘ जिसे शुद्ध मनोरंजन की दृष्टि से बनाया गया है। अपने उद्देश्य में फिल्म सफल है। लंबे समय बाद आयशा टकिया ने भी कुछ कर दिखाने का प्रयास किया है। फिल्म में कहीं कहीं हास्य के क्षण भी हैं, जो गुदगुदाते हैं और फिल्म में ‘रिलीफ‘ की तरह आते हैं।
निर्माता: सहारा वन मोशन पिक्चर्स - बोनी कपूर
निर्देशक: प्रभु देवा
कलाकार: सलमान खान, आयशा टकिया, महेश मांजरेकर,, प्रकाश राज, विनोद खन्ना, गोविंद नामदेव, असीम मर्चेन्ट, महक चहल
संगीतकार: साजिद-वाजिद
सलमान का नया अवतार: वांटेड
धीरेन्द्र अस्थाना
बहुत दिनों के बाद सिनेमाघरों में दर्शकों का जुनून और भागीदारी देखने को मिली। सहारा वन मोशन पिक्चर्स और बोनी कपूर की संयुक्त फिल्म ‘वांटेड‘ आने वाले दिनों में और ज्यादा भीड़ बटोरेगी। खतरनाक खून खराबे के बीच निर्विकार भाव से घटती सलमान खान-आयशा टकिया की प्रेम कहानी बहुत दिलचस्प और ताजगी भरी है। रोमांस और एक्शन सलमान की प्रिय अभिव्यक्तियां हैं लेकिन ‘वांटेड‘ में ये दोनों अभिव्यक्तियां शिखर पर हैं। तीन घंटे लंबी फिल्म में एक पल भी ऐसा नहीं आता कि बोरियत का अहसास हो। पूरी तरह एक्शन पैक्ड फिल्म है। फिल्म के निर्देशक प्रभु देवा हैं इसलिए फिल्म में डांस के नये नये आयाम और स्टेप्स भी देखने का सुख जुड़ जाता है। फिल्म का संपादन बहुत स्तरीय और कसावट लिये हुए है। एक भी फ्रेम ढीला-ढाला या अप्रासंगिक नहीं है। इसके लिए संपादक दिलीप देव को बधाई देनी होगी कि इतनी लंबी फिल्म में भी उन्होंने कोई झोल नहीं रहने दिया है। फिल्म का गीत-संगीत भी दिलकश और कर्णप्रिय है। सलमान के खतरनाक स्टंट और फाइट दृश्यों पर दर्शक जिस तरह ताली और सीटी बजा रहे थे वह युवाओं में उनकी लोकप्रियता का प्रतीक है। फिल्म के अंतिम दृश्य में जब अपनी जलती हुई शर्ट उतार कर सलमान अपना दमकता चमकता गठीला जिस्म दिखाते हैं और गुंडों पर कहर बन कर टूटते हैं उस वक्त तो युवाओं का समूह कुर्सियों से खड़ा होकर नाचने लग जाता है।
फिल्म के खुशगवार डांस आइटम में गोविंदा, अनिल कपूर और प्रभु देवा भी डांस के जलवे दिखाते हैं। इससे फिल्म की स्टार वेल्यू बढ़ गयी है। फिल्म में विनोद खन्ना भी अपने सशक्त अंदाज में मौजूद हैं। फिल्म का रहस्य अंत तक बरकरार रहता है। पैसा लेकर किसी का भी बर्बरता पूर्वक मर्डर करने वाले सलमान अंत में देशभक्त पुलिस आॅफीसर निकलते हैं जो अंडरवल्र्ड के खतरनाक गुर्गों का सफाया करने के काम में लगे हैं। विनोद खन्ना उन्हीं के पिता हैं जो इंटरनेशनल डाॅन गनी भाई के हाथों मारे जाते हैं। जाहिर है, अब गनी भाई को सलमान तड़पा तड़पा कर मारते हैं। दक्षिण के प्रसिद्ध कलाकार प्रकाश राज ने माफिया डाॅन के रूप में यादगार और अलहदा किरदार निभाया है। गोविंद नामदेव और महेश मांजरेकर ने अपने पुलिसिया चरित्रों के साथ न्याय किया है। तनाव, मारधाड़, नाच-गाना, मौज-मजा, रोमांस और मस्ती का एक जीवंत गुलदस्ता जैसी है ‘वांटेड‘ जिसे शुद्ध मनोरंजन की दृष्टि से बनाया गया है। अपने उद्देश्य में फिल्म सफल है। लंबे समय बाद आयशा टकिया ने भी कुछ कर दिखाने का प्रयास किया है। फिल्म में कहीं कहीं हास्य के क्षण भी हैं, जो गुदगुदाते हैं और फिल्म में ‘रिलीफ‘ की तरह आते हैं।
निर्माता: सहारा वन मोशन पिक्चर्स - बोनी कपूर
निर्देशक: प्रभु देवा
कलाकार: सलमान खान, आयशा टकिया, महेश मांजरेकर,, प्रकाश राज, विनोद खन्ना, गोविंद नामदेव, असीम मर्चेन्ट, महक चहल
संगीतकार: साजिद-वाजिद
Saturday, September 12, 2009
बाबर
फिल्म समीक्षा
अंडरवर्ल्ड का नया अध्याय: बाबर
धीरेन्द्र अस्थाना
रामगोपाल वर्मा की फिल्म ‘सत्या‘ के बाद अंडरवर्ल्ड की सरजमीन पर फिल्में तो कई आयीं लेकिन वह कोई नया सिनेमाई अहसास नहीं दे पायीं। लंबे समय के बाद अपराध फिल्मों के नक्शे पर ‘बाबर‘ के रूप में एक नया अध्याय दर्ज हुआ है। ऐसी फिल्मों के लिए अब तक मुंबई को ही आदर्श माना जाता था। लेकिन पिछले कुछ समय से अपराध पर मुंबई का दबदबा कमजोर हुआ है। गैंगवार या जुर्म की काली दुनिया के रूप में अब उत्तर भारत पर फोकस किया जा रहा है। ‘बाबर‘ का इलाका भी कानपुर और आसपास है।
‘बाबर‘ का कथानक नया नहीं है लेकिन उसे प्रस्तुत करने का अंदाज ताजगी भरा है। फिल्म का शिल्प बहुत ताकतवर और बुनावट सधी हुई है। पूरी फिल्म एकदम अंत तक दर्शकों को बांधे रखने में सफल है। काफी समय बाद कोई इतनी तेज गति वाली फिल्म देखी है कि सांसों की आवा-जाही का भी ख्याल नहीं आता। फिल्म का शाश्वत संदेश है - जब तक अपराध के कारणों को नष्ट नहीं किया जाएगा तब तक नये नये माफिया सरगना पैदा होते रहेंगे। और कारणों को जड़ से खत्म नहीं किया जा सकता क्योंकि कारण सत्ता के गलियारों और गरीबी के नरक में बजबजा रहे हैं। असमानता से पैदा होता है अपराध। ‘बाबर‘ इसी विमर्श का अत्यंत जीवंत और विश्वसनीय पाठ पेश करती है।
अगर कोई सिनेमाई साजिश नहीं हुई और बाबर बने नवोदित एक्टर सोहम शाह को काम मिलता रहा तो वह लंबी सीढ़ियां चढ़ेगा। लड़के में दम है - लड़ने भिड़ने का भी और भावनाओं को प्रभावी तरीके व्यक्त करने का भी। फिल्म में वह तमाम मसाले हैं जो ऐसी फिल्मों के लिए जरूरी होते हैं। खून-खराबा, मारा-मारी, गाली-गलौज, नाच-गाना, राजनीति, कोर्ट-कचहरी और पुलिस। लेकिन इस सबका बेहद संतुलित कॉकटेल पेश किया है निर्देशक आशू त्रिखा ने। सोहम शाह के अलावा बाकी सब महारथी कलाकार हैं। ओम पुरी, मिथुन चक्रवर्ती, गोविंद नामदेव, टीनू आनंद, शक्ति कपूर, मुकेश तिवारी, सुशांत सिंह। सब मंजे हुए एक्टर हैं। इन सबके प्रभावशाली अभिनय ने भी फिल्म को एक लयात्मक गति देने का काम किया है। उर्वशी शर्मा का ‘आइटम डांस‘ अच्छा है। फिल्म में उसका ‘स्पेस‘ बहुत कम है। फिल्म का ‘मौला मौला‘ वाला गीत कर्णप्रिय और अर्थपूर्ण तो है ही फिल्म में घटती घटनाओं पर टिप्पणी करने की भी भूमिका निभाता है। फिल्म को देख लेना चाहिए, घाटा नहीं होगा।
निर्देशक: आशू त्रिखा
कलाकार: सोहम शाह, मिथुन चक्रवर्ती, ओम पुरी, गोविंद नामदेव, उर्वशी शर्मा, मुकेश तिवारी।
संगीतकार: आनंद राज आनंद
अंडरवर्ल्ड का नया अध्याय: बाबर
धीरेन्द्र अस्थाना
रामगोपाल वर्मा की फिल्म ‘सत्या‘ के बाद अंडरवर्ल्ड की सरजमीन पर फिल्में तो कई आयीं लेकिन वह कोई नया सिनेमाई अहसास नहीं दे पायीं। लंबे समय के बाद अपराध फिल्मों के नक्शे पर ‘बाबर‘ के रूप में एक नया अध्याय दर्ज हुआ है। ऐसी फिल्मों के लिए अब तक मुंबई को ही आदर्श माना जाता था। लेकिन पिछले कुछ समय से अपराध पर मुंबई का दबदबा कमजोर हुआ है। गैंगवार या जुर्म की काली दुनिया के रूप में अब उत्तर भारत पर फोकस किया जा रहा है। ‘बाबर‘ का इलाका भी कानपुर और आसपास है।
‘बाबर‘ का कथानक नया नहीं है लेकिन उसे प्रस्तुत करने का अंदाज ताजगी भरा है। फिल्म का शिल्प बहुत ताकतवर और बुनावट सधी हुई है। पूरी फिल्म एकदम अंत तक दर्शकों को बांधे रखने में सफल है। काफी समय बाद कोई इतनी तेज गति वाली फिल्म देखी है कि सांसों की आवा-जाही का भी ख्याल नहीं आता। फिल्म का शाश्वत संदेश है - जब तक अपराध के कारणों को नष्ट नहीं किया जाएगा तब तक नये नये माफिया सरगना पैदा होते रहेंगे। और कारणों को जड़ से खत्म नहीं किया जा सकता क्योंकि कारण सत्ता के गलियारों और गरीबी के नरक में बजबजा रहे हैं। असमानता से पैदा होता है अपराध। ‘बाबर‘ इसी विमर्श का अत्यंत जीवंत और विश्वसनीय पाठ पेश करती है।
अगर कोई सिनेमाई साजिश नहीं हुई और बाबर बने नवोदित एक्टर सोहम शाह को काम मिलता रहा तो वह लंबी सीढ़ियां चढ़ेगा। लड़के में दम है - लड़ने भिड़ने का भी और भावनाओं को प्रभावी तरीके व्यक्त करने का भी। फिल्म में वह तमाम मसाले हैं जो ऐसी फिल्मों के लिए जरूरी होते हैं। खून-खराबा, मारा-मारी, गाली-गलौज, नाच-गाना, राजनीति, कोर्ट-कचहरी और पुलिस। लेकिन इस सबका बेहद संतुलित कॉकटेल पेश किया है निर्देशक आशू त्रिखा ने। सोहम शाह के अलावा बाकी सब महारथी कलाकार हैं। ओम पुरी, मिथुन चक्रवर्ती, गोविंद नामदेव, टीनू आनंद, शक्ति कपूर, मुकेश तिवारी, सुशांत सिंह। सब मंजे हुए एक्टर हैं। इन सबके प्रभावशाली अभिनय ने भी फिल्म को एक लयात्मक गति देने का काम किया है। उर्वशी शर्मा का ‘आइटम डांस‘ अच्छा है। फिल्म में उसका ‘स्पेस‘ बहुत कम है। फिल्म का ‘मौला मौला‘ वाला गीत कर्णप्रिय और अर्थपूर्ण तो है ही फिल्म में घटती घटनाओं पर टिप्पणी करने की भी भूमिका निभाता है। फिल्म को देख लेना चाहिए, घाटा नहीं होगा।
निर्देशक: आशू त्रिखा
कलाकार: सोहम शाह, मिथुन चक्रवर्ती, ओम पुरी, गोविंद नामदेव, उर्वशी शर्मा, मुकेश तिवारी।
संगीतकार: आनंद राज आनंद
Saturday, September 5, 2009
थ्री
फिल्म समीक्षा
सफल नहीं हुआ ‘थ्री‘ का फंडा
धीरेन्द्र अस्थाना
इतनी खराब फिल्म भी नहीं है कि एक बार भी न देखी जा सके। दर्शक बटोरने के लिए विक्रम भट्ट ने ‘थ्री‘ का न्यूमरोलॉजिकल फंडा भी अपनाया था लेकिन टिकट खिड़की पर यह फंडा सफल नहीं हुआ। तीन पात्रों वाली फिल्म ‘थ्री‘ को अच्छी ओपनिंग नहीं मिल सकी। मल्टीप्लेक्स थियेटरों में किसी भी फिल्म का कोई शो तभी चलाया जाता है जब उसे देखने कम से कम छह दर्शक आएं। सिनेमेक्स, मीरा रोड में ऐन शो के वक्त एक युवा जोड़े के आ जाने से कोरम पूरा हुआ वरना ‘थ्री‘ का तीन बजे का पहला शो रद्द होने वाला था।
फिल्म में एक रहस्यमयी प्रेम कहानी कहने का अच्छा प्रयास किया गया है। फिल्म को बुना भी ढंग से गया है। कहीं कोई अश्लीलता भी नहीं है। फिल्म के संवाद सशक्त हैं जो प्रभावित करते हैं। फिल्म के तीनों पात्रों ने अपने अपने स्तर पर अच्छा अभिनय करने का प्रयत्न किया है। पूरी फिल्म में सस्पेंस भी कायम रहता है। लोकेशंस भी अच्छे हैं। गीत-संगीत भी ठीक-ठाक है। इस सबके बावजूद दर्शक फिल्म देखने नहीं पहुंचे तो इसका एक ही कारण हो सकता है कि फिल्म का सुनियोजित और व्यापक प्रचार नहीं किया गया। एक वजह यह भी रही कि इस बार एक साथ छह फिल्में रिलीज हुईं। दर्शक भ्रमित भी हुए और बंट भी गये।
आरंभ में ऐसा आभास होता है कि ‘थ्री‘ एक विवाहेतर रिश्तों पर बनी आम फिल्म है, जिसे कुछ नये अंदाज में पेश किया जा रहा है। बाद में पता चलता है कि यह प्यार के नाम पर ब्लैकमेलिंग की कहानी है जिसे आशीष चैधरी अंजाम दे रहा है। सबसे अंत में इस रहस्य से पर्दा उठता है कि नौशीन अली की करोड़ों रुपये की कोठी पर कब्जा करने के लिए पति अक्षय कपूर और तथाकथित प्रेमी आशीष चैधरी की संयुक्त साजिश है। मतलब एक स्त्री के साथ दो पुरुषों ने मिल कर ‘इमोशनल अत्याचार‘ किया है। कमीनेपन के इस क्रूर खेल में दोनों पुरुषों को अपने बौद्धिक कौशल से नौशीन परास्त कर देती है। पति नौशीन के हाथों मारा जाता है लेकिन जब आशीष अक्षय को दफना रहा होता है तब पुलिस के हाथों धर लिया जाता है। नौशीन पुलिस को फोन करके बता देती है कि आशीष उसे घायल कर के पति को मारने गया है। इस प्रकार प्यार में घायल औरत अपना इंतकाम ले लेती है और पुनः अपनी पैतृक कोठी में बच्चों को वायलिन सिखाने का काम शुरू कर देती है। इस प्रकार एक क्रूर दुनिया में वह अपना ‘स्पेस‘ बचा लेती है। दोनों पुरुष एक्टरों के मुकाबले नयी नौशीन ने ज्यादा परिपक्व, संवेदनशील और बेहतर अभिनय किया है। एक बार देखी जा सकती है यह फिल्म।
निर्माता: विक्रम भट्ट
निर्देशक: विशाल पंड्या
कलाकार: आशीष चैधरी, नौशीन अली, अक्षय कपूर
संगीत: चिरंतन भट्ट
सफल नहीं हुआ ‘थ्री‘ का फंडा
धीरेन्द्र अस्थाना
इतनी खराब फिल्म भी नहीं है कि एक बार भी न देखी जा सके। दर्शक बटोरने के लिए विक्रम भट्ट ने ‘थ्री‘ का न्यूमरोलॉजिकल फंडा भी अपनाया था लेकिन टिकट खिड़की पर यह फंडा सफल नहीं हुआ। तीन पात्रों वाली फिल्म ‘थ्री‘ को अच्छी ओपनिंग नहीं मिल सकी। मल्टीप्लेक्स थियेटरों में किसी भी फिल्म का कोई शो तभी चलाया जाता है जब उसे देखने कम से कम छह दर्शक आएं। सिनेमेक्स, मीरा रोड में ऐन शो के वक्त एक युवा जोड़े के आ जाने से कोरम पूरा हुआ वरना ‘थ्री‘ का तीन बजे का पहला शो रद्द होने वाला था।
फिल्म में एक रहस्यमयी प्रेम कहानी कहने का अच्छा प्रयास किया गया है। फिल्म को बुना भी ढंग से गया है। कहीं कोई अश्लीलता भी नहीं है। फिल्म के संवाद सशक्त हैं जो प्रभावित करते हैं। फिल्म के तीनों पात्रों ने अपने अपने स्तर पर अच्छा अभिनय करने का प्रयत्न किया है। पूरी फिल्म में सस्पेंस भी कायम रहता है। लोकेशंस भी अच्छे हैं। गीत-संगीत भी ठीक-ठाक है। इस सबके बावजूद दर्शक फिल्म देखने नहीं पहुंचे तो इसका एक ही कारण हो सकता है कि फिल्म का सुनियोजित और व्यापक प्रचार नहीं किया गया। एक वजह यह भी रही कि इस बार एक साथ छह फिल्में रिलीज हुईं। दर्शक भ्रमित भी हुए और बंट भी गये।
आरंभ में ऐसा आभास होता है कि ‘थ्री‘ एक विवाहेतर रिश्तों पर बनी आम फिल्म है, जिसे कुछ नये अंदाज में पेश किया जा रहा है। बाद में पता चलता है कि यह प्यार के नाम पर ब्लैकमेलिंग की कहानी है जिसे आशीष चैधरी अंजाम दे रहा है। सबसे अंत में इस रहस्य से पर्दा उठता है कि नौशीन अली की करोड़ों रुपये की कोठी पर कब्जा करने के लिए पति अक्षय कपूर और तथाकथित प्रेमी आशीष चैधरी की संयुक्त साजिश है। मतलब एक स्त्री के साथ दो पुरुषों ने मिल कर ‘इमोशनल अत्याचार‘ किया है। कमीनेपन के इस क्रूर खेल में दोनों पुरुषों को अपने बौद्धिक कौशल से नौशीन परास्त कर देती है। पति नौशीन के हाथों मारा जाता है लेकिन जब आशीष अक्षय को दफना रहा होता है तब पुलिस के हाथों धर लिया जाता है। नौशीन पुलिस को फोन करके बता देती है कि आशीष उसे घायल कर के पति को मारने गया है। इस प्रकार प्यार में घायल औरत अपना इंतकाम ले लेती है और पुनः अपनी पैतृक कोठी में बच्चों को वायलिन सिखाने का काम शुरू कर देती है। इस प्रकार एक क्रूर दुनिया में वह अपना ‘स्पेस‘ बचा लेती है। दोनों पुरुष एक्टरों के मुकाबले नयी नौशीन ने ज्यादा परिपक्व, संवेदनशील और बेहतर अभिनय किया है। एक बार देखी जा सकती है यह फिल्म।
निर्माता: विक्रम भट्ट
निर्देशक: विशाल पंड्या
कलाकार: आशीष चैधरी, नौशीन अली, अक्षय कपूर
संगीत: चिरंतन भट्ट
Saturday, August 29, 2009
किसान
फिल्म समीक्षा
अच्छी नीयत से बनायी गयी ‘किसान‘
धीरेन्द्र अस्थाना
अचानक ऐसा लगा जैसे हम सातवें-आठवें दशक के समय में बैठ कर ‘मेरा गांव मेरा देश‘ या ‘उपकार‘ जैसी कोई फिल्म देख रहे हैं। ‘कमीने‘, ‘देव डी‘, ‘न्यूयार्क‘ जैसी प्रयोगधर्मी और यथार्थवादी फिल्मों के इस दौर में ‘किसान‘ जैसी पुरानी शैली और भावुकता भरी फिल्म देखना एक विरल अनुभव है। इसमें कोई शक नहीं कि ‘किसान‘ को सदिच्छा और अच्छी नीयत के साथ बनाया गया है। यह महानगरों के मल्टीप्लेक्स थियेटरों के लिए बनी हुई फिल्म नहीं है। लेकिन हिंदुस्तान तो छोटे शहरों-कस्बों में ही बसता है। वहां के सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों में ‘किसान‘ चल सकती है। निर्माता सोहेल खान की इस बात के लिए तारीफ करनी पड़ेगी कि इस उत्तर आधुनिक समय में उन्होंने गांव के किसानों के शोषण और उनकी जमीन हड़पने की साजिशों को स्पर्श करने का प्रयास किया। आज के ‘युवा केंद्रित दौर‘ में किसानों की दुर्दशा पर फिल्म बनाना बड़े जिगर का काम है।
संयोग से फिल्म में सोहेल का नाम भी जिगर ही है। वह जैकी श्रॉफ के छोटे बेटे के किरदार में है जो खांटी किसान है, पिता की तौहीन बर्दाश्त नहीं कर सकता और गुस्सैल स्वभाव का है। अरबाज खान का किरदार जैकी के बड़े बेटे अमन का है जो पढ़ लिख कर आधुनिक वकील बन गया है और शहर में जा बसा है। दीया मिर्जा अरबाज की पत्नी के रोल में हैं। नौहीद साइरसी सोहेल की पत्नी के रोल में है। पंजाब के एक गांव की इस सीधी सादी फिल्म में पारंपरिक रूप से कुछ अच्छे चरित्र हैं, तो कुछ बुरे। बुरे चरित्र शहर के उद्योगपति दिलीप ताहिल का साथ देते हैं। कुछ लालच और कुछ गलतफहमियों के चलते अरबाज खान भी दिलीप ताहिल के पाले में खड़ा नजर आता है। अरबाज की गैर जानकारी में दीया मिर्जा ‘दिलीप ताहिल विरुद्ध किसान‘ केस पर काम कर रही हैं। दीया को बुरे लोग जला देते हैं। जैकी के आदेश पर सोहेल खान और उसके साथी तमाम बुरे लोगों को मार डालते हैं। गुंडों के द्वारा किसानों की हत्या करवा के आत्महत्या प्रचारित करवा देने तथा उनकी जमीनों को हड़पने के आरोप में सीबीआई दिलीप ताहिल को गिरफ्तार कर लेती है। अरबाज खान की गलतफहमी दूर होती है। बिछड़ा हुआ नाराज बेटा अपने बाप और भाई से आ मिलता है। बुराई पर अच्छाई की विजय होती है। इस कहानी में बीते समय की फिल्मों जैसा थोड़ा रोना-धोना, थोड़ी बीमारी, थोड़ा इमोशनल ड्रामा और थोड़ी मारा-मारी का तड़का भी है।
जैकी सिख किसान के वेष में जीवंत और प्रभावी लगते हैं। सोहेल खान ने प्रतिबद्ध बेटे का किरदार शानदार ढंग से निभाया है। फिल्म में कुल सोलह गायकों ने अपनी आवाज दी है। भावुक दर्शक फिल्म देख सकते हैं।
निर्माता: सोहेल खान
निर्देशक: पुनीत सीरा
कलाकार: जैकी श्रॉफ, सोहेल खान, अरबाज खान, दीया मिर्जा, नौहीद सायरसी, दिलीप ताहिल
संगीतकार: डब्बू मलिक
अच्छी नीयत से बनायी गयी ‘किसान‘
धीरेन्द्र अस्थाना
अचानक ऐसा लगा जैसे हम सातवें-आठवें दशक के समय में बैठ कर ‘मेरा गांव मेरा देश‘ या ‘उपकार‘ जैसी कोई फिल्म देख रहे हैं। ‘कमीने‘, ‘देव डी‘, ‘न्यूयार्क‘ जैसी प्रयोगधर्मी और यथार्थवादी फिल्मों के इस दौर में ‘किसान‘ जैसी पुरानी शैली और भावुकता भरी फिल्म देखना एक विरल अनुभव है। इसमें कोई शक नहीं कि ‘किसान‘ को सदिच्छा और अच्छी नीयत के साथ बनाया गया है। यह महानगरों के मल्टीप्लेक्स थियेटरों के लिए बनी हुई फिल्म नहीं है। लेकिन हिंदुस्तान तो छोटे शहरों-कस्बों में ही बसता है। वहां के सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों में ‘किसान‘ चल सकती है। निर्माता सोहेल खान की इस बात के लिए तारीफ करनी पड़ेगी कि इस उत्तर आधुनिक समय में उन्होंने गांव के किसानों के शोषण और उनकी जमीन हड़पने की साजिशों को स्पर्श करने का प्रयास किया। आज के ‘युवा केंद्रित दौर‘ में किसानों की दुर्दशा पर फिल्म बनाना बड़े जिगर का काम है।
संयोग से फिल्म में सोहेल का नाम भी जिगर ही है। वह जैकी श्रॉफ के छोटे बेटे के किरदार में है जो खांटी किसान है, पिता की तौहीन बर्दाश्त नहीं कर सकता और गुस्सैल स्वभाव का है। अरबाज खान का किरदार जैकी के बड़े बेटे अमन का है जो पढ़ लिख कर आधुनिक वकील बन गया है और शहर में जा बसा है। दीया मिर्जा अरबाज की पत्नी के रोल में हैं। नौहीद साइरसी सोहेल की पत्नी के रोल में है। पंजाब के एक गांव की इस सीधी सादी फिल्म में पारंपरिक रूप से कुछ अच्छे चरित्र हैं, तो कुछ बुरे। बुरे चरित्र शहर के उद्योगपति दिलीप ताहिल का साथ देते हैं। कुछ लालच और कुछ गलतफहमियों के चलते अरबाज खान भी दिलीप ताहिल के पाले में खड़ा नजर आता है। अरबाज की गैर जानकारी में दीया मिर्जा ‘दिलीप ताहिल विरुद्ध किसान‘ केस पर काम कर रही हैं। दीया को बुरे लोग जला देते हैं। जैकी के आदेश पर सोहेल खान और उसके साथी तमाम बुरे लोगों को मार डालते हैं। गुंडों के द्वारा किसानों की हत्या करवा के आत्महत्या प्रचारित करवा देने तथा उनकी जमीनों को हड़पने के आरोप में सीबीआई दिलीप ताहिल को गिरफ्तार कर लेती है। अरबाज खान की गलतफहमी दूर होती है। बिछड़ा हुआ नाराज बेटा अपने बाप और भाई से आ मिलता है। बुराई पर अच्छाई की विजय होती है। इस कहानी में बीते समय की फिल्मों जैसा थोड़ा रोना-धोना, थोड़ी बीमारी, थोड़ा इमोशनल ड्रामा और थोड़ी मारा-मारी का तड़का भी है।
जैकी सिख किसान के वेष में जीवंत और प्रभावी लगते हैं। सोहेल खान ने प्रतिबद्ध बेटे का किरदार शानदार ढंग से निभाया है। फिल्म में कुल सोलह गायकों ने अपनी आवाज दी है। भावुक दर्शक फिल्म देख सकते हैं।
निर्माता: सोहेल खान
निर्देशक: पुनीत सीरा
कलाकार: जैकी श्रॉफ, सोहेल खान, अरबाज खान, दीया मिर्जा, नौहीद सायरसी, दिलीप ताहिल
संगीतकार: डब्बू मलिक
Saturday, August 22, 2009
सिकंदर
फिल्म समीक्षा
सिकंदर: बचपन की आंख से आतंक
धीरेन्द्र अस्थाना
लीक से हटकर, अर्थपूर्ण सिनेमा बनाने वालों की जमात में आतंक एक प्रिय विषय है। निर्देशक पीयूष झा ने अपनी फिल्म ‘सिकंदर‘ में आतंकवाद की इबादत को बचपन की आंख से रेखांकित करने की कोशिश की है। बस एक यही बात इसे अन्य आतंकवाद आधारित फिल्मों से अलग करती है। बहुत जमाने के बाद ‘सिकंदर‘ के माध्यम से समकालीन और यथार्थवादी कश्मीर को देखने का मौका मिला। आतंकवाद और फौज के अनुशासन के बीच सहमा हुआ कश्मीर और उस कश्मीर में धीरे-धीरे बड़े होते बच्चे। आतंक की वर्णमाला सीखते हुए। आतंकवाद का निशाना बनते बच्चे, आतंकवाद के लिए इस्तेमाल होते बच्चे, आतंक को अपनाते बच्चे। यही ‘सिकंदर‘ फिल्म का बुनियादी कथ्य है जिसे बहुत सादगी और सहजता के साथ कहने का प्रयास किया गया है। पता नहीं क्यों दर्शक ऐसी फिल्में देखना पसंद नहीं करते। मीरा रोड के सिनेमैक्स में इस फिल्म के शाम साढ़े तीन बजे के पहले शो में कुल छह दर्शक मौजूद थे। सातवां यह समीक्षक। किसी गंभीर विषय से टकराने को जल्दी राजी नहीं होते हिंदी के दर्शक। आतंकवाद भी ‘न्यूयार्क‘ जैसे ग्लैमरस अंदाज में पेश किया जाए तो ही दर्शक सिनेमा हॉल में जाना पसंद करते हैं। जो भी हो धारा के विरुद्ध जा कर भी जिरह तो जारी रहेगी। रहनी भी चाहिए। काफिला बनते-बनते बनता है।
फिल्म के दो मुख्य किरदार परजान दस्तूर (सिकंदर) और आयशा कपूर (नसरीन) जैसे किशोर कलाकार हैं। फिल्म ‘कुछ कुछ होता है‘ का बच्चा परजान अब 18 वर्ष का किशोर है। फिल्म ‘ब्लैक‘ में रानी मुखर्जी के बचपन का रोल निभाने वाली आयशा अब किशोरी है। आने वाले समय में आयशा सिनेमा का अहम् हस्ताक्षर बनेगी ऐसी आहटें उसके ‘सिकंदर‘ के अभिनय से आ रही हैं। दोनों बच्चे एक ही स्कूल में, एक ही क्लास में पढ़ते हैं। एक दिन स्कूल जाते समय सुनसान पगडंडी पर परजान को एक पिस्तौल पड़ी मिलती है जिसे उस दिन तो वह छुपा देता है लेकिन अगले दिन उठा कर अपने बैग में रख लेता है। यह पिस्तौल कैसे अनायास और अनजाने में उसका पूरा जीवन ही बदल देती है इस बात को निर्देशक ने विभिन्न उपकथाओं और घटनाओं के जरिए उद्घाटित किया है। दहशतगर्द लोग कैसे अपने जुनून के रास्ते पर बच्चों को उतार देने में भी परहेज नहीं करते, यह भी ‘सिकंदर‘ का एक मुख्य कथ्य है। ‘सिकंदर‘ का माइनस पॉइंट यह है कि एक प्रभावी कथ्य के बावजूद यह उतना प्रभावित नहीं करती जितना कर सकती थी। शायद इसकी ‘मेकिंग‘ में कोई गंभीर कमी है। गीत-संगीत बेहतर है।
निर्माता: सुधीर मिश्रा
निर्देशक: पीयूष झा
कलाकार: आर. माधवन, परजान दस्तूर, आयशा कपूर, संजय सूरी, अरुणोदय सिंह
संगीत: शंकर-अहसान-लॉय, संदेश शांडिल्य
सिकंदर: बचपन की आंख से आतंक
धीरेन्द्र अस्थाना
लीक से हटकर, अर्थपूर्ण सिनेमा बनाने वालों की जमात में आतंक एक प्रिय विषय है। निर्देशक पीयूष झा ने अपनी फिल्म ‘सिकंदर‘ में आतंकवाद की इबादत को बचपन की आंख से रेखांकित करने की कोशिश की है। बस एक यही बात इसे अन्य आतंकवाद आधारित फिल्मों से अलग करती है। बहुत जमाने के बाद ‘सिकंदर‘ के माध्यम से समकालीन और यथार्थवादी कश्मीर को देखने का मौका मिला। आतंकवाद और फौज के अनुशासन के बीच सहमा हुआ कश्मीर और उस कश्मीर में धीरे-धीरे बड़े होते बच्चे। आतंक की वर्णमाला सीखते हुए। आतंकवाद का निशाना बनते बच्चे, आतंकवाद के लिए इस्तेमाल होते बच्चे, आतंक को अपनाते बच्चे। यही ‘सिकंदर‘ फिल्म का बुनियादी कथ्य है जिसे बहुत सादगी और सहजता के साथ कहने का प्रयास किया गया है। पता नहीं क्यों दर्शक ऐसी फिल्में देखना पसंद नहीं करते। मीरा रोड के सिनेमैक्स में इस फिल्म के शाम साढ़े तीन बजे के पहले शो में कुल छह दर्शक मौजूद थे। सातवां यह समीक्षक। किसी गंभीर विषय से टकराने को जल्दी राजी नहीं होते हिंदी के दर्शक। आतंकवाद भी ‘न्यूयार्क‘ जैसे ग्लैमरस अंदाज में पेश किया जाए तो ही दर्शक सिनेमा हॉल में जाना पसंद करते हैं। जो भी हो धारा के विरुद्ध जा कर भी जिरह तो जारी रहेगी। रहनी भी चाहिए। काफिला बनते-बनते बनता है।
फिल्म के दो मुख्य किरदार परजान दस्तूर (सिकंदर) और आयशा कपूर (नसरीन) जैसे किशोर कलाकार हैं। फिल्म ‘कुछ कुछ होता है‘ का बच्चा परजान अब 18 वर्ष का किशोर है। फिल्म ‘ब्लैक‘ में रानी मुखर्जी के बचपन का रोल निभाने वाली आयशा अब किशोरी है। आने वाले समय में आयशा सिनेमा का अहम् हस्ताक्षर बनेगी ऐसी आहटें उसके ‘सिकंदर‘ के अभिनय से आ रही हैं। दोनों बच्चे एक ही स्कूल में, एक ही क्लास में पढ़ते हैं। एक दिन स्कूल जाते समय सुनसान पगडंडी पर परजान को एक पिस्तौल पड़ी मिलती है जिसे उस दिन तो वह छुपा देता है लेकिन अगले दिन उठा कर अपने बैग में रख लेता है। यह पिस्तौल कैसे अनायास और अनजाने में उसका पूरा जीवन ही बदल देती है इस बात को निर्देशक ने विभिन्न उपकथाओं और घटनाओं के जरिए उद्घाटित किया है। दहशतगर्द लोग कैसे अपने जुनून के रास्ते पर बच्चों को उतार देने में भी परहेज नहीं करते, यह भी ‘सिकंदर‘ का एक मुख्य कथ्य है। ‘सिकंदर‘ का माइनस पॉइंट यह है कि एक प्रभावी कथ्य के बावजूद यह उतना प्रभावित नहीं करती जितना कर सकती थी। शायद इसकी ‘मेकिंग‘ में कोई गंभीर कमी है। गीत-संगीत बेहतर है।
निर्माता: सुधीर मिश्रा
निर्देशक: पीयूष झा
कलाकार: आर. माधवन, परजान दस्तूर, आयशा कपूर, संजय सूरी, अरुणोदय सिंह
संगीत: शंकर-अहसान-लॉय, संदेश शांडिल्य
Saturday, August 8, 2009
अज्ञात
फिल्म समीक्षा
क्या लिखें इस ‘अज्ञात‘ पर?
धीरेन्द्र अस्थाना
अगर राम गोपाल वर्मा ने ‘कोहरा‘, ‘बीस साल बाद‘, ‘वह कौन थी‘ या ‘गुमनाम‘ जैसी किसी पुरानी फिल्म का रिमेक बना दिया होता तो भी दर्शकों को ज्यादा रोमांच दे सकते थे। फिल्म ‘भूत‘ के बाद उनका डर का कारोबार चल नहीं पा रहा है। बेहतर होगा कि वह ‘सत्या‘ और ‘सरकार राज‘ जैसी फिल्में ही बनाया करें। उनकी रोमांचक फिल्म ‘अज्ञात‘ का एकमात्र रोमांच श्रीलंका के घने और रहस्यमय जंगलों की यात्रा भर है। बाकी तो सब कुछ ज्ञात हो जाता है इस ‘अज्ञात‘ में। जिस फिल्म की कहानी भी अज्ञात हो उस पर भला क्या लिखा जा सकता है?
एक नकचढ़े एक्टर और प्रसिद्ध अभिनेत्री के साथ फिल्म की एक यूनिट जंगलों में शूटिंग के लिए जाती है। थोड़ी देर बाद यूनिट का पथ प्रदर्शक एक स्थानीय जंगलवासी किसी रहस्यमय शक्ति के हाथों मारा जाता है। फौरन अनुमान लग जाता है कि हीरो-हीरोईन के अलावा बाकी सब एक-एक करके मारे जाएंगे। ठीक यही होता है। कुछ शक्ति के हाथों मार दिये जाते हैं, कोई अपनी बेबसी से निराश होकर खुद मर जाता है। दो चरित्रों को उनकी तात्कालिक दुश्मनी ले डूबती है। अंत में बचती है रामू की प्रिय हीरोईन निशा कोठारी जो इस फिल्म में नये नाम प्रियंका के साथ मौजूद है। दूसरा बचता है दक्षिण का युवा हीरो नितिन रेड्डी जो जंचता है और जिसकी दक्षिण की ‘मार्केट वेल्यू‘ को मुट्ठी में लेने के लिए फिल्म को तमिल-तेलुगू में भी डब किया गया है। खबर है कि पांच करोड़ के छोटे बजट में बनी यह फिल्म अपना पैसा दक्षिण के बाजार से वसूलने में कामयाब भी हो गयी है। अब कुछ भी लिखते रहें हिंदी वाले! क्या फर्क पड़ता है? फिल्म के अंत में ‘अज्ञात-2‘ की घोषणा कर दी गयी है। जाहिर है जिंदा बची प्रियंका और नितिन रेड्डी को फिल्म के सीक्वेल में भी काम मिलना तय हो गया है।
नितिन में काफी संभावनाएं हैं। बॉलीवुड की भीड़ में खोने से बच गया तो जीवन में कोई करिश्मा भी हो सकता है। भाव व्यक्त करने आते हैं नितिन को। सिर्फ बदन दिखा कर कोई लड़की बॉलीवुड में नहीं टिक सकी है आज तक। यह तथ्य प्रियंका को समझ लेना चाहिए वह भी समय रहते और थोड़ा बहुत ध्यान अभिनय सीखने पर केंद्रित करना चाहिए। जंगलवासी सेतु के किरदार में जॉय फर्नांडिस के अलावा अन्य कोई कलाकार प्रभावित नहीं करता। सुरजोदीप घोष की सिनेमेटोग्राफी जरूर आकर्षक और दिलकश है। वह हमारी स्मृतियों में जंगल को जीवंत करने में सफल होते हैं। रामगोपाल वर्मा जैसा भाग्य बॉलीवुड में बहुत कम लोगों को नसीब है। उन्हें यह भाग्य व्यर्थ की फिल्मों में नहीं गंवाना चाहिए।
निर्देशक: राम गोपाल वर्मा
कलाकार: नितिन रेड्डी, प्रियंका कोठारी, गौतम रोडे, रसिका दुग्गल, जॉय फर्नांडिस।
संगीत: इमरान, बापी, टुटुल
क्या लिखें इस ‘अज्ञात‘ पर?
धीरेन्द्र अस्थाना
अगर राम गोपाल वर्मा ने ‘कोहरा‘, ‘बीस साल बाद‘, ‘वह कौन थी‘ या ‘गुमनाम‘ जैसी किसी पुरानी फिल्म का रिमेक बना दिया होता तो भी दर्शकों को ज्यादा रोमांच दे सकते थे। फिल्म ‘भूत‘ के बाद उनका डर का कारोबार चल नहीं पा रहा है। बेहतर होगा कि वह ‘सत्या‘ और ‘सरकार राज‘ जैसी फिल्में ही बनाया करें। उनकी रोमांचक फिल्म ‘अज्ञात‘ का एकमात्र रोमांच श्रीलंका के घने और रहस्यमय जंगलों की यात्रा भर है। बाकी तो सब कुछ ज्ञात हो जाता है इस ‘अज्ञात‘ में। जिस फिल्म की कहानी भी अज्ञात हो उस पर भला क्या लिखा जा सकता है?
एक नकचढ़े एक्टर और प्रसिद्ध अभिनेत्री के साथ फिल्म की एक यूनिट जंगलों में शूटिंग के लिए जाती है। थोड़ी देर बाद यूनिट का पथ प्रदर्शक एक स्थानीय जंगलवासी किसी रहस्यमय शक्ति के हाथों मारा जाता है। फौरन अनुमान लग जाता है कि हीरो-हीरोईन के अलावा बाकी सब एक-एक करके मारे जाएंगे। ठीक यही होता है। कुछ शक्ति के हाथों मार दिये जाते हैं, कोई अपनी बेबसी से निराश होकर खुद मर जाता है। दो चरित्रों को उनकी तात्कालिक दुश्मनी ले डूबती है। अंत में बचती है रामू की प्रिय हीरोईन निशा कोठारी जो इस फिल्म में नये नाम प्रियंका के साथ मौजूद है। दूसरा बचता है दक्षिण का युवा हीरो नितिन रेड्डी जो जंचता है और जिसकी दक्षिण की ‘मार्केट वेल्यू‘ को मुट्ठी में लेने के लिए फिल्म को तमिल-तेलुगू में भी डब किया गया है। खबर है कि पांच करोड़ के छोटे बजट में बनी यह फिल्म अपना पैसा दक्षिण के बाजार से वसूलने में कामयाब भी हो गयी है। अब कुछ भी लिखते रहें हिंदी वाले! क्या फर्क पड़ता है? फिल्म के अंत में ‘अज्ञात-2‘ की घोषणा कर दी गयी है। जाहिर है जिंदा बची प्रियंका और नितिन रेड्डी को फिल्म के सीक्वेल में भी काम मिलना तय हो गया है।
नितिन में काफी संभावनाएं हैं। बॉलीवुड की भीड़ में खोने से बच गया तो जीवन में कोई करिश्मा भी हो सकता है। भाव व्यक्त करने आते हैं नितिन को। सिर्फ बदन दिखा कर कोई लड़की बॉलीवुड में नहीं टिक सकी है आज तक। यह तथ्य प्रियंका को समझ लेना चाहिए वह भी समय रहते और थोड़ा बहुत ध्यान अभिनय सीखने पर केंद्रित करना चाहिए। जंगलवासी सेतु के किरदार में जॉय फर्नांडिस के अलावा अन्य कोई कलाकार प्रभावित नहीं करता। सुरजोदीप घोष की सिनेमेटोग्राफी जरूर आकर्षक और दिलकश है। वह हमारी स्मृतियों में जंगल को जीवंत करने में सफल होते हैं। रामगोपाल वर्मा जैसा भाग्य बॉलीवुड में बहुत कम लोगों को नसीब है। उन्हें यह भाग्य व्यर्थ की फिल्मों में नहीं गंवाना चाहिए।
निर्देशक: राम गोपाल वर्मा
कलाकार: नितिन रेड्डी, प्रियंका कोठारी, गौतम रोडे, रसिका दुग्गल, जॉय फर्नांडिस।
संगीत: इमरान, बापी, टुटुल
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