फिल्म समीक्षा
’नो प्रॉब्लम‘ में प्रॉब्लम ही प्रॉब्लम
धीरेन्द्र अस्थाना
सबसे ज्यादा दुख यह देख कर हुआ कि पांच ऐसे सितारे जिनकी फिल्में देखना दर्शक पसंद करते हैं और जो अपने अभिनय का लोहा मनवा चुके हैं, उनके सामने ऐसी क्या प्रॉब्लम थी, जो उन्हें ’नो प्रॉब्लम‘ जैसी फिल्म में काम करना पड़ा। दूसरा दुख यह देखकर हुआ कि जिस निर्देशक को कॉमेडी का सरताज कहा जाता है वह अपनी नयी फिल्म में कॉमेडी का ककहरा भी नहीं रच सका। तीसरा दुख शाश्वत और फिल्म इंडस्ट्री के जन्म से चला आ रहा है। वह यह कि एक से एक काबिल और कल्पनाशील निर्देशक नायाब पटकथाएं लेकर दर-दर भटकते रहते हैं मगर उन्हें निर्माता नहीं मिलते तो नहीं ही मिलते। जिसके संपर्क हैं, नाम है या खानदान है वह कुछ भी बना कर करोड़ों रुपये पानी में गला देता है। इस फिल्म में भी पैसा पानी की तरह बहाया गया है और पानी में ही बहाया गया है। क्या ग्लैमर और वैभव की इस फिल्म नगरी में अस्तित्व को लेकर सचमुच इतनी गहरी असुरक्षा है कि बड़ा से बड़ा एक्टर भी अपनी इमेज के बारे में कुछ नहीं सोचता, बस काम करने लगता है, फिर चाहे पटकथा कैसी भी हो! और ’नो प्रॉब्लम‘ में तो कोई कहानी ही नहीं है। फिल्म की कोई सीधी, सुचिंतित पटकथा नहीं है। वह कहीं से भी कैसे भी घटने लगती है। और किसी भी घटना का कोई औचित्य या तर्क भी नहीं है। संजय दत्त और अक्षय खन्ना दो लुटेरे हैं। परेश रावल एक गांव का बैंक मैनेजर है। दोनों परेश का बैंक लूटकर डरबन भाग जाते हैं। परेश उन्हें ढूंढने डरबन आता है। सुनील शेट्टी एक बड़ा लुटेरा व गैगस्टर है। अनिल कपूर एक सीनियर पुलिस इंस्पेक्टर है जिसकी पत्नी सुष्मिता सेन को दिन में एक बार पागलपन का दौरा पड़ता है। इस दौरे के दौरान वह अनिल कपूर को मारने का प्रयत्न करती है। कंगना रानावत सुष्मिता की छोटी बहन है जो अक्षय खन्ना को पसंद करती है। दोनों पुलिस कमिश्नर की बेटियां हैं। नीतू चन्द्रा सुनील शेट्टी के साथ है। इस कथा विहीन फिल्म में चंद नकली परिस्थितियां खड़ी करके दर्शकों को हंसाने का जबरन प्रयास किया गया है। फिल्म में अधनंगी लड़कियों की भरमार है। डांस है, ड्रामा है, एक्शन है, कॉमेडी है, गाना है, लेकिन सब कुछ सिर्फ तानाबाना है। इस ताने बाने से कथ्य नदारद है, तथ्य नदारद है और लक्ष्य नदारद है। फिल्म के सभी पात्र विदूषकों के चोले में हैं। सब के सब मंजे हुए कलाकार हैं और अपनी तरफ से हंसाने का भरपूर प्रयत्न भी करते हैं लेकिन हंसने का भी तो एक तर्क और कारण होता है। जब वह कारण ही नहीं है तो दर्शक क्यों हंसेगा? जहां-जहां हंसी का कार्य-कारण तत्व उपस्थित होता है। वहां-वहां दर्शक न सिर्फ हंसते हैं, बल्कि खुलकर हंसते हैं। हंसाने की इस भूमिका का सबसे अच्छा निर्वाह परेश रावल ने ही किया है। एक अच्छी, सुचिंतित, तार्किक पटकथा के अभाव में कैसे कुछ बेहतरीन सितारे अपने सफर में प्रॉब्लम खड़ी कर लेते हैं, इसका दिलचस्प उदाहरण है ’नो प्रॉब्लम।‘
निर्देशक: अनीस बज्मी
कलाकार: अनिल कपूर, संजय दत्त, अक्षय खन्ना, सुनील शेट्टी, परेश रावल, सुष्मिता सेन, कंगना रानावत, नीतू चंद्रा, शक्ति कपूर
संगीत: साजिद-वाजिद, प्रीतम, आनंद राज आनंद
Saturday, December 11, 2010
Saturday, December 4, 2010
रक्तचरित्र-दो
फिल्म समीक्षा
राजनीति का वर्गचरित्र: रक्तचरित्र-दो
धीरेन्द्र अस्थाना
अपनी पिछली फिल्म ‘रक्तचरित्र‘ में रामगोपाल वर्मा ने हिंसा का एक वैचारिक पाठ पेश करने की कोशिश की थी। इस पाठ का निहितार्थ यह था कि दलित और वंचित, सर्वहारा किस्म की जनता पर अत्याचार हद से ज्यादा बढ़ जाता है तो वह निरंकुश राजसत्ता के विरुद्ध हथियार उठाने से भी नहीं चूकती। एक प्रकार से रामू का यह सिनेमाई पाठ अतिवादी वाम राजनीति की सीमाओं को स्पर्श करता नजर आता था। इस पाठ के भीतर से रामू एक नया अध्याय लोकतांत्रिक राजनीति का निकाल कर लाये थे जिसका प्रतिनिधित्व उन्होंने विवेक ओबेराय से करवाया था - उसे राजनीति में उतार कर। दुश्मनों को मिटा कर, राजनीति के विशाल बरगद की छांव में विवेक ओबेराय सत्ता सुख में सराबोर है। यह थी ‘रक्त चरित्र‘ की पटकथा।
’रक्तचरित्र-दो‘ में आरम्भ के लगभग बीस मिनट तक पहले भाग का ट्रेलर दिखाने के बाद फिल्म का अगला भाग शुरू होता है, सूर्या की एंट्री से। अपने पिता की हत्या का बदला लेने के लिए विवेक के हाथों सूर्या के खानदान का विनाश हुआ था। नये भाग में वैचारिक सरसराहट दूर-दूर तक नहीं है। यहां सत्ता के विरुद्ध दबी कुचली जनता का प्रतिशोध सिरे से नदारद है। यहां सिर्फ और सिर्फ एक अंधा बदला और उसे व्याख्यायित करने वाली एक हिंसक पटकथा है। इस पटकथा के नायक सूर्या हैं, खलनायक होने के बावजूद। और इस बार खलनायक के रोल में हैं विवेक ओबेराय, जो पहले पार्ट में नायक थे। पिछली बार राजनीति ने अपने हित में विवेक ओबेराय के क्रोध को भुनाया था। इस बार राजनीति सूर्या के क्रोध का इस्तेमाल करती है। राजनीति और हिंसक प्रतिरोध की यह दुरभिसंधि (गठजोड़) ही सत्ता का वर्ग चरित्र है। इस बार विवेक ओबेराय मारा जाता है और सूर्या जेल से छूटने की प्रतीक्षा में है। कोई आश्चर्य नहीं कि ’रक्तचरित्र-तीन‘ भी बने जिसमें विवेक ओबेराय का बेटा (जो दिखा दिया गया है) सूर्या का वध करता नजर आए। हिंसा-प्रतिहिंसा और और हिंसा। हिंसा की बहती धारा में गले-गले तक डूबे हिन्दी के व्यावसायिक सिनेमा का यह समकालीन और उत्तर आधुनिक आख्यान है। अगर भयावह खून खराबा, वीभत्स हत्याएं, बनैली राजनीति का नसें चटखाता शोर आपको लुभाता है तो तत्काल यह फिल्म देख आइए। एक अंधे गुस्से में छटपटाते युवक के हाहाकार को सूर्या ने ओजस्वी अभिव्यक्ति दी है। पहले पार्ट के मुकाबले इस बार शत्रुघ्न सिन्हा ज्यादा परिपक्व राजनेता के किरदार में हैं और प्रभावित भी करते हैं। फिल्म का गीत संगीत चूंकि कथा और घटनाओं को परिभाषित करने के लिए इस्तेमाल हुआ है इसलिए अच्छा तो लगता है लेकिन याद रहने वाला नहीं है। निर्देशन कसा हुआ है।
निर्देशक: राम गोपाल वर्मा
कलाकार: शत्रुध्न सिन्हा, विवेक ओबेराय, सूर्या, प्रियमणि, अनुपम श्याम, जरीना वहाब
संगीत: धरम संदीप, कोहिनूर मुखर्जी, अमर देसाई, सुखविंदर सिंह
राजनीति का वर्गचरित्र: रक्तचरित्र-दो
धीरेन्द्र अस्थाना
अपनी पिछली फिल्म ‘रक्तचरित्र‘ में रामगोपाल वर्मा ने हिंसा का एक वैचारिक पाठ पेश करने की कोशिश की थी। इस पाठ का निहितार्थ यह था कि दलित और वंचित, सर्वहारा किस्म की जनता पर अत्याचार हद से ज्यादा बढ़ जाता है तो वह निरंकुश राजसत्ता के विरुद्ध हथियार उठाने से भी नहीं चूकती। एक प्रकार से रामू का यह सिनेमाई पाठ अतिवादी वाम राजनीति की सीमाओं को स्पर्श करता नजर आता था। इस पाठ के भीतर से रामू एक नया अध्याय लोकतांत्रिक राजनीति का निकाल कर लाये थे जिसका प्रतिनिधित्व उन्होंने विवेक ओबेराय से करवाया था - उसे राजनीति में उतार कर। दुश्मनों को मिटा कर, राजनीति के विशाल बरगद की छांव में विवेक ओबेराय सत्ता सुख में सराबोर है। यह थी ‘रक्त चरित्र‘ की पटकथा।
’रक्तचरित्र-दो‘ में आरम्भ के लगभग बीस मिनट तक पहले भाग का ट्रेलर दिखाने के बाद फिल्म का अगला भाग शुरू होता है, सूर्या की एंट्री से। अपने पिता की हत्या का बदला लेने के लिए विवेक के हाथों सूर्या के खानदान का विनाश हुआ था। नये भाग में वैचारिक सरसराहट दूर-दूर तक नहीं है। यहां सत्ता के विरुद्ध दबी कुचली जनता का प्रतिशोध सिरे से नदारद है। यहां सिर्फ और सिर्फ एक अंधा बदला और उसे व्याख्यायित करने वाली एक हिंसक पटकथा है। इस पटकथा के नायक सूर्या हैं, खलनायक होने के बावजूद। और इस बार खलनायक के रोल में हैं विवेक ओबेराय, जो पहले पार्ट में नायक थे। पिछली बार राजनीति ने अपने हित में विवेक ओबेराय के क्रोध को भुनाया था। इस बार राजनीति सूर्या के क्रोध का इस्तेमाल करती है। राजनीति और हिंसक प्रतिरोध की यह दुरभिसंधि (गठजोड़) ही सत्ता का वर्ग चरित्र है। इस बार विवेक ओबेराय मारा जाता है और सूर्या जेल से छूटने की प्रतीक्षा में है। कोई आश्चर्य नहीं कि ’रक्तचरित्र-तीन‘ भी बने जिसमें विवेक ओबेराय का बेटा (जो दिखा दिया गया है) सूर्या का वध करता नजर आए। हिंसा-प्रतिहिंसा और और हिंसा। हिंसा की बहती धारा में गले-गले तक डूबे हिन्दी के व्यावसायिक सिनेमा का यह समकालीन और उत्तर आधुनिक आख्यान है। अगर भयावह खून खराबा, वीभत्स हत्याएं, बनैली राजनीति का नसें चटखाता शोर आपको लुभाता है तो तत्काल यह फिल्म देख आइए। एक अंधे गुस्से में छटपटाते युवक के हाहाकार को सूर्या ने ओजस्वी अभिव्यक्ति दी है। पहले पार्ट के मुकाबले इस बार शत्रुघ्न सिन्हा ज्यादा परिपक्व राजनेता के किरदार में हैं और प्रभावित भी करते हैं। फिल्म का गीत संगीत चूंकि कथा और घटनाओं को परिभाषित करने के लिए इस्तेमाल हुआ है इसलिए अच्छा तो लगता है लेकिन याद रहने वाला नहीं है। निर्देशन कसा हुआ है।
निर्देशक: राम गोपाल वर्मा
कलाकार: शत्रुध्न सिन्हा, विवेक ओबेराय, सूर्या, प्रियमणि, अनुपम श्याम, जरीना वहाब
संगीत: धरम संदीप, कोहिनूर मुखर्जी, अमर देसाई, सुखविंदर सिंह
Saturday, November 27, 2010
ब्रेक के बाद
फिल्म समीक्षा
जिंदगी ‘ब्रेक के बाद‘
धीरेन्द्र अस्थाना
नये समय की प्रोफेशनल, बिंदास, क्षण में जीने वाली खुशमिजाज युवा पीढ़ी को देखकर तो कतई नहीं लगता कि वह दीपिका पादुकोन की तरह उलझी हुई, कन्फ्यूज्ड और हताश है। निर्माता कुणाल कोहली की फिल्म ’ब्रेक के बाद‘ में आलिया (दीपिका पादुकोन) का चरित्र ऐसा ही है। दीपिका के बरक्स इमरान खान का चरित्र ज्यादा सहज, तार्किक और विश्वसनीय लगता है। फिल्म की कहानी चूंकि जीवन से नहीं उठायी गयी है इसलिए दर्शकों के गले से नीचे भी नहीं उतरती है। अनेक युवा दर्शक सिनेमा हाल में बैठे कह रहे थे-ऐसा नहीं होता बॉस। निर्देशक दानिश असलम की दुविधा पूरी फिल्म में पग-पग पर दिखाई पड़ती है। वह शायद खुद को ही यह नहीं समझा पाये कि फिल्म में वह कहना क्या चाहते हैं? इसलिए दर्शक भी नहीं समझ पाये कि वह कोई लव स्टोरी देख रहे हैं या संबंधों के विखंडन पर कुछ पढ़ रहे हैं? यह नयी पीढ़ी का प्यार को लेकर कोई असमंजस है या नया पाठ? यह रिश्तों से पलायन है या करियर को लेकर कन्फ्यूजन? ‘ब्रेक के बाद‘ में कुछ भी स्थापित और परिभाषित नहीं होता। फिल्म को केवल और केवल दीपिका पादुकोन के अभिनय और प्रसून जोशी के ताजगी भरे गीतों के लिए देखा जा सकता है। संगीत के दीवानों को प्रसून जोशी के रूप में नये समय का गुलजार मिला है। विशाल-शेखर का संगीत भी भावप्रवण है। इमरान खान अच्छे लगते हैं, लेकिन वह आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं। उनकी संवाद अदायगी, हाव-भाव, बॉडी लैंग्वेज उनकी पहली फिल्म ’जाने तू या जाने ना‘ पर ही ठहरी हुई है। आगे जाना है तो उन्हें ग्रो करना होगा जैसे उनके कई समकालीन युवा सितारे कर रहे हैं। दीपिका पादुकोन जरूर अपनी प्रत्येक नयी फिल्म में कदम दर कदम आगे बढ़ रही हैं। जैसा चरित्र उन्हें दिया गया है उसके साथ उन्होंने न्याय किया है। वह दीपिका न रहकर आलिया खान ही हो जाती हैं। अभिनय के पाठ में इसे ही कायांतरण कहा जाता है। अपनी जिद और चाहत के सामने सब कुछ को तुच्छ और द्वितीय मानने वाली भ्रमित लड़की का रोल उन्होंने पूरी शिद्दत से अदा किया है। लेकिन रियल लाइफ में ऐसा नहीं होता कि ’ब्रेक के बाद‘ भी इतनी आसानी से रिश्ते विवाह में बदल जाएं। कहीं-कहीं पर फिल्म में ’लव आज कल‘ के चिराग भी टिमटिमाते हैं। उसमे भी दीपिका थी लेकिन वह ज्यादा विश्वसनीय और परिपक्व फिल्म थी। अगर ’ब्रेक के बाद‘ में फोकस सिर्फ करियर और प्यार के द्वंद पर केंद्रित रखा जाता तो कुछ अलग ही निकल कर आ सकता था- नये समय का सच।
निर्देशक: दानिश असलम
कलाकार: इमरान खान, दीपिका पादुकोन, शर्मीला टैगोर, नवीन निश्चल, शहाना गोस्वामी, युधिष्ठर उर्स
गीत: प्रसून जोशी, विशाल डडलानी
संगीत: विशाल-शेखर
जिंदगी ‘ब्रेक के बाद‘
धीरेन्द्र अस्थाना
नये समय की प्रोफेशनल, बिंदास, क्षण में जीने वाली खुशमिजाज युवा पीढ़ी को देखकर तो कतई नहीं लगता कि वह दीपिका पादुकोन की तरह उलझी हुई, कन्फ्यूज्ड और हताश है। निर्माता कुणाल कोहली की फिल्म ’ब्रेक के बाद‘ में आलिया (दीपिका पादुकोन) का चरित्र ऐसा ही है। दीपिका के बरक्स इमरान खान का चरित्र ज्यादा सहज, तार्किक और विश्वसनीय लगता है। फिल्म की कहानी चूंकि जीवन से नहीं उठायी गयी है इसलिए दर्शकों के गले से नीचे भी नहीं उतरती है। अनेक युवा दर्शक सिनेमा हाल में बैठे कह रहे थे-ऐसा नहीं होता बॉस। निर्देशक दानिश असलम की दुविधा पूरी फिल्म में पग-पग पर दिखाई पड़ती है। वह शायद खुद को ही यह नहीं समझा पाये कि फिल्म में वह कहना क्या चाहते हैं? इसलिए दर्शक भी नहीं समझ पाये कि वह कोई लव स्टोरी देख रहे हैं या संबंधों के विखंडन पर कुछ पढ़ रहे हैं? यह नयी पीढ़ी का प्यार को लेकर कोई असमंजस है या नया पाठ? यह रिश्तों से पलायन है या करियर को लेकर कन्फ्यूजन? ‘ब्रेक के बाद‘ में कुछ भी स्थापित और परिभाषित नहीं होता। फिल्म को केवल और केवल दीपिका पादुकोन के अभिनय और प्रसून जोशी के ताजगी भरे गीतों के लिए देखा जा सकता है। संगीत के दीवानों को प्रसून जोशी के रूप में नये समय का गुलजार मिला है। विशाल-शेखर का संगीत भी भावप्रवण है। इमरान खान अच्छे लगते हैं, लेकिन वह आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं। उनकी संवाद अदायगी, हाव-भाव, बॉडी लैंग्वेज उनकी पहली फिल्म ’जाने तू या जाने ना‘ पर ही ठहरी हुई है। आगे जाना है तो उन्हें ग्रो करना होगा जैसे उनके कई समकालीन युवा सितारे कर रहे हैं। दीपिका पादुकोन जरूर अपनी प्रत्येक नयी फिल्म में कदम दर कदम आगे बढ़ रही हैं। जैसा चरित्र उन्हें दिया गया है उसके साथ उन्होंने न्याय किया है। वह दीपिका न रहकर आलिया खान ही हो जाती हैं। अभिनय के पाठ में इसे ही कायांतरण कहा जाता है। अपनी जिद और चाहत के सामने सब कुछ को तुच्छ और द्वितीय मानने वाली भ्रमित लड़की का रोल उन्होंने पूरी शिद्दत से अदा किया है। लेकिन रियल लाइफ में ऐसा नहीं होता कि ’ब्रेक के बाद‘ भी इतनी आसानी से रिश्ते विवाह में बदल जाएं। कहीं-कहीं पर फिल्म में ’लव आज कल‘ के चिराग भी टिमटिमाते हैं। उसमे भी दीपिका थी लेकिन वह ज्यादा विश्वसनीय और परिपक्व फिल्म थी। अगर ’ब्रेक के बाद‘ में फोकस सिर्फ करियर और प्यार के द्वंद पर केंद्रित रखा जाता तो कुछ अलग ही निकल कर आ सकता था- नये समय का सच।
निर्देशक: दानिश असलम
कलाकार: इमरान खान, दीपिका पादुकोन, शर्मीला टैगोर, नवीन निश्चल, शहाना गोस्वामी, युधिष्ठर उर्स
गीत: प्रसून जोशी, विशाल डडलानी
संगीत: विशाल-शेखर
Saturday, November 20, 2010
गुजारिश
फिल्म समीक्षा
जिंदगी से जंग की ’गुजारिश‘
धीरेन्द्र अस्थाना
अगर कोई सिने प्रेमी किसी कारणवश यह फिल्म नहीं देखता है तो वह एक अविस्मरणीय सिनेमाई अनुभव से वंचित रह जाएगा। संजय लीला भंसाली के अब तक के सिनेमाई करियर का यह सबसे मजबूत और चमकदार मील का पत्थर है। हर कलाकृति बाजार का भी ताज बने यह जरूरी नहीं है, लेकिन कोई कृति जब अपने क्षेत्र की मिसाल बन जाए तो अद्वितीय कहलाती है। ’गुजारिश‘ एक अद्वितीय फिल्म है और ऋतिक रोशन ने फिल्म में अपने बहुआयामी तथा संवेदनशील अभिनय से एक जादुई लोक का निर्माण कर दिया है। इतनी कम उम्र में ऋतिक ने इतना अधिक विस्मयकारी अभिनय कर हतप्रभ कर दिया है। अगर अमिताभ बच्चन अभिनय की पाठशाला हैं तो इस फिल्म के बाद ऋतिक रोशन अभिनय का अनिवार्य पाठ बन गये हैं। जादू ऐश्वर्या राय बच्चन ने भी जगाया है। सिर्फ अपनी आंखों और भाव भंगिमा से ऐश ने पूरी फिल्म को ही परिभाषित कर दिया है। अगर अगले वर्ष तमाम बड़े पुरस्कार ’गुजारिश‘ के लिए घोषित हों तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। अभिनय, तकनीक, सिनेमेटोग्राफी, गीत, संगीत, कोरियोग्राफी, पटकथा, कथा, संवाद, संपादन प्रत्येक मोर्चे पर ‘गुजारिश‘ एक सशक्त तथा मुकम्मल फिल्म है जो जिंदगी से टूटकर मोहब्बत करने की अपील करती है। अगर जिंदगी का नाम एक ’चौतरफा अंधकार‘ है तो यह फिल्म जिंदगी से जंग करने की ’गुजारिश‘ करती है। इसके बावजूद कि अपनी नारकीय बीमारी से त्रस्त होकर ऋतिक कोर्ट से इच्छा मृत्यु की अपील करता है, फिल्म का अंतिम संदेश यही है कि जिंदगी बहुत ही खूबसूरत है। इस जिंदगी से सिर्फ और सिर्फ प्यार करो। यह एक ऐसे अद्भुत जादूगर की कहानी है जो अपनी शोहरत और वैभव के शिखर पर एक षड्यंत्रकारी दुर्घटना का शिकार हो अपाहिज हो जाता है। अपनी दुखद जिंदगी के इस बोझिल समय में उसके साथ सिर्फ तीन चार लोग रह जाते हैं। एक नर्स ऐश्वर्या राय बच्चन, एक वकील शेरनाज पटेल, एक डॉक्टर सुहेल सेठ और बाद में जादू सीखने का इच्छुक एक शागिर्द आदित्य राय कपूर। इन चार लोगों के साथ एक चार बाई छह के बिस्तर पर बारह साल गुजारने वाले शख्स की कारुणिक कहानी को इतना विराट कैनवास देकर संजय लीला भंसाली ने करिश्मा कर दिया है। एक साफ सुथरी, तार्किक, मार्मिक और सहज फिल्म है ’गुजारिश‘ जो जिंदगी के साज पर प्यार का नगमा छेड़ती है। अवश्य देखें।
निर्देशन: संजय लीला भंसाली
कलाकार: ऋतिक रोशन, ऐश्वर्या राय, आदित्य राय कपूर, शेरनाज पटेल, सुहेल सेठ
गीत: एएम तुराज, विभु पुरी
संगीत: संजय लीला भंसाली
जिंदगी से जंग की ’गुजारिश‘
धीरेन्द्र अस्थाना
अगर कोई सिने प्रेमी किसी कारणवश यह फिल्म नहीं देखता है तो वह एक अविस्मरणीय सिनेमाई अनुभव से वंचित रह जाएगा। संजय लीला भंसाली के अब तक के सिनेमाई करियर का यह सबसे मजबूत और चमकदार मील का पत्थर है। हर कलाकृति बाजार का भी ताज बने यह जरूरी नहीं है, लेकिन कोई कृति जब अपने क्षेत्र की मिसाल बन जाए तो अद्वितीय कहलाती है। ’गुजारिश‘ एक अद्वितीय फिल्म है और ऋतिक रोशन ने फिल्म में अपने बहुआयामी तथा संवेदनशील अभिनय से एक जादुई लोक का निर्माण कर दिया है। इतनी कम उम्र में ऋतिक ने इतना अधिक विस्मयकारी अभिनय कर हतप्रभ कर दिया है। अगर अमिताभ बच्चन अभिनय की पाठशाला हैं तो इस फिल्म के बाद ऋतिक रोशन अभिनय का अनिवार्य पाठ बन गये हैं। जादू ऐश्वर्या राय बच्चन ने भी जगाया है। सिर्फ अपनी आंखों और भाव भंगिमा से ऐश ने पूरी फिल्म को ही परिभाषित कर दिया है। अगर अगले वर्ष तमाम बड़े पुरस्कार ’गुजारिश‘ के लिए घोषित हों तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। अभिनय, तकनीक, सिनेमेटोग्राफी, गीत, संगीत, कोरियोग्राफी, पटकथा, कथा, संवाद, संपादन प्रत्येक मोर्चे पर ‘गुजारिश‘ एक सशक्त तथा मुकम्मल फिल्म है जो जिंदगी से टूटकर मोहब्बत करने की अपील करती है। अगर जिंदगी का नाम एक ’चौतरफा अंधकार‘ है तो यह फिल्म जिंदगी से जंग करने की ’गुजारिश‘ करती है। इसके बावजूद कि अपनी नारकीय बीमारी से त्रस्त होकर ऋतिक कोर्ट से इच्छा मृत्यु की अपील करता है, फिल्म का अंतिम संदेश यही है कि जिंदगी बहुत ही खूबसूरत है। इस जिंदगी से सिर्फ और सिर्फ प्यार करो। यह एक ऐसे अद्भुत जादूगर की कहानी है जो अपनी शोहरत और वैभव के शिखर पर एक षड्यंत्रकारी दुर्घटना का शिकार हो अपाहिज हो जाता है। अपनी दुखद जिंदगी के इस बोझिल समय में उसके साथ सिर्फ तीन चार लोग रह जाते हैं। एक नर्स ऐश्वर्या राय बच्चन, एक वकील शेरनाज पटेल, एक डॉक्टर सुहेल सेठ और बाद में जादू सीखने का इच्छुक एक शागिर्द आदित्य राय कपूर। इन चार लोगों के साथ एक चार बाई छह के बिस्तर पर बारह साल गुजारने वाले शख्स की कारुणिक कहानी को इतना विराट कैनवास देकर संजय लीला भंसाली ने करिश्मा कर दिया है। एक साफ सुथरी, तार्किक, मार्मिक और सहज फिल्म है ’गुजारिश‘ जो जिंदगी के साज पर प्यार का नगमा छेड़ती है। अवश्य देखें।
निर्देशन: संजय लीला भंसाली
कलाकार: ऋतिक रोशन, ऐश्वर्या राय, आदित्य राय कपूर, शेरनाज पटेल, सुहेल सेठ
गीत: एएम तुराज, विभु पुरी
संगीत: संजय लीला भंसाली
Monday, November 1, 2010
नक्षत्र
फिल्म समीक्षा
इस ‘नक्षत्र‘ के दर्शक चार
धीरेन्द्र अस्थाना
मल्टीप्लेक्स में जाकर फिल्म देखना बहुत महंगा शौक हो गया है इसलिए दर्शक अब कोई भी फिल्म नहीं देखते। मोहन सावलकर की फिल्म के साथ भी दर्शकों ने यही रवैया अपनाया। उनकी ‘नक्षत्र‘ को देखने दर्शक सिनेमाघरों में नहीं पहुंचे। लेखक ने यह फिल्म केवल तीन अन्य दर्शकों के साथ देखी। आठ करोड़ में बनी ‘नक्षत्र‘ के दर्शक चार। सवाल कम बजट का नहीं है। कम बजट में ‘भेजा फ्राई‘ और ‘देव डी‘ जैसी सुपर हिट तथा अर्थपूर्ण फिल्में भी बनती हैं। दो नये युवा कलाकारों शुभ तथा सबीना को इंट्रोड्यूस करने वाली ‘नक्षत्र‘ की कहानी बेजान, निर्देशन थका हुआ और पटकथा धीमी तथा लड़खड़ाती हुई है। दोनों नये कलाकार अपने अभिनय से कोई उम्मीद नहीं जगाते। लेकिन बहुत दिनों बाद पर्दे पर मिलिंद सोमन का ‘एक्शन‘ देखना अच्छा लगा। इस फिल्म से हो सकता है कि मिलिंद का पुनर्जन्म हो जाए। वह क्राइम ब्रांच के इंस्पेक्टर बने हैं जिसमें उनका साथ दिया है नीरज कुमार ने। अनुपम खेर विलेन के रोल में हैं। फिल्म में उनकी मौजूदगी यह घोषणा करती है कि एक समय के बाद शायद पैसा पाने के लिए कोई भी रोल करना मजबूरी बन जाता है। फिल्म की एकमात्र विशेषता उसका कला निर्देशन है। आर्ट डायरेक्टर संतोष प्रजापति के बनाए कुछ सेट कलात्मक और दिलचस्प हैं। विशेष रूप से चाईना क्रीक में बनाया गया जानवरों की एक डॉक्टर का आवास और अस्पताल। फिल्म का नायक एक दृश्य में बुरी तरह घायल हो कर यहां पहुंचता है। फिल्म के पहले हिस्से में लगता है कि यह शायद बॉलीवुड में ‘स्ट्रगल‘ कर रहे एक लेखक की कहानी है। इस स्ट्रगल के दौरान दो चार अच्छे प्रसंग जुटाये गये हैं लेकिन बाद में कहानी ‘यू टर्न‘ ले लेती है। अब मामला ये है कि चार फिल्म निर्माताओं ने लेखक से एक पटकथा लिखवा कर, उसके जरिए एक नायाब हीरों का हार चुरा लिया है। इस हार की चोरी के आरोप में फिल्म का हीरो फंस गया है। कुछ अविश्वसनीय सूत्रों के जरिए वह एक एक कर चारों प्रोड्यूसर तक पहुंचता है लेकिन क्रमशः चारों ही प्रोड्यूसर कत्ल कर दिए जाते हैं। चौथे प्रोड्यूसर के कत्ल होने से कुछ पहले यह राज खुल जाता है कि असली हीरो चोर तो खुद अनुपम खेर हैं जिनकी छवि एक दानवीर शहंशाह जैसी है। फिल्म मुंबई और बैंकॉक के बीच बेवजह आवाजाही करती रहती है। अनुपम खेर मुंबई में रहते हैं लेकिन उनका निवास बैंकॉक की लोकेशन पर है। इसी तरह फिल्म का हीरो दिल्ली से मुंबई आकर स्ट्रगल कर रहा है। लेकिन कई फिल्म कंपनियों की लोकेशन बैंकॉक में शूट हुई हैं। ‘नक्षत्र‘ सन् 2010 की फिल्म है लेकिन उसे फिल्माने का निर्देशकीय नजरिया 1950 के समय जैसा है। इस ‘नक्षत्र‘ से दूर रहने में ही समझदारी है।
निर्देशक: मोहन सावलकर
कलाकार: शुभ, सबीना, मिलिंद सोमन, अनुपम खेर
संगीत: डीजे शेजवुड, समीर सेन, हैरी आनंद
इस ‘नक्षत्र‘ के दर्शक चार
धीरेन्द्र अस्थाना
मल्टीप्लेक्स में जाकर फिल्म देखना बहुत महंगा शौक हो गया है इसलिए दर्शक अब कोई भी फिल्म नहीं देखते। मोहन सावलकर की फिल्म के साथ भी दर्शकों ने यही रवैया अपनाया। उनकी ‘नक्षत्र‘ को देखने दर्शक सिनेमाघरों में नहीं पहुंचे। लेखक ने यह फिल्म केवल तीन अन्य दर्शकों के साथ देखी। आठ करोड़ में बनी ‘नक्षत्र‘ के दर्शक चार। सवाल कम बजट का नहीं है। कम बजट में ‘भेजा फ्राई‘ और ‘देव डी‘ जैसी सुपर हिट तथा अर्थपूर्ण फिल्में भी बनती हैं। दो नये युवा कलाकारों शुभ तथा सबीना को इंट्रोड्यूस करने वाली ‘नक्षत्र‘ की कहानी बेजान, निर्देशन थका हुआ और पटकथा धीमी तथा लड़खड़ाती हुई है। दोनों नये कलाकार अपने अभिनय से कोई उम्मीद नहीं जगाते। लेकिन बहुत दिनों बाद पर्दे पर मिलिंद सोमन का ‘एक्शन‘ देखना अच्छा लगा। इस फिल्म से हो सकता है कि मिलिंद का पुनर्जन्म हो जाए। वह क्राइम ब्रांच के इंस्पेक्टर बने हैं जिसमें उनका साथ दिया है नीरज कुमार ने। अनुपम खेर विलेन के रोल में हैं। फिल्म में उनकी मौजूदगी यह घोषणा करती है कि एक समय के बाद शायद पैसा पाने के लिए कोई भी रोल करना मजबूरी बन जाता है। फिल्म की एकमात्र विशेषता उसका कला निर्देशन है। आर्ट डायरेक्टर संतोष प्रजापति के बनाए कुछ सेट कलात्मक और दिलचस्प हैं। विशेष रूप से चाईना क्रीक में बनाया गया जानवरों की एक डॉक्टर का आवास और अस्पताल। फिल्म का नायक एक दृश्य में बुरी तरह घायल हो कर यहां पहुंचता है। फिल्म के पहले हिस्से में लगता है कि यह शायद बॉलीवुड में ‘स्ट्रगल‘ कर रहे एक लेखक की कहानी है। इस स्ट्रगल के दौरान दो चार अच्छे प्रसंग जुटाये गये हैं लेकिन बाद में कहानी ‘यू टर्न‘ ले लेती है। अब मामला ये है कि चार फिल्म निर्माताओं ने लेखक से एक पटकथा लिखवा कर, उसके जरिए एक नायाब हीरों का हार चुरा लिया है। इस हार की चोरी के आरोप में फिल्म का हीरो फंस गया है। कुछ अविश्वसनीय सूत्रों के जरिए वह एक एक कर चारों प्रोड्यूसर तक पहुंचता है लेकिन क्रमशः चारों ही प्रोड्यूसर कत्ल कर दिए जाते हैं। चौथे प्रोड्यूसर के कत्ल होने से कुछ पहले यह राज खुल जाता है कि असली हीरो चोर तो खुद अनुपम खेर हैं जिनकी छवि एक दानवीर शहंशाह जैसी है। फिल्म मुंबई और बैंकॉक के बीच बेवजह आवाजाही करती रहती है। अनुपम खेर मुंबई में रहते हैं लेकिन उनका निवास बैंकॉक की लोकेशन पर है। इसी तरह फिल्म का हीरो दिल्ली से मुंबई आकर स्ट्रगल कर रहा है। लेकिन कई फिल्म कंपनियों की लोकेशन बैंकॉक में शूट हुई हैं। ‘नक्षत्र‘ सन् 2010 की फिल्म है लेकिन उसे फिल्माने का निर्देशकीय नजरिया 1950 के समय जैसा है। इस ‘नक्षत्र‘ से दूर रहने में ही समझदारी है।
निर्देशक: मोहन सावलकर
कलाकार: शुभ, सबीना, मिलिंद सोमन, अनुपम खेर
संगीत: डीजे शेजवुड, समीर सेन, हैरी आनंद
Saturday, October 23, 2010
रक्त चरित्र
फिल्म समीक्षा
माफिया स्टाइल में क्रांति: रक्त चरित्र
धीरेन्द्र अस्थाना
बहुत दिनों के बाद राम गोपाल वर्मा ने ऐसी फिल्म बनायी है जो उनके सिनेमाई करियर को समृद्ध करती है। समझ नहीं आता कि जब राम गोपाल ‘सत्या‘, ‘सरकार‘ और ‘रक्त चरित्र‘ जैसी फिल्में बना सकते हैं तो वह बीच-बीच में कुछ निरर्थक और उबाऊ फिल्में क्यों बना देते हैं। अंडरवर्ल्ड रामू का चहेता विषय है। ’रक्त चरित्र‘ को भी उन्होंने हालांकि माफिया स्टाइल में ही बनाया है लेकिन इस बार विषय ’नक्सली हिंसा: कारण और निवारण‘ के इर्द-गिर्द घूमता है। यह संभवतः हिन्दी की पहली फिल्म है जो न सिर्फ दो भागों में एक साथ बनी है बल्कि दूसरे भाग के रिलीज होने की तारीख भी पहले भाग के अंत में करती है। घोषणा के अनुसार ’रक्त चरित्र-दो‘ लगभग एक महीने बाद यानी 19 नवंबर को रिलीज होगी। आंध्र प्रदेश के सुदूर इलाकों में राज सत्ता और धन शक्ति के नापाक, निरंकुश तथा खतरनाक गठजोड़ गरीब जनता पर कैसे जुल्म ढा रहे हैं, इसी की पृष्ठभूमि पर रामू हिंसा के विरुद्ध प्रतिहिंसा का पाठ रचते हैं। लेकिन इस प्रतिहिंसा को न तो तार्किक ठहराया जा सकता है न ही महिमा मंडित किया जा सकता है। इसलिए लोकतांत्रिक भाषा और रास्ते का इस्तेमाल करते हुए अपने क्रांतिकारी आख्यान में रामू सिस्टम बदलने के लिए सिस्टम का अंग बनने पर जोर देते हैं। रामू की विशेषता है कि जब वह अपनी शैली का सिनेमा बनाते हैं तो उनके कलाकार परिस्थितियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। वह कहानी की सतह से उठते हुए नजर आते हैं। ’रक्त चरित्र‘ में भी विवेक ओबेराय, सुशांत सिंह तथा अभिमन्यु सिंह हिंसा और प्रतिहिंसा के हरकारे बन कर ही उभरते हैं। इतनी ज्यादा और वैविध्यपूर्ण हिंसा भी लंबे समय बाद पर्दे पर उतरी है। शीषर्क गीत में फिल्म को नये समय की महाभारत कहा गया है। प्रकाश झा की ’राजनीति‘ को भी नये दौर की महाभारत से जोड़ा गया था। लेकिन मूलतः दोनों ही फिल्मों की व्याख्या देश के मौजूदा राजनैतिक परिदृश्य की तह में जाकर ही की जा सकती है। फिल्म का गीत संगीत फिल्म को गति देने के साथ-साथ उसकी कथा का बखान भी करता चलता है। सबसे बड़ी बात, पूरी फिल्म शुरू से अंत तक बांधे रखती है। फिल्म में शत्रुघ्न सिन्हा शिवाजी नामक दक्षिण के सुपर स्टार और राजनेता के किरदार में अच्छे लगे हैं। उनका संवाद ’वाक इज ओवर‘ लोकप्रिय हो सकता है। इस फिल्म से विवेक ओबेराय का सिनेभाई पुनर्जन्म हुआ है। यकीनन देखने लायक फिल्म है।
निर्देशक: राम गोपाल वर्मा
कलाकार: शत्रुघ्न सिन्हा, विवेक ओबेराय, सुशांत सिंह, अभिमन्यु सिंह, राजेंद्र गुप्ता, आशीष विद्यार्थी, प्रियामणि
संगीत: सुखविंदर सिंह/बापी टुटुल
माफिया स्टाइल में क्रांति: रक्त चरित्र
धीरेन्द्र अस्थाना
बहुत दिनों के बाद राम गोपाल वर्मा ने ऐसी फिल्म बनायी है जो उनके सिनेमाई करियर को समृद्ध करती है। समझ नहीं आता कि जब राम गोपाल ‘सत्या‘, ‘सरकार‘ और ‘रक्त चरित्र‘ जैसी फिल्में बना सकते हैं तो वह बीच-बीच में कुछ निरर्थक और उबाऊ फिल्में क्यों बना देते हैं। अंडरवर्ल्ड रामू का चहेता विषय है। ’रक्त चरित्र‘ को भी उन्होंने हालांकि माफिया स्टाइल में ही बनाया है लेकिन इस बार विषय ’नक्सली हिंसा: कारण और निवारण‘ के इर्द-गिर्द घूमता है। यह संभवतः हिन्दी की पहली फिल्म है जो न सिर्फ दो भागों में एक साथ बनी है बल्कि दूसरे भाग के रिलीज होने की तारीख भी पहले भाग के अंत में करती है। घोषणा के अनुसार ’रक्त चरित्र-दो‘ लगभग एक महीने बाद यानी 19 नवंबर को रिलीज होगी। आंध्र प्रदेश के सुदूर इलाकों में राज सत्ता और धन शक्ति के नापाक, निरंकुश तथा खतरनाक गठजोड़ गरीब जनता पर कैसे जुल्म ढा रहे हैं, इसी की पृष्ठभूमि पर रामू हिंसा के विरुद्ध प्रतिहिंसा का पाठ रचते हैं। लेकिन इस प्रतिहिंसा को न तो तार्किक ठहराया जा सकता है न ही महिमा मंडित किया जा सकता है। इसलिए लोकतांत्रिक भाषा और रास्ते का इस्तेमाल करते हुए अपने क्रांतिकारी आख्यान में रामू सिस्टम बदलने के लिए सिस्टम का अंग बनने पर जोर देते हैं। रामू की विशेषता है कि जब वह अपनी शैली का सिनेमा बनाते हैं तो उनके कलाकार परिस्थितियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। वह कहानी की सतह से उठते हुए नजर आते हैं। ’रक्त चरित्र‘ में भी विवेक ओबेराय, सुशांत सिंह तथा अभिमन्यु सिंह हिंसा और प्रतिहिंसा के हरकारे बन कर ही उभरते हैं। इतनी ज्यादा और वैविध्यपूर्ण हिंसा भी लंबे समय बाद पर्दे पर उतरी है। शीषर्क गीत में फिल्म को नये समय की महाभारत कहा गया है। प्रकाश झा की ’राजनीति‘ को भी नये दौर की महाभारत से जोड़ा गया था। लेकिन मूलतः दोनों ही फिल्मों की व्याख्या देश के मौजूदा राजनैतिक परिदृश्य की तह में जाकर ही की जा सकती है। फिल्म का गीत संगीत फिल्म को गति देने के साथ-साथ उसकी कथा का बखान भी करता चलता है। सबसे बड़ी बात, पूरी फिल्म शुरू से अंत तक बांधे रखती है। फिल्म में शत्रुघ्न सिन्हा शिवाजी नामक दक्षिण के सुपर स्टार और राजनेता के किरदार में अच्छे लगे हैं। उनका संवाद ’वाक इज ओवर‘ लोकप्रिय हो सकता है। इस फिल्म से विवेक ओबेराय का सिनेभाई पुनर्जन्म हुआ है। यकीनन देखने लायक फिल्म है।
निर्देशक: राम गोपाल वर्मा
कलाकार: शत्रुघ्न सिन्हा, विवेक ओबेराय, सुशांत सिंह, अभिमन्यु सिंह, राजेंद्र गुप्ता, आशीष विद्यार्थी, प्रियामणि
संगीत: सुखविंदर सिंह/बापी टुटुल
Saturday, October 16, 2010
आक्रोश
फिल्म समीक्षा
बाहुबलियों का जंगलराज: आक्रोश
धीरेन्द्र अस्थाना
जब कभी प्रियदर्शन के भीतर का सरोकारों वाला निर्देशक जागता है तो दर्शकों को एक गंभीर और सामाजिक मंतव्यों से जुड़ी फिल्म देखने को मिलती है। वह सिर्फ कॉमेडी के ही सरताज नहीं विचारों के भी हरकारे हैं। उनकी नयी फिल्म ’आक्रोश‘ महानगरों के खुशगवार हालात से दूर उन बीहड़ इलाकों की टोह लेती है जहां आज भी बाहुबलियों का जंगलराज कायम है और जहां ताकत, वैभव तथा उच्चकुलीय अभियान के सामने सामान्य जन निहत्था और निरुपाय छोड़ दिया गया है। बैक ड्राप के रूप में प्रियदर्शन ने ’आक्रोश‘ में ऑनर किलिंग‘ का ताना-बाना खड़ा किया है, लेकिन असल में उनकी मूल चिंता उस साधारण, वंचित, दलित और सर्वहारा मनुष्य के साथ सलंग्न है जो जिंदगी के हर नये पल में नया सर्वनाश झेल रहा है। पंजाब या राजस्थान या उत्तर प्रदेश तो सिर्फ प्रतीक हैं। यह बनैला दमनचक्र व्यापक स्तर पर देश के प्रत्येक सुदूर इलाके में जारी है। वहां जहां सुरक्षा, सुविधा और सुखों की रोशनी आज भी नहीं पहुंची है। हिंसा के एक बेशर्म नंग नाच की पृष्ठभूमि पर प्रियदर्शन कर्तव्य पारायणता का बेबस पाठ भी तैयार करते है। तीन युवकों के गायब हो जाने के एक रहस्यमय केस की जांच करने के लिए सीबीआई अधिकारी अक्षय खन्ना पंजाब के एक गांव पहुंचते हैं। वहां उनकी मदद के लिए अजय देवगन हैं। दोनों मिलकर जब इस केस की गुत्थियां हल करते हैं, तब पता चलता है कि इलाके के चप्पे-चप्पे में बाहुबलियों की कितनी खतरनाक दहशत तारी है। आम आदमी की बेबसी का कितना दारुण दुखांत वहां कितनी आसानी से लिख दिया जाता है। यह चूंकि फिल्म है इसलिए ताकत का जंगली अंधेरा अंतिम सत्य के तौर पर स्थापित नहीं किया जा सकता था। इसीलिए अंत में तमाम बाहुबलियों के विरुद्ध न्याय की जीत होती दिखाई गयी है जबकि हकीकत दरअसल वहीं तक है जहां तक दमन का दावानल फैला हुआ है। एक अत्यंत यथार्थवादी फिल्म के जरिए आजाद हिंदुस्तान के भीतरी इलाकों में पसरा गुलाम जीवन दर्शाने के लिए प्रियदर्शन बधाई के पात्र हैं। फिल्म तीन प्रमुख पात्रों के इर्द-गिर्द घूमती है- अजय देवगन, अक्षय खन्ना, परेश रावल। तीनों का काम उम्दा है। राहत देने के लिए समीरा रेड्डी का आइटम सांग है जो पहले ही मशहूर हो चुका है। फिल्म में बिपाशा बसु के लिए कायदे का ’स्पेस‘ नहीं रखा गया है। वह नहीं भी होतीं तो चलता। हाशिए पर जीती औरत के रोल में रीमा सेन ने बेहतरीन काम किया है। एक सार्थक फिल्म।
निर्देशक: प्रियदर्शन
कलाकार: अजय देवगन, अक्षय खन्ना, परेश रावल, बिपाशा बसु, रीमा सेन, समीरा रेड्डी
संगीत: प्रीतम चक्रवर्ती
बाहुबलियों का जंगलराज: आक्रोश
धीरेन्द्र अस्थाना
जब कभी प्रियदर्शन के भीतर का सरोकारों वाला निर्देशक जागता है तो दर्शकों को एक गंभीर और सामाजिक मंतव्यों से जुड़ी फिल्म देखने को मिलती है। वह सिर्फ कॉमेडी के ही सरताज नहीं विचारों के भी हरकारे हैं। उनकी नयी फिल्म ’आक्रोश‘ महानगरों के खुशगवार हालात से दूर उन बीहड़ इलाकों की टोह लेती है जहां आज भी बाहुबलियों का जंगलराज कायम है और जहां ताकत, वैभव तथा उच्चकुलीय अभियान के सामने सामान्य जन निहत्था और निरुपाय छोड़ दिया गया है। बैक ड्राप के रूप में प्रियदर्शन ने ’आक्रोश‘ में ऑनर किलिंग‘ का ताना-बाना खड़ा किया है, लेकिन असल में उनकी मूल चिंता उस साधारण, वंचित, दलित और सर्वहारा मनुष्य के साथ सलंग्न है जो जिंदगी के हर नये पल में नया सर्वनाश झेल रहा है। पंजाब या राजस्थान या उत्तर प्रदेश तो सिर्फ प्रतीक हैं। यह बनैला दमनचक्र व्यापक स्तर पर देश के प्रत्येक सुदूर इलाके में जारी है। वहां जहां सुरक्षा, सुविधा और सुखों की रोशनी आज भी नहीं पहुंची है। हिंसा के एक बेशर्म नंग नाच की पृष्ठभूमि पर प्रियदर्शन कर्तव्य पारायणता का बेबस पाठ भी तैयार करते है। तीन युवकों के गायब हो जाने के एक रहस्यमय केस की जांच करने के लिए सीबीआई अधिकारी अक्षय खन्ना पंजाब के एक गांव पहुंचते हैं। वहां उनकी मदद के लिए अजय देवगन हैं। दोनों मिलकर जब इस केस की गुत्थियां हल करते हैं, तब पता चलता है कि इलाके के चप्पे-चप्पे में बाहुबलियों की कितनी खतरनाक दहशत तारी है। आम आदमी की बेबसी का कितना दारुण दुखांत वहां कितनी आसानी से लिख दिया जाता है। यह चूंकि फिल्म है इसलिए ताकत का जंगली अंधेरा अंतिम सत्य के तौर पर स्थापित नहीं किया जा सकता था। इसीलिए अंत में तमाम बाहुबलियों के विरुद्ध न्याय की जीत होती दिखाई गयी है जबकि हकीकत दरअसल वहीं तक है जहां तक दमन का दावानल फैला हुआ है। एक अत्यंत यथार्थवादी फिल्म के जरिए आजाद हिंदुस्तान के भीतरी इलाकों में पसरा गुलाम जीवन दर्शाने के लिए प्रियदर्शन बधाई के पात्र हैं। फिल्म तीन प्रमुख पात्रों के इर्द-गिर्द घूमती है- अजय देवगन, अक्षय खन्ना, परेश रावल। तीनों का काम उम्दा है। राहत देने के लिए समीरा रेड्डी का आइटम सांग है जो पहले ही मशहूर हो चुका है। फिल्म में बिपाशा बसु के लिए कायदे का ’स्पेस‘ नहीं रखा गया है। वह नहीं भी होतीं तो चलता। हाशिए पर जीती औरत के रोल में रीमा सेन ने बेहतरीन काम किया है। एक सार्थक फिल्म।
निर्देशक: प्रियदर्शन
कलाकार: अजय देवगन, अक्षय खन्ना, परेश रावल, बिपाशा बसु, रीमा सेन, समीरा रेड्डी
संगीत: प्रीतम चक्रवर्ती
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