फिल्म समीक्षा
नस्लवाद से लड़ती ‘क्रुक‘
धीरेन्द्र अस्थाना
जैसी कि भट्ट कैंप की फिल्में होती हैं, ‘क्रुक‘ भी उसी तरह की फिल्म है। छोटा बजट, नयी हीरोईन और घर का एक्टर इमरान हाशमी। मनोरंजन के साथ साथ कोई संदेश देने का प्रयास। कभी इस कैंप की फिल्म हिट हो जाती है कभी नहीं होती। लेकिन प्रत्येक फिल्म अपनी लागत जरूर निकाल ले जाती है। छोटा ही सही लेकिन इमरान हाशमी का भी अपना एक दर्शक वर्ग बन गया है इसलिए उनकी सोलो फिल्म भी ठीक ठाक व्यवसाय कर लेती है। यह फिल्म भी थोड़ा बहुत व्यवसाय कर लेगी। पहले दिन ‘क्रुक‘ को देखने आये दर्शकों की संख्या संतोषजनक कही जा सकती है। अपने मंतव्य के कारण ‘क्रुक‘ थोड़ी गंभीर फिल्म है हालांकि निर्देशक मोहित सूरी ने रोमांस, एक्शन, कॉमेडी के तत्व डाल कर इसे मनोरंजक बनाने की कोशिश की है। फिल्म नस्लवाद से टकराने और उसका एक समाधान तलाशने का प्रयास करती है। इमरान हाशमी नकली नाम और पासपोर्ट के जरिए ऑस्ट्रेलिया जाता है ताकि वहां जा कर वह एक नयी और बेहतर जिंदगी जी सके। मुंबई में उसे कोई काम नहीं देता क्योंकि उसका पिता एक गैंगस्टर था जो जाली एनकाउंटर में मार दिया जाता है। मुंबई में अतीत इमरान के आगे आगे चलता है इसलिए वह एक पुलिस अधिकारी अंकल की मदद से ऑस्ट्रेलिया रवाना होता है।
ऑस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों और व्यक्तियों के साथ जो नस्लभेदी वारदात घट रही हैं उन्हीं में से एक के साथ, न चाहते हुए भी, इमरान हाशमी उलझ जाता है। थोड़ी बहुत मारा मारी, प्रदर्शन, भाषण आदि के बाद फिल्म इस सकारात्मक नोट पर खत्म होती है कि भारत और ऑस्ट्रेलिया के लोग मिल कर ही नस्लवाद का खात्मा कर सकते हैं। एक दूसरे से नफरत करने और झगड़ने की नीति दोनों को हिंसा-प्रतिहंसा की एक अंधी गली में ले जाकर छोड़ देगी। देखा जाए तो इस फिल्म के माध्यम से भट्ट कैंप ने एक अंतरराष्ट्रीय समस्या को सिनेमाई पाठ में ढालने का प्रयत्न किया है लेकिन फिल्म को फिल्मी फार्मूलोें के बंधे बंधाये ढांचे में रख देने से उसका प्रभाव कमजोर हो जाता है। प्रीतम ने हूबहू वही संगीत दिया है जैसा इमरान की फिल्मों के गीतों में दिया जाता है। नेहा शर्मा का अभिनय कोई जादू नहीं जगाता जबकि उसके किरदार में एक तपिश एक तड़प मौजूद थी। इमरान हाशमी अपनी सीरियल किसर की छवि से मुक्त हो रहे हैं यह उनकी अभिनय यात्रा के लिए एक सुखद संकेत है। फिल्म देखी जा सकती है।
निर्माता: मुकेश भट्ट
निर्देशक: मोहित सूरी
कलाकार: इमरान हाशमी, नेहा शर्मा, अर्जन बाजवा, गुलशन ग्रोवर
संगीत: प्रीतम
Saturday, October 9, 2010
Monday, September 13, 2010
दबंग
फिल्म समीक्षा
‘दबंग‘ आयी यूपी बिहार लूटने
धीरेन्द्र अस्थाना
बॉलीवुड में धारा के विरुद्ध जाकर अच्छा सिनेमा बनाने के लिए प्रसिद्ध हैं युवा निर्देशक अनुराग कश्यप। उनके खाते में ‘नो स्मोकिंग‘, ‘गुलाल‘, ‘देव डी‘ जैसी बेहतरीन फिल्में हैं लेकिन ऐसी फिल्में पैसा नहीं देतीं। शायद यही वह पाठ है जो अनुराग के भाई अभिनव कश्यप ने उनसे सीखा है। इसलिए अपने करियर का आरंभ करने के लिए उन्होंने मुख्य धारा के सिनेमा यानी मसाला फिल्म का दामन थामा। और अपनी पहली ही फिल्म में वह सुपरहिट हैं। बहुत दिनों के बाद कोई फिल्म देखी जो ’हाउसफुल‘ मिली, जिसमें दर्शक सीटियां बजा रहे थे, कुर्सी से उठकर नाच रहे थे, यह गाते हुए, ’हुड़ दबंग दबंग...‘
अभिनव ने अपनी पहली फिल्म में सलमान खान को तो केंद्र में रखा ही, उनकी उस छवि को भी उभारा जिसके लिए सलमान मूलतः जाने जाते हैं यानी दबंगई। और यह फॉर्मूला काम कर गया है। उ.प्र. के लालगंज इलाके में घटने वाली ’दबंग‘ मुहावरे की भाषा में यूपी बिहार लूटने आ गयी है। पिछली ईद पर सलमान की एक्शन फिल्म ’वांटेड‘ हिट हुई थी। इस बार की ईद पर एक और एक्शन फिल्म ’दबंग‘ हिट हो गयी है। सलमान का तो अपना एक बड़ा दर्शक वर्ग है ही जो उनकी कोई भी फिल्म देखता है। ’दबंग‘ से उनकी लोकप्रियता और बढ़ेगी। लेकिन इस ’दबंग‘ का असली फायदा शत्रुघ्न सिन्हा की बेटी सोनाक्षी सिन्हा को जरूर मिलेगा जिनकी यही पहली फिल्म है। उप्र के एक गरीब बाप की निरीह बेटी के किरदार को उन्होंने बखूबी निभाया है। फिल्म की कहानी पर तो विशेष चर्चा संभव नहीं है लेकिन उसके कुछ प्रसंग बड़े मार्मिक और अनूठे हैं। जैसे किशोर सलमान द्वारा चारा काटने की मशीन से अपनी जन्म कुंडली काट देना। यह कुंडली पर नहीं पुरुषार्थ पर भरोसा करने का प्रतीक है। जैसे सोनाक्षी के पिता का किरदार निभाने वाले शराबी महेश मांजरेकर का आत्महत्या कर लेना ताकि सोनाक्षी अपने पिता की जिम्मेदारी से आजाद होकर सलमान से विवाह कर सके। फिल्म की एक और विशेषता उसका वह नंबर वन चल रहा गाना है जो मलाईका अरोड़ा खान पर बड़ी बेबाकी से फिल्माया गया- ’मुन्नी बदनाम हुई डार्लिंग तेरे लिए।‘
इस फिल्म में विनोद खन्ना, डिंपल कपाड़िया, ओमपुरी, महेश मांजरेकर, अनुपम खेर और टीनू आनंद जैसे दिग्गजों ने काम किया है तो सोनू सूद और अरबाज खान ने भी अपने अभिनय की छाप छोड़ी है। फिल्म का गीत-संगीत तो पहले ही हिट हो चुका है। फिल्म ’वांटेड‘ से ‘दबंग‘ की तुलना तो होगी लेकिन होनी नहीं चाहिए। दोनों फिल्मों में कॉमन सिर्फ एक ही चीज है-एक्शन। तो क्या एक्शन ही सफलता का सच है?
निर्देशक ः अभिनव कश्यप
कलाकार: सलमान खान, सोनाक्षी सिन्हा, अरबाज खान, सोनू सूद, मलाईका अरोड़ा (आइटम नंबर), अनुपम खेर, ओमपुरी, डिंपल आदि।
संगीत: साजिद-वाजिद-ललित पंडित
‘दबंग‘ आयी यूपी बिहार लूटने
धीरेन्द्र अस्थाना
बॉलीवुड में धारा के विरुद्ध जाकर अच्छा सिनेमा बनाने के लिए प्रसिद्ध हैं युवा निर्देशक अनुराग कश्यप। उनके खाते में ‘नो स्मोकिंग‘, ‘गुलाल‘, ‘देव डी‘ जैसी बेहतरीन फिल्में हैं लेकिन ऐसी फिल्में पैसा नहीं देतीं। शायद यही वह पाठ है जो अनुराग के भाई अभिनव कश्यप ने उनसे सीखा है। इसलिए अपने करियर का आरंभ करने के लिए उन्होंने मुख्य धारा के सिनेमा यानी मसाला फिल्म का दामन थामा। और अपनी पहली ही फिल्म में वह सुपरहिट हैं। बहुत दिनों के बाद कोई फिल्म देखी जो ’हाउसफुल‘ मिली, जिसमें दर्शक सीटियां बजा रहे थे, कुर्सी से उठकर नाच रहे थे, यह गाते हुए, ’हुड़ दबंग दबंग...‘
अभिनव ने अपनी पहली फिल्म में सलमान खान को तो केंद्र में रखा ही, उनकी उस छवि को भी उभारा जिसके लिए सलमान मूलतः जाने जाते हैं यानी दबंगई। और यह फॉर्मूला काम कर गया है। उ.प्र. के लालगंज इलाके में घटने वाली ’दबंग‘ मुहावरे की भाषा में यूपी बिहार लूटने आ गयी है। पिछली ईद पर सलमान की एक्शन फिल्म ’वांटेड‘ हिट हुई थी। इस बार की ईद पर एक और एक्शन फिल्म ’दबंग‘ हिट हो गयी है। सलमान का तो अपना एक बड़ा दर्शक वर्ग है ही जो उनकी कोई भी फिल्म देखता है। ’दबंग‘ से उनकी लोकप्रियता और बढ़ेगी। लेकिन इस ’दबंग‘ का असली फायदा शत्रुघ्न सिन्हा की बेटी सोनाक्षी सिन्हा को जरूर मिलेगा जिनकी यही पहली फिल्म है। उप्र के एक गरीब बाप की निरीह बेटी के किरदार को उन्होंने बखूबी निभाया है। फिल्म की कहानी पर तो विशेष चर्चा संभव नहीं है लेकिन उसके कुछ प्रसंग बड़े मार्मिक और अनूठे हैं। जैसे किशोर सलमान द्वारा चारा काटने की मशीन से अपनी जन्म कुंडली काट देना। यह कुंडली पर नहीं पुरुषार्थ पर भरोसा करने का प्रतीक है। जैसे सोनाक्षी के पिता का किरदार निभाने वाले शराबी महेश मांजरेकर का आत्महत्या कर लेना ताकि सोनाक्षी अपने पिता की जिम्मेदारी से आजाद होकर सलमान से विवाह कर सके। फिल्म की एक और विशेषता उसका वह नंबर वन चल रहा गाना है जो मलाईका अरोड़ा खान पर बड़ी बेबाकी से फिल्माया गया- ’मुन्नी बदनाम हुई डार्लिंग तेरे लिए।‘
इस फिल्म में विनोद खन्ना, डिंपल कपाड़िया, ओमपुरी, महेश मांजरेकर, अनुपम खेर और टीनू आनंद जैसे दिग्गजों ने काम किया है तो सोनू सूद और अरबाज खान ने भी अपने अभिनय की छाप छोड़ी है। फिल्म का गीत-संगीत तो पहले ही हिट हो चुका है। फिल्म ’वांटेड‘ से ‘दबंग‘ की तुलना तो होगी लेकिन होनी नहीं चाहिए। दोनों फिल्मों में कॉमन सिर्फ एक ही चीज है-एक्शन। तो क्या एक्शन ही सफलता का सच है?
निर्देशक ः अभिनव कश्यप
कलाकार: सलमान खान, सोनाक्षी सिन्हा, अरबाज खान, सोनू सूद, मलाईका अरोड़ा (आइटम नंबर), अनुपम खेर, ओमपुरी, डिंपल आदि।
संगीत: साजिद-वाजिद-ललित पंडित
Saturday, September 4, 2010
वी आर फैमिली
फिल्म समीक्षा
वी आर फैमिली: रियलिटी पर भारी फैंटेसी
धीरेन्द्र अस्थाना
करण जौहर के प्रोडक्शन की नयी फिल्म ’वी आर फैमिली‘ एक बेहतरीन फटकथा है, जिसमें एक असंभव इच्छा फैंटेसी की तरह रहती है। हॉलीवुड की हिट फिल्म ’स्टेपमॉम‘ पर आधारित ’वी आर फैमिली‘ का यथार्थ भारतीय समाज और सच्चाई को अभिव्यक्त नहीं करता, इसलिए इस फिल्म का देश के बड़े दर्शक वर्ग के साथ जुड़ाव संभव नहीं लगता। एक मां के जीवित रहते बच्चों के लिए दूसरी मां लेकर आने की अवधारणा फैंटेसी हो सकती है रियलिटी नहीं। लेकिन ’वी आर फैमिली‘ में यह अवधारणा ही रियलिटी है। हो सकता है कि आज के उत्तर आधुनिक समय का जो सिनेमा है उसके जादुई यथार्थवाद का यह समकालीन आईना हो। लेकिन थोड़ी देर के लिए अगर हम यह मान लें कि सिनेमा समाज और यथार्थ वगैरह से अलग एक स्वायत्त इकाई या कृति है तो ’वी आर फैमिली‘ की कुछ विशेषताओं पर चर्चा की जा सकती है।
पहली विशेषता। यह काजोल की फिल्म है और काजोल के अविस्मरणीय अभिनय के लिए हमेशा याद की जाएगी। एक मरती हुई मां की इच्छा कि उसके तीन अबोध बच्चों को संभालने कोई दूसरी औरत आ जाए। लेकिन जब दूसरी औरत बच्चों के साथ दोस्ती तथा अपनत्व की पगडंडी पर आगे बढ़ने लगे तो मूल मां के भीतर ईर्ष्या का ज्वालामुखी धधकने लगे.. इस कठिन और जटिल मनोभाव को काजोल ने लाजवाब और सहज अभिव्यक्ति दी है। तलाकशुदा होने के बावजूद पति अर्जुन रामपाल को लेकर मन में मचलती मंद-मंद तड़प को वह सार्थक ढंग से सामने लाती है। दूसरी विशेषता। फिल्म की पटकथा बेहद कसी हुई और संवाद मर्मस्पर्शी तथा धारदार हैं। अपने आरंभ होने के साथ ही फिल्म में तनाव की रचना होने लगती है। यह तनाव पूरी फिल्म को बांधे और साधे रखता है। आमतौर पर चुलबुली और शोख युवती का किरदार निभाने वाली करीना कपूर ने इस फिल्म में जैसा रोल किया है वह अवसाद और दुख के अटूट अकेलेपन को पैदा करता है। दो स्त्रियों के विकट संघर्ष में फंसे निहत्थे और विकल्पहीन व्यक्ति की भूमिका को अर्जुन रामपाल ने गजब ढंग से निभाया है। सबसे बेमिसाल है फिल्म के तीन बच्चों का सहज और भावप्रवण अभिनय। कई स्थलों पर फिल्म रुलाती भी है इसलिए इसे मनोरंजन के लिए तो हर्गिज नहीं देखा जा सकता। लेकिन अगर आप एक सौतेली मां और दूसरी औरत के दर्द से दो-चार होना चाहते हैं तो ’वी आर फैमली‘ एक उम्दा अनुभव है। लेकिन बॉलीवुड में बीमारी लौट आयी है क्या? पिछले हफ्ते ही कैंसर से पीड़ित जॉन अब्राहम की ‘आशाएं‘ देखी थी। इस हफ्ते काजोल!
निर्माता: करण जौहर
निर्देशक: सिद्धार्थ मल्होत्रा
कलाकार: अर्जुन रामपाल, काजोल, करीना कपूर, आंचल मुंजाल, दिया सोनेचा, नोमिनाथ गिन्सबर्ग
संगीत: शंकर-अहसान-लॉय
वी आर फैमिली: रियलिटी पर भारी फैंटेसी
धीरेन्द्र अस्थाना
करण जौहर के प्रोडक्शन की नयी फिल्म ’वी आर फैमिली‘ एक बेहतरीन फटकथा है, जिसमें एक असंभव इच्छा फैंटेसी की तरह रहती है। हॉलीवुड की हिट फिल्म ’स्टेपमॉम‘ पर आधारित ’वी आर फैमिली‘ का यथार्थ भारतीय समाज और सच्चाई को अभिव्यक्त नहीं करता, इसलिए इस फिल्म का देश के बड़े दर्शक वर्ग के साथ जुड़ाव संभव नहीं लगता। एक मां के जीवित रहते बच्चों के लिए दूसरी मां लेकर आने की अवधारणा फैंटेसी हो सकती है रियलिटी नहीं। लेकिन ’वी आर फैमिली‘ में यह अवधारणा ही रियलिटी है। हो सकता है कि आज के उत्तर आधुनिक समय का जो सिनेमा है उसके जादुई यथार्थवाद का यह समकालीन आईना हो। लेकिन थोड़ी देर के लिए अगर हम यह मान लें कि सिनेमा समाज और यथार्थ वगैरह से अलग एक स्वायत्त इकाई या कृति है तो ’वी आर फैमिली‘ की कुछ विशेषताओं पर चर्चा की जा सकती है।
पहली विशेषता। यह काजोल की फिल्म है और काजोल के अविस्मरणीय अभिनय के लिए हमेशा याद की जाएगी। एक मरती हुई मां की इच्छा कि उसके तीन अबोध बच्चों को संभालने कोई दूसरी औरत आ जाए। लेकिन जब दूसरी औरत बच्चों के साथ दोस्ती तथा अपनत्व की पगडंडी पर आगे बढ़ने लगे तो मूल मां के भीतर ईर्ष्या का ज्वालामुखी धधकने लगे.. इस कठिन और जटिल मनोभाव को काजोल ने लाजवाब और सहज अभिव्यक्ति दी है। तलाकशुदा होने के बावजूद पति अर्जुन रामपाल को लेकर मन में मचलती मंद-मंद तड़प को वह सार्थक ढंग से सामने लाती है। दूसरी विशेषता। फिल्म की पटकथा बेहद कसी हुई और संवाद मर्मस्पर्शी तथा धारदार हैं। अपने आरंभ होने के साथ ही फिल्म में तनाव की रचना होने लगती है। यह तनाव पूरी फिल्म को बांधे और साधे रखता है। आमतौर पर चुलबुली और शोख युवती का किरदार निभाने वाली करीना कपूर ने इस फिल्म में जैसा रोल किया है वह अवसाद और दुख के अटूट अकेलेपन को पैदा करता है। दो स्त्रियों के विकट संघर्ष में फंसे निहत्थे और विकल्पहीन व्यक्ति की भूमिका को अर्जुन रामपाल ने गजब ढंग से निभाया है। सबसे बेमिसाल है फिल्म के तीन बच्चों का सहज और भावप्रवण अभिनय। कई स्थलों पर फिल्म रुलाती भी है इसलिए इसे मनोरंजन के लिए तो हर्गिज नहीं देखा जा सकता। लेकिन अगर आप एक सौतेली मां और दूसरी औरत के दर्द से दो-चार होना चाहते हैं तो ’वी आर फैमली‘ एक उम्दा अनुभव है। लेकिन बॉलीवुड में बीमारी लौट आयी है क्या? पिछले हफ्ते ही कैंसर से पीड़ित जॉन अब्राहम की ‘आशाएं‘ देखी थी। इस हफ्ते काजोल!
निर्माता: करण जौहर
निर्देशक: सिद्धार्थ मल्होत्रा
कलाकार: अर्जुन रामपाल, काजोल, करीना कपूर, आंचल मुंजाल, दिया सोनेचा, नोमिनाथ गिन्सबर्ग
संगीत: शंकर-अहसान-लॉय
Saturday, August 28, 2010
आशाएं
फिल्म समीक्षा
जिंदगी को पुकारती ’आशाएं‘
धीरेन्द्र अस्थाना
अगर आप बेहतर ढंग से बुनी गयी, एक संवेदनशील और अर्थपूर्ण कहानी पसंद करते हैं तो नागेश कुकनूर की ’आशाएं‘ आपको भरोसा देगी। भरोसा इस बात का कि बाजार की इस अंधी दौड़ में भी कुछ लोग ’अच्छे सिनेमा‘ को जुनून की तरह बचाए हुए हैं। भरोसा इस बात का कि जिंदगी हमेशा जिंदाबाद है और जिंदगी को पूरी शिद्दत के साथ जीना चाहिए। एक पंक्ति में कहें तो ’आशाएं‘ जिंदगी के समर्थन में उठी एक जीवंत पुकार है। और यह पुकार जॉन एब्राहम के मर्मस्पर्शी अभिनय से सजी हुई है। बॉलीवुड की चालू फिल्मों से अलग ’आशाएं‘ कम से कम जॉन एब्राहम की ’फिल्मोग्राफी‘ में एक सितारे की तरह जुड़ने वाली है। यह फिल्म लंबे समय से रोशनी का मुंह देखने को तरस रही थी। अगर यह रिलीज नहीं होती तो पर्दे पर रची हुई एक मार्मिक कविता की अकाल मौत हो जाती और दर्शक कभी नहीं जान पाते कि जॉन के भीतर कितना समर्थ अभिनेता छिपा हुआ है। अनीता नायर के रूप में नागेश ने बॉलीवुड को जो युवा अभिनेत्री दी है वह उचित मौके मिलने पर कमाल कर सकती है। मरती हुई लेकिन जीवंत लड़की का नायाब अनुभव बन गयी है अनीता नायर। वह न सिर्फ पूरी फिल्म को बांधे रखती है बल्कि कैंसर जैसी भयावह तकलीफ को चिढ़ाती भी रहती है। वैसे तो फिल्म की मुख्य हीरोइन सोनल सहगल है लेकिन ज्यादातर स्पेस अनीता नायर को ही मिला है, और इस स्पेस में अनीता ने अपने हिस्से का आकाश रच दिया है। ऐसा नहीं है कि आशाएं कोई अद्वितीय फिल्म है। कैंसरग्रस्त हीरो की कहानी पर राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन की अमर फिल्म ’आनंद‘ बन चुकी है। ’आशाएं‘ इस अर्थ में बेहतरीन फिल्म है कि यह जिंदगी की जिंदादिल दास्तान का कोलाज रचती नजर आती है। जिंदगी से मुंह मोड़ कर जॉन जिस मरते हुए लोगों के आश्रम में जीवन गुजारने जाता है वहां उसका साक्षात्कार इस यथार्थ से होता है कि जिंदगी भागने का नहीं, जीने का नाम है। कि अमर जिंदगी का झरना किसी कल्पना लोक में नहीं जिंदगी के सीने पर गड़ा हुआ है। इस सच से गुजरने के बाद जॉन अपने प्यार के साथ वापस जिंदगी में लौटता है। मारधाड़, कॉमेडी और सेक्स के इस ’मुख्य समय‘ में ’आशाएं‘ को ’बाजार‘ तो नहीं मिलेगा लेकिन अच्छे सिनेमा की गिनती में उसका भी नाम दर्ज होगा, इसमें शक नहीं। सलीम-सुलेमान और प्रीतम ने कहानी के अनुकूल संगीत दिया है जो मन को भाता भी है। धारा के विरुद्ध बने सिनेमा को प्रोत्साहन देने के लिए भी इस फिल्म को देखना चाहिए।
निर्देशक: नागेश कुकनूर
कलाकार: जॉन एब्राहम, सोनल सहगल, अनीता नायर, फरीदा जलाल, गिरीश करनाड।
संगीत: प्रीतम चक्रवर्ती, शिराज उप्पल, सलीम मर्चेन्ट, सुलेमान मर्चेन्ट।
गीत: समीर, कुमार, शकील, मीर अली।
जिंदगी को पुकारती ’आशाएं‘
धीरेन्द्र अस्थाना
अगर आप बेहतर ढंग से बुनी गयी, एक संवेदनशील और अर्थपूर्ण कहानी पसंद करते हैं तो नागेश कुकनूर की ’आशाएं‘ आपको भरोसा देगी। भरोसा इस बात का कि बाजार की इस अंधी दौड़ में भी कुछ लोग ’अच्छे सिनेमा‘ को जुनून की तरह बचाए हुए हैं। भरोसा इस बात का कि जिंदगी हमेशा जिंदाबाद है और जिंदगी को पूरी शिद्दत के साथ जीना चाहिए। एक पंक्ति में कहें तो ’आशाएं‘ जिंदगी के समर्थन में उठी एक जीवंत पुकार है। और यह पुकार जॉन एब्राहम के मर्मस्पर्शी अभिनय से सजी हुई है। बॉलीवुड की चालू फिल्मों से अलग ’आशाएं‘ कम से कम जॉन एब्राहम की ’फिल्मोग्राफी‘ में एक सितारे की तरह जुड़ने वाली है। यह फिल्म लंबे समय से रोशनी का मुंह देखने को तरस रही थी। अगर यह रिलीज नहीं होती तो पर्दे पर रची हुई एक मार्मिक कविता की अकाल मौत हो जाती और दर्शक कभी नहीं जान पाते कि जॉन के भीतर कितना समर्थ अभिनेता छिपा हुआ है। अनीता नायर के रूप में नागेश ने बॉलीवुड को जो युवा अभिनेत्री दी है वह उचित मौके मिलने पर कमाल कर सकती है। मरती हुई लेकिन जीवंत लड़की का नायाब अनुभव बन गयी है अनीता नायर। वह न सिर्फ पूरी फिल्म को बांधे रखती है बल्कि कैंसर जैसी भयावह तकलीफ को चिढ़ाती भी रहती है। वैसे तो फिल्म की मुख्य हीरोइन सोनल सहगल है लेकिन ज्यादातर स्पेस अनीता नायर को ही मिला है, और इस स्पेस में अनीता ने अपने हिस्से का आकाश रच दिया है। ऐसा नहीं है कि आशाएं कोई अद्वितीय फिल्म है। कैंसरग्रस्त हीरो की कहानी पर राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन की अमर फिल्म ’आनंद‘ बन चुकी है। ’आशाएं‘ इस अर्थ में बेहतरीन फिल्म है कि यह जिंदगी की जिंदादिल दास्तान का कोलाज रचती नजर आती है। जिंदगी से मुंह मोड़ कर जॉन जिस मरते हुए लोगों के आश्रम में जीवन गुजारने जाता है वहां उसका साक्षात्कार इस यथार्थ से होता है कि जिंदगी भागने का नहीं, जीने का नाम है। कि अमर जिंदगी का झरना किसी कल्पना लोक में नहीं जिंदगी के सीने पर गड़ा हुआ है। इस सच से गुजरने के बाद जॉन अपने प्यार के साथ वापस जिंदगी में लौटता है। मारधाड़, कॉमेडी और सेक्स के इस ’मुख्य समय‘ में ’आशाएं‘ को ’बाजार‘ तो नहीं मिलेगा लेकिन अच्छे सिनेमा की गिनती में उसका भी नाम दर्ज होगा, इसमें शक नहीं। सलीम-सुलेमान और प्रीतम ने कहानी के अनुकूल संगीत दिया है जो मन को भाता भी है। धारा के विरुद्ध बने सिनेमा को प्रोत्साहन देने के लिए भी इस फिल्म को देखना चाहिए।
निर्देशक: नागेश कुकनूर
कलाकार: जॉन एब्राहम, सोनल सहगल, अनीता नायर, फरीदा जलाल, गिरीश करनाड।
संगीत: प्रीतम चक्रवर्ती, शिराज उप्पल, सलीम मर्चेन्ट, सुलेमान मर्चेन्ट।
गीत: समीर, कुमार, शकील, मीर अली।
Saturday, August 21, 2010
लफंगे परिंदे
फिल्म समीक्षा
इलीट क्लास के ‘लफंगे परिंदे‘
धीरेन्द्र अस्थाना
अपने बॉलीवुड में कौन-कौन से खास लोग हैं जो झोपड़पट्टी या बैठी चाल या गरीब गुरबों की बस्ती में जीवन जीते किरदारों को विश्वसनीय, सहज और वास्तविक ढंग से पर्दे पर उतार सकते हैं? जो गली कूचों की टपोरी भाषा ही नहीं बोल सकते वैसा जीवन जीवंत भी कर सकते हैं? आम आदमी का जीवन जी सकने में सफल ये खास कलाकार हैं - आमिर खान, सलमान खान, संजय दत्त, अरशद वारसी, नसीरुद्दीन शाह, ओमपुरी, महेश मांजरेकर, करीना कपूर, विद्या बालन, तब्बू, मिथुन चक्रवर्ती, जैकी श्राफ, नाना पाटेकर, रणवीर शौरी, इरफान खान, अक्षय कुमार, सुनील शेट्टी, परेश रावल, उर्मिला मातोंडकर, प्रियंका चोपड़ा आदि। लेकिन अंग्रेज व्यक्तित्व वाले नील नितिन मुकेश और इलीट क्लास की दीपिका पादुकोन तो कहीं से भी ’लफंगे परिंदे‘ नजर नहीं आते। न हावभाव से, न चालढाल से, न संवाद अदायगी से, न बॉडी लैंग्वेज से। इसीलिए गली-कूचों की एक जीवंत, मर्मस्पर्शी और जिंदादिल दास्तान ’निर्जीव तमाशे‘ में बदलती नजर आती है। इलीट क्लास के ’लफंगे परिंदे‘ लोअर डेप्थ (तलछट) का यथार्थ साकार नहीं कर सके। हर निर्देशक का अपना ’जोनर‘ होता है जो उसे पहचानना चाहिए। इसी तरह हर कलाकार की भी अपनी सीमा होती है लेकिन जो उस सीमा का सफलतापूर्वक अतिक्रमण कर लेता है वह महान कलाकारों की श्रेणी में शुमार हो जाता है। जैसे सबसे बड़ा उदाहरण अमिताभ बच्चन। अगर दुर्भाग्य से इस फिल्म में पीयूष मिश्रा और केके मेनन जैसे अद्वितीय कलाकार नहीं होते तो ’लफंगें परिंदे‘ शायद उड़ भी नहीं पाते। फिल्म का सबसे ज्यादा प्रभावशाली पक्ष है इसका गीत-संगीत, उसके बाद ध्यान खींचते हैं संवाद। नील नितिन मुकेश के व्यक्तित्व पर किसी अमीरजादे का चरित्र ही सहज लग सकता है। दीपिका पादुकोन ने अंधी लड़की के किरदार में घुसने की जी-तोड़ कोशिश की है लेकिन फिल्म ’ब्लैक‘ में रानी मुखर्जी ने इस चरित्र के संदर्भ में जो लंबी लकीर खींच दी है उसे पार करना शायद संभव नहीं है। ’लफंगें परिंदे‘ की जो बुनियादी प्रेम कहानी है वह यकीनन बहुत संवेदनशील और ’ट्रेजिक‘ है। इस कहानी को मुंबई की किसी ’चाल‘ या ’वाड़ी‘ के बजाय पैडर रोड, नरीमन प्वाइंट अथवा बांद्रा के ’पॉश परिवेश‘ में घटता दिखाते तो शायद फिल्म का भविष्य कुछ और होता। उस परिवेश में दोनों प्रमुख पात्र ज्यादा ’रीयल‘ लगते। इस फिल्म की एकमात्र कमजोरी इसका अनरीयल होना ही है। इतना जरूर है कि फिल्म का कथानक लगातार बांधे रखता है।
निर्माता: आदित्य चोपड़ा
निर्देशक: प्रदीप सरकार
कलाकार: नील नितिन मुकेश, दीपिका पादुकोन, केके मेनन, पीयूष मिश्रा
गीत: स्वानंद किरकिरे
संगीत: आर.आनंद
इलीट क्लास के ‘लफंगे परिंदे‘
धीरेन्द्र अस्थाना
अपने बॉलीवुड में कौन-कौन से खास लोग हैं जो झोपड़पट्टी या बैठी चाल या गरीब गुरबों की बस्ती में जीवन जीते किरदारों को विश्वसनीय, सहज और वास्तविक ढंग से पर्दे पर उतार सकते हैं? जो गली कूचों की टपोरी भाषा ही नहीं बोल सकते वैसा जीवन जीवंत भी कर सकते हैं? आम आदमी का जीवन जी सकने में सफल ये खास कलाकार हैं - आमिर खान, सलमान खान, संजय दत्त, अरशद वारसी, नसीरुद्दीन शाह, ओमपुरी, महेश मांजरेकर, करीना कपूर, विद्या बालन, तब्बू, मिथुन चक्रवर्ती, जैकी श्राफ, नाना पाटेकर, रणवीर शौरी, इरफान खान, अक्षय कुमार, सुनील शेट्टी, परेश रावल, उर्मिला मातोंडकर, प्रियंका चोपड़ा आदि। लेकिन अंग्रेज व्यक्तित्व वाले नील नितिन मुकेश और इलीट क्लास की दीपिका पादुकोन तो कहीं से भी ’लफंगे परिंदे‘ नजर नहीं आते। न हावभाव से, न चालढाल से, न संवाद अदायगी से, न बॉडी लैंग्वेज से। इसीलिए गली-कूचों की एक जीवंत, मर्मस्पर्शी और जिंदादिल दास्तान ’निर्जीव तमाशे‘ में बदलती नजर आती है। इलीट क्लास के ’लफंगे परिंदे‘ लोअर डेप्थ (तलछट) का यथार्थ साकार नहीं कर सके। हर निर्देशक का अपना ’जोनर‘ होता है जो उसे पहचानना चाहिए। इसी तरह हर कलाकार की भी अपनी सीमा होती है लेकिन जो उस सीमा का सफलतापूर्वक अतिक्रमण कर लेता है वह महान कलाकारों की श्रेणी में शुमार हो जाता है। जैसे सबसे बड़ा उदाहरण अमिताभ बच्चन। अगर दुर्भाग्य से इस फिल्म में पीयूष मिश्रा और केके मेनन जैसे अद्वितीय कलाकार नहीं होते तो ’लफंगें परिंदे‘ शायद उड़ भी नहीं पाते। फिल्म का सबसे ज्यादा प्रभावशाली पक्ष है इसका गीत-संगीत, उसके बाद ध्यान खींचते हैं संवाद। नील नितिन मुकेश के व्यक्तित्व पर किसी अमीरजादे का चरित्र ही सहज लग सकता है। दीपिका पादुकोन ने अंधी लड़की के किरदार में घुसने की जी-तोड़ कोशिश की है लेकिन फिल्म ’ब्लैक‘ में रानी मुखर्जी ने इस चरित्र के संदर्भ में जो लंबी लकीर खींच दी है उसे पार करना शायद संभव नहीं है। ’लफंगें परिंदे‘ की जो बुनियादी प्रेम कहानी है वह यकीनन बहुत संवेदनशील और ’ट्रेजिक‘ है। इस कहानी को मुंबई की किसी ’चाल‘ या ’वाड़ी‘ के बजाय पैडर रोड, नरीमन प्वाइंट अथवा बांद्रा के ’पॉश परिवेश‘ में घटता दिखाते तो शायद फिल्म का भविष्य कुछ और होता। उस परिवेश में दोनों प्रमुख पात्र ज्यादा ’रीयल‘ लगते। इस फिल्म की एकमात्र कमजोरी इसका अनरीयल होना ही है। इतना जरूर है कि फिल्म का कथानक लगातार बांधे रखता है।
निर्माता: आदित्य चोपड़ा
निर्देशक: प्रदीप सरकार
कलाकार: नील नितिन मुकेश, दीपिका पादुकोन, केके मेनन, पीयूष मिश्रा
गीत: स्वानंद किरकिरे
संगीत: आर.आनंद
Saturday, August 14, 2010
पीपली लाइव
फिल्म समीक्षा
तंत्र पर तमाचा ‘पीपली लाइव‘
धीरेन्द्र अस्थाना
बॉलीवुड में बनने वाली एक अच्छी या बुरी फिल्म नहीं है ‘पीपली लाइव।‘ फिल्म की तरह इसकी समीक्षा की भी नहीं जा सकती। असल में ‘पीपली लाइव‘ बना कर इसके मूल निर्माता आमिर खान ने यह बताया है कि कोई भी सार्थक (और सफल भी) काम करने के लिए केवल और केवल एक बेहतरीन दिमाग की जरूरत पड़ती है। पैसा, ताम झाम, ग्लैमर बहुत बाद की बातें हैं। यही वजह है कि ‘पीपली लाइव‘ नामक तथाकथित फिल्म में कदम कदम पर आमिर खान का उर्वर दिमाग जैसे एक निर्णायक युद्ध सा लड़ता नजर आता है। पारंपरिक अर्थों में ‘पीपली लाइव‘ सिनेमा है भी नहीं। यह दरअसल सिनेमा के नाम पर एक खतरनाक तमाचा है जिसकी अनुगूंज आने वाले कई वर्षों तक वातावरण में बनी रहेगी। इस तमाचे के गहरे, रक्तिम निशान सत्ता के तंत्र पर बरसों बरस चमकते रहेंगे। और जो लोग इस सिनेमाई विमर्श के अनुभव से गुजरे हैं या गुजरेंगे वे इस बात के गवाह रहेंगे कि तंत्र चाहे स्थानीय हो, चाहे प्रादेशिक, चाहे भारतीय वह कितना अमानवीय, लोलुप, बेदर्द और जंगली होता है। तंत्र की बर्बरता का बखान करने के क्रम में आमिर खान ने मीडिया को भी नहीं बख्शा है। ‘पीपली लाइव‘ में मीडिया एक मजाक बन कर दौड़ता है - बदहवास, बेमतलब और बेलगाम। इस प्रकार एक गुमनाम गांव में एक किसान के आत्महत्या करने के ऐलान की पृष्ठभूमि पर आमिर खान का यह सिनेमाई पाठ सत्ता से जुड़ी हर संस्था को खेल-खेल में नंगा कर देता है। महान कवि गजानन माधव मुक्ति बोध की तरह यह बुदबुदाते हुए -‘हाय हाय, मैंने उन्हें देख लिया नंगा/अब मुझे इसकी सजा मिलेगी।‘
अगर ‘पीपली लाइव‘ केवल मल्टीप्लेक्स की फिल्म बन कर रह गयी तो यह इसकी और इससे जुड़े तमाम लोगों की हार होगी। ‘पीपली लाइव‘ की विजय उसके व्यापक प्रदर्शन में निहित है। गांव-गांव-गली-गली-कस्बे-कस्बे में इसका प्रदर्शन ही इसे इसके मकसद तक पहुंचा सकता है। यह कैसे होगा यह भी आमिर खान को ही सोचना होगा। फिल्म के प्रोमोज लगभग पूरी फिल्म पहले ही बयान कर चुके हैं। हम केवल इतना बताना चाहते हैं कि आमिर खान को एक हजार गांवों से एक एक चिट्ठी आयी है। हर गांव का नाम पीपली है यानी कम से कम हिंदुस्तान में पीपली नाम के एक हजार गांव तो मौजूद हैं ही। एक रघुवीर यादव को छोड़ कर कोई भी फिल्मी कलाकार नहीं है लेकिन अभिनय के मामले में कोई कमतर नहीं है। ‘पीपली लाइव‘ के गाने प्रदर्शन से पूर्व ही लोकप्रिय हो चुके हैं। एक अनूठी, दिलचस्प और जरूरी फिल्म को तुरंत देखने जाएं।
निर्माता: आमिर खान /यूटीवी
निर्देशक: अनुषा रिजवी
कलाकार: रघुवीर यादव, ओमकारदास माणिकपुरी, मलाइका शिनॉय, नवाजुद्दीन सिद्धिकी, फारुख जफर
संगीत: इंडियन ऑसियान, बृज आदि
तंत्र पर तमाचा ‘पीपली लाइव‘
धीरेन्द्र अस्थाना
बॉलीवुड में बनने वाली एक अच्छी या बुरी फिल्म नहीं है ‘पीपली लाइव।‘ फिल्म की तरह इसकी समीक्षा की भी नहीं जा सकती। असल में ‘पीपली लाइव‘ बना कर इसके मूल निर्माता आमिर खान ने यह बताया है कि कोई भी सार्थक (और सफल भी) काम करने के लिए केवल और केवल एक बेहतरीन दिमाग की जरूरत पड़ती है। पैसा, ताम झाम, ग्लैमर बहुत बाद की बातें हैं। यही वजह है कि ‘पीपली लाइव‘ नामक तथाकथित फिल्म में कदम कदम पर आमिर खान का उर्वर दिमाग जैसे एक निर्णायक युद्ध सा लड़ता नजर आता है। पारंपरिक अर्थों में ‘पीपली लाइव‘ सिनेमा है भी नहीं। यह दरअसल सिनेमा के नाम पर एक खतरनाक तमाचा है जिसकी अनुगूंज आने वाले कई वर्षों तक वातावरण में बनी रहेगी। इस तमाचे के गहरे, रक्तिम निशान सत्ता के तंत्र पर बरसों बरस चमकते रहेंगे। और जो लोग इस सिनेमाई विमर्श के अनुभव से गुजरे हैं या गुजरेंगे वे इस बात के गवाह रहेंगे कि तंत्र चाहे स्थानीय हो, चाहे प्रादेशिक, चाहे भारतीय वह कितना अमानवीय, लोलुप, बेदर्द और जंगली होता है। तंत्र की बर्बरता का बखान करने के क्रम में आमिर खान ने मीडिया को भी नहीं बख्शा है। ‘पीपली लाइव‘ में मीडिया एक मजाक बन कर दौड़ता है - बदहवास, बेमतलब और बेलगाम। इस प्रकार एक गुमनाम गांव में एक किसान के आत्महत्या करने के ऐलान की पृष्ठभूमि पर आमिर खान का यह सिनेमाई पाठ सत्ता से जुड़ी हर संस्था को खेल-खेल में नंगा कर देता है। महान कवि गजानन माधव मुक्ति बोध की तरह यह बुदबुदाते हुए -‘हाय हाय, मैंने उन्हें देख लिया नंगा/अब मुझे इसकी सजा मिलेगी।‘
अगर ‘पीपली लाइव‘ केवल मल्टीप्लेक्स की फिल्म बन कर रह गयी तो यह इसकी और इससे जुड़े तमाम लोगों की हार होगी। ‘पीपली लाइव‘ की विजय उसके व्यापक प्रदर्शन में निहित है। गांव-गांव-गली-गली-कस्बे-कस्बे में इसका प्रदर्शन ही इसे इसके मकसद तक पहुंचा सकता है। यह कैसे होगा यह भी आमिर खान को ही सोचना होगा। फिल्म के प्रोमोज लगभग पूरी फिल्म पहले ही बयान कर चुके हैं। हम केवल इतना बताना चाहते हैं कि आमिर खान को एक हजार गांवों से एक एक चिट्ठी आयी है। हर गांव का नाम पीपली है यानी कम से कम हिंदुस्तान में पीपली नाम के एक हजार गांव तो मौजूद हैं ही। एक रघुवीर यादव को छोड़ कर कोई भी फिल्मी कलाकार नहीं है लेकिन अभिनय के मामले में कोई कमतर नहीं है। ‘पीपली लाइव‘ के गाने प्रदर्शन से पूर्व ही लोकप्रिय हो चुके हैं। एक अनूठी, दिलचस्प और जरूरी फिल्म को तुरंत देखने जाएं।
निर्माता: आमिर खान /यूटीवी
निर्देशक: अनुषा रिजवी
कलाकार: रघुवीर यादव, ओमकारदास माणिकपुरी, मलाइका शिनॉय, नवाजुद्दीन सिद्धिकी, फारुख जफर
संगीत: इंडियन ऑसियान, बृज आदि
Saturday, August 7, 2010
आयशा
फिल्म समीक्षा
हाथ से छूटती फिसलती सी ‘आयशा‘
धीरेन्द्र अस्थाना
प्रेम कहानी होने के बावजूद थोड़ी गंभीर और जटिल किस्म की फिल्म है इसलिए आम दर्शक संभवतः ‘आयशा‘ को देखना पसंद नहीं करेंगे। लेकिन विशेष अथवा बौद्धिक दर्शकों को भी लीक से हट कर बनी ‘आयशा‘ ट्रीटमेंट के स्तर पर संतुष्ट नहीं करेगी। शुरू से अंत तक हाथ से फिसलती और छूटती सी नजर आती है फिल्म। कह सकते हैं कि एक बेहतरीन, अर्थपूर्ण, कुछ अलग किस्म की कहानी जब बुनावट यानी मेकिंग के स्तर पर लड़खड़ा जाती है तो ‘आयशा‘ जैसी फिल्म बनती है। वरना तो दिल्ली की जिस अमीरजादी, शोख, थोड़ी सी एरोगेंट, ज्यादातर आत्मकेंद्रित और पूरी तरह आत्म मुग्ध लड़की के किरदार में सोनम कपूर को उतारा गया है वह बॉक्स ऑफिस पर गदर मचा सकती थी। इस तरह के चरित्र को ‘नारसिसस‘ कहते हैं। यह चरित्र ग्रीक माइथोलॉजी में मौजूद है और पूरी दुनिया में इस चरित्र के प्रभाव ग्रीक माइथोलॉजी से ही ग्रहण किए गये हैं। यह केवल खुद पर मुग्ध, पूरी तरह पर्फेक्ट, अंतिम सत्य सा ‘तूफान‘ चरित्र होता है जो सोनम कपूर जैसी सॉफ्ट, कम उम्र और दिलकश लड़की पर फिट नहीं बैठता। इस ‘मिसमैच‘ के कारण ही ‘आई हेट लव स्टोरीज‘ की, दर्शकों के दिलों पर राज करने वाली सोनम ‘आयशा‘ में प्रभावित नहीं कर पाती। लेकिन एक लीक से हटकर उठायी गयी कहानी के जीवंत और जुदा अनुभव से गुजरने के लिए फिल्म को एक बार जरूर ही देखना चाहिए। सवा दो घंटे की फिल्म में कोई हीरोईन शायद इतनी तरह की ड्रेसेज नहीं पहन सकती जितनी सोनम ने पहनी हैं। लड़कियों को तो ड्रेसेज की इतनी अधिक वेरायटीज से गुजरने के लिए भी ‘आयशा‘ देख लेनी चाहिए। फिल्म का कथासार इतना सा है कि रियल लाइफ में दूसरों की जोड़ी मिलाने का शौक रखने वाली सोमन कपूर कैसे अपनी सनक और जिद के चलते क्रमशः अपने दोस्तों को खोती चली जाती है। हिंदी फिल्म है। सुखांत फिल्म बनाना मजबूरी है इसलिए अंत में सोनम को ‘रियलाइज‘ होता है कि वह कितनी गलत थी और इस आत्मस्वीकार के बाद वह अपने ‘प्यार‘ अभय देओल को पा लेती है। दिल्ली के बिंदास, बेफिक्रे, अल्हड़ किरदारों के रूप में अभय देओल, साइरस शौकर, इरा दुबे और अमृता पुरी दिल जीत लेते हैं। सोनम का अभिनय मंजता जा रहा है। वह सहज अभिनय करने की कठिन दिशा में आगे बढ़ रही है। अभय देओल के अभिनय में आत्मविश्वास है तो नयी लड़की अमृता पुरी ने बहादुरगढ़ की पंजाबी कुड़ी के रूप में खुद को ‘मनवा‘ लिया है। गीत-संगीत बेहतरीन है। लंबे समय बाद एम. के. रैना को बड़े पर्दे पर देखना सुखद है।
निर्माता: अनिल कपूर, रिया कपूर
निर्देशक: राजश्री ओझा
कलाकार: अभय देओल, सोनम कपूर, साइरस शौकर, इरा दुबे, अमृता पुरी, एम.के. रैना आदि।
गीत: जावेद अख्तर
संगीत: अमित त्रिवेदी
हाथ से छूटती फिसलती सी ‘आयशा‘
धीरेन्द्र अस्थाना
प्रेम कहानी होने के बावजूद थोड़ी गंभीर और जटिल किस्म की फिल्म है इसलिए आम दर्शक संभवतः ‘आयशा‘ को देखना पसंद नहीं करेंगे। लेकिन विशेष अथवा बौद्धिक दर्शकों को भी लीक से हट कर बनी ‘आयशा‘ ट्रीटमेंट के स्तर पर संतुष्ट नहीं करेगी। शुरू से अंत तक हाथ से फिसलती और छूटती सी नजर आती है फिल्म। कह सकते हैं कि एक बेहतरीन, अर्थपूर्ण, कुछ अलग किस्म की कहानी जब बुनावट यानी मेकिंग के स्तर पर लड़खड़ा जाती है तो ‘आयशा‘ जैसी फिल्म बनती है। वरना तो दिल्ली की जिस अमीरजादी, शोख, थोड़ी सी एरोगेंट, ज्यादातर आत्मकेंद्रित और पूरी तरह आत्म मुग्ध लड़की के किरदार में सोनम कपूर को उतारा गया है वह बॉक्स ऑफिस पर गदर मचा सकती थी। इस तरह के चरित्र को ‘नारसिसस‘ कहते हैं। यह चरित्र ग्रीक माइथोलॉजी में मौजूद है और पूरी दुनिया में इस चरित्र के प्रभाव ग्रीक माइथोलॉजी से ही ग्रहण किए गये हैं। यह केवल खुद पर मुग्ध, पूरी तरह पर्फेक्ट, अंतिम सत्य सा ‘तूफान‘ चरित्र होता है जो सोनम कपूर जैसी सॉफ्ट, कम उम्र और दिलकश लड़की पर फिट नहीं बैठता। इस ‘मिसमैच‘ के कारण ही ‘आई हेट लव स्टोरीज‘ की, दर्शकों के दिलों पर राज करने वाली सोनम ‘आयशा‘ में प्रभावित नहीं कर पाती। लेकिन एक लीक से हटकर उठायी गयी कहानी के जीवंत और जुदा अनुभव से गुजरने के लिए फिल्म को एक बार जरूर ही देखना चाहिए। सवा दो घंटे की फिल्म में कोई हीरोईन शायद इतनी तरह की ड्रेसेज नहीं पहन सकती जितनी सोनम ने पहनी हैं। लड़कियों को तो ड्रेसेज की इतनी अधिक वेरायटीज से गुजरने के लिए भी ‘आयशा‘ देख लेनी चाहिए। फिल्म का कथासार इतना सा है कि रियल लाइफ में दूसरों की जोड़ी मिलाने का शौक रखने वाली सोमन कपूर कैसे अपनी सनक और जिद के चलते क्रमशः अपने दोस्तों को खोती चली जाती है। हिंदी फिल्म है। सुखांत फिल्म बनाना मजबूरी है इसलिए अंत में सोनम को ‘रियलाइज‘ होता है कि वह कितनी गलत थी और इस आत्मस्वीकार के बाद वह अपने ‘प्यार‘ अभय देओल को पा लेती है। दिल्ली के बिंदास, बेफिक्रे, अल्हड़ किरदारों के रूप में अभय देओल, साइरस शौकर, इरा दुबे और अमृता पुरी दिल जीत लेते हैं। सोनम का अभिनय मंजता जा रहा है। वह सहज अभिनय करने की कठिन दिशा में आगे बढ़ रही है। अभय देओल के अभिनय में आत्मविश्वास है तो नयी लड़की अमृता पुरी ने बहादुरगढ़ की पंजाबी कुड़ी के रूप में खुद को ‘मनवा‘ लिया है। गीत-संगीत बेहतरीन है। लंबे समय बाद एम. के. रैना को बड़े पर्दे पर देखना सुखद है।
निर्माता: अनिल कपूर, रिया कपूर
निर्देशक: राजश्री ओझा
कलाकार: अभय देओल, सोनम कपूर, साइरस शौकर, इरा दुबे, अमृता पुरी, एम.के. रैना आदि।
गीत: जावेद अख्तर
संगीत: अमित त्रिवेदी
Subscribe to:
Posts (Atom)