Wednesday, August 27, 2014

फगली


फिल्म समीक्षा

फुकरों की फगली

धीरेन्द्र अस्थाना

फगली का कोई आधिकारिक अर्थ नहीं है जैसे फुकरों का भी कोई अर्थ नहीं है। मगर फुकरों का एक मतलब यह मान लिया गया है कि किसी की परवाह न करने वाले बिंदास अलमस्त और मौज मजा में यकीन रखने वाले युवाओं की टोली। इसी तरह फगली का मतलब पागलपंती मान लेते हैं। ऐसी पागलपंती जिसमे जुनून के साथ कोई मिशन भी जुड़ा हो। निर्देशक कबीर सदानंद ने विषय अच्छा उठाया था लेकिन उसे साध नही पाये। दर्शक शायद थोड़ी अश्लीलता, थोड़ी कॉमेडी और थोड़े एंटरटेनमेंट की आस ले कर फिल्म देखने आये थे। इसीलिए पहले दिन सिनेमा घरों में अच्छी खासी भीड़ रही। नये कलाकारों के बावजूद युवा दर्शक फिल्म देखने आये। मगर अफसोस कि बहुत लंबे समय बाद यह नजारा देखने को मिला कि पचासों दर्शक फिल्म खत्म होने से काफी पहले ही सिनेमाघर छोड़ कर जाते दिखे। संदेशपरक और गंभीर फिल्म थी लेकिन बहुत बोझिल और उबाउ हो गयी थी कई जगह। कहीं कहीं पर दिल्ली का खिलंदड़ा अंदाज था, खुली गालियां थी लेकिन कुल मिला कर पूरी फिल्म पर एक थकावट सी तारी थी। फिल्म की रफ्तार भी बीच बीच में टूट टूट जाती थी। बॉक्सर विजेन्द्र सिंह की यह डेबू फिल्म है।  बाकी युवा टाली भी प्रायः नये कलाकारों की है। विजेन्द्र सिंह, मोहित मारवाह, अरफी लांबा और कायरा आडवानी बचपन के दोस्त हैं जो अपने अपने संधर्ष का जीवन बिताते हुए जवान हो गये हैं। उनके कुछ सपने हैं। विजेन्द्र को वर्ल्ड फेमस बॉक्सर बनना है। मोहित को एडवेंचर कैंप लगाने हैं। कायरा को मां को खुश रखना है और अरफी कनफ्यूज्ड है। दिल्ली की सड़कों पर यह टोली मस्ती करती घूमती रहती है। कभी पुलिस इन्हें पकड़ लेती है तो विजेन्द्र अपने बाप का नाम लेकर सबको छुड़ा लेता है। विजेन्द्र का बाप मंत्री है। लेकिन एक बार इनका टकराव चौटाला नाम के सिरफिरे और लालची पुलिस अधिकारी जिमी शेरगील से हो जाता है। घटना की रात ये लोग उस दुकानदार के हाथ पांव बांध कर अपनी कार की डिक्की में डाले हुए थे जिसने कायरा को छेड़ा था। जिमी दुकानदार का मर्डर कर देता है और उस भाले पर विजेन्द्र के हाथों के निशान ले लेता है जिससे मर्डर हुआ है। फिर वह चारों को गाड़ी में बिठा कर एक पुराने किले में ले आता है। जिमी इनसे इकसठ लाख रूपये दे कर मुक्त हो जाने या फिर तिहाड़ जेल की हवा खाने की पेशकश करता है। ये लोग पैसे जुटाने के लिए क्या क्या पापड़ बेलते हैं और इसके बावजूद जिमी के बिछाये जाल में उलझते जाते हैं, यह फिल्म देखकर जानना ज्यादा उचित होगा। फिल्म खुलती है उस शॉट से जिसमें फिल्म का हीरो मोहित अमर जवान ज्योति के सामने खुद पर मिट्टी का तेल डाल कर आग लगा लेता है। इसके बाद पूरी फिल्म फ्लैशबैक में चलती है। इस घटना से पूरी दिल्ली में कैसे जनजागरण होता है यही इस फिल्म का संदेश है। फिल्म के अंत में मोहित मारा जाता है। जिमी पहले गिरफ्तार होता है फिर मार दिया जाता है। बाकी बचे दोस्तों के सपने पूरे हो जाते हैं। यही है फगली।

निर्देशक : कबीर सदानंद
कलाकारः जिमी शेरगिल, मोहित मारवाह, विजेन्द्र सिंह, कायरा आडवानी, अरफी लांबा।   
संगीत : यो यो हनी सिंह        






Monday, June 9, 2014

हॉलीडे


फिल्म समीक्षा

रोमांस, एक्शन और रोमांच का पैकेज : हॉलीडे  

धीरेन्द्र अस्थाना

कुछ जुनूनी निर्देशकों द्वारा सार्थक फिल्मों की कतार लगा देने के कारण मुख्यधारा सिनेमा के निर्माता-निर्देशक भी दबाव में आ गए लगते हैं। तभी न कमर्शियल फिल्मों के सफल प्रोड्यूसर विपुल शाह ने ‘हॉलीडे‘ जैसी फिल्म में पैसा लगाया जो मनोरंजन के साथ-साथ मैसेज भी देती है। एक्शन, रोमांस और रोमांच का एक अच्छा पैकेज पेश करती है फिल्म। सुंदर कॉमेडी का तड़का भी है। रोमांस को भी वल्गर नहीं होने दिया गया है। अक्षय के अपोजिट एक सीनियर स्टार की बेटी सोनाक्षी सिन्हा है इसलिए निर्देशक ने बाकायदा यह ध्यान रखा कि जैसे ही होठ चूमने के दृश्य आते हैं कोई न कोई बाधा दस्तक दे देती है। फिल्म में गानों की कोई जरूरत नहीं थी लेकिन हिंदी फिल्मों के दर्शकों का काम गानों के बिना चलता नहीं है इसलिए गाने हैं और फिल्म की रिलीज से पहले ही हिट भी हो चुके हैं। प्रीतम का संगीत कर्णप्रिय है। फिल्म ने एक सार्थक मुद्दा उठाया है। आतंकवादियों के मास्टर माइंड इस थ्योरी पर काम करते हैं कि आम जनता के बीच रहने-उठने-बैठने-जीने वाले आम लोगों को अपना कार्यकर्ता बनाओ। ऐसे लोगों को चुनो जो किसी न किसी कारण अपने मुल्क, सिस्टम या शासन से खफा हैं। उनकी नाराजगी को नफरत में बदल कर उसे विद्रोह का आकार दो और उस चिंगारी को नोटों की हवा से शोलों में भड़कने दो। आतंकवादी ऑपरेशन की भाषा में इन लोगों को ‘स्लीपर सेल‘ कहा जाता है। इनके इमीजिएट बॉस भी ‘स्लीपर सेल‘ के लोग ही होते हैं। मास्टर माइंड के बारे में इन्हें कुछ पता नहीं होता। ये पकड़े भी जाते हैं तो मुख्य साजिशकर्ता तक नहीं पहुंचा सकते। अच्छा थीम है। लोगों को आतंकवादी ऑपरेशन और उसके खिलाफ देशभक्तों की जंग को किसी महत्वपूर्ण पाठ की तरह दिखाती है यह फिल्म। न सिर्फ जागरूक करती है बल्कि यह संदेश भी देती है कि आंतक के खिलाफ लड़ने का ठेका पुलिस या सेना ने ही नहीं ले रखा है। आम नागरिक को भी इसके विरूद्ध लामबद्ध होना चाहिए। फिल्म के अंत में अक्षय और सोनाक्षी का विवाह नहीं हो पाया है इससे लगता है कि ‘हॉलीडे‘ का सीक्वेल भी बनेगा। आतंकवादियों के मास्टर माइंड बने युवा एक्टर फरहाद की यह पहली फिल्म है। इस लड़के ने बेहतर काम किया है लेकिन दिक्कत यह है कि अब इसके ऊपर विलेन का ठप्पा लग गया है। सुमित राघवन तो टीवी के मंजे हुए कलाकार हैं। यहां उन्होंने अक्षय कुमार के हर समय बौखलाये से रहने वाले पुलिस ऑफीसर का दोस्त शानदार ढंग से प्ले किया है। सोनाक्षी अब नंबर वन के पायदान पर हैं। थोड़ा मोटापा और कम करना चाहिए। फिल्म में गोविंदा को बरबाद कर दिया गया है। हालांकि अपनी इस बरबादी के वह खुद जिम्मेदार हैं। ऐसा फिलर टाइप का रोल उन्हें करना ही नहीं चाहिए था। अक्षय के एक्शन और स्टाइल में दम है। निर्देशक ए.आर. मुरूगादॉस उनसे उनका बेहतर काम निकलवाने में कामयाब हुए हैं। इस बार अक्षय ने सलमान की तरह अपना स्टाइल स्टेटमेंट भी देने का काम किया है। आंख से चश्मा उठाना और बांह से आस्तीन को ऊपर चढ़ाने वाला अंदाज दर्शकों ने नोट किया। तालियां भी बजाईं। हिट है बॉस। 
निर्देशक : ए.आर. मुरूगादॉस
कलाकार : अक्षय कुमार, सोनाक्षी सिन्हा, फरहाद, सुमित राघवन
संगीत : प्रीतम चक्रवर्ती

Tuesday, June 3, 2014

सिटीलाइट्स

फिल्म समीक्षा

सिटीलाइट्स : ऐसे भी तो संभव है सिनेमा 

धीरेन्द्र अस्थाना

नयी उम्र के दर्शकों-पाठकों को सबसे पहले यह बताना चाहते हैं कि सत्तर के दशक में हम लोग आर्थिक मोर्चे पर अच्छे खासे गरीब होते थे। तकनीक के स्तर पर भी काफी पिछड़े हुए थे। गरीब और पिछड़े होने के साथ हम बहुत भोले और ईमानदार भी होते थे। यह बताने का अर्थ यह है कि आज के जमाने में बनी फिल्म ‘सिटीलाइट्स‘ ऊपर बताए यथार्थ पर ही खड़ी है। यह एक बेहतर फिल्म है जिसके अर्थ धीरे-धीरे खुलते हैं। पर अपने देखे जाने के दौरान अपनी धीमी गति के कारण यह खीझ भी पैदा करती है। राजकुमार राव को कहां से उठा लायी है यह फिल्म इंडस्ट्री। कहीं से भी एक्टर नहीं लगता लेकिन एक्टिंग की पूरी रंगशाला कंधे पर लादे घूमता है। उसके अपोजिट पत्रलेखा को तलाशा है निर्देशक हंसल मेहता ने। ये दोनों इंडस्ट्री के नसीरुद्दीन शाह और शबाना आजमी बनने वाले हैं। सत्तर के दशक में साहित्य में जिस गरीब आदमी की कहानियां लिखी जाती थीं वैसी ही एक कहानी को हंसल मेहता ने बड़े पर्दे पर थोड़ी स्मार्टनेस के साथ पेश कर दिया है। पर दिक्कत यह है कि मल्टीप्लेक्स में जो दर्शक ढाई सौ रुपए का टिकट लेकर साठ रुपए का समोसा खाता है और डेढ़ सौ रुपए का कोल्ड ड्रिंक पीता है उसके मुंह का स्वाद बिगाड़ देगी यह फिल्म। धुर गरीबी, ठोस हताशा और गहरी बेचारगी की बात करती है फिल्म। फिल्म बहुत अद्भुत बनी है। लेकिन यहां निर्देशक के लिए भी एक ज्ञान की बात परोसनी जरूरी है। जब हम कमर्शियल सिनेमा की बात करते हैं तो निर्देशक को लार्जर दैन लाईफ फार्मूले के नाम पर काफी छूट देते हैं। यह छूट रियलिस्टिक सिनेमा बनाने वाले को नहीं दी जाती। निर्देशक से शुरुआत में ही एक गलती हो गई। मोबाइल फोन के जमाने में, फिल्म का हीरो राजकुमार राव अपनी पत्नी और बेटी के साथ राजस्थान के गांव से सीधा मुंबई आ जाता है। जबकि जिस गांव वाले दोस्त ने उसे मुंबई बुलाया है उसका पता राजकुमार के पास नहीं है। गांव वाले मित्र का फोन स्विच ऑफ है। पुलिस फोन नंबर के आधार पर दोस्त का पता ठिकाना आसानी से निकाल सकती थी। लेकिन नहीं निकालती। जबकि मुंबई पुलिस इतनी हृदयहीन नहीं है। इस बिना पते और बंद मोबाइल वाले दोस्त को राजकुमार मुंबई की गलियों में केवल नाम के आधार पर खोजता फिरता है जो बेहद हास्यास्पद लगता है। बाकी गलतियां भी इस मूल गलती से जुड़ी हुई ही हैं। अनजान आदमी से बिना लिखत-पढ़त के किराए पर मकान लेने के चक्कर में जो फर्जीवाड़ा होता है उससे राजकुमार की जेब का दस हजार रुपया भी लुट जाता है। अब पेट पालने के लिए मुंबई में किसी औरत के लिए सबसे आसान रास्ता है बीयर बार में नाचना। यही करती है फिल्म की हीरोइन पत्रलेखा। काफी जद्दोजहद के बाद राजकुमार को एक सिक्योरिटी सर्विस कंपनी में नौकरी मिल जाती है। वह मेहनत से काम करता है लेकिन पगार मिलने से पहले ही अपने सीनियर के किए षड्यंत्र का शिकार होकर सस्पेंड हो जाता है। जितने दिन काम किया है उसकी भी पगार नहीं मिलती। उधर पत्नी का काम भी छूट जाता है। राजकुमार एजेंसी के मालिक के केबिन में घुस जाता है। फिर उसे बंधक बना कर गले में लटकी लक्ष्मी जी के पेंडल की भीतरी सतह पर उस बक्से की चाबी की छाप ले लेता है जो बक्सा मर चुके सीनियर के उस घर में रखा है जिसमें इन दिनों राजकुमार रहता है। अंत में राजकुमार सिक्योरिटी गार्ड्स के हाथों मारा जाता है और नियम के मुताबिक कंपनी उसका निजी सामान उसकी पत्नी के घर पहुंचवा देती है। इस सामान में लक्ष्मी जी का पेंडल भी है। घर से काम पर जाते समय यह पेंडल राजकुमार के गले में नहीं था। इसलिए पत्नी को यह पेंडल देख कुछ हैरानी होती है। वह उत्सुकता से उसे खोलती है तो भीतर एक चाबी की छवि दिखाई देती है। पत्नी को बक्से के बारे में पता था। वह तुरंत डुप्लीकेट चाबी बनवा कर बक्सा खोलती है। इस बक्से में किसी के करोड़ों रुपए हैं। यह बक्सा कहां से आया और किसका है, यही फिल्म का सस्पेंस है। पत्नी पैसों और बेटी को ले फिर से  अपने गांव निकल जाती है। फिल्म की टैग लाइन है - आप अपने परिवार के लिए किस हद तक जा सकते हैं? अनिवार्य रूप से देखने लायक फिल्म।
निर्देशक : हंसल मेहता
कलाकार : राजकुमार राव, पत्रलेखा
संगीत : जीत गांगुली

Monday, May 26, 2014

हीरोपंती

फिल्म समीक्षा

हीरोपंती : लोगों को आती नहीं 

धीरेन्द्र अस्थाना

रोमांस और एक्शन के जोनर तले बनी, जैकी श्रॉफ के बेटे टाइगर को लांच करने वाली फिल्म है ‘हीरोपंती‘। फिल्म इंडस्ट्री में ऐसे ढेर सारे उदाहरण हैं कि स्टार एक्टर का बेटा एक्टिंग के क्षेत्र में नहीं चल पाया या फिर दोयम दर्जे का एक्टर बना रहा। टाइगर को बड़े पैमाने पर लांच किया गया था। उसकी छवि बतौर एक्शन हीरो प्रोजेक्ट की गयी थी। फिल्म में उसने अपने एक्शन के कमाल भी दिखाए, जिन पर युवा दर्शकों ने सीटियां भी बजाईं। लेकिन सिर्फ इतने भर से कुछ होता जाता नहीं है। एक बड़े घटिया से डायलॉग को पूरी फिल्म की यूएसपी बना कर पेश किया गया है। जब जब कोई टाइगर की हीरोपंती पर कमेंट करता है वह बोलता है - क्या करूं लोगों को आती नहीं, मेरी जाती नहीं। टाइगर के चेहरे पर कोई भाव हरकत ही नहीं करता है। उसका जिस्म बोलता है चेहरा नहीं। इसमें शक नहीं कि उसने अपनी बॉडी पर जम कर मेहनत की है मगर एक्टिंग के खाते में भी तो थोड़ी मेहनत ट्रांस्फर करनी चाहिए थी। उसके अपोजिट जो नयी लड़की कृति सेनन इंट्रोड्यूस की गयी है उसमें भी अनुष्का, कंगना, आलिया, इलियाना, परिणिति जैसी चमक, ऊर्जा और विस्फोट नहीं है। नहीं लगता है कि आगे चल कर दोनों का कुछ खास होने वाला है। हां, यदि दोनों आर्टिस्ट सब कुछ भूल कर कुछ समय खुद को एक्टिंग के विभिन्न आयाम सीखने में बिताएं तो युवा पीढ़ी के दिलों में जगह बना सकते हैं। टाइगर को तो कहीं जाने की भी जरूरत नहीं है। उनके पिता जैकी कमाल के एक्टर हैं। टाइगर को जैकी से सीखना चाहिए। फिल्म की सबसे बड़ी उपलब्धि है इसमें प्रकाश राज का नये अवतार में मौजूद होना। उन्हें हम अभी तक एक क्रूर खलनायक के रूप में देखते आये थे। यहां तो उन्होंने एक विलेन के भीतर रहने वाले संवेदनशील बाप के भी दर्शन करा दिए। कमाल की एक्टिंग की है प्रकाश राज ने। पहली बार किसी विलेन के किरदार ने रुलाने का काम किया है। फिल्म की बुनियाद खाप पंचायतों के नियमों से प्रेरित बताई गयी है। एक जाट लैंड है जहां प्यार के लिए कोई जगह नहीं। दो बच्चे पैदा होने के बाद तो लड़की से उसका नाम पूछा जाता है। ऐसा फिल्म में कहा गया है। तो ऐसे जाट लैंड से प्रकाश राज की बड़ी बेटी को उसका प्रेमी भगा ले जाता है। भगाने में सहायक हैं टाइगर और उसके दोस्त। प्रकाश के लोग इन सबको उठा लेते हैं और जम कर ठुकाई करते हैं। टाइगर का दिल प्रकाश राज की छोटी बेटी पर आ जाता है। यहीं से शुरू होता है रोमांस और एक्शन का तड़का। छोटी बेटी यानी कृति सेनन को टाइगर विद्रोह का पाठ पढ़ाता है और उसे उसकी शादी के मंडप से भगा ले जाने के लिए पहुंचता है। लेकिन प्रकाश राज के भीतर के टूटे बाप को देख वह अपना इरादा बदल देता है। प्रकाश राज के भीतर का बाप भी जाट लैंड के नियमों को बाय बाय बोल टाइगर को अपनी बेटी ले जाने की इजाजत दे देता है। इतनी जरा सी बात पर इतनी खर्चीली फिल्म बना डाली। जबकि बेहतरीन फिल्मों को थियेटर तक नसीब नहीं होते। कमाल है अपना बॉलीवुड और उसका मायावी संसार।
निर्देशक : सब्बीर खान
कलाकार : टाइगर श्राफ, कृति सेनन, प्रकाश राज
संगीत : साजिद-वाजिद

Monday, May 19, 2014

द एक्सपोज

फिल्म समीक्षा

छठे दशक का लव, सेक्स और धोखा: द एक्सपोज 

धीरेन्द्र अस्थाना

गायक और संगीतकार तो हिमेश रेशमिया शुरू से बेहतर रहे हैं लेकिन बतौर एक्टर दर्शकों और फिल्म समीक्षकों ने उन्हें अब तक स्वीकार नहीं किया था। मगर एक्टर बनने की उनकी जिद ने अंततः कामयाबी का दामन थाम ही लिया। फिल्म भले ही सौ करोड़ क्लब में शामिल न हो मगर हिमेश ने इस फिल्म के जरिए यह साबित कर दिया कि वह एक्टिंग कर सकते हैं। इस फिल्म में वह अपने जमाने के मशहूर एक्टर राजकुमार से प्रेरित हैं। वैसा ही अंदाज, वही एरोगेंस और वैसा ही आत्मविश्वास। फिल्म साठ के दशक के फिल्मी माहौल में घटती है। हिमेश साउथ के सुपर स्टार हैं जिन्हें लेकर हिंदी का सुपरहिट निर्देशक फिल्म बनाता है। मुख्य धारा सिनेमा के उसके प्रतिद्वंद्वी निर्देशक की उसी दिन रिलीज फिल्म सुपरहिट हो जाती है जबकि हिमेश और जारा (सोनाली राउत) की फिल्म अनेक षड्यंत्रों के चलते फ्लॉप हो जाती है। इरफान खान फिल्म के सूत्रधार हैं और फिल्म में उन्होंने टिकटों को ब्लैक में बेचने वाले व्यक्ति का किरदार भी निभाया है। इस फिल्म से पता चलता है कि कैसे साठ के दशक में ब्लैकियों को खरीद लिया जाता था और वे पांच का टिकट तीन में बेचने का नाटक कर फिल्म को फ्लॉप करवा देते थे। फिल्म की दो हीरोइनें जोया अफरोज (चांदनी) और सोनाली राउत (जारा) एक दूसरे के साथ प्रोफेशनल जेलेसी का शिकार हैं। हिमेश मन ही मन चांदनी से प्यार करता है जबकि चांदनी एक अन्य एक्टर की गर्लफ्रेंड है। फिल्म के सेट पर आग लग जाती है तो हिमेश चांदनी को बचा लाता है। हिमेश का सौतेला भाई डॉन है। संगीतकार यो यो हनी सिंह ने भ्रष्ट संगीतकार के डी का किरदार निभाया है। फिल्म के निर्देशक अनंत महादेवन निर्देशक के ही किरदार में हैं। हिमेश एक्टर बनने से पहले पुलिस इंस्पेक्टर थे। उनसे एक मंत्री का मर्डर हो जाता है तो उन्हें सजा हो जाती है। सजा काटने के बाद वह एक्टर बनते हैं। चांदनी पर बनी फिल्म की सक्सेस पार्टी में सब लोग एक साथ हैं। यहां चांदनी और जारा में झगड़ा होता है। मार पीट भी। इसके बाद जारा टैरेस पर जाती है जहां से गिर कर उसकी मौत हो जाती है। यहां से फिल्म मर्डर मिस्ट्री में बदल जाती है। कम से कम छह किरदारों से इस रात जारा के पंगे हुए थे इसलिए मर्डर का शक छहों पर है। लेकिन असली हत्यारा कौन है, यही इस फिल्म का रहस्य और रोमांच है। फिल्म के सारे गाने पहले ही हिट हो चुके हैं। बहुत दिनों बाद ऐसे संवाद सुनने को मिले जिस पर थिएटर के भीतर बैठे दर्शक तालियां बजा रहे थे। फिल्म साधारण है लेकिन भरपूर मनोरंजन करती है और दर्शकों को एक पल के लिए भी बोर नहीं होने देती। देख सकते हैं। निराश नहीं होंगे।
निर्देशक: अनंत महादेवन
कलाकार: हिमेश रेशमिया, जोया अफरोज, सोनाली राउत, इरफान खान, यो यो हनी सिंह, आदिल हुसैन
संगीत: हिमेश रेशमिया



हवा हवाई

फिल्म समीक्षा

खुली आंखों का सपना: हवा हवाई

धीरेन्द्र अस्थाना

दूसरों का मालूम नहीं मैंने मकरंद देशपांडे को जीवन में पहली बार बिना दाढ़ी और बिना लंबे बालों के देखा। मुश्किल से कुल मिला कर दो मिनट का रोल और दिल जीत लिया दर्शकों का। फिल्म के मेन हीरो चाइल्ड आर्टिस्ट पार्थो गुप्ते के पिता के रोल में हैं मकरंद और एक गाने के जरिए संदेश देते हैं कि अंगारों पर चलना ही है जीवन का मंत्र। वह एक कपास उगाने वाले किसान हैं जिनकी फसल को पाला मार जाता है। वह हार्ट अटैक से मर जाते हैं। लेकिन यह घटना फ्लैश बैक में खुलती है। चाइल्ड हीरो पार्थो गुप्ते निर्देशक अमोल गुप्ते का बेटा है और उसने साबित कर दिया है कि साधारण शक्ल सूरत के बावजूद वह बहुत दूर जाने वाला है। ये बॉलीवुड में कैसे कैसे कमाल के लोग बसे हुए हैं तो फिर घटिया लोगों की लॉटरी क्यों निकल आती है? फिल्म के पांच चाइल्ड आर्टिस्ट ने जो काम किया है उसकी सीडी बना कर कई स्टार पुत्रों को दिन में पांच बार देखनी चाहिए। इस बार अमोल गुप्ते ने कोई रिस्क नहीं लिया। कहानी भी खुद लिखी, निर्देशन भी खुद किया और प्रोड्यूस भी खुद ही कर दी। और उनका यह निर्णय अच्छा ही हुआ। उनके काम का क्रेडिट कोई और तो नहीं ले गया। बहुत गजब फिल्म है ‘हवा हवाई‘। खुली आंखों से देखे हुए सपने का नतीजा है यह कृति जिसे किसी स्टार की दरकार नहीं थी। फिल्म के मूल किरदार पांच बच्चे तलछट से उठते हुए नायक हैं। पिता के मरने के बाद पार्थो को एक चाय की दुकान पर नौकरी करनी पड़ती है। इस दुकान के बाहर शाम 7 बजे के बाद अमीर घरों के बच्चे स्केटिंग सीखने आते हैं। नौकरी के पहले दिन पार्थो इस ट्रेनिंग को कौतुहल से देखता है। वह एक सपने को अपने भीतर जगह देता है कि वह भी स्केटिंग का चैंपियन बने। उसके चार दोस्त भंगार से सामान बटोर कर उसे स्केट बना कर देते हैं। इन दोस्तों में एक कचरा बीनता है, एक जरदोरी का काम करता है, एक कार गैराज में है और एक फूल बेचता है। तलछट का जीवन। वहां से चैंपियन बनने की छलांग। इस सपने को पालता पोसता है कोच साकिब सलीम। इसके बाद तमाम बाधाएं हैं जिन्हें पार करते हुए साकिब सलीम और पार्थो गुप्ते का सपना पूरा होता है और महाराष्ट्र स्टेट स्केट चैंपियनशिप प्रतियोगिता में पार्थो विजेता घोषित होता है। ‘चक दे इंडिया‘ और ‘भाग मिल्खा भाग‘ के बाद खेल और उसके संघर्ष पर बनी एक और अनूठी फिल्म। लेकिन यह इस मायने में अलग कि इसका कैनवास उन दो फिल्मों से छोटा जरूर है मगर जज्बा और जुनून लगभग वही है। यह तलछट से छलांग लगाने की फिल्म है। एक अनिवार्य रूप से देखी जाने वाली फिल्म।
निर्देशक: अमोल गुप्ते
कलाकार: पार्थो गुप्ते, साकिब सलीम, प्रज्ञा यादव, मकरंद देशपांडे, नेहा जोशी, दिव्या जगदाले
संगीत: हितेश सोनिक

पुरानी जीन्स

फिल्म समीक्षा

दोस्ती और प्यार की थकी कहानी: पुरानी जीन्स 

धीरेन्द्र अस्थाना


तीन, चार या पांच दोस्त। उनका एक दूसरे पर जान छिड़कना। उनके बीच तनाव का पसरना। उनका बिछड़ना। फिर मिलना। गलतफहमियों का दूर होना। दोस्ती का फिर लौट आना। एक लड़की। उस पर दो दोस्तों का एक साथ फिदा हो जाना। रिश्ते का उजागर होना। दोस्ती की खातिर किसी एक दोस्त का पांव पीछे खींच लेना। प्रेमी-प्रेमिका का मिल जाना। हिंदी सिनेमा में यह कहानी इतनी बार फिल्मायी गयी है कि अगर कोई नया कोण या विशेष अंदाज न हो तो फिल्म कोई थ्रिल नहीं जगा पाती। उस पर तुर्रा यह कि कलाकारों की एक्टिंग में भी कोई दम नहीं। ऐसा लगता है कि किसी छोटे शहर के अनुभवहीन नाट्यकर्मियों द्वारा कोई नाटक पेश किया जा रहा हो। सारिका जैसी प्रतिभाशाली और मंजी हुई अभिनेत्री को भी पूरी तरह बर्बाद कर दिया गया है। रति अग्निहोत्री के काम में जरूर कुछ चमक और ऊर्जा दिखाई देती है वरना तो पूरी फिल्म स्लोमोशन वाली बुझी बुझी यात्रा जैसी हो गयी है। रति अग्निहोत्री फिल्म के हीरो तनुज वीरवानी की मां के किरदार में हैं। हीरो समेत फिल्म में पांच दोस्तों की कहानी है। ये पांचों हिमाचल प्रदेश के एक छोटे से पहाड़ी शहर कसौली में रहते हैं। इन पांचों को लीड करता है नया एक्टर आदित्य सील। इसके चेहरे से जॉन अब्राहम के शेड्स कौंधते रहते हैं इसलिए यह एक्टिंग के स्तर पर भी जॉन की छाया के नीचे चलता नजर आता है। हालांकि यही एक्टर पूरी फिल्म में सबसे ज्यादा जीवंत और सक्रिय भी दिखाई देता है। मूल कहानी भी इसी के इर्द-गिर्द बुनी गयी है। यह पैसे वाली रानी सारिका का बेटा है जो हर समय शराब के नशे में धुत्त रहती है। आदित्य का पिता एक विदेशी लड़की के साथ तब भाग गया था जब आदित्य छह सात साल का था। उसे बाप का प्यार मिला ही नहीं। मां ने भी उसे हॉस्टल आदि में भेज अपने से दूर ही रखा। उसने दोस्तों के ग्रुप में अपने इमोशंस अर्जित किए। फिर उसने जिस लड़की इजाबेल को चाहा वह उसके बेस्ट फ्रेंड तनुज वीरवानी की चाहत में गिरफ्तार दिखी। आदित्य सील आत्महत्या कर लेता है। मन में अपराध बोध लिए तनुज विदेश में जाकर बस जाता है - पीछे सबको छोड़। फिर मां के मरने के बाद वह प्रॉपर्टी बेचने कसौली लौटता है। वहां पुराने दोस्त एक एक कर मिलते हैं, प्रेमिका भी। फिर वह आदित्य की मां सारिका से मिलता है उसे सॉरी बोलने के लिए कि आदित्य उसके कारण मरा। सारिका उस रात की असली कहानी बताता है कि आदित्य  सारिका की वजह से मरा क्योंकि जब जब आदित्य को मां की जरूरत थी सारिका तब तब वहां नहीं थी। तनुज का अपराध बोध जाता रहता है। वह और इजाबेल शादी कर लेते हैं। तनुज विदेश नहीं जाता। फिर से कसौली में बस जाता है। फिल्म के दो-तीन गाने अच्छे हैं। कसौली की फोटोग्राफी भी ध्यान खींचती है। क्या करना है खुद निर्णय लें। 
निर्देशक: तनुश्री चटर्जी बासु
कलाकार: तनुज वीरवानी, आदित्य सील, इजाबेल, सारिका, रति अग्निहोत्री
संगीत: राम संपत