धीरेन्द्र अस्थाना
जिसे माइंडलेस कॉमेडी कहते हैं उसकी सवरेत्तम मिसाल है ‘डबल धमाल’। इन्द्र कुमार की मूल फिल्म ‘धमाल’ का यह सीक्वेल पहले जितना कमाल का तो नहीं है लेकिन हंसने हंसाने, मौज, मजा, नाच, गाना, मस्ती का तगड़ा इंतजाम किया गया है ‘डबल धमाल’ में। इन्द्र कुमार ने फिल्म में कहीं भी झोल नहीं आने दिया है। ढाई घंटे की फिल्म बांधे रखती है यह इसका सबसे बड़ा कमाल है। मुन्नी और शीला के बाद अब जलेबी की बारी है। मल्लिका शेरावत का आइटम सांग जलेबी बाई पूरी तरह पैसा वसूल है जिसे अगली बेंच के दर्शक झूम कर देखेंगे। अगर आप शुद्ध मनोरंजन के हिमायती हैं तो फिल्म देखने जरूर जाएं लेकिन अपना दिमाग घर छोड़ दें क्योकि इस फिल्म की कुछ कहानी यह है कि अरशद वारसी, जावेद जाफरी, रितेश देशमुख और आशीष चौधरी की चौकड़ी पाती है कि संजय दत्त तो बहुत पैसे वाला है, जबकि उसने भी उन लोगों की तरह अपना सारा पैसा डोनेट कर दिया था। सच का पता लगाने चारों पहले उसके दफ्तर फिर उसके घर में सेंध लगाते हैं और संजय को ब्लैकमेल कर उसकी कंपनी के पार्टनर बनने में सफल हो जाते हैं। इन चारों को बेवकूफ बना कर संजय इनके जरिए बाटा भाई (सतीश कौशिक)का 250 करोड़ अपनी फर्जी तेल कंपनी में लगवाता है और पैसा लेकर कंगना रानावत तथा मल्लिका शेरावत के साथ मकाऊ के लिए उड़ जाता है। ये चारों संजय को फाइनेंशियली और इमोशनली बर्बाद कर देने की शपथ लेकर मकाऊ पहुंचते हैं। चारों भेस बदल कर संजय के कैसीनो और जीवन में सेंध लगाते हैं और फिश टैंक में रखा एक हजार करोड़ रुपया लेकर चंपत होने की फिराक में धर लिए जाते हैं। बाद में पर्दाफाश होता है कि संजय दत्त को चारों की योजना का पहले से पता था और वह इनको बेवकूफ बना रहा था। यह है डबल धमाल। फिल्म में सिचुएशन से हास्य पैदा किया गया है। सभी पात्रों ने अभिनय से फिल्म को ज्यादा कॉमिक बनाने का प्रयत्न किया है। बॉलीवुड में असुरक्षा का आलम यह है कि कंगना रानावत जैसी प्रतिभाशाली हीरोईन को बहन के रोल में उतरना पड़ा। यह भी लगता है कि आइटम डांस फिर से फिल्मों का अनिवार्य हिस्सा बनता जा रहा है। फिल्म की यूएसजी उसका गीत संगीत और आइटम डांस ही है।
निर्देशक : इन्द्र कुमार कलाकार : सं जय दत्त, अरशद वारसी, जावेद जाफरी, रितेश देशमुख, आशीष चौधरी, सतीश कौशिक, कंगना रानावत, मल्लिका शेरावत। संगीत : आनंद राज आनंद
Saturday, June 25, 2011
Saturday, June 18, 2011
भेजा फ्राई
भेजा फ्राई से भेजा गायब
धीरेन्द्र अस्थाना
जिन दर्शकों ने कुछ वर्ष पहले सागर बेल्लारी द्वारा निर्देशित फिल्म ‘भेजा फ्राई’ देखी होगी, भेजा फ्राई-टू देखकर उनका भेजा तड़क जाएगा। पहली बात तो यह कि यह फिल्म ‘भेजा फ्राई’का सीक्वेंस नहीं है इसलिए इसका नाम ‘भेजा फ्राई-टू’ ही गलत है। पिछली फिल्म की अपार लोकप्रियता का लाभ उठाने के लिए नाम दोहराया गया है। शुरू के दिनों में दर्शक नाम के झांसे में आ भी सकते हैं। दूसरी बात यह कि ‘भेजा फ्राई’ में एक छोटी सी, प्यारी सी ऐसी कहानी थी जिसे लिखने में दिमाग का इस्तेमाल हुआ था। लेकिन ‘भेजा फ्राई-टू’ से भेजा ही गायब है। यह एक ऐसी कॉमेडी फिल्म हैजिस पर निरंतर रोते रहने का मन करता है। पता नहीं क्या सोचकर सागर बेल्लारी की टीम ने इस फिल्म पर काम किया। केके मेनन अतीत में बेहद शानदार फिल्में कर चुके हैं। कॉमेडी उनका क्षेत्र नहीं है क्योकि एक स्वाभाविक संजीदगी उनके व्यक्तित्व का स्थायी भाव है। कह सकते हैं कि कॉमेडी उनकी बॉडी लैंग्वेज के साथ छत्तीस का रिश्ता रखती है। विनय पाठक अपने फॉर्म में थे और पूरी फिल्म का केन्द्र बिंदु भी वही हैं लेकिन अकेला आदमी दर्शकों को कितनी देर तक उलझाये रख सकता है वह भी एक ऐसी फिल्म में जिसमे कथा के नाम भर लगभग शून्य हों। रियल लाइफ में कौन बिजनेस टायकून किसी इनकम टैक्स इंस्पेक्टर से इतना डरता है जितना केके को विनय पाठक से डरता दिखाया गया है। रियलिटी शो ‘आओ गेस करें’
में विनर बन कर विनय पाठक एक क्रूज पर पहुंचते हैं जहां केके ऐंड पार्टी का जश्न हो रहा है। विनय पाठक चूंकि पेशे से इनकम टैक्स इंस्पेक्टर हैं इसलिए केके उन्हें क्रूज से धक्का देने के प्रयत्न में खुद समुद्र में गिर जाते हैं। बाद में केके का सिक्युरिटी पर्सन विनय को भी समुद्र में फेंक देता है। दोनों एक निर्जन टापू पर साथ साथ हैं जहां संवादों के जरिए दर्शकों को हंसाने का प्रयत्न किया जाता है। टापू पर उन्हें अमोल गुप्ते का घर मिल जाता है। जो एकाकी जीवन जी रहा है। यहां भी कुछ बेतुकी घटनाओं के जरिए हास्य पैदा करने की कोशिश की गयी है जो बोर करती है। एक लम्बे, बोझिल घटनाक्रम के बाद अमोल के घरमेंबम फटता है और सब बेहोश हो जाते हैं। होश में आने पर पहले केके अपने लोगों के साथ और बाद में विनय पाठक अपने सहयोगी इंस्पेक्टर सुरेश मेनन के साथ टापू से विदा लेते हैं और मिनीषा लांबा? वह इस पिक्चर में क्यो थीं, वह खुद उन्हें ही समझ नहीं आया होगा।
निर्देशक : सागर बेल्लारी कलाकार : विनय पाठक, केके मेनन, अमोल गुप्ते, सुरेश मेनन, मिनीषा लांबा, वीरेन्द्र सक्सेना संगीत : इश्क बेक्टर, स्नेहा खान वालकर, सागर देसाई संवाद : शरद करारिया
धीरेन्द्र अस्थाना
जिन दर्शकों ने कुछ वर्ष पहले सागर बेल्लारी द्वारा निर्देशित फिल्म ‘भेजा फ्राई’ देखी होगी, भेजा फ्राई-टू देखकर उनका भेजा तड़क जाएगा। पहली बात तो यह कि यह फिल्म ‘भेजा फ्राई’का सीक्वेंस नहीं है इसलिए इसका नाम ‘भेजा फ्राई-टू’ ही गलत है। पिछली फिल्म की अपार लोकप्रियता का लाभ उठाने के लिए नाम दोहराया गया है। शुरू के दिनों में दर्शक नाम के झांसे में आ भी सकते हैं। दूसरी बात यह कि ‘भेजा फ्राई’ में एक छोटी सी, प्यारी सी ऐसी कहानी थी जिसे लिखने में दिमाग का इस्तेमाल हुआ था। लेकिन ‘भेजा फ्राई-टू’ से भेजा ही गायब है। यह एक ऐसी कॉमेडी फिल्म हैजिस पर निरंतर रोते रहने का मन करता है। पता नहीं क्या सोचकर सागर बेल्लारी की टीम ने इस फिल्म पर काम किया। केके मेनन अतीत में बेहद शानदार फिल्में कर चुके हैं। कॉमेडी उनका क्षेत्र नहीं है क्योकि एक स्वाभाविक संजीदगी उनके व्यक्तित्व का स्थायी भाव है। कह सकते हैं कि कॉमेडी उनकी बॉडी लैंग्वेज के साथ छत्तीस का रिश्ता रखती है। विनय पाठक अपने फॉर्म में थे और पूरी फिल्म का केन्द्र बिंदु भी वही हैं लेकिन अकेला आदमी दर्शकों को कितनी देर तक उलझाये रख सकता है वह भी एक ऐसी फिल्म में जिसमे कथा के नाम भर लगभग शून्य हों। रियल लाइफ में कौन बिजनेस टायकून किसी इनकम टैक्स इंस्पेक्टर से इतना डरता है जितना केके को विनय पाठक से डरता दिखाया गया है। रियलिटी शो ‘आओ गेस करें’
में विनर बन कर विनय पाठक एक क्रूज पर पहुंचते हैं जहां केके ऐंड पार्टी का जश्न हो रहा है। विनय पाठक चूंकि पेशे से इनकम टैक्स इंस्पेक्टर हैं इसलिए केके उन्हें क्रूज से धक्का देने के प्रयत्न में खुद समुद्र में गिर जाते हैं। बाद में केके का सिक्युरिटी पर्सन विनय को भी समुद्र में फेंक देता है। दोनों एक निर्जन टापू पर साथ साथ हैं जहां संवादों के जरिए दर्शकों को हंसाने का प्रयत्न किया जाता है। टापू पर उन्हें अमोल गुप्ते का घर मिल जाता है। जो एकाकी जीवन जी रहा है। यहां भी कुछ बेतुकी घटनाओं के जरिए हास्य पैदा करने की कोशिश की गयी है जो बोर करती है। एक लम्बे, बोझिल घटनाक्रम के बाद अमोल के घरमेंबम फटता है और सब बेहोश हो जाते हैं। होश में आने पर पहले केके अपने लोगों के साथ और बाद में विनय पाठक अपने सहयोगी इंस्पेक्टर सुरेश मेनन के साथ टापू से विदा लेते हैं और मिनीषा लांबा? वह इस पिक्चर में क्यो थीं, वह खुद उन्हें ही समझ नहीं आया होगा।
निर्देशक : सागर बेल्लारी कलाकार : विनय पाठक, केके मेनन, अमोल गुप्ते, सुरेश मेनन, मिनीषा लांबा, वीरेन्द्र सक्सेना संगीत : इश्क बेक्टर, स्नेहा खान वालकर, सागर देसाई संवाद : शरद करारिया
Saturday, June 11, 2011
’शैतान‘
फिल्म समीक्षा
’शैतान‘ यानी खोई हुई दिशाएं
धीरेन्द्र अस्थाना
अनुराग कश्यप प्रोडक्शन की फिल्म ‘शैतान’ का निर्देशन भले ही बिजोय नंबियार ने किया है लेकिन यह एकदम अनुराग छाप फिल्म है। समय, समाज, कहानी, चरित्र एकदम यथार्थवादी लेकिन कहने का अंदाज फंतासी में लिपटा हुआ। बिल्कुल ‘जादुई यथार्थवाद’ जैसा। इसीलिए थोड़ा पेचीदा, थोड़ा अजीबो गरीब लेकिन अपने भीतर एक ऐंद्रजालिक उपस्थिति लिए हुए। मौजूदा उत्तर आधुनिक समय की जमीन पर खड़ी फिल्म ‘शैतान’ उन युवाओं की नीच ट्रेजेडी का बखान करती है जिनकी दिशाएं खो गयी हैं। राजीव खंडेलवाल और कलकी कोचलिन के अलावा बाकी नये लोगों को लेकर कम बजट में बनायी गयी ‘शैतान’ सिनेमा में रचनात्मकता को संभव करती है। यह नया सिनेमा है जो मनोरंजन के साथ-साथ दर्शकों की चेतना को संपन्न और सक्रिय करने की जिम्मेदारी भी उठाना चाहता है। कम से कम सार्थक सिनेमा के पैरोकारों को इस किस्म के सिनेमा का स्वागत करना ही चाहिए। इस फिल्म में राजीव खंडेलवाल एक ऐसे गुस्सैल पुलिस ऑफीसर के रोल में है जो कुछ भी गलत बर्दाश्त नहीं कर पाता। एक भ्रष्ट नेता को पहले माले से नीचे फेंक देने के जुर्म में वह सस्पेंड चल रहा है। एक कलकी कोचलिन है जिसकी मां ने तब आत्महत्या कर ली थी जब कलकी छोटी थी। पिता की नयी पत्नी के सामने वह खुद को कंफर्ट फील नहीं करती और फ्रस्ट्रेट रहती है। एक पार्टी में उसे गुलशन उर्फ केसी मिलता है जिससे आकर्षित हो कर वह उसके बाकी दोस्तों से मिलती है। इस प्रकार कुल पांच युवक- युवतियों का गैंग तैयार होता है जो मौज मस्ती को जीने का मंत्र मानता है। सब के सब बिगड़े दिल शहजादे टाइप के हैं। एक रात इनकी तेज गाड़ी के नीचे दो लोग आकर कुचल जाते हैं। ये लोग छुप जाते हैं लेकिन एक पुलिस वाला इन्हें खोज लेता है। वह केस दबाने के लिए इनसे पच्चीस लाख रुपये मांगता है। कलकी का बाप चूंकि सबसे ज्यादा अमीर है इसलिए ये लोग कलकी के अपहरण का ड्रामा करते हैं और उसके पिता से पचास लाख मांगते हैं। बाप पैसे देने के बजाय पुलिस में चला जाता है और होम मिनिस्ट्री की सोर्स ले आता है। कमिश्नर दबाव में आ जाता है और इस केस को हल करने के लिए सस्पेंड हो चुके राजीव खंडेलवाल को काम पर लगाता है। लड़के एक से दूसरे ट्रैप में उलझते जाते हैं और अंततः उनकी दिशाएं खो जाती हैं। मोटे तौर पर युवा फ्रस्ट्रेशन, फन, फिलॉसफी और अराजकता को इस फिल्म में इस स्लोगन से परिभाषित किया गया है- अपने भीतर के शैतान से सामना कीजिए। फिल्म को देखना चाहिए। एक्सपेरीमेंट को सपोर्ट करें।
निर्देशकः बिजोय नंबियार
कलाकारः राजीव खंडेलवाल, कलकी कोचलिन, शिव पंडित, रजित कपूर, गुलशन, कीर्ति
संगीतः प्रशांत पिल्लई, अमर मोहिले, रंजीत बारोट
संवादः अभिजीत देशपांडे
’शैतान‘ यानी खोई हुई दिशाएं
धीरेन्द्र अस्थाना
अनुराग कश्यप प्रोडक्शन की फिल्म ‘शैतान’ का निर्देशन भले ही बिजोय नंबियार ने किया है लेकिन यह एकदम अनुराग छाप फिल्म है। समय, समाज, कहानी, चरित्र एकदम यथार्थवादी लेकिन कहने का अंदाज फंतासी में लिपटा हुआ। बिल्कुल ‘जादुई यथार्थवाद’ जैसा। इसीलिए थोड़ा पेचीदा, थोड़ा अजीबो गरीब लेकिन अपने भीतर एक ऐंद्रजालिक उपस्थिति लिए हुए। मौजूदा उत्तर आधुनिक समय की जमीन पर खड़ी फिल्म ‘शैतान’ उन युवाओं की नीच ट्रेजेडी का बखान करती है जिनकी दिशाएं खो गयी हैं। राजीव खंडेलवाल और कलकी कोचलिन के अलावा बाकी नये लोगों को लेकर कम बजट में बनायी गयी ‘शैतान’ सिनेमा में रचनात्मकता को संभव करती है। यह नया सिनेमा है जो मनोरंजन के साथ-साथ दर्शकों की चेतना को संपन्न और सक्रिय करने की जिम्मेदारी भी उठाना चाहता है। कम से कम सार्थक सिनेमा के पैरोकारों को इस किस्म के सिनेमा का स्वागत करना ही चाहिए। इस फिल्म में राजीव खंडेलवाल एक ऐसे गुस्सैल पुलिस ऑफीसर के रोल में है जो कुछ भी गलत बर्दाश्त नहीं कर पाता। एक भ्रष्ट नेता को पहले माले से नीचे फेंक देने के जुर्म में वह सस्पेंड चल रहा है। एक कलकी कोचलिन है जिसकी मां ने तब आत्महत्या कर ली थी जब कलकी छोटी थी। पिता की नयी पत्नी के सामने वह खुद को कंफर्ट फील नहीं करती और फ्रस्ट्रेट रहती है। एक पार्टी में उसे गुलशन उर्फ केसी मिलता है जिससे आकर्षित हो कर वह उसके बाकी दोस्तों से मिलती है। इस प्रकार कुल पांच युवक- युवतियों का गैंग तैयार होता है जो मौज मस्ती को जीने का मंत्र मानता है। सब के सब बिगड़े दिल शहजादे टाइप के हैं। एक रात इनकी तेज गाड़ी के नीचे दो लोग आकर कुचल जाते हैं। ये लोग छुप जाते हैं लेकिन एक पुलिस वाला इन्हें खोज लेता है। वह केस दबाने के लिए इनसे पच्चीस लाख रुपये मांगता है। कलकी का बाप चूंकि सबसे ज्यादा अमीर है इसलिए ये लोग कलकी के अपहरण का ड्रामा करते हैं और उसके पिता से पचास लाख मांगते हैं। बाप पैसे देने के बजाय पुलिस में चला जाता है और होम मिनिस्ट्री की सोर्स ले आता है। कमिश्नर दबाव में आ जाता है और इस केस को हल करने के लिए सस्पेंड हो चुके राजीव खंडेलवाल को काम पर लगाता है। लड़के एक से दूसरे ट्रैप में उलझते जाते हैं और अंततः उनकी दिशाएं खो जाती हैं। मोटे तौर पर युवा फ्रस्ट्रेशन, फन, फिलॉसफी और अराजकता को इस फिल्म में इस स्लोगन से परिभाषित किया गया है- अपने भीतर के शैतान से सामना कीजिए। फिल्म को देखना चाहिए। एक्सपेरीमेंट को सपोर्ट करें।
निर्देशकः बिजोय नंबियार
कलाकारः राजीव खंडेलवाल, कलकी कोचलिन, शिव पंडित, रजित कपूर, गुलशन, कीर्ति
संगीतः प्रशांत पिल्लई, अमर मोहिले, रंजीत बारोट
संवादः अभिजीत देशपांडे
Saturday, May 28, 2011
फिल्म समीक्षा
उम्दा अभिनय साधारण किस्सा
कुछ लव जैसा
धीरेन्द्र अस्थाना
बहुत दिनों के बाद शेफाली शाह को बड़े पर्दे पर काम करते देखना अच्छा लगता है। पूरी फिल्म की कहानी शेफाली को कें्रद में रख कर ही बुनी गयी है इसलिए यह स्वभावतः स्त्री केंद्रित फिल्म हो गयी है। अगर फिल्म की कहानी पर ज्यादा मेहनत की गयी होती और उसे कोई नया कोण या आयाम दिया जाता तो ‘कुछ लव जैसा‘ ऑफबीट फिल्मों में शुमार हो सकती थी। शेफाली शाह और राहुल बोस के उम्दा अभिनय से सजी इस फिल्म को बस इन दोनों के अभिनय के कारण ही देखा जा सकता है। कहानी जैसी भी है लेकिन इतनी कसी हुई है कि शुरु से अंत तक बांधे रखती है। बरनाली शुक्ला का निर्देशन सशक्त और गतिवान है। उसमें कहीं भी झोल नहीं है। संवाद बेहद दो टूक, संक्षिप्त मगर सार्थक हैं। गीत पात्रों के भीतर चल रही कशमकश को प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति देने में सफल भी हैं और सुनने में भी अच्छे लगते हैं। तो फिर ऐसा क्या है कि इतने सारे सकारात्मक कारणों के बावजूद फिल्म औसत से उपर नहीं जा पाती? एक मात्र वजह है फिल्म की कहानी में नयापन न होना और उपकथाओं का अतार्किक होना। उच्च मध्यवर्ग की असंतुष्ट पत्नियों के त्रास और एकाकी छूट रहे जीवन के व्यर्थता बोध से साहित्य और सिनेमा अटा पड़ा है। पहले प्रेम फिर विवाह और अंततः अलगाव।
रोजमर्रा के कामकाजी तनाव के चलते पति-पत्नी के बीच का अनुराग सूखते जाना और रिश्तों में एक धूमिल सी उदासी का पसरना। इस उदासी को उतार कर जीवन में फिर से उतर कर अपने होने का अर्थ तलाशना। यहां तक तो ठीक है लेकिन पूरा दिन एक अनजाने क्रिमिनल के साथ यहां वहां और एक होटल के कमरे में बिता देना रियल लाइफ में संभव ही नहीं है। एक आदमी की पत्नी पूरा दिन घर से गायब है। उसका फोन नॉट रीचेबल है और पति आराम से ऑफिस में बैठा है। लड़की के मां बाप भी चैन से हैं। लड़की के बच्चों को भी ममा की खास चिंता नहीं है। पूरा दिन बाहर बिता कर औरत घर लौटी है और जिंदगी सामान्य है। घर में उसके जन्मदिन की पार्टी आयोजित है मगर औरत दिन भर क्रिमिनल के साथ बिताए कुछ क्षणों को कुछ लव जैसा फील कर रही है। रागात्मक संबंधों की दुनिया में इस तरह के विचार तार्किक नहीं लगते। तो भी इतना जरुर है कि शेफाली ने एक उद्विग्न, बैचेन, चिंतित और दुविधाग्रस्त स्त्री के किरदार में जान डाल दी है। राहुल बोस का अभिनय हमेशा की तरह कूल और सधा हुआ है। असल में इस फिल्म में अभिनय ही इसकी ‘यूएसपी‘ है। शेफाली को फिल्मों में बने रहना चाहिए।
निर्देशकः बरनाली शुक्ला
कलाकारः राहुल बोस, शेफाली शाह, सुमीत राघवन, ओम पुरी, नीतू चंद्रा।
संगीतः प्रीतम चक्रवर्ती
गीतः इरशाद कामिल
कुछ लव जैसा
धीरेन्द्र अस्थाना
बहुत दिनों के बाद शेफाली शाह को बड़े पर्दे पर काम करते देखना अच्छा लगता है। पूरी फिल्म की कहानी शेफाली को कें्रद में रख कर ही बुनी गयी है इसलिए यह स्वभावतः स्त्री केंद्रित फिल्म हो गयी है। अगर फिल्म की कहानी पर ज्यादा मेहनत की गयी होती और उसे कोई नया कोण या आयाम दिया जाता तो ‘कुछ लव जैसा‘ ऑफबीट फिल्मों में शुमार हो सकती थी। शेफाली शाह और राहुल बोस के उम्दा अभिनय से सजी इस फिल्म को बस इन दोनों के अभिनय के कारण ही देखा जा सकता है। कहानी जैसी भी है लेकिन इतनी कसी हुई है कि शुरु से अंत तक बांधे रखती है। बरनाली शुक्ला का निर्देशन सशक्त और गतिवान है। उसमें कहीं भी झोल नहीं है। संवाद बेहद दो टूक, संक्षिप्त मगर सार्थक हैं। गीत पात्रों के भीतर चल रही कशमकश को प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति देने में सफल भी हैं और सुनने में भी अच्छे लगते हैं। तो फिर ऐसा क्या है कि इतने सारे सकारात्मक कारणों के बावजूद फिल्म औसत से उपर नहीं जा पाती? एक मात्र वजह है फिल्म की कहानी में नयापन न होना और उपकथाओं का अतार्किक होना। उच्च मध्यवर्ग की असंतुष्ट पत्नियों के त्रास और एकाकी छूट रहे जीवन के व्यर्थता बोध से साहित्य और सिनेमा अटा पड़ा है। पहले प्रेम फिर विवाह और अंततः अलगाव।
रोजमर्रा के कामकाजी तनाव के चलते पति-पत्नी के बीच का अनुराग सूखते जाना और रिश्तों में एक धूमिल सी उदासी का पसरना। इस उदासी को उतार कर जीवन में फिर से उतर कर अपने होने का अर्थ तलाशना। यहां तक तो ठीक है लेकिन पूरा दिन एक अनजाने क्रिमिनल के साथ यहां वहां और एक होटल के कमरे में बिता देना रियल लाइफ में संभव ही नहीं है। एक आदमी की पत्नी पूरा दिन घर से गायब है। उसका फोन नॉट रीचेबल है और पति आराम से ऑफिस में बैठा है। लड़की के मां बाप भी चैन से हैं। लड़की के बच्चों को भी ममा की खास चिंता नहीं है। पूरा दिन बाहर बिता कर औरत घर लौटी है और जिंदगी सामान्य है। घर में उसके जन्मदिन की पार्टी आयोजित है मगर औरत दिन भर क्रिमिनल के साथ बिताए कुछ क्षणों को कुछ लव जैसा फील कर रही है। रागात्मक संबंधों की दुनिया में इस तरह के विचार तार्किक नहीं लगते। तो भी इतना जरुर है कि शेफाली ने एक उद्विग्न, बैचेन, चिंतित और दुविधाग्रस्त स्त्री के किरदार में जान डाल दी है। राहुल बोस का अभिनय हमेशा की तरह कूल और सधा हुआ है। असल में इस फिल्म में अभिनय ही इसकी ‘यूएसपी‘ है। शेफाली को फिल्मों में बने रहना चाहिए।
निर्देशकः बरनाली शुक्ला
कलाकारः राहुल बोस, शेफाली शाह, सुमीत राघवन, ओम पुरी, नीतू चंद्रा।
संगीतः प्रीतम चक्रवर्ती
गीतः इरशाद कामिल
Saturday, May 21, 2011
pyar ka panchnama
फिल्म समीक्षा
युवाओं के प्यार का पंचनामा
धीरेन्द्र अस्थाना
ऐसा नहीं है कि आज की युवा पीढ़ी केवल खाने पीने और मौज मजा करने मंे ही यकीन करती है। बदलते हुए सिनेमा के इस नये दौर में ऐसे युवा भी दस्तक दे रहे हैं जो अपनी पीढ़ी के संघर्ष, विफलता, स्वप्न,प्यार,अविश्वास और असुरक्षा को विमर्ष का विषय बना रहे हैं। ’प्यार का पंचनामा‘ ऐसी ही फिल्म है जो पूरी तरह युवाओं के बारे में बनायी गयी है। फिल्म का नाम जरुर पुराना लगता है लेकिन फिल्म का विषय एकदम आधुनिक है। आज से पच्चीस तीस साल पहले स्त्री-पुरुष की जो रिलेशनशिप होती थी आज वह पूरी तरह बदल गयी है। स्त्रियों की दुनिया में कई बुनियादी बदलाव आ गये हैं। लड़कियां उच्च शिक्षा प्राप्त हैं, आत्मनिर्भर हैं, अपने जीवन के निर्णय खुद ले रही हैं। अब वे अपना एक ‘स्पेस‘ चाहती हैं। अपनी आजादी उन्हें सबसे ज्यादा प्रिय है। अब अपनी प्रॉब्लम्स पर वे बहस करती हैं। लड़ती-झगड़ती हैं। रिश्ते दिल से नहीं दिमाग से तय करती हैं। और लड़कियों का यह नया वजूद ही लड़कांे की नयी समस्या है। मोटे तौर पर इस फिल्म की यही कहानी है जिसे दिल्ली में घटित होता दिखाया गया है-दिल्ली के भदेसपन और उद्दंड चरित्र के साथ। दिल्ली की मस्ती और अराजकता के मनोभावों के बीच। और हां दिल्ली की गालियों सहित। तीन दोस्तों की कहानी है। एक साथ रहते हैं। अपने अपने काम पर जाते हैं और फ्रस्ट्रेट रहते हैं। तीनों की जिंदगियों में लड़कियां आती हैं तो लगता है कि जीवन को एक अर्थ मिल गया है। एक लंबा भांय भांय करता खालीपन भर रहा है। लेकिन गजब कि लड़कियां उनके जीवन में खुशबू की तरह नही उतरतीं। वे आती हैं तूफान की तरह और लड़कों के जीवन का हर सुंदर पल उड़ा ले जाना चाहती हैं। प्यार का स्वर्ग पाने की चाह लड़कों को प्यार का नरक पकड़ा देेती है। उन्हंे लगता है कि प्यार पाने के चक्कर में वह दुम हिलाने वाले कुत्ते हो कर रह गये हैं। लड़कियों के ‘स्पेस‘ ने उनका अपना ‘स्पेस‘ हड़प लिया है। तीनों अपने अपने तरीके से उन लड़कियों से अपना पिंड छुडाते हैं और फिर से अपने पुराने घर में एक साथ लौट आते हैं। इस सबके बीच में पीना-पिलाना, सेक्स करना, डांस-मस्ती-नशाखोरी भी चलती है। बेबाक गालियां भी और रोना उदास होना भी चलता रहता है। नये होने के बावजूद निर्देशक की कहानी पर गहरी पकड़ बनी रहती है। फिल्म का ‘कुत्ता‘ वाला गाना आज के मिजाज को सटीक अभिव्यक्ति देता है। सारे कलाकार नये ही हैं लेकिन उन्होंने जम कर अभिनय किया है। नये जमाने की फिल्म है। नये-पुराने दोनों वर्ग के दर्शकों को फिल्म का आस्वाद लेना चाहिए।
निर्देशकः लव रंजन
कलाकारः कार्तिकेय तिवारी, रेयो, दिवयेंदु शर्मा, ईशिता, नुसरत, सोनाली।
गीतः लव रंजन
संगीतः हितेश, क्लिंटन, लव
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युवाओं के प्यार का पंचनामा
धीरेन्द्र अस्थाना
ऐसा नहीं है कि आज की युवा पीढ़ी केवल खाने पीने और मौज मजा करने मंे ही यकीन करती है। बदलते हुए सिनेमा के इस नये दौर में ऐसे युवा भी दस्तक दे रहे हैं जो अपनी पीढ़ी के संघर्ष, विफलता, स्वप्न,प्यार,अविश्वास और असुरक्षा को विमर्ष का विषय बना रहे हैं। ’प्यार का पंचनामा‘ ऐसी ही फिल्म है जो पूरी तरह युवाओं के बारे में बनायी गयी है। फिल्म का नाम जरुर पुराना लगता है लेकिन फिल्म का विषय एकदम आधुनिक है। आज से पच्चीस तीस साल पहले स्त्री-पुरुष की जो रिलेशनशिप होती थी आज वह पूरी तरह बदल गयी है। स्त्रियों की दुनिया में कई बुनियादी बदलाव आ गये हैं। लड़कियां उच्च शिक्षा प्राप्त हैं, आत्मनिर्भर हैं, अपने जीवन के निर्णय खुद ले रही हैं। अब वे अपना एक ‘स्पेस‘ चाहती हैं। अपनी आजादी उन्हें सबसे ज्यादा प्रिय है। अब अपनी प्रॉब्लम्स पर वे बहस करती हैं। लड़ती-झगड़ती हैं। रिश्ते दिल से नहीं दिमाग से तय करती हैं। और लड़कियों का यह नया वजूद ही लड़कांे की नयी समस्या है। मोटे तौर पर इस फिल्म की यही कहानी है जिसे दिल्ली में घटित होता दिखाया गया है-दिल्ली के भदेसपन और उद्दंड चरित्र के साथ। दिल्ली की मस्ती और अराजकता के मनोभावों के बीच। और हां दिल्ली की गालियों सहित। तीन दोस्तों की कहानी है। एक साथ रहते हैं। अपने अपने काम पर जाते हैं और फ्रस्ट्रेट रहते हैं। तीनों की जिंदगियों में लड़कियां आती हैं तो लगता है कि जीवन को एक अर्थ मिल गया है। एक लंबा भांय भांय करता खालीपन भर रहा है। लेकिन गजब कि लड़कियां उनके जीवन में खुशबू की तरह नही उतरतीं। वे आती हैं तूफान की तरह और लड़कों के जीवन का हर सुंदर पल उड़ा ले जाना चाहती हैं। प्यार का स्वर्ग पाने की चाह लड़कों को प्यार का नरक पकड़ा देेती है। उन्हंे लगता है कि प्यार पाने के चक्कर में वह दुम हिलाने वाले कुत्ते हो कर रह गये हैं। लड़कियों के ‘स्पेस‘ ने उनका अपना ‘स्पेस‘ हड़प लिया है। तीनों अपने अपने तरीके से उन लड़कियों से अपना पिंड छुडाते हैं और फिर से अपने पुराने घर में एक साथ लौट आते हैं। इस सबके बीच में पीना-पिलाना, सेक्स करना, डांस-मस्ती-नशाखोरी भी चलती है। बेबाक गालियां भी और रोना उदास होना भी चलता रहता है। नये होने के बावजूद निर्देशक की कहानी पर गहरी पकड़ बनी रहती है। फिल्म का ‘कुत्ता‘ वाला गाना आज के मिजाज को सटीक अभिव्यक्ति देता है। सारे कलाकार नये ही हैं लेकिन उन्होंने जम कर अभिनय किया है। नये जमाने की फिल्म है। नये-पुराने दोनों वर्ग के दर्शकों को फिल्म का आस्वाद लेना चाहिए।
निर्देशकः लव रंजन
कलाकारः कार्तिकेय तिवारी, रेयो, दिवयेंदु शर्मा, ईशिता, नुसरत, सोनाली।
गीतः लव रंजन
संगीतः हितेश, क्लिंटन, लव
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pyar ka panchnama
फिल्म समीक्षा
युवाओं के प्यार का पंचनामा
धीरेन्द्र अस्थाना
ऐसा नहीं है कि आज की युवा पीढ़ी केवल खाने पीने और मौज मजा करने मंे ही यकीन करती है। बदलते हुए सिनेमा के इस नये दौर में ऐसे युवा भी दस्तक दे रहे हैं जो अपनी पीढ़ी के संघर्ष, विफलता, स्वप्न,प्यार,अविश्वास और असुरक्षा को विमर्ष का विषय बना रहे हैं। ’प्यार का पंचनामा‘ ऐसी ही फिल्म है जो पूरी तरह युवाओं के बारे में बनायी गयी है। फिल्म का नाम जरुर पुराना लगता है लेकिन फिल्म का विषय एकदम आधुनिक है। आज से पच्चीस तीस साल पहले स्त्री-पुरुष की जो रिलेशनशिप होती थी आज वह पूरी तरह बदल गयी है। स्त्रियों की दुनिया में कई बुनियादी बदलाव आ गये हैं। लड़कियां उच्च शिक्षा प्राप्त हैं, आत्मनिर्भर हैं, अपने जीवन के निर्णय खुद ले रही हैं। अब वे अपना एक ‘स्पेस‘ चाहती हैं। अपनी आजादी उन्हें सबसे ज्यादा प्रिय है। अब अपनी प्रॉब्लम्स पर वे बहस करती हैं। लड़ती-झगड़ती हैं। रिश्ते दिल से नहीं दिमाग से तय करती हैं। और लड़कियों का यह नया वजूद ही लड़कांे की नयी समस्या है। मोटे तौर पर इस फिल्म की यही कहानी है जिसे दिल्ली में घटित होता दिखाया गया है-दिल्ली के भदेसपन और उद्दंड चरित्र के साथ। दिल्ली की मस्ती और अराजकता के मनोभावों के बीच। और हां दिल्ली की गालियों सहित। तीन दोस्तों की कहानी है। एक साथ रहते हैं। अपने अपने काम पर जाते हैं और फ्रस्ट्रेट रहते हैं। तीनों की जिंदगियों में लड़कियां आती हैं तो लगता है कि जीवन को एक अर्थ मिल गया है। एक लंबा भांय भांय करता खालीपन भर रहा है। लेकिन गजब कि लड़कियां उनके जीवन में खुशबू की तरह नही उतरतीं। वे आती हैं तूफान की तरह और लड़कों के जीवन का हर सुंदर पल उड़ा ले जाना चाहती हैं। प्यार का स्वर्ग पाने की चाह लड़कों को प्यार का नरक पकड़ा देेती है। उन्हंे लगता है कि प्यार पाने के चक्कर में वह दुम हिलाने वाले कुत्ते हो कर रह गये हैं। लड़कियों के ‘स्पेस‘ ने उनका अपना ‘स्पेस‘ हड़प लिया है। तीनों अपने अपने तरीके से उन लड़कियों से अपना पिंड छुडाते हैं और फिर से अपने पुराने घर में एक साथ लौट आते हैं। इस सबके बीच में पीना-पिलाना, सेक्स करना, डांस-मस्ती-नशाखोरी भी चलती है। बेबाक गालियां भी और रोना उदास होना भी चलता रहता है। नये होने के बावजूद निर्देशक की कहानी पर गहरी पकड़ बनी रहती है। फिल्म का ‘कुत्ता‘ वाला गाना आज के मिजाज को सटीक अभिव्यक्ति देता है। सारे कलाकार नये ही हैं लेकिन उन्होंने जम कर अभिनय किया है। नये जमाने की फिल्म है। नये-पुराने दोनों वर्ग के दर्शकों को फिल्म का आस्वाद लेना चाहिए।
निर्देशकः लव रंजन
कलाकारः कार्तिकेय तिवारी, रेयो, दिवयेंदु शर्मा, ईशिता, नुसरत, सोनाली।
गीतः लव रंजन
संगीतः हितेश, क्लिंटन, लव
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युवाओं के प्यार का पंचनामा
धीरेन्द्र अस्थाना
ऐसा नहीं है कि आज की युवा पीढ़ी केवल खाने पीने और मौज मजा करने मंे ही यकीन करती है। बदलते हुए सिनेमा के इस नये दौर में ऐसे युवा भी दस्तक दे रहे हैं जो अपनी पीढ़ी के संघर्ष, विफलता, स्वप्न,प्यार,अविश्वास और असुरक्षा को विमर्ष का विषय बना रहे हैं। ’प्यार का पंचनामा‘ ऐसी ही फिल्म है जो पूरी तरह युवाओं के बारे में बनायी गयी है। फिल्म का नाम जरुर पुराना लगता है लेकिन फिल्म का विषय एकदम आधुनिक है। आज से पच्चीस तीस साल पहले स्त्री-पुरुष की जो रिलेशनशिप होती थी आज वह पूरी तरह बदल गयी है। स्त्रियों की दुनिया में कई बुनियादी बदलाव आ गये हैं। लड़कियां उच्च शिक्षा प्राप्त हैं, आत्मनिर्भर हैं, अपने जीवन के निर्णय खुद ले रही हैं। अब वे अपना एक ‘स्पेस‘ चाहती हैं। अपनी आजादी उन्हें सबसे ज्यादा प्रिय है। अब अपनी प्रॉब्लम्स पर वे बहस करती हैं। लड़ती-झगड़ती हैं। रिश्ते दिल से नहीं दिमाग से तय करती हैं। और लड़कियों का यह नया वजूद ही लड़कांे की नयी समस्या है। मोटे तौर पर इस फिल्म की यही कहानी है जिसे दिल्ली में घटित होता दिखाया गया है-दिल्ली के भदेसपन और उद्दंड चरित्र के साथ। दिल्ली की मस्ती और अराजकता के मनोभावों के बीच। और हां दिल्ली की गालियों सहित। तीन दोस्तों की कहानी है। एक साथ रहते हैं। अपने अपने काम पर जाते हैं और फ्रस्ट्रेट रहते हैं। तीनों की जिंदगियों में लड़कियां आती हैं तो लगता है कि जीवन को एक अर्थ मिल गया है। एक लंबा भांय भांय करता खालीपन भर रहा है। लेकिन गजब कि लड़कियां उनके जीवन में खुशबू की तरह नही उतरतीं। वे आती हैं तूफान की तरह और लड़कों के जीवन का हर सुंदर पल उड़ा ले जाना चाहती हैं। प्यार का स्वर्ग पाने की चाह लड़कों को प्यार का नरक पकड़ा देेती है। उन्हंे लगता है कि प्यार पाने के चक्कर में वह दुम हिलाने वाले कुत्ते हो कर रह गये हैं। लड़कियों के ‘स्पेस‘ ने उनका अपना ‘स्पेस‘ हड़प लिया है। तीनों अपने अपने तरीके से उन लड़कियों से अपना पिंड छुडाते हैं और फिर से अपने पुराने घर में एक साथ लौट आते हैं। इस सबके बीच में पीना-पिलाना, सेक्स करना, डांस-मस्ती-नशाखोरी भी चलती है। बेबाक गालियां भी और रोना उदास होना भी चलता रहता है। नये होने के बावजूद निर्देशक की कहानी पर गहरी पकड़ बनी रहती है। फिल्म का ‘कुत्ता‘ वाला गाना आज के मिजाज को सटीक अभिव्यक्ति देता है। सारे कलाकार नये ही हैं लेकिन उन्होंने जम कर अभिनय किया है। नये जमाने की फिल्म है। नये-पुराने दोनों वर्ग के दर्शकों को फिल्म का आस्वाद लेना चाहिए।
निर्देशकः लव रंजन
कलाकारः कार्तिकेय तिवारी, रेयो, दिवयेंदु शर्मा, ईशिता, नुसरत, सोनाली।
गीतः लव रंजन
संगीतः हितेश, क्लिंटन, लव
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Saturday, May 14, 2011
रागिनी एमएमएस
फिल्म समीक्षा
सेक्स और डर की जुगलबंदी: रागिनी एमएमएस
धीरेन्द्र अस्थाना
डर बेच कर घर भरने के मामले में एकता कपूर रामगोपाल वर्मा और विक्रम भट्ट दोनों से आगे निकल गयी हैं। डर के निर्माण और डर के कारोबार दोनों को उनकी नयी फिल्म ‘रागिनी एमएमएस‘ ने बेहद कुशलता से साधा है। विक्रम भट्ट की हालिया फिल्म ‘हॉन्टेड‘ जहां डर की इमोशनल पटकथा थी, जिसके धागे डर की पारंपरिक फिल्मों और अनुभव से जुड़े हुए थे। वहीं ‘रागिनी एमएमएस‘ एक यथार्थवादी फिल्म है जो आज के उत्तर आधुनिक समय में खड़ी है। यंग जेनरेशन के कल्चर और अंदाज पर फोकस करने वाली एकता कपूर की यह फिल्म सेक्स के साथ डर की जुगलबंदी पेश करती है और तकनीक, छायांकन तथा संगीत के दम पर दर्शकों को डराने में कामयाब हो जाती है। यहां डर सचमुच एक डरावने अहसास में तब्दील हो जाता है। यूं ‘रागिनी एमएमएस‘ एक धोखेबाज फिल्म भी है। छोटे शहरों के जो दर्शक इसे एक सेक्सी फिल्म समझकर सिनेमाघरों पर टूटेंगे वे खुद को एक डरावने मायालोक में खड़ा पाएंगे। लेकिन डर का यह साक्षात्कार उन्हें फिल्म की मेकिंग के स्तर पर सुखद लगेगा। बिना स्टार कास्ट और बिना भव्य विदेशी लोकेशंस के बेहद कम बजट में बनी यह फिल्म कमाई का कीर्तिमान इस स्तर पर बनाएगी कि लागत से दस-बीस गुना ज्यादा कैसे आता है। फिल्म का हीरो राजकुमार अपनी गर्लफ्रेंड कैनाज मोतीवाला के साथ माथेरान के एक सुनसान घर में मौज-मजा करने पहुंचता है, जहां हिडेन कैमरे मौजूद हैं। एक्टर बनने की मंशा में वह गर्लफ्रेंड का सेक्सी एमएमएस बनवाने पर भी राजी हो जाता है। लेकिन उस घर में एक आत्मा का निवास है जिसे उसके घर वालों ने चुड़ैल कह कहकर मार मार डाला था। यह आत्मा अपने घर में किसी को गलत काम नहीं करने देती। लड़का चूंकि प्यार के नाम पर सेक्स क्लिप बनाना चाहता है अतः आत्मा का शिकार बनता है। लड़की चूंकि घर से झूठ बोलकर मस्ती करने आयी है इसलिए आत्मा उसे भी शारीरिक दंड देती है। बस इतनी सी कथा है जिसे खूबसूरती से बुना गया है। इंटरवल से पहले फिल्म जितनी कसी हुई है इंटरवल के बाद थोड़ी खिंच गयी है। नंगे संवादों के चलते भी चर्चित होगी।
प्रोडयूसर: एकता कपूर, शोभा कपूर
निर्देशक: पवन कृपलानी
कलाकार: राजकुमार यादव, कैनाज मोतीवाला
संगीत: शमीर टंडन, फैजान हुसैन, बप्पी लाहिरी
सेक्स और डर की जुगलबंदी: रागिनी एमएमएस
धीरेन्द्र अस्थाना
डर बेच कर घर भरने के मामले में एकता कपूर रामगोपाल वर्मा और विक्रम भट्ट दोनों से आगे निकल गयी हैं। डर के निर्माण और डर के कारोबार दोनों को उनकी नयी फिल्म ‘रागिनी एमएमएस‘ ने बेहद कुशलता से साधा है। विक्रम भट्ट की हालिया फिल्म ‘हॉन्टेड‘ जहां डर की इमोशनल पटकथा थी, जिसके धागे डर की पारंपरिक फिल्मों और अनुभव से जुड़े हुए थे। वहीं ‘रागिनी एमएमएस‘ एक यथार्थवादी फिल्म है जो आज के उत्तर आधुनिक समय में खड़ी है। यंग जेनरेशन के कल्चर और अंदाज पर फोकस करने वाली एकता कपूर की यह फिल्म सेक्स के साथ डर की जुगलबंदी पेश करती है और तकनीक, छायांकन तथा संगीत के दम पर दर्शकों को डराने में कामयाब हो जाती है। यहां डर सचमुच एक डरावने अहसास में तब्दील हो जाता है। यूं ‘रागिनी एमएमएस‘ एक धोखेबाज फिल्म भी है। छोटे शहरों के जो दर्शक इसे एक सेक्सी फिल्म समझकर सिनेमाघरों पर टूटेंगे वे खुद को एक डरावने मायालोक में खड़ा पाएंगे। लेकिन डर का यह साक्षात्कार उन्हें फिल्म की मेकिंग के स्तर पर सुखद लगेगा। बिना स्टार कास्ट और बिना भव्य विदेशी लोकेशंस के बेहद कम बजट में बनी यह फिल्म कमाई का कीर्तिमान इस स्तर पर बनाएगी कि लागत से दस-बीस गुना ज्यादा कैसे आता है। फिल्म का हीरो राजकुमार अपनी गर्लफ्रेंड कैनाज मोतीवाला के साथ माथेरान के एक सुनसान घर में मौज-मजा करने पहुंचता है, जहां हिडेन कैमरे मौजूद हैं। एक्टर बनने की मंशा में वह गर्लफ्रेंड का सेक्सी एमएमएस बनवाने पर भी राजी हो जाता है। लेकिन उस घर में एक आत्मा का निवास है जिसे उसके घर वालों ने चुड़ैल कह कहकर मार मार डाला था। यह आत्मा अपने घर में किसी को गलत काम नहीं करने देती। लड़का चूंकि प्यार के नाम पर सेक्स क्लिप बनाना चाहता है अतः आत्मा का शिकार बनता है। लड़की चूंकि घर से झूठ बोलकर मस्ती करने आयी है इसलिए आत्मा उसे भी शारीरिक दंड देती है। बस इतनी सी कथा है जिसे खूबसूरती से बुना गया है। इंटरवल से पहले फिल्म जितनी कसी हुई है इंटरवल के बाद थोड़ी खिंच गयी है। नंगे संवादों के चलते भी चर्चित होगी।
प्रोडयूसर: एकता कपूर, शोभा कपूर
निर्देशक: पवन कृपलानी
कलाकार: राजकुमार यादव, कैनाज मोतीवाला
संगीत: शमीर टंडन, फैजान हुसैन, बप्पी लाहिरी
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