Sunday, October 19, 2014

सोनाली केबल


फिल्म समीक्षा

केबल वॉर के दिनों में सोनाली केबल

धीरेन्द्र अस्थाना

हांलाकि ज्यादा दर्शक फिल्म देखने नहीं आये लेकिन फिल्म ठीक ठाक थी। कहानी का विषय भी नया था और युवा कलाकार रिया चक्रवर्ती तथा अली फजल ने काम भी बेहतर किया है। फिल्म दर्शकों को उन दिनों में ले जाती है जब मुंबई में केबल वॉर शुरू हो गयी थी। बड़ी बड़ी कंपनी वाले केबल व्यवसाय पर कब्जा करने के लिए सड़कों पर उतर आये थे। उन्होंने छोटे केबल व्यापारियों को या तो खरीद कर उनका इलाका हथिया लिया था या फिर बाहुबल के दम पर उन्हें उनके इलाकों से खदेड़ दिया था। अब मुंबई में वह स्थिति नहीं है। केबल व्यवसाय में शांतिपूर्ण सह अस्तित्व की स्थिति है। लेकिन सोनाली केबल उन्हीं पुराने जंग के दिनों में लौटती है। रिया चक्रवर्ती मुंबई के  कोलाबा वाले इलाके में अपना खुद का सोनाली केबल सेंटर चलाती है। इलाके के तीन हजार घरों में सोनाली का केबल चलता है। उसके साथ पांच छह लड़के भी काम करते हैं। हालांकि वह सब की बॉस है लेकिन उनके बीच दोस्ती का रिश्ता है। सोनाली उन तीन हजार घरों को अपना कस्टमर नहीं अपना घर मानती है क्योंकि उन घरों के भीतर से उसे मां वाली खुशबू आती है। यह खुशबू उसके अपने घर में नहीं है क्योंकि उसकी मां उसे बचपन में ही छोड़ कर चली गयी थी। सोनाली के बाप ने ही उसे पाल पोस कर बड़ा किया है। सोनाली का बाप वड़ापाव का ठेला लगाता है। बाप के रोल में मशहूर गीतकार स्वानंद किरकिरे उतरे हैं और क्या खूब किरदार निभाया है उन्होंने। एकदम महेश मांजरेकर की तरह मंजे हुए एक्टर लगते हैं। इन्ही दिनों इलाके की विधायक स्मिता जयकर का बेटा अली फजल अमेरिका से एमबीए करके अपने घर लौटता है। वह और सोनाली स्कूल में साथ पढ़े हैं। दोनों का अठारह बरस का साथ है। अली के लौटने से सोनाली के एकाकी जीवन में नये रंग खिलने लगते हैं मगर स्मिता को अपने बेटे का सोनाली से घुलना मिलना जरा भी पसंद नहीं है। निर्देशक ने मां और बेटे की प्रेमिका के बीच उपजे तनाव को खूबसूरती से उभारा है। सोनाली केबल में स्मिता का साठ प्रतिशत हिस्सा है। स्मिता चाहती है कि सोनाली केबल की बागडोर उसका बेटा संभाल ले और सोनाली को इस धंधे से हटा दे। तभी शहर में एक बड़ी कंपनी शाइनिंग प्रवेश करती है। वह पानी भी बेचती है और खाखरा भी। इसके चेयरमैन अनुपम खेर हैं जो डेेढ़ लाख रूपये वाली शराब पीते हैं और उसके साथ खाखरा खाते हैं। वह अपने पॉश दफ्तर में भी पायजामा पहन कर आते हैं। यह गुजराती व्यापारी अनुपम अब पूरी मुंबई पर राज करना चाहते हैं। उनका मंसूबा है कि मुंबई के लगभग नहीं हर घर में उनका केबल चले। उनके बाहुबली मंसूबों से सोनोली कैसे टकराती है और कैसे उन्हें ध्वस्त करती है इस दिलचस्प और दिमागी जंग को देखने के लिए फिल्म को एक बार देखना तो बनता है। हालांकि इंटरवल के बाद फिल्म बिखर गयी है लेकिन दर्शक एक पल के लिए भी बोर नहीं होते। फिल्म के गानों की अलग से कोई सत्ता नहीं है। वह केवल कहानी और स्थिति को परिभाषित करते हैं। एकदम हमारे आस पास के किसी गली मोहल्ले की सच्ची कहानी जैसी है फिल्म। 
निर्देशक : चारूदत्त आचार्य
कलाकारः, रिया चक्रवर्ती, अली फजल, अनुपम खेर, स्मिता जयकर, स्वानंद किरकिरे
संगीत : अंकित तिवारी




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