Saturday, April 17, 2010

पाठशाला

फिल्म समीक्षा

पाठशाला के पाखंड का पाठ

धीरेन्द्र अस्थाना

बच्चे देखें या न देखें मगर बच्चों के मां-बाप फिल्म ‘पाठशाला‘ जरूर देखे लें। उन्हें पता चलेगा कि शिक्षा के नाम पर कायम मुनाफाखोर प्राइवेट दुकानें उनके बच्चों के जीवन के साथ कैसा बर्बर खिलवाड़ कर रही हैं। मुंबइया हिंदी में कहें तो अंत में जाकर फिल्म थोड़ी ‘पकाऊ‘ (उपदेशात्मक) जरूर हो गयी है लेकिन फिल्म की मंशा बेहद सकारात्मक और सार्थक है। फिल्म के निर्देशक मिलिंद उके ने शिक्षा के बाजारवाद और पाखंड का बेहद उम्दा पाठ तैयार किया है। ‘एक्सट्रा केरिकुलर एक्टिविटीज‘ के नाम पर स्कूल प्रबंधन बच्चों के कोमल मनोलोक को कितना असहाय और जिस्म को किस कदर पस्त किए दे रहा है, इसका बेहद प्रभावशाली रेखांकन करने में निर्देशक को सफलता मिली है।
फिल्म ‘जब वी मेट‘ के बाद शाहिद कपूर ने अपने सहज लेकिन लाजवाब अभिनय की छटाएं बिखेरी हैं तो नाना पाटेकर का गुरू गंभीर व्यक्तित्व भी आकर्षित करता है। अंजन श्रीवास्तव ने संभवतः इस फिल्म में अपने जीवन का सबसे बेजोड़ अभिनय किया है। उनके द्वारा निभाये अनेक मार्मिक दृश्यों से मन भीग भीग उठता है। यूं तो पूरी फिल्म ही अपने गंभीर सरोकारों और हृदयस्पर्शी प्रसंगों के चलते याद की जाएगी लेकिन हाॅस्टल में भूखे-प्यासे, लस्त-पस्त सोये बच्चों वाला दृश्य मन में चिंता पैदा कर देता है कि इस उत्तर आधुनिक समय के बच्चे कितने गहरे दबावों के बीच पढ़ाई कर रहे हैं।
मोटे तौर पर ‘पाठशाला‘ को ‘थ्री ईडियट्स‘ और ‘तारे जमीन पर‘ के जोनर की फिल्म कह सकते हैं लेकिन ‘पाठशाला‘ का कथानक थोड़ा अलग है। यह पिछली दो फिल्मों की तरह शिक्षा के तंत्र या ढांचे पर प्रहार नहीं करती। यह शिक्षण संस्थाओं में फल-फूल रहे बाजारवाद पर चोट करती है। आम तौर पर हिंदी फिल्मों में हीरोईन ‘शो पीस‘ के तौर पर रहती है लेकिन ‘पाठशाला‘ में आयशा टकिया से निर्देशक ने बेहतर काम लिया है। वैसे इस फिल्म की एक खूबी यह भी है कि इसके सभी कलाकारों को उचित ‘स्पेस‘ मिला है। फिल्म का मुख्य गीत सुनने में तो अच्छा लगता ही है वह फिल्म को गति देने तथा उसके कुछ प्रसंगों को परिभाषित करने का काम भी करता है। फिल्म के अंत में मीडिया के हस्तक्षेप तथा नाना पाटेकर के भाषण वाला दृश्य थोड़ा लड़खड़ा गया है लेकिन कुल मिला कर फिल्म देखी जाने लायक है।

निर्देशक: मिलिंद उके
कलाकार: शाहिद कपूर, नाना पाटेकर, आयशा टकिया, सौरभ शुक्ला, अंजन श्रीवास्तव
संगीत: हनीफ शेख

2 comments:

  1. यदि मैं गलत नहीं हूं तो शायद आप वही है जिसने आदमखोर जैसा शानदार उपन्यास लिखा है। आप शायद मुबंई जनसत्ता में भी रहे और सबरंग निकालते रहे। आपके लेखन का तो मैं बचपन से ही कायल हूं। मुबंई में कुछ समय तक रहने वाले मेरे मित्र मनोज रूपड़ा ने भी मुझे आपके बारे में बताया था। और भी कई लोग है जो आपको पढ़ते रहे हैं और आपकी चर्चा करते रहे हैं। आपको ब्लाग पर देखकर अच्छा लगा। मेरा भी एक ब्लाग है बिगुल। सोनीराजकुमार डाट ब्लाग स्पाट डाटकाम।
    आप अपना फोन नबंर देने की कृपा करेंगे तो मैं आपसे बात भी कर लिया करूंगा। अपने प्रिय लेखक की आवाज सुनकर भला किसे अच्छा नहीं लगेगा।

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  2. प्यारे भाई आपकी प्रतिक्रिया पढ़कर मुझे भी बहुत अच्छा लगा। तुरंत बात करें। मेरा फोन नंबर है - 09821872693 . धीरेन्द्र अस्थाना

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