फिल्म समीक्षा
खुशी बांटता ‘माई फ्रेंड पिंटो’
धीरेन्द्र अस्थाना
आखिर प्रतिभाशाली युवा अभिनेता प्रतीक बब्बर के व्यक्तित्व को अभिव्यक्त करता हुआ एक चरित्र निर्देशक राघव डार ने खोज निकाला। राघव की फिल्म ‘माई फ्रेंड पिंटो’ में प्रतीक बब्बर का किरदार प्रतीक को एक नयी ऊंचाई और संभावना देगा। एक बार फिर सिद्ध हुआ कि अगर जरा भी अलग और फ्रेश सी कहानी हो तो बिना महंगे बजट और स्टार कास्ट के एक बेहतर फिल्म बनायी जा सकती है। ‘माई फ्रेंड पिंटो’ एक फन फिल्म है जो आपके ज्ञान या संवेदना में कोई इजाफा नहीं करती। लेकिन जितनी देर आप हॉल में हैं, पूरी तरह फिल्म में डूबे रहते हैं। पर्दे पर घटती घटनाओं का न सिर्फ मजा लेते रहते हैं बल्कि खुद को भी फिल्म का हिस्सा मानने लगते हैं। अपने रचना कर्म में दर्शकों को भी शामिल कर लेने का अच्छा कौशल राघव डार ने पेश किया है। यह एक रात की फिल्म है। प्रतीक अपने दोस्त से मिलने माया नगरी मुंबई आता है जहां शहर में विभिन्न जगहों पर घट रही अजीबो गरीब घटनाएं उससे टकराती हैं। इस एक रात में वह अपने दोस्त अर्जुन माथुर की नकचढ़ी और महत्वाकांक्षी बीबी से टकराता है। डॉन मकरंद देशपांडे से टकराता है। डांसर बनने मुंबई आयी कलकी कोचलिन से टकराता है। कुछ और भी जरूरी-गैर जरूरी चरित्र उसके जीवन में उस रात उतरते हैं। वह सबको खुश रखने का प्रयास करता है। मुंबई में वह खुद को बहुत ‘मिसफिट’ पाता है लेकिन अपनी मासूमियत से सबका दिल लूट लेता है, सबकी मदद करता है। एक घटना प्रधान फिल्म है जो बेहद मनोरंजक तथा दिलचस्प भी है। इंटरवल तक फिल्म को ले कर भ्रम बना रहता है कि यह क्या कहना चाहती है लेकिन इंटरवल के बाद फिल्म न सिर्फ गति पकड़ती है बल्कि एक शेप भी लेती जाती है। कलकी कोचलिन और प्रतीक बब्बर में भले ही ग्लैमर न हो लेकिन ये दोनों भविष्य की बड़ी उम्मीद हैं। मकरंद देशपांडे और राज जुत्शी की कॉमेडी कहीं कहीं लाउड हो गयी है लेकिन बोझिल नहीं लगती। प्रत्येक चरित्र को उसकी जरूरत के मुताबिक ही स्पेस दिया गया है। प्रतीक और कलकी का बादलों में डांस करने का एक फंतासी दृश्य लुभावना है तो फिल्म के गीतों में ताजगी तथा युवापन। युवा दर्शकों के लिए एक खुशनुमा और जिंदादिल फिल्म-लीक से हट कर।
निर्देशक: राघव डार
कलाकार: प्रतीक बब्बर, कलकी कोचलिन, दिव्या दत्ता, मकरंद देशपांडे, राज जुत्शी, अर्जुन माथुर
संगीत: अजय गोगावले, अतुल गोगावले, समीर टंडन, कविता सेठ
Monday, October 17, 2011
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भाई आपकी समीक्षा निर्मम होते हुए भी सोफ्टता का आभास देती है. बधाई! ग्लैमर तो नसीर और ओमपुरी में भी नहीं था. ना ही स्मिता में. लेकिन मैं मानता हूँ कि इनसे चरित्रों में जीवन्तता आ जाती थी. ये वास्तव में चरित्र जीते थे.
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