फिल्म समीक्षा
सिटीलाइट्स : ऐसे भी तो संभव है सिनेमा
धीरेन्द्र अस्थाना
नयी उम्र के दर्शकों-पाठकों को सबसे पहले यह बताना चाहते हैं कि सत्तर के दशक में हम लोग आर्थिक मोर्चे पर अच्छे खासे गरीब होते थे। तकनीक के स्तर पर भी काफी पिछड़े हुए थे। गरीब और पिछड़े होने के साथ हम बहुत भोले और ईमानदार भी होते थे। यह बताने का अर्थ यह है कि आज के जमाने में बनी फिल्म ‘सिटीलाइट्स‘ ऊपर बताए यथार्थ पर ही खड़ी है। यह एक बेहतर फिल्म है जिसके अर्थ धीरे-धीरे खुलते हैं। पर अपने देखे जाने के दौरान अपनी धीमी गति के कारण यह खीझ भी पैदा करती है। राजकुमार राव को कहां से उठा लायी है यह फिल्म इंडस्ट्री। कहीं से भी एक्टर नहीं लगता लेकिन एक्टिंग की पूरी रंगशाला कंधे पर लादे घूमता है। उसके अपोजिट पत्रलेखा को तलाशा है निर्देशक हंसल मेहता ने। ये दोनों इंडस्ट्री के नसीरुद्दीन शाह और शबाना आजमी बनने वाले हैं। सत्तर के दशक में साहित्य में जिस गरीब आदमी की कहानियां लिखी जाती थीं वैसी ही एक कहानी को हंसल मेहता ने बड़े पर्दे पर थोड़ी स्मार्टनेस के साथ पेश कर दिया है। पर दिक्कत यह है कि मल्टीप्लेक्स में जो दर्शक ढाई सौ रुपए का टिकट लेकर साठ रुपए का समोसा खाता है और डेढ़ सौ रुपए का कोल्ड ड्रिंक पीता है उसके मुंह का स्वाद बिगाड़ देगी यह फिल्म। धुर गरीबी, ठोस हताशा और गहरी बेचारगी की बात करती है फिल्म। फिल्म बहुत अद्भुत बनी है। लेकिन यहां निर्देशक के लिए भी एक ज्ञान की बात परोसनी जरूरी है। जब हम कमर्शियल सिनेमा की बात करते हैं तो निर्देशक को लार्जर दैन लाईफ फार्मूले के नाम पर काफी छूट देते हैं। यह छूट रियलिस्टिक सिनेमा बनाने वाले को नहीं दी जाती। निर्देशक से शुरुआत में ही एक गलती हो गई। मोबाइल फोन के जमाने में, फिल्म का हीरो राजकुमार राव अपनी पत्नी और बेटी के साथ राजस्थान के गांव से सीधा मुंबई आ जाता है। जबकि जिस गांव वाले दोस्त ने उसे मुंबई बुलाया है उसका पता राजकुमार के पास नहीं है। गांव वाले मित्र का फोन स्विच ऑफ है। पुलिस फोन नंबर के आधार पर दोस्त का पता ठिकाना आसानी से निकाल सकती थी। लेकिन नहीं निकालती। जबकि मुंबई पुलिस इतनी हृदयहीन नहीं है। इस बिना पते और बंद मोबाइल वाले दोस्त को राजकुमार मुंबई की गलियों में केवल नाम के आधार पर खोजता फिरता है जो बेहद हास्यास्पद लगता है। बाकी गलतियां भी इस मूल गलती से जुड़ी हुई ही हैं। अनजान आदमी से बिना लिखत-पढ़त के किराए पर मकान लेने के चक्कर में जो फर्जीवाड़ा होता है उससे राजकुमार की जेब का दस हजार रुपया भी लुट जाता है। अब पेट पालने के लिए मुंबई में किसी औरत के लिए सबसे आसान रास्ता है बीयर बार में नाचना। यही करती है फिल्म की हीरोइन पत्रलेखा। काफी जद्दोजहद के बाद राजकुमार को एक सिक्योरिटी सर्विस कंपनी में नौकरी मिल जाती है। वह मेहनत से काम करता है लेकिन पगार मिलने से पहले ही अपने सीनियर के किए षड्यंत्र का शिकार होकर सस्पेंड हो जाता है। जितने दिन काम किया है उसकी भी पगार नहीं मिलती। उधर पत्नी का काम भी छूट जाता है। राजकुमार एजेंसी के मालिक के केबिन में घुस जाता है। फिर उसे बंधक बना कर गले में लटकी लक्ष्मी जी के पेंडल की भीतरी सतह पर उस बक्से की चाबी की छाप ले लेता है जो बक्सा मर चुके सीनियर के उस घर में रखा है जिसमें इन दिनों राजकुमार रहता है। अंत में राजकुमार सिक्योरिटी गार्ड्स के हाथों मारा जाता है और नियम के मुताबिक कंपनी उसका निजी सामान उसकी पत्नी के घर पहुंचवा देती है। इस सामान में लक्ष्मी जी का पेंडल भी है। घर से काम पर जाते समय यह पेंडल राजकुमार के गले में नहीं था। इसलिए पत्नी को यह पेंडल देख कुछ हैरानी होती है। वह उत्सुकता से उसे खोलती है तो भीतर एक चाबी की छवि दिखाई देती है। पत्नी को बक्से के बारे में पता था। वह तुरंत डुप्लीकेट चाबी बनवा कर बक्सा खोलती है। इस बक्से में किसी के करोड़ों रुपए हैं। यह बक्सा कहां से आया और किसका है, यही फिल्म का सस्पेंस है। पत्नी पैसों और बेटी को ले फिर से अपने गांव निकल जाती है। फिल्म की टैग लाइन है - आप अपने परिवार के लिए किस हद तक जा सकते हैं? अनिवार्य रूप से देखने लायक फिल्म।
निर्देशक : हंसल मेहताकलाकार : राजकुमार राव, पत्रलेखा
संगीत : जीत गांगुली
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