फिल्म समीक्षा
जॉबलेस देसी ब्वायज
धीरेन्द्र अस्थाना
कॉमेडी को सफलता का माई-बाप समझने की झोंक में कैसे एक संजीदा और इमोशनल सब्जेक्ट का कचरा किया जा सकता है, यह जानने के लिए ‘देसी ब्वायज’ देखनी चाहिए। अच्छे गीत-संगीत और लंदन की भव्य लोकेशन से सजी बड़ी स्टार कास्ट वाली यह फिल्म काफी बेहतर बन सकती थी। अगर इंटरवल के बाद निर्देशक को यह धुन सवार नहीं होती कि फिल्म को कॉमिक ट्रीटमेंट देना चाहिए। कॉमेडी फिल्मों के सरताज निर्देशक डेविड धवन के बेटे रोहित धवन की यह पहली निर्देशित फिल्म है। विश्व भर के लोगों को प्रभावित करने वाला विषय उठाकर रोहित ने एक सार्थक कदम उठाया। इंटरवल तक उस विषय को समझदारी और संवेदना के साथ भी फिल्माया। लगा कि रोहित एक गंभीर और मर्मस्पर्शी फिल्म बनाकर बॉलीवुड में अपना एक अलग मुकाम बनाएंगे। लेकिन इंटरवल के बाद पता नहीं किसकी सलाह पर उन्होंने यू टर्न लिया और कॉमेडी की डगर पर चल पड़े। इस डगर पर पांव धरते ही वह जो फिसले तो फिल्म उनकी पकड़ से छूट गयी। नतीजा, अपनी संपूर्णता में फिल्म न इमोशनल रह पायंी और न ही कॉमेडी बन पायी। दुख की बात यह भी हुई कि दीपिका पादुकोण और चित्रांगदा सिंह जैसी प्रतिभाशाली अभिनेत्रियों से कोई काम ही नहीं लिया जा सका। अक्षय कुमार और जॉन अब्राहम का अभिनय फिल्म को कितनी दूर ले जाता जब कथानक ही खो गया। सन् 2009 में जो विश्व्यापी मंदी आयी थी उसकी चपेट में लंदन में रहने वाले ये दो दोस्त अक्षय और जॉन भी आ जाते हैं। सब तरफ से हारकर इन्हें ‘मेल एस्कॉर्ट्स’ (पुरुष वेश्या) के धंधे में उतरना पड़ता है। जिस कारण जॉन को अपनी प्रेमिका और अक्षय को अपने भांजे से जुदा होना पड़ता है। दुखी जॉन अपने पंद्रह साल पुराने दोस्त अक्षय को अपने घर से निकाल देता है। इसके बाद बेरोजगार अक्षय कॉलेज वापस लौटता है अपनी पढ़ाई पूरी करने और जॉन अपनी रुठी हुई प्रेमिका दीपिका को मनाने के करतबों में जुट जाता है। दोनों के पास पैसा कहां से आता है, यह एक रहस्य है। अंत में जॉन को दीपिका मिल जाती है और अक्षय को उसका भांजा वीर। लंदन में जॉबलेस हुए देसी ब्वायज फिर से दोस्त बन जाते हैं और ‘बा- रोजगार’ भी। जॉन का काम बेहतरीन है।
निर्देशक: रोहित धवन
कलाकार: अक्षय कुमार, जॉन अब्राहम, दीपिका पादुकोण, चित्रांगदा सिंह, ओमी वैद्य, संजय दत्त (मेहमान भूमिका)
संगीत: प्रीतम चक्रवर्ती
Monday, November 28, 2011
Monday, November 21, 2011
शकल पे मत जा
फिल्म समीक्षा
‘शकल पे मत जा‘
अकल भी कहां है!
धीरेन्द्र अस्थाना
शुभ द्वारा निर्देशित ‘शकल पे मत जा‘ माइंडलेस कॉमेडी नहीं माइंड घर पे रख कर बनायी गयी फिल्म है। बॉलीवुड में भी अजब गजब गोरखधंधा है। प्रतिभाशाली लोग या तो सिनेमा बना नहीं पाते, बना लेते हैं तो उन्हें रिलीज के लिए सिनेमा हॉल नहीं मिलते, एकाध सिनेमा हॉल मिल जाता है तो दर्शक फिल्म देखने नहीं आते। दूसरी तरफ कॉमेडी के नाम पर प्रोड्यूसर भी मिल जाता है, डिस्ट्रीब्ूयटर भी मिल जाता है और दर्शक भी झूमते-झामते फिल्म देखने पहुंच जाते हैं। ‘शकल पे मत जा‘ मानव श्रम और धन की बरबादी की उम्दा और कारुणिक मिसाल है। हालांकि निर्देशक ने जरूर यह मुगालता पाल लिया होगा कि वह युवाओं को संबोधित एक आधुनिक और मजाकिया फिल्म बनाने में कामयाब है लेकिन असल में यह हास्यप्रद नहीं हास्यास्पद और बचकानी फिल्म है जिसे देखते हुए लगातार रोना आता रहता है। नये लड़कों और थोड़े से पैसों को लेकर बनायी गयी यह फिल्म असल में कुछ गलतफहमियों के कारण पैदा हुई अराजकता पर फोकस करते हुए एक निकम्मी और कम अक्ल सुरक्षा व्यवस्था पर चोट करना चाहती है लेकिन चोट करने की अकल न होने के कारण एक बेतुकी और बोर नौटंकी में बदल जाती है। सौरभ शुक्ला और रघुवीर यादव जैसे प्रतिभावान लोग इन फिल्मों में काम करके खुद अपने ऊपर गोली दाग रहे हैं। क्या बॉलीवुड में काम की बहुत कमी है? फिल्म की कहानी कॉलेज के तीन लड़कों के प्रोजेक्ट से शुरू होती है। चौथा हीरो का 13 साल का भाई है। प्रोजेक्ट के तहत एक डॉक्यूमेंट्री बनानी है - आतंकवादी गतिविधियों पर केंद्रित। शूटिंग के दौरान दिल्ली एयरपोर्ट पर एक जहाज की लेंडिंग को शूट करते हुए चारों पुलिस द्वारा धर लिए जाते हैं। इन चारों की हास्यास्पद ढंग से की जा रही जांच में ही पिचहत्तर प्रतिशत फिल्म खप जाती है। बाकी पच्चीस प्रतिशत में बताया जाता है कि एयरपोर्ट पर असली आतंकवादी भी मौजूद थे जो हवाईजहाज उड़ाना चाहते थे। चारों लड़के तो केवल इसलिए फंस गये क्योंकि अपनी शूटिंग में उन्होंने एयरपोर्ट के अलावा राष्ट्रपति और संसद भवन भी शूट किया था और बम बनाने, हवाई जहाज उड़ाने तथा आरडीएक्स पर चर्चा भी की थी। आखिर में हीरो द्वारा असली बम को डिफ्यूज करने के शॉट पर फिल्म खत्म होती है और नेरेशन द्वारा फिल्म की कहानी समझायी जाती है। फिल्म देखने की कोई वजह नहीं है। दो गाने अच्छे हैं लेकिन उनका फिल्मांकन कमजोर है।
निर्देशक: शुभ
कलाकार: शुभ, प्रतीक कटारे, सौरभ शुक्ला, रघुवीर यादव, आमना शरीफ, जाकिर हुसैन, चित्रक, प्रदीप काबरा, हर्षल पारेख, राजकुमार कनौजिया
संगीत: सलीम-सुलेमान
‘शकल पे मत जा‘
अकल भी कहां है!
धीरेन्द्र अस्थाना
शुभ द्वारा निर्देशित ‘शकल पे मत जा‘ माइंडलेस कॉमेडी नहीं माइंड घर पे रख कर बनायी गयी फिल्म है। बॉलीवुड में भी अजब गजब गोरखधंधा है। प्रतिभाशाली लोग या तो सिनेमा बना नहीं पाते, बना लेते हैं तो उन्हें रिलीज के लिए सिनेमा हॉल नहीं मिलते, एकाध सिनेमा हॉल मिल जाता है तो दर्शक फिल्म देखने नहीं आते। दूसरी तरफ कॉमेडी के नाम पर प्रोड्यूसर भी मिल जाता है, डिस्ट्रीब्ूयटर भी मिल जाता है और दर्शक भी झूमते-झामते फिल्म देखने पहुंच जाते हैं। ‘शकल पे मत जा‘ मानव श्रम और धन की बरबादी की उम्दा और कारुणिक मिसाल है। हालांकि निर्देशक ने जरूर यह मुगालता पाल लिया होगा कि वह युवाओं को संबोधित एक आधुनिक और मजाकिया फिल्म बनाने में कामयाब है लेकिन असल में यह हास्यप्रद नहीं हास्यास्पद और बचकानी फिल्म है जिसे देखते हुए लगातार रोना आता रहता है। नये लड़कों और थोड़े से पैसों को लेकर बनायी गयी यह फिल्म असल में कुछ गलतफहमियों के कारण पैदा हुई अराजकता पर फोकस करते हुए एक निकम्मी और कम अक्ल सुरक्षा व्यवस्था पर चोट करना चाहती है लेकिन चोट करने की अकल न होने के कारण एक बेतुकी और बोर नौटंकी में बदल जाती है। सौरभ शुक्ला और रघुवीर यादव जैसे प्रतिभावान लोग इन फिल्मों में काम करके खुद अपने ऊपर गोली दाग रहे हैं। क्या बॉलीवुड में काम की बहुत कमी है? फिल्म की कहानी कॉलेज के तीन लड़कों के प्रोजेक्ट से शुरू होती है। चौथा हीरो का 13 साल का भाई है। प्रोजेक्ट के तहत एक डॉक्यूमेंट्री बनानी है - आतंकवादी गतिविधियों पर केंद्रित। शूटिंग के दौरान दिल्ली एयरपोर्ट पर एक जहाज की लेंडिंग को शूट करते हुए चारों पुलिस द्वारा धर लिए जाते हैं। इन चारों की हास्यास्पद ढंग से की जा रही जांच में ही पिचहत्तर प्रतिशत फिल्म खप जाती है। बाकी पच्चीस प्रतिशत में बताया जाता है कि एयरपोर्ट पर असली आतंकवादी भी मौजूद थे जो हवाईजहाज उड़ाना चाहते थे। चारों लड़के तो केवल इसलिए फंस गये क्योंकि अपनी शूटिंग में उन्होंने एयरपोर्ट के अलावा राष्ट्रपति और संसद भवन भी शूट किया था और बम बनाने, हवाई जहाज उड़ाने तथा आरडीएक्स पर चर्चा भी की थी। आखिर में हीरो द्वारा असली बम को डिफ्यूज करने के शॉट पर फिल्म खत्म होती है और नेरेशन द्वारा फिल्म की कहानी समझायी जाती है। फिल्म देखने की कोई वजह नहीं है। दो गाने अच्छे हैं लेकिन उनका फिल्मांकन कमजोर है।
निर्देशक: शुभ
कलाकार: शुभ, प्रतीक कटारे, सौरभ शुक्ला, रघुवीर यादव, आमना शरीफ, जाकिर हुसैन, चित्रक, प्रदीप काबरा, हर्षल पारेख, राजकुमार कनौजिया
संगीत: सलीम-सुलेमान
Monday, November 14, 2011
रॉकस्टार
फिल्म समीक्षा
अजब-गजब सा ‘रॉकस्टार’
धीरेन्द्र अस्थाना
इम्तियाज अली की इस तीसरी फिल्म को एआर रहमान के अद्भुत संगीत और रणबीर कपूर के बहुआयामी अभिनय के लिए देखना चाहिए। बहुत कम समय में रणबीर कपूर अभिनय के नये-नये अंदाज दिखा रहे हैं। इस फिल्म में तो उन्होंने साबित कर दिया है कि वह एक चरित्र की कितनी सारी छायाओं को जी सकते हैं। दिल्ली के एक पंजाबी मुंडे जनार्दन जाखड़, उर्फ जेजे के, गायक बनने के लड़खड़ाते ख्वाब से शुरू हुआ उसका सफर यूरोप के रॉक स्टार जॉर्डन बनने के पायदान तक एक्टिंग के कई पन्ने पलटता है। इम्तियाज ने फिल्म को मजाकिया अंदाज में आरंभ किया था जिसका दर्शकों ने दिल खोलकर मजा भी लिया लेकिन इंटरवल के बाद फिल्म ने अचानक एक बोझिल और अराजक यू टर्न लिया। फिर तो फिल्म उनके हाथ से फिसलती ही चली गयी। पहली फिल्म के हिसाब से नरगिस फाखरी ने बेहतर काम करने की कोशिश की लेकिन उनका चरित्र इस कदर उलझा हुआ था कि वह खुद भी उसी में उलझ कर रह गयीं। रणबीर कपूर के साथ वह एक आवारा, अराजक, लंपट और बिंदास जीवन के कुछ क्षण बिताना चाहती हैं। बिताती भी हैं लेकिन एक अमीर एनआरआई के साथ ब्याह कर के विदेश (प्राग) भी चली जाती हैं। इधर दिल्ली में रणबीर अपने घर से धक्के देकर बाहर निकाल दिये जाने के बाद थोड़ा बहुत गा-बजाकर थोड़ा सा पहचाना चेहरा बन जाता है। नरगिस से मिलने की चाह में वह पीयूष मिश्रा की सारी शर्तें मान कर उनकी संगीत कंपनी के साथ सात देशों के टूर पर जाता है। जहां उसकी मुलाकात प्राग में नरगिस से हो जाती है। यहां नरगिस उलझ जाती है। वह अपना घर भी बचाए रखना चाहती है और रणबीर कपूर का जंगली और दीवाना आमंत्रण उसमें ऊर्जा भी भरता है। इस बीच रणबीर कपूर स्टार बनता चलता है लेकिन कभी अनुबंध तोड़कर, कभी मीडिया पर्सन से उलझकर, कभी किसी कंसर्ट में न पहुंच कर ठुकता-पिटता और जेल भी जाता रहता है। शरीर में खून न बनने की बीमारी के चलते नरगिस एक दिन दम तोड़ देती है और हमारा रॉक स्टार अपनी प्रेमिका की फेंटेसी में जीने लगता है। संगीत के बैकड्रॉप पर दो युवाओं की अजब-गजब प्रेम कहानी को इम्तियाज ने अपने अंदाज और मुहावरे में ढालने की पुरानी कोशिश की है लेकिन यह कोशिश उनके पहले प्रयोग ‘जब वी मेट’ जैसी कामयाब नहीं है। फिल्म में दिल्ली स्टाइल संवाद आकर्षित करते हैं। तमाम गाने पहले से ही हिट हो चुके हैं।
निर्देशक: इम्तियाज अली
कलाकार: रणबीर कपूर, नरगिस फाखरी, पीयूष मिश्रा, शेरनाज पटेल और शम्मी कपूर
गीत: इरशाद कामिल
संगीत: ए आर रहमान
अजब-गजब सा ‘रॉकस्टार’
धीरेन्द्र अस्थाना
इम्तियाज अली की इस तीसरी फिल्म को एआर रहमान के अद्भुत संगीत और रणबीर कपूर के बहुआयामी अभिनय के लिए देखना चाहिए। बहुत कम समय में रणबीर कपूर अभिनय के नये-नये अंदाज दिखा रहे हैं। इस फिल्म में तो उन्होंने साबित कर दिया है कि वह एक चरित्र की कितनी सारी छायाओं को जी सकते हैं। दिल्ली के एक पंजाबी मुंडे जनार्दन जाखड़, उर्फ जेजे के, गायक बनने के लड़खड़ाते ख्वाब से शुरू हुआ उसका सफर यूरोप के रॉक स्टार जॉर्डन बनने के पायदान तक एक्टिंग के कई पन्ने पलटता है। इम्तियाज ने फिल्म को मजाकिया अंदाज में आरंभ किया था जिसका दर्शकों ने दिल खोलकर मजा भी लिया लेकिन इंटरवल के बाद फिल्म ने अचानक एक बोझिल और अराजक यू टर्न लिया। फिर तो फिल्म उनके हाथ से फिसलती ही चली गयी। पहली फिल्म के हिसाब से नरगिस फाखरी ने बेहतर काम करने की कोशिश की लेकिन उनका चरित्र इस कदर उलझा हुआ था कि वह खुद भी उसी में उलझ कर रह गयीं। रणबीर कपूर के साथ वह एक आवारा, अराजक, लंपट और बिंदास जीवन के कुछ क्षण बिताना चाहती हैं। बिताती भी हैं लेकिन एक अमीर एनआरआई के साथ ब्याह कर के विदेश (प्राग) भी चली जाती हैं। इधर दिल्ली में रणबीर अपने घर से धक्के देकर बाहर निकाल दिये जाने के बाद थोड़ा बहुत गा-बजाकर थोड़ा सा पहचाना चेहरा बन जाता है। नरगिस से मिलने की चाह में वह पीयूष मिश्रा की सारी शर्तें मान कर उनकी संगीत कंपनी के साथ सात देशों के टूर पर जाता है। जहां उसकी मुलाकात प्राग में नरगिस से हो जाती है। यहां नरगिस उलझ जाती है। वह अपना घर भी बचाए रखना चाहती है और रणबीर कपूर का जंगली और दीवाना आमंत्रण उसमें ऊर्जा भी भरता है। इस बीच रणबीर कपूर स्टार बनता चलता है लेकिन कभी अनुबंध तोड़कर, कभी मीडिया पर्सन से उलझकर, कभी किसी कंसर्ट में न पहुंच कर ठुकता-पिटता और जेल भी जाता रहता है। शरीर में खून न बनने की बीमारी के चलते नरगिस एक दिन दम तोड़ देती है और हमारा रॉक स्टार अपनी प्रेमिका की फेंटेसी में जीने लगता है। संगीत के बैकड्रॉप पर दो युवाओं की अजब-गजब प्रेम कहानी को इम्तियाज ने अपने अंदाज और मुहावरे में ढालने की पुरानी कोशिश की है लेकिन यह कोशिश उनके पहले प्रयोग ‘जब वी मेट’ जैसी कामयाब नहीं है। फिल्म में दिल्ली स्टाइल संवाद आकर्षित करते हैं। तमाम गाने पहले से ही हिट हो चुके हैं।
निर्देशक: इम्तियाज अली
कलाकार: रणबीर कपूर, नरगिस फाखरी, पीयूष मिश्रा, शेरनाज पटेल और शम्मी कपूर
गीत: इरशाद कामिल
संगीत: ए आर रहमान
Tuesday, November 8, 2011
लूट
फिल्म समीक्षा
लूट सके तो लूट
धीरेन्द्र अस्थाना
कमर्शियल सिनेमा की दुनिया में जिसे ‘पैसा वसूल’ कहते हैं ‘लूट’ उसी तरह की फिल्म है। दिमाग घर पर रखकर सिर्फ मजा लेने के लिए ‘लूट’ का रुख कर सकते हैं। निर्माता सुनील शेट्टी ने पता नहीं क्यों इस फिल्म का कायदे से प्रमोशन नहीं किया। यही वजह है कि ‘लूट‘ बॉक्स आफिस को नहीं लूट सकी। वरना तो आम दर्शकों को रिझाने के लिए इसमें तमाम वो मसाले मौजूद हैं जो किसी भी कमर्शियल फिल्म को कामयाब बनाते हैं। बड़े सितारे हैं, अद्भुत तो नहीं लेकिन एक ठीकठाक सी कहानी है, एक्शन है, थ्रिल है, डांस है और है एक नयी सी लोकेशन। पूरी फिल्म को थाइलैंड के नजदीक स्थित पटाया सिटी में शूट किया गया है जिसे देखना आंखों को अच्छा लगता है। पता नहीं अपने हिंदुस्तानी शहरों में साफ-सफाई क्यों नहीं रखी जाती? फिल्म की वन लाइन स्टोरी यह है कि मुंबई के चार लोकल गुंडे और टपोरी-सुनील शेट्टी, गोविंदा, जावेद जाफरी और महाअक्षय चक्रवर्ती (मिथुन दा के बेटे) एक लोकल डॉन के कहने पर पटाया में किसी अमीर आदमी का घर लूटने जाते हैं लेकिन लोकल संपर्क श्वेता भारद्वाज द्वारा किसी गलत पते पर भेज दिये जाने के कारण खुद फंस जाते हैं। वह गलती से पटाया के एक खतरनाक डॉन महेश मांजरेकर की तिजोरी साफ कर देते हैं। इसके बाद शुरू होता है एक से बढ़कर एक दुर्घटनाओं में उलझने का सिलसिला। खास न होने के बावजूद पूरी फिल्म शुरू से अंत तक बांधे रखती है और मजे को खंडित नहीं होने देती। हर एक्टर अपनी अलग-अलग छाप छोड़ता है। जावेद जाफरी का हास्य, सुनील शेट्टी का एक्शन, महाअक्षय का लड़कपन और सबसे ऊपर गोविंदा का दिलचस्प तमाशा तथा रोचक संवाद। रवि किशन ने भी अच्छा कॉमिक रोल किया है। राखी सावंत का आइटम नंबर फिल्म की यूएसपी बन सकता था लेकिन उसे फिल्म के समाप्त हो जाने के बाद दिखाने से वह नष्ट हो गया है। हिंदी-पंजाबी फिल्मों के हिट गायक मीका ने भी इस फिल्म में पटाया के लोकल गुंडे का किरदार निभाया है और क्या खूब निभाया है।
निर्देशक: रजनीश ठाकुर
कलाकार: गोविंदा, सुनील शेट्टी, जावेद जाफरी, महाअक्षय चक्रवर्ती, रवि किशन, महेश मांजरेकर किम शर्मा, प्रेम चोपड़ा
संगीत: श्रवण, शमीर, मीका
लूट सके तो लूट
धीरेन्द्र अस्थाना
कमर्शियल सिनेमा की दुनिया में जिसे ‘पैसा वसूल’ कहते हैं ‘लूट’ उसी तरह की फिल्म है। दिमाग घर पर रखकर सिर्फ मजा लेने के लिए ‘लूट’ का रुख कर सकते हैं। निर्माता सुनील शेट्टी ने पता नहीं क्यों इस फिल्म का कायदे से प्रमोशन नहीं किया। यही वजह है कि ‘लूट‘ बॉक्स आफिस को नहीं लूट सकी। वरना तो आम दर्शकों को रिझाने के लिए इसमें तमाम वो मसाले मौजूद हैं जो किसी भी कमर्शियल फिल्म को कामयाब बनाते हैं। बड़े सितारे हैं, अद्भुत तो नहीं लेकिन एक ठीकठाक सी कहानी है, एक्शन है, थ्रिल है, डांस है और है एक नयी सी लोकेशन। पूरी फिल्म को थाइलैंड के नजदीक स्थित पटाया सिटी में शूट किया गया है जिसे देखना आंखों को अच्छा लगता है। पता नहीं अपने हिंदुस्तानी शहरों में साफ-सफाई क्यों नहीं रखी जाती? फिल्म की वन लाइन स्टोरी यह है कि मुंबई के चार लोकल गुंडे और टपोरी-सुनील शेट्टी, गोविंदा, जावेद जाफरी और महाअक्षय चक्रवर्ती (मिथुन दा के बेटे) एक लोकल डॉन के कहने पर पटाया में किसी अमीर आदमी का घर लूटने जाते हैं लेकिन लोकल संपर्क श्वेता भारद्वाज द्वारा किसी गलत पते पर भेज दिये जाने के कारण खुद फंस जाते हैं। वह गलती से पटाया के एक खतरनाक डॉन महेश मांजरेकर की तिजोरी साफ कर देते हैं। इसके बाद शुरू होता है एक से बढ़कर एक दुर्घटनाओं में उलझने का सिलसिला। खास न होने के बावजूद पूरी फिल्म शुरू से अंत तक बांधे रखती है और मजे को खंडित नहीं होने देती। हर एक्टर अपनी अलग-अलग छाप छोड़ता है। जावेद जाफरी का हास्य, सुनील शेट्टी का एक्शन, महाअक्षय का लड़कपन और सबसे ऊपर गोविंदा का दिलचस्प तमाशा तथा रोचक संवाद। रवि किशन ने भी अच्छा कॉमिक रोल किया है। राखी सावंत का आइटम नंबर फिल्म की यूएसपी बन सकता था लेकिन उसे फिल्म के समाप्त हो जाने के बाद दिखाने से वह नष्ट हो गया है। हिंदी-पंजाबी फिल्मों के हिट गायक मीका ने भी इस फिल्म में पटाया के लोकल गुंडे का किरदार निभाया है और क्या खूब निभाया है।
निर्देशक: रजनीश ठाकुर
कलाकार: गोविंदा, सुनील शेट्टी, जावेद जाफरी, महाअक्षय चक्रवर्ती, रवि किशन, महेश मांजरेकर किम शर्मा, प्रेम चोपड़ा
संगीत: श्रवण, शमीर, मीका
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