Saturday, March 27, 2010

वेलडन अब्बा

फिल्म समीक्षा

वेल डन अब्बा, वेल डन

धीरेन्द्र अस्थाना

श्याम बाबू की इस कॉमेडी फिल्म को देखना अपनी प्राथमिकता में शामिल करें। मजाक-मजाक में लोकतंत्र और उसके ढांचे पर टिकी पूरी शासन व्यवस्था को हिला कर रख दिया है श्याम बेनेगल ने। ढाई घंटे में बीसियों समस्याओं, विसंगतियों, असमानताओं तथा कुरूपताओं का पर्दाफाश केवल श्याम बाबू का सिनेमा ही कर सकता है। आजकल बन रही फिल्मों की अवधि के हिसाब से ‘वेलडन अब्बा‘ थोड़ी लंबी हो गयी है लेकिन बनी बहुत खूब है। यह कहना गलत नहीं है कि एक काबिल डायरेक्टर ही किसी अच्छे एक्टर से उसका ‘सर्वश्रेष्ठ‘ निकलवा सकता है। अगर श्याम बाबू यह फिल्म नहीं बनाते तो ढेर सारी हकीकतें दुनिया जान ही नहीं पाती। इस फिल्म से पता चला कि मिनिषा लांबा कमाल की अदाकारा भी हैं। मौका मिलता रहे ढंग के निर्देशक के साथ, तो रवि किशन हिंदी सिनेमा के आसमान पर कई झंडे गाड़ सकते हैं। बोमन ईरानी को लोग अब तक बेहतर लेकिन ‘लाउड‘ एक्टर समझते आये थे लेकिन ‘वेलडन अब्बा‘ में उन्होंने अभिनय का नया आस्वाद और आयाम पेश किया है। ललित तिवारी, राजेंद्र गुप्ता, यशपाल शर्मा, इला अरूण, रजित कपूर सब के सब कलाकारों ने किसी अनुशासित सिपाही की तरह श्याम बाबू के निर्देशन में बेहतरीन काम को अंजाम दिया है। समीर दत्तानी का अभिनय सादा लेकिन सहज है। शांतनु मोइत्रा का संगीत फिल्म की पटकथा के अनुकूल है और फिल्म को गति देता है।
पहले इस फिल्म का नाम ‘अब्बा का कुआं‘ था जिसे बदल कर श्याम बाबू ने ‘वेलडन अब्बा‘ कर दिया। मल्टीप्लेक्स, शॉपिंग मॉल्स, कॉल सेंटर्स , लिव इन रिलेशनशिप, वन नाइट स्टैंड जैसे अत्याधुनिक समय में ग्रामीण भारत का यथार्थ पेश करने की हिम्मत दूसरा कोई निर्देशक कर भी नहीं सकता था। सिनेमा तो सिनेमा गांव तो साहित्य तक से कब का बेदखल हो चुका। कुएं, नहरें, सड़कें और पुल कागजों पर बनते हैं और कागजों में ही ढह भी जाते हैं, इस शासकीय यथार्थ से संभवतः आज की युवा पीढ़ी परिचित नहीं है। यह फिल्म नयी पीढ़ी को बनैली राजनीति की इसी खतरनाक यात्रा पर ले जाती है, वह भी खेल-खेल में। फिल्म में बावड़ी की चोरी होना एक प्रतीकात्मक व्यंग्य है। इस व्यंग्य के समंदर में गांव से लेकर प्रदेश सरकार के स्तर तक सबको चाबुक लगाये गये हैं। बीच बीच में अनेक उप प्रसंगों के जरिए सामाजिक विद्रूपताएं भी रेखांकित होती रहती हैं। भ्रष्टाचार कैसे एक सामाजिक शिष्टाचार में बदल गया है इसकी तरफ भी फिल्म साफ इशारा करती है। फिल्म का सबसे बड़ा संदेश यह है कि जिंदगी का सबसे बड़ा डर ‘डर-डर के जीना‘ है। जितना जल्दी हो इस डर से मुक्ति पा लेनी चाहिए।

निर्देशक: श्याम बेनेगल
कलाकार: बोमन ईरानी, मिनिषा लांबा, समीर दत्तानी, रवि किशन, इला अरूण, राजेन्द्र गुप्ता, ललित तिवारी, यशपाल शर्मा, रजित कपूर
संगीत: शांतनु मोईत्रा
गीत: स्वानंद किरकिरे, इला अरूण, अशोक मिश्र

Saturday, March 20, 2010

लव, सेक्स और धोखा

फिल्म समीक्षा

सच की गली में ‘लव, सेक्स और धोखा‘

धीरेन्द्र अस्थाना

आम तौर पर साहित्य आम जनता के लिए नहीं होता। वह जनता के बारे में हो सकता है। लेकिन सिनेमा के लिए यह सिद्धांत आम तौर पर स्वीकृत नहीं है। माना जाता है कि सिनेमा आम दर्शक के मनोरंजन के लिए बनता है। इस मनोरंजन वाले सिनेमा को ही मेनस्ट्रीम या व्यावसायिक सिनेमा कहते हैं। टीवी सीरियल की ‘क्वीन‘ कही जाने वाली एकता कपूर ने जिस फिल्म ‘लव, सेक्स और धोखा‘ का निर्माण किया है, वह व्यावसायिक सिनेमा नहीं है। ऐसी फिल्में सार्थक, अर्थपूर्ण या रियलिटी सिनेमा की श्रेणी में आती हैं। यदि आप सिनेमा में कुछ तलाशने, कुछ पाने, कुछ सोचने के लिए जाते हैं तो तत्काल यह फिल्म देख आइए। आपको इसमें यथार्थवादी सिनेमा का नया आस्वाद मिलेगा। निर्देशक दिबाकर बनर्जी इसमें समकालीनता का नया मुहावरा गढ़ते नजर आते हैं। देश के छोटे बड़े शहरों में रोज घट रही अप्रिय घटनाओं में से कुछ सच्चाइयां उठा कर पर्दे पर हूबहू पेश करने की एकदम नयी शैली अपनाई है निर्देशक ने। यह शैली हमारे सौंदर्यबोध को झटका भी दे सकती है। इस फिल्म को हम ‘डॉक्यू ड्रामा‘ भी कह सकते हैं क्योंकि फिल्म बनाने का स्टाइल ‘डॉक्यूमेंट्री‘ जैसा ही है। फिल्म देखते समय हम उसका एक हिस्सा बन जाते हैं एक पंक्ति में फिल्म को परिभाषित करना हो तो कहेंगे -‘सच की गली में हुआ स्टिंग हैं ऑपरेशन।‘
एक फिल्म में कई कहानियों वाली कई फिल्में पहले भी बन चुकी हैं। इसमें भी तीन कहानियां हैं। पहली फिल्म में राहुल और श्रुति जैसे युवा प्रेमी युगल की परिणति उनकी नृशंस हत्या में होती है। दूसरी फिल्म में, अपने सिर पर चढ़ा कर्ज उतारने के लिए आदर्श पहले रश्मि के साथ प्यार का ड्रामा करता है फिर उसके साथ सेक्स करते समय उसकी फिल्म बना लेता है। बाद में इस फिल्म को बेच कर वह अपना कर्जा उतार देता है। तीसरी फिल्म में मुख्यतः तीन पात्र हैं। पत्रकार प्रभात, डांसर नैना और पाॅप सिंगर लोकी लोकल। इस फिल्म में ग्लैमर की दुनिया में चल रहे यौन शोषण का ‘स्टिंग ऑपरेशन‘ किया गया है। उद्देश्य सिर्फ अपने चैनल की टीआरपी बढ़ा कर पैसा कमाना है। स्टिंग हैं ऑपरेशन के दौरान पत्रकार प्रभात पॉप सिंगर की गोली का शिकार बन जाता है। फिर वह चैनल की मालकिन को हैं ऑपरेशन का वीडियो फुटेज देने से इनकार कर देता है। इन तीनों फिल्मों के समाप्त हो जाने के बाद फिल्म के सभी पात्र प्रोड्यूसर के घर पर इकट्ठा होते हैं। फिल्म के ‘टाइटल सांग‘ के फिल्मांकन पर फिल्म खत्म होती है। एक नितांत प्रयोगधर्मी फिल्म है जिसके सातों मुख्य चरित्र नये हैं। आदर्श और रश्मि के किरदार में राजकुमार यादव और नेहा चैहान ने जीवंत अभिनय किया है।

निर्देशक: दिबाकर बनर्जी
कलाकार: अंशुमान झा, श्रुति, राजकुमार यादव, नेहा चैहान, आर्या देवदत्ता, हैरी टेंगरी, अमित सयाल
संगीत: स्नेहा खानवलकर

Saturday, March 13, 2010

राइट या रांग

फिल्म समीक्षा

सच को तलाशती ‘राइट या रांग‘

धीरेन्द्र अस्थाना

कई प्रसिद्ध फिल्मों के लेखक नीरज पाठक की बतौर निर्देशक पहली फिल्म है ‘राइट या रांग।‘ इस फिल्म की कई विशेषताएं हैं। पहली-बहुत दिनों बाद कोई फिल्म नैतिक मूल्यों से जुड़े कुछ असुविधाजनक सवालों से जूझ कर ‘अंतिम सत्य‘ तलाशने का प्रयास करती है। दूसरी - फिल्म की पटकथा इतनी कसी हुई है कि सभी किरदारों ने कट-टु-कट अभिनय किया है, फिल्म में कोई झोल नहीं है। तीसरी - आज के दौर में जो ‘समकालीन‘ सिनेमा रचा जा रहा है उसके उलट यह फिल्म ‘एक्शन-थ्रिलर-इमोशन‘ का दो-ढाई दशक पुराना ड्रामा रचने के बावजूद सफल फिल्म है। पूरी फिल्म दर्शकों को अपने साथ अंत तक न सिर्फ बांधे रखती है बल्कि थोड़ी-थोड़ी देर बाद वैचारिक तथा भावनात्मक झटके भी देती चलती है। अंतिम विशेषता - सिनेमा के प्राचीनतम सिद्धांत, बुराई पर अच्छाई की विजय, से जोरदार मुठभेड़ करते हुए फिल्म यह साबित करती है कि सत्य निरपेक्ष नहीं होता। यथार्थ का मूल्यांकन हालात की रोशनी में ही संभव है। इस सत्य को निरूपित करने की प्रक्रिया में, बहुत समय बाद कोई फिल्म, स्थूल अर्थों में नकारात्मक मूल्यों के समर्थन में भावनात्मक तूफान खड़ा करती नजर आती है। अगर सिनेमा हॉल के भीतर दर्शक ‘खलनायक दिखाई देते किरदार‘ के पक्ष में तालियां बजा रहे हैं तो इसका सीधा मतलब है कि निर्देशक की ‘जिरह‘ कामयाब है। फिल्म के ज्यादातर पात्र समर्थ अभिनेता हैं - सनी देओल, इरफान खान से लेकर कोंकणा सेनशर्मा तक - इसलिए हम अभिनय की बात नहीं करेंगे। बात कुछ सवालों की। अगर पत्नी बेवफा हो जाए तो क्या उसका मर्डर करना उचित है? क्या व्यस्त पतियों की पत्नियों को बेवफा हो जाना चाहिए? क्या अपना सबसे प्यारा दोस्त कानून तोड़ दे तो उसके खिलाफ न्याय की लड़ाई लड़ना ही सच्चा कर्तव्य है? क्या इच्छा शक्ति के बल पर कानून और नैतिकता की मशीनरी को मात दी जा सकती है? क्या बेटे के भविष्य के लिए कानून को धोखा देना तार्किक है? अपनी ‘एक्शन और थ्रिलर पैक्ड‘ फिल्म में नीरज ने इन्हीं सब सवालों पर बहस छेड़ी है। इस बहस को पर्दे पर घटते देखना रोचक और रोमांचक दोनों है। कमजोर पब्लिसिटी और जीरो प्रोमोशन के चलते पहले दिन सिनेमा हाॅल खाली रहे लेकिन आने वाले दिनों में ‘मौखिक प्रचार‘ के कारण फिल्म का ‘व्यवसाय‘ जोर पकड़ सकता है। समीर थोक के भाव लिखते हैं इसलिए अब यादगार गीत दे पाना उनके वश में नहीं रहा। मोंटी शर्मा का संगीत भी साधारण है। इरफान खान और कोंकणा सेन शर्मा अपने अभिनय से गजब का ‘टकराव‘ और ‘रिद्म‘ पैदा करते हैं। एक बार देख लें।

निर्देशक: नीरज पाठक
कलाकार: सनी देओल, ईशा कोप्पिकर, कोंकणा सेन शर्मा, इरफान खान, आरव चैधरी, गोविंद नामदेव, दीपल शाॅ।
गीत: समीर
संगीत: मोंटी शर्मा

Saturday, March 6, 2010

अतिथि तुम कब जाओगे

फिल्म समीक्षा

अतिथि, तुम तो आते रहना

धीरेन्द्र अस्थाना

फिल्म का नाम भले ही ‘अतिथि तुम कब जाओगे‘ रखा गया है लेकिन इसका संदेश यही है कि अतिथि तुम आते रहना। हिंदी के प्रख्यात व्यंग्यकार स्वर्गीय शरद जोशी की व्यंग्य रचना ‘अतिथि तुम कब जाओगे‘ का न सिर्फ शीर्षक फिल्म के लिए लिया गया है बल्कि उस रचना की कुछ पंक्तियों को फिल्म की व्याख्या के लिए बतौर नेरेशन भी पेश किया गया है। फिल्म के निर्देशक अश्वनी धीर हैं जो शरद जोशी की रचनाओं पर बने एक धारावाहिक ‘लापतागंज‘ को भी निर्देर्शित कर रहे हैं। यह सीरियल कई दिनों से चल रहा है। बतौर प्रोड्यूसर यह अमिता पाठक की पहली फिल्म है। खुशी की बात है कि बॉलीवुड में लगातार युवा लड़कियां निर्माता के तौर पर भी आ रही हैं।
फिल्म की दो चार कमजोरियों पर चर्चा करने से पहले बता देते हैं कि दर्शक निश्चिंत हो कर, पूरे परिवार के साथ यह फिल्म देखने जा सकते हैं। यह एक बड़ी मजेदार और घरेलू टाइप की अपनी सी लगती फिल्म है। इंटरवल तक फिल्म का ताना बाना और कथानक इतना कसा हुआ है कि हमें पता ही नहीं चलता कि इंटरवल आ गया? प्रतिभावान अभिनेत्री कोंकणा सेन शर्मा की संबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह अभिनेत्री नहीं लगतीं। वह फिल्म में भी वह हमारे आसपास की किसी हाउसिंग सोसायटी में रहने वाली आम फहम घरेलू स्त्री नजर आती हैं। वह एकदम सतह से उठता हुआ अभिनय करती हैं। विश्वसनीय और जिंदादिल। मूलतः यह फिल्म कुल तीन किरदारों अजय देवगन, कोंकणा सेन शर्मा तथा परेश रावल पर ही केंद्रित है। लेकिन सतीश कौशिक और अखिलेंद्र मिश्र के होने से फिल्म को गति और उप कथाएं मिलती हैं। परेश रावल तो खैर कॉमेडी के बादशाह हैं लेकिन इतनी ज्यादा कॉमेडी फिल्में करने के बावजूद अजय देवगन का चेहरा अभी भी एक अजीब सी गंभीरता में तना रहता है। इस गंभीरता को जस्टीफाई करने के लिए ही निर्देशक ने शायद फिल्म के अंत से पहले वाले एक दृश्य में अजय से एक गंभीर संदेश दिलवा दिया है। वैसे अजय देवगन अब परिपक्व हो चुके हैं। उनका अभिनय फिल्म को प्रभावी बनाता है। अब कुछ नाकामियों और विचलन पर। परेश रावल का ‘गैस विसर्जन‘ कुछ ज्यादा हो गया है। इंटरवल के बाद निर्देशक के हाथ से फिल्म फिसलनी शुरू होती है तो फिर फिसलती ही जाती है। अंत में यह दिखा कर कि परेश रावल गलती से गलत घर में मेहमान बन कर आ गये थे, फिल्म को बिखरने से रोक लिया गया है। इंटरवल के बाद का ‘निर्देशकीय कन्फ्यूजन‘ दर्शकों को स्पष्ट समझ में आता है। फिल्म अवांछित अतिथि के आने के पक्ष में है या विपक्ष में, इसका जबर्दस्त भ्रम बन जाता है। दो-एक उपकथाएं भी गैर जरूरी नहीं तो लंबी जरूर हो गयी हैं। तो भी एक बेहतर और रोचक फिल्म है।

निर्देशक : अश्विनी धीर
कलाकार: अजय देवगन, कोंकणा सेन शर्मा, परेश रावल, सतीश कौशिक, अखिलेंद्र मिश्रा
संगीत: प्रीतम चक्रवर्ती